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 Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 18 तन्तु विज्ञान

Bihar Board Class 11 Home Science तन्तु विज्ञान Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
वस्त्र निर्माण की सबसे छोटी इकाई को कहते हैं –
(क) रेशा
(ख) धागा
(ग) कपड़ा (Cloth)
(घ) वस्त्र (Textile)
उत्तर:
(क) रेशा

प्रश्न 2.
तंतुओं की न्यूनतम लम्बाई 5 मि. मी. होने पर उससे निर्माण किया जा सकता है – [B.M.2009A]
(क) कपड़ा का
(ख) वस्त्र का
(ग) धागा का
(घ) तंतु का
उत्तर:
(ग) धागा का

प्रश्न 3.
कंबल किस विधि से तैयार किया जाता है। [B.M.2009A]
(क) ब्रेडस तथा लेंस
(ख) निटिंग
(ग) फेल्टिंग
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) फेल्टिंग

प्रश्न 4.
तंतुओं से सभी प्रकार की गंदगी और अशुद्धियों को दूर करने की विधि को कहते – [B.M.2009A]
(क) ट्राईंग आऊट
(ख) कोंबिग
(ग) काडिग
(घ) रोविंग
उत्तर:
(ग) काडिग

प्रश्न 5.
दो सूती कपड़े किस विधि से तैयार किया जाता है ? [B.M. 2009A]
(क) ट्विल बुनाई
(ख) धारीदार बुनाई
(ग) साटीन बुनाई
(घ) बासकेट बुनाई
उत्तर:
(घ) बासकेट बुनाई

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
तन्तु (Fibre) शब्द को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
“वस्त्र निर्माण की छोटी-से-छोटी इकाई को तन्तु या रेशा कहते हैं।”

प्रश्न 2.
तन्तुओं का वर्गीकरण (Classification of fibre) किस आधार पर किया जाता है ?
उत्तर:
तन्तुओं का वर्गीकरण उनकी लम्बाई या स्रोत के आधार पर किया जा सकता है।
1. लम्बाई के आधार पर तन्तुओं का वर्गीकरण:

  • प्राकृतिक तन्तु (Natural fibre)
  • मानवकृत तन्तु (Man-made fibre)
  • मिश्रित तन्तु (Blended fibre)

प्रश्न 3.
वानस्पतिक तन्तु (Vegetative fibre) का मुख्य तत्त्व कौन-सा होता है ?
उत्तर:
वानस्पतिक तन्तु का मुख्य तत्त्व सेलूलोज होता है।

प्रश्न 4.
टेक्सटाइल (Textile) या वस्त्र विज्ञान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
टेक्सटाइल शब्द लैटिन भाषा का शब्द है जो टैक्सटिली शब्द से बना है। जिसका अर्थ रेशों से या तन्तुओं से निर्मित कपड़ा अर्थात् बुना कपड़ा है

प्रश्न 5.
रेशम (Silk) की प्राप्ति कहाँ से होती है ?
उत्तर:
रेशम एक विशेष प्रकार के कीड़े से प्राप्त होता है।

प्रश्न 6.
तन्तुओं की दृढ़ता (Rigidity) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
किसी भी तन्तु को तोड़ने के लिए जितनी शक्ति लगाने की आवश्यकता होती है, उतनी ही उस तन्त की दढता होती है।

प्रश्न 7.
तन्तुओं के लचीलेपन (Flexibility) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
जब तन्तु बिना टूटे मुड़ जाता है तो इस क्षमता को तन्तुओं का लचीलापन कहा जाता है।

प्रश्न 8.
प्रत्यास्थता.(Elasticity) का क्या गुण होता है ?
उत्तर:
तन्तुओं को खींचने पर लम्बा हो जाना और छोड़ने पर वापस अपनी लम्बाई में आ जाना ही प्रत्यास्थता का गुण कहलाता है।

प्रश्न 9.
कृत्रिम तन्तु (Artificial fibre) ने क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
मानव निर्मित तन्तु जो रासायनिक विधि द्वारा बनाए जाते हैं, उन्हें कृत्रिम तन्तु कहते हैं।

प्रश्न 10.
पॉलिएस्टर (Polyester fibre) तन्तु को किस नाम से जाना जाता है ?

प्रश्न 11.
ऊन (Wool) कैसा तन्तु है ?
उत्तर:
ऊन एक प्राकृतिक, प्राणिज तन्तु है जो पशुओं के बाल से बनाये जाते हैं।

प्रश्न 12.
अन्दर पहनने वाले वस्त्रों के लिए कौन सा कपड़ा चयन करोगे?
उत्तर:
अन्दर पहनने के लिए सूती कपड़ों का चयन करेंगे यह नमी को जल्दी सोख लेता है ।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
स्रोत के आधार पर तन्तुओं का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
स्रोत के आधार पर तन्तुओं का वर्गीकरण :

प्रश्न 3.
कपास के तन्तु की कोई भौतिक एवं रासायनिक चार-चार विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भौतिक विशेषताएँ (Physical Properties):

  • संरचना (Composition)।
  • बनावट (Microscopic Structure)।
  • लम्बाई (Length)।
  • नमी सोखने की क्षमता (Absorbency)।
  • ताप का प्रभाव (Effect of Heat)।

रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties):

  • अम्ल का प्रभाव (Effect of Acid)।
  • क्षार का प्रभाव (Effect of Alkali)।
  • रंगों का प्रभाव (Effect of Colours)।
  • जीवाणु का प्रभाव (Effect of Moth and Mildew)।

प्रश्न 4.
रेशम के तन्तु की क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
रेशम के तन्तु की विशेषताएँ (Properties of Silk Fibre):
भौतिक विशेषताएँ (Physical Properties):

  • संरचना (Composition)।
  • बनावट (Microscopic Structure)
  • मजबूती (Strength)।
  • लोच (Elasticity)।
  • नमी सोखने की क्षमता (Absorbency)।

रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties):

  • क्षार का प्रभाव (Effect of Alkali)।
  • रंगों का प्रभाव (Effect of Colours)।
  • अम्ल का प्रभाव (Effect of Acid)।
  • जीवाणुओं का प्रभाव (Effect of Moth and Mildew)।

प्रश्न 5.
ऊन के तन्तुओं से कितने प्रकार का ऊनी कपड़ा तैयार किया जाता है ?
उत्तर:
1. ऊनी कपड़े (Woollens): इन्हें बनाने के लिए छोटे तन्तुओं का प्रयोग किया जाता है जिनकी अधिक कंघी व कताई नहीं की जाती। ये वस्त्र खुरदरे व मोटे होते हैं।

2. वस्टेंड (Worsted): इन्हें बनाने के लिए लम्बे रेशों का प्रयोग किया जाता है। इन रेशों की कंघी तथा कताई अच्छी तरह की जाती है। इससे बने वस्त्र अधिक मजबूत तथा चिकनी सतह वाले होते हैं। पैंट, सूट आदि इन्हीं वस्त्रों से बनते हैं।

3. नमदा (Felted Fabrics): कुछ ऊनी वस्त्र फेल्ट विधि से तैयार किये जाते हैं। ये वस्त्र सीधे तन्तुओं से बनाये जाते हैं। तन्तुओं को उचित नमी, तापमान तथा दबाव से जोड़ दिया जाता है। ऐसे वस्त्र खुरदरे होते हैं, जिससे नमदा, पटू आदि बनते हैं। ऊनी वस्त्रों के उत्पादन के लिए सबसे पहले भेड़ों पर से बाल काटे जाते हैं। फिर इनकी छंटाई की जाती है। अगली प्रक्रिया में इन्हें क्षार के घोल में कई बार धोया जाता है जिससे तन्तु स्वच्छ व कोमल हो जाते हैं।

