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 Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 4 in Hindi

Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 4 in Hindi

प्रश्न 1.
अंशों के प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
कम्पनियाँ निवेशकों से कोष इकट्ठा करने हेतु, अनेक प्रकार के अंश निर्गमित करती हैं। कम्पनी अधिनियम 1956 से पूर्व कम्पनियाँ तीन प्रकार के अंश निर्गमित कर सकती थीं, अर्थात् अधिमान अंश, साधारण अंश एवं स्थगित अंश। कम्पनी अधिनियम, 1956 ने केवल दो प्रकार के अंश निर्गमन का प्रावधान रखा है-अधिमान अंश एवं समता अंश। विभिन्न निवेशकों को विभिन्न प्रकार के अंशं उनकी आवश्यकता के अनुसार, निर्गमित किए जाते हैं। कुछ निवेशक, नियमित आय को चाहेंगे, भले ही वह कम ही क्यों न हो। अन्य उच्च प्रत्याय चाहेंगे भले ही उन्हें जोखिम उठाना पड़े। अतः भिन्न प्रकार के अंश विभिन्न प्रकार के निवेशकों को प्रयुक्त होते हैं। यदि एक ही प्रकार के अंश निर्गमन किए जाएँ तो पर्याप्त कोष न जुटाए जा सकेंगे। विभिन्न प्रकार के अंशों की व्याख्या नीचे प्रस्तुत की गई है-

1. अधिमान अंश (Preference Shares)- जैसा कि नाम से विदित है, इन अंशों को अन्य अंशों की तुलना में कुछ प्राथमिकताएँ प्राप्त हैं। इन अंशों की दो प्राथमिकताएँ हैं-प्रथम, लाभांश के भुगतान में प्राथमिकता। जब कम्पनी के पास वितरण योग्य लाभ होते हैं, पहले लाभांश अधिमान अंश पूँजी वालों को मिलती है। अन्य अंशधारियों को लाभांश शेष बचे अवितरित लाभों (यदि कोई हो) में से दिया जाता है। अधिमान अंशों को दूसरी प्राथमिकता, कम्पनी के समापन के समय पूँजी के भुगतान की प्राथमिकता। बाहरी ऋणदाताओं के पश्चात् अधिमान अंश पूँजी को लौटाया जाता है।

समता अंशधारियों को भुगतान तब दिया जायेगा जब अधिमान अंश पूँजी को पूर्ण रूप से भुगतान कर दिया जाए। पुनः अधिमान अंश पूँजी पर एक स्थिर दर पर लाभांश दिया जाता है। अधिमा अंशधारियों को वोटिंग अधिकार नहीं होता, अतः उनकी कम्पनी प्रबन्ध में कोई आवाज नहीं हो परन्तु वे केवल तभी वोट दे सकते हैं जब उनके अपने हित प्रभावित हों। ऐसे लोग जो अपने धन पर एक निश्चित दर से प्रत्याय प्राप्त करना चाहते हैं, भले ही उनकी आमदनी कम हो, अधिमान अंश खरीदते हैं। अधिमान अंश निम्नांकित प्रकार के हैं-

(a) संचयी अधिमान अंश (Cumulative Preference Shares)- इन अंशों को उन वर्षों के लिए भी लाभांश प्राप्त करने का अधिकार होता है जब समुचित लाभ नहीं होते। जब भी विभाज्य लाभ होते हैं, अधिमान अंशों को पिछले वर्षों के लाभांश भी मिल जाते हैं। उदाहरणार्थ, कोई कम्पनी वर्ष 2006 एवं 2007 का लाभालाभ के कारण लाभांश भुगतान नहीं कर सकी। वर्ष 2008 में कम्पनी को लाभ लेता है, सर्वप्रथम वह 2006 व 2007 का अधिमान अंशों का लाभांश भुगतान करेगी तत्पश्चात् 2008 का लाभांश घोषित किया जायेगा। लाभांश संचित होता रहता है जब तक उन्हें भुगतान न मिल जाए।

(b) गैर-संचयी अधिमान अंश (Non-cumulative Preference Shares)- इन अंशों के लाभांश की बकाया राशि प्राप्त करने का अधिकार नहीं है। यदि लाभ होता है तो लाभांश भुगता, किया जाता है। इन्हें भावी वर्षों में लाभांश की बकाया राशि का भुगतान नहीं मिलता।

(c) शोधनीय अधिमान अंश (Redeemable Preference Shares)- साधारणत: कम्पनी की पूँजी का भुगतान केवल कम्पनी के समापन के समय दिया जाता है। न तो कम्पनी पूँजी का भुगतान (refund) दे सकती है और न ही अंशधारी इसका भुगतान वापिस माँग सकते हैं। कम्पनी शोधनीय अधिमान अंश निर्गमित कर सकती है यदि कम्पनी के अन्तर्नियम ऐसा निर्णय करने की आज्ञा दं कम्पनी कुछ समय पश्चात्, अधिमान अंश पूँजी लौटाने का अधिकार रखती है।

