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 bihar board 10 class civics notes – लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

bihar board 10 class civics notes – लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

bihar board 10 class civics notes

class – 10

subject – civics

lesson 1 – लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

मुख्य बातें – पिछली कक्षा में हमने लोकतंत्र की जानकारी प्राप्त की थी  अब हम यह देखेंगे कि सामाजिक विषमता , जातीय विषमता , सांप्रदायिक विविधता , लिंग भेद जैसे तत्व लोकतंत्र को  किस प्रकार प्रभावित करती है।
लोकतांत्रिक शासन – व्यवस्था में लोग ही शासन के केन्द्र बिन्दु होते हैं । 1961 में मुम्बई में मराठियों की संख्या 34 % थी जो 2001 में बढ़कर 57 % से ऊपर हो गयी । दक्षिण भारत से चेन्नई , बंगलूर और हैदराबाद में विकास के कारण दक्षिण भारत , मुम्बई आने वाले की संख्या कम हो गई है । लगभग 49 % प्रवासी ही उत्पादन कार्य में लगे हुए हैं । मुम्बई में भारत सरकार के कई उपक्रम लगे हुए हैं जिसमें सभी भारतीयों का पैसा लगा है ।
लेकिन पिछले दिनों कुछ राजनेताओं ने अपनी इच्छा पूर्ति के लिए मराठी मानुष की भावनाओं को भड़काया जिसके फलस्वरूप उत्तर हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को बेरहमी से पीटा तथा मुम्बई छोड़ने पर मजबूर कर दिया |
इसी प्रकार रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा में बिहारी छात्रों के साथ मारपीट की गई । अर्थात् मुंबई एवं मैसूर में हिंसात्मक कार्रवाई का आधार क्षेत्रीय विभाजन था|
इसी प्रकार बेल्जियम में सामाजिक विभाजन का आधार नस्ल और जाति नहीं बल्कि भाषा विभाजन का आधारिक है । श्रीलंका में सामाजिक विभाजन क्षेत्रीय और सामाजिक दोनों स्तर पर है । लेकिन इसके विपरीत भारत में संस्कृति के अंतर , भाषाओं के अंतर , अंगड़ी एवं पिछड़ी जातियों के बीच के तनाव के कारण सामाजिक विभाजन बहुत ही जटिल है ।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के विभिन्न स्वरूप हैं । मुम्बई , दिल्ली आदि में बिहारी के साथ हिंसात्मक व्यवहार क्षेत्रीय भावना के आधार पर सामाजिक बँटवारे का उदाहरण है ।
कोई भी व्यक्ति जन्म के साथ ही किसी समुदाय का सदस्य बन जाता है । दलित परिवार में जन्म लेनेवाला उस समुदाय का स्वाभाविक सदस्य हो जाता है । लेकिन व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करता है । एक ही परिवार से कोई सदस्य शैव , शाक्त , वैष्णव धर्म में विश्वास करता है । फलतः उनके समुदाय अलग हो जाते हैं तथा समुदायों के हित साधना एक – दूसरे के विपरीत हो सकती है । अत : हम सभी की एक से ज्यादा पहचान होती है । सामाजिक विभाजन तुब होता है जुब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं । जैसे सवर्णों और दलितों का अंतर एक सामाजिक विभाजन है क्योंकि संपूर्ण देश में आमतौर पर गरीब , वंचित एवं बेघर है और भेदभाव के शिकार हैं जबकि सवर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं । इसी प्रकार अमेरिका में श्वेत एवं अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन है । कोई भी देश कितना भी बड़ा हो या छोटा , सामाजिक विभाजन और विभिन्नता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है । टकराव एवं सामंजस्य लोकतंत्र की नीतियों के निर्धारण का आधार होते हैं । पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का मुहिम कई वर्षों पहले शुरू हुआ । कई हिंसक तनावों एवं जहोजद के बाद यह व्यवस्था लागू हो पाई । सत्तर के दशक के पूर्व भारत की राजनीति में सवर्ण का वर्चस्व रहा । सत्तर से नब्बे तक के दशक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़ी जातियों में सत्ता झूलती रही । नब्बे के दशक के उपरांत पिछड़ी जातियों का वर्चस्व रहा । अत : सरकार की नीतियों में दलित न्याय की पहचान सबके केन्द्र में रहीं । दुनिया के अधिकतर देशों में किसी – न – किसी किस्म का सामाजिक विभाजन है । लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक विभाजनों की बात करना और विभिन्न समूहों से अलग – अलग वायदे करना बड़ी स्वाभाविक बात है ।
सामाजिक विभाजन की राजनीति तीन तत्वों पर निर्भर करती है-
( i ) प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उपराष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी होते हैं । जब भी कोई एक चेतना या स्थानीय चेतना भी होते हैं । जब भी कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है । उदाहरण के लिए जबतक बंगाल बंगालियों का , तमिलनाडु तमिलों का , महाराष्ट्र मराठियों का , आसाम असमियों का , गुजरात गुजरातियों का , की भावना का दमन नहीं होगा तबतक भारत की अखंडता , एकता और सामंजस्य खतरे में रहेगा । अगर लोग अपने बहु – स्तरीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा मान लें तो कोई समस्या नहीं होती । यही वजह है कि हमारा देश अखंडता और एकता का प्रतीक है|
( ii ) किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की माँगों को राजनीति दलों की तरफ से उठाना । संविधान के दायरे में आनेवाली और दूसरे लेकिन वैसी मांगें जो समुदाय को नुकसान न पहुँचाने वाली मांगों को मान लेना आसान होता है के हितों को नुकसान पहुँचा सकती हैं , समाज को तोड़ सकती हैं ।
( iii ) सरकार की इन पिछड़ों , दलितों के प्रति न्याय की माँग को सरकार शुरू से ही खारिज करती रहती तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता |
राजनीति में विभिन्न प्रकार के सामाजिक विभाजन ऐसे विभाजनों के बीच संतुलन पैदा करने का काम करती है । अत : कोई भी सामाजिक विभाजन हद से ज्यादा उग्र नहीं हो पाता तथा लोकतंत्र को मजबूत करता है ।
सामाजिक विभाजन की अभिव्यक्तियों में जाति की अवधारणा अति महत्वपूर्ण होती है । पेशे पुर आधारित सामुदायिक व्यवस्था जाति कहलाती है । इनकी पहचान एक अलग समुदाय के रूप में होती है । अपने समुदाय से हटकर दूसरे समुदाय में वैवाहिक संबंध बनाने वाले परिवार को समुदाय से निष्कासित कर दिया जाता है । जातिगत समुदाय का बहुत बड़ा वर्ग है – वर्ण – व्यवस्था । इसमें एक जाति के लोग सामाजिक पायदान में सबसे ऊपर होंगे तो किसी अन्य जाति समूह के लोग क्रमागत रूप से नीचे । जिसमें ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र क्रमानुसार व्यवस्था है । इस उपस्थित जातियों के साथ छुआछूत का व्यवहार होने लगा । ये जातियाँ सत्ता से पूर्णरूप से वंचित रहीं । परंतु पिछली शताब्दी में दलित जातियाँ भी जागृत हुई । ज्योतिबा फुले , महात्मा गाँधी , डॉ . भीमराव अंबेदकर जैसे राजनेताओं के मार्गदर्शन मुक्त समाज बनाने में सफल भी हुए । असमानता की एक प्रमुख वजह जाति होती है । क्योंकि जिस जाति की पहुँच संसाधनों पर अधिक होगी वे उतने अधिक सम्पन्न होंगे । लेकिन जाति तथा सत्ता में एकपक्षीय संबंध नहीं होते । करीब – करीब समान स्थिति वाले कई जातीय समुदायों को जोड़कर गठबंधन बनाया जाता है ।

