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 Bihar Board 12th Hindi 50 Marks Model Question Paper 1

Bihar Board 12th Hindi 50 Marks Model Question Paper 1

समय 1 घंटे 37.5 मिनट
पूर्णांक 50

परीक्षार्थियों के लिए निर्देश

  1. परीक्षार्थी यथा संभव अपने शब्दों में उत्तर दें।
  2. दाहिनी ओर हाशिये पर दिये हुए अंक पूर्णांक निर्दिष्ट करते हैं।
  3. उत्तर देते समय परीक्षार्थी यथासंभव शब्द-सीमा का ध्यान रखें ।
  4. इस प्रश्न-पत्र को पढ़ने के लिए 7.5 मिनट का अतिरिक्त समय दिया गया है।
  5. यह प्रश्न-पत्र दो खण्डों में है-खण्ड-अ एवं खण्ड-ब ।
  6. खण्ड-अ में 25 वस्तुनिष्ठ प्रश्न हैं, सभी प्रश्न अनिवार्य हैं । (प्रत्येक के लिए 1 अंक निर्धारित है), इनका उत्तर उपलब्ध कराये गये OMR शीट में दिये गये वृत्त को काले/नीले बॉल पेन से भरें। किसी भी प्रकार के व्हाइटनर/तरल पदार्थ/ब्लेड/नाखून आदि का उत्तर पत्रिका में प्रयोग करना मना है, अथवा परीक्षा परिणाम अमान्य होगा। 6. खण्ड-ब में कुल 5 विषयनिष्ठ प्रश्न है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 5 अंक निर्धारित है।
  7. किसी तरह के इलेक्ट्रॉनिक यंत्र का उपयोग वर्जित है।

खण्ड-अ

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

प्रश्न-संख्या 1 से 25 तक वसतुनिष्ठ प्रश्न हैं जिनके साथ चार विकल्प दिये गये हैं, जिनमें से एक सही है। अपने द्वारा चुने गये सही विकल्प को OMR शीट पर चिन्हित करें। (1 x 25 = 25)

निम्नलिखित वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर दें:

प्रश्न 1.
महादेवी वर्मा का जन्म किस वर्ष में हुआ था ?
(a) 1950ई
(b) 1940ई.
(c) 1907ई
(d) 1951ई
उत्तर:
(c) 1907ई

प्रश्न 2.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म किस वर्ष में हुआ था ?
(a) 1907ई
(b) 1917ई.
(c) 1940ई
(d) 1950ई.
उत्तर:
(a) 1907ई

प्रश्न 3.
कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म किस वर्ष में हुआ था ?
(a) 1861ई
(b) 1761ई.
(c) 1661ई
(d) 1561ई.
उत्तर:
(a) 1861ई

प्रश्न 4.
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म किस राज्य में हुआ था ?
(a) उत्तर प्रदेश
(b) बिहार
(c) उड़ीसा
(d) केरल
उत्तर:
(b) बिहार

प्रश्न 5.
सुमित्रानंदन पंत का जन्म किस राज्य में हुआ था?
(a) दिल्ली
(b) मध्य प्रदेश
(c) उत्तरांचल
(d) प. बंगाल
उत्तर:
(b) मध्य प्रदेश

प्रश्न 6.
इनमें से कौन-सी रचना प्रेमचंद की है?
(a) मंगर
(b) पूस की रात
(d) ठेस
(c) गौरा
उत्तर:
(b) पूस की रात

प्रश्न 7.
‘रहीम’ हिन्दी साहित्य के किस काल के कवि हैं ?
(a) आधुनिककाल
(b) आदिकाल
(c) भक्तिकाल
(d) रीतिकाल
उत्तर:
(d) रीतिकाल

प्रश्न 8.
हिन्दी साहित्य में कथा सम्राट इनमें से किसे कहा गया है?
(a) नागार्जुन
(b) रामवृक्ष बेनीपुरी
(c) प्रेमचंद
(d) फणीश्वर नाथ रेणु
उत्तर:
(c) प्रेमचंद

प्रश्न 9.
इनमें से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की कौन-सी रचना है :
(a) अशोक के फूल
(b) मंगर
(c) गौरा
(d) ठिठुरता हुआ गणतंत्र
उत्तर:
(a) अशोक के फूल

प्रश्न 10.
इनमें से ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ किस कवि को कहा जाता है?
(a) दिनकर
(b) नागार्जुन
(c) सुमित्रापंत
(d) रेणु
उत्तर:
(c) सुमित्रापंत

प्रश्न 11.
आँखों का तारा’ मुहावरे का अर्थ होता है
(a) अत्यंत प्रिय होना
(b) अत्यंत अप्रिय होना
(c) प्रियजन होना
(d) प्रियजन न होना
उत्तर:
(a) अत्यंत प्रिय होना

प्रश्न 12.
“दाँत काटी रोटी होना” मुहावरे का अर्थ होता है
(a) बहुत शत्रुता होना
(b) बहुत मित्रता होना
(c) प्रियजन होना
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) बहुत मित्रता होना

प्रश्न 13.
“पवित्र” शब्द का संधि-विच्छेद है
(a) पौ + इत्र
(b) प + इत्र
(c) पो + इत्र
(d) पा + इत्र
उत्तर:
(c) पो + इत्र

प्रश्न 14.
“धर्मात्मा” शब्द का संधि-विच्छेद है-
(a) धर्म + आत्मा
(b) धर्म + दुरात्मा
(c) धरम + आत्मा
(d) धर्मा + आत्मा
उत्तर:
(a) धर्म + आत्मा

प्रश्न 15.
“राजा” शब्द का विलोम है
(a) प्रजा
(b) गुलाम
(c) रानी
(d) राजतंत्र
उत्तर:
(a) प्रजा

प्रश्न 16.
“अमृत” शब्द का विलोम है
(a) मीठा
(b) विष
(c) शहद
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) विष

प्रश्न 17.
“आँख” शब्द का पर्यायवाची शब्द है
(a) नेत्र
(b) नेत्रहीन
(c) अंजन
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) नेत्र

प्रश्न 18.
“पृथ्वी” शब्द का पर्यायवाची शब्द है
(a) दिशा
(b) पाताल
(c) आसमान
(d) वसुन्धरा
उत्तर:
(d) वसुन्धरा

प्रश्न 19.
“जो व्याकरण जानता हो” इसके लिए एक शब्द है
(a) कवि
(b) वैयाकरण
(c) आचार्य
(d) विद्वान
उत्तर:
(b) वैयाकरण

प्रश्न 20.
“जो ईश्वर में विश्वास रखता है” इसके लिए एक शब्द है
(a) श्रद्धालु
(b) आस्तिक
(c) नास्तिक
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) आस्तिक

प्रश्न 21.
“लोक” शब्द का विशेषण है
(a) लौकिक
(b) अलौकिक
(c) पारलौकिक
(d) परलोक
उत्तर:
(a) लौकिक

