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 Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 3

Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में चक्रीय प्रवाह को समझाइए।
उत्तर:
चार क्षेत्रीय मॉडल खुली अर्थव्यवस्था को प्रदर्शित करता है। चार क्षेत्रीय चक्रीय प्रवाह मॉडल में विदेशी क्षेत्र या शेष विश्व क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है। वर्तमान समय में अर्थव्यवस्था का स्वरूप खुली अर्थव्यवस्था का है जिसमें वस्तुओं का आय एवं निर्याता होता है।

y = C + I + G + (X – M)
यहाँ y = आय या उत्पादन
C = उपभोग व्यय
I = निवेश व्यय
G = सरकारी व्यय
(X – M) = शुद्ध निर्यात (यहाँ X = निर्यात तथा M = आयात)

खुली अर्थव्यवस्था में आय प्रवाह के पाँच स्तम्भ होते हैं-
1. परिवार क्षेत्र- यह क्षेत्र उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। यह क्षेत्र अपनी सेवा के बदले मजदूरी लगान, ब्याज, लाभ के रूप में आय प्राप्त करते हैं। वे सरकार से कुछ निश्चित हस्तारण भी प्राप्त करते हैं। यह क्षेत्र उत्पादक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीद पर अपनी आय खर्च करता है और सरकार को कर भुगतान भी करता है। यह क्षेत्र अपनी आय का कुछ भाग बचा लेता है जो पूँजी बाजार में चला जाता है।

2. उत्पादक क्षेत्र- उत्पादक क्षेत्रक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है जिसका उपयोग परिवार तथा सरकार द्वारा किया जाता है। फर्मे वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री से आय प्राप्त करती है। यह क्षेत्र निर्यात आय की प्राप्त करती है।

फर्मे साधन सेवाएँ प्राप्त करती हैं तथा उन्हें भुगतान करती हैं। फर्मों को अपनी वस्तुओं की बिक्री एवं उत्पादन पर सरकार को कर भुगतान करना पड़ता है। कुछ फर्मे सरकार से अनुदान भी प्राप्त करती हैं। फर्म अपनी आय का एक भाग बचाती है जो पूँजी बाजार में जाता है।

3. सरकारी क्षेत्र- सरकार परिवार एवं उत्पादक दोनों क्षेत्रों से कर वसुलता है। सरकार परिवारों का हस्तांतरण भुगतान तथा फर्मों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। अन्य क्षेत्रक की भाँति सरकारी क्षेत्रक भी बचत करता है जो कि पूँजी बाजार में जाता है।

4. शेष विश्व- शेष विश्व निर्यात के लिए भुगतान प्राप्त करता है। यह क्षेत्र सरकारी खातों पर भुगतान प्राप्त करता है।

5. पूँजी बाजार- पूँजी बाजार तीनों क्षेत्रकों परिवार, फर्मों तथा सरकार की बचतें एकत्रित करता है। यह क्षेत्र परिवार, फर्म तथा सरकार को पूँजी उधार देकर निवेश करता है। पूँजी बाजार में अन्तर्प्रवाह तथा बाह्य प्रवाह बराबर होते हैं।

प्रश्न 2.
समष्टि अर्थशास्त्र में अत्यधिक माँग का अर्थ बताइए। इसके सुधार के लिए किन्हीं चार मौद्रिक नीति उपायों की व्याख्या करें।
उत्तर:
यदि अर्थव्यवस्था में सामूहिक माँग एवं सामूहिक पूर्ति में संतुलन पूर्ण रोजगार स्तर के बाद होता है तो यह अतिरेक या अत्यधिक माँग की स्थिति होती है। अन्य शब्दों में अतिरेक माँग तब उत्पन्न होती है जब सामूहिक माँग पूर्ण रोजगार स्तर पर सामूहिक पूर्ति से अधिक होती है। अर्थात् AD > AS

अतिरेक माँग में सुधार के लिए चार मौद्रिक उपाय निम्नलिखित हैं-

  • बैंक दर को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि साख विस्तार का संकुचन हो और माँग में कमी हो सके।
  • केन्द्रीय बैंक को खुले बाजार में प्रतिभूतियाँ बेचनी चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था में क्रयशक्ति कम हो।
  • नकद कोष अनुपात में वृद्धि की जानी चाहिए ताकि साख का कम विस्तार हो।
  • तरलता अनुपात को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि साख के विस्तार को कम किया जा सके।