कम्पनी अधिनियम ने इस पूँजी के पुनः भुगतान पर कुछ प्रतिबन्ध लगाये हैं। शोधनीय अंश पूर्णतः प्रदत्त होने चाहिए। अंशों का पुनः भुगतान या तो लाभों में से अथवा नये निर्गमन से किया जा सकता है। इन प्रतिबन्धों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि शोधन के फलस्वरूप कम्पनी की पूँजी न घटे।

प्रश्न 2.
ऋण पत्रों के प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
ऋण पत्र निम्न प्रकार के होते हैं-
1.सरल, नग्न या असुरक्षित ऋण पत्र (Simple, Naked or Unsecured Debentures)- इन ऋण पत्रों के सम्बन्ध में किसी प्रकार की सम्पत्ति की प्रतिभूति नहीं दी जाती। उन्हें अन्य ऋणदाताओं की तुलना में कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती है। कम्पनी के समापन पर उन्हें अन्य असुरक्षित ऋणदाताओं की तरह व्यवहार किया जाता है। अतः वे असुरक्षित ऋणदाता होते हैं।

2. सुरक्षित या बन्धक ऋण पत्र (Secured or Mortgage Debentures)- इन ऋण पत्रों को कम्पनी की सम्पत्तियों पर प्रतिभूति दी जाती है। मूल राशि अथवा ब्याज के भुगतान में त्रुटि होने पर, ऋणदाता सम्पत्ति बेचकर अपने दावों को वसूल कर सकते हैं। ऋण पत्रों को कम्पनी, अपनी समस्त सम्पत्तियों पर गतिशीलन प्रभार दे सकती है। इस स्थिति में. ऋणदाताओं का भगतान. आरक्षित ऋणदाताओं की तुलना में शीघ्र कर दिया जाता है। सम्पत्तियों को बेचने पर विक्रय राशि का प्रयोग ऋण पत्रों (गतिशील प्रभार वाले) के भुगतान में पहले किया जाता है।

3. धारक ऋण पत्र (Bearer Debentures)- यह ऋण पत्र आसानी से हस्तान्तरित किए जा सकते हैं। वे विनिमय साध्य प्रपत्रों की तरह हैं। ऐसे ऋण पत्र क्रेता को बिना किसी पंजीयन (registration) को दे दी जाती है। कोई भी क्रेता जिसने उन्हें प्रतिफल के बदले, सद्विश्वास के साथ क्रय किया है, वह इन ऋण पत्रों का वैध क्रेता माना जाएगा। ब्याज के कूपन ऋण पत्र के साथ संलग्न कर देते हैं। परिपक्व होने पर धारक ब्याज का भुगतान बैंक से ले सकता है।

4. पंजीकृत ऋण पत्र (Registered Debentures)- धारक ऋण पत्रों जोकि केवल सुपुर्दगी द्वारा हस्तान्तरित किए जा सकते हैं, कि तुलना में पंजीकृत ऋण पत्रों के हस्तांतरण के लिए एक निश्चित पद्धति अपनाई जाने की आवश्यकता होती है। हस्तान्तरक एवं हस्तान्तरित दोनों को एक हस्तान्तरण प्रपत्र (Transfer Deed) भरना पड़ता है। यह प्रपत्र कम्पनी के पास रजिस्ट्रेशन शुल्क सहित भिजवाया जाता है। रजिस्टर में क्रेता का नाम लिख दिया जाता है। ब्याज कूपन उन व्यक्तियों को ही भेजे जाते हैं जिनका नाम रजिस्टर में अंकित है। प्रत्येक ऋण पत्र के हस्तान्तरण हेतु सही पद्धति अपनानी पड़ती है।

5.शोधनीय ऋण पत्र (Redeemable Debentures)- ऐसे ऋण पत्रों का एक निश्चित समय अवधि के पश्चात् शोधन कर दिया जाता है। ब्याज का भुगतान समय-समय पर दिया जाता है। मूल राशि भुगतान निश्चित अवधि के पश्चात् किया जाता है। ऋण पत्रों की शोधन अवधि निर्गमन के समय पर निश्चित की जाती है।

6.अशोधनीय ऋण पत्र (Irredeemable Debentures)- कम्पनी के जीवनकाल में ऐसे ऋण पत्रों का शोधन नहीं हो सकता। वे या तो कम्पनी के समापन पर शोधनीय होते हैं अथवा कम्पनी द्वारा कोई गलती करने पर शोधनीय हो सकते हैं। कम्पनी ऐसे ऋण पत्र धारियों को उचित सूचना देकर, इनके शोधन करने के अधिकार को अपने पास सुरक्षित रख सकती है।

यहाँ ध्यान देने योग्य है कि यदि ऋणपत्रों के निर्गमन की शर्तों में प्रावधान हो तो, उपर्युक्त ऋणपत्रों को एक निश्चित अवधि के पश्चात्, अंशों में परिवर्तित किया जा सकता है।