प्रश्न 22.
“राज” शब्द का विशेषण है
(a) राजनीति
(b) राजकीय
(c) राजनीतिज्ञ
(d) अराजनीतिज्ञ
उत्तर:
(b) राजकीय

प्रश्न 23.
“काल” के कितने भेद होते हैं ?
(a) सोना-चाँदी
(b) दस
(c) बारह
(d) बीस
उत्तर:
(a) सोना-चाँदी

प्रश्न 24.
इनमें से द्रव्यवाचक संज्ञा कौन है ?
(a) तीन
(b) गंगा-यमुना
(c) सभा
(d) बुढ़ापा
उत्तर:
(a) तीन

प्रश्न 25.
इनमें से समूहवाचक संज्ञा कौन हैं ?
(a) कामधेनु गाय
(b) फर्नीचर
(c)सभा
(d) चतुराई
उत्तर:
(b) फर्नीचर

खण्ड-ब :

विषयनिष्ठ प्रश्न

विषयनिष्ठ प्रश्न कुल 25 अंकों का होगा।

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से किसी एक का भवार्थ लिखिए :

(i) जो रहीम ओछी बढ़े, तो अति ही इतराई ।
प्यादा सों फरजी भयो टेढ़ो टेढ़ो जाइ ॥
उत्तर:
इस दोहे में कवि रहीम कहते हैं कि क्षुद्र लोग अपनी जरा-सी समृद्धि या विकास पर इठलाने लगता है । वे लोग शतरंज के प्यादों के समान हैं, जो मात्र फर्जी बनने पर ही टेढ़ी चाल चलने लगते हैं ।

अथवा,

(ii) जब गरजे मेघ, पपीहा बोले, बोले-डोले
गुलजारों में लेकिन काँटों की झाड़ी में,
बुलबुल का गान कहीं सुन्दर
तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर ॥
उत्तर:
कवि श्रीमान गोपाल सिंह नेपाली जी कहते हैं कि प्रकृति का सौन्दर्य, मेघों के गरजने में, पपीहा की बोली में तथा बुलबुल के गानों में मिलते हैं । लेकिन मानव द्वारा लिखी गई कविताओं, गीतों और भजनों में जो कल्पनाएँ, स्वर, शब्द, संगीतमय मधूर आवाज और स्वाद मिलता है वह बहुत ही सुन्दर और महत्वपूर्ण होता है ।

प्रश्न  2.
निम्नलिखित प्रश्नों में से किसी एक प्रश्न का उत्तर अपने शब्दों में लिखिए  (5 x 1 = 5)

(i) प्रेमचन्द रचित कहानी ‘पंचपरमेश्वर’ के शीर्षक का सारांश लिखें।
उत्तर:
“पंच परमेश्वर” प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानी है जिसमें जीवन सत्य का मार्मिक स्तर पर उद्घाटन हुआ है कि पंच के पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति जाति, धर्म, और सम्बन्धों से सर्वथा मुक्त न्याय के प्रति ही उत्तरदायी होता है।

इस कहानी में दो न्याय का दृश्य प्रस्तुत किया गया है । पहले दृश्य में जुम्मन शेख और उनकी बूढ़ी खाला सामने आती है । खाला जान ने अपनी मिलकियत जुम्मन शेख के नाम लिख दी थी । जब तक पत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्यकार किया गया । उन्हें खूब सवादिष्ट पदार्थ खिलाए गए । लेकिन रजिस्ट्री की मोहर लगने पर इन खतिदारियों पर भी मुहर लग गई । अब जुम्मन शेख की पली करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी और जुम्मन शेख भी निठुर हो गए।

खाला बिगड़ गई, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी जुम्मन मन-ही-मन हँसते हुए बोले, जरूर पंचायत करो फैसला हो जाए तो अच्छा है । मुझे भी रात-दिन को खटखट पसन्द नहीं ।

जुम्मन शेख को अपनी जीत की पूरी आशा थी क्योंकि वह जानते थे कि गाँव में उनके सभी ऋणी हैं कोई उनका शत्रु बनने की साहस नहीं करेगा । जुम्मन शेख की बूढी खाला ने गाँव के पंचायत में प्रत्येक व्यक्ति के सामने दु:ख के आँसू बहाकर अपनी पंचायत में आने की दावत दे दी थी।

संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी । शेख जम्मन ने फर्श बिछा रखा था, पान, इलायची, हुक्के, तम्बाकू आदि का प्रबन्ध भी किया था । पर अधिकांश दर्शक और निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग थे जिन्हें जुम्मन शेख से अपनी कुछ कसर निकालनी थी।

पंच के सभी लोग आ गए थे, बूढ़ी खाला ने उनसे विनती कि-“पंचों, आज तीन साल हुए, मैंने अपनी जायदाद अपनी भांजे जुम्मन के नाम लिख दी । जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना कबूल किया था । साल भर तो मैने इसके साथ रो-धोकर काटा अब रात दिन का रोना नहीं सहा जाता । मुझे न पेट की रोटी मिलती है और न तन का कपड़ा” पंचों, तुम लोग ने मेरा दुःख सुन लिया है अब कोई राह निकाल दो ।

पंचों ने गंभीरता से खाला की बात सुनकर अलगू चौधरी को सरपंच चुन लिया और पंचायत की कार्रवाई आरंभ हो गई।

अलगू चौधरी, शेख जुम्मन के मित्र थे लेकिन सरपंच बनने के बाद सत्य का साथ दिया और यह फैसला सुनाया कि : “जुम्मन शेख । पंचों ने इस मामले पर विचार किया । उन्हें यह नीति-संगत मालूम होता है कि खाला जान को महावार खर्च दिया जाय । हमारा विचार है कि खाला कि जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता है कि महाबार खर्च दिया जा सके। अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो तो हिब्बानामा रद्द समझा जाए ।” यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गए । लेकिन सभी पंचों

यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गए । लेकिन सभी पंचों ने अलगू चौधरी की इस नीति परायणता की प्रशंसा जी खोल कर रहे थे। जुम्मन शेख, अब अलगू चौधरी का दुश्मन बन गया । इस अपमान का बदला लेने का अवसर पाने की प्रतीक्षा करने लगे थे।

कुछ ही महीने बाद पंचायत में अलगू चौधरी और समझू सेठ का झगड़ा सामने आ गया । अलगू चौधरी ने एक बैल समझ सेठ से बेचा था और दाम बाकी रह गया था । समझू सेठ बैल से कठिन परिश्रम लिया करता और दाने-चारे का अच्छा प्रबन्ध न किया था । बैल निर्बल होकर मर गया था । समझू सेठ बैल को अभागा कह रहा था जिसके कारण उसे बहुत हानि उठानी पड़ी थी इसलिए वह दाम चुकाने में सहमत न था ।

समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते । बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया और दाने-चारे का अच्छा प्रबन्ध न किया गया ।”