प्रश्न 3.
लोचशील विनिमय दर प्रणाली के गुण तथा दोषों की व्याख्या करें।
उत्तर:
लोचशील विनिमय दर प्रणाली के निम्नलिखित गुण हैं-

  • सरल प्रणाली- यह एक सरल प्रणाली है जिसमें विनिमय दर वहाँ निर्धारित होती है जहाँ माँग एवं पूर्ति में साम्य स्थापित हो जाता है। इसमें बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है।
  • सतत समायोजन- इसमें सतत समायोजन की गुंजाइश होती है। इस प्रकार दीर्घकालीन असंतुलन के विपरीत प्रभावों से बचा जा सकता है।
  • भुगतान संतुलन में सुधार- लोचपूर्ण विनिमय दर होने पर भुगतान शेष में संतुलन आसानी से पैदा किया जा सकता है।
  • संसाधनों का कुशलतम उपयोग- लोचपूर्ण विनिमय दर साधनों के कुशलतम उपयोग के अवसर प्रदान करती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में कार्य कुशलता के स्तर को बढ़ाती है।

लोचपूर्ण विनिमय दर प्रणाली के कुछ दोष भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • निम्न लोच के दुष्परिणाम- यदि विनिमय दरों की लोच काफी कम है तो विदेशी विनिमय बाजार अस्थिर होगा जिसके फलस्वरूप दुर्लभ मुद्रा के केवल मूल्य ह्रास से ही भुगतान संतुलन की स्थिति बिगड़ जाएगी।
  • अनिश्चितता- लोचपूर्ण विनिमय दर अनिश्चितता उत्पन्न करने वाली होती है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और पूँजी की गतिशीलता के लिए घातक है।।
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में अस्थिरता अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता का कारण बनती है। आयात तथा निर्यात संबंधी दीर्घकालीन नीतियाँ बनाना कठिन हो जाता है।

प्रश्न 4.
विनिमय दर से क्या अभिप्राय है ? विनिमय दरों को प्रभावित करने वाले मुख्य कारकों का वर्णन करें।
उत्तर:
विनिमय दर का अभ्रिपाय : विनियम दर वह दर है जिस पर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है। दूसरे शब्दों में, विदेशी विनिमय दर यह बताती है किसी देश की मुद्रा की एक इकाई के बदले में दूसरे देश की मुद्रा की कितनी इकाइयाँ मिल सकती हैं।

इस प्रकार विनिमय दर घरेलू मुद्रा के रूप में दी जाने वाली वह कीमत जो विदेशी मुद्रा की, एक इकाई के बदले दी जाती है।

क्राउथर के अनुसार, “विनिमय दर, एक देश की इकाई मुद्रा के बदले दूसरे देश की मुद्रा को मिलने वाली इकाइयों की एक माप है।”

विनिमय दरों को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक :
(i) व्यापार परिवर्तन : विदेशी विनिमय की माँग तथा पूर्ति, निर्यातों तथा आयातों के परिवर्तन पर निर्भर करती है। यदि निर्यात, आयातों से अधिक हैं तो घरेलू मुद्रा की माँग बढ़ती है जिससे विनिमय दर घरेलू देश के पक्ष में परिवर्तित होती है किन्तु यदि आयात, निर्यातों से अधिक है तो विदेशी मुद्रा की माँग बढ़ती है तथा विनिमय दर देश के प्रतिकूल हो जाती है।

(ii) पूँजी प्रवाह : अल्पकालीन अथवा दीर्घकालीन पूँजी प्रवाह भी विनिमय दरों को प्रभावित करता है। यदि अमेरिका भारत में निवेश के लिए पूँजी का प्रवाह है तो विनिमय बाजार में भारतीय रुपए की माँग बढ़ेगी जिससे भारतीय रुपए का अमरीकन डॉलर में मूल्य बढ़ जाएगा।

(iii) प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय : स्टॉक एक्सचेंज के सौदे, विदेशी प्रतिभूतियों-शेयर्स ऋण-पत्रों आदि के लेन-देन विदेशी विनिमय तथा विनिमय दर को प्रभावित करते हैं।