प्रश्न 3.
भारतीय औद्योगिक विकास बैंक के उद्देश्य एवं कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उद्देश्य (Objectives)- भारतीय औद्योगिक विकास बैंक की स्थापना जुलाई 1964 में IDBI अधिनियम, 1964 के अधीन, भारतीय रिजर्ब बैंक की पूर्णतः स्थायित्व वाली सहायक कम्पनी के रूप में हुई। 16 फरवरी, 1976 से IDBI का स्वामित्व केन्द्र सरकार को हस्तान्तरित कर दिया गया है। अब यह एक सरकारी स्वामित्ल वाली निगम के रूप में कार्यरत है। IDBI के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य वित्तीय संस्थाओं को सम्बद्ध करने हेतु शीर्ष संस्था विकसित करना एवं एक reservoir की तरह स्थान बनाना था। IDBI बड़े उद्योगों को वित्तीय सहायता देता है जिससे कि मध्य एवं वृहदाकार वित्त की माँग पूर्ति की खाई को पूरा किया जा सके।

वित्तीय साधन (Financial Resources)- IDBI की स्थापना 50 करोड़ की अधिकृत पूँजी से की गई जो अक्टूबर, 1994 में 200 करोड़ कर दी गई। अंश पूँजी के अतिरिक्त वित्तीय साधन हैं अवितरित कोष, ऋणों की वापसी, केन्द्र सरकार के उधार, भारतीय रिजर्व बैंक से ऋण, सार्वजनिक जमा, बॉण्ड निर्गमन एवं ऋण पत्र आदि।

प्रबन्ध (Management)- IDBI का प्रबन्ध 22 संचालकों के एक संचालक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसका अध्यक्ष-सह-प्रबन्ध निर्देशक केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त होता है। अन्य सदस्यों में रिजर्व बैंक का एक प्रतिनिधि, एक प्रतिनिधि प्रति अखिल भारतीय वित्तीय संस्थान से, केन्द्र सरकार के दो अधिकारी, सार्वजनिक बैंकों तथा राज्य वित्त निगमों के तीन-तीन सदस्य एवं 5 अन्य सदस्य उद्योग क्षेत्र का ज्ञान रखने वाले लिए जाते हैं। निर्देशक बोर्ड ने 10 संचालकों वाली एक कार्यकारी समिति भी बनाई है। विशिष्ट समस्याओं पर परामर्श लेने हेतु विशेष सलाहकार नियुक्त किए जाते हैं।

कार्य (Functions)- IDBI के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  • उद्योग को सर्वाधिक ऋण देने वाली अन्य संस्थाओं के कार्यों को समन्वित करना एवं एक शीर्ष संस्था के रूप में कार्य करना।
  • उद्योग को मध्यम एवं वृहदाकार ऋण देने वाली संस्थाओं को पुनर्विनियोजन सुविधा प्रस्तुत करना।
  • अनुसूचित एवं सहकारी बैंकों को पुनर्विनियोजन सुविधा देना।
  • बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं द्वारा निर्यात ऋण देने पर उन्हें पुनर्विनियोजन सुविधा सेवा प्रदान करना।
  • उद्योग के संवर्द्धन, प्रबन्ध अथवा विकास हेतु तकनीकी एवं प्रशासनिक सहायता प्रदान करना।
  • उद्योग के विकास हेतु बाजार सर्वेक्षण एवं तकनीकी आर्थिक अध्ययन सम्पन्न करना।
  • औद्योगिक इकाइयों को प्रत्यक्ष ऋण एवं अग्रिम प्रदान करना।
  • औद्योगिक इकाइयों को वित्तीय सहायता प्रदान करना।

इस सम्बन्ध में IDBI कई योजनाओं के माध्यम से सहायता देता है, जैसे प्रत्यक्ष सहायता योजना, साफ्ट ऋण योजना, तकनीकी विकास कोष योजना, औद्योगिक ऋण पुनर्विनियोजन योजना, विनिमय विपत्र बट्टा योजना, बीज पूँजी (Seed Capital) सहायता योजना, ओवरसीज निवेश वित्त योजना, विकास सहायता कोष।

प्रश्न 4.
व्यावसायिक अवसरों की पहचान के उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
व्यावसायिक अवसर एक आकर्षक परियोजना है जो उद्यमी को किसी निश्चित परियोजना में विनियोग निर्णय के लिए प्रोत्साहित करता है। व्यावसायिक अवसर द्वारा उद्यमी योजना को मूर्त रूप देने का प्रयास करता है। उद्यमी विभिन्न सम्भावनाओं को विश्लेषण कर सबसे अधिक जोखिम वाली सम्भावनाओं का चुनाव करती है। व्यावसायिक संभावना, व्यावसायिक अवसर तब कहाती है जब वह व्यावसायिक दृष्टि से लाभप्रद एवं संभव हो। व्यवसाय सम्भावनाओं को व्यावसायिक अवसर में बदलने के लिए उद्यमी को निम्न दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है-

  • अनुकूल बाजार माँग अथवा बाजार में उपलब्ध आपूर्ति पर माँग का आधिक्य एवं
  • विनियोग पर प्रत्याय जोकि सामान्यतया सामान्य प्रत्याय दर एवं जोखिम प्रीमियम की दर के योग के बराबर होता है।