यह फैसला सुनकर चारों ओर से “पंच-मरमेश्वर की जाय ।” की प्रतिध्वनी सुनी गई । अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति यह कह रहा था कि न्याय सही है। यह मनुष्य का काम नहीं, पंच में परमेश्वर वास करते हैं । यह उसी की महिमा है कि पंच के सामने स्पष्ट हो जाता है कि कौन खरा है और कौन खोटा है :

जुम्मन शेख ने अलगू चौधरी को गले लिपटा कर यह स्वीकार किया कि “भैया, जब से तुम ने मेरी पंचायत कि तब से मैं तुम्हारा प्राण-घातक शत्रु बन गया था । पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त होता और न दुश्मन । न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता है । वास्तव में पंच की जुबान से खुदा बोलता है ।

(ii) रामधारी सिंह दिनकर का कवि-परिचय लिखिए ।
उत्तर:
श्री रामधारी सिंह दिनकर का जन्म सन् 1908 में बिहार के मुंगेर (वर्तमान बेगूसराय) जिले के सिमरिया गाँव में हुआ था । स्नातक स्तर की शिक्षा के बाद में उन्होंने पहले अध्यापन को अपनी आजीविका का साधन चुना और एक उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत रहे । देश के स्वतंत्र होने के बाद उन्होंने प्रचार विभाग में अवर-निबंधक तथा उपनिदेशक के पदों पर कार्य किया व कुछ समय तक बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी रहे । भागलपुर विश्वविद्यालय में कुलपति का पदभार भी उन्होंने कुछ समय तक संभाला। वे राज्यसभा के सदस्य भी मनोनीत किए गएं । उन्होंने भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार के रूप में भी कार्य किया ।

रचनाए-दिनकर जी मूलतः कवि थे और मैथिलीशरण के बाद जनता उन्हें ही राष्ट्रकवि के रूप में जानती रही है । गद्य के क्षेत्र में भी हिन्दी साहित्य में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने सांस्कृतिक व साहित्यिक विषयों के अतिरिक्त समसामयिक सामाजिक विषयों पर भी अपने विचारों को लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है । संस्कृति के चार अध्याय नामक पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ और उर्वशी नामक खंडकाव्य पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ । सन् 1974 में दिनकर जी का स्वर्गवास हो गया।

दिनकर जी के गद्य में कथ्य भले ही गंभीर हो परन्तु उनका कविरूप उनकी भाषा में अपना परिचय दे ही देता है । यही कारण है कि सारगर्भित विचारोत्तेजक निबंधों में भी भाषा की जीवंतता और प्रवाह कहीं खंडित नहीं होता । उनकी प्रमुख गद्य रचनाएँ हैं संस्कृति के चार अध्याय, मिट्टी की

ओर, शुद्ध कविता की खोज, साहित्य मुखी, काव्य की भूमिका, अध नारीश्वर आदि । उनकी प्रमुख काव्यकृतियों में रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी, सामधेनी, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, हारे को हरिनाम आदि सम्मिलित हैं।

साहित्यिक विशेषताएँ – ‘दिनकर’ ओजस्वी कवि के रूप में अधि क जाने जाते हैं । उनका गद्य राष्ट्रीयता और समाज प्रेम के भावों से

ओत-प्रोत है, उनका चिन्तन एकदम स्पष्ट है । इतिहास के अध्येता होने के कारण वे अपनी बात भारतीय इतिहास और भूगोल के माध्यम से व्यक्त करते हैं।

भाषा शैली – दिनकर की भाषा प्रखरता और ओज के लिए विख्यात है। उनके भावनात्मक निबंधों में उत्साह का सागर उमड़ता जान पड़ता है।

उनके गद्य में विषयवस्तु, शैली, विद्या और गद्य रूप की दृष्टि से पर्याप्त बैविध्य है । सामान्यतः उनका साहित्य, विशेषकर गद्य साहित्य, संबोधित साहित्य है । लेखक जानता है कि वह किसके लिए लिख रहा · है । उसकी रचनाएँ उस तक मनचाहे रूप में संप्रेषित हो जाती है । स्वभावतः दिनकर के साहित्य में एक प्रत्यक्षता और गरमाहट है।

प्रश्न  3.
निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं पाँच प्रश्नों के उत्तर लिखिए (1 x 5 = 5)

(i) ‘गौरा’ रेखाचित्र की लेखिका का नाम लिखें।
उत्तर:
महादेवी वर्मा ।

(ii) संस्कृति के चार अध्याय’ के लेखक का नाम लिखें।
उत्तर:
रामधारी सिंह दिनकर ।

(iii) चलना है केवल चलना है, जीवन चलता ही रहता है-किस पाठ से उद्धत है ?
उत्तर:
जीवन का झरना ।

(iv) ‘गोदान’ उपन्यास के लेखक का नाम लिखें।
उत्तर:
प्रेमचंद ।

(v) ‘गेंहू और गुलाब’ के रचयिता कौन हैं ?
उत्तर:
रामवृक्ष बेनीपुरी

(vi) गाय के नेत्रों में हिरन के क्षेत्रों जैसा पंक्ति विस्मय न होकर एक आत्मीय विश्वास ही रहता है । किस पाठ से उद्धत है ?
उत्तर:
गौरा ।

प्रश्न  4.
संक्षेपण करें : 5
शिक्षण कर्ण-वेध-संस्कार जैसा होता है । कर्ण-वेध के समय पीड़ा के भय से बालक सिर इधर-उधर न घुमाए, इसलिए मीठी बातों से उसका चित्त आकृष्ट करके सुई तरह चुभाते हैं कि उसे पीड़ा न मालूम हो, ठीक स्थान पर छेद ही जिससे कर्णाभरण ठीक से बैठ जाए और मुख्य की शोभा बढ़े । इसी तरह गुरुजन सत्यवचन से विद्या प्रदान करें, जिससे शिष्य को कष्ट न हो, ऐसा प्रतीत हो, माने उसे अमृत प्रदान करते हों । शिष्य भी विद्या-दाता को माता-पिता समझें, कभी उन्हें दुःख न पहुँचाएँ । इस प्रकार शिक्षण पाया हुआ मानव, जीवन में प्रकाश पाएगा और विकास कर सकेगा।
उत्तर:
शीर्षक-शिक्षक और छात्र । कर्णवेध संस्कार के समय बच्चे को पीड़ा का अनुभव नहीं हो इसके लिए मीठी-मीठी बातों में लगा उसका ध्यान आकृष्ट करके कान में सूई चुभाया जाता है । इसी तरह गुरुजन सत्यवचन से अमृतरूपी विद्या शिष्य को प्रदान करे ताकि उसे किसी प्रकार की उकुलाहट न हो । शिष्य भी गुरु को पितृवत् समझ कर उनका सम्मान करें ।

