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 Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिए विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
जगत् सम्बन्धी तर्क द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने से तात्पर्य उस तर्क से है जिसके अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को जगत् के अस्तित्व के आधार पर सिद्ध किया जाता है। विश्व विषयकं तर्क द्वारा ईश्वर के अस्तित्व के विषय में देकार्त ने यह कहा है कि विश्व की समस्त वस्तुओं और जीवों के शरीर का स्रष्टा कोई-न-कोई अवश्य है। इस दिशा में यदि मनुष्य को इनका स्रष्टा माना जाए तो उसे पूर्ण मानना पड़ेगा जो कि वह नहीं है। इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य सृष्टि कर सकता तब वह अपनी भी सृष्टि करता अर्थात् स्वयं अपने शरीर का भी स्रष्टा होता और यदि अपने शरीर को वह स्वयं बनाता तब उसे पूर्ण बनाता और स्वयं अपने आप को जन्म दे लेता क्योंकि उसका स्रष्टा के रूप में जन्म से पूर्व भी अस्तित्व रहता किन्तु ऐसा मानना और फिर जन्म मानना दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं।

इसलिए ऐसा होना सम्भव नहीं, अतः मनुष्य को तो स्वयं अपना ही स्रष्टा नहीं माना जा सकता तब जगत् की अन्य वस्तुओं का स्रष्टा कैसे माना जा सकता है ? इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य का स्रष्टा उसके माता-पिता को माना जाए तब यह प्रश्न पुनःउपस्थित होगा कि यदि मेरे माता-पिता मेरे स्रष्टा इस कारण से हैं कि उन्होंने मुझे जन्म दिया है तब मेरे संरक्षण की पूर्ण सामर्थ्य भी उनमें होनी चाहिए। इसके साथ वे अपूर्ण हैं इसलिए वे भी मेरे शरीर अर्थात् मानव शरीर के स्रष्टा नहीं हैं। इस खिला में यदि विचार करना आरम्भ किया जाए तब यह पता चलता है मैं अपूर्ण हूँ इसलिए मेरे स्रष्टा न मैं हूँ औन न मेरे माता-पिता क्योंकि वे भी अपूर्ण हैं। अतः अन्त में ऐसे स्थान पर आकर रुकना पड़ता है जो पूर्ण है और जगत् तथा समस्त जीवों के शरीरों का स्रष्टा है। वही ईश्वर है। इस प्रकार जगत् का अस्तित्व ही ईश्वर के अस्तित्व का सबसे प्रबल प्रमाण है।

विश्व/जगत् प्रमाण की आलोचना-ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विश्व विषयक तर्क के विरुद्ध निम्नलिखित आक्षेप किये जाते हैं-

(i) असिद्ध आधार से आधेय की सिद्धि-जगत् विषयक तर्क में जगत् अस्तित्व को सत्य मानकर इसके आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है किन्तु इस सम्बन्ध में अनेक दार्शनिक तो जगत् के अस्तित्व पर ही शंका करते हैं तब उनकी शंका का निवारण किये बिना और जगत् के अस्तित्व को सिद्ध किये बिना ईश्वर को सिद्ध करना तो रेत के कणों से दीवार बनाने के समान है।

(ii) आत्माश्रय दोष-ईश्वर के अस्तित्व हेतु दिये गये जगत् विषयक तर्क में आत्माश्रय दोष हैं क्योंकि इसमें यह कहा गया है कि जगत् का अस्तित्व है और इसके स्रष्टा के रूप में ईश्वर का अस्तित्व है। इस तर्क के विषय में सामान्यतया जब जगत् के अस्तित्व के विषय में संशय किया जाता है तब यही उत्तर मिलता है कि जगत् का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि ईश्वर इसका सृष्टा है और ईश्वर धोखेबाज नहीं है अर्थात् वह जिस संसार में हमारा सृजन करता है वह धोखा नहीं हो सकता। देकार्त ने इसी प्रकार के तर्क द्वारा जगत् का अस्तित्व सिद्ध किया। यद्यपि इस तर्क में आत्माश्रय दोष है क्योंकि जिस ईश्वर को सिद्ध करना है उसके अस्तित्व को जगत् के अस्तित्व के रूप में पूर्व ही मान लिया गया है।

(iii) ईश्वर को कारण मानने सम्बन्धी कठिनाई-जगत् विषयक तर्क में ईश्वर को जगत् । और जीवों का सृष्टा उसी रूप में माना है जिस रूप में कुम्हार घड़े का सृष्टा है अर्थात् ईश्वर को जगत् का निमित्त कारण माना गया है, अतः जो कठिनाई निमित्तेश्वरवाद के सम्बन्ध में है वही इस तर्क के सम्बन्ध में भी है।

(iv) ईश्वर को सृष्टा मानना मात्र एक कल्पना-जगत् विषयक तर्क में ईश्वर को जगत् का सष्टा माना है। यह तर्क कोरी कल्पना मात्र है क्योंकि समस्त सीमित वस्तुओं का सष्टा भी सीमित ही होता है, यथा घड़े का सृष्टा कुम्हार भी सीमित ही होता है और यह कहना कि अपूर्ण का सृष्टा, अपूर्ण नहीं हो सकता यह भी यथार्थ नहीं है क्योंकि जगत् की अनेक अपूर्ण वस्तुएँ अपूर्ण द्वारा ही बनायी जाती है। इसी प्रकार न ही तो सीमित वस्तुओं का सृष्टा असीम को माना जा सकता है और न ही अपूर्ण का सृष्टा पूर्ण को माना जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो यह प्रश्न स्वभावतः उत्पन्न होता है, कि जब वह पूर्ण है तब उसने अपूर्ण को क्यों बनाया?

(v) पूर्ण अपूर्ण का सृष्टा नहीं हो सकता-हम अपने दैनिक अनुभव में देखते हैं कि कोई चित्रकार जिस चित्र को बनाता है उसमें अपनी सम्पूर्ण योग्यता को उड़ेल देता है। दूसरे शब्दों में चित्र चित्रकार की पूर्ण योग्यता की अभिव्यक्ति होती है और इसलिए चित्र को देखते ही दर्शक चित्रकार की योग्यता का मूल्यांकन कर देता है। इस रूप में संसार को यदि ईश्वरीय योग्यता की अभिव्यक्ति माने तब विश्व में फैली अपूर्णता को भी ईश्वर की क्षमता और योग्यता में सम्मिलित करना चाहिए अथवा नहीं।

इस तर्क में इस प्रश्न का समाधान नहीं किया गया है क्योंकि यदि इसको ईश्वर की योग्यता माना जाए तब ईश्वर भी अपूर्ण सिद्ध होता है और जब ईश्वर भी अपूर्ण है और तब भी वह जगत् का सृजन कर सकता है, तब मनुष्य क्यों नहीं कर सकता और यदि इसको सम्मिलित न करें तब इसका उदय कहाँ से और कैसे हुआ इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं होता। अत: जगत् विषयक तर्क ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त नहीं है।

(vi) असीम सीमित जगत का सजन कैसे किया ?- जगत् के अस्तित्व को ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते समय यह तो कहा कि जगत् के सृष्टा के रूप में ईश्वर का अस्तित्व है किन्तु सृजनों के लिए अनेक साधनों की आवश्यकता होती है, यथा चित्र बनाने के लिए हाथों की ब्रश और अन्य सम्बन्धित समान की। तब ईश्वर किन साधनों से जगत् का सृजन करता है। वे साधन भौतिक होते हैं अथवा अभौतिक ? ईश्वर और उन साधनों में क्या सम्बन्ध है ? आदि अनेक ऐसे प्रश्न हैं जिनका इस तर्क में कोई उत्तर नहीं दिया गया है। अतः जगत् विषयक तर्क द्वारा ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।

प्रश्न 2.
वैशेषिक के अनुसार पदार्थ का वर्णन करें।
उत्तर:
द्रव्य या पदार्थ वह सत्ता है जो परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता। वैशेषिक दर्शन में द्रव्य (substance) को एक विशेष अर्थ में लिखा गया है। द्रव्य वह है जो गुण और कर्म को धारण करता है। गुण और बिना किसी वस्तु या आधार के नहीं रह सकते। इसका आधार ही द्रव्य कहलाता है। गुण और कर्म द्रव्य में रहते हुए भी द्रव्य से भिन्न है। द्रव्य गुण युक्त है किन्तु गुण और कर्म गुणरहित है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य या पदार्थ नौ प्रकार के हैं-

  1. आत्मा
  2. अग्नि या तेज
  3. वायु
  4. आकाश
  5. जल
  6. पृथ्वी
  7. दिक्
  8. काल और
  9. मन।

उपर्युक्त नौ द्रव्यों में पाँच द्रव्य पंचमहाभूत (Five Physical Elements) कहे जाते हैं-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। वैशेषिक दर्शन नहीं पंचमहाभूतों से विश्व का निर्माण मानता है। सभी भौतिक पदार्थ भूत ही हैं। कणाद द्रव्यों का वर्गीकरण ज्ञानात्मक आधार पर करते हैं। हमें पाँच ‘इन्द्रियाँ हैं जिनके द्वारा बाह्य जगत का ज्ञान होता है। प्रत्येक इन्द्रिय से वस्तु के किसी खास गुण का ज्ञान होता है। ये गुण किसी द्रव्य में ही रह सकते हैं अतः पाँच विभिन्न गुणों के आधार रूप में पाँच द्रव्यों को यहाँ स्वीकारा गया है।

आँख से बाह्य जगत् के रंग का ज्ञान होता है। रंग गुण को धारण करने वाला द्रव्य तेज कहा जाता है। कान से ‘ध्वनि’ गुण का ज्ञान होता है। इस गुण को धारण करने वाला द्रव्य आकाश है। आकाश सर्वव्यापी और नित्य है। आकाश के टुकड़े या परमाणु नहीं होते। त्वचा से स्पर्श का काम लिया जाता है। इन गुणों का आधार स्वरूप द्रव्य वायु है। नाक से गन्ध का पता चलता हैं। गन्ध को धारण करने वाला द्रव्य पृथ्वी है। जिह्वा से स्वाद का बोध होता है। स्वाद को धारण करने वाला द्रव्य जल है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पंचमहाभूतों में आकाश के अलावे अन्य चारों द्रव्यों के परमाणु होते हैं। वैशेषिक द्रव्यों को नश्वर मानता है किन्तु इनके परमाणु अनश्वर हैं। इन्हीं परमाणुओं से विश्व के सभी पदार्थ बनते हैं। इन परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता। इनका ज्ञान अनुमान से होता है।

