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 class 10 hindi book solutions – शिक्षा और संस्कृति

class 10 hindi book solutions – शिक्षा और संस्कृति

class 10 hindi book solutions

class – 10

subject – hindi

lesson 12 – शिक्षा और संस्कृति

शिक्षा और संस्कृति
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-महात्मा गाँधी
* लेखक का परिचय:-महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 ई० में पोरबन्दर गुजरात में हुआ था। इनके पिता का नाम करमचन्द गाँधी था। उनकी माता का नाम पुतलीबाई था। वकालत की पढ़ाई उन्होंने 4 दिसम्बर 1888 ई० में लंदन विश्वविद्यालय लंदन से किया। 1883 ई० में इनकी
शादी कस्तूरबा जी से हुई। थीं। अफ्रीका, चंपारण और सारे भारत में इन्होंने अपने सत्याग्रह द्वारा

* रचनाएँ:-(1) हिन्द स्वराज, सत्य के साथ मेरे प्रयोग, आत्मकथा।

*संपादन:-हरिजन यंग इण्डिया आदि (पत्रिकाएँ)

*विशेषताएँ:-गाँधीजी ने आजादी की लड़ाई के लिए सत्य का प्रयोग किया। अहिंसा और पूरे विश्व को नया मार्ग दिखाया।अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसा का पहला प्रयोग किया। इन्होंने स्वराज की मांग की। इन्होंने अकृता का उद्धार किया। सर्वोदय का कार्यक्रम चलाया। स्वदेशी का नारा दिया। सामाजिक बुराइयों ऊँच-नीच, जाति धर्म में परिव्याप्त बुराइयों को दूरकर हरिजनों की सेवा किया। वे एक कर्मठ एवं तपस्वी राजनेता थे। मानव-सेवा उनके जीवन का मूलमंत्र था। गाँधीजी ने सांप्रादायिकता के
खिलाफ आजीवन संघर्ष किया। वे एक महामानव संत थे, साधक थे।

* सारांश:-शिक्षा और संस्कृति नामक निबंध महात्मा गाँधी द्वारा रचित प्रेरणाप्रद निबंध है। ‘यंग इंडिया’ और ‘हरिजन नामक पत्रों का संपादन महात्मा गाँधी किया करते थे। इन पत्रों में उनके द्वारा गंभीर एवं समसामयिक अग्रेलेख प्रकाशित हुआ करते थे।
गाँधीजी के विचार हमारे जीवन में आज भी उपयोगी हैं। व्यावहारिक दृष्टिकोण से पूर्ण हैं। इनके द्वारा प्रतिपादित और सुझाए गए विचार आज भी बल प्रदान करते हैं। आत्मिक और बौद्धिक विकास में सहायक हैं। मानसिक एवं शारीरिक संतुलन कायम रखते हुए नैतिक विकास
के लिए प्रेरणाप्रद है। गांधी द्वारा शिक्षा और संस्कृति के बारे में जो परिकल्पना प्रस्तुत की गयी है वह केवल सैद्धान्तिक ही नहीं है, जटिल और पुस्तकीय भी नहीं है, बल्कि हमारे साधारण दैनिक जीवन में व्यावहारिक रूप से गहरे अर्थों में जुड़ी हुई हैं। अहिंसा और प्रेम के रास्ते ही हम सामाजिक बुराइयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इन्हीं दोनों हथियार के बल पर गांधीजी ने टॉल्सटाय फार्म और फिनिक्स आश्रम में बच्चों को शिक्षा देने की भरसक कोशिश की थी।
जीवन में आध्यात्मिक शिक्षा और भौतिकता के बीच समन्वय एवं संतुलन का होना नितांत जरूरी है। गांधी के विचार में मस्तिष्क का ठीक-ठाक और सर्वांगीण विकास तभी संभव है जब बच्चे की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियों की भी शिक्षा होती रहे।
गाँधीजी के मतानुसार बच्चे में ऐसी शिक्षा प्रारंभ की जाय जिससे वह कोई उपयोगी दस्तकारी सौख सके। जिस क्षण वह अपनी तालीम शुरू करें उसी क्षण उसे उत्पादन का काम करने योग्य भी बना दिया जाए।
गाँधीजी ने कहा है कि इस तरह की शिक्षा पद्धति में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है। सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाय। गाँधीजी ने शिक्षा का मूल ध्येय चरित्र-निर्माण को माना है। किताबी ज्ञान से कहीं बढ़कर चरित्र निर्माण का महत्व
है। चरित्र निर्माण के बल पर ही सबल, स्वस्थ समाज और राष्ट्र का निर्माण संभव है।
गाँधीजी अपनी भाषा और अपनी संस्कृति के अलावा विश्व की भाषाओं और संस्कृतियों के बारे में जानकारी लेने एक-दूसरे की विशेषताओं से अवगत होने की सलाह देते हैं। वे अनुवाद-कार्य पर भी विशेष जोर देते हैं ताकि बिना दूसरी भाषा के सीखे अपनी भाषा के अनुवाद में विविध विषयों की जानकारी सुगमता से मिल सके।
विद्यार्थियों का एक ऐसा वर्ग बने जो अनुवाद कार्य कर राष्ट्र के विकास में सहायक बने। धर्म और संस्कृति के बनने में भी गाँधीजी का विचार साफ है। वे धर्म को जेलखाना के रूप में नहीं देखना चाहते हैं। वे ज्ञान-विज्ञान और विविध क्षेत्रों की जानकारी के लिए खुला वातावरण चाहते हैं। संकीर्णता के वे विरोधी हैं।
भारतीय लोगों का कर्तव्य बन जाता है कि वे उदारता और स्वतंत्रता के प्रति सजग रहे। अपनी मातृभाषा और संस्कृति के प्रति सजग रहकर अन्य संस्कृतियों एवं विश्व की दूसरी भाषाओं में संचित ज्ञान-भंडार से रू-ब-रू हों।
भारतीय संस्कृति बहुजातीय और बहुधार्मिक है। यहाँ सामंजस्य की संस्कृति है। यहाँ दबाव गुलामी का संस्कृति नहीं है। यहाँ प्रेम, त्याग, दया, सहिष्णुता, सत्य, अहिंसा पर आधारित कल्याणकारी भावनाएं हैं। अत:, शिक्षा और संस्कृति के बारे में गांधीजी के विचार बहुमूल्य हैं।