(iv) बैंक दर : बैंक दर भी विनिमय दरों को प्रभावित करती है। यदि बैंक दर को बढ़ाया जाता है तो देश में विदेशों से ऊँची ब्याज की दर कमाने के उद्देश्य से अधिक कोषों का प्रवाह होगा। इससे विदेशी विनिमय की पूर्ति बढ़ेगी तथा विनिमय दर, विदेशी मुद्रा के प्रतिकूल होगी। बैंक दर के कम होने से इसके विपरीत प्रभाव पडेगा।

(v) सट्टेबाजी क्रियाएँ : विनिमय बाजार में सट्टे की क्रियाएँ विनिमय दर को प्रभावित करती हैं। यदि सट्टेबाज, विदेशी मुद्रा के मूल्य में कमी की सम्भावना रखते हैं तो वह उसे बेचना आरम्भ * कर देंगे जिससे विनिमय दर विदेशी मुद्रा के प्रतिकूल तथा घरेलू मुद्रा के पक्ष में परिवर्तित होगी।

प्रश्न 5.
अवसर लागत की अवधारणा की व्याख्या करें।
उत्तर:
अवसर लागत (Opportunity cost)- अवसर लागत की अवधारणा लागत की आधुनिक अवधारणा है। किसी साधन की अवसर लागत से अभिप्राय दूसरे सर्वश्रेष्ठ प्रयोग में उसके मूल्य से है। दूसरे शब्दों में किसी साधन को अवसर लागत वह लागत है जिसका उस साधन को किसी एक कार्य में कार्यरत होने के फलस्वरूप दूसरे वैकल्पिक कार्य को नहीं कर पाने के कारण त्याग करना पड़ता है। प्रो० लैपटविच के अनुसार किसी वस्तु की अवसर लागत उन परित्याक्त (छोड़े गये) वैकल्पिक पदार्थों का मूल्य होती है, जिन्हें इस वस्तु के उत्पादन में लगाये गये साधनों द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है। अवसर लागत की अवधारणा के संबंध में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं-

  • अवसर लागत किसी वस्त को उत्पादन लागत के सर्वोत्तम विकल्प के लगने की लागत है।
  • अवसर लागत का आकलन साधनों की मात्रा के आधार पर न करके उसके मौद्रिक मूल्य के आधार पर किया जाना चाहिए। अवसर लागत को साधन की हस्तान्तरण आय भी कहा जाता है।

अवसर लागत की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। माना कि भूमि के एक टुकड़े पर गेहूँ, चने, आलू व मटर की खेती की जा सकती है। एक किसान उस टुकड़े पर साधनों की एक निश्चित मात्रा का प्रयोग करते हुए 400 रुपए के मूल्य के गेहूँ का उत्पादन करता है। इस प्रकार वह चने, आलू तथा मटर के उत्पादन का त्याग करता है। जिनका मूल्य क्रमशः 3200, 2000 तथा 1500 रुपए है। इन तीनों विकल्पों में चने का उत्पादन सर्वोत्तम विकल्प है। अतः गेहूँ उत्पादन की अवसर लागत 3200 रुपए होगी।

प्रश्न 6.
माँग के निर्धारक तत्त्वों की विवेचना करें।
उत्तर:
बाजार माँग किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी उपभोक्ताओं द्वारा माँगी गई मात्राओं को प्रकट करता है। व्यक्तिगत माँग वक्रों के समस्त जोड़ के द्वारा बाजार माँग वक्र खींचा जा सकता है।

बाजार माँग को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित कारक हैं-
(i) वस्तु की कीमत (Price of a commodity)- सामान्यतः किसी वस्तु की माँग की मात्रा उस वस्तु की कीमत पर आश्रित होती है। अन्य बातें पूर्ववत् रहने पर कीमत कम होने पर वस्तु की माँग बढ़ती है और कीमत के बढ़ने पर माँग घटती है। किसी वस्तु की कीमत और उसकी माँग में विपरीत सम्बन्ध होता है।

(ii) संबंधित वस्तुओं की कीमतें (Prices of related goods)- संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं-
पूरक वस्तुएँ तथा स्थानापन्न वस्तुएँ- पूरक वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो किसी आवश्यकता को संयुक्त रूप से पूरा करती हैं और स्थानापन्न वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग की जा सकती हैं। पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की मांग भी कम हो जाती है।

(iii) उपभोक्ता की आय (Income of Consumer)- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर सामान्यतया उसके द्वारा वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है।