भौतिक द्रव्यों या परमाणुओं की व्यवस्था के लिए दिक् और काल को मानना आवश्यक है। विश्व के सभी भौतिक पदार्थ स्थान घेरते हैं। वे किसी खास काल में रहते हैं अतः वैशेषिक दर्शन में दिक् और काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है।

दिक् कारण ही विश्व की विभिन्न वस्तुएँ अलग-अलग पायी जाती हैं। दिक् अगोचर है। अनुमान के आधार पर इसका ज्ञान होता है। यह नित्य सर्वव्यापी, अभौतिक (Non-material) एवं एक है। यह अविभाज्य है किन्तु व्यावहारिक जीवन सुविधा हेतु इसका कृत्रिम विभाजन ऊपर-नीचे, पूरब-पश्चिम, मील-गज आदि में करते हैं।

काल एक सर्वव्यापक, नित्य एवं अभौतिक है। यह भी अविभाज्य है किन्तु सुविधा के लिए भाव, नव, रात, दिन, घंटा, मिनट, वर्तमान, भविष्य आदि में विभाजन कर देते हैं।

मन एक आन्तरिक इन्द्रिय है। यह अणुरूप है। यह निरधपब है। जिस प्रकार वाक्य पदार्थों की जानकारी के लिए बाह्य इन्द्रियों की आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आन्तरिक इन्द्रिय अर्थात् मन की आवश्यकता है। मन का प्रत्यक्ष नहीं होता इसका ज्ञान अनुमान द्वारा होता है। इसके द्वारा सुख, दुःख, हर्ष, विषाद आदि आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान होता है। मन अविभाज्य है।

वैशेषिक दर्शन में चेतना आत्मा का आकस्मिक गुण है न कि आवश्यक गुण। आत्मा आकस्मिक गुण है न कि आवश्यक गुण। आत्मा जब शरीर धारण करती है तो उसमें चेतना का उदय होता है। शरीर धारण करने के पूर्व यह अचेतन रहती है। वैशेषिक दर्शन में आत्मा दो प्रकार के माने गए हैं-जीवात्मा और परमात्मा।

जीवात्मा वह है जो शरीर धारण करे और शरीर धारण करने के बाद उसमें चेतना का उदय हो। इस प्रकार यहाँ चेतना का जीवात्मा का आकस्मिक गुण माना गया है न कि आवश्यक गुण। जीवात्मा या जीव शरीर में प्रवेश करते ही उसका मालिक बन जाता है। शरीर के संचालन के लिए चेतना की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार चेतना जीवात्मा से अलग नहीं की जा सकती है।

जीवात्मा अमर एवं नित्य है। यह दिक् और काल से परे है। यह सूक्ष्म और अनन्त है। इसमें ज्ञान इच्छा एवं संकल्प उपस्थित रहने के कारण ही इसे बन्धनग्रस्त होना पड़ता है। फलतः मोक्ष की समस्या उठती है। जीवात्मा के अस्तित्व का प्रत्यक्ष या साक्षात् ज्ञान होता है। प्रायः व्यक्ति कहता है “मैं दु:खी हूँ” इत्यादि। यहाँ मैं का साक्षात् ज्ञान होता है। यह मैं ही जीवात्मा है। वैशेषिकों का कहना है कि इन्द्रियाँ तो ज्ञान के साधन मात्र हैं। ज्ञान जीवात्मा को मिलता है। चेतना : का आधार जीवात्मा को कहा गया है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार जितने शरीर हैं उतने जीवात्मा हैं।

परमात्मा या ईश्वर भी एक प्रकार आत्मा ही है। इसका प्रधान गुण चेतना है अतः चेतना इसका आवश्यक गुण है। परमात्मा को शरीर धारण नहीं करना पड़ता। वह तो सदैव चेतन है। उसमें भी इच्छा संकल्प आदि रहते हैं किन्तु असीम पूर्ण रूप में जीवात्मा के विषय में सुख, दुःख, या पुण्य के प्रश्न उठते हैं न कि परमात्मा के विषय में। परमात्मा नित्य एवं पूर्ण है। वह संसार का रचयिता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता भी है। वह शक्तिशाली, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी शुभ आदि कहा गया है।

प्रश्न 3.
क्या ह्यूम संदेहवादी है? व्याख्या करें।
उत्तर:
‘हाँ’ ह्यूम संदेहवादी है। ह्यूम के दर्शन का अंत संदेहवाद में होता है, क्योंकि संदेहवाद अनुभववाद की तार्किक परिणाम है। ह्यूम एक संगत अनुभववादी होने के कारण उन्होंने उन सभी चीजों पर संदेह किया है जो अनुभव के विषय नहीं है। यही कारण है कि इन्होंने आत्मा, ईश्वर कारणता आदि प्रत्ययों पर संदेह किया।

ह्यूम दार्शनिकों के कार्य-कारण की धारणा का खण्डन करता है। दार्शनिक के अनुसार कार्य और कारण में निश्चित और अनिवार्य संबंध होता है क्योंकि विशिष्ट कारण में विशिष्ट कार्य उत्पन्न करने की गुप्त शक्ति होती है। कार्य और कारण परस्पर अनिवार्य संबंध के सत्र में बँधे होते हैं। अरस्तु केवल विचार और तर्क के आधार पर ही एक को देखकर दूसरे के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कारण का ज्ञान अनिवार्य रूप से कार्य का ज्ञान प्रदान करना है।

कार्य-कारण का उपरोक्त दार्शनिक धारणा से ह्यूम यह प्रश्न उठता है कि हमें शक्ति तथा अनिवार्य संबंध जैसे प्रत्ययों को प्रयोग करने का क्या अधिकार है ? दार्शनिक धारणा की विवेचना के लिए ह्यूम कार्य-कारण संबंध में यथाकथित अनिवार्य संबंध का विश्लेषण करता है।

प्रश्न 4.
जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवधारणा की व्याख्या करें।
उत्तर:
पंच महाव्रत अपनाकर ही मनुष्य मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है। ऐसा करने से कर्मों का आश्रय जीव में बन्द हो जाता है तथा पुराने कर्मों का क्षय हो जाता है। फलस्वरूप जीव, अपनी स्वाभाविक अवस्था जिनमें अनन्त शक्ति, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्द मौजूद है को प्राप्त कर लेता है। अतः मोक्ष सिर्फ दुःखों का विनाश ही नहीं, अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति भी है।

स्पष्टतः जैन-दर्शन मोक्ष के दोनों पहलुओं (भावात्मक एवं निषेधात्मक) में विश्वास रखना है। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुःख रहित अवस्था है और भावात्मक रूप से यह अनन्तचतुष्टय की प्राप्ति की भावस्था है।
पंच महाव्रत-

(i) अहिंसा-जैन-धर्म के अनुसार अहिंसा का अर्थ किसी जीव को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचना है। जैन-दर्शन सभी जीवों की एकता का समर्थक है। इसलिए इसने किसी जीव को कष्ट न पहुँचाने का आदेश दिया है। कष्टप्रद मजाक भी त्याज्या कहा गया है।

(ii) सत्य-असत्य भाषण का त्याग एवं सत्य भाषण अपनाना भी आवश्यक है। मोह, राग, द्वेष, के कारण ही असत्य होना है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सत्य का पालन आवश्यक है। जैनों के अनुसार सत्य सदैव मधुर होना चाहिए। अंधे को अंधा कहना कटुसत्य है। ऐसा सत्य अंवाछनीय माना गया है।

(iii) अस्तेय-किसी की सम्पत्ति का अपहरण नहीं करना ही अस्तेय है। जैनों के अनुसार धन व्यक्ति का वाह्य जीवन है। अतः किसी का धन लेना उसकी जान लेना है। बिना मर्जी के किसी का धन लेना या आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना चोरी माना गया है। महात्मा गाँधी का भी इसी प्रकार का विचार था।

(iv) ब्रह्मचर्य- केवल काम वासना से दूर रहना ही ब्रह्मचर्य नहीं है। इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण ही ब्रह्मचर्य है।

(v) अपरिग्रह- सांसारिक विषय भोगों से दूर रहना ही अपरिग्रह है। व्यक्ति रोग, द्वेष, माया, मोह, इन्द्रियों की तृप्ति आदि में अनासक्त रहता है। फलतः बन्धन ग्रस्त होता है। इन सांसारिक विषय-वासनाओं के प्रति अनासक्त रहना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक माना गया है।

उपर्युक्त पंचमहाव्रतों में घनिष्ठ सम्बन्ध है । इनमें किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। पंचमहाव्रत मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक शर्त के रूप में स्वीकार किए गए हैं।

प्रश्न 5.
शंकर के माया सम्बंधी सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर के अनुसार माया और भ्रम या अविद्या और अभ्यास के बीच कोई अंतर नहीं है। माया ब्रह्मा की शक्ति है परंतु उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है। ब्रह्म, माया से अलग रह सकता है परंतु माया, ब्रह्म से अलग नहीं रह सकती।

अब प्रश्न उठता है, कि जब माया ब्रह्म का स्वरूप नहीं है तो ब्रह्म कैसे जगत के रूप में उत्पन्न होता है। इस समस्या का समाधान शंकर ने एक उपमा के द्वारा करने का प्रयास किया है। जिस प्रकार कोई जादूगर अपनी जादू की प्रवीणता से एक सिक्के का अनेक सिक्का दिखलाता है बीज से वृक्ष उत्पन्न करता है। किसी की गर्दन काट देता है और दर्शक जो जादू से अनभिज्ञ है मुग्ध हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म माया के द्वारा विश्व की रचना करते हैं। अज्ञानी इस जगत को सत्य मान बैठते हैं। जिस प्रकार जादूगर अपनी जादू से प्रभावित नहीं होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