प्रश्न  5.
निम्नलिखित में से किसी एक पर निबंध लिखें :
(i) आपका प्रिय कवि
(ii) राष्ट्रीय एकता
(iii) पर्यावरण प्रदूषण
(iv) नारी सशक्तिकरण
(v) नशा-उन्मूलन
उत्तर:
(i) आपका प्रिय कवि आधुनिक हिन्दी काव्य में लोकप्रियता की दृष्टि से गुप्तजी का स्थान सर्वोपरि है । भारतीय जनता का जितना स्नेह, जितनी श्रद्धा गुप्तजी को मिली है वह अन्य किसी कवि को नहीं । इसका स्पष्ट कारण यही है कि गुप्तजी जनता के कवि हैं । जन-जीवन की भावनाओं को उन्होंने अपने काव्य में वाणी प्रदान की है । जनमानस की चेतना को उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा हमारे युग की समस्त समस्याओं और मान्यताओं का सच्चाई के साथ प्रतिनिधित्व किया है, उनके काव्यों में राष्ट्रीय जागरण का महान उद्घोष है, हमारे सामाजिक जीवन के आदर्शों का निरूपण है, देश-प्रेम के सौन्दर्य की झलक है । परिवर्तन की पुकार और राष्ट्र जीवन को ऊँचा उठाने की प्रेरणा है । प्राचीन आदर्शों की पृष्ठभूमि में गुप्तजी ने नवीन आदर्शों के महल में खड़े किए हैं। उनकी रचनाओं में प्राचीन आर्य सभ्यता और सांस्कृति की मधुर झंकार है । मानवता के संगीत का पुंज है । उनका साहित्य, जीवन का साहित्य है, उनकी कला, कला के लिए न होकर जीवन के लिए है, देश के लिए है । इसलिए तो गुप्तजी हमारे प्रिय कवि हैं।

हिन्दी के इस युग-प्रवर्तक कवि का जन्म सन् 1943 को चिरगाँव, जिला झाँसी में हुआ था। बचपन से ही मैथिलीशरण जी की प्रकृति काव्य की ओर उन्मुख हुई । टूटी-फूटी रचनाएँ बनाने लगे । आगे चलकर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आए और उनकी कविताएँ सरस्वती पत्रिका में छपने लगी। द्विवेदीजी की छत्रछाया में उनकी काव्य प्रतिभा निरन्तर विकसित होती गई । तब से लेकर अन्त तक गुप्तजी साहित्य-साध ना के साथ-साथ आन्दोलनों में भी सक्रिय भाग लिया था । अनेक बार उन्हें जेल की यात्रा करनी पड़ी थी । महात्मा गाँधी गुप्तजी का बड़ा आदर करते थे।

गुप्तजी आचार-विचार, व्यवहार, वेशभूषा सभी से पूर्णतः स्वदेशी थे। अपने देश से, देश की संस्कृति से, उसकी गौरवमयी परम्पराओं और आदर्शों से गुप्तजी को बड़ा प्रेम था । भारतीय आर्य संस्कृति में गुप्तजी की बड़ी निष्ठा थी । गुप्तजी का स्वभाव बड़ा मधुर, सरल और शांत था । विनय और श्रद्धा तो अनेक व्यक्तित्व में जैसे साकार हो उठी । उनका यही व्यक्तित्व उनके काव्य में दिप्तीमान हुआ है। उनके निश्छल निरीह, स्वच्छ व्यक्तित्व की ही भाँति उनका काव्य किसी भी रहस्य से शून्य, बड़ा स्पष्ट और स्वच्छ है।

गुप्तजी का काव्य-क्षेत्र बहुत व्यापक है राष्ट्र-प्रेम, समाज-सेवा, राम-कृष्णा, बुद्ध सम्बन्धी पौराणिक आख्यानों एवं राजपूत, सिक्ख और मुस्लिम प्रधान ऐतिहासिक कथाओं को लेकर गुप्तजी ने लगभग चालीस काव्य ग्रन्थों की रचना की हैं। इनमें से साकेत, पंचवटी, द्वापर, जयद्रथ वध, यशोधरा, सिद्धराज आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं । साकेत द्विवेदी युग का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है । मंगला प्रसाद पारितोषिक द्वारा यह महाकाव्य सम्मानित हो चका है।

काव्य कृतियों की भाँति गुप्तजी के काव्य का भाव क्षेत्र बड़ा विराट है। विधवाओं की करुण दशा, ग्राम सुधार, जाति बहिष्कार, अछूतोद्धार, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य, जनतंत्रवाद, सत्य-अहिंसा की गाँधीवादी नीति आदि सभी विषयों पर गुप्तजी ने सुव्यवस्थित और गम्भीर विचार प्रकट किए हैं। सत्य तो यह है कि गुप्तजी से युग की कोई प्रवृति अछूती नहीं रही । राष्ट्रीयता की दृष्टि से गुप्तजी ने सभी संस्कृतियों के प्रतीक काव्य लिखे हैं । इसी रूप में गुप्तजी हमारे राष्ट्रीय कवि हैं।

गुप्तजी का प्रबन्ध सौष्ठव श्लाघनीय है । उनके सभी पात्र मानव जीवन की किसी न किसी समस्या का प्रतिनिधित्व अवश्य करते हैं। उनके आदर्श पात्रों पर राष्ट्रीयता, समाज-सेवा, विश्व-बन्धुत्व और लोक-कल्याण की भावना का स्पष्ट प्रभाव है । अपनी पैनी दृष्टि से गुप्तजी ने पात्रों के हृदय का सूक्ष्म निरीक्षण किया है । उन्होंने मानव हृदय की उन अनुभूतियों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है जो मानव कल्याण के लिए प्रेरणादायक है।

गुप्तजी की रचनाओं में शृंगार, करुण, शान्त, वात्सल्य तथा वीर रस का अच्छा परिपाक हुआ है । गुप्तजी का शृंगार रस सरस होते हुए भी मार्यादित है। वियोग वर्णन में तो गुप्तजी ने अपनी सारी कोमलता, भावुकता और सरस कल्पनाएँ उड़ेल कर रख दीं । अलंकारों के सहज सौन्दर्य से तो गुप्तजी की कविता कामिनी का सौन्दर्य द्विगुणित हो गया है। छन्द योजना पर भी गुप्तजी का व्यापक प्रभाव है । भाषा की दृष्टि से गुप्तजी के काव्य का अनन्य महत्त्व है। इनका काव्य खड़ी बोली भाषा का रूप इतिवृतात्मक और कलाशून्य है। परन्तु ज्यों-ज्यों गुप्तजी की काव्य साधना विकास को प्राप्त होती गई है, त्यों-त्यों उनकी भाषा भी मँजती गई है । सब कुछ मिलाकर गुप्तजी का साहित्य निश्चय ही महान है। उन्होंने अबतक जो कुछ लिखा है, वह भारत का अभिनव शृंगार है, उनकी शेष साहित्य-सृजन का मूल्यांकन भविष्य करेगा।