व्यावसायिक अवसर की पहचान के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
(i) आंतरिक संसाधनों की उपलब्धता- आंतरिक संसाधन की उपलब्धि एक महत्वपूर्ण छूट है जो व्यावसायिक अवसर की पहचान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रायः व्यावसायिक अवसर के तीन चरण होते हैं-प्रवर्त, विस्तार एवं विधिकरण। पर्याप्त आंतरिक संसाधन होने की दशा में साहसी विस्तार एवं विधिकरण हेतु उपयुक्त व्यावसायिक अवसर का लाभ उठाने का भरसक प्रयास कर सकता है।

(ii) आंतरिक माँग की मात्रा- उच्च राष्ट्रीय आय स्तर की दशा में बाजार में उत्पाद भी उच्च माँग का अनुमान लगाया जा सकता है। उत्पाद का सेवा की माँग, राष्ट्रीय आय; प्रति व्यक्ति आय, जनसंख्या द्वारा निर्धारित होती है।

प्रश्न 5.
बाजार मूल्यांकन से आप क्या समझते हैं? बाजार मूल्यांकन पर प्रभाव डालने वाले घटक कौन-कौन है ?
उत्तर:
बाजार मूल्यांकन का तात्पर्य किसी वस्तु के शून्य का आकलन करने से है। उत्पाद एवं सेवाओं का चयन, माँग और पूर्ति के अतिरिक्त अन्य अनेक घटकों पर निर्भर करता है। जैसे-उत्पाद की गुणवत्ता, पूर्ति के स्रोत तथा वितरण के तंत्र। बाजार मूल्यांकन करते वक्त एक साहसी को माँग, पूर्ति और प्रतियोगिता की एक रूपरेखा बना लेनी चाहिए। बाजार मूल्यांकन और प्रभाव डालने वाले घटक निम्नलिखित हैं-

(i) लागत-एक विशेष प्रकार का उत्पादन करने पर उत्पाद की क्या लागत आती हैं? क्या लागत अन्य प्रतियोगी वस्तुओं के आसपास ही है? ये कुछ ऐसे प्रश्न है, जिनका उत्तर अवश्य देना पड़ता है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर वस्तु के विक्रय मूल्य को निश्चित करना चाहिए।

(ii) प्रतियोगिता- किसी-न-किसी समय वस्तुओं और उत्पादों को बाजार की प्रतियोगिता का सामना करना ही होता है। बाजार प्रतियोगिता का गहन अध्ययन माँग और पूर्ति के स्तर को ध्यान में रखकर किया जाता है।

(iii) उत्पाद एवं सेवाओं का उपयोग- विचार को कार्य रूप देते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वास्तविक जीवन में उसका क्या उपयोग है। उन्हें सुधार करके ही अच्छा उपयोगी सामान बनाना चाहिए। यदि सब कुछ नपा है तब पहलुओं का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए। यही उपभोक्ताओं के हित में होता है।

(iv) तकनीकी समस्याएं- उत्पाद को बनाने के लिए किस प्रकार की तकनीक का आवश्यकता होगी? क्या ऐसी तकनीक स्थानीय बाजार से प्राप्त की जा सकती है अथवा किसी अन्य स्थान से मँगानी पड़ेगी? इस प्रकार की तकनीक के लिए मशीन और संयंत्र की स्थिति क्या है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक होता है।

(v) वार्षिक बिक्री और लाभ- बाजार मूल्यांकन को वार्षिक बिक्री के आधार पर भी परखना चाहिए। इसी के आधार पर उत्पाद और सेवाओं का बाजार में कितना हिस्सा है, स्पष्ट होता है। साहसी जब किसी उत्पाद अथवा सेवा का चयन करता है तो उसकी सम-विच्छेद बिन्दु अथवा न लाभ न हानि, इस बिन्द से ही लाभ के बिन्द की तरह बढ़ने का प्रयास करता है और साहसी को यह भी निर्णय करना होता है कि उसे एक निश्चित अवधि में कितनी बिक्री पर कितना लाभ कमाना है।

(vi) उत्पाद और सेवाओं की पहचान- साहसिक विचार को साहसी एक निश्चित उत्पाद और सेवा के बनाने की योजना में कार्य रूप देता है जिससे उन्हें बिक्री करने में कठिनाई न हो। सेवा और उत्पाद का विचार ही किसी वस्तु और सेवा को शुरू करने का प्रथम चरण होता है। यह भी देखना चाहिए कि ऐसे उत्पाद और सेवाएँ बाजार में उपलब्ध है या नहीं। यदि ऐसा है तो . यह भी जानना चाहिए कि वैसा ही नया उत्पाद क्यों बाजार में लाया जा रहा है। .,

(vii) माँग- माँग का अनुमान उत्पाद की पहचान हो जाने के बाद लगा लेना चाहिए। माँग का अनुमान लगाते समय बाजार के आकार तथा इस क्षेत्र को ध्यान में रखना चाहिए जिसमें वस्तुएँ तथा सेवाएँ बेचनी है। जैसे-वस्तुओं का स्थानीय बाजार में बेचना, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बेचना। यही नहीं, यह भी ध्यान रखना होगा कि लक्षित उपभोक्ता कौन है, उनकी पसंद कैसी है ? इत्यादि बातें।