अब प्रश्न उठता है कि क्या जगत केवल भ्रम मात्र ही है या इनकी कुछ वास्तविकता भी है ? शंकर इस प्रश्न का भावनात्मक उत्तर देते हैं। सर्वप्रथम शंकर के अनुसार प्रत्येक विषय के पीछे एक शुद्ध सत्ता होती है।

यहाँ हम शंकर में Bradley की अनुगुंज पाते हैं। Bradley प्रत्येक मौजूदगी के पीछे वास्तविकता को मानते हैं।

शंकर ने सत्ता को तीन कोटि में विभाजित किया है-

  1. प्रतिभासिक सत्ता
  2. व्यावहारिक सत्ता और
  3. पारमार्थिक सत्ता।

प्रतिभासिक सत्ता वह है जिसकी अनुभूति क्षणमात्र के लिए होती है। परंतु चैतन्य अनुभूति से वह बाधित हो जाता है। इसके विपरीत व्यावहारिक सत्ता की अनुभूति अज्ञानतावश जाग्रतावस्था में सत्य प्रतीत होती है परंतु यथार्थ ज्ञान होने पर असिद्ध साबित होती है। जैसे बचपन में खिलौना हमें अनमोल प्रतीत होता है परंतु बड़ा होने पर वह महत्वहीन सिद्ध होता है। इन दोनों से अलग पारमार्थिक सत्ता है जो सभी देश और काल में समान प्रतीत होता है। जैसे-सोते-जागते अवस्था में हमें अपनी आत्मा की अनुभूति होती है। हम कहते हैं कि मैं खूब सोया। अतः ऐसे आत्मा से समान सत्ता पारमार्थिक सत्ता है। अब यदि ध्यान से देखा जाये तो जगत स्वप्न के सामान असत्य नहीं है क्योंकि हमें वास्तविकता प्रतीत होती है।

प्रश्न 6.
ईश्वर के अस्तित्व को तात्त्विक युक्ति से प्रमाणित करें।
उत्तर:
मध्यकालीन दार्शनिक संत असलेम ने सर्वप्रथम ईश्वर के विषय में तत्त्व विषयक प्रमाण प्रस्तुत किया जिसको बाद में देकार्त ने विकसित किया। इस तर्क के अनुसार हम ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मानते हैं तथा उसे पूर्ण भी मानते हैं। इस प्रकार जब हम ईश्वर को पूर्ण मानते हैं तब उसका अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि अस्तित्व के अभाव में उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता। इससे स्पष्ट है कि तत्त्व विषयक तर्क के अनुसार ईश्वर की पूर्णता ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। इसके साथ ही यह भी यथार्थ है कि अस्तित्व के अभाव में ईश्वर को सर्वोच्च भी नहीं माना जा सकता।

देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्त्व विषयक तर्क कुछ भिन्न प्रकार से दिया है। उनका कहना है कि हमारे मन में जो असीम सर्वज्ञ और शाश्वत सत्ता का प्रत्यय है वह असीम, सर्वज्ञ और शाश्वत शक्ति के अस्तित्व को सिद्ध करता है क्योंकि यदि यह विचार किया जाए कि ईश्वर को प्रत्यय नहीं माना जा सकता क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है इसलिए वह पूर्ण के प्रत्यय का कारण नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि यह कहा जाए कि असीम प्रत्यय सकारात्मक न होकर नकारात्मक है तब देकार्त का यह कहना है कि असीम का बोध असीम से पूर्व और अधिक स्पष्ट तथा यथार्थ होता है क्योंकि ससीमता असीमता के अपेक्षा रखती है तथा अपूर्ण पूर्ण की अपेक्षा से होता है।

इस प्रकार असीम के प्रत्यय का कारण न तो मनुष्य है और न ही यह नाकरात्मक प्रत्यय है बल्कि इस प्रत्यय का स्वयं ईश्वर ही कारण है। इस विषय में यदि कहा जाए कि मनुष्य ससीम एवं अपूर्ण है तब उसके मन में असीम और पूर्ण का प्रत्यय कैसे बन सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए देकार्त ने कहा है कि यह तो मान्य है कि मनुष्य सीमित है इसलिए वह असीम की धारणा को ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु इस विषय में यह भी स्पष्ट ही है कि मनुष्य यह तो जान सकता है कि उसके मन में जो असीम की धारणा है वह स्वयं से सम्बन्धित नहीं वरन् उसका सम्बन्ध किसी पूर्ण ईश्वर से ही हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट ईश्वर का प्रत्यय या असीम का प्रत्यय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है।

प्रश्न 7.
कारण के गुणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
मिल ने कारण में पूर्ववर्ती एवं अनौपाधित लक्षणों पर बल दिया तो कारवेथ रीड ने पूर्ववर्तिता, नियतता, अनौपाधिता एवं तात्कालिकता चार लक्षणों पर बल दिया है। इसमें कारवेथ रीड के अनुसार, गुणात्मक दृष्टि से किसी भी घटना का कारण कार्य का तात्कालिक, अनौपाधिक, नियतपूर्ववर्ती है तथा मिल साहब के अनुसार, किसी घटना का कारण “वह पूर्ववर्ती या पूर्ववर्त्तियों का समूह है जिसके या जिनके होने के बाद वह घटना नियत रूप से तथा अनौपाधिक रूप से होती है। दोनों परिभाषाओं को देखने के बाद कारण के निम्नलिखित लक्षण पाते हैं-

(i) पर्ववर्ती होना (Anticedent)- कारण और कार्य सापेक्षवाद है। एक के बाद दूसरा एक क्रम में पाया जाता है जिसका आदि और अंत हमें नहीं पता चलता है। अतः, किसे कारण समझा जाए? इस समस्या को समझने के लिए मिल साहब का कहना है कि किसी घटना के पहले घटने वाली घटना के कारण समझ लेना ठीक होगा। मेलोन साहब का विचार है कि कारण और कार्य के बीच एक गणित की रेखा है. जिसमें चौड़ाई नहीं होती है, अर्थात् कारण और कार्य एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि एक तथ्य के दो छोर हैं। जो हमें पूर्ववर्ती के रूप में पहले दिखाई पड़ता है उसे कारण कहते हैं और बाद में जो अनुवर्ती के रूप में दिखाई पड़ता है उसे कार्य का रूप देता है। अत: इसके अनुसार कारण कार्य के पहले आता है।

(ii) नियत अनियत होना (Invariable)-पहले घटने वाली घटना को कारण तो कहा जाता है लेकिन सभी पहले घटने वाली घटना कारण नहीं हो सकता है। ऐसा कहने से अंधविश्वास का जन्म हो सकता है। पहले घटने वाली घटनाएँ दो तरह की हैं-
(a) नियत तथा
(b) अनियत।

(a) अनियत पूर्ववती (Variable anticedent)-अनियत पूर्ववर्ती घटनाएँ वे हैं जो कार्य के पहले नियमित रूप से नहीं पायी जाती है। कभी होता है और कभी नहीं भी। जैसे-वर्षा के पहले घटने वाली घटनाओं के रूप में हम फुटबॉल मैच, राम की शादी, कॉलेज में सभा इत्यादि को पा सकते हैं लेकिन नियमित रूप से वर्षा के पहले हमेशा नहीं आते हैं इसलिए ये कारण भी हो सकते हैं। अतः अनियत घटनाएँ कारण कभी नहीं हो सकती है।

(b) नियत पूर्ववती (Invariable anticedent)-ये वे घटनाएँ हैं जो किसी कार्य के पहले देय था ही नियत रूप से पायी जाती है, जैसे-वर्षा के पहले बादल का घिर जाना। जब कभी भी वर्षा होगी आकाश में बादल का रहना जरूरी है। अतः बादल का होना नियत पूर्ववर्ती घटना है। ऐसा विचार ह्यूम का है। घटना के पहले जो भी आवे, जो कुछ भी घटे उन सबों को बिना विचारे कारण मान लेना एक दोष पैदा कर सकता है। जिसे हम पूर्ववर्ती घटनाओं के रूप में पाते हैं, परन्तु वे सभी आकस्मिक या परिवर्तनशील हैं। इसलिए अनियत पूर्ववर्ती घटना के कारण बनने का योग कभी भी प्राप्त नहीं होगा। इसलिए ह्यूम साहब ने हमेशा ही नियत पूर्ववर्ती घटना को कारण मानना उचित बताया है।

(iii) अनौपाधिक होना (Unconditional)-कभी-कभी ह्यूम के विचारों का मानने से एक समस्या आ जाती है जिसे कारवेथ रीड ने हमारे सामने दिन और रात का उदाहरण रखा है। दिन के पहले रात और रात के पहले दिन नियत पूर्ववर्ती घटना के रूप में पाए जाते हैं। यदि हम ह्यूम की बात न माने तो दिन का कारण रात और रात का कारण दिन होना ही होगा। ऐसा कहना हास्यास्पद होगा, क्योंकि दिन और रात का होना एक शर्त पर निर्भर करता है, वह है पृथ्वी का चौबीस घंटे में अपनी कील पर चारों तरफ एक बार घूम जाना। वास्तव में यही दिन और रात का अलग-अलग कारण हो सकता है। इस समस्या को दूर करने के लिए मिल साहब कहते हैं कि इसी प्रकार की घटना को नियतपूर्ववर्ती घटना का कारण माना जा सकता है जो किसी शर्त पर निर्भर नहीं करे अर्थात् वह अनौपाधिक हो।

(iv) तात्कालिक होना (Immediate)-कारण का अंतिम गुणात्मक लक्षण तात्कालिकता है। कारण जो कार्य का तात्कालिक पूर्ववर्ती होना चाहिए। अतः कारण से तुरंत पहले आने वाली पूर्ववर्ती में खोजना चाहिए। दूरस्थ पूर्ववर्ती को कारण नहीं मानना चाहिए। जैसे-कॉलेज में सुबह पढ़ना, शाम को टहलना, रात को ओस में सोना इत्यादि घटनाओं के बाद हमें खूब जोर से सर दर्द होता है। यहाँ सर दर्द के पहले ओस में सोना तात्कालिक घटना है और अन्य घटनाएँ दूर की हैं। इस तरह पूर्ववर्ती नियुत अनौपाधिक एवं तात्कालिक मिश्रण है।