गद्यांश पर आधारित अर्थ ग्रहण-संबंधी प्रश्न
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1. अहिंसक प्रतिरोध सबसे उदात्त और बढ़िया शिक्षा है। वह बच्चों को मिलनेवाली साधारण अक्षर-ज्ञान की शिक्षा के बाद नहीं, पहले होनी चाहिए। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बच्चे को, वह वर्णमाला लिखे और सांसारिक ज्ञान प्राप्त करे उसके पहले यह जानना चाहिए कि आत्मा क्या है, सत्य क्या है, प्रेम क्या है और आत्मा में क्या-क्या शक्तियाँ छुपी हुई हैं। शिक्षा का जरूरी अंग यह होना चाहिए कि बालक जीवन-संग्राम में प्रेम से घृणा को, सत्य से असत्य को और कष्ट-सहन से हिंसा को आसानी के साथ जीतना सीखें। इस सत्य का बल अनुभव करने के कारण ही मैंने सत्याग्रह-संग्राम के उत्तरार्ध में पहले टॉल्सटाय फार्म में और बाद में फिनिक्स आश्रम में बच्चों को इसी ढंग की तालीम देने की भरसक कोशिश की थी।

(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) विष के दाँत
(ख) जित-जित मैं निरखत
(ग) मछली
(घ) शिक्षा और संस्कृति

(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) महात्मा गांधी
(ख) बिरजू महाराज
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) भीमराव अंबेदकर

(ग) वर्णमाला ज्ञान से पहले बच्चों को कैसी शिक्षा चाहिए?

(घ) गाँधीजी ने कहाँ सांसारिक ज्ञान की शिक्षा देने की कोशिश की है?
उत्तर-(क)-(घ) शिक्षा और संस्कृति
(ख)-(क) महात्मा गांधी

(ग) वर्णमाला ज्ञान से पहले बच्चों को शिक्षा देनी चाहिए कि आत्मा क्या है, सत्य क्या है, प्रेम क्या है? शिक्षा का जरूरी अंग यह होना चाहिए कि बालक जीवन-संग्राम में प्रेम से घृणा को, सत्य से असत्य को और कष्ट सहने से हिंसा को आसानी के साथ जीतना सीखें।

(घ) गाँधीजी ने सत्याग्रह-संग्राम के उत्तरार्द्ध में टॉल्सटाय फार्म में तथा फिनिक्स आश्रम/में सांसारिक ज्ञान बच्चों को देने की कोशिश की है।

2. मेरी राय में बुद्धि की सच्ची शिक्षा शरीर की स्थूल इन्द्रियों अर्थात हाथ, पैर, आँख, कान, नाक वगैरह के ठीक-ठीक उपयोग और तालीम के द्वारा ही हो सकती है। दूसरे शब्दों, में बच्चे द्वारा इन्द्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग, उसकी बुद्धि के विकास का जल्द-से-जल्द और उत्तम
तरीका है। परन्तु शरीर और मस्तिष्क के विकास के साथ आत्मा की जागृति भी उतनी ही नहीं होगी, तो केवल बुद्धि का विकास घटिया और एकांगी वस्तु ही साबित होगा। आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा मतलब हृदय की शिक्षा है। इसलिए मस्तिष्क का ठीक-ठीक और सर्वांगीण विकास तभी हो सकता है, जब साथ-साथ बच्चे की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियों की भी शिक्षा होती रहे। ये सब बातें अविभाज्य हैं। इसलिए इस सिद्धांत के अनुसार यह मान लेना कुतर्क होगा कि उनका विकास अलग-अलग या एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप में किया जा सकता है।

(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है ?
(क) शिक्षा और संस्कृति
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) जित-जित मैं निरखत हूँ
(घ) श्रम विभाजन और जाति प्रथा

(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) महात्मा गांधी
(ग) अशोक वाजपेयी
(ख) मैक्समूलर
(घ) यतीन्द्र मिश्र

(ग) लेखक ने शारीरिक और आध्यात्मिक शिक्षा पर क्यों जोर दिया है?

