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 इतिहास और खेल : क्रिकेट की कहानी | History and Sports : The Story Of Cricket


** एक जमाने में, करीब डेढ़ सौ साल पहले, क्रिकेट फिरंगी खेल था। इसका आविष्कार इंग्लैण्ड में हुआ और यह 19वीं सदी के
विक्टोरियाई समाज और संस्कृति के रंग में रंग गया। इस खेल को अंग्रेज अपने तमाम प्रिय मूल्यों, बराबरी का न्याय, अनुशासन, शराफत (जेन्टलमैनलिनेस) का वाहक मानते थे।
** क्रिकेट को स्कूलों में शारीरिक शिक्षा के वृहत्तर कार्यक्रम के तहत लगाया गया कि लड़के आदर्श नागरिक बन सकें।
** लड़कियों को लड़कों का खेल खेलने की इजाजत नहीं थी। अंग्रेजों के साथ चलकर क्रिकेट उपनिवेशों में पहुंचा।
** औपनिवेशिक मालिकों ने सोचा कि खेल को इसके वाजिब अन्दाज, इसकी असली भावना के साथ सिर्फ वही खेल सकते है। लिहाजा जब उपनिवेश के गुलाम लोग क्रिकेट खेलने लगे और अकसर उनसे बेहतर खेलने लगे इतना ही नहीं कई बार उन्हें हराने में भी सफल रहे, तो उन्हें गम्भीर चिन्ता होने लगी। इस तरह क्रिकेट का खेल उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद की राजनीति से जुड़ गया।