संपूर्ण भारत की राजनीति आज पिछड़े दलित अल्पसंख्यकों तथा वंचित समुदाय के इर्द – गिर्द घूम रही है । अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए राजनेता इनकी स्थिति सुधारने में लगे हैं जिनके फलस्वरूप भारत का सर्वांगीण विकास हो रहा है । यह राजनीति का सकारात्मक पहलू है । जाति के अतिरिक्त वर्ग के आधार पर भी सामाजिक विभाजन होता है । भारत में एक ही धर्म के कई विश्वास की परम्परा है । राजनीति में विभिन्न धमों के अच्छे विचारों , आदशों का समावेश हो तो देश का कल्याण ही होगा । हर व्यक्ति को एक धार्मिक समुदाय के तौर पर अपनी जरूरतों , हितों के लिए आवाज उठानी चाहिए लेकिन प्रहरी के तौर पर यह देखना चाहिए कि किसी धर्म – विशेष के साथ भेदभाव न हो ।
साम्प्रदायिकता के अनुसार एक धर्म – विशेष में आस्था रखने वाले एक ही समुदाय के सदस्यों के मौलिक हित एक जैसे होते हैं । इनके अनुसार दूसरे धर्म के लोगों की सोच और हित उनसे विपरीत होती है जिनसे तनाव की गुंजाइश बढ़ जाती है । हमारे संविधान निर्माताओं को सांप्रदायिकता के इस समस्या का आभास पहले से ही था । अतः भारत में शासन का धर्मनिरपेक्ष मॉडल चुना गया । धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान की बुनियाद है । लैंगिक असमानता सामाजिक असमानता का एक महत्वपूर्ण रूप है जो संरचना के हर क्षेत्र में दिखाई देता है । लड़के और लड़कियों के पालन – पोषण में अंतर परिवार में शुरू से ही होता है । महिलाओं के कार्यक्षेत्र को घर के अंदर ही सीमित कर दिया जाता है । महिलाओं में साक्षरता दर आज भी मात्र 54 % है जबकि 74 % पुरुषों में । अनेक हिस्सों में माँ – बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है । लड़की को जन्म देते ही मार देने की प्रवृत्ति होती है । शिक्षा में लड़कियों के इसी पिछड़ेपन के कारण अब भी ऊँचे तनख्वाह वाले और ऊँचे पदों पर पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है ।