(घ) कौन-सा सिद्धान्त लेखक के मतानुसार कुतर्क होगा?
उत्तर-(क)-(क) शिक्षा और संस्कृति
(ख)-(क) महात्मा गांधी

(ग) स्वस्थ मस्तिष्क में स्वस्थ मन का वास होता है। यदि शरीर स्वस्थ न हो तो अध्ययन की गति रुक जाती है। आत्मिक विकास के लिए हृदय को स्वस्थ एवं संतुलित रहना अत्यन्त आवश्यक है। सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक स्थितियों के बीच अपनी राह स्वयं ढूंढ लेती है। सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा दोनों की आवश्यकता है।

(घ) शारीरिक एवं आध्यात्मिक दोनों को पृथक मानकर सर्वांगीण शिक्षा की कल्पना करना कुतर्क होगा शरीरिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इनकी
अलग-अलग विवेचना करना तर्कसंगत नहीं है।

3. यह बात मेरे विचार में भी नहीं आ सकती कि हम कूपमंडूक बन जायें या अपने चारों ओर दीवारें खड़ी कर लें। मगर मेरा_नम्रतापूर्वक यह कथन जरूर है कि दूसरी संस्कृतियों की समझ और कद्र स्वयं अपनी संस्कृति की कद्र होने और उसे हजम कर लेने के बाद होनी चाहिए, पहले हरगिज नहीं। मेरा दृढ़ मत है कि कोई संस्कृति इतने रन-भण्डार से भरी हुई नहीं है जितनी हमारी अपनी संस्कृति है। हमने उसे जाना नहीं है। हमें तो उसके अध्ययन को तुच्छ मानना और उसका मूल्य कम करना सिखाया गया है। हमने उसके अनुसार जीवन बिताना छोड़ दिया है। उसका ज्ञान हो, मगर उस पर अमल न किया जाये तो वह मसाले में रखी हुई लाश जैसी है, जो शायद दिखने
परन्तु उससे कोई प्रेरणा या पवित्रता प्राप्त नहीं होती। मेरा धर्म जहाँ यह आग्रह रखता है कि स्वयं अपनी संस्कृति को हृदयाकित करके उसके अनुसार आचरण किया जाए-क्योंकि वैसा न किया गया तो उसका परिणाम सामाजिक आत्महत्या होगा-वहाँ वह दूसरी संस्कृतियों को तुच्छ समझने या उनकी उपेक्षा करने का निषेध भी करता है।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) नागरी लिपि
(घ) शिक्षा और संस्कृति

(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) महात्मा गाँधी
(ख) विनोद कुमार शुक्ल
(ग) भीमराव अंबेदकर
(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी

(ग) मसाले में रखी हुई लाश से लेखक ने किस ओर संकेत किया है? और क्यों?
(घ) हमारी संस्कृति अक्षुण्ण क्यों है?
उत्तर-(क)-(घ) शिक्षा और संस्कृति
(ख)-(क) महात्मा गाँधी

(ग) मसाले में रखी हुई लाश से लेखक ने हिन्दी भाषा की ओर संकेत किया है। आज की युवापीढ़ी उस भाषा को ज्ञान-भंडार मानती है जिसमें न कोई सुंदरता दिखती है और न ही उसका कोई अपना रूप दिखता है। जिस भाषा में सीखने की प्रेरणा और पवित्रता का अभाव हो भला वह जीवंत कैसे हो सकती है। हिन्दी जीवंत भाषा है, फिर भी हमारी एकाग्रता अन्य भाषाओं की तरफ है।

(घ) हमारी संस्कृति अन्य संस्कृतियों से दूरी नहीं बढ़ाती है। बाहर से आयी हुई संस्कृति को भी अपने यहाँ पनपने देती है और अन्ततः अपना रूप देकर उसे भी सुशोभित कर देती है। हमारी संस्कृति अमीर-गरीब, ऊँच-नीच आदि का भेद नहीं डालती है। यहाँ आर्य,मुसलमान आदि सभी आते गये किन्तु अपनी संस्कृति को भी इसी में समाहित करते गये।