अब इन्हें सुखाया जाता है। धोने व सुखाने से तन्तु थोड़े कड़े हो जाते हैं इसलिए इन पर जैतून के तेल का छिड़काव किया जाता है। ऊनी वस्त्र बनाने के लिए रेशों को केवल सुलझाया जाता है, लेकिन वर्टेड वस्त्र बनाने के लिए रेशों की धुनाई (Carding) तथा कंघी (Combing) की जाती है, जिससे रेशे पूर्ण रूप से समानान्तर हो जाते हैं तथा छोटे रेशे अलग निकल जाते हैं। इन रेशों की पूनिया बनाकर कताई की जाती है। इस प्रकार ऊनी धागा वस्त्र बनाने के लिए तैयार हो जाता है।

प्रश्न 6.
नायलोन (Nylon) की क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
नायलोन की विशेषताएँ (Characteristics of Nylon):

  1. सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से देखने पर ज्ञात होता है कि नायलोन के तन्तु गोलाकार, चमकदार, सीधे और चिकने होते हैं।
  2. नायलोन मानव निर्मित तन्तुओं में सबसे अधिक मजबूत होता है।
  3. नायलोन के रेशे लम्बे व मजबूत होते हैं।
  4. नायलोन के कपड़े पर पसीने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता हालांकि रंग नष्ट हो जाते हैं।

रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties):
1. इस पर क्षार का कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता परन्तु प्रत्येक अम्ल का रेशों पर अत्यन्त बुरा प्रभाव पड़ता है। .
2. ब्लीज व धब्बे मिटाने वाले रसायनों का नायलोन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
जैविक विशेषताएँ (Biological Properties): नायलोन के तन्तुओं पर जीवाणुओं का कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। अगर चीटियाँ या कॉकरोच कपड़े में फंस जाएँ तो वह इसे काट खाकर बाहर निकल जाएगा।

प्रश्न 7.
मिश्रित तन्तु के नाम लिखें:
(क) जो ठंडी जलवायु में पहने जाएँ।
(ख) जो आर्द्र जलवायु में पहने जाए। कारण भी लिखें।
उत्तर:
मिश्रित तन्तु –
(क) ठंडी जलवायु के लिए-टेरीवुल (Terrywool) क्योंकि यह ऊन की तरह ही गरम हैं
(ख) आर्द्र जलवायु के लिए-टेरीकॉट (Terrycot) क्योंकि यह टेरीलीन की अपेक्षा ज्यादा ठंडा व अवशोषक शक्ति वाला है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कपास की भौतिक विशेषताएँ समझाएँ ? [B.M.2009A]
उत्तर:
कपास की भौतिक विशेषताएँ निम्नलिखित है –
(a) दृढ़ता
(b) प्रत्यास्थता
(c) पुनरुत्थान
(d) अवशोषकता
(e) ताप का प्रभाव
(f) रगड़ का प्रभाव
(g) चमक
(h) स्वच्छता।

(a) सूखे तंतु के अपेक्षा गीले होने पर बढ़ जाती है।
(b) कपास में यह गुण नहीं होता इसलिए इसमें आकार बड़ा नहीं होता है।
(c) यह गुणा नहीं होने के कारण सलवट पड़ती है।
(d) 15-20 गुण अधिक नमी सोखने की क्षमता होती है।
(e) ताप सहन करने की बहुत अधिक क्षमता रहती है।
(f) मजबूत होने के कारण जल्दी फटता नहीं है।
(g) चमक कम होती है परिसज्जा द्वारा दी जाती है।
(h) आसानी से साफ किया जाता है ।

प्रश्न 2.
रूई (Cotton) की भौतिक, रासायनिक व जैविक विशेषताएँ एवं देखभाल व प्रयोग विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
रूई (Cotton): यह प्राकृतिक तन्तु है जो 90% सेलूलोज व 10% खनिज लवण, मोम और प्रोटीन से बनते हैं। मोहनजोदड़ो युग के मिले फूलदानों पर भी रूई के तन्तु लगे मिले हैं। रूई के बीजों के ऊपर उगे बालों द्वारा रूई बनती है। यह नर्म तथा गद्देदार होती है। रूई को ‘पेड़ की ऊन’ कहा जाता है। भारत, मिस्र, ब्राजील, अफ्रीका, अमेरिका रूई उत्पादन के कुछ मुख्य देश हैं।

सारे विश्व की रूई की माँग का 40% केवल अमेरिका में उत्पादित होता है। उत्पादन व निर्यात में भारत का दूसरा स्थान आता है। रूई की उत्पादकता सस्ती है और इसका प्रयोग बहुत से क्षेत्रों में किया जाता है। जैसे-कपड़े, चादरें, तौलिये, बनियान, घर की सजावट के लिए कपड़े आदि रूई से ही बनते हैं। रूई के तन्तु मिट्टी, बीज, उगाने का तरीका व मौसम से प्रभावित होते हैं तथा उनकी लम्बाई, नमी और चमक

1. भौतिक विशेषताएँ (Physical Properties):

  • कपास के रेशे कई प्रकार के होते हैं। सामान्यतः रूई के रेशे 1 सेमी. से 5 सेमी. तक लम्बे होते हैं तथा इनके व्यास 16-20 माइक्रोन तक होता है। रूई का रेशा ऊपर से एक कोशीय प्रतीत होता है परन्तु सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखने पर ज्ञात होता है कि यह तन्तु कुछ चपटी घुमावदार नली के समान होता है जिसकी भीतरी सतह खुरदरी होती है। ऐंठन तन्तु को शक्ति देती है तथा लम्बे तन्तुओं में बुनने में सहायक होती है। इस ऐंठन को “कनवोल्यूशन्स” कहते हैं। इनमें चमक कम होती है।
  • कपास के रेशे रंग में भिन्न-भिन्न होते हैं अर्थात् सफेद से क्रीम तक।
  • कपास में सलवटें शीघ्र पड़ जाती हैं। कपास को संसाधित करके सलवट-रोधक बनाया जाता है।
  • रूई के तन्तुओं में नमी को सोखने का एक विशेष गुण होता है। यही कारण है कि सूती कपड़ा शरीर का पसीना आसानी से शीघ्र सोख लेता है। इसीलिए कपास गर्म प्रदेशों में अधिक लोकप्रिय होती है।
  • सूती कपड़े में सिकुड़न-प्रवृत्ति पायी जाती है। इसे सिकुड़नरोधी बनाया जाता है।
  • इनमें लचक बहुत कम होती है।
  • सूखे तन्तु की तुलना में गीले तन्तु 25% अधिक मजबूत होते हैं। अतः इनका विशेष ध्यान नहीं रखा जाता।

2. तापीय विशेषताएँ (Thermal Properties):
कपास के तन्तुओं पर ताप का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि इनमें ताप सहन करने की क्षमता होती है। यही कारण है कि सूती कपड़ों पर गर्म इस्त्री कर सकते हैं।

3. रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties) :

  • कपास के तन्तुओं पर सामान्य रूप से क्षार का कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः क्षारयुक्त साबुन व डिटर्जेंट से सूती कपड़ा आसानी से धोया जा सकता है, परन्तु रंगीन सूती कपड़ों को अधिक क्षारयुक्त साबुन से धोने से उनके रंग खराब होने का भय बना रहता है।
  • नमक व गन्धक के तेजाब के सम्पर्क में सूती वस्त्र नष्ट हो जाते हैं।
  • भारी पानी से रंग के नष्ट होने की आशंका रहती है जबकि ताप का इस पर कोई प्रभाव नहीं होता।