प्रश्न 6.
विनिमय साध्य विपत्र से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न प्रकारों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
व्यवसाय में सभी लेन-देन मुद्रा में नहीं होते। बढ़ते हुए व्यापार एवं वाणिज्य के साथ, बढ़ती हुई मुद्रा की पूर्ति मुद्रा द्वारा नहीं की जा सकती। कई स्थितियों में व्यापारी के पास पर्याप्त मुद्रा रोकड़ी में नहीं होती, फिर वह जेब में अधिक मुद्रा ले जाना पसन्द न करे। इसलिए, उसे कुछ सुविधाएँ व्यावसायिक व्यवहार में चाहिये। इन कारणों से, व्यवसायों ने एक नई विधि प्रपत्रों के हस्तान्तरण, मौद्रिक चलन के विपरीत निकाली (ऐसे प्रपत्र थे, विनिमय विलेख पत्र, चैक, बैंक डाफ्ट आदि)। ऐसे प्रपत्र जो मद्रा के स्थान पर प्रति स्थापित होते हैं. उन्हें विनिमय साध्य विपत्र कहते हैं।

आजकल विनिमय साध्य विपत्र साधारण साख रीतियों का सर्वमान्य साधन हैं एवं इनका प्रयोग वाणिज्यिक लेनदेनों एवं मौद्रिक व्यवहारों में स्वतन्त्र रूप में किया जाता है। यह विपत्र वैधानिक रूप से मुद्रा के प्रतिस्पक मान कर चलाये जाते हैं। इन विपत्रों से सम्बन्धित प्रावधानों को विनिमय साध्य विलेख विपत्र अधिनियम 1881 में उल्लेखित किया गया है। इस अधिनियम का उद्देश्य इस व्यवस्था को वैधानिक बनाना जिसके अन्तर्गत कुछ व्यावसायिक विपत्रों को साधारण मालों के विनिमय पर आदान-प्रदान किया जाए।

यह अधिनियम एक मार्च, 1882 से लागू हुआ। यह प्रतिज्ञा पत्रों, विलेख पत्रों एवं बैंका पर लागू होता है।

अर्थ (Meaning)- विनिमय विपत्र शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है, “एक लिखित प्रतिज्ञा अथवा धन भुगतान करने का आदेश, जो एक हाथ से दूसरे हाथ, मुद्रा के स्थान पर, हस्तान्तरित किया जाए।” साधारण शब्दों में, यह एक पत्र है जो एक व्यक्ति जिसका नाम प्रपत्र में लिखा है, को एक निश्चित मुद्रा को प्राप्त करने का अधिकार देता है, तथा जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से हस्तान्तरित किया जा सकता है। इसे केवल सुपुर्दगी द्वारा अथवा बेचान एवं सुपुर्दगी द्वारा हस्तान्तरित किया जा सकता है। धारा 13 इसे परिभाषित करती है, “एक विनिमय साध्य विपत्र के अन्तर्गत, एक प्रतिज्ञा पत्र, विनिमय विलेख पत्र, अथवा चैक धारक अथवा आदेशित व्यक्ति का देय हो, सम्मिलित किये जाते हैं।”

विशेषताएँ (Characteristics)-

  • विनिमय विलेख विपत्र लिखित होना चाहिए।
  • निर्माता द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए।
  • इसमें उल्लेखित राशि किसी शर्त पर देय न हो।
  • इसमें किसी निश्चित धन राशि का उल्लेख हो।
  • यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से हस्तान्तरणीय हो।

प्रकार (Kinds)-

  • प्रतिज्ञा पत्र (Promissory Note)- यह एक विनिमयसाध्य विलेख पत्र है जिसमें एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को एक निश्चित धन राशि भुगतान करने की शर्तरहित प्रतिज्ञा हो।
  • विनिमय साध्य विलेख विपत्र (Bill of Exchange)- वह एक लिखित विनिसाध्य विपत्र है जिसमें एक शर्त रहित आदेश, एक निश्चित व्यक्ति को एक निश्चित राशि का भुगतान विपत्र के धारक अथवा एक निश्चित व्यक्ति को भुगतान करने का आदेश है।
  • चेक (Cheque)- यह एक विनिमय साध्य विपत्र जो लिखित में हो जिसमें एक निश्चित बैंकर को शर्त रहित आदेश है कि वह एक निश्चित धन राशि विपत्र के धारक को अथवा उल्लेखित व्यक्ति को भुगतान करे।

प्रश्न 7.
विज्ञापन के प्रमुख माध्यमों का वर्णन करें।
उत्तर:
विज्ञापन के प्रमुख माध्यम निम्नलिखित हैं-
(i) प्रेस अथवा समाचारपत्रीय विज्ञापन- प्रेस अथवा समाचारपत्रीय विज्ञापन से आशय वस्तुओं और सेवाओं के बारे में विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं; जर्नल्स में जानकारी प्रकाशित करने से है जिसे लाखों व्यक्तियों द्वारा पढ़ा जाता है। आधुनिक युग में प्रेस विज्ञापन, विज्ञापन का सबसे अधिक प्रचलित लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण साधन है क्योंकि इसके द्वारा सर्वसाधारण जनता को ज्ञान हो जाता है।