प्रश्न 8.
पुरुषार्थ के रूप में अर्थ और काम की व्याख्या करें।
उत्तर:
पुरुषार्थ शब्द दो शब्दों के योग से बना है-पुरुष + अर्थ। पुरुष शब्द आत्मा का पर्यायवाची माना जाता है और इस अर्थ से हमारा तात्पर्य उद्देश्य होता है। इस प्रकार पुरुषार्थ शब्द End या good का पर्यायवाची शब्द माना जा सकता है। भारतीय आचार दर्शन में जीवन के भिन्न-भिन्न पक्ष को ध्यान में रखकर पुरुषार्थों की संख्या चार माना गया है जिन्हें हम क्रमश: अर्थ (Wealth), काम (Enjoyment), धर्म (Virtues), मोक्ष (Salvation or Liberation). कहते हैं।

इन चारों पुरुषार्थों को दो वर्गों में रखा जा सकता है। प्रथम तीन पुरुषार्थ साधन के रूप में पुरुषार्थ माने जाते हैं, किन्तु चौथा पुरुषार्थ परमपुरुषार्थ माना जाता है। जिसके लिए अंग्रेजी शब्द Summan bonum या Supreme good का प्रयोग किया जाता है। इन चारों पुरुषार्थ की व्याख्या अपेक्षित है। सबसे पहला पुरुषार्थ है-अर्थ या Wealth।

अर्थ (Wealth)-अर्थ शब्द का प्रयोग भी भिन्न-भिन्न अर्थों में किया जाता है। किन्तु भारतीय आचार दर्शन के क्षेत्र में अर्थ से हमारा तात्पर्य उन भौतिक साधनों से है जिसके आधार पर हम जीवन-यापन कर पाते हैं। क्या हम असीम रूप से भौतिक साधनों का अर्जन कर सकते हैं ? या इनके अर्जन के सम्बन्ध में कुछ सीमा है, कुछ वैसे प्रश्न हैं जिनका सम्बन्ध मूलतः अर्थ की नैतिकता (Morality of wealth) से है। यह सर्वविदित है कि जहाँ पूँजीवाद के समर्थक यह मानते हैं कि व्यक्ति को असीमित धन अर्जन का अधिकार है वहीं दूसरी ओर साम्यवाद के समर्थक अर्थ के ऊपर व्यक्तिगत नियंत्रण को बिल्कुल अनैतिक मानते हैं।

भारतीय नैतिक व्यवस्था में अर्थ के महत्त्व को आँका गया है, किन्तु यहाँ न तो पूँजीवादी व्यवस्था की तरह असीम धन अर्जन को नैतिक माना गया है और न ही हम यह मानते हैं कि व्यक्ति बिल्कुल ही भौतिक साधनों का परित्याग कर दें। वस्तुतः अर्थ तो मनुष्य का बाह्य जीवन माना गया है किन्तु इसका औचित्य केवल उसी हद तक है जिस हद तक इसे जीवन-यापन के साधन के रूप में किया जाना है या अतिथि-सत्कार के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हमें वह उतना ही (धन) दे जिससे हम जीवन-यापन कर सकें। यह इस कथा से भी स्पष्ट हो जाता है-

“साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।

इसी प्रकार, महात्मा गाँधी का भी विचार था कि हम उसी हद तक भौतिक साधनों का अर्जन करें, जिस हद तक वह उस दिन जीवन-यापन के लिए अनिवार्य हो। इस प्रकार अर्थ का अर्जन इसी हद तक नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जाता है जिसे हद तक इसे हम जीवन-यापन के साधन के रूप में प्रयोग में लाते हैं। अगर इसके आधार पर हम अन्य व्यक्तियों का शोषण प्रारम्भ कर देते हैं तो इसका कोई भी नैतिक औचित्य नहीं रह जाता।

काम (Enjoyment)-भारतीय आचार दर्शन का आचार मानव जीवन का मनोवैज्ञानिक.पक्ष भी माना जाता है जिसके अन्तर्गत काम की नैतिकता (Morality of enjoyment) को स्थान देते हैं। काम शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है। संकुचित अर्थ में इसका तात्पर्य Sexual Activities से लगाया जाता है। किन्तु वृहत् अर्थ में किसी भी इन्द्रियों के उपयोग के आधार पर प्राप्त आनन्द को काम के अन्तर्गत रखा जाता है। काम के सम्बन्ध में दो नैतिक सिद्धांत हैं- एक ओर सुखवाद के समर्थक इसे जीवन का परम आदर्श या परम शुभ मानते हैं तो दूसरी ओर Scepticism के समर्थक यह मानते हैं कि नैतिक जीवन में काम का कुछ भी महत्त्व नहीं है। जहाँ एक ओर पहले सिद्धांत के अनुसार Morality consists in titillation of the senses. दूसरे सिद्धांत के अनुसार Morality consists in denoucing the life of sensibility.

इन दोनों के बीच मध्यम वर्ग के रूप में भारतीय नैतिक दर्शन में काम के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। किन्तु यहाँ इसे हम Restrained enjoyment के रूप में स्वीकार करते हैं। , चार्वाक भले ही इसे परम शुभ के रूप में स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 9.
वैशेषिक के समवाय पदार्थ की विवेचना करें।
उत्तर:
‘समवाय’ वह सम्बन्ध है जिसके कारण दो पदार्थ एक-दूसरे में समवेत रहते हैं। यह एक आन्तरिक सम्बन्ध है जो दो अविच्छेद्य (Inseparable) वस्तुओं को सम्बन्धित करता है। उदाहरणस्वरूप,, द्रव्य और गुण या कर्म का सम्बन्ध ‘समवाय’ है। इस सम्बन्ध से जुटी वस्तुएँ एक-दूसरे से अलग नही की जा सकती। प्रभाकर मीमांसा में समवाय अनेक माने गये हैं प्रभाकर के मतानुसार, नित्य वस्तुओं का समवाय नित्य और अनित्य वस्तुओं का समवाय अनित्य होते हैं। परन्तु न्याय वैशेषिक में एक ही नित्य समवाय माना गया है।

समवाय अदृश्य होता है इसलिए ज्ञान अनुमान द्वारा प्राप्त किया जाता है।
समवाय का अच्छी तरह समझने के लिए वैशेषिक द्वारा प्रमाणित दूसरे ‘सम्बन्ध संयोग’ (Conjunction) को समझ लेना आवश्यक है। संयोग और समवाय वैशेषिक के मतानुसार दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। संयोग एक अनित्य सम्बन्ध है। संयोग की परिभाषा देते हुए कहा गया है-‘पृथक-पृथक वस्तुओं का कुछ काल के लिए परस्पर मिलने से जो सम्बन्ध होता है, उसे संयोग (conjunction) कहा जाता है।’ उदाहरणस्वरूप-पक्षी वृक्ष की डाल पर आकर बैठता है। उसके बैठने से वृक्ष की डाल और पक्षी के बीच जो सम्बन्ध होता है उसे ‘संयोग’ कहा जाता है। यह सम्बन्ध अनायास हो जाता है। कुछ काल के बाद यह सम्बन्ध टूट भी सकता है। इसलिए इसे अनित्य सम्बन्ध कहा गया है। यद्यपि समवाय और संयोग दोनों सम्बद्ध हैं फिर भी दोनों के बीच अनेक विभिन्नताएँ दृष्टिगत होती है।

(i) संयोग एक बाह्य सम्बन्ध (External relation) हैं, किन्तु समवाय एक आन्तरिक सम्बन्ध (Internal relation) है।

(ii) संयोग द्वारा सम्बन्धित वस्तुएँ एक-दूसरे के पृथक् की जा सकती है। परन्तु समवाय द्वारा सम्बन्धित वस्तुओं को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप-पुस्तक और टेबुल को एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकता है, किन्तु द्रव्य और गुण को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। चीनी में मिठास समवेत है। मिठास को चीनी से पृथक् नहीं किया जा सकता।

(iii) संयोग अस्थायी (Temporary) है, किन्तु समवाय स्थायी (Permanent) होता है।

(iv) संयोग एक प्रकार का आकस्मिक सम्बन्ध (Accidental relation) है, किन्तु समवाय आवश्यक सम्बन्ध (Essential relation) है। संयोग द्वारा सम्बन्धित टेबुल और पुस्तक पहले अलग-अलग थे, किन्तु अकस्मात् इनमें संयोग स्थापित हो गया। किन्तु चीनी और मिठास तथा नमक और खारापन में समवाय है जो आवश्यक सम्बन्ध है।

(v) ‘संयोग’ अपने सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित नहीं करता किन्तु ‘समवाय’ सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित करता है। उदाहरणस्वरूप, टेबुल और पुस्तक संयोग के पहले अलग-अलग थे और ‘संयोग के नष्ट हो जाने पर पुनः अलग-अलग हो जाते हैं।’

संयोग के अभाव या भाव से इनके अस्तित्व और स्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता। इसके विपरीत, “समवाय’ से जुटे पदार्थ अलग होकर अपना अस्तित्व एवं स्वरूप कायम नहीं रख सकते। उदाहरणस्वरूप शरीर और इसके अवयवों में समवाय सम्बन्ध रहता है। शरीर से पृथक अवयवों का अस्तित्व नहीं रह सकता और इसका कार्य भी समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार शरीर भी अवयवों से पृथक् होकर नहीं रह सकता।

(vi) संयोग के लिए दोनों या कम-से-कम एक वस्तु में गति या कर्म का होना अनिवार्य है। किन्तु समवाय किसी कर्म या गति पर आश्रित नहीं है।

(vii) न्याय-वैशेषिक संयोग को स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानते, किन्तु समवाय को स्वतंत्र पदार्थ मानते हैं।

वैशेषिक- दर्शन पर विचार करने से स्पष्ट है कि इसमें पदार्थों की मीमांसा हुई है। पदार्थ शब्द ‘पद’ और ‘अर्थ’ शब्द के मेल से बना है। पदार्थ का मतलब है जिसका नामकरण हो सके। जिस पद का कुछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है। पदार्थ के अधीन वैशेषिक दर्शन में विश्व की वास्तविक वस्तुओं की चर्चा हुई है।