आय में वृद्धि के साथ अनिवार्य वस्तुओं की माँग एक सीमा तक बढ़ती है तथा उसके बाद स्थिर हो जाती है। कुछ परिस्थितियों में आय में वृद्धि का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा खाने-पीने की सस्ती वस्तुओं में होता है। जैसे नमक आदि।
विलासितापूर्ण वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ लगातार बढ़ती रहती है।

घटिया (निम्नस्तरीय) वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ कम हो जाती है लेकिन सामान्य वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ बढ़ती है और आय में कमी से कम हो जाती है।

(iv) उपभोक्ता की रुचि तथा फैशन (Interest of Consumer and Fashion)- परिवार या उपभोक्ता की रुचि भी किसी वस्तु की माँग को कम या अधिक कर सकती है। किसी वस्तु का फैशन बढ़ने पर उसकी माँग भी बढ़ती है।

(v) विज्ञापन तथा प्रदर्शनकारी प्रभाव (Advertisement and Demonstration Effect)- विज्ञापन भी उपभोक्ता को किसी विशेष वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार । या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(vi) जनसंख्या की मात्रा और बनावट (Quantity and Composition of Population) अधिक जनसंख्या का अर्थ है परिवारों की अधिक संख्या और वस्तुओं की अधिक माँग। इसी प्रकार जनसंख्या की बनावट से भी विभिन्न वस्तुओं की माँग निर्धारित होती है।

(vii) आय का वितरण (Distribution of Income)- जिन अर्थव्यवस्थाओं में आय का वितरण समान है वहाँ वस्तुओं की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत जिन अर्थव्यवस्थाओं में आय का वितरण असमान है, वहाँ वस्तुओं की माँग कम होगी।

(viii) जलवायु तथा रीति-रिवाज (Climate and Customs)- मौसम, त्योहार तथा विभिन्न परम्पराएँ भी वस्तु की माँग को प्रभावित करती हैं। जैसे-गर्मी के मौसम में कूलर, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक आदि की माँग बढ़ जाती है।

प्रश्न 7.
मुद्रा-पदार्थ के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मुद्रा वास्तव में किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है। किसी देश की आर्थिक प्रगति मुद्रा पर निर्भर करती है इसलिए ट्रेस्काट ने कहा है कि “यदि मुद्रा हमारी अर्थव्यवस्था का हृदय नहीं तो रक्त प्रवाह अवश्य है।”

मुद्रा के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  • मुद्रा आधुनिक अर्थव्यवस्था का आधार है।
  • मुद्रा से उपभोक्ता को लाभ पहुँचता है।
  • मुद्रा से विनिमय व्यवस्था का आधार है।
  • मुद्रा से विनिमय के क्षेत्र में लाभ होता है।
  • ऋणों के लेनदेन तथा अग्रिम भुगतान में सुविधा।
  • पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन।
  • मुद्रा की गतिशीलता प्रदान करती है।
  • मुद्रा साख का आधार है।

प्रश्न 8.
एकाधिकार क्या है ? इसकी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
एकाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु का एक ही उत्पादक अथवा एक ही विक्रेता होता है तथा उसकी वस्तु का कोई निकट स्थानापन्न नहीं होता है।

एकाधिकार बाजार की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  • एक विक्रेता तथा अधिक क्रेता।
  • एकाधिकारी फर्म और उद्योग में अन्तर नहीं होता।
  • एकाधिकारी बाजार में नई फर्मों के प्रवेश पर बाधाएँ होती हैं।
  • वस्तु की कोई निकट प्रतिस्थापन्न वस्तु नहीं होती।
  • कीमत नियंत्रण एकाधिकारी द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 9.
संतुलित बजट, बचत बजट और घाटे के बजट में भेद कीजिए।
उत्तर:
बजट के मुख्यतः तीन प्रकार हैं-

  1. संतुलित बजट,
  2. बचत बजट,
  3. घाटे का बजट

1. संतुलित बजट (Balanced Budget)- संतुलित बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय तथा व्यय दोनों बराबर होते हैं।
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संतुलित बजट का आर्थिक क्रियाओं के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके कारण न तो संकुचनकारी शक्तियाँ और न ही विस्तारवादी शक्तियाँ काम कर पाती हैं। प्रो० केज के अनुसार विकसित देशों में महामन्दी तथा बेरोजारी के समाधान हेतु और अर्द्धविकसित देशों के विकास के लिए संतुलित बजट उपयुक्त नहीं है क्योंकि संतुलित बजट द्वारा इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता।