(ii) पत्रिका विज्ञापन- पत्रिकाएँ साप्ताहिक, मासिक, त्रिमाही, छमाही अथवा वार्षिक हो सकती है। इनमें किए जाने वाले विज्ञापन को पत्रिका विज्ञापन कहते हैं। पत्रिकाओं में विज्ञापन की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक रहती है।

(iii) बाह्य विज्ञापन अथवा दीवारों पर किए जाने वाले विज्ञापन- बाह्य विज्ञापन से आशय दीवारों, गली, सड़कों के किनारों, रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंडों, चलते-फिरते, वाहनों आदि पर विज्ञापन करने से होता है।

(iv) डाक द्वारा विज्ञापन- डाक द्वारा प्रत्यक्ष विज्ञापन से आशय ऐसे विज्ञापन से है जिसके द्वारा विज्ञापनदाता कुछ उपयुक्त लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उनके पास स्थायी रूप से छपे हुए अथवा लिखित संदेश भेजता है।

(v) क्रय बिन्दु विज्ञापन- क्रय बिन्दु विज्ञापन से आशय ऐसे विज्ञापन से है जो व्यापार गृह के क्रय-विक्रय स्थान पर ही ग्राहक को आकर्षित करने एवं उसे क्रय करने हेतु प्ररित करने के उद्देश्य से किया जाता है।

(vi) मनोरंजन एवं अन्य विज्ञापन- इसके अन्तर्गत रेडियो, सिनेमा स्लाइड, मेले एवं प्रदर्शनियों, ड्रामा एवं संगीत कार्यक्रम, लाउडस्पीकर, प्रदर्शन, उपहार या भेंट, दूरदर्शन आदि को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 8.
उद्यमी के प्रति समाज के उत्तरदायित्वों का वर्णन करें।
उत्तर:
उद्यमी के प्रति समाज के निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं-

  • व्यवसाय के कर्मचारी को उस विचार से कार्य करना चाहिए कि व्यवसाय का हित सुरक्षित रहे। हमेशा स्वयं के लाभ से परे संस्था का लाभ भी देखना चाहिए। आवश्यक दृढ़ता, घेराबंदी, काम रोको आदि से परहेज करना चाहिए।
  • उपभोक्ता बाजार का राजा होता है जिसे प्रति साहसी का असीम दायित्व बनता है। किंतु उपभोक्ता रूपी राजा को भी साहसी की मान मर्यादा, मजबूरियाँ आदि समझते हुए टकराव के बदले समझौते का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
  • आपूर्तिकर्ता का यह दायित्व होता है कि साहसी द्वारा क्रय किये गये कच्चे माल/समान/उपकरण आदि की आपूर्ति सही किस्म, सही वजन, सही दाम और सही समय पर करता रहे। खराब माल की वापसी के लिए तत्पर रहे।
  • वित्तीय संस्थाओं या अन्य श्रमदाताओं का भी यह दायित्व है कि साहसी को कम-से-कम ब्याज दर पर अधिक-से-अधिक ऋण सुविधा प्रदान करके उसके विकास में योगदान दें।
  • सरकार को यह देखना चाहिए कि साहसी के विकास में उसकी कोई नीति रोड़ा न बने क्योंकि साहसी ही विकास का दूत होता है। लाइसेंस लेने, पंजीकरण कराने का जमा करने आदि की प्रक्रिया सरल होनी चाहिए।
  • उपक्रम के स्थानीय लोगों को भी साहसी के साथ सहयोगात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि उपक्रम के लाभ के साथ उनका भी हित जुड़ा हुआ है।

इस प्रकार समाज की साहसी के प्रति उत्तरदायी होता है। यदि साहसी अपने उद्देश्य में पिछड़ता है तो उसकी स्वयं की कमी के अलावा समाज भी उसके लिए दोषी है।

प्रश्न 9.
किसी वस्तु या, सेवा का चुनाव करते समय साहसी को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
किसी वस्तु या सेवा का चुनाव करते समय साहसी को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
(i) बाजार का निर्धारण- उत्पाद का चुनाव करने से पूर्व बाजार का निर्धारण कर लेना चाहिए। उक्त उत्पाद का बाजार स्थानीय होगा या राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय होगा। साहसी को नये उत्पाद लाते समय बाजार सर्वेक्षण कराकर इस बात की तसल्ली चाहिए कि उस उत्पाद की माँग बाजार में विद्यमान है। बाजार सर्वेक्षण के अन्तर्गत माँग, पूर्ति, वस्तु की लागत एवं मूल्य, प्रतियोगिता, नये परिर्वतन की संभावना विज्ञापन एवं प्रचार पर प्रभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है।

(ii) व्यावहारिकता- साहसी को उत्पाद की वास्तविक जीवन में उपयोगिता पर विचार करना चाहिए। यदि वह उत्पाद पहले से ही बाजार में विद्यमान है और साहसी उसका नया परिवर्तित रूप लाने के बारे में सोच रहा है तो उसे देखना चाहिए कि उस रूप की व्यावहारिकता वर्तमान समय में कितनी होगी।