वैशेषिक दर्शन में पदार्थ के दो प्रकार बताए गए हैं। वे हैं-भाव पदार्थ तथा अभाव पदार्थ। भाव पदार्थ की संख्या छः है। वे हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय। अभाव पदार्थ के अन्दर अभाव (Non-existence) को रखा जाता है। अभाव पदार्थ की चर्चा वैशेषिक सूत्र में नहीं की गयी है। अत: कुछ दार्शनिकों का मानना है कि अभाव पदार्थ का संकल कणाद के बाद हुआ है।

प्रश्न 10.
ज्ञान-विषयक सिद्धान्त के रूप में अनुभववाद पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अनुभववाद वह ज्ञानशास्त्रीय दार्शनिक सिद्धान्त है, जो समस्त ज्ञान का स्रोत बाह्य इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव को मानता है। यह बुद्धिवाद का पूर्णतः विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही एक मात्र ज्ञान का साधन है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का प्रत्येक ज्ञान अर्जित है, जन्म के समय मनुष्य के मस्तिष्क में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए अनुभववाद का कहना है कि जन्म के समय हमारा मस्तिष्क कोरे कागज के तरह रहता है तथा बाद में अनुभव के आधार पर ज्ञान अंकित होते हैं।

ज्ञान के मनुष्य तत्त्व प्रत्यय है। इन प्रत्ययों की उत्पत्ति अनुभव से होता है। बुद्धि प्रत्यय को मात्र ग्रहण करता है, उत्पन्न नहीं करता। बुद्धि के प्रत्ययों को निष्क्रिय ढंग से ग्रहण करती है। इसलिए प्रत्यय का एक मात्र जननी अनुभव है। अनुभववाद के समर्थक प्रमुख तीन दार्शनिक है लॉक, बर्कले और ह्यूम है। इन तीनों दार्शनिक ग्रेट ब्रिटेन के तीन प्रदेशों, लंदन, आयरलैण्ड और स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे-

(a) जॉन लॉक का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान प्रत्ययों से बनता है। लेकिन हमारे सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रत्यय क्या हैं ? इसके उत्तर में लॉक का कहना है कि प्रत्यय किसी बाह्य वस्तु के प्रतिनिधि होते हैं। जैसे-टेबुल, कुर्सी, पुस्तक आदि बाह्य पदार्थ है। जब इसे देखते हैं तो हमारे मन में एक प्रतिबिम्ब द्वारा वस्तु का बनता है। तब आँख बंद कर लेते हैं तो उस वस्तु का प्रतिमा बनी रहती हैं। यही प्रतिमा लॉक के अनुसार प्रत्यय है। अतः समस्त ज्ञान इन्हीं प्रत्ययों से बनता है जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होता है।

लॉक अनुभव का कहना है कि जन्म के समय हमारा मन एक स्वच्छ कोरे कागज के समान रहता है। इस मन में कुछ भी पूर्व से अंकित नहीं रहती है बल्कि समस्त ज्ञान प्रत्ययों से प्राप्त होते हैं। “Blac tabula, table rase, white paper empty calamity”.

लॉक को दो भागों में विभक्त किया है-सरल प्रत्यय से मिश्र प्रत्यय का निर्माण होता है और हमारा समस्त ज्ञान बनता है। जितने भी बुद्धिवादी दार्शनिक हैं वे सहज प्रत्यय कों जन्मजात मानते हैं। बुद्धिवादियों का कहना है कि ईश्वर, आत्मा धार्मिक और नैतिक मूल्य आदि प्रत्यय हमारे मन में जन्म से ही बैठा दी जाती है। वे प्रत्यय पर और अनिवार्य होते हैं। इसके विरुद्ध में लॉक का कहना है कि सहज प्रत्यय नाम का कोई भी चित्र अनुभव से पूर्व मन में स्थित नहीं होती। इसका खण्डन करते हुए, लॉक का कहना है कि-

(i) यदि कोई प्रत्यय जन्मजात होता तो सभी व्यक्तियों का इसका एक समान ज्ञान होना चाहिए था। लॉक महोदय का कहना है कि कुछ नास्तिकों को छोड़कर विश्व में कुछ ऐसे जातियाँ हैं जो ईश्वर से अपरिचित हैं इससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर का प्रत्यय है, लेकिन इसमें अनिवार्य और सार्वलौकिकता नहीं है।

यही बात सभी प्रत्यय पर लागू होती है। यह प्रत्यय अगर अनिवार्य और सार्वलौकिक होते तो बच्चों, पागल और मुर्ख व्यक्ति भी इसका ज्ञान अवश्य रखते। लेकिन व्यवहारिक जगत में ऐसा देखने को नहीं मिलता तो इसके विरोध में बुद्धिवादियों का कहना है कि इस सहज प्रत्यय बच्चों एवं पागलों में भी होते हैं लेकिन उसे इसका ज्ञान नहीं हो पाता है। लॉक का कहना है कि यह विशेष बात है कि एक ओर बुद्धिवाद इस सहज प्रत्यय को बुद्धि में निहित मानते हैं और दूसरी ओर कहता है कि व्यक्ति को ज्ञान नहीं है, तो ज्ञान बुद्धि का अनिवार्य तत्त्व है।

(ii) नैतिक सिद्धान्तों को लेकर संहज प्रत्यय को यदि समर्थन किया जाए तो नैतिक प्रत्यय कर्तव्य, अकर्त्तव्य के नियम अच्छे बुरे का विचार, सभी व्यक्तियों में सहज रूप से वर्तमान रहती हैलिांक का कहना है कि इसे भी सार्वभौमिकता कहना भूल होगी। लॉक का कहना है कि एक भी नैतिक ज्ञान ऐसा नहीं है जो सार्वभौमिकता हो। कुछ लोग जो पाप समझते हैं उसे ही दूसरे लोग पुण्य समझते हैं। जैसे कुछ लोग हत्या किसी भी जीव का क्यों नहीं हो, पाप समझते हैं, जब किसी अनेक लोग देवता के सामने बलि देना पुण्य समझते हैं। अतः नैतिकता का प्रत्यय भी सार्वलौकिक प्रत्यय नहीं है जो सभी में जन्मजात है।

(iii) लॉक का कहना है कि हम किसे सहज प्रत्यय कहेंगे यह बुद्धि बल्कि यह स्पष्ट नहीं कहते हैं। यदि अनिवार्यता और सार्वभौमिकता की सहज प्रत्यय की कसौटी हैं तो सूरज और उसका ताप चन्द्रमा और उसका शीतलता भी सार्वभौमिकता प्रत्यय है। इन्हें हम जन्म-जात नहीं कहेंगे। हम इन्हें ल अनभव के द्वारा जान सकते हैं। अत: लॉक जन्मजात प्रत्यय का खंडन करता है। लॉक का कहना है कि ज्ञान निर्माण के तीन तत्त्व हैं-

  1. (i) Subject
  2. (ii) Object
  3. (iii) Ideas

ज्ञान वस्तुओं का होता है। ज्ञान प्राप्त करने वाला अनुभवकर्ता है तथा ज्ञान का माध्यम प्रत्यय है। अतः लॉक अनुभव को ही स्वीकारात्मक है।

(b) अनुभववाद के दूसरा प्रबल समर्थक बर्कले का कहना है कि ज्ञान केवल अनुभव के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये एक रोचक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक बार मुझे जिज्ञासा हुई कि फाँसी लगाते समय कैसा अनुभव होता है यह जाना जाए। इसलिए अनुभववादी बर्कले ने स्वयं फाँसी के फंदे गले में लगा लिया। जब उसके मित्र फाँसी के फंदे खोले तो बर्कले बेहोश थे। इतना कट्टर अनुभववादी होते हुए भी भौतिकवादी न होकर अध्यात्मवादी हैं।

बर्कले अपने अनुभववादी विचार को लॉक के विचारों से ताल मेल कराते हुए आगे बढ़ाई है। बर्कले लॉक के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को मानकर कहते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान संवेदनाओं और इन संवेदनाओं के द्वारा होता है। इन्द्रिय बौधी समस्त ज्ञान को उत्पन्न करते हैं किन्तु इन्द्रिय बोध जो बर्कले प्रत्यय कहते हैं, वह मन में ही रहते हैं लॉक ने इसके स्रोत के रूप में स्थित पदार्थ की कल्पना की थी, पर बर्कले का मत है कि ऐसा किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता। हम केवल मन्स के प्रत्यय का अनुभव करते हैं, जो प्रत्यय इन्द्रियों का देन है, भौतिक पदार्थों का नहीं।

जैसे हमें आँख से रंग या प्रकाश का ज्ञान होता है, जीभ से स्वाद, कान से शब्द इत्यादि का बोध होता है। ये प्रत्यय एकत्र होकर वस्तु की संज्ञा देते हैं और ये संवेदना के द्वारा मिलते हैं। इन प्रत्ययों का संहार रूप वस्तुओं से हमारे मन में सुख-दुःख, प्रेम, घृणा, आशा-निराशा इत्यादि भावों का ज्ञान होता है। इनका ज्ञान एवं संवेदना से होता है जिसे बर्कले हमारे मन में कल्पना प्रस्तुत और स्मृति जन-प्रत्यय भी है। इसी को बर्कले में प्रत्ययवादी कहते हैं। इस प्रकार बर्कले के लिए अनुभव ज्ञान का साधन है किन्तु वह भौतिक पदार्थों का नहीं बल्कि ईश्वरीय प्रत्ययों का अनुभव है।

(c) अनुभववाद के तीसरा प्रबल समर्थक ह्यूम ने लॉक और बर्कले के तरह यह मानते हैं कि सभी ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं। ह्यूम का कहना है कि अनुभव प्रत्ययों का होता है वस्तु का नहीं। ह्यूम का अनुभववादी विचार लॉक और बर्कले के अनुभववादी विचार के अस्वीकार करते हुए जड़, जगत, ईश्वर और आत्मा के सत्ता को इंकार करते हैं और कहते हैं कि अनुभव केवल प्रत्ययों का ही होता है, जो लगातार आते-जाते रहता है। हम भ्रमवश एक स्थायी आत्मा की कल्पना कर बैठते हैं, जबकि आत्मा नाम की चीज मनुष्य के पास नहीं है।