4. जैविक विशेषताएँ (Biological Properties) :

  • सिल्वर फिश सैलूलोज पर जिन्दा रहती है तथा सूती कपड़े को नष्ट कर सकती है।
  • सूती वस्त्र सीलन वाली गर्म जगह पर कुछ समय तक रखें तो उसमें दुर्गन्ध आने लगती है और फफूंदी लग सकती है।

कपास की देखभाल व प्रयोग (Use and Care of Cotton): धुलाई करते समय सूती वस्त्रों को आसानी से रगड़ कर धोया जा सकता है। रंग नष्ट होने के लिए रंगीन कपड़ों को छाया में सुखाना चाहिए। गीले कपड़ों पर इस्त्री करने से सिलवटें दूर की जा सकती हैं। मांड लगाये कपड़े अच्छी परिसज्जा देते हैं।

सूती कपड़ों की मूल विशेषताएँ (Properties of Cotten Cloth):

प्रश्न 3.
रेशम के तन्तु की खोज, भौतिक व रासायनिक विशेषताएँ तथा उपयोगिताएँ विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
रेशम का तन्तु एक कीड़े के लार से बनाया जाता है। इसकी खोज सबसे पहले चीन में हुई। एक दंतकथा के अनुसार एक चीनी राजकुमारी ने अचानक एक ककून गर्म चाय में डाल दिया। जब उसे निकाला गया तो बारीक. सन्दर. आकर्षक व लम्बा तन्त खिंचता निकल आया। इन तन्तुओं को एकत्र करके, इन्हें बुनकर सुन्दर कपड़ा तैयार किया। कई वर्षों तक रेशम के उत्पादन का रहस्य चीनियों ने अपने तक ही सीमित रखा।

लगभग 3000 वर्ष बाद यह रहस्य चीन से बाहर आया और कई देशों, जैसे-जापान, भारत, इटली, स्पेन, फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय देशों में रेशम का उत्पादन होने लगा। भारत में प्राचीन ग्रन्थों में रेशमी वस्त्रों का उल्लेख मिलता है। आधुनिक युग में वैज्ञानिक विधि से रेशम बनाने का श्रेय जापान को जाता है। रेशम के उत्पादन के लिए रेशम के कीड़ों को शहतूत के पेड़ पर पाला जाता है। कीड़े की खुराक शहतूत के पत्ते ही हैं।

रेशम के कीड़े के जीवन की चार अवस्थाएँ हैं :

  • अण्डा
  • लारवा
  • प्यूपा
  • कीड़ा।

रेशम के कीड़े से जब लारवा बनता है तब यह अपनी खुराक बन्द कर देता है। इसके मुख के पास दो छिद्रों से लार बाहर आने लगती है। यह दोहरा धागा एक गोंद सेरीसिन (Sericin) से आपस में जुड़ता जाता है और कीड़े के शरीर के चारों ओर लिपटता जाता है। जब कीड़ा पूरी तरह इससे ढक जाता है, तब इसे ककून कहते हैं। रेशम के रेशे प्राप्त करने के लिए ककून पानी में गर्म किए जाते हैं। इस क्रिया में थोड़ा-सा गोंद ढीला पड़ जाता है और रेशे आसानी से खुल जाते हैं।

ककून से रेशों को खोल कर सीधा किया जाता है। इस प्रक्रिया को रीलिंग (Reeling) कहते हैं । रेशम का तन्तु बहुत ही महीन होता है इसलिए 8-10 रेशों को इकट्ठे सीधा किया जाता है। फिर इन्हें एक साथ मिलाकर ऐंठन देकर रेशम का तन्तु बनाया जाता है। रेशम के तन्तु पर से गोंद को हटाने के लिए इसे फिर गर्म पानी में डाला जाता है। इस क्रिया को गोंद हटाना (Degumming) कहते हैं। अब रेशम का तन्तु वस्त्र बनाने के लिए तैयार है।

रेशम के तन्तु की विशेषताएँ (Properties of Silk Fibre) :
भौतिक विशेषताएँ (Physical Properties):
1. संरचना (Composition): रेशम के तन्तु का मुख्य भाग प्रोटीन से बना है। इसमें 90% प्रोटीन फाइब्रोइन (Fibroin) पायी जाती है।

इसके अतिरिक्त गोंद सेरीसिन (Sericin): पाया जाता है। रेशे का 95% भाग प्रोटीन तथा सेरीसिन से बनता है। शेष 5% मोम, लवण, वसा आदि से बनता है।

2. बनावट (Microscopic Structure): सूक्ष्मदर्शी से देखने पर रेशम का तन्तु दो रेशों से मिलकर बना दिखाई देता है। दोनों रेशे स्थान-स्थान पर गोंद से सटे दिखाई देते हैं। गोंद के कारण रेशा असमान सतह वाला दिखाई देता है, लेकिन गोंद हटा देने पर यह चिकना, चमकदार, सीधी रेखा के समान दिखाई देता है।

3. लम्बाई (Length): रेशम का तन्तु प्राकृतिक तन्तुओं में सबसे लम्बा है। इसकी लम्बाई 1200 फीट से 4000 फीट तक रहती है। इसी कारण इनसे चिकने व चमकदार वस्त्र बनते हैं।

4. रंग एवं चमक (Colour and Lustre): रेशम में प्राकृतिक चमक रहती है। गोंद हटा देने पर यह और भी चमकीला हो जाता है। रंग सफेद से क्रीम होता है।

5. मजबूती (Strength): प्राकृतिक तन्तुओं में रेशम के तन्तु सबसे अधिक मजबूत होते हैं। गीली अवस्था में इनकी शक्ति कम हो जाती है परन्तु सूखने पर फिर से शक्ति प्राप्त कर लेते हैं।

6. लोच (Elasticity): प्राकृतिक तन्तुओं में प्रत्यास्थता (लोच) का गुण रेशम में दूसरे स्थान पर रहता है। खींचने पर यह बिना टूटे अपनी लम्बाई से अधिक खिंच सकता है और छोड़ने पर अपनी पूर्व अवस्था में आ जाता है।

7.ताप की संवाहकता (Heat Conductivity): रेशम के तन्तु ताप के बुरे संवाहक हैं। शरीर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने देते इसलिए रेशमी वस्त्र सर्द ऋतु में पहनने के लिए उपयुक्त हैं।

8. प्रतिस्कंदता (Resiliency): रेशम के तन्तु में लचक की क्षमता भी होती है। इसमें सलवटें नहीं पड़ती।

9.सिकुड़न (Shrinkage): तन्तु सीधे तथा लम्बे होने के कारण सिकुड़ते नहीं। थोड़ी बहुत सिकुड़न गीली अवस्था में प्रेस करने पर दूर हो जाती है।

10. रगड़ का प्रभाव (Effect of Friction): रगड़ से रेशम की चिकनी सतह पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। इसकी कोमल सतह खुरदरी हो जाती है। इसलिए सिल्क के वस्त्रों को सावधानी से हल्के दबाव से धोना चाहिए।

11. ताप का प्रभाव (Effect of Heat): रेशम के तन्तु अत्यन्त कोमल होते हैं। इसलिए अधिक ताप नहीं सह पाते । 300°F ताप पर यह नष्ट होने लगता है। सिल्क के वस्त्रों पर हल्की गर्म प्रेस ही करनी चाहिए।

12. नमी सोखने की क्षमता (Absorbency): रेशम के तन्तु नमी को जल्दी सोखते हैं परन्तु जल्दी नमी को छोड़ते नहीं । कुछ मात्रा में इसमें नमी रह जाती है जिसे बाहर से देखने पर जानना कठिन होता है।