4. मैं चाहता हूँ कि उस भाषा (अंग्रेजी) में और इसी तरह संसार की अन्य भाषाओं में जो ज्ञान-भंडार भरा पड़ा है, उसे राष्ट्र अपनी ही देशी भाषाओं में प्राप्त करे। मुझे रवीन्द्रनाथ की अपूर्व रचनाओं की खूबियां जाने के लिए बंगला सीखने की जरूरत नहीं। वह मुझे अच्छे अनुवाद उसे मिल जाती है। गुजराती लड़कों और लड़कियों को टॉलस्टॉय की छोटी-छोटी कहानियां से लाभ उठाने के लिए रूसी भाषा सीखने की आवश्यकता नहीं वह तो उन्हें अच्छे वादों के जरिए सीख लेते हैं। अंग्रेजों को गर्व है कि संसार में जो उत्तम सहित होता है, वह प्रकाशित होने के 1 सप्ताह के भीतर सीधी-सादी अंग्रेजी में उस राष्ट्र के हाथों में आ जाता है।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) मछली
(ख) आविन्यो
(ग) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(घ) शिक्षा और संस्कृति

(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) भीमराव अंबेदकर
(ख) मैक्समूलर
(ग) महात्मा गाँधी
(घ) अमरकांत

(ग) गाँधीजी को रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं का आनन्द कैसे प्राप्त हो जाता है?
(घ) अंग्रेजों को किस बात का गर्व है?
उत्तर-(क)-(घ) शिक्षा और संस्कृति
(ख)-(ग) महात्मा गाँधी

(ग) गाँधीजी को रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं का आनन्द अनुवाद के द्वारा प्राप्त हो जाता था।

(घ) अंग्रेजों को इस बात का गर्व है कि संसार में जिस किसी भाषा में उत्तम साहित्य का प्रकाशन होता है, वह एक सप्ताह के अन्दर सरल अंग्रेजी में उपलब्ध हो जाता है।

5. मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों ओर दीवारें खड़ी कर दी जाएँ और मेरी खिड़कियाँ बन्द कर दी जाएँ। मैं चाहता हूँ कि सब देशों की संस्कृतियों की हवा मेरे घर के चारों ओर
अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता से बहती रहे। मगर मैं उनमें से किसी के झोंके में उड़ नहीं जाऊँगा। मैं चाहूँगा कि साहित्य में रुचि रखनेवाले हमारे युवा स्त्री-पुरुष जितना चाहें अंग्रेजी और संसार की भाषाएँ सीखें और फिर उनसे आशा रखूगा कि वे अपनी विद्वता का लाभ भारत और संसार को उसी तरह दें जैसे बोस, राय या स्वयं कविवर दे रहे हैं लेकिन मैं यह नहीं चाहूँगा कि एक भी भारतवासी अपनी मातृभाषा भूल जाए उसकी उपेक्षा करे उस पर शर्मिंदा हो या यह अनुभव करे कि वह अपनी खुद की देशी भाषा में विचार नहीं कर सकता या अपने उत्तम विचार प्रकट नहीं कर सकता। मेरा धर्म कैदखाने का धर्म नहीं है।

(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है ?
(क) बहादुर
(ख) शिक्षा और संस्कृति
(ग) विष के दाँत
(घ) परम्परा का मूल्यांकन

(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) गुणाकर मूले
(ख) रामविलास शर्मा
(ग) महात्मा गांधी
(घ) भीमराव अंबेदकर

(ग) संसार की अन्य भाषाओं के बारे में लेखक की क्या राय है?
(घ) मातृभाषा के संबंध में लेखक की धारणा क्या है?
उत्तर-(क)-(ख) शिक्षा और संस्कृति
(ख)-(ग) महात्मा गांधी..

(ग) लेखक चाहते हैं कि हमारे युवा संसार की अन्य भाषाएँ सीखना चाहते हैं तो सीखें लेकिन अपनी जानकारी और विद्वता का लाभ देश को दें जैसे-जगदीशचन्द्र बोस और रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि दे रहे हैं।

(घ) लेखक चाहते हैं कि लोग अपनी मातृभाषा न भूलें, इसकी उपेक्षा न करें। ऐसा : हो कि अपने उत्तम विचार हमारे लोग अपनी मातृभाषा में प्रकट न कर सकें।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
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1. किनका जन्म-दिन अहिंसा-दिवस के रूप में मनाया जाता है?
उत्तर-गाँधीजी का जन्म दिन अहिंसा-दिवस के रूप में मनाया जाता है।

2. गाँधीजी सबसे बढ़िया शिक्षा किसे मानते थे?
उत्तर-अहिंसक प्रतिरोध को गाँधीजी सबसे बढ़िया शिक्षा मानते थे।

3. गाँधीजी सारी शिक्षा कैसे देना चाहते थे?
उत्तर-गाँधीजी सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा देना चाहते थे।

4. गांधीजी किस भाषा में संसार का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे?
उत्तर-गाँधीजी अपनी ही देशी भाषाओं में संसार का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे।

5. भारतीय संस्कृति को गाँधीजी क्या समझते थे?
उत्तर-गाँधीजी की दृष्टि में भारतीय संस्कृति रत्नों से भरी है।