प्रश्नोत्तर

1. हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती । कैसे ?
Ans . व्यक्ति समुदाय या जाति का चुनाव करना उसके अपने वश की बात नहीं होती है । कुछ व्यक्ति जन्म के कारण ही किसी समुदाय का स्वाभाविक सदस्य हो जाता है तो कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म – परिवर्तन कर लेता है । एक ही परिवार का कोई सदस्य शैव , शाक्य , वैष्णव धर्म में विश्वास करता है । अत : सामाजिक विभाजन का आधार निश्चित नहीं होता । अत : सामाजिक विभिन्नता , सामाजिक विभाजन का आधार नहीं होता है । कभी – कभी दो भिन्न समुदायों के उपद्रवियों आचार – विचार भिन्न होते हैं लेकिन उनके हित समान होते हैं । उदाहरण के तौर पर मुम्बई में मराठियों के हिंसा के शिकार व्यक्तियों की जातियाँ भिन्न थीं , धर्म भिन्न थे लेकिन उनका क्षेत्र एक समान था । वे सभी एक क्षेत्र यानि उत्तर भारत से संबंधित थे । ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले भारतीय विद्यार्थी भारतीय समाज के विभिन्न समुदाय से संबद्ध हो सकते हैं लेकिन अपने समूहों की सीमा से परे उनके समान उद्देश्य का कारण समानता थी जिसके कारण सभी भारतीय छात्र कुछ ऑस्ट्रेलियाई उपद्रवियों के शिकार हुए । अतः हर सामाजिक विभिन्नता , सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती ।

2. सामाजिक अंतर कब और कैसे सामाजिक विभाजन का रूप ले लेती है ?
Ans . सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरो अनेक विभिन्नताओं कब और कैसे सामाजिक विभाजनों का रूप ले लेती है ? देश में आमतौर पर गरीब , वचित एवं बेघर हैं और भेदभाव के शिकार हैं जबकि सवर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं , अत : दलितों को महसूस होने लगता है कि वे औरों से भिन्न हैं ।
अत : जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अंतरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है तो सामाजिक विभाजन को स्थिति उत्पन्न हो जाती है । जैसे अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन है ।
उदाहरणस्वरूप उत्तरी आयरलैंड और नीदरलैंड दोनों इसाई बहुल देश हैं । यहाँ के लोग प्रोस्टेंट और कैथोलिक दो खेमों में बँटे हुए हैं । लेकिन दोनों गुटों के बीच सामाजिक विभाजन का आधार एक जैसा नहीं है । उत्तरी आयरलैंड के कैथोलिक समुदाय गरीब हैं तथा लंबे समय से शोषण के शिकार रहे हैं । अत : उत्तरी आयरलैंड के कैथोलिकों के बीच समानता एवं एकता दिखाई देती है । जबतक नीदरलैंड में कैथोलिक एवं प्रोस्टेंट दोनों अमीर – गरीब हैं । अत : उत्तरी आयरलैंड में कैथोलिकों एवं प्रोस्टेंटों के बीच सीधे रूप में मार – काट चलती रहती है जबकि नीदरलैंड में ऐसा कुछ नहीं है क्योंकि वहाँ धर्म एवं वर्ग के बीच कोई मेल नहीं है ।

3. सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप ही लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है । भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में इसे स्पष्ट करें|  
Ans . कोई भी देश चाहे छोटा या बड़ा हो , सामाजिक विभाजन और विभिन्नता का प्रभाव उसकी राजनीति पर अवश्य ही पड़ता है । ये नीतियाँ आसानी से निर्धारित नहीं होती । परिस्थितियों के परिणामस्वरूप अंत में सभी इसे स्वीकार कर लेते हैं ।
भारतीय गणतंत्रात्मक शासन में भी पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की मुहिम भी कई वर्षों पहले शुरू हुई थी लेकिन लंबे जद्दोजहद तथा हिंसक तनावों के बाद ही यह व्यवस्था शुरू हो पाई । ऐसी परिस्थितियों में राजनीतिक पार्टियाँ भी जाति आधारित निर्णय लेने लगती हैं । भारत में 1967 तक सवर्णों का राजनीति में वर्चस्व रहा । सत्तर से नब्बे दशक तक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़ी जातियों का वर्चस्व रहा । नब्बे के दशक के उपरांत पिछड़ी जातियों का वर्चस्व रहा तथा सत्ता की नीतियों को प्रभावित करती रही लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक विभाजनों की बात करना और अलग – अलग समूहों से अलग – अलग वायदे करना स्वाभाविक है |
विभिन्न समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व देना तथा विभिन्न समुदायों को उचित माँगों और जरूरतों को पूरा करनेवाली नीतियाँ बनाना भी इसी कड़ी का हिस्सा है । कई पार्टियाँ अपने समुदाय पर ध्यान देती हैं तथा उसी के अनुसार अपनी नीतियाँ निर्धारित करती हैं ।
4. सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र के सफर ( सामाजिक न्याय के संदर्भ में ) का संक्षिप्त वर्णन करें ।
Ans . सत्तर के दशक के पूर्व भारत की राजनीति सुविधापरस्त हित समूहों के बीच रही । अर्थात 1967 तक राजनीति में सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहा । सत्तर से नब्बे के दशक तक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़ी जातियों में सत्ता – कब्जा के लिए संघर्ष चला । नब्बे दशक के उपरांत पिछड़ी जातियों का वर्चस्व तथा दलितों को जागृति की अवधारणाएँ राजनीति गलियारों में उपस्थिति दर्ज कराती रही और नीतियों को प्रभावित करती रहीं । आधुनिक दशक के वर्षों में राजनीति पलड़ा दलितों और महादलितों के पक्ष में झुकता रहा है ।

5. सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम किन – किन बातों पर निर्भर करता है ?
Ans . सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करता है ( 1 ) लोग अपनी स्व – चेतना को स्व – अस्तित्व तक ही सीमित रखना चाहते हैं क्योंकि हर मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उपराष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी विद्यमान होती हैं । जब कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं पर हावी होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है ।
उदाहरण के तौर पर जब तक बंगाल बंगालियों का , तमिलनाडु तमिलों का , महाराष्ट्र मराठियों का , आसाम आसामियों का , गुजरात गुजरातियों का , की भावना खत्म नहीं होगी तब तक भारत की अखंडता खतरे में रहेगी । अत : जब तक लोग अपने बहु – स्तरीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा मानते हैं तब तक कोई समस्या नहीं होती है । जैसे भारत विभिन्नताओं का देश है , फिर भी सभी नागरिक सर्वप्रथम अपने को भारतीय मानते हैं जिसके कारण हमारा देश अखंडता तथा एकता का प्रतीक है ।

( ii ) दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीतिक दल किसी दूसरे समुदाय को न नुकसान पहुँचाने वाली माँगों को मान लेना आसान होता है । उदाहरण के लिए भारत में सत्ता के दशक पूर्व का राजनीति स्वरूप तथा आज के राजनीतिक परिदृश्य में सामंजस्य बरकरार है । इसके विपरीत युगोस्लाविया में विभिन्न समुदाय के नेताओं ने अपने जातीय समूहों की तरफ से ऐसी माँगे रख दी , जिन्हें एक देश की सीमा के अंदर पूरा करना असंभव था अतः  युगोस्लाविया टूट गया|
( iii ) तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार इन मांगों पर क्या प्रतिक्रिया देती है । अगर सरकार ने भारत में पिछड़ों , दलितों के प्रति न्याय की माँग को सरकार शुरू से ही खारिज करती रही तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता । लेकिन सरकार इनके सामाजिक न्याय की मांगों को उचित मानते हुए दलितों एवं पिछड़ों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का ईमानदारी से प्रयास किया । अतः छोटे – छोटे संघर्षों के बावजूद भारतीय समाज में एकता स्थापित है ।