2. बचत बजट (Surplus Budget)- यह वह बजट है जिसमें सरकार की अनुमानित आय सरकार के अनुमानित व्यय से अधिक होती है।
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स्फीतिक दशाओं में बचत का बजट वांछनीय होता है क्योंकि बचत का बजट अर्थव्यवस्था में सामूहिक माँग के स्तर को घटाकर स्फीतिक अन्तराल को कम करने में सहायक होता है। बचत के बजट में सरकारी व्यय के सरकारी आय से कम हो जाने के कारण यह मंदी की दशाओं में वांछनीय नहीं है।

3. घाटे का बजट (Deficit Budget)- घाटे का बजट वह बजट है जिसमें सरकार की अनुमानित आय सरकार के अनुमानित व्यय से कम होती है।
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घाटे के बजट का तात्पर्य यह है कि सरकार जितनी मात्रा में मुद्रा अर्थव्यवस्था में खप सकती है, उससे अधिक मात्रा में मुद्रा अर्थव्यवस्था में प्रवाहित कर दी जाती है। फलतः अर्थव्यवस्था में विस्तारवादी शक्तियाँ बलवती हो उठती हैं।

प्रश्न 10.
उत्पादन फलन से आप क्या समझते हैं ? इसकी मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
उत्पादन का अभिप्राय आगतों अथवा आदानों को निर्गत में बदलने की प्रक्रिया से है। भूमि, श्रम, पूँजी तथा उद्यम उत्पादन के साधन या कारक हैं। उत्पादन या निर्गत इन साधनों के संयुक्त प्रयोग का परिणाम होता है। उत्पादन के साधनों को आगत तथा उत्पादन की मात्रा को निर्गत की संज्ञा दी जाती है। उत्पादन फलन एक दी हुई तकनीक के अंतर्गत आगतों एवं निर्गतों के संबंध की व्याख्या करता है। निर्गत को आगतों का फल या परिणाम कहा जा सकता है। इस प्रकार उत्पादन फलन इस तथ्य को व्यक्त करता है कि एक दी हुई प्रौद्योगिकी में आगतों के विभिन्न संयोग से निर्गत को कितनी अधिकतम मात्रा का उत्पादन संभव है।

मान लें कि हम उत्पादन के दो साधनों भूमि और श्रम का प्रयोग करते हैं। इस स्थिति में हम उत्पादन फलन को निम्नांकित रूप में व्यक्त कर सकते हैं। q = f(x1, x2)

इससे यह पता चलता है कि हम आगत x1 और x2 का प्रयोग कर वस्तु की अधिकतम मात्रा q का उत्पादन कर सकते हैं।

माँग फलन की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं।

  • उत्पादन फलन विभिन्न आगतों के अनुकूलतम प्रयोग से निर्गत के अधिकतम स्तर को दर्शाता है।
  • यह एक निश्चित अवधि के अंतर्गत आगत और निर्गत के संबंध की व्याख्या करता है।
  • उत्पादन फलन वर्तमान तकनीकी ज्ञान से निर्धारित होता है।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय आय की कठिनाइयों का वर्णन करें।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय की माप करने में प्रायः कई कठिनाइयाँ होती हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं-

  • राष्ट्रीय आय की गणना के लिए कोई भी प्रणाली क्यों न अपनाई जाए, पर्याप्त एवं विश्वसनीय आँकड़ों की हमेशा कमी रहती है।
  • राष्ट्रीय आय की गणना करते समय कई बार एक ही आय को दुबारा गिन लिया जाता है। उदाहरण के लिए एक वकील की आय में उसकं सहायक की आय भी सम्मिलित रहती है तथा इन दोनों की पृथक रूप से गणना नहीं होनी चाहिए।
  • प्राय: कुछ वस्तुओं का उत्पादन स्वयं उपभोग कर लेते हैं या उनका अदल-बदल अर्थात् अन्य वस्तुओं से विनिमय करते हैं। राष्ट्रीय आय को मापने में ऐसी वस्तुओं के मूल्यांकन की भी कठिनाई उत्पन्न होती है।