13. सफाई एवं धुलाई (Cleanliness and Washability): चिकनी सतह होने के कारण सिल्क के वस्त्र जल्दी गन्दे नहीं होते । रगड़ से रेशे खराब हो जाते हैं। सिल्क के वस्त्रों को निचोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि गीली अवस्था में ये कमजोर हो जाते हैं। हल्के से दबा कर पानी निकालना चाहिए।

14. प्रकाश का प्रभाव (Effect of Light): धूप एवं प्रकाश में तन्तु बहुत जल्दी खराब होने लगते हैं। रंग भी उड़ने लगता है। सिल्क का प्रयोग पर्दे बनाने के लिए उचित नहीं।

रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties) :
1. क्षार का प्रभाव (Effect of Alkali): क्षार का रेशम के तन्तुओं पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है इसलिए रेशमी वस्त्र धोने के लिए क्षारयुक्त साबुन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऊन के साथ यदि इसकी तुलना की जाए तो रेशम का रेशा ऊन की अपेक्षा क्षार के प्रति अधिक सहनशील है।

2. अम्ल का प्रभाव (Effect of Acid): कार्बनिक अम्ल को कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता । अकार्बनिक अम्ल का तनु घोल भी रेशम के वस्त्रों पर इस्तेमाल किया जा सकता है, किन्तु सान्द्र अम्ल रेशम के तन्तु को क्षति पहुँचाते हैं। नाइट्रिक अम्ल से इसका रंग एवं चटक पीला पड़ जाता है।

3. रंगों का प्रभाव (Effect of Colours): रेशम पर रंग आसानी से चढ़ जाते हैं और पक्के होते हैं।

4. जीवाणुओं का प्रभाव (Effect of Moth and mildew): सिल्क पर फफूंदी नहीं लगती लेकिन लम्बे समय तक नमी वाले स्थान पर फफूंदी लगने का डर रहता है । कीड़े का प्रभाव होता है।

रेशम के वस्त्रों की उपयोगिता (Importance of Silk Clothes) :

1. रेशम को अपनी कोमलता, चिकनेपन, आकर्षण, चमक, मजबूती तथा लटकनशीलता (Draping Quality) के कारण ‘वस्त्रों की रानी’ कहा जाता है। रेशम का प्रयोग राजसी घरानों में होता आया है। इसके उत्पादन में अत्यन्त सावधानी तथा कुशल हाथों की आवश्यकता होती है, इसलिए यह एक महँगा वस्त्र है। रेशमी वस्त्रों का प्रयोग विशेष अवसरों पर ही किया जाता है।

2. ताप का कुचालक होने के कारण रेशमी वस्त्र सर्दी में पहनने के लिए उत्तम है। अपनी महीनता के कारण इन्हें गर्मी में भी पहना जा सकता है। बारीक रेशमी वस्त्रों से शरीर की गर्मी तथा हवा निकलती रहती है।

3. रेशमी वस्त्रों पर रंग आसानी से चढ़ जाते हैं, इसलिए कई रंगों में मिलते हैं। इसे दोबारा भी दूसरे रंग से आसानी से रंगा जा सकता है।

4. रेशमी वस्त्रों पर सलवटें नहीं पड़ती इसलिए अधिक प्रेस की भी जरूरत नहीं होती। रेशमी वस्त्र रंगड़ तथा क्षार में खराब हो जाते हैं।

प्रश्न 4.
ऊन (Wool) के प्राप्ति स्रोत, ऊनी कपड़ा तैयार करना, भौतिक. एवं रासायनिक विशेषताएँ तथा उपयोगिता पर निबन्ध लिखें।
उत्तर:
ऊन (Wool): ऊन एक प्राकृतिक प्राणिज वस्त्रोपयोगी तन्तु है। ऊन के तन्तु हमें विभिन्न पशुओं से मिलते हैं। प्राचीन काल में मनुष्य पशुओं को मार कर उनकी खाल को वस्त्र के रूप में प्रयोग करता था। सभ्यता एवं ज्ञान के विकास से मनुष्य ने यह जाना कि पशुओं को मारे बिना ही उनकी त्वचा पर उगने वाले बालों को काट कर ऊन तैयार की जा सकती है, जिससे ऊनी वस्त्र तैयार करके वह अपने आपको सर्दी से बचा सकता है।

ऊन प्राप्ति के स्रोत (Sources of Wool): ऊन के रेशे हमें विभिन्न पशुओं जैसे भेड़, बकरी, ऊँट, लामा, खरगोश आदि से प्राप्त होते हैं। सर्वाधिक ऊन भेड़ों से प्राप्त की जाती है। अतः ऊन सभी पशुओं से प्राप्त की जा सकती है जिनके शरीर पर लम्बे बाल उगते हैं। भिन्न-भिन्न पशुओं से प्राप्त होने वाली ऊन की विशेषताएँ एवं उपयोगिताएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। भेड़ों से सबसे अच्छी ऊन मोरनी जाति की भेड़ से प्राप्त होती है।

मोरनी जाति की भेड़ स्पेन में है परन्तु अब सभी देशों में इस जाति की भेड़ को पाला जाता है। भारत में कश्मीरी बकरी से उत्तम किस्म की पश्मीना ऊन प्राप्त होती है। अंगोरा जाति की बकरी एवं खरगोश से भी रेशम की भांति कोमल एवं चमकीली ऊन प्राप्त होती है । दक्षिणी अमेरिका के पहाड़ी जानवर लामा-अल्पाका एवं हिकुना जो बोझा ढोने का काम करते हैं, उनके बालों को उतार कर भी ऊन के रेशे प्राप्त किए जाते हैं।

लामा से प्राप्त ऊन हल्की होती है, अल्पाका से प्राप्त ऊन मध्यम श्रेणी की होती है तथा हिकुना से प्राप्त ऊन बहुत बढ़िया किस्म की होती है। एशिया के पठार एवं तिब्बत के प्रदेशों में यॉक नामक पशु, जो बोझ ढोने का काम करता है, से ऊन प्राप्त की जाती है। यह ऊन अत्यन्त नर्म होती है। ऊँट से भी ऊन प्राप्त की जाती है जो कोमल व सुन्दर होती है।

ऊन के रेशे दो प्रकार के होते हैं –

  • कटी ऊन (Fleece):यह रेशे जीवित जानवर की खाल से निकाले जाते हैं।
  • खींची हुई ऊन (Pulled Wool): यह रेशे मरे हुए जानवर की खाल से निकाले जाते हैं।

ऊन के रेशों से तीन प्रकार के कपड़े तैयार करते हैं :
1. ऊनी कपड़े Woollens): इन्हें बनाने के लिए तन्तुओं का प्रयोग करते हैं। यह वस्त्र मोटे व खुरदरे होते हैं।

2. वस्टेंड (Worsted Fabric): इन्हें बनाने के लिए लम्बे तन्तुओं का प्रयोग करते हैं जिनकी कंघी व कटाई भली प्रकार की जाती है। यह वस्त्र चिकने व मजबूत होते हैं, जैसे-पैंट, कोट। आदि।

3. नमदा (Felted Fabric): यह वस्त्र सीधे तन्तुओं से बनाए जाते हैं जिन्हें उचित नमी, तापमान व दबाव से जोड़ा जाता है। इसे फेल्ट विधि कहते हैं। यह वस्त्र खुरदरे होते हैं, जैसे नमदा आदि। ऊनी कपड़ा तैयार करना-मशीनों द्वारा ऊनी कपड़ा तैयार करने के लिए भेड़ों को गर्मियों के शुरू होते ही अच्छी तरह नहलाया जाता है तथा कुछ सप्ताह पश्चात् ऊन उतार ली जाती है। इस ऊन को गांठों में बांधकर कारखानों में भेज दिया जाता है।