6. सामाजिक विभाजनों को संभालने के संदर्भ में इनमें से कौन – सा कथन लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लागू नहीं होता ?
( क ) लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण सामाजिक विभाजनों की छाया राजनीति पर भी पड़ती है ।
( ख ) लोकतंत्र में विभिन्न समुदायों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से अपनी शिकायतें जाहिर करना संभव है ।
( ग ) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों को हल करने का सबसे अच्छा तरीका है ।
( घ ) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों के आधार पर समाज के विखंडन की ओर ले जाता है ।
Ans . ( घ )
7. निम्नलिखित कथनों पर विचार करें ।
( क ) जहाँ सामाजिक अंतर एक – दूसरे से टकराते हैं , वहाँ सामाजिक विभाजन होता है ।
( ख ) यह संभव है कि एक व्यक्ति की कई पहचान हो|
( ग ) सिर्फ भारत जैसे बड़े देशों में ही सामाजिक विभाजन होते हैं ।
इन कथनों में से कौन – कौन से बयान सही हैं ?
( अ ) क , ख और ग
( ब ) क और ख
( स ) ख और ग
( द ) सिर्फ ग
Ans . ( ब ) क और ख

5. निम्नलिखित व्यक्तियों में कौन लोकतंत्र में रंगभेद के विरोधी नहीं थे ?
( क ) किंग मार्टिन लूथर ( ख ) महात्मा गाँधी
( ग ) ओलंपिक धावक टोमी स्मिथ एवं जॉन कालेंस ( घ ) जेड गुडी
Ans . जेड गुडी ।
9. निम्नलिखित का मिलान करें –
( क ) पाकिस्तान     ( अ ) धर्मनिरपेक्ष
( ख ) हिन्दुस्तान.    ( ब ) इस्लाम
( ग ) इंग्लैंड             ( स ) प्रोस्टेंट
Ans . ( क ) – ( ब ) , ( ख ) – ( अ ) , ( ग ) – ( स ) ।

10. भावी समाज में लोकतंत्र की जिम्मेवारी और उद्देश्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें ।
Ans . आज के समाज में लोकतंत्र की जिम्मेवारी बहुत बढ़ जाती है । आज के समाज में विभिन्न प्रकार के सामाजिक विभाजन पाए जाते हैं तथा लोकतंत्र का उद्देश्य यह होना चाहिए कि इन सामाजिक विभाजनों तथा विभिन्न प्रकार की असमानताओं में सामंजस्य बिठाते हुए देश की अखंडता को बरकरार रखें ।
आज समाज में जाति , धर्म , लिंग , साम्प्रदायिकता आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है । धार्मिक पूर्वाग्रह परम्परागत धार्मिक अवधारणाएँ एवं एक धर्म को दूसरे धर्मों से श्रेष्ठ मानने को मान्यताओं के कारण हम हमेशा अपने आस – पास साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति को महसूस करते हैं । जाति प्रथाओं के कारण अधिकांशतः शादी – ब्याह अपनी ही जाति में होना उत्तम माना जाता है । स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद हमारे समाज में अभी भी छुआ – छूत विद्यमान है | सदियों से कुछ जातीय समूह लाभकर स्थिति में हैं तो कुछ को दबाया जा रहा है । कुछ दलित जातियाँ अभी भी शिक्षा से वंचित हैं । अतः वे पिछड़े हैं तथा शहरी सबल वर्ग जागृत है । अत : सबल वर्ग की सामाजिक वर्ग भी अच्छी होती है । पुराने जमाने में अछूतों को जर्मीन रखने का अधिकार नहीं था , शिक्षा पाने का भी अधिकार नहीं था । आज भी निचली जातियों यथा दलितों , आदिवासियों में ज्यादा बड़ी संख्या में गरीबी है ।
अतः राजनीति में जातिगत भावनाओं का सदुपयोग होना चाहिए । राजनीतिक पार्टियाँ जीत हासिल करने के लिए जातिगत भावनाओं को भड़काने की कोशिश करते हैं जो नहीं होनी चाहिए । इसके विपरीत उच्च वर्भ या जाति के उम्मीदवार भी नीची जाति के मतदाताओं के सम्मुख नम्र भावना से जाते हैं तो उनमें भी आत्म गौरव की भावना जाग जाती है । इनसे राजनैतिक चेतना के सुअवसर प्राप्त होती है । राजनीतिक आवश्यकताओं के कारण जाति विशेष को साथ लेने की कोशिश करता है जो कभी उससे अलग था । भारत में एक ही धर्म के कई विश्वास की परम्परा है जैसे हिन्दू धर्म में ही शैव , वैष्णव , कबीर , जैन आदि ।
अलग – अलग धर्म के लोगों के हित भी अलग होते हैं । जब किसी समुदाय विशेष की भावना उग्र होते हैं तो यह तनाव भी उग्र होने लगता है और हिंसात्मक विरोध शुरू हो जाता है । एक धार्मिक समुदायों के लोगों के द्वारा दूसरे धर्म के अनुयायियों पर आक्रमण कर देना , उनका विरोध करना अथवा उनको देश से बाहर निकालना न तो तार्किक है न न्यायसंगत ।
अत : भारत के संविधान में किसी धर्म – विशेष को किसी राजकीय धर्म का दर्जा नहीं दिया गया है । हर नागरिक को यह अधिकार है कि वह किसी भी धर्म को अंगीकार कर सकता है । संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक है ।
अत : इन सारी कठिनाइयों के बीच सामंजस्यतापूर्ण रिश्ते रखते हुए भारत की अखंडता , अक्षुण्णता तथा वृद्धि को बनाए रखना ही भावी समाज के प्रति हमारे लोकतंत्र की जिम्मेदारी तथा उद्देश्य है ।