अतः हमारे इस प्रिय कवि ने अपनी साहित्य-साधना द्वारा राष्ट्र के नव-निर्माण की सांस्कृतिक चेतना को उज्ज्वल बनाया है।

(ii) राष्ट्रीय एकता – राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की नींव पर ही किसी राष्ट्र का भवन निर्मित हो सकता है। भारत जैसे राज्य के लिए जिसने अथक और निरन्तर प्रयत्नों के फलस्वरूप आजादी हासिल की है, यह प्रश्न और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । भावात्मक एकता राष्ट्रीय एकता की जड़ है और भावात्मक एकता की जड़ों का सिंचन सांस्कृतिक एकता के द्वारा होता है। सांस्कृतिक एकता के लिए अनिवार्य है भाषागत एकता । सच तो यह है कि भाषा केवल शब्दों का समूह नहीं है, बल्कि पारस्परिक सहयोग को पैदा करनेवाले विचारों का जादू है । इसमें वह रस मिलता है जो सुरापान के समान है और जो मनुष्य में एकता का नशा ला देता है । भाषा मानवीय एकता का एक प्रमुख माध्यम है और फलतः राष्ट्रीयता के विकास में एक प्रमुख तत्व । भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं-असमिया, बंगला, उड़िया, तमिल, तेलगु, कन्नड़, और मलयालम, गुजराती, मराठी, उर्दू, पंजाबी, सिन्धी और कश्मीरी । स्वतन्त्रता के पूर्व-इन सभी भाषाओं ने

योगदान किया था । स्वतन्त्रता के बाद आज देश के सामने सबसे बड़ा सवाल है-उसकी रक्षा करना-जिसकी सबसे पहली शर्त है-राष्ट्रीय एकता । – आज भारत संक्रान्ति काल में गुजर रहा है । क्षेत्रवाद का दानव अपना विकराल रूप दिखा रहा है । सर्वधर्मसमभाव का अभाव और प्रादेशिक पूर्वाग्रह सुरसा-मुख बनाने जा रहा है । ठीक है कि ऐतिहासिक रूप से भारत में प्राचीन काल से ही क्षेत्रीय समुदायों का वैविध्य रहा है, परन्तु इस विविधता के बावजूद भारत सदैव एक सांस्कृतिक कुल के रूप में प्रतिष्ठित रहा है।

भारतीय विचारकों ने इस तथ्य पर विशेष बल दिया है कि अपनी व्यापक संरचना के अन्तर्गत क्षेत्रीय विविधता को स्वीकार करने की क्षमता ही भारतीय संस्कृति की अखण्डता के नैरन्तर्य का मूल कारण है । ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारतीय जन-जीवन की सर्वनिष्ठता की आधारशिला को क्षत-विक्षत कर दिया था, साथ ही, विभाजन और शासन करो की नीति के अन्तर्गत भारत के पूरे भूगोल को उन लोगों ने घृणित कर दिया । भारत से पाकिस्तान का जो विभाजन हुआ उसका दर्द अनुभव कर पाना सहज नहीं है । भारतरूपी सचेतन और सप्राणवान शरीर से एक जीवन्त अंग काट कर पाकिस्तान बनाया गया ।

आवश्यकता है कि राष्ट्रीय एकता को टूटने से बचाने के लिए क्षेत्रवाद की भावनाओं को सीमित किया जाए। इसके लिए सरकार को चाहिए कि अखिल भारतीय स्तर पर योजनाएँ बनाकर गरीबी और बेरोजगारी जैसे प्रश्नों का समाधान ढूँढे । भाषा और संस्कृति के प्रश्नों पर भी समुचित ध्यान दें। राज्य सरकारों को राष्ट्रीय विकास के संदर्भ में अपने प्रान्त के भीतर विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए समुचित प्रोत्साहन एवं साधन दिए जाएँ । भारतीय संघवाद को कठोरता के साथ-साथ नमनीयता के सिद्धान्त का भी समादर करना चाहिए ।

सम्प्रदायवाद किसी भी राष्ट्र के विभाजन का मूल कारण है । सम्प्रदायवाद की पेंदी में धर्म का लेप लगा होता है । सम्प्रदायवाद विभिन्न समुदायों के मध्य कटुता और विरोध को जन्म देता है तथा धर्म का शोषण करता है और सत्ता राजनीति का कुचक्र तैयार करता है । परिणाम यह होता है कि एक ही राज्य और राजनीतिक व्यवस्था के अधीन बसे हुए लोग छितराए से प्रतीत होते हैं। इसके बाद आती है सांस्कृतिक गिरावट-जो एक अलग अस्तित्व की पहचान ढूँढ़ती है। भारत का संविधान धर्म-निरपेक्ष है। भारत का अपना कोई सरकारी अथवा राष्ट्रीय धर्म नहीं है किन्तु देश के भीतर विभिन्न सम्प्रदाय राष्ट्रीय एकता के लिए विघटन का कार्य कर रहे हैं। सभी सम्प्रदायों द्वारा अपने-अपने धर्मों को एक दूसरे पर थोपने की कोशिश जारी है । क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थी लोग के नाम पर साम्प्रदायिकता को उकसाते रहते हैं।

आजादी के पश्चात हम जिस मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं, उसका वास्तविक व्यंग्य रहा है कि हम अन्तर्राष्ट्रीय होकर राष्ट्रीय समस्याओं से विमुख होते गए । राष्ट्रीय चेतना के तत्व-धर्म-दंश से हम मुक्त नहीं करा सके हैं। भारत को आजाद कराने के लिए जाति, धर्म और क्षेत्र से हट कर अंग्रेजों को भारत से भगाने का संकल्प था, किन्तु आज लगता है कि राष्ट्र की समस्याओं के प्रति हमारा कोई संकल्प ही नहीं है और धर्म, जाति

तथा क्षेत्र की संकीर्ण मानसिकता से हमारी व्यवस्था भोथरा गयी है-जिसे एक नए संदर्भ की तलाश है । सांस्कृतिक चेतना राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय रूप में विकसित हो रही है। .
राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के सम्बन्ध में एक विचारणीय तत्त्व – है-भाषा । भावात्मक एकता हो या राष्ट्रीय एकता, उसका माध्यम भाषा

ही होगी । भाषा का सीधा सम्बन्ध सम्प्रेषीयता से है । भारत एक बहुभाषी राज्य है । आजादी के बाद भाषा की समस्या उभर कर सामने आयी । भाषायी सामंजस्य स्थापित करने के लिए हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया है । अंग्रेजी को सम्पर्क भाषा का दर्जा दिया गया है किन्तु पूरे देश में अंग्रेजी के जाननेवाले कितने हैं-लगभग तीन प्रतिशत । हिन्दी के जाननेवालों की संख्या सर्वाधिक अर्थात 42% से अधिक है । अतः आवश्यकता है एक सर्वज्ञेय भाषा की, जो पूरे राष्ट्र की अभिव्यक्ति को अपने गर्भ में रख सके । भारत की सामूहिक चेतना ही राष्ट्रीय एकता की – आधारभूमि है।