(iii) उत्पादन लागत- किसी वस्तु के उत्पादन करने से पूर्व साहसी को उत्पाद की प्रति इकाई लागत का आकलन करना चाहिए ताकि उपभोक्ता की जेब के अनुकूल हो। अधिक ऊँची कीमत होने की स्थिति में उत्पाद की माँग सीमित होगी।

(iv) प्रतियोगिता- वर्तमान युग प्रतियोगिता का युग है। ऐसी स्थिति में यदि उसे इन प्रतियोगियों से लोहा लेते हुए आगे बढ़ना है तो ऐसे उत्पाद का चुनाव करना होगा जो बाकी प्रतियोगियों की तुलना में बेहतर किस्म और कम दाम का हो।

(v) कच्चे माल की पर्याप्तता एवं सतत् उपलब्धता- उत्पाद का चुनाव करते समय साहसी को यह देखना चाहिए कि उसके उत्पाद के लिए पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल निर्बाध रूप से मिलता रहेगा या नहीं।

(vi) तकनीकी पहलू- कच्चे माल के प्रति आश्वस्त हो जाने के बाद साहसी को यह देखना चाहिए कि उसके उत्पाद के लिए किसी मशीन, यंत्र, उपकरण एवं तकनीकी आदि की आवश्यकता होगी। यह कितने में और कहाँ से उपलब्ध हो सकेगा। उसे चलाने के लिए किस स्तर के प्रशिक्षित कर्मचारी की आवश्यकता होगी। उन कर्मचारियों की उपलब्धता आसानी से हो सकेगा अथवा नहीं। अत: उत्पाद के चुनाव में तकनीकी पहलू को भी ध्यान में रखना चाहिए।

(vii) लाभ की संभावना- साहसी को अपने उत्पाद की वार्षिक बिक्री और उस पर होने वाले लाभ का अनुभव पहले कर लेने के बाद ही उत्पाद का चुनाव करना चाहिए।

प्रश्न 10.
व्यावसायिक अवसर की पहचान करने वाले तत्वों का वर्णन करें।
उत्तर:
व्यावसायिक अवसर की पहचान करने वाले तत्व :
(i) आंतरिक संसाधनों की उपलब्धता आंतरिक संसाधन की उपलब्धि एक महत्त्वपूर्ण छूट है जो व्यावसायिक अवसर की पहचान में भूमिका निभाता है। प्रायः व्यावसायिक अवसर के तीन चरण होते हैं प्रवर्तन, विस्तार एवं विविधीकरण। पर्याप्त आंतरिक संसाधन होने की दशा में साहसी विस्तार एवं विविधीकरण हेतु उपयुक्त व्यावसायिक अवसर का लाभ उठाने का भरसक प्रयास कर सकता है।

(ii) आंतरिक माँग की मात्रा- उच्च राष्ट्रीय आय स्तर की दशा में बाजार में उत्पाद की उच्च माँग का अनुमान लगाया जा सकता है। उत्पाद या सेवा की माँग, राष्ट्रीय आय, प्रति व्यक्ति आय, ऋण जनसंख्या द्वारा निर्धारित होती है।

(iii) औद्योगिक कच्चे माल की उपलब्धि- कच्चे माल की उपलब्धि भी व्यावसायिक अवसरों को काफी सीमा तक निर्धारित करती है, क्योंकि उसके द्वारा भावी उत्पादन का स्तर निर्धारित होता है।

(iv) बाह्य सहायता का स्वरूप- बाह्य सहायता एवं समर्थन अवसरों की पहचान में प्रत्यक्षतः सहायता करता है।

(v) निर्यात की संभावना- व्यावसायिक अवसरों की पहचान में निर्यात की संभावना भी महत्वपूर्ण तत्व है।

(vi) जोखिम की मात्रा- एक व्यवसाय विशेष में अनेक प्रकार की जोखिम सम्मिलित रहती है जिसमें आर्थिक जोखिम, सामाजिक जोखिम, वातावरणीय जोखिम, तकनीकी जोखिम आदि प्रमुख हैं। वातावरण में परिवर्तन के साथ जोखिम की मात्रा एवं प्रकृति भी बदलती है।

(vii) विद्यमान इकाइयों के निष्पादन का विश्लेषण- विद्यमान इकाइयों के निष्पादन का उद्देश्यपूर्ण विश्लेषण करके भी उद्यमी व्यावसायिक अवसरों की पहचान कर सकता है।

निष्कर्षतः व्यावसायिक अवसर विश्लेषण के द्वारा उद्यमी यह निश्चित करता है कि किस साहसिक कार्य को किया जाना लाभप्रद हो सकता है या किस उद्योग एवं क्षेत्र विशेष संसाधन, तकनीक आदि में साहसिक कार्य के अवसर विद्यमान है जिनके प्रवर्तन द्वारा उद्यमी औद्योगिक इकाई की स्थापना कर सकता है तथा जोखिम एवं भावी लाभ संभावनाओं के मद्देनजर उपक्रम का कुशल प्रबंध एवं संचालन कर सकता है।