11. बताइए भारत में किस प्रकार जातिगत असमानताएँ जारी हैं ?
Ans . दुनिया भर के समाज में सामाजिक असमानताएँ एवं श्रम – विभाजन पर आधारित समुदाय विद्यमान हैं । जब कोई पेशा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहता है तो पेशे पर आधारित यह सामाजिक व्यवस्था ही जाति कहलाती है । इनकी पहचान एक अलग समुदाय के रूप में होती है । इनके बेटे – बेटियों की शादी – ब्याह भी आपस के समुदाय के रूप में ही होती तथा खान – पान भी समान समुदाय में ही होता है । अन्य समुदाय में इनके संतानों की शादी न तो हो सकती है और न ही करने की कोशिश करते हैं । महत्वपूर्ण पारिवारिक आयोजनों में अपने समुदाय के साथ एक मांद में बैठकर भोजन करते हैं । अपने समुदाय से हटकर दूसरे समुदाय में वैवाहिक संबंध बनाने वाले परिवार को समुदाय से निष्कासित कर दिया जाता है ।
हमारे देश में वर्ण – व्यवस्था पाई जाती है जिसमें एक जाति के लोग सामाजिक पायदान में सबसे ऊपर होते हैं । उदाहरण के लिए हिंदुओं के लिए ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शूद्र का क्रमानुसार व्यवस्था है । शुरू में यह केवल श्रम आधारित था तथा उनमें आपस में खान – पान तथा शादी – ब्याह होता था लेकिन धीरे – धीरे यह व्यवस्था कठिन एवं स्थायी होने लगी । वर्ण – व्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मण तथा क्षत्रिय की स्थिति संतोषजनक है तथा शूद्र की स्थिति असंतोषजनक है । भारतीय समान अगड़ों और पिछड़ों में विभाजित हो चुका है । राजनीति की सत्ता की बागडोर आज भी उज्च जातियों के हाथ में है । निचले पदक्रम पर उपस्थित जातियों के साथ छुआछूत का व्यवहार करने लगा । ये दलित जातियाँ सत्ता से पूर्णरूपेण वाचत हैं । लेकिन पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ज्योतिबा फूले , महात्मा गाँधी , डॉ . भीमराव अंबेडकर जैसे राजनेताओं तथा समाज सुधारकों की कोशिशों से भेदभाव मुक्त समाज बनाने की कोशिश की गई तथा इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिली ।
फिर भी जाति प्रथा का पूर्णरूपेण उन्मूलन नहीं हो सका है । स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान के बावजूद सदियों से कुछ जातीय समूह लाभकर स्थिति में हैं तथा कुछ को दबाया जा रहा है । कुछ जातीय समुदाय अभी भी शिक्षा से वंचित हैं । अत : वें शिक्षा से वंचित हैं ”

12. दो कारण बताएं कि क्यों सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते ?