प्रश्न 12.
पूर्णतया लोचदार माँग और पूर्णतया बेलोचदार माँग में अंतर कीजिए।
उत्तर:
जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं होने पर भी अथवा बहुत सूक्ष्म परिवर्तन होने पर माँग में बहुत अधिक परिवर्तन हो जाता है तब उस वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार कही जाती है। पूर्ण लोचदार माँग को अनंत लोचदार माँग भी कहते हैं। इस स्थिति में एक दी हुई कीमत पर वस्तु की माँग असीम या अनंत होती है तथा कीमत में नाममात्र की वृद्धि होने पर शून्य हो जाती है। माँग पूर्ण लोचदार होने पर माँग वक्र X-अक्ष के समानांतर होता है जिसे नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है-
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जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने पर भी उसको माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता है तो इसे पूर्णतया बेलोचदार माँग कहते हैं। इस स्थिति में माँग की लोच शून्य होती है जिसके फलस्वरूप माँग वक्र Y-अक्ष के समानांतर होता है। नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है-
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प्रश्न 13.
पूर्ति की कीमत लोच का क्या अर्थ है ? प्रतिशत प्रणाली द्वारा पूर्ति की लोच को कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
पूर्ति की लोच अथवा पूर्ति की कीमत लोच, वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण उसकी पूर्ति की प्रतिक्रियाशीलता को प्रदर्शित करता है। पूर्ति की कीमत लोच की धारणा हमें यह बताती है कि कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप किसी वस्तु की पूर्ति में किस दर या अनुपात में परिवर्तन होता है। सरल शब्दों में, पूर्ति की लोच वस्तु की कीमत में हुए प्रतिशत परिवर्तन के फलस्वरूप पूर्ति में होनेवाले प्रतिशत परिवर्तन को व्यक्त करता है।

पूर्ति की कीमत लोच को मापने की दो मुख्य विधियाँ हैं-प्रतिशत प्रणाली और ज्यामितिक प्रणाली। प्रतिशत अथवा आनुपातिक प्रणाली में पूर्ति की लोच को मापने का सूत्र इस प्रकार है-
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इस सूत्र को बीजगणितीय रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है-
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जहाँ, Δq पूर्ति की मात्रा में परिवर्तन, १ प्रारंभिक पूर्ति, D कीमत में परिवर्तन तथा p प्रारंभिक कीमत को प्रदर्शित करता है।

यदि सत्र es = ΔqΔp×pq का परिणाम 1 अर्थात इकाई हो तो किसी वस्तु की पूर्ति समलोचदार है, यदि परिणाम इकाई से अधिक है तो पूर्ति अधिक लोचदार है और यदि परिणाम इकाई से कम है तो पूर्ति कम लोचदार है।

प्रश्न 14.
कुल लागत से आप क्या समझते हैं ? कुल स्थिर लागत वक्र का आकार क्या होता है ?
उत्तर:
किसी वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त समस्त आगतों पर होने वाला व्यय कुल लागत कहलाता है। यह कुल स्थिर आगतों (जैसे-भूमि, मशीन, उपकरण आदि) पर व्यय तथा कुल परिवर्ती आगतों (जैसे–कच्चा माल, श्रम, बिजली आदि) पर किए जाने वाले व्यय का योगफल होता है।
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कुल स्थिर लागतें स्थायी साधन-आगतों का प्रयोग करने के लिए वहन की जाती हैं। उत्पादन अर्थात् निर्यात की मात्रा में परिवर्तन होने पर भी इन लागतों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। उदाहरण के लिए, एक चीनी मिल प्रायः वर्ष में 3-4 महीने बंद रहती है। फिर भी इसके स्वामी को कारखाने का किराया, ऋणों का ब्याज तथा स्थायी कर्मचारियों के वेतन आदि का भुगतान करना होता है। स्पष्ट है कि फर्म को इस प्रकार की लागतें प्रत्येक अवस्था में वहन करनी होती हैं। इसे नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है।

उपरोक्त रेखाचित्र से यह स्पष्ट है कि कुल स्थिर लागत (TFC) वक्र X-अक्ष के समानांतर होती है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्गत के प्रत्येक स्तर पर कुल स्थिर लागतें एक समान रहती हैं।