कारखानों में ऊनी कपड़ा बनाते समय निम्नलिखित प्रक्रियाएँ की जाती है –
1. तन्तुओं को छांटना और साफ करना (Sorting & Cleaning): कारखानों में सर्वप्रथम फन को तन्तुओं की लम्बाई, व्यास, कोमलता अथवा मजबूती आदि गुणों के आधार पर अलग-अलग कर लिया जाता है।

साधारण तन्तु जिनकी लम्बाई अधिक नहीं होती है उससे सस्ता ऊनी कपड़ा बनाया जाता }। उत्तम किस्म के लम्बे व मुलायम ऊनी तन्तुओं से बढ़िया किस्म का कपड़ा बनाया जाता है। था सबसे घटिया किस्म के तन्तुओं से मोटे कपड़े, कम्बल या कालीन बनाए जाते हैं। धूल साफ करने वाली मशीन, जिसे डस्टर कहते हैं, की सहायता से तन्तुओं पर लगी धूल को हटा दिया जाता है।

2. तन्तुओं की धुलाई एवं निघर्षण करना (Washing and Scouring): ऊन के तन्तुओं की धुलाई करने के लिए साबुन के गर्म घोल तथा मन्द क्षार का प्रयोग किया जाता है। जब ऊन के तन्तु अच्छी तरह साफ हो जाते हैं तब इन्हें निघर्षण-क्रिया द्वारा सुखा लिया जाता है। इस कार अब ऊनी तन्तु गन्दगी, पसीने आदि से मुक्त हो जाते हैं। कई बार ऊनी तन्तुओं को इसी समय रंग भी दिया जाता है।

3. ऊनी तन्तुओं को धुनना (Carding): ऊनी तन्तुओं को मशीनों की सहायता से धुनाई करके सुलझाया जाता है। धुनाई करने से ऊन के तन्तुओं की गन्दगी भी हट जाती है।

4. कार्बोनीकरण (Carbonizing): धुलाई व धुनाई करने के पश्चात् भी ऊन के तन्तुओं में कुछ न कुछ गन्दगी शेष रह जाती है जिसे दूर करने के लिए कार्बोनीकरण की प्रक्रिया में ऊन । तन्तुओं को सल्फ्यूरिक अम्ल के हल्के घोल में डुबोया जाता है जिससे तन्तुओं में उपस्थित नावश्यक वानस्पतिक पदार्थ जल जाते हैं। इसके पश्चात् तन्तुओं को आहिस्ता से निचोड़ कर ‘पेक्षित सल्फ्यूरिक अम्ल को निकाल कर नियन्त्रित ताप पर इन्हें सावधानीपूर्वक सुखा लिया

5. तन्तुओं पर तेल लगाना (Oiling): कार्बोनाइजिंग की प्रक्रिया के पश्चात् तन्तुओं को | पानी में धोकर सुखा लिया जाता है और उन पर जैतून का तेल अथवा ग्लिसरीन लगाई जाती है नपसे तन्तु कोमल तथा लचीले हो जाते हैं और धुनाई करते समय अधिक नहीं टूटते हैं।

6. कताई करना (Spinning): रूई के तन्तुओं की भाँति ऊनी तन्तुओं में से मशीनों द्वारा धागा खींचकर उसे ऐंठन दी जाती है। वर्सटेड कपड़े (Worsted Cloth) के लिए साधारण ऊनी कपड़े की अपेक्षा धागों को अधिक ऐंठन दी जाती है। यही कारण है कि वर्सटेड कपड़ा पतला, कड़ा व मजबूत हो जाता है तथा साधारण ऊनी कपड़ा जिसके धागे में कम ऐंठन होती है मोटा, नरम, गुदगुदा व रोएँदार होता है।

7. कंघी करना और खींचना (Combing and Drawing): तेल लगाने के पश्चात् तन्तुओं पर कंघा किया जाता है जिससे 10 सेमी. से अधिक लम्बे तन्तु एक-दूसरे समान्तर स्थिति में आ जाते हैं और छोटे-छोटे तन्तु अलग हो जाते हैं। कारखानों में विशेष मशीनों द्वारा कंघी की जाती है जिससे तन्तु खींचकर सीधे धागे का रूप धारण कर लेते हैं। इन सीधे धागों (तन्तुओं) को (Top) टॉप कहते हैं। बहुधा टॉप तन्तुओं को ही रंग लिया जाता है परन्तु कई बार वर्सटेड कपड़ा बनाने के लिए पहले धागा बनाया जाता है फिर उसे रंगा जाता है।

8. रंगाई तथा विरंजन (Dying and Bleaching): ऊनी कपड़ों को अम्लीय रंगों से रंग कर आकर्षक बनाया जाता है। यदि कपड़ा रंगना न हो तो उसे ब्लीच किया जाता है जिससे उसके पीलेपन को दूर किया जा सके। ऊन के तन्तुओं की विशेषताएँ (Properties of Wool Fibres) :

भौतिक विशेषताएँ (Physical Properties) :
1. रचना एवं स्वरूप (Construction): ऊन के तन्तु कैरोटिन नामक प्रोटीन से बने होते हैं। तन्तु के बाहर के आवरण स्केल अर्थात् परतदार (Epidermal) कोशिकाओं के बने होते हैं – जो एक-दूसरे पर चढ़ी रहती हैं। परतदार कोशिकाओं के एक-दूसरे पर चढ़े हुए किनारे ही ऊन के रोएँ होते हैं। उत्तम किस्म की ऊन में यह रोएँ अधिक होते हैं।

2. लम्बाई (Length)-भिन्न-भिन्न जाति के पशुओं से प्राप्त ऊन के रेशों की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है। यहाँ तक कि भिन्न-भिन्न जाति के भेड़ों से प्राप्त ऊन के रेशों की लम्बाई भी भिन्न-भिन्न होती है। ऊन के रेशे जितने लम्बे होते हैं, उतने ही उत्तम कोटि के माने जाते हैं। सामान्यत: ऊन के रेशे 5 सेमी. से लेकर 35 सेमी. तक लम्बे हो सकते हैं। इसी प्रकार ऊन के तन्तुओं का व्यास भी 15 माइक्रोन से 40 माइक्रोन तक हो सकता है।

3. तन्तु की दृढ़ता (Rigidity of Fibres)-ऊनी तन्तु अन्य प्राकृतिक तन्तुओं से अधिक निर्बल होते हैं। लम्बे तन्तुओं की अपेक्षा छोटे तन्तु कमजोर होते हैं। गीली अवस्था में ऊनी तन्तु अपनी 10 से 15 प्रतिशत शक्ति खो देते हैं परन्तु सूखने पर उनकी शक्ति पुनः वापस आ जाती है।

4. लचीलापन (Flexibility)-ऊन का दीर्धीकरण (Elongation) लगभग 20 से 50 प्रतिशत तक होता है परन्तु गीली अवस्था में यह और भी बढ़ जाता है। ऊन का यह लचीलापन उसकी प्राकृतिक ऐंठन के कारण होता है। तन्तुओं की निर्बलता के कारण धुलाई करते समय ऊनी कपड़ों को अधिक दबाव नहीं देना चाहिए। ऊन के रेशे जितने अधिक बारीक एवं मजबूत होते हैं उनमें उतनी ही अधिक लचक पायी जाती है। यही कारण है कि उत्तम कोटि के ऊनी कपड़े सिकुड़ते नहीं और न ही बदशक्ल होते हैं। इसी लचक के कारण ऊनी कपड़ों को वस्त्रों का रूप देने में सरलता रहती है तथा अधिक टिकाऊ भी होते हैं।