Ans . सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते क्योंकि –
1. किसी भी निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया जा सकता कि उसमें मात्र एक ही जाति रहे । एक जाति के मतदाता की संख्या अधिक हो सकती है परन्तु दूसरे जाति के मतदाता भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं । अतः हर पार्टी एक था एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा हासिल करना चाहता है ।
2. कोई पार्टी विशेष केवल एक ही जाति के वोट हासिल कर सत्ता में नहीं आ सकता है । जब लोग किसी जाति विशेष को किसी एक पार्टी का वोट बैंक कहते हैं तो इसका मतलब यह है कि उस जाति के ज्यादातर लोग उसी पार्टी को वोट देते हैं ।

13. विभिन्न तरह की सांप्रदायिक राजनीति का ब्यौरा दें तथा सबके साथ एक – एक उदाहरण भी दें |
Ans . धार्मिक पूर्वाग्रह , परंपरागत धार्मिक अवधारणाएँ एवं एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की मान्यताएँ ही सांप्रदायिकता की भावना को जन्म देती हैं । हमारी राजनीति में सांप्रदायिकता के विभिन्न स्वरूप हैं –
1. सांप्रदायिकता की सोच के अनुसार प्रायः लोग अपने धार्मिक समुदाय का महत्व राजनीति में बरकरार रखना चाहते हैं । जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उनकी यह कोशिश बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेती है । जैसे – श्रीलंका में सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद । यहाँ की सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम रखने के लिए कई कदम उठाए जैसे -1956 ई . में सिंहली को एकमात्र राजभाषा घोषित कर दिया , विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देना , बौद्ध धर्म को संरक्षण देना आदि । 2. सांप्रदायिकता के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी सांप्रदायिकता का दूसरा रूप है । इसके लिए पवित्र प्रतीकों , धर्म गुरुओं और भावनात्मक अपील इत्यादि का सहारा लिया जाता है । मतदान के वक्त अक्सर किसी खास धर्म के अनुयायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने की अपील कराई जाती है । 3. जब संप्रदाय के आधार पर हिंसा , दंगा और नरसंहार होता तो इस सांप्रदायिकता का भयावह रूप होता है । हमने इसे विभाजन के वक्त झेला है ।

14. जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र करें जिसमें भारत की स्त्रियों के साथ भेदभाव है या वे कमजोर स्थिति में हैं ?
Ans . लैंगिक विभेद पर आधारित सामाजिक विभाजन सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र दोनों में पाए जाते हैं । लड़के और लड़कियों के पोषण के दौरान ही परिवार में यह भावना घर कर जाती है कि लड़कियों की मुख्य जिम्मेदारी गृहस्थी चलाने और बच्चों के पालन – पोषण तक सीमित होती है । उनका काम खाना बनाना , कपड़ा साफ करना , सिलाई – कढ़ाई करना , बच्चे का पालन – पोषण करना इत्यादि होता है । महिलाएं अपने घरेलू कार्य में अतिरिक्त आमदनी के लिए कई कार्य करती हैं लेकिन इन्हें महत्व नहीं दिया जाता । अधिकांश सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र पुरुषों के हाथ में हैं । राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य है । सर्वप्रथम इंग्लैंड में 1919 ई . में महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ था ।
महिलाओं में साक्षरता को दर मात्र 54 फीसदी है जबकि पुरुषों में 74 फीसदी है । स्कूली शिक्षा में लड़कियाँ अव्वल होती हैं लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाली लड़कियों की संख्या कम है । इस कारण ऊँची तनख्वाह वाले और ऊँचे पदों पर पहुँचने वाली महिलाओं की संख्या कम है । एक सर्वेक्षण के अनुसार एक औरत रोजाना 7/2 घंटे काम करती है जबकि पुरुष 6 घंटे । फिर भी औरतों के काम का महत्व नहीं होता । आज भी भारत के अनेक हिस्से में सिर्फ लड़के की चाह होती है । आज भारत के लोक सभा में महिलाओं की संख्या 59 हो गई है फिर भी इसका प्रतिशत 11 के नीचे ही है ।
राजनीति में आनेवाली महिलाएं भी वैसे परिवार से संबद्ध रखती हैं जिनकी पृष्ठभूमि राजनीतिक हो । आम परिवार की महिलाओं को राजनीति में आने का बहुत ही कम अवसर मिलता है ।