6. कौन-सी संस्कृति जीवित नहीं रहती?
उत्तर-जो संस्कृति दूसरों का बहिष्कार करने की कोशिश करती है, वह जीवित नहीं रहती।

7.अमरीकी संस्कृति की प्रवृत्ति क्या है?
उत्तर-अमरीकी संस्कृति की प्रवृत्ति है बाकी संस्कृतियों को हजम करना, कृत्रिम और जबरदस्ती एकता।

पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
पाठ के साथ
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प्रश्न 1. गाँधीजी बढ़िया शिक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर-गाँधीजी अहिंसा के द्वारा किसी, भी समस्या का समाधान चाहते थे। वे सत्य के पुजारी थे। मानवता के रक्षक थे। अहिंसा उनका मूल मंत्र था और हथियार भी। वह प्रतिरोपित किसी भी बात का प्रतिहार था प्रतिरोध अहिंसा के माध्यम से करना चाहते थे। इस प्रकार अहिंसा
के द्वारा प्रतिरोध करना उनकी दृष्टि में सबसे बढ़िया शिक्षा थी। सत्य प्रेम और अहिंसा तीनों आत्मा के आभूषण हैं। प्रेम से घृणा को, सत्य से असत्य को और कष्ट सहने से हिंसा पर आसानी से विजय प्राप्त किया जा सकता हैं।

प्रश्न 2. इन्द्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग सीखना क्यों जरूरी है?
उत्तर-बच्चों के लिए इन्द्रियों का बुद्धिपूर्वक उपयोग सीखना इसलिए जरूरी है कि उससे बच्चों को बौद्धिक और आत्मिक विकास जल्दी से और उत्तम तरीके से किया जा सकता है। शरीर और मस्तिष्क के विकास के साथ आत्मा की जागृति भी आवश्यक है। आध्यात्मिक शिक्षा का सीधा मतलब हृदय की शिक्षा से है। मानव का सर्वांगीण यानी पूर्ण रूप से तभी विकास संभव है जब वह शारीरिक और आध्यात्मिक शिक्षा से परिपूर्ण हों। हाथ, पैर, आँख कान, नाक वगैरह के विषय में, उसकी उपयोगिता और काम की सही-सही जानकारी हमें अच्छी शिक्षा से ही मिल
सकती है।

प्रश्न 3. शिक्षा का अभिप्राय गाँधीजी क्या मानते हैं?
उत्तर-गाँधीजी की दृष्टि में शिक्षा का अभिप्राय से मतलब यह है कि बच्चे और मनुष्य आया के शरीर, बुद्धि, और आत्मा के सभी गुणों का पूर्ण रूप से विकास हो सके। यानी उनका सही-सही प्रकटीकरण हो सके।
शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे व्यावहारिक जीवन में लाभ प्राप्त हो। उपयोगी दस्तकारी या दूसरी अन्य कलाओं में दक्ष होकर ही मानव व्यवस्थित जीवन जी सकता है। अतः, शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उत्पादन करने में सहायक हो सके। सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों का सम्यक् विकास होगा तभी सही शिक्षा मानी जाएगी और वह मानव के लिए उपयोगी होगी।

प्रश्न 4. मस्तिष्क और आत्मा का विकास कैसे संभव है?
उत्तर-गाँधीजी के मतानुसार जबतक मनुष्य के मस्तिष्क और आत्मा का विकास नहीं होगा। तबतक जीवन सार्थक नहीं होगा। गाँधीजी की दृष्टि में दस्तकारी शिक्षा सबसे अनिवार्य है क्योंकि इसके माध्यम से उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है और जीवन में समृद्धि की प्राप्ति की जा सकती है।
इस प्रकार कलात्मक दस्तकारी, उत्पादन करनेवाली शिक्षा पद्धति ही मनुष्य के लिए उपयोगी है। इसके माध्यम से ही मस्तिष्क और आत्मा का पूर्ण रूप से विकास संभव है। अतः, सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों द्वारा दी जाय।