ह्यूम कार्य कारण नियम का खंडन करता है, जिसे उसके पूर्व लॉक और बर्कले स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि कार्य कारण नियम कोई वृद्धिजन्य और सार्वभौम नियम नहीं है। बल्कि हम अपने अनुभव के आधार पर कार्य कारण के संबंध का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हम केवल संवेदना और स्व-संवेदना का अनुभव करते हैं। किसी जड़ पदार्थ का नहीं। इसी तरह आत्मा के बारे में ह्यूम का कहना है कि कभी भी आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। आत्मा कुछ नहीं है। केवल भिन्न-भिन्न संवेदनाओं का प्रवाह मात्र है। इसी प्रकार ईश्वर का भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। इसलिए इसकी पत्ता को भी राम इंकार करते हैं।

ज्ञान निर्माण के संबंध में ह्यूम का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान अनुभव से है। वे मनुष्य के अनुभव के विश्लेषण करते हुए कहते है कि हमारे अनुभव के मूल में दो वस्तुएँ रहती हैं-

  1. प्रत्यक्ष
  2. संस्कार।

संस्कार वे प्रधान भाव है जो प्रत्यक्षीकरण के साथ ही बड़ी तीव्रता से मन में आता है जो विचार या चिन्तन से बनते हैं वे प्रत्यय हैं। संस्कार के दो प्रकार होते हैं- (i) बाह्य, (ii) आन्तरिक। बाह्य संस्कार में हमारे इन्द्रिय बोध जैसे-देखना, छुना, स्पर्श करना आदि। आन्तरिक संस्कार में हमारे मनोवेग, प्यार, घृणा, क्रोध आदि आते हैं। इस प्रकार प्रत्यय का भी दो रूप हो जाते हैं-

  • सरल प्रत्यय,
  • मिश्र प्रत्यय। सरल प्रत्यय का निर्माण हमेशा संस्कारों के समरूप होता है, जबकि मिश्र प्रत्यय के लिए यह अप्रत्यय नहीं है। इन्हीं प्रत्ययों और संस्कारों से स्मृति और कल्पना शक्ति मिलकर ज्ञान का निर्माण करती है।

ज्ञान निर्माण के संबंध में घूम का कहना है कि बुद्धि बिलकुल निष्क्रिय रहती है। प्रत्ययों का राम के तीन प्रकार के पारस्परिक संबंध स्थापित करते हैं-

  • सदस्य का संबंध- दो वस्तु के समानता होने पर एक को देखने से दूसरे का भी स्मरण हो जाना।
  • विरोध का संबंध- दो वस्तुओं के आन्तरिक विरोध होने पर एक को देखने से दूसरा का स्मरण हो जाना।
  • परिमाण या संख्या का संबंध- इसके अलावे ह्युम तदात्म का संबंध देश काल देशकाल की असंगत का संबंध, जिसे ह्यूम अपने अनुभववाद में स्वीकार किया है।

आलाचना- अनुभववाद एक सुदृढ़ सिद्धान्त होते हुए भी स्वयं अपने आप को, अनेको दोषों से ग्रस्त होते हुए दिखाई देता है। जिसके कारण इसका अनेक आलोचना किया गया है-

  • अनुभववाद ज्ञान के निर्माण में बुद्धि को स्वीकार नहीं करता है इसका अर्थ यह है कि . बुद्धि ही केवल समस्त ज्ञान का निर्माण कर सकती किन्तु यह भी सच है कि केवल अनुभव पर समस्त ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
  • अनुभववाद बुद्धि को निष्क्रिय मानते हैं किन्तु मनोविज्ञान इस विचार को गलत सिद्ध कर दिया है। मनोविज्ञान के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति में हमारा मन सदैव गतिशील रहता है।
  • अनुभववादी लॉक का कहना है कि बुद्धि के पास कोई ऐसा भी नहीं है जो इन्द्रिय के पास नहीं थी। इसमें संशोधन करते हुए बुद्धिवादी दार्शनिक लाइबनित्स का कहना है कि बुद्धि के पास कोई ऐसा चीज नहीं है जो इन्द्रिय के पास नहीं था।J. T. Baxor का कहना है, “A theory can not be sensed and therefore on sensistic premises can not be known.”
  • अनुभववादी स्वयं मानते हैं कि अनुभव के द्वारा हमें सर्वमान्य एवं अवश्यभावी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में अनुभव को सम्य ज्ञान मानना उचित नहीं होगा।
  • ज्ञान का अनुभववादी विचार का प्रमाण ह्यूम का संदेहवाद जहाँ जाकर दर्शन एक अंधेरे गर्त में गिर गया है। यहाँ न नगर की सत्ता है, न ईश्वर की आत्मा की।
  • अनुभववादी संवेदनाओं का मानना है किन्तु वे संवेदनाएँ वहाँ तक अर्थहीन है, जब तक कि बुद्धि के द्वारा इनका कोई अर्थ नहीं लगाया जाए। अंग बुद्धि हमारे ज्ञान के निर्माण में आवश्यक है।

अतः अनुभववाद के उपर्युक्त ह्यूम द्वारा जगत, आत्मा तथा ईश्वर जैसे भयानक परिणाम प्रस्तुत करने के बाबजूद समकालीन दर्शन में बुद्धिवाद से अधिक अनुभववाद का ही समर्थन मिला है। यह मान्य है कि ज्ञान प्राप्ति का साधन मात्र अनुभव ही नहीं कहा जा सकता है बल्कि बुद्धि भी है। अनुभववाद में केवल दोष ही नहीं है इसमें विशेषता भी है बुद्धिवादियों ने ज्ञान को बिल्कुल अमूर्त बना दिया है लेकिन अनुभववादियों ने ज्ञान को संवेदनजन्य कहकर दर्शन के क्षेत्र में एक क्रान्ति ला दिया है। सच पूछा जाए तो अनुभववाद का चरम विकास ही Kant के दर्शन का जन्म देता है। Kant ने दोनों मतों की समीक्षा की और कहा कि दोनों में प्रारंभिक संयत्र है। इसलिए उन्होंने कहा कि, “बुद्धिजीवियों के अनुभव प्रधान है और अनुभव के बिना बुद्धि है।”

प्रश्न 11.
परम तत्व के सिद्धान्त के रूप में भौतिकवाद की समीक्षा करें।
उत्तर:
श्री भगवान को जान लेना या इनका ज्ञान प्राप्त करना ही परम ज्ञान और परम तत्व कहा जता है। इनसे बढ़कर पूरे सृष्टि में अन्य कोई नहीं, इन्हीं की आज्ञा, ब्रह्मा जी, शिव जी, वायु, यमराज, अग्नि, इन्द्र, वसु, ग्रह, नक्षत्र इत्यादि मानने को बाध्य हैं। परम तत्व यानि परम पुरुष का ज्ञान और उनके तत्व की वो कैसे इस सृष्टि को संचालन इत्यादि करते हैं और वो कैसे और कहाँ रहते हैं। कैसे उन्होंने सृष्टि बनायी तथा कैसे इस सृष्टि का प्रलय करते हैं। इसे परम तत्व या परम पुरुष का ज्ञान भी कहते हैं।

भगवान का ज्ञान को ज्ञान कहा जाता है और पूरी सृष्टि में इन्हें ही ज्ञान कहा गया है और यही परम पवित्र और सत है। और बाकी भगवान को छोड़कर सभी असत और अज्ञान है।

भौतिकवाद दार्शनिक एकत्ववाद का एक प्रकार हैं जिसका यह मत है कि प्रकृति में पदार्थ ही मूल द्रव्य है और साथ ही सभी दृग्विषय, जिस में मानसिक दृग्विषय और चेतना भी शामिल है भौतिक परस्पर संक्रिया के परिणाम है। भौतिकवाद का भौतिकवाद से गहरा सम्बन्ध है जिसका यह मत है कि जो कुछ भी अस्तित्व में है वह अंततः भौतिक है।

प्रश्न 12.
आत्मा-विषयक अद्वैत वृष्टि का संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर:
शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा. कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मै नहीं हूँ”, तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है। फिर भी ‘मै’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वासतविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग होता है। जैसे–मैं मोटा हूँ। कभी-कभी ‘मैं’ का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। अब प्रश्न उठता है कि इसमें किसको आत्मा कहा जाए। शंकर के अनुसार, जो अवस्थाओं में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-

  1. जाग्रत अवस्था (Waking experience)
  2. स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
  3. सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleep experience)

जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य और आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया”। इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है।

चैतन्य के साथ-ही-साथ आत्मा में आनन्द भी है। साधारण वस्तु में जो आनन्द को सत् + चित् + आनन्द् = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानंद है। चूँकि आत्मा वस्तुत: ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिक ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। संख्या ने आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्म सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।

शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थताः भोक्ता और कर्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों से स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगी। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे है। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य है। आत्मा त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।

शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। आत्मा ही वस्तुतः ब्रह्म है। शंकर ने आत्मा = ब्रह्म कहकर दोनों की तादात्म्यता को प्रमाणित किया है। एक ही तत्त्व आत्मनिष्ठ दृष्टि से आत्मा है तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म है। शंकर आत्मा और ब्रह्म ने ऐक्य को तत्त्व मसि (that thou art) से पुष्ट करता है। उपनिषद् के वाक्य “अहं ब्रह्मास्सि” (I am Brahman) से भी “आत्मा” और ब्रह्म के भेद का ज्ञान होता है।

प्रश्न 13.
व्यावसायिक नीतिशास्त्र के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता होती है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ, किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है।

व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहती है और समाज में वे अपने कार्यों को आम लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है। परन्तु एक व्यावसायिक का मुख्य उद्देश्य सिर्फ धन का अर्जन नहीं होना चाहिए बल्कि सेवा की भावना भी होनी चाहिए। व्यवसाय में, सेवा भाव का स्थान धन अर्जन के उद्देश्य से अधिक ऊँचा होना चाहिए। उदाहरणस्वरूप-शिक्षक, अभियंता, बैंकर्स, कृषक, चिकित्सक, पेशागत व्यक्ति तथा विभिन्न प्रकार के ऐसे व्यवसाय हैं, जिसमें नैतिकता के अभाव में, उस व्यवसाय में सफलता की. बात नहीं की जा सकती है।