5.अवशोषकता-ऊनी रेशों में नमी सोखने की क्षमता अन्य तन्तुओं की अपेक्षा अधिक होती है। यही कारण है कि ऊनी कपड़े गीले हो जाने पर देर से सूखते हैं और यह वातावरण की नमी को भी शीघ्र सोख लेते हैं।

6. पुनरुत्थान-ऊनी रेशों में पुनरुत्थान का गुण अधिक होता है। यही कारण है कि ऊनी रेशों से बने वस्त्रों को जैसे भी पहना जाए वह अपनी मौलिक अवस्था में आ जाते हैं और इन पर इस्तरी की अधिक आवश्यकता नहीं होती है।

7.प्रत्यास्थता-ऊनी तन्तुओं को जब खींचते हैं तो वह बिना टूटे अपनी पूर्व लम्बाई से लगभग 30 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं और छोड़ने पर पुनः अपनी मौलिक अवस्था में आ जाते हैं। सभी प्राकृतिक तन्तुओं में ऊन के तन्तुओं में सबसे अधिक प्रत्यास्था होने के कारण ये शरीर पर फिट आ जाते हैं।

8. अपघर्षण प्रतिरोधकता-ऊनी तन्तु रगड़ सहन नहीं कर सकते हैं तथा रगड़ने पर कमजोर पड़ जाते हैं। चूँकि गीले ऊनी कपड़े की शक्ति क्षीण हो जाती है, अतः धोते समय इन्हें रगड़ना नहीं चाहिए। यही कारण है कि महंगे उत्तम किस्म के ऊनी कपड़ों को शुष्क धुलाई (ड्राईक्लीन) से धोया जाता है क्योंकि पानी से इनका आकार बिगड़ने का भय रहता है।

9.ताप की संवाहकता-ऊनी रेशे ताप के अच्छे संवाहक नहीं होते हैं। ऊनी रेशों में रिक्त स्थान होते हैं जिनमें वायु रहती है जो शरीर के ताप को बाहर नहीं निकलने देती है। यही कारण है कि सर्दियों में ऊनी वस्त्र पहनने से हमारा शरीर गर्म रहता है।

10. ताप का प्रभाव-प्रत्यक्ष ताप का ऊनी रेशों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और रेशे की बाहरी परत नष्ट हो जाती है। यही कारण है कि ऊनी वस्त्रों को इस्तरी करते समय ऊन के ऊपर पतला सूती कपड़ा रखना चाहिए।

11. स्वच्छता-ऊनी रेशों की सतह खुरदरी होने के कारण उन पर धूल के कण आसानी से फंस जाते हैं जिन्हें प्रतिदिन नर्म ब्रुश से झाड़ कर साफ करना चाहिए अन्यथा यह गन्दगी कपड़े की सतह पर जमकर उसे खराब कर देती है।

धोते समय ऊनी कपड़ों को पानी में देर तक भिंगो कर नहीं रखना चाहिए क्योंकि पानी में भिंगोने से उनकी शक्ति कम हो जाती है और तन्तु खुरदरे हो जाते हैं। धोने के पश्चात् ऊनी कपड़ों को लटका कर सुखाना नहीं चाहिए क्योंकि इससे आकार खराब हो जाता है। यही कारण है कि ऊनी कपड़ों को धोते समय अतिरिक्त सावधानी रखी जाती है।

12. धूप का प्रभाव-ऊनी कपड़ों को अधिक समय तक धूप के सम्मुख रखने से उनका रंग उड़ने लगता है तथा उनकी रासायनिक रचना में परिवर्तन आ जाता है जिससे उन्हें पुनः रंगना भी कठिन हो जाता है।

रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties) :
1. अम्ल का प्रभाव (Effect of acids)-ऊनी कपड़ों पर सान्धित अम्ल विशेषकर सल्फ्यूरिक अम्ल का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। इस अम्ल से ऊनी कपड़ा पूर्णत: नष्ट हो जाता है। हल्के अम्ल के घोलों का ऊनी वस्त्रों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।

2.क्षार का प्रभाव (Effect of alkalies)-सभी प्रकार के क्षारीय घोलों का ऊनी तन्तुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सोडियम हाइड्रॉक्साइड के केवल पाँच प्रतिशत घोल में ऊनी तन्तुओं को देर तक रखने से वह शीघ्र घुल जाते हैं। यदि क्षार का घोल गर्म हो तो और भी विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। केवल अमोनिया तथा बोरेक्स जैसे क्षार का ऊन के तन्तुओं पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः ऊनी कपड़ों को धोने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है।

3. कार्बनिक घोलों का प्रभाव-ऊनी तन्तुओं पर कार्बनिक घोलों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। केवल हल्के ब्लीज जैसे हाइड्रोजनपरॉक्साइड का ही प्रयोग ऊनी तन्तुओं पर सुरक्षित रूप से किया जा सकता है।

4.जीवाणुओं का प्रभाव-साधारणतः ऊनी कपड़ों पर फफूंदी का प्रभाव नहीं पड़ता है परन्तु अधिक समय तक ऊनी कपड़े को नमी वाले स्थान पर रखा जाए तो उसमें फफूंदी लग जाती है।

5.कीड़ा लगना-ऊनी कपड़ों पर कीड़ा लगने का भय अधिक होता है। कीड़े ऊनी कपड़े को खाकर नष्ट कर देते हैं। ऊनी कपड़े में नमी होने पर कीड़ा शीघ्र लगता है। ऊनी कपड़ों को कीड़ों से बचाने के लिए समय-समय पर धूप लगाते रहना चाहिए तथा गर्मियों में इन्हें अखबार के कागज में लपेटकर रखना चाहिए। इनके अतिरिक्त नैपथलीन की गोलियों, सूखी नीम की पत्तियों आदि से भी ऊनी कपड़ों की रक्षा की जा सकती है।

6. समय का प्रभाव-यदि ऊनी वस्त्रों को गन्दा ही रख दिया जाए तो यह कमजोर पड़ जाते हैं और इनमें कीड़े भी लग जाते हैं, परन्तु ऊनी वस्त्रों को साफ करके उचित उपायों का पालन करके काफी समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

ऊनी वस्त्रों की उपयोगिता (Importance of Woollen cloth) :

  • ऊनी वस्त्र ताप के कुचालक होने के कारण सर्दियों में पहने जाते हैं। वर्टेड कपड़ा कोट, पैंट, आदि बनाने में प्रयोग किया जाता है। ऊन से कम्बल, स्वेटर, जुराबें, टोपी आदि बनाई जाती हैं। ऊनी तन्तु को फैल्ट करके नमदा आदि बनाए जाते हैं।
  • ऊनी कपड़ों में सिलवटें नहीं पड़ती हैं।
  • ऊनी कपड़ा लचीला होने के कारण शरीर के आकार पर फिट हो जाता है।
  • ऊन के साथ टेरीलीन अथवा कॉटन मिलाकर मजबूत टेरीवूल (Terrywool) व काट्सवूल (Cotswool) बनाया जाता है।

प्रश्न 5.
मिश्रित तन्तु (Blended Fibres) किसे कहते हैं ? उनकी उपयोगिता दर्शाइए।
उत्तर:
मिश्रित तन्तु (Blended Fibres): हम जानते हैं कि विभिन्न प्रकार के तन्तुओं के गुण व दोष भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। ऐसा कोई भी तन्तु नहीं है जिससे बने धागे या कपड़े में सभी वांछित गुण विद्यमान हों। प्रत्येक व्यक्ति कपड़े में सभी गुणों जैसे सुन्दरता, टिकाऊपन, सिलवट मुक्त, धुलाई व रंगाई में आसानी तथा फफूंदी, कीड़ा आदि न लगने का समावेश चाहता है। इन सभी विशेष वाछित विशेषताओं का किसी एक तन्तु में पाया जाना असम्भव है तथा सभी तन्तुओं में कोई न कोई दोष भी होता है।