15. भारत की विधायिकाओं में महिलाओं की स्थिति कैसी है ?
Ans . भारत की विधायिकाओं में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं है । औरतों के प्रति समाज के घटिया नजरिए के कारण ही महिला आंदोलनों की शुरुआत हुई जिसमें उनकी मांगों में सत्ता में भागीदारी प्रमुख थी । यद्यपि आज भारत की लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 59 है फिर भी इसका प्रतिशत 11 के नीचे ही है । पिछली लोकसभा चुनाव में 40 प्रतिशत महिलाओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि भारत की महिला सांसदों में 30 % सांसद् स्नातक हैं । पराधिक थी लेकिन इस बार अपराधिक पृष्ठभूमियों की सांसदों को नकार दिया गया ।

16. किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र करें जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाता है |
Ans . हमारे देश में धर्मनिरपेक्ष शासन की स्थापना के लिए कई प्रावधान हैं जैसे-
1. संविधान में हर नागरिक को यह स्वतंत्रता दी गई है कि अपने विश्वास से वह किसी धर्म को अंगीकार कर सकता है । इस आधार पर उसे किसी अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता है । प्रत्येक धर्मावलंबी को अपने धर्म का पालन करने अथवा शांतिपूर्ण ढंग से प्रचार करने का अधिकार है । इसके लिए वह शिक्षण संस्थाओं को स्थापित एवं संचालित भी कर सकता है|

2. हमारे सविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक घोषित है ।

17. जब हम लैंगिक विभाजन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय होता है-
( क ) स्त्री और पुरुष के बीच जैविक अंतर ।
( ख ) समाज द्वारा स्त्रियों और पुरुषों को दी गई असमान भूमिकाएँ ।
( ग ) बालक और बालिकाओं की संख्या का अनुपात| ( घ ) लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं को मतदान का अधिकार न मिलना ।
Ans . ( ख ) समाज द्वारा स्त्रियों और पुरुषों को दी गई असमान भूमिकाएँ ।

18. भारत में यहाँ औरतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है-
( क ) लोकसभा , ( ख ) विधानसभा , ( ग ) मंत्रीमंडल , ( घ ) पंचायती राज व्यवस्था ।
Ans . ( घ ) पंचायती राज व्यवस्थाएँ ।

19. सांप्रदायिक राजनीति का अर्थ संबंधित निम्न कथनों पर गौर करें । सांप्रदायिक राजनीति किस आधार पर आधारित है ?
( क ) एक धर्म दूसरे से श्रेष्ठ है ।
( ख ) विभिन्न धर्मों के लोग समान नागरिक के रूप में खुशी – खुशी साथ रहते हैं ।
( ग ) एक धर्म के अनुयायो एक समुदाय बनाते हैं । ( घ ) एक धार्मिक समूह का प्रभुत्व बाकी सभी धर्मों पर कायम रहने में शासन की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता ।
Ans . ( क ) एक धर्म दूसरे से श्रेष्ठ है ।

20. भारतीय संविधान के बारे में कौन – सा कथन गलत है ?
( क ) यह धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है ।
( ख ) यह एक धर्म को राजकीय धर्म बनाता है ।
( ग ) सभी लोगों को कोई भी धर्म मानने की आजादी देता है ।
( घ ) किसी धार्मिक समुदाय में सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है ।
Ans . ( ख ) यह एक धर्म को राजकीय धर्म बनाता है|

21 . ……….. पर आधारित विभाजन सिर्फ भारत में है । Ans . वर्ण – व्यवस्था ।

22. सूची 1 एवं सूची 2 का मेल करें –
1. अधिकारों एवं अवसरों के मामले में स्त्री और     पुरुष की बराबरी मानने वाला व्यक्ति – ( क ) सांप्रदायिक
2 . धर्म को समुदाय का मुख्य आधार मानने वाला व्यक्ति    – ( ख ) नारीवादी
3. जाति को समुदाय का मुख्य आधार माननेवाला व्यक्ति – ( ग ) धर्मनिरपेक्ष
4. व्यक्तियों के बीच धार्मिक आस्था के आधार पर भेदभाव न करनेवाला व्यक्ति -( घ ) जातिवादी
Ans . 1. ( ख ) , 2. ( क ) , 3. ( घ ) , 4. ( ग ) ।| 

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