प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है। अतः उसके अलग-अलग उद्देश्य एवं अलग-अलग कार्यशैली का होना भी आवश्यक है। चूँकि सभी व्यक्तियों का व्यवसाय अलग-अलग है, अतः उनकी नैतिकता भी पेशा के अनुकूल ही होनी चाहिए। वर्तमान संदर्भ में व्यावसायिक नैतिकता का होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है, अतः उनके अलग-अलग उद्देश्य और अलग-अलग कार्यशैली भी है। विभिन्न कार्यशैलियों तथा उद्देश्यों का निर्धारण व्यावसायिक नैतिकता के द्वारा ही संभव है। अतः प्रत्येक व्यवसाय की अपनी आचार-संहित का होना न केवल आवश्क है बल्कि सामाजिक व्यवस्था व प्रगति के लिए भी उपयोगी है।

हमारी भारतीय परम्परा में व्यावसायिक नैतिकता का स्पष्ट रूप वर्णश्रम धर्म में देखने को मिलता है। हमारे भारतीय नीतिशास्त्र में समाज के समुचित विकास के लिए सभी व्यक्तियों को उसके गुण और कर्म के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है। यहाँ चार प्रकार के वर्ण माने गये हैं-ब्रह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्र। इनका विभाजन का आधार श्रम एवं कार्य. विशिष्टीकरण है। इन सभी वर्गों की अपनी व्यावसायिक नैतिकता थी।

प्रश्न 14.
नीतिशास्त्र के क्षेत्र पर संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करें।
उत्तर:
नीतिशास्त्र के क्षेत्र का अर्थ है उसकी विषय-वस्तु की व्यापकता। आदर्शपरक विज्ञान होने के कारण नीतिशास्त्र नैतिक आदर्श की परिभाषा देने का प्रयास करता है।

(क) नैतिक गुण- नीतिशास्त्र का संबंध मुख्य रूप से उचित-अनुचित शुभ-अशुभ पाप-पुण्य इत्यादि नैतिक गुणों से है जिनके आधार पर मानव आचरण का मूल्यांकन किया जाता है।

(ख) नैतिक निर्णय- नीतिशास्त्र व्यक्ति के कर्मों का नैतिक निर्णय प्रस्तुत करता है तथा कमों को उचित या अनुचित शुभ या अशुभ के रूप में निर्मित करता है।

(ग) नैतिक मापदण्ड- नैतिक मापदण्ड के आधार पर ही कर्मो का मूल्यांकन कर नैतिक निर्णय दिया जाता है। नीतिशास्त्र इसी संदर्भ में, नैतिक मापदण्डों को अध्ययन कर उसे निर्धारित करने का प्रयास करता है जिनके आधार पर कर्मों के संबंध में नैतिक निर्णय दिया जा सके।

(घ) नैतिक पद्धति- नैतिक निर्णय के लिए किसी-न-किसी पद्धति को अपनाना आवश्यक है। इसी को ध्यान में रखकर नीतिशास्त्र विभिन्न पद्धतियों का अध्ययन करता है।

(३) कर्तव्य अधिकार एवं नैतिक बाध्यता- नैतिक गुणों के साथ-साथ कर्तव्य में नैतिक बाध्यता की चेतना सन्निहित होती है जो उचित है उसे करना तथा जो अनुचित है उसे नहीं करना व्यक्ति का कर्तव्य है। जब किसी कर्म को सम्पादित करने की बाध्यता समझते हैं तो उसे नैतिक बाध्यता कहते हैं जो एक व्यक्ति का कर्तव्य होता है वह अन्य का अधिकार होता है।

(च) पाप, पुण्य एवं उत्तरदायित्व- जब व्यक्ति उचित कर्मों का संपादन करता है तब उसे पुण्य की प्राप्ति होती है तथा अनुचित कर्मों के सम्पादन से पाप की प्राप्ति होती है।

(छ) पुरस्कार एवं दण्ड- उचित कर्म करने वाले को समाज एवं राज्य की ओर से पुरस्कृत किया जाता है तथा विहित कर्मों के विपरीत आचरण से दण्ड की प्राप्ति होती है।

(ज) नैतिक भावना- उचित कर्म करने से कर्ता को आनंद एवं संतोष की अनुभूति होती है तथा अनुचित कर्म करने से पश्चाताप की भावना उत्पन्न होती है।

(झ) समाजिक राजनीतिक, दार्शनिक एवं अन्य समस्याएं- सर्वोच्च शुभ के अध्ययन के क्रम में नीतिशास्त्र सामाजिक राजनीतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं तत्संबंधी अन्य समस्याओं का भी अध्ययन करता है।

प्रश्न 15.
कारण के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। . प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) मिल साहब तथा बेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपता नियम का एक रूप है। ब्रेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की हैं। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession), इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

(ii) जोसेफ एवंमेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम. उसमें अतभूर्त (implied) है।

(iii) वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, दोनों मौलिक हैं, दोनों का अर्थ भिन्न है, दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है और प्रकृति में समानता है।

अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे-कुछ मनुष्यों को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य.मरणशील हैं। कुछ से सबकी ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम की मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चिंतता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्यं होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के सहयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

प्रश्न 16.
Explain the Orthodox and Heterbox School of Indian Philosophy.
(भारतीय दर्शन के आस्तिक तथा नास्तिक सम्प्रदायों की व्याख्या कीजिए।)
उत्तर:
भारतीय दर्शन ज्ञान का अथाह सागर है। वाद-प्रतिवाद की परम्परा से विकसित होने के फलस्वरूप इस चिंतन यात्रा में कई विचार देखने को मिलते हैं जिनको मोटा-मोटी दो वर्गों में रखा गया है-आस्तिक और नास्तिक सम्प्रदाय।

भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक के तीन अर्थ बतलाए गए हैं-

  • आस्तिक वह है जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है। इसके ठीक विपरीत नास्तिक वह है जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता है। यह आस्तिक और नास्तिक पद का साधारण अर्थ हुआ।
  • प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि एवं जयादित्यकृत “काशिका” में आस्तिक और नास्तिक की परिभाषा इस प्रकार से दी गई है कि आस्तिक वह है जो परलोक में विश्वास करता है। नास्तिक वह है जो परलोक में विश्वास नहीं करता है।
  • तीसरा विचार वेदों में आस्था रखने वाले सम्प्रदाय को आस्तिक और वेदों की निन्दा करने वाले को नास्तिक कहता है।

भारतीय दर्शन उपर्युक्त वर्णित तीसरे अर्थ को स्वीकार कर आस्तिक और नास्तिक सम्प्रदायों का निर्धारण करता है। भारतीय दर्शन में आस्तिकता की कसौटी वेदों की चरम प्रमाणिकता की स्वीकृति मान ली गई है। इस क्रम में भारतीय दर्शन के छः सम्प्रदायं-सांख्य योग, न्याय वैशेषिक मीमांसा और वेदान्त आस्तिक कहा गया है। ये ‘षड्दर्शन’ के रूप में भी जाने जाते हैं। इनमें से मीमांसा और वेदान्त वेद की सत्ता में पूर्णतः विश्वास करता है। जहाँ मीमांसा वेद के कर्म काण्ड को प्रश्रय देता है वहीं वेदान्त ज्ञानकाण्ड को स्वीकार करता है। शेष चार सम्प्रदाय वेदभक्त विशेष अर्थ में कहे जाते हैं। नास्तिक सम्प्रदायों के अन्तर्गत चार्वाक, बुद्ध और जैन आते हैं। इसमें चार्वाक हर दृष्टिकोण से नास्तिक माना जा सकता है। यह वेदनिन्दक परलोक में अनास्थावान एवं अनीश्वरवादी है। अतः वह नास्तिक शिरोमणि कहलाता है।

संक्षेप में, भारतीय दर्शन में किए गये आस्तिक और नास्तिक विभाजन को इस प्रकार से दर्शाया जा सकता है-
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वेदों की प्रमाणिकता को आस्तिकता की कसौटी मानने से भारतीय दर्शन में वेदों की महत्ता स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस मापदण्ड के निर्धारण के पीछे वेदों के प्रति पूर्वाग्रह दीख पड़ता है। बौद्धों और जैनों के भी अपने धार्मिक ग्रन्थ थे और उनकी दृष्टि में षड्दर्शन ही नास्तिक कहे जा सकते थे। इसलिए वेदों की प्रमाणिकता के आधार पर किसी सम्प्रदाय को आस्तिक कहने का कोई युक्ति संगत आधार नहीं दीख पड़ता है। फिर भी भारतीय दर्शन का मूलस्रोत वेदों को मानने के कारण वेद ही आस्तिकता के मापदण्ड के रूप में मान लिए गए हैं।

भारतीय दर्शन के अन्तर्गत जिन षड्दर्शन को स्वीकार किया गया है उसे हिन्दू दर्शन भी कहा जाता है इसके कुछ कारण हैं; जैसे-पहला कारण तो यह है कि इन छः सम्प्रदायों के संस्थापक हिन्दू महर्षि रहे हैं, जैसे-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के संस्थापक क्रमशः गौतम, कणाद, कपील, पतंजलि, जैमिनी और वादरायण हैं। ये सभी संस्थापक हिन्दू ही थे।

तीसरा कारण यह है कि हिन्दू शब्द का व्यापक अर्थ सिर्फ हिन्दू सम्प्रदाय ही न होकर समस्त भारतीय या हिन्दुस्तानी से हो जाता है। यह एक विशेष धर्म या विशेष दर्शन का बल नहीं है। यह समस्त भारतीयों का दर्शन है। यही कारण है कि जैन, बौद्ध और चार्वाक को भी हिन्दू दर्शन के अन्तर्गत रखा जाता है। यह हिन्दू शब्द का असाधारण प्रयोग है। संकीर्ण अर्थ में भारतीय ‘ दर्शन को हिन्दू दर्शन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके अन्तर्गत चार्वाक, बौद्ध और जैन अहिन्दू दर्शन विद्यमान है।