प्रश्न 15.
उपभोग की औसत तथा सीमांत प्रवृत्ति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
उपभोग की प्रवृत्ति आय एवं उपभोग के कार्यात्मक संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग प्रवृत्ति. की व्याख्या करने के लिए केन्स ने उपभोग की औसत तथा सीमांत प्रवृत्ति की धारणाओं का प्रयोग किया है। उपभोग की औसत प्रवृत्ति (APC) कुल उपभोग तथा कुल आय का अनुपात है। यह एक विशेष समय पर कुल आय एवं कुल उपभोग के पारस्परिक संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग की औसत प्रवृत्ति कुल उपभोग में कुल आय से भाग देकर निकाली जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति का कुल वास्तविक आय 1,000 रुपये है जिसमें से वह 800 रुपये उपभोग पर खर्च करता है तब उपभोग की औसत प्रवृत्ति (APC) 800/1,000 अथवा 0.80 होयी। यदि हम कुल आय को Y तथा कुल उपभोग को C से व्यक्त करें तो उपभोग की औसत प्रवृत्ति का सूत्र इस प्रकार होगा-

APC = cy

उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति (MPC) आय में होनेवाले परिवर्तनों के फलस्वरूप उपभोग में होनेवाले परिवर्तन के अनुपात को बताता है। दूसरे शब्दों में, उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति कुल आय में इकाई परिवर्तन के फलस्वरूप उपभोग में हुए परिवर्तन का अनुपात है। इससे इस बात का भी पता चलता है कि आय में होनेवाली अतिरिक्त वृद्धि को उपभोग एवं बचत के बीच किस प्रकार विभक्त किया जाता है। उदाहरण के लिए, मान लें कि जब कुल आय 1,000 रुपये से बढ़कर 1,010 रुपये हो जाती है तब उपभोग की मात्रा 800 रुपये से बढ़कर 806 रुपये हो जाती है। इस अवस्था में आय में अतिरिक्त वृद्धि 10 रुपये तथा उपभोग में 6 रुपये है। अतः उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति (MPC) 6/10 अर्थात 0.60 होगी। यदि हम परिवर्तन को Δ (डेल्टा) चिह्न से व्यक्त करें तो उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति का निम्नांकित सूत्र होगा-
MPC = ΔcΔy

प्रश्न 16.
व्यापार संतुलन एवं भुगतान संतुलन में अंतर कीजिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में प्रत्येक देश विदेशों से कुछ वस्तुओं और सेवाओं का आयात तथा निर्यात करता है। व्यापार एवं भुगतान-संतुलन का संबंध दो देशों के बीच इनके लेन-देन से है। परंतु, व्यापार एवं भुगतान-संतुलन एक ही नहीं हैं, वरन् इन दोनों में थोड़ा अंतर है। व्यापार-संतुलन से हमारा अभिप्राय आयात और निर्यात के बीच अंतर से है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रत्येक देश कुछ वस्तुओं का आयात तथा कुछ का निर्यात करता है। आयात तथा निर्यात की यह मात्रा हमेशा बराबर नहीं होती। आयात तथा निर्यात के इस अंतर को ही ‘व्यापार-संतुलन’ कहते हैं।

व्यापार- संतुलन की अपेक्षा भुगतान-संतुलन की धारणा अधिक विस्तृत एवं व्यापक है। इन दोनों के अंतर को समझने के लिए दृश्य एवं अदृश्य व्यापार के अंतर को स्पष्ट करना आवश्यक है। जब देश से निधि सहित वस्तुएँ किसी अन्य देश को निर्यात की जाती हैं अथवा बाहरी देशों से उनका आयात होता है, तो बंदरगाहों पर इनका लेखा कर लिया जाता है। इस प्रकार की मदों को विदेशी व्यापार की दृश्य मदें कहते हैं। परंतु, विभिन्न देशों के बीच आयात-निर्यात की ऐसी मदें, जिनका लेखा बंदरगाहों पर नहीं होता, विदेशी व्यापार की अदृश्य मदें कहलाती हैं। भुगतान-संतुलन में विदेशी व्यापार की दृश्य तथा अदृश्य दोनों प्रकार की मदें आती हैं, जबकि व्यापार-संतुलन में केवल विदेशी व्यापार की दृश्य मदों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार, भुगतान-संतुलन का क्षेत्र व्यापार-संतुलन से अधिक विस्तृत होता है।

प्रश्न 17.
सीमान्त उपयोगिता की परिभाषा दीजिए तथा सीमान्त उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता के संबंध को बतलाइए।
उत्तर:
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के उपभोग से जो अतिरिक्त उपयोगिता मिलती है, उसे सीमान्त उपयोगिता कहते हैं।