(iii) पर्यावरण प्रदूषण – मानव के बौद्धिक विकास और सुव्यवस्थित जीवन के लिए संतुलित वातावरण का होना नितान्त आवश्यक माना गया है। संतुलित वातावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित अनुपालन में कार्य करता है । वातावरण में किसी घटक की अधिकता या अल्पता प्राणियों के लिए हानिकारक है । इसे ही प्रदूषण कहा गया है । प्रदूषण हवा, जल एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं का वह अवांछनीय परिवर्तन है, जो मनुष्य एवं उसके लिए लाभदायक अन्य, जन्तुओं, पौधे,

औद्योगिक संस्थानों आदि को विशेष रूप से क्षति पहुँचाता है। – जहाँ भी मानव ने प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन कर वातावरण में किसी तरह का परिवर्तन जाने या अनजाने लाने का प्रयास किया है, वहाँ पर्यावरण दूषित हुआ है । विस्तृत अर्थ में दूषित हो रही हवा, पानी, मिट्टी, मरुभूमि, दलदल, नदियों, का उफनकर बहना और गर्मी में सुख जाना, जंगलों को काटने से लेकर पेयजल का संकट, गन्दे पानी का उचित रूप

से निकास न होना आदि पर्यावरण के अन्तर्गत आते हैं। – ज्ञान-विज्ञान का विकास और जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ स्वच्छता की समस्या प्रादूर्भूत हुई है । बड़े-बड़े नगरों में नालियों के गन्दे पानी, मल-मूत्र, कारखानों की राख, रासायनिक गैसें अधिक मात्रा में निकलती हैं, फलतः हवा-जल और पृथ्वी स्थित सभी जीव-जन्तु प्रदूषण से प्रभावित होते हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि विश्व के सभी देश अपने कोयला भंडारों का दोहन करेंगे तो जलवायु में एक अद्भुत नाटकीय परिवर्तन होगा । वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी जिसका खाद्य उत्पादन और प्राणी-सृष्टि पर प्रातिकूल प्रभाव पड़ेगा। जलवायु अधिक नमीयुक्त, उष्ण और मेघाच्छन्न हो जाएगी । कार्बन डाइऑक्साइड के कारण अधिक-से-अधिक तापमान में दो सेन्टीग्रेड की वृद्धि होगी, जो भूमि को कृषि के लिए अनुपयुक्त बना देगी अर्थात् सारी भूमि ऊसर बन जाएगी ।

प्रदूषण के निम्नलिखित प्रकार हैं-
(क) पर्यावरण प्रदूषण
(ख) जल प्रदूषण
(ग) स्थलीय प्रदूषण
(घ) रेडियोधर्मी प्रदूषण
(ड) ध्वनि प्रदूषण ।

पर्यावरण प्रदूषण – पर्यावरण को प्रदूषण करने में मोटर वाहनों की भूमिका सर्वाधिक है । ये नगरों के वातावरण को दूषित कर रहे हैं । मोटर वाहनों से निकलनेवाला धुआँ विषैला होता है यह विषैला धुआँ पर्यावरण को प्रदूषित करता है । एक सामान्य व्यक्ति को दिनभर साँस लेने के लिए 14000 लीटर शुद्ध ऑक्सीजन की जरूरत है और 1000 किमी. चलने के | लिए मोटरकार को भी उतनी ही ऑक्सीजन की जरूरत होती है । अत:

वैज्ञानिक ने चेतावनी दी है कि प्रदूषण के कारण पृथ्वी का वायुमण्डल गर्म | होता जा रहा है और यदि गर्मी 3.5 सेन्टीग्रेड तक पहुँच गयी तो उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगेगी और सारी पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी।

इसके अलावा बड़े-बड़े नगरों में कारखानों की बड़ी-बड़ी चिमनियाँ काले एवं भयंकर धुआँ उगलती रहती हैं जो प्राणियों के लिए एक भयानक संकट उत्पन्न कर रही हैं।

जल प्रदूषण – औद्योगिक नगरों में बड़े पैमाने पर दूषित पदार्थ नदियों में प्रवाहित किए जा रहे हैं, जिससे उसका पानी इस योग्य नहीं रह गया है कि उसका उपयोग किया जा सके । इससे तलीय जन्तुओं पर भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। पानी को कीटाणुरहित बनाने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है, जिसमें डी. डी. टी. प्रमुख है, लेकिन डी. डी. टी. का प्रयोग कितना हानिप्रद प्रमाणित हुआ है कि इसके उत्पादन पर भी अब रोक लगाने की बात की जाने लगी है।

स्थलीय प्रदूषण-जनसंख्या की लगातार वृद्धि के फलस्वरूप खाद्य पदार्थ की माँग में अत्यधिक वृद्धि हुई है । पौधों को चूहों, कीटाणुओं तथा परजीवी कीड़ों से रक्षा के लिए रासायनिक पदार्थ का उपयोग किया जाता है। इनमें से अधिकांश पदार्थ मिट्टी में मिलकर भूमि को दूषित करते हैं

और भूमि की उत्पादन क्षमता में कमी लाते हवा में विसर्जित प्रदूषण तत्त्व सोखने वाले और अवांछनीय ध्वनि का शोषण करके शोर की तीव्रता को कम करनेवाले वृक्षों के उन्मूलन किए जाने से हमारे स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रकार, वायुमण्डल में व्याप्त दोहरा प्रदूषण मानव पर हावी होता जा रहा है।

रेडियोधर्मी प्रदूषण – वर्तमान वैज्ञानिक युग में परमाणु बम बिस्फोट परीक्षणों से वायुमंडल में जो विस्फोट के द्वारा इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन, अल्फा, बीटा किरणें आदि प्रवाहित होती हैं, जिनके कारण कभी-कभी जीन्स तक में परिवर्तन आ जाता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् इसका प्रत्यक्ष प्रभाव देखा गया है।

ध्वनि प्रदूषण-विभिन्न प्रकार के परिवहन, कारखानों के सायरन, मशीन चलने से उत्पन्न शोर आदि के द्वारा ध्वनि प्रदूषण होता है । ध्वनि की तरंगें जीवधारियों की पाचनशक्ति को प्रभावित करते हैं । अधिक तीव्र ध्वनि सुनने से रात में नींद नहीं आती है और कभी-कभी पागलपन का रोग पैदा कर देती है।

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या आज विश्व के सामने एक भयंकर समस्या बनकर उपस्थित है । यदि पर्यावरण को प्रदूषित होने से रोका नहीं गया तो शीघ्र ही वर्तमान सृष्टि समाप्त हो जायेगी । इसके लिए आवश्यक है कि पेड़-पौधे हानिकारक गैसों को ही नहीं, अपितु स्थलीय एवं ध्वनि-प्रदूषण को भी रोकते हैं और यह हमें साँस लेने के लिए पर्याप्त मात्रा में शुद्ध ऑक्सीजन प्रदान करते हैं । अतः, बड़े पैमाने पर नए वन लगाने, भू-संरक्षण के उपाय करने और समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों में ‘रक्षा कवच’ लगाने की आवश्यकता है।