प्रश्न 11.
लेखांकन अनुपात के विभिन्न प्रकार को बताएँ।
उत्तर:
लेखांकन अनुपात व्यवसाय के वित्तीय विवरणों से प्राप्त होते हैं। वित्तीय विवरणों में चिट्ठा तथा लाभ-हानि खाता शामिल है। वित्तीय विवरणों के विभिन्न मदों के बीच अंतर संबंधों की अभिव्यक्ति के लिए लेखांकन अनुपातों का प्रयोग किया जाता है। लेखांकन अनुपात निष्पादन , परिणाम व्यक्त करना है।

लेखांकन अनुपात चार प्रकार के होते हैं-

  • तरलता अनुपात- तरलता अनुपातों से व्यवसाय की अल्पकालीन ऋणशोधन क्षमता का पता चलता है। यह व्यवसाय की चालू सम्पत्तियों तथा चालू दायित्वों और नकद की स्थिति का बोध कराता है।
  • ऋण शोधन क्षमता अनुपात- ऋण शोधन क्षमता अनुपात की गणना दीर्घकालीन दायित्वों के शोधन की दृष्टि से की जाती है।
  • निष्पादन या क्रियाशीलता अनुपात- निष्पादन अनुपात व्यवसाय की परिचालन कुशलता को व्यक्त करता है। उन अनुपातों की गणना शुद्ध विक्रय के आधार पर की जाती है।
  • लाभप्रदता अनुपात- लाभदायकता अनुपात संस्था की लाभ अर्जन क्षमता की माप है। यह वित्तीय कुशलता को दर्शाता है। सकल लाभ अनुपात, शुद्ध लाभ अनुपात, निवेश पर आय प्रति अंश आय उनके उदाहरण हैं और ये प्रतिशत में व्यक्त किये जाते हैं।

प्रश्न 12.
एक नये उद्योग को लगाने (शुरू) के क्रम को समझाइए।
उत्तर:
उद्यमी के सामने कई विकल्प होते हैं जो लाभ प्रदान करते हैं। इन सभी विकल्पों का परीक्षण करना होता है ताकि एक ऐसे प्रोजेक्ट का चुनाव किया जा सके जिसमें न्यूनतम लागत, न्यूनतम जोखिम, अधिकतम लाभ और संवृद्धि के अधिकतम अवसर निहित हों।

एक उद्योग स्थापित करने के लिए कई क्रियाओं का समन्वय करना पड़ता है जिसे हम विभिन्न चरणों का नाम दे सकते हैं-

  • उद्यमितीय कार्य का चयन
  • पूँजी प्राप्त करना और उसका उचित निवेश
  • वस्तु एवं सेवाओं का उत्पादन एवं वितरण
  • लाभ प्राप्त करना व लाभ अधिन करना
  • बचत संसाधनों का विस्तार कार्यों में उपयोग करना आदि।

प्रश्न 13.
वित्तीय नियोजन क्या है ? किसी उपक्रम के लिए इसका क्या महत्व है ?
अथवा, कार्यशील पूँजी का क्या दृष्टिकोण होता है ? कार्यशील पूँजी के स्रोत को बताइए।
उत्तर:
व्यवसाय को चलाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए वित्तीय नियोजन की प्रभावशाली प्रणाली की आवश्यकता होती है।

वित्तीय नियोजन का अर्थ है-

  • संसाधनों को पर्याप्त गतिशील बनाना
  • उनका उचित उपयोग करना

व्यवसाय के लिए निम्नलिखित आवश्यक है-
(अ) समय पर आवश्यक धन राशि प्राप्त करना।
(ब) उपलब्ध संसाधनों का इस प्रकार प्रयोग करना जो व्यावसायिक इकाई को अधिकतम आय दे सके।

वित्तीय नियोजन का महत्व-

  • पर्याप्त नकद कोषों का प्रावधान करना
  • उचित वित्तीय अनुशासन
  • कोषों का विनियोग
  • बचतों का बँटवारा
  • साधनों का अधिकतम उपयोग
  • पूँजी का अधिकतम प्रत्याय
  • वित्तीय नियंत्रण।

प्रश्न 14.
व्यवसाय में विज्ञापन के महत्व को बताएँ।
उत्तर:
आधुनिक युग विज्ञापन युग है। इसकी उपयोगिता किसी एक वर्ग विशेष के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज व देश के लिए है।

इसके लाभ को निम्न रूप में देख सकते हैं-

  • नवनिर्मित वस्तुओं की माँग उत्पन्न करना एवं उसमें वृद्धि करना
  • अस्वस्थ प्रतियोगिता का विनाश
  • उत्पादन में वृद्धि व गति
  • उत्पादन लागत व वितरण व्यय में कमी
  • लाभों में वृद्धि
  • विशिष्टीकरण के लाभ
  • शिक्षाप्रद एवं ज्ञानवर्द्धक
  • उपभोक्ताओं के समय में बचत
  • मध्यस्थों की संख्या में कमी
  • मूल्यों की जानकारी
  • उत्पाद की किस्म में सुधार
  • क्रय में सुविधा
  • विक्रेता को प्रोत्साहन एवं समर्थन
  • अनेक व्यक्तियों के लिए आजीविका का स्रोत
  • रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठना
  • समाज का दर्पण
  • देश का आर्थिक विकास।
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