सीमान्त उपयोगिताn = कुल उपयोगताn – कुल उपयोगिताn-1
MUn = TUn – TUn-1
प्रो० बोल्डिंग के अनुसार, किसी वस्तु को दी हुई मात्रा को सीमांत उपयोगिता कुल उपयोगिता होनेवाली वह वृद्धि है, जो उसके उपभोग में एक इकाई के बढ़ने के परिणामस्वरूप होती हैं। कुल उपयोगिता (TLY) उपभोग की विभिन्न इकाइयों से प्राप्त सीमांत उपयोगिता का योग है।

सीमांत उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता से संबंध :
MU एवं TU में संबंध को निम्न तालिका एवं चित्र द्वारा निरुपित किया जा सकता है-
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उपरोक्त तालिका एवं चित्र से MU एवं TU के निम्न संबंध को बतलाया जा सकता है-
(क) प्रारंभ में कुल उपयोगिता एवं सीमांत उपयोगिता दोनों घनात्मक होती है।
(ख) जब सीमांत उपयोगिता घनात्मक है चाहे वह घट रही हो, तब तक कुल उपयोगिता बढ़ती है। तालिका में इकाई 1 से 4 चित्र में A से E बिन्दु की स्थिति।
(ग) जब सीमांत उपयोगिता शन्यू हो जाती है, तब कुल उपयोगिता अधिकतम होती है। तालिका में पाँचवीं शकई पर MUO एवं TU अधिकतम 100 है। चित्र में E तथा B बिन्दुओं की स्थिति। बिन्दु E उच्चतम तथा बिन्दु E पर उपभोक्ता शून्य उपयोगिता के कारण पूर्ण तृप्त है।
(घ) जब सीमांत उपयोगिता ऋणात्मक होती है (इकाई 6 एवं 7) तब कुल उपयोगिता घटने लगती है। चित्र में TU में E से F तक की स्थिति एवं MU में B बिन्दु से G बिन्दु की स्थिति।

प्रश्न 18.
पूर्ति के कीमत लोच को परिभाषित कीजिए। इसके निर्धारक तत्व कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
पूर्ति की कीमत लोच किसी वस्तु की कीमत में होनेवाले परिवर्तन के परिणामस्परूप उसके पूर्ति में होनेवाले परिवर्तन की साथ है।

मार्शल के अनुसार ”पूर्ति की लोच से अभिप्राय कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप पूर्ति की मात्रा में होनेवाले परिवर्तन से है।”

पूर्ति के लोच के निर्धारक तत्व निम्नलिखित हैं-
(क) वस्तु की प्रकृति- टिकाऊ वस्तु की पूर्ति लोच अपेक्षाकृत लोचदार होती है एवं शीघ्र नाशवान वस्तुओं की पूर्ति अपेक्षाकृत बेलोचदार होती है।

(ख) उत्पादन लागत- यदि उत्पादन बढ़ने पर औसत लागत में तेजी से वृद्धि होती है तो पूर्ति की लोच कम होगी। यदि उत्पादन बढ़ने पर औसत लागत धीमी गति से बढ़ती है तो पूर्ति की लोच अधिक होगी।

(ग) भावी कीमतों में परिवर्तन- भविष्य में कीमत बढ़ने की आशा रहने पर उत्पादक वर्तमान पूर्ति कम करेंगे एवं पूर्ति बेलोचदार हो जाएगी। इसके विपरीत भविष्य में कीमत कम होने की आशा रहने पर पूर्ति अधिक होगी।

(घ) प्राकृतिक कारण- प्राकृतिक कारणों से कई वस्तुओं की पूर्ति नहीं बढ़ाई जा सकती। जैसे-लकड़ी।

(ङ) उत्पादन की तकनीक-उत्पादन तकनीक जटिल होने पर पूर्ति बेलोचदार होगी एवं उत्पादन तकनीक सरल होने पर पूर्ति लोचदार होगी।

(च) समय तत्व-समय तत्व को तीन भागों में बाँटा जाता है-

  • अति अल्पकाल में पूर्ति पूर्णतया बेलोचदार होती है क्योंकि अल्पकाल में पूर्ति में परिवर्तन नहीं हो सकता।
  • अल्पकाल में संयंत्र स्थिर रहता है इसलिए पूर्ति कम लोचदार होती है।
  • दीर्घकाल में वस्तु की पूर्ति को आसानी से घटाया-बढ़ाया जा सकता है जिससे पूर्ति लोचदार होती है।
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