प्रश्न 5. गाँधीजी कताई और धुनाई जैसे ग्रामोद्योगों द्वारा सामाजिक क्रांति कैसे संभव मानते थे?
उत्तर-गाँधीजी मनुष्य के जीवन में मौलिक परिवर्तन चाहते थे। इसी कारण उन्होंने कताई-धुनाई और ग्रामीण परिवेश से संबंधित-उद्योगों द्वारा प्राथमिक शिक्षा देना चाहते थे। इसके द्वारा सामाजिक क्रांति संभव है। श्रम का उचित सम्मान और उत्पादन की क्षमता में इसके द्वारा वृद्धि संभव है। बेरोजगारी भी दूर की जा सकती है। अमीर-गरीब की खाई भी पटेगी। आपस में भाईचारा भी बढ़ेगा। न्यायपूर्ण व्यवस्था और स्वतंत्रता के अधिकार से सभी अवगत होंगे। जीवन में बुनियादी परिवर्तन बिना रक्त क्रांति या वर्ग युद्ध के संभव हो जाएगा। देहातों में हास की जगह विकास हो पाएगा। आरक्षित व्यवस्था और वर्गों के परस्पर विषाक्त संबंधों की बड़ी-से-बड़ी बुराइयाँ को दूर करने में मदद भी मिलेगी। भारत जैसे विशाल देश के लिए यंत्रीकरण के विकास और उपयोग की तुलना में ग्रामीण उद्योगों और कुटीर उद्योगों का बढ़ावा देना ज्यादा लाभप्रद रहेगा।
इस प्रकार गाँधीजी के जो विचार या सुझाव हैं वे अत्यंत ही उत्तम और भारतीय गाँवों की बनावट के अनुरूप हैं। इसी के उपयोग और विकास के द्वारा हम ग्रामोद्योग के क्षेत्र में, मनुष्य के जीवन के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं।

प्रश्न 6. शिक्षा का ध्येय गाँधीजी क्या मानते थे और क्यों?
उत्तर-गाँधीजी शिक्षा का ध्येय चरित्र-निर्माण को मानते थे। गाँधी का विचार था कि जब भारत आजाद हो जाएगा तब साहस, बल, सदाचार के साथ आत्मोत्सर्ग की शक्ति के विकास चरित्र-निर्माण के द्वारा ही स्वस्थ समाज का निर्माण होगा जिससे राष्ट्र के विकास में मदद मिलेगी। इसलिए शिक्षा का मूल धयेय चित्रण निर्माण से है

प्रश्न 7. गांधीजी विदेशी भाषाओं में बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य क्यों आवश्यक मानते थे ।
उत्तर- गांधी जी का विचार था कि अंग्रेजों के अलावा संस्था के अन्य भाषाओं का ज्ञान प्राप्तकर अनुवाद द्वारा अपनी भाषा और साहित्य को जितना अधिक समृद्ध किया जाएगा उतना ही हमारा विकास होगा और सबल राष्ट्र का, ज्ञानवान राष्ट्र का निर्माण होगा।
दूसरी भाषाओं के साहित्य में ज्ञान के अकूत भंडार हैं। उनकी जानकारी और उनका सदुपयोग तभी संभव हो पाएगा जब वृहत् स्तर पर अनुवाद कार्य हो। तभी हम ज्ञान वृद्धि में भी समृद्ध हो पाएँगे। अनुवाद कार्य के द्वारा हमें उस मूल भाषा को सीखने की जरूरत नहीं रह जाएगी और हम उन भाषा के संचित ज्ञान से आसानी से अवगत हो जाएंगे।इस प्रकार वृहत् स्तर पर अनुवाद कार्य होने चाहिए ताकि मनुष्य के ज्ञान का पूर्ण विकास हो सके। गाँधीजी चाहते थे कि विद्यार्थियों का एक ऐसा वर्ग हो जिसका काम विश्व की भिन्न-भिन्न भाषाओं को सीखने और उत्तम बातों की जानकारी प्राप्त कर देशी भाषाओं में अनुवाद द्वारा प्रस्तुत करता रहे।

प्रश्न 8. दूसरी संस्कृति से पहले अपनी संस्कृति की गहरी समझ क्यों जरूरी है?
उत्तर-गाँधीजी की दृष्टि में भारतीय संस्कृति विश्व की दूसरी संस्कृतियों से पुरानी और ज्ञान भंडार से पूर्ण है। जबतक हम अपनी संस्कृति से पूर्णरूप से अवगत नहीं हो सकेंगे तबतक दूसरी संस्कृति के प्रति गहरी रुचि नहीं दिखा पाएँगे। भारतीय संस्कृति महत्त्व का हम अभी तक नहीं जान पाए हैं क्योंकि इसके बारे में तुच्छता का परिचय दिया गया है। इसे तुच्छ मानना और मूल्य कम करके देखने को सिखाया गया है। गाँधीजी कहते हैं कि अपनी संस्कृति को
हृदयाकित करके उसके अनुसार आचरण किया जाय-क्योंकि वैसा नहीं करने से उसका परिणाम घात होगा। सामाजिक आत्महत्या जैसा होगा। अपनी संस्कृति को हम भलीभांति समझ रखेंगे तभी दूसरी संस्कृतियों को तुच्छ या उसकी उपेक्षा करने का साहस भी रखेंगे। इस प्रकार दूसरी संस्कृति की अपेक्षा अपनी संस्कृति की गहरी परख और ज्ञान होना चाहिए तभी हम दूसरी संस्कृति का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे और अपने साथ न्याय भी कर पाएंगे।