विश्व के कुछ विकसित देशों, जैसे-अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि में प्रदूषण रोकने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं । कारखानों से निकलनेवाले धुएँ को रोकने के लिए चिमनियों में ऐसे यंत्र लगाए गए हैं जिनसे घातक गैसों और धुएँ को वहीं कार्बन के रूप में रोक लिया जाता है। बेकार रासायनिक पदार्थों को नदियों में बहाने के बदले अन्य तरीकों से नष्ट किया जाता है । वाहनों से निकलनेवाली गैसों पर नियंत्रण करने के लिए उनमें फिल्टर का उपयोग अनिवार्य कर दिया गया है । आणविक विस्फोट पर भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगाने पर विचार विमर्श जारी है और साथ ही वैकल्पिक ऊर्जा की उपयोगिता की ओर अत्यधिक ध्यान दिया जा रहा है।

पर्यावरण प्रदूषण आज मानव अस्तित्व के लिए जटिलतर चुनौती बन गया है। यदि इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो 20-30 वर्षों में यह ध रती तपती रेत के सागर में विलीन हो जाएगी। इसलिए विश्व के प्रत्येक नागरिक का यह परम कर्तव्य हो गया है कि प्रदूषण के बचाव कार्य में सहयोग दे और इस सृष्टि की रक्षा करें ।

(iv) नारी संशक्तिकरण – हमारे देश भारत में नारी को देवी, श्रद्धा, अबला जैसे संबोधनों से संबोधित करने की परंपरा बहुत पुराने समय से चली आ रही है । इस तरह के संबोधन अथवा विशेषण जोड़कर हमने उसे एक ओर पूजा की वस्तु बना दिया तो दूसरी ओर अबला के रूप में उसे भोग्या एवं चल सम्पति बना दिया । नारी का रूप शक्ति का भी है। हम यह भूल जाते हैं कि नारी मातृ-सत्ता का नाम है, जो हमें जन्म देती है, पालती है तथा इस योग्य बनाती है कि हम अपने जीवन में कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकें। – व्यक्ति को

है । यही तो उसका राष्ट्रनिर्माण में योगदान है। भारत के निर्माण में नारी-शक्ति की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। गार्गी, गौतमी, काल्यानी आदि नारियों के नाम क्या भुलाए जा सकते हैं ? आर्यावर्त जैसे वृहद् राष्ट्र के निर्माण में निश्चित रूप से इन नारियों का विशिष्ट योगदान रहा । यही कारण है कि आज भी ऐसी नारियों को आदरणीया एवं प्रात:स्मरणीया समझा जाता है।

वैदिक काल के पश्चात् पौराणिक काल में भी कई ऐसे नाम मिलते हैं, जिन्होंने राष्ट्रनिर्माण में अपना योगदान किया । महाराज दशरथ के युद्ध के अवसर पर उनके सारथि के रूप में कार्य करने वाली कैकेयी को हम कभी नहीं भूला सकते, जिसके रथ के पहिए की कील निकल जाने पर अपनी अंगुली को कील की जगह पर ठोक दिया था । क्या यह राष्ट्र-रक्षा हेतु राष्ट्रनिर्माण का कार्य नहीं है ? ऐसा करके कैकेयी ने अपने पति को रण से विमुख नहीं होने दिया ।

मध्य काल में भी ऐसी नारियों की कमी नहीं रही, जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्रहित के लिए अर्पित कर दिया । रजिया बेगम, चाँद बीबी, जीजाबाई, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई आदि कई नाम गिनाए जा सकते हैं। – आधुनिक काल में स्वतंत्रता-संघर्ष के दिनों में भी राजकुमारी अमृताकौर, सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली, विजयलक्ष्मी पंडित, आजाद हिन्दफौज की नारी-पल्टन की कैप्टन लक्ष्मी एवं क्रांतिकारियों को सहयोग देने वाली अनेक नारियाँ भारत में अवतरित हुई; जिन्होंने राष्ट्रनिर्माण के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया ।

“आज हमारा देश जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें भारतीय नारी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान कर रही हैं । कभी वह समय था, जब नारी का क्षेत्र शिक्षिका या नर्स बन जाने तक ही सीमित था, किन्तु आज वह हर क्षेत्र में सक्रिय है । वह अपने घर-परिवार के साथ-साथ समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व को निभाने में भी पूर्णतया सजग हैं । इतना सब होने पर भी यह खेद का विषय है कि देश का तथाकथित प्रगतिशील पुरुष वर्ग अभी तक भी नारी के प्रति अपने परंपरागत दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल नहीं पाया। वह आज भी उसे भोग्या समझता है । वह उसकी कोमलता से अनुचित लाभ उठाने का प्रयास करता रहता है । आज इस बात की आवश्यकता है कि पुरुष समाज नारी को मुक्तभाव से निर्भय होकर कार्य करने का अवसर प्रदान करें।

यह एक प्राकृतिक तथ्य है कि नारी कोमल-कांत होने के साथ-साथ अपने स्वभाव में अधिक कर्मठ एवं सहनशील हुआ करती है । उसमें धैर्यभावना अधिक रहती है । इसलिए राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में वह पुरुषों की अपेक्षा अधिक सहायक सिद्ध होने में समर्थ है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि नारी-शिक्षा का अधिकाधिक विकास करके उसकी क्षमताओं को विकसित किया जाए । ऐसा होने पर राष्ट्रनिर्माण में वह पुरुषों से भी अधिक सहायक सिद्ध हो सकती है। –

(v) नशा – उन्मूलन-भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा था-‘जिस राज्य में मदिरा आदर प्राप्त करेगी, वहाँ दुर्भिक्ष पड़ेंगे, औषधियाँ निष्फल होंगी और विपत्तियों के बादल मँडराएँगे।’ अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार मिल्टन का कथन है-‘संसार की सारी सेनाएँ मिलकर इतने मानवों और इतनी संपत्ति को नष्ट नहीं करतीं, जितनी शराब पीने की आदत ।’ – मंदिरापान की बुराइयाँ अनंत हैं । विज्ञान कहता है, बड़े-बूढ़े कहते हैं, वेदशास्त्र कहते हैं, ग्रंथ-कुरान सभी कहते हैं कि मद्यपान करना बुरा है । हमारी प्रयोगशालाएँ भी प्रयोग के आधार पर कहती हैं कि शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।