वस्त्रोद्योग के विशेषज्ञ वर्षों से मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं के लिए वांछित गुणों वाले तथा दोषों से मुक्त कपड़े के उत्पादन के लिए प्रयास करते रहे हैं। इन प्रयासों के फलस्वरूप अब मिश्रित (Blended) धागे बनने लगे हैं। जब एक से अधिक प्रकार के तन्तुओं को मिला कर धागा तैयार करते हैं तो उन्हें मिश्रित धागा कहते हैं। प्रायः ऐसे दो तन्तुओं को मिश्रित किया जाता है जिनके द्वारा बनाए गए कपड़े में इन दोनों के मिश्रित गुणों का समावेश चाहते हैं।

अलग-अलग तन्तुओं के आकार-प्रकार एवं लम्बाई में भिन्नता होने के कारण मिश्रित तन्तुओं से बने धागों में समानता का अभाव होता है। यह कहीं से अधिक पतले तो कहीं से अधिक मोटे होते हैं, परन्तु विज्ञान की उन्नति से इस समस्या का समाधान भी हो गया है। आज बाजार में अनेक प्रकार के मिश्रित तन्तुओं से बने कपड़े मिलते हैं।

1. दो प्राकृतिक तन्तुओं के मिश्रण से मिश्रित तन्तु: कपास के तन्तु एवं ऊन के तन्तु को मिलाकर बने तन्तु जैसे काट्सवुल (Cotswool), रेशम के तन्तु एवं सूती तन्तु को मिला कर बने तन्तु-सिल्को (Silkco)।

2. एक प्राकृतिक तन्तु एवं एक कृत्रिम तन्तु के मिश्रण से बने मिश्रित तन्तु:

  • पॉलीएस्टर तन्तु टेरीलीन एवं सूत के तन्तुओं को मिलाकर बने टेरीकॉट (Terry Cot)
  • पॉलीएस्टर तन्तु टेरीलीन एवं रेशम के तन्तुओं को मिलाकर बने टेरीसिल्क (Terry Silk)
  • पॉलीएस्टर तन्तु टेरीलीन एवं ऊन के तन्तुओं को मिलाकर बने टेरीवुल (Terry Wool)

मिश्रित तन्तुओं से बने कपड़े आजकल बहुत लोकप्रिय हैं क्योंकि इनमें दोनों तन्तुओं के अच्छे गुणों का समावेश होता है जिससे कपड़ा अधिक सुविधाजनक एवं आकर्षक हो जाता है।

टेरीकॉट की बनी कमीजें शुद्ध टेरीलीन अथवा सूत की बनी कमीजों से अधिक टिकाऊ, आकर्षक एवं सुविधाजनक होती हैं क्योंकि इनमें टेरीलीन व सूत दोनों के अच्छे गुणों का समावेश होता है। शुद्ध ऊनी वस्त्रों को धोने में जहाँ बहुत अधिक सावधानी रखनी पड़ती है वहाँ टेरीवुल को आसानी से धोकर साफ किया जा सकता है।

इसी प्रकार शुद्ध ऊनी कपड़े अधिक मजबूत नहीं होते हैं परन्तु जब उनमें टेरीलीन के तन्तु मिलाते हैं तो वह अधिक मजबूत हो जाते हैं। टेरीसिल्क से बने कपड़े सिल्क की चमक लिये हुए आकर्षक तो होते ही हैं, परन्तु सिल्क से कहीं अधिक मजबूत एवं टिकाऊ भी होते हैं। मिश्रित कपड़ा बनाने के लिए धागा तैयार करते समय दोनों प्रकार के तन्तुओं को एक निश्चित अनुपात में मिलाया जाता है और इन रेशों के अनुपात के अनुसार ही तैयार वस्त्र के गुण निर्धारित होते हैं।

प्रश्न 6.
मानव निर्मित (Man-made fibres), नायलोन (Nylon) व टेरीलीन-पॉलिएस्टर रेशा (Terrylene-the Polyster fibre) की भौतिक, रासायनिक, तापीय, जैविक विशेषताएँ तथा प्रयोग व सावधानी विस्तार से लिखें।
उत्तर:
मानव निर्मित तन्तु (Man-made fibres):
नायलोन (Nylon)-यह सबसे पहला मानव-निर्मित रेशा है। डू-पोंट कम्पनी ने इसे 1927-29 ई. में खोज निकाला। यह एक पोलिअमाइड रेशा है। बुनी हौजरी के रूप में यह 1930 ई. से बाजार में बिकती है। सारे विश्व में नायलोन की हौजरी व जुराबें बहुत प्रसिद्ध हैं। पहले नायलोन को 6,6 कहा जाता था। नम्बरों का अर्थ था कि नायलोन बनाने के लिए दो रसायनों का प्रयोग किया गया है जिसमें प्रत्येक 6 कार्बनिक परमाणु हैं। नायलोन 6, 10 नायलोन ब्रश बनाने के काम आता है। भारत में केवल 6, 6 नायलोन का उत्पादन तथा प्रयोग होता है।

नायलोन बनाने के लिए प्रयोग में लाए गए दो यौगिकों के नाम हैं एडीपिक अम्ल और हेक्सामेथीलीन डायमीन। प्रेशर के साथ गर्म करने से इनमें पाए जाने वाले छोटे-छोटे कण परस्पर मिलकर लम्बे-लम्बे कतरों में बदल जाते हैं। इन कतरों को पिघलाकर पम्प के दबाव से स्पिन्नरैट के छिद्रों में से निकालते हैं तो महीन लम्बे रेशे बनते हैं जो हवा के सम्पर्क में आते ही सूख जाते हैं। पोलिमर छोटे-छोटे अणुओं को मिलाकर बनाया गया अणु होता है तथा इस प्रक्रिया को Polymerization कहते हैं।

भौतिक विशेषताएँ (Physical Properties) :
1. सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता से देखने पर ज्ञात होता है कि नायलोन के तन्तु गोलाकार, चमकदार, सीधे और चिकने होते हैं। इन तंतुओं में प्राकृतिक पारदर्शकता होती है। इनकी सहायता से पूर्ण पारदर्शक वस्त्र बनाए जा सकते हैं। नायलोन की राल में सफेद रंग लगाकर अपारदर्शी नायलोन तैयार करने का ही अधिक प्रचलन है।

2. नायलोन मानव-निर्मित तंतुओं में सबसे अधिक मजबूत होता है।

3. गीले होने पर भी नायलोन के रेशे अपनी मजबूती व प्रत्यास्थता बनाए रखते हैं। अतः इन्हें धोने के समय विशेष सावधानी की आवश्यकता नहीं होती । पानी शीघ्र फैल जाता है तथा वाष्पीकरण में सहायक होता है।

4. नायलोन के रेशे लम्बे व मजबूत होते हैं। उनमें दूसरे प्रकार के रेशों को काटने की शक्ति होती है। यह फन्दा डालने की कोशिश करते हैं परंतु कमजोर रेशों की तरह टूटते नहीं बल्कि तन जाते हैं। इसी कारण कुछ समय के बाद कपड़ों में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं।

5. नायलोन के कपड़ों पर पसीने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, हालाँकि रंग नष्ट हो जाते हैं।