प्रश्न 9. अपनी संस्कृति और मातृभाषा की बुनियाद पर दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से संपर्क क्यों बनाया जाना चाहिए? गाँधीजी की राय स्पष्ट करें।
उत्तर-गाँधीजी का विचार है कि हम अपने आपको उस घर की तरह चारों ओर से दीवारें खड़ी न कर लें जिससे कि हवा का आगमन नहीं हो सके, प्रकाश की किरणों का दर्शन असंभव हो जाए। हमारे घर की खिड़कियाँ भी खुली रहनी चाहिए ताकि शुद्ध वायु और प्रकाश का समावेश हो सके।
ठीक उसी प्रकार हमें अपनी संस्कृति और मातृभाषा का सम्यक् ज्ञान तो चाहिए ही दूसरी तरफ विश्व की भाषाओं का भी सम्यक् ज्ञान और उसकी संस्कृतियों से संबंध, संपर्क बनाना चाहिए। इससे ज्ञान भंडार में वृद्धि होगी। एक-दूसरे के गुण-दोषों से परिचय होगा। एक-दूसरे से निकटता बढ़ेगी और विकास की ओर हम तीव्रतर रूप से बढ़ पाएँगे।
गाँधीजी चाहते हैं कि हर भारतवासी अपने साहित्य का ज्ञान तो रखें साथ ही अंग्रेजी और विश्व की दूसरी भाषाओं, संस्कृतियों का भी ज्ञान प्राप्त करें। अपनी विद्वता को बढ़ायें। एक-दूसरे के ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार कर सकें। एक-दूसरे से परिचय प्राप्त कर लाभ प्राप्त कर सकें।
संस्कृति के विकास में सहायक बन सकें।
भारतीय संस्कृति भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का संगम है। यहाँ का जनजीवन भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के मिश्रण से निर्मित है। इसकी अपनी निजी ‘विशेषता है। भारतीय संस्कृति भी विश्व की संस्कृतियों, उसके ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित हुई है। ठीक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति ने भी विश्व की संस्कृति को प्रभावित किया है।
इस प्रकार गाँधीजी का विचार मानव हित के लिए उपयोगी है। हमें अपनी संस्कृति, अपनी भाषा के अलावा विश्व की संस्कृतियों एवं भाषाओं का ज्ञान नितांत जरूरी है तभी हमारा सम्यक् विकास और विवेक-वृद्धि संभव हो पाएगा।

प्रश्न 10. गाँधीजी किस तरह के सामंजस्य को भारत के लिए बेहतर मानते हैं और क्यों?
उत्तर-महात्मा गाँधी का विचार है कि भारतीय संस्कृति उन भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के सामंजस्य की प्रतीक है जिनके हिन्दुस्तान में पैर जम गए हैं। जिनका प्रभाव भारतीय जीवन पर पड़ चुका है। और जो स्वयं भारतीय जीवन से भी प्रभावित हुई हैं।
भारतीय संस्कृति अमेरिकी संस्कृति से भिन्न है। उसका अपना कुदरती तर पर सामंजस्य होगा जो स्वदेशी ढंग का होगा। इसमें प्रत्येक संस्कृति के लिए अपना उचित स्थान सुरक्षित रहेगा। अमेरिकी ढंग की जो सामंजस्य है उसमें एक प्रमुख संस्कृति बाकी संस्कृतियों को हजम कर जाती है। उसका लक्ष्य मेल की ओर नहीं बल्कि कृत्रिमता और जबरदस्ती एकता की ओर रहता है।
भारतीय संस्कृति समन्वय और निरंतर विकासोन्मुख संस्कृति है। इसका अपना निजी गुण है। यहाँ की संस्कृति में शांति, एकता, अहिंसा, सहिष्णुता के अनमोल तत्त्व पाए जाते हैं।

प्रश्न 11. आशय स्पष्ट करें-
(क) मैं चाहता हूँ कि सारी शिक्षा किसी दस्तकारी या उद्योगों के द्वारा दी जाए।
उत्तर-गाँधीजी के विचारानुसार सच्ची और सही शिक्षा वही है जो मनुष्य को मनुष्यता सिखाए। दस्तकारी और उद्योगों के द्वारा जो शिक्षा दी जाएगी उससे गाँवों की बेरोजगारी दूर होगी। व्यावहारिक जीवन में आत्मीयता, प्रेम, करुणा, दया धर्म, अहिंसा, सत्य और कर्म के प्रति लोगों का रुझान बढ़ेगा। एक-दूसरे के प्रति लगाव पैदा होगा। मन और मस्तिष्क का उचित विकास होगा। गाँवों में शिल्पकला, कुटीर उद्योगों का विकास होगा। शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास में इससे सहयोग मिलेगा। शरीर, बुद्धि और आत्मा के सभी उत्तम गुणों का विकास अलग-अलग
रूपों में होगा। आजकल की शिक्षा मात्र यांत्रिक नहीं होगी बल्कि वैज्ञानिक होगी। ऐसी शिक्षा द्वारा ही मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव हो पाएगा। दस्तकारी और उद्योगों के माध्यम से प्राप्त शिक्षा द्वारा स्वावलबन के प्रति लोगों की भावना जगेगी। सभी तत्पर होकर कार्य संस्कृति के प्रति रुचि दिखाएँगे। उत्पादन विनिमय, वितरण में सुगमता होगी। जनजीवन सुखी और समृद्ध होगा। गाँवों का विकास, उनका विकास और आर्थिक स्वावलंबन होगा। हस्तकला-शिल्पकला की महत्ता और उपयोगिता से लोग अवगत होंगे। ग्राम आधारित उद्योग धंधों का विकास और जनता के बीच खुशहाली बढ़ेगी।