प्रश्न 17.
Discuss important schools of Indian philosophy. (भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण सम्प्रदायों का व्याख्या करें।)
उत्तर:
भारतीय दर्शन को मूलतः दो वर्गों में विभाजित किया गया है-आस्तिक (Orthodox) और नास्तिक (Heterodox)। आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक आस्तिक दर्शन की कोटि में आते हैं। इन दर्शनों में सभी ईश्वर को नहीं मानते हैं। उन्हें आस्तिक इसलिए कहा जाता है कि ये सभी वेद को मानते हैं। नास्तिक दर्शन की कोटि में चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा गया है। इनके नास्तिक कहलाने का मूल कारण यह है कि ये वेद की निन्दा करते हैं, जैसा कि कहा भी गया है-नास्तिको वेद निन्दकः। अर्थात् भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद में विश्वास नहीं करता है।

व्यावहारिक जीवन में आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग एक-दूसरे अर्थ में भी होता है। आस्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर में आस्था रखता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर का निषेध करता है। इस प्रकार ‘आस्तिक’ और ‘नास्तिक’ से तात्पर्य क्रमशः ‘ईश्वरवादी’ और ‘अनीश्वरवादी’ है।

यदि भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग क्रमशः ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी के अर्थ में होता है तो सांख्य और मीमांसा दर्शन को भी नास्तिक दर्शनों की कोटि में रखा जाता। क्योंकि सांख्य और मीमांसा दोनों ही ईश्वर को नहीं मानने के कारण
अनीश्वरवादी दर्शन हैं। लेकिन ये दोनों वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करते हैं इसलिए आस्तिक – कहे जाते हैं।

आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग एक और अर्थ में होता है। आस्तिक से तात्पर्य है जो परलोक में विश्वास करता है, अर्थात् स्वर्ग और नरक की सत्ता में आस्था रखता है। नास्तिक उसे कहा जाता है जो स्वर्ग और नरक में विश्वास नहीं करता। यदि भारतीय दर्शन में आस्तिक
और नास्तिक का प्रयोग इस दृष्टिकोण से किया जाय तो जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक दर्शन की कोटि में आ जायेंगे क्योंकि वे भी परलोक को मानते हैं। इस दृष्टिकोण से सिर्फ चार्वाक को ही. नास्तिक दर्शन कहा जा सकता है।

भारतीय दर्शन की रूप-रेखा से यह प्रमाणित होता है कि वेद ही एक कसौटी है जिसके आधार पर भारतीय दर्शन के सम्प्रदायों का विभाजन हुआ। इस वर्गीकरण से भारतीय विचारधारा में वेद का महत्त्व स्पष्टतः दृष्टिगत होता है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत दर्शनों को दोनों अर्थों में आस्तिक कहा जाता है क्योंकि वे वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करते हैं साथ ही साथ परलोक की भी सत्ता में विश्वास करते हैं।

चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन को दो अर्थों में नास्तिक कहा जा सकता है। पहला वेद को नहीं मानने के कारण तथा दूसरा ईश्वर के विचार का खण्डन करने अर्थात् अनीश्वरवाद को अपनाने के कारण, नास्तिक कहा जाता है।

भारतीय दर्शन में चार्वा ही एकमात्र दर्शन है जो तीनों ही अर्थों में नास्तिक की कोटि में रखा जाता है। पहले अर्थ में वेद को अप्रमाण मानने के कारण तथा दूसरे अर्थ में परलोक को नहीं मानने के कारण नास्तिक है। चार्वाक दर्शन में वेद का उपहास पूर्ण रूप से किया गया है। ईश्वर को भी प्रत्यक्ष की सीमा से बाहर होने के कारण, चार्वाक नहीं मानता है। क्योंकि प्रत्यक्ष ही उनके अनुसार एकमात्र प्रमाण है। इसी तरह चार्वाक परलोक में भी विश्वास नहीं करता। उसके अनुसार यह संसार ही एकमात्र संसार है। मृत्यु का अर्थ जीवन का अन्त है। अत: परलोक में विश्वास करना चार्वाक के अनुसार मूर्खता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि जिस दृष्टिकोण से भी देखा जाए चार्वाक पक्का नास्तिक प्रतीत होता है। इसलिए चार्वाक को ‘नास्तिक शिरोमणि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है।

जब हम आस्तिक दर्शनों के आपसी सम्बन्ध पर विहंगम दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि न्याय और वैशेषिक, सांख्य और योग, मीमांसा और वेदांत संयुक्त सम्प्रदाय प्रतीत होते हैं। न्याय और वैशेषिक दोनों में यों तो न्यूनाधिक सैद्धांतिक भेद है, फिर भी दोनों विश्वात्मा और परमात्मा (ईश्वर) के सम्बन्ध में एक ही विचार रखते हैं। दोनों का संयुक्त सम्प्रदाय ‘न्याय-वैशेषिक’ कहा जाता है। सांख्य और योग भी पुरुष और प्रकृति के समान सिद्धान्त को मानता है। इसलिए दोनों का संकलन ‘सांख्य-योग’ के रूप में हुआ है। न्याय-वैशेषिक और सांख्य-योग स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं। क्योंकि वेद का प्रभाव इन दर्शनों पर परोक्ष रूप में पड़ा है।

इसके विपरीत मीमांसा और वेदांत वैदिक संस्कृति की ही देन कहे जा सकते हैं। वेद में दो विचारधारायें थीं एक का सम्बन्ध कर्म से था तथा दूसरे का ज्ञान से। ये क्रमशः वैदिक कर्म-काण्ड तथा वैदिक ज्ञानकाण्ड के नाम से विदित हैं। मीमांसा वैदिक कर्म-काण्ड पर आधारित हैं और • वेदान्त ज्ञानकाण्ड पर। चूँकि मीमांसा और वेदान्त में वैदिक विचारों की मीमांसा हुई है इसलिए दोनों ही को कभी-कभी मीमांसा कहते हैं। भेद के दृष्टिकोण को पूर्व-मीमांसा या कर्म-मीमांसा तथा वेदान्त को उत्तर मीमांसा या ज्ञान-मीमांसा कहते हैं। ज्ञान मीमांसा में ज्ञान का और कर्म-मीमांसा में कर्म का विचार किया जाता है।

प्रश्न 18.
Explain briefly the Philosophy of the Bhagvad Gita. (भगवद् गीता के दर्शन की संक्षेप में व्याख्या करें।)
Or,
What is the central message of Bhagvad Gita. अथवा, (गीता के मुख्य उपदेश क्या हैं ? वर्णन करें।)
उत्तर:
गीता, हिन्दुओं का अत्यन्त ही पवित्र और लोकप्रिय रचना है। गीता न केवल धार्मिक विचारों से ही भरा है, बल्कि दार्शनिक विचारों से ओत-प्रोत है। यही कारण है कि गीता की प्रशंसा भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने भी मुक्त कंठ से की है। गीता समस्त भारतीय दर्शन का निचोड़ प्रतीत होता है। लोकमान्य तिलक ने इसकी प्रशंसा करते हुए कहा है-It is most luminous and priceless gem which gives peace to afficted souls and makes us masters of spiritual wisdom. महात्मा गाँधी ने गीता की सराहना करते हुए कहा है-जिस प्रकार हमारी पत्नी विश्व में सबसे सुन्दर स्त्री हमारे लिए है उसी प्रकार गीता के उपदेश सभी उपदेशों से श्रेष्ठ है। गाँधीजी ने गीता को प्रेरणा का स्रोत कहा है।

गीता के मुख्य उपदेश की चर्चा बहुत ही सुन्दर ढंग से Annine Besant ने किया है। Annine Besant के अनुसार-It is meant to lift the aspirant from the lower levels of renuciation where objects are renounced, to the loftier heights where desires are dead, and where the yogi dwells in calm and ceaseless contemplation while his body and mind are actively employed in discharging the duties that fall to his lot in life.

गीता का मुख्य उपदेश लोक-कल्याण है। आज के युग में जब मानव स्वार्थ की भावना से प्रभावित रहकर निजी लाभ के संबंध में सोचता है। गीता मानव की परार्थ-भावना का विकास करने में सफल हो सकती है। सम्पूर्ण गीता कर्तव्य करने के लिए मानव को प्रेरित करती है। परन्तु कर्म फल की प्राप्ति की भावना का त्याग करके करना ही परमावश्यक है। प्रो० हिरियाना के शब्दों में “गीता कर्मों के त्याग के बदले कर्म में त्याग का उपदेश देती है।”

भारतीय विचारकों ने जीवन में परमलक्ष्य की प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाये हैं। वे हैं-निवृत्ति मार्ग, प्रवृत्ति मार्ग तथा निष्काम कर्मयोग। निवृत्ति मार्ग के अनुसार मुक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही उपाय है और वह क्षुद्र जीवन का त्याग। अर्थात् सांसारिकता से विमुख होकर मोक्ष की प्राप्ति करना। जीवन का दूसरा मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है जिसके अनुसार इहलोक तथा परलोक में सुख की प्राप्ति के लिए वेद निहित कर्मों का करना ही श्रेयस्कर है। अत: जीवन का यह मार्ग सश्रम कर्म की प्रेरणा देता है। इन दोनों से भिन्न गीता के निष्काम कर्म का मार्ग है जो परम्परागत निवृत्ति और प्रवृत्ति दो विरोधी मार्गों का समन्वय प्रस्तुत करता है।

निवृत्ति मार्ग के समर्थक सांसारिक विषयों के त्याग करने में ही मानव-मात्र का कल्याण समझते हैं जबकि प्रवृत्तिमार्गी विचारक अपने विरोधी विचार को जीवन से पलायन समझकर, संसार में रहना ही. श्रेयस्कर मानते हैं। गीता का निष्काम कर्म उनकी अतल गहराईयों में पहुँचकर निरन्तर निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा देता है। यही गीता का मुख्य उद्देश्य है जिसमें ज्ञान कर्म और मुक्ति का समन्वंय है। अतः हम कह सकते हैं कि गीता का निष्काम कर्म वह केन्द्र-विन्दु है जिसके चारों ओर ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि तारामंडल के रूप में सजे हुए हैं। इसे स्पष्ट करते हुए C.C. Sharma ने कहा है-The Gita tries to build up a Philosophy of Karma based on Jnana and supported by Bhakti to in a beautiful manner.

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