तापीय विशेषताएँ (Thermal Properties) :
1. नायलोन आग की लपट में पिघल जाती है तथा लाल रंग की लेसदार राख बन जाती है जो ठंडे होने पर सख्त हो जाती है।
2. नायलोन को ऊष्मता के विरुद्ध बनाया जाता है। इसलिए हर प्रकार के नायलोन 140°C तक का तापमान काफी समय तक बिना किसी हानि के सह लेते हैं। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि इन्हें इस तापमान से अधिक तापमान पर न रखा जाए।
3. सूर्य की किरणें नायलोन को नष्ट कर देती हैं। अधिक देर तक सूर्य की किरणों में रखने से यह कमजोर हो जाते हैं तथा टूटने का खतरा बढ़ जाता है।

रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties):
1. इस पर क्षार का कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु प्रत्येक अम्ल का रेशों पर अत्यंत बुरा प्रभाव पड़ता है।
2. ब्लीच व धब्बे मिटाने वाले रसायनों का नायलोन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।

जैविक विशेषताएँ (Biological Properties) :
1. नायलोन के तंतुओं पर जीवाणुओं का कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।
2. अगर चीटियाँ या कॉकरोच कपड़े में फंस जाए तो वे इसे काटकर बाहर निकल जाएँगे।

नायलोन का प्रयोग और सावधानी (Use and Care of Nylon): नायलोन को धोना व इसका रख-रखाव आसान है। यह ठंडे या गर्म पानी से धोया जा सकता है और तुरत ही सूख जाता है। ठंडे पानी में धोने से सिलवटें नहीं पड़ती। अगर दूसरे कपड़ों के साथ इसे धोया जाए तो नायलोन का यह स्वभाव होता है कि वह उनका रंग और मैल स्वयं ले ले। इस प्रकार कपड़े में मटमैलापन या पीलापन आ जाता है जो कठिनाई से दूर होता है, अत: तुरत धब्बे मिटाना आवश्यक है। यह वेशभूषा, पर्दो और रात के परिधान के लिए प्रयोग में लाया जाता है। दूसरे देशों के साथ मिलाकर इसका बहुमुखी प्रयोग किया जा सकता है।

टेरीलीन-पॉलिएस्टर रेशा (Terrylene-The Polyester Fibre): डू-पोंट की अनुसंधान संस्था में सबसे पहले इसकी खोज हुई। नायलोन की खोज का श्रेय डू-पोंट को जाता है। पॉलिएस्टर को ब्रिटेन स्थिति कैलिको प्रिंटर्स एसोसिएशन ने परिचित करवाया जिसकी सार्वजनिक सूचना 1946 में ही दी गई चूँकि उस समय द्वितीय महायुद्ध चल रहा था, डू-पोंट ने इसे. डेकरॉन नाम दिया जबकि इम्पीरिल केमिकल इण्डस्ट्रीज ICI ने इंगलैंड व यूरोप में इसे टेरीलीन कहा। पॉलिएस्टर का रख-रखाव आसान है और यह क्रीजरोधक है। अमेरिका में इसके कपड़े सबसे अधिक प्रयोग में लाये जाते हैं।

पॉलिएस्टर के अणु पॉलीमर हैं जो विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा बनाए जाते हैं। इसके भार का लगभग 85% कार्बोक्सिलिक अम्ल होता है। तेज ताप पर प्रतिक्रिया कराकर पॉलीमर बनाए जाते हैं जिससे यन्त्रों द्वारा रिबन जैसी लम्बी-लम्बी पट्टियाँ बनाई जाती हैं। फिर इन पट्टियों के टुकड़े काटे जाते हैं जिन्हें पिघलाकर तथा स्पिन्नरैटों से निकाल कर तंतुओं का निर्माण किया जाता है। इन तंतुओं का भी अन्य तंतुओं की भाँति धागा बनाया जाता है जिससे अनेक प्रकार के सुंदर कपड़े बनाए जाते हैं।

(Physical Properties):

  • सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता से देखने पर यह ज्ञात होता है कि इसके तन्तु नायलोन के तंतुओं के समान ही होते हैं। ये तन्तु चिकने, सीधे और चमकदार होते हैं।
  • विभिन्न पॉलिएस्टर की अलग-अलग दृढ़ता होती है। कई रेशों की मजबूती नायलोन से भी अधिक होती है व अन्यों की रेयान की तरह कम । सूखी एवं गीली दोनों अवस्थाओं में मजबूती में कोई अंतर नहीं होता।
  • यह स्पर्श पर गर्म होता है।
  • यह ऐसा वस्त्र होता है जो पहनने पर न तो सिकुड़ता है न ही फैलता है। इसलिए ग्राहकों को यह शीघ्र ही पसंद आ जाता है।
  • पॉलिएस्टर के कपड़े की सूती कपड़ों से दो-चार गुना अधिक अपघर्षण प्रतिरोधकता होती है।
  • इन कपड़ों में स्थिर-विद्युत पैदा होती है।
  • इनकी अवशोषकता कम होती है। धब्बे सतह पर ही रहते हैं तथा शीघ्र ही धुल जाते हैं।
  • टेरीलीन में विकिंग प्रभाव होता है। विकिंग (wicking) का अर्थ है कि रेशा पहनने वाले के शरीर से नमी ले लेता है जो वाष्पीकरण के बाद त्वचा पर ठंडक का अहसास कराता है।

तापीय विशेषताएँ (Thermal Properties):

  • पॉलिएस्टर बंधक वाला काला धुआँ छोड़ते हुए जलता है।
  • इसे थोड़ी हल्की इस्त्री चाहिए ।
  • एक बार बैठने के बाद क्रीज व प्लेट अधिक देर तक टिक सकती है।

रासायनिक विशेषताएँ (Chemical Properties) :

  • पॉलिएस्टर के तंतुओं पर हल्के क्षार का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।
  • पॉलिएस्टर के तंतुओं पर अम्ल के हल्के घोल का कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन तीव्र धातु अम्ल व उच्च तापमान के फलस्वरूप इसके तन्तु नष्ट हो जाते हैं।
  • इन पर कार्बनिक घोलों, ब्लीच और धब्बे छुड़ाने वाले यौगिकों का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • पॉलिएस्टर के कपड़ों को अधिक समय तक धूप में रखने से वे कमजोर हो जाते हैं। शीशे के पीछे से यह अच्छी प्रतिरोधकता रखता है, इसलिए पर्यों के लिए अच्छा कपड़ा है।

जैविक विशेषताएँ (Biological Properties):सामान्यतः शुद्ध पॉलिएस्टर के तंतुओं पर जीवाणुओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन पर कीड़ों का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

पॉलिएस्टर का प्रयोग और सावधानी (Use and Care of Polyester): इन वस्त्रों पर सिलवटें नहीं पड़ती जिससे इन पर इस्त्री करने की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए लोगों को यह बहुत पसन्द आते हैं। अम्ल, क्षार और कार्बनिक यौगिकों का भी कोई प्रभाव नहीं होता। अधिक मैले कपड़े को साफ करने के लिए विशेष परिश्रम भी नहीं करना पड़ता। धोने के बाद यह वस्त्र शीघ्र ही सूख जाता है।

पॉलिएस्टर का प्रयोग पर्दे, फर्नीचर तथा फर्श की सजावट के लिए किया जाता है। औद्योगिक वस्तुएँ, जैसे-रस्सियाँ, मछली पकड़ने का जाल, टायर, मशीनों के पट्टे आदि अपनी मजबूती भी पॉलिएस्टर से ही पाते हैं। बिना किसी हानि के पॉलिएस्टर की नाड़ियाँ बनाकर हृदय सर्जरी के काम में लाया जाता है। आधुनिक युग में बिना बुना हुआ पॉलिएस्टर टेरीलीन का छतों व चटाइयों में भी प्रयोग हो रहा है।

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