(ख) इस समय भारत में शुद्ध आर्य संस्कृति जैसी कोई चीज मौजूद नहीं है।
उत्तर- गाँधीजी का विचार है कि इस समयं जो संस्कृति का विकसित रूप हम देख रहे हैं आर्य संस्कृति नहीं है। यह अनेक जातियों एवं धर्मों के समिश्रण का समन्वय स्वरूप
हैं। आर्य कहाँ से आए, कैसे आए या कि मूल निवासी भारत के थे? इस विवाद में गाँधीजी पड़ना नहीं चाहते हैं। उनका कहना है कि मेरे पूर्वज एक-दूसरे के साथ बड़ी आजादी के साथ मिल गए और वर्तमान में जो पीढ़ी है, उसी मिश्रण या मिलावट की उपज है। शक, हूण, कुषाण, आर्य-अनार्य,
श्वेत-श्याम सबका समिश्रण रूप भारत है और यहाँ के निवासी उसी की उपज हैं।

(ग) मेरा धर्म कैदखाने का धर्म नहीं है।
उत्तर-भारतीय धर्म के बारे में गाँधीजी के विचार है कि भारतीय धर्म कैदखाने का धर्म नहीं है। बलात् किसी पर थोपा नहीं गया है। बलात् किसी धर्मान्तरण के लिए प्रताड़ित या सताया गया नहीं है। यह तो समन्वय का धर्म है। प्रेम का धर्म है, अपनत्व और आत्मीयता का धर्म है।
यह तो विश्व-बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् का विराट स्वरूप है। इस प्रकार गाँधीजी ने भारतीय धर्म की विराटता, खुलापन, व्यापक दृष्टिकोण, समन्वयवादी भावना आदि रूपों, विशेषता ओर ध्यान खींचा है और इसे व्यापक मानव हितकारी धर्म कहा है। यहाँ चिंतन की गहरा है।
आजादी है, सहिष्णुता और सम्मान की भावना है।
-संबंध तत्पुरुष

भाषा की बात
प्रश्न 1. निम्नलिखित के विग्रह करते हुए समास के प्रकार बताएँ-
शब्द- विग्रह- समास
――― ―――― ――――
उत्तर-(1) बुद्धिपूर्वक== बुद्धि के साथ=करण तत्पुरुष
(2) हृदयांकित== हृदय में अंकित=अधिकरण तत्पुरुष समास
(3) सर्वांगीण== सबका विकास=संबंध तत्पुरुष
(4) अविभाज्य== जो विभाज्य नहीं हो –अव्ययीभाव
(5) भोजनशास्त्र= , भोजन का शास्त्र=संबंध तत्पुरुष
(6) उत्तरार्ध== उत्तर के लिए अर्ध=संप्रदान तत्पुरुष
(7) कूपमंडूक== कूप मंडूक जैसा (कूएँ का मेढ़क, संकीर्ण)=कर्मधारय समास
(8) अग्रदूत==अग्र हो जो दूत=कर्मधारय समास
(9) एकांगी==एक अंगवाला=अव्ययीभाव
(10) रक्तरंजित==रक्त से सना हुआ =संबंध तत्पुरुष समास

प्रश्न 2. निम्नलिखित के पर्यायवाची बताएँ-
उत्तर-(i) शारीरिक-दैहिक, देहसंबंधी,
(ii) प्रगट-प्रकट, अवतार,
(iii) दस्तकारी हस्तकाला, हस्तनिर्मित,
(iv) मौजूदा-वर्तमान, तात्कालिक, तत्क्षण,
(v) कोशिश-प्रयास, उपाय, तरकीब,
(vi) परिणाम-फल, रिजल्ट, नतीजा,
(vii) तालीम-शिक्षा, विद्या, पढ़ाई,
(viii) पूर्वज-पूरखा, पुरनियाँ, खानदान के लोग।

प्रश्न 3. निम्नलिखित के संधि-विच्छेद करें-
(i) साक्षर-स+ अक्षर,
(ii) एकांगी-एक अंगी,
(iii) उत्तरार्ध-उत्तराब
(iv) स्वावलंबन-सु+आलंबन,
(v) संस्कृति-सम् + कृति,
(vi) बहिष्कार-बहि: कार,
(vii) प्रत्येक-प्रति एक,
(viii) अध्यात्म-अधि आत्म

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