विचारकों और महात्माओं का कहना है कि शराब हमारे चरित्र को भ्रष्ट करती है, हमें व्यसनी बनाकर बेकार कर डालती है, हमारी आध्यात्मिक चेतना को रुद्ध कर देती है । साहित्यकारों ने अपने ढंग से यह उक्ति कही है कि हम शराब नहीं पीते, शराब हमें पी डालती है । स्वास्थ्य-विभाग भी बढ़-चढ़ कर प्रचारित करता है-‘शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।’ फिर भी सरकार मदिरा को बंद नहीं करती । बल्कि हर गाँव में, हर बस अड्डे पर, हर सार्वजनिक स्थल पर शराबघर मिल जाएंगे और मोटे अक्षरों में लिखा होगा-‘एक आदमी दो बोतलें ले जा सकता।’ इससे बढ़कर अधिक चरित्र का दिवालियापन और क्या हो सकता है।

शराब सबसे पहले मनुष्य के चरित्र पर हमला करती है । शराबी व्यक्ति नकारा हो जाता है । शराब पीते ही वह ऊल-जलूल बकने लगता है । कभी-कभी तो वह नशे की अवस्था में घोर अपमानजनक, अश्लील, तथा अभद्र हरकतें भी करने लगता है । बदले में उसे मिलता है अपमान, घृणा, उपहास और तिरस्कार । शराबी का पारिवारिक जीवन भी अशांत तथा क्लेशपूर्ण हो जाता है । घर के सभी सदस्य उससे घृणा करने लगते हैं । बदले में वह उन्हें पीड़ा देता है । रोज झगड़े होते हैं ।

सामाजिक दृष्टि से शराब नपुंसकता पैदा करती है । जब लोग दुराचारी और काहिल होते हैं, तो समाज कोई नई करवंट नहीं ले पाता । अधिकांश वाहन-दुर्घटनाओं, बलात्कारों आदि का कारण नशा होता है । इसीलिए महात्मा गाँधी ने कहा था-‘यदि मैं एक घंटे के लिए भी भारत का सर्वशक्तिमान शासक बना दिया जाऊँ तो पहला काम जो मैं करूँगा, वह यह होगा कि तुरन्त तमाम मदिरालयों को बिना कोई मुआवजा दिए बंद कर दूंगा ।’

शराब अन्य व्यसनों की भी जननी है । जुआ, वेश्यागमन आदि दुराचार शराब की बूंट पीने के बाद प्रारम्भ होते हैं। – प्रश्न उपस्थित होता है कि पराब के इन सारे अभिशापों के बाद भी भारत में नशाबंदी लागू क्यों नहीं हो पाई । इसका मूल कारण है-हमारे नेतृत्व में पंगुता, दिशाहीनता और चरित्रहीनता । जो नेता स्वयं मंदिरा की बोतल के लालच में अपनी कुर्सी पक्की करता हो, वह कैसे मद्यपान-निषेध कर सकता है ? हमारे देश की समस्त अफसरशाही आज भ्रष्टाचार के टीले पर बैठी है और दुर्भाग्य से हर भ्रष्टाचार का रास्ता इसी शराब की बोतल में से खुलता है । अफसरशाही को प्रसन्न करने के लिए मनाए गए हर जश्न में यही मंदिरा उनकी आँखों में मद भरती है । यही कारण है कि स्वार्थ-लिप्सा में अंधी राजनीति उस घोषित बुराई को अब तक पाले हुई है।

नशाबंदी के विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि इससे सरकारी आय में वृद्धि होती है । यह तर्क कितना भ्रष्ट है । लोगों को पतन के गड्ढे

में गिराकर धन कमाना दिननीय पाप है । फिर, शराब पीने के कारण जो झगड़े, दंगे और दुर्घटनाएं होती हैं, उन पर करोड़ों रुपयों का खर्च होता है । सामाजिक वातावरण में जो प्रदूषण होता है, उसकी बात ही अलग है । मद्यपान के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि शराब पीकर क्षर-भर के लिए दुःख दर्द भुलाए जा सकते हैं । संभव है, इसमें कुछ सच्चाई हो । किन्तु नशे की हालत में शराबी जो दुःख दर्द औरों को देता है, उसका क्या होगा ? एक दुःख से बचने के लिए और दुःखों में डूबना कहाँ की समझदारी है ?

नशे के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है कि इससे मनुष्य की ऊर्जा दुगुनी हो जाती है । परन्तु यह क्षणिक सत्य है । प्रयोगशालाओं ने सिद्ध किया है कि शराब पीने से मनुष्य की ऊर्जा के सभी स्रोत मंद पड़ने लगते हैं । शराब के पक्ष में चौथा तर्क यह है कि सर्दी से बचने के लिए यह अचूक औषधि है । हाँ, ठंडे प्रदेशों में यह बात सच है । परन्तु हमारे गर्म देश में तो यह केवल व्यसन है, औषधि नहीं । यहाँ के लोग शराब का सेवन नशे या फैशन के लिए करते हैं । इसलिए भारत में मद्यपान हर दृष्टि से पाप है।

मद्यनिषेध-तभी संभव है, जबकि देश की सरकार इसके लिए पूरी तरह तैयार हो । अभी तो राजनीति के द्वार मदिरा की बोतल से खुलते हैं। अतः राजनेताओं से इसकी अपेक्षा करना असंभव है । यदि भविष्य में कोई गाँधी जैसा सबल राष्ट्रनेता या विवेकानंद-दयानंद जैसा सशक्त समाज-सुध रक जन्मा तो कुछ सुधार होना संभव है । वास्तव में शराब पीना सामाजिक बुराई है । इसे सामाजिक जनजागरण और हृदय-परिवर्तन से दूर किया जा सकता है । इसके लिए कलाकारों और साहित्यकारों को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी । यदि कवि-लेखक और निर्माता शराब की बुराइयों पर आधारित कविताओं, लेखों और फिल्मों का निर्माण करें तो यह बुराई काफी हद तक दूर हो सकता है ।

अथवा,अपने महाविद्यालय के प्रधानाचार्य के पास एक आवेदन पत्र लिखें जिसमें महाविद्यालय में लिए जाने वाले अतिरिक्त क्रीड़ा-शुल्क को माफ करने के लिए अनुरोध करें।
उत्तर:
सेवा में,
प्रधानाचार्य महोदया,
इंदिरा गांधी बालिका उच्च विद्यालय, पटना ।

विषय-अतिरिक्त क्रीड़ा शुक्ल माफ करने के लिए प्रार्थना पत्र ।सविनय निवेदन है कि विद्यालय में क्रीड़ा के सभी आवश्यक उपकरण उपलब्ध है । कक्षा प्रवेश के समय ही छात्रों से क्रीड़ा शुल्क ले लिया जाता है। पुनः अतिरिक्त क्रीड़ा-शुल्क का भार डाला गया है ।

अत: आपसे सविनय अनुरोध है कि इस अतिरिक्त क्रीड़ा-शुल्क को माफ कर हमें अनुगृहीत करने की कृपा करें ।

आपकी शिष्या निशु
कक्षा-12वीं
क्रमांक-11

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