** क्रिकेट इंग्लैण्ड में 500 साल पहले अलग-अलग नियमों के तहत खेले जा रहे गेंद-डण्डे के खेलों से पैदा हुआ। 'बैट' अंग्रेजी का
एक पुराना शब्द है जिसका सीधा अर्थ है ‘डण्डा' या 'कुन्दा'।
** सत्रहवीं सदी में एक खेल के रूप में क्रिकेट की आम पहचान बन चुकी थी और यह इतना लोकप्रिय हो चुका था कि रविवार को
चर्च न जाकर मैच खेलने के लिए इसके दीवानों पर जुर्माना लगाया जाता था।
** अठारहवीं सदी के मध्य तक बल्ले की बनावट हॉकी-स्टिक की तरह नीचे से मुड़ी होती थी। इसकी सीधी-सी वजह ये थी कि बॉल लुढ़का कर, अण्डर आर्म, फेंकी जाती थी और बैट के निचले सिरे का घुमाव बल्लेबाज को गेंद से सम्पर्क साधने में मदद करता था।
** अठारहवीं व उन्नीसवीं सदी के इंग्लैण्ड के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास ने क्रिकेट को इसका अनोखा स्वरूप प्रदान किया, क्योंकि यह क्रिकेट का शुरुआती दौर था। मिसाल के तौर पर यह सिर्फ टेस्ट क्रिकेट का ही अजूबा है कि खेल पाँच दिन तक लगातार चले और कोई नतीजा न निकले। किसी भी अन्य आधुनिक खेल के खत्म होने में इससे आधा वक्त भी नहीं लगता। फुटबॉल मैच करीब डेढ़ घण्टे चलता है। गेंद व बल्ले से खेले जाने वाले बेसबॉल जैसे आधुनिक जमाने के लिहाज से अपेक्षाकृत लम्बे खेल में भी उतने समय में नौ पारियाँ हो जाती हैं जितने में क्रिकेट के लघु संस्करण, यानी एकदिवसीय मैच, की एक पारी हो पाती है।
** क्रिकेट की एक और दिलचस्प खासियत यह है कि पिच की लम्बाई तो तय (22 गज) होती है पर मैदान का आकार-प्रकार एक-सा नहीं होता।
** हॉकी, फुटबॉल जैसे दूसरे टीम-खेलों में मैदान के आयाम तय होते हैं, क्रिकेट में नहीं। ऐडीलेड ओवल की तरह मैदान अण्डाकार हो सकता है, तो चेन्नई के चेपॉक की तरह लगभग गोल भी। मेलबर्न क्रिकेट ग्राउण्ड में छक्का होने के लिए गेंद को काफी दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में थोड़े प्रयास में ही गेंद सीमा-रेखा के पार जाकर गिरती है।
** कायदा-कानून से बंधने वाले खेलों में क्रिकेट का नम्बर अव्वल था यानी, सॉकर व हॉकी जैसे बाकी खेलों के मुकाबले में क्रिकेट
ने सबसे पहले अपने लिए नियम बनाए और वर्दियाँ भी अपनाई।
** "क्रिकेट के कानून' पहले-पहल सन् 1741 में लिखे गए। उनके मुताबिक, "हाजिर शरीफों में से दोनों प्रिंसिपल (कप्तान) दो अम्पायर चुनेंगे, जिन्हें किसी भी विवाद को निपटाने का अन्तिम अधिकार होगा। स्टम्प 22 इंच ऊँचे होंगे, उनके बीच की गिल्लियाँ 6 इंच की। गेंद का वजन 5 से 6 औंस के बीच होगा और स्टम्प के बीच की दूरी 22 गज होगी"। बल्ले के रूप व आकार पर कोई पाबन्दी नहीं थी।
** ऐसा लगता है कि 40 नॉच या रन का स्कोर काफी बड़ा होता था, शायद इसलिए कि गेंदबाज तेजी से बल्लेबाज के नंगे, पैडरहित
पिण्डलियों पर गेंद फेंकते थे
** दुनिया का पहला क्रिकेट क्लब हैम्बल्डन में सन् 1760 के दशक बना और मेरिलिबॉन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) की स्थापना सन् 1787 में हुई। इसके अगले साल ही एमसीसी ने क्रिकेट के नियमों में सुधार किए और उनका अभिभावक बन बैठा।
** एमसीसी के सुधारों से खेल के रंग-ढंग में ढेर सारे परिवर्तन हुए, जिन्हें 18वीं सदी के दूसरे हिस्से में लागू किया गया।
** सन् 1760 व सन् 1770 के दशक में जमीन पर लुढ़काने की जगह गेंद को हवा में लहराकर आगे पटकने का चलन हो गया था। इससे गेंदबाजों को गेंद की लम्बाई का विकल्प तो मिला ही, वे अब हवा में चकमा भी दे सकते थे और पहले से कहीं तेज गेंदें फेंक सकते थे। इससे स्पिन और स्विंग के लिए नये दरवाजे खुले। जवाब में बल्लेबाजों को अपनी टाइमिंग व शॉट चयन पर महारत हासिल करनी थी। एक नतीजा तो फौरन यह हुआ कि मुड़े हुए बल्ले की जगह सीधे बल्ले ने ले ली। इन सबकी वजह से हुनर व तकनीक महत्त्वपूर्ण हो गए, जबकि उबड़-खाबड़ मैदान या शुद्ध ताकत की भूमिका कम हो गई।
** गेंद का वजन अब साढ़े पाँच से पौने छ: औंस तक हो गया और बल्ले की चौड़ाई चार इंच कर दी गई। यह तब हुआ जब एक बल्लेबाज ने अपनी पूरी पारी विकेट जितने चौड़े बल्ले से खेल डाली।
** पहला लेग बिफोर विकेट (पगबाधा) नियम सन् 1774 में प्रकाशित हुआ। लगभग उसी समय तीसरे स्टम्प का चलन भी
** सन् 1780 तक बड़े मैचों की अवधि तीन दिन की हो गई थी और इसी साल छ: सीवन वाली क्रिकेट बॉल भी अस्तित्व में आई।
** उन्नीसवीं सदी में ढेर सारे बदलाव हुए। वाइड बॉल का नियम लागू हुआ, गेंद का सटीक व्यास तय किया गया, चोट से बचाने के लिए पेड व दस्ताने जैसे हिफाजती उपकरण उपलब्ध हुए, बाउण्ड्री की शुरुआत हुई, जबकि पहले हरेक रन दौड़ कर लेना पड़ता था और सबसे अहम बात, ओवर आर्म बॉलिंग कानूनी ठहराई गई। पर अठारहवीं सदी में क्रिकेट पूर्व-औद्योगिक खेल रहा, जिसे परिपक्व होने के लिए औद्योगिक क्रान्ति, यानी 19वीं सदी के दूसरे हिस्से का इन्तजार करना पड़ा।
** शुरू में क्रिकेट मैच की समय-सीमा नहीं होती थी। खेल तब तक चलता था जब तक एक टीम दूसरी को दोबारा पूरा आउट न कर दे। ग्रामीण जिन्दगी की रफ्तार धीमी थी और क्रिकेट के नियम औद्योगिक क्रान्ति से पहले बनाए गए थे।
** वल्केनाइज्ड रबड़ की खोज के बाद पैड पहनने का रिवाज सन् 1848 में चला, जल्द ही दस्ताने भी बने और धातु, सिन्थेटिक व हल्की सामग्री से बने हेल्मेट के बिना तो आधुनिक क्रिकेट की कल्पना ही असम्भव है।

क्रिकेट और विक्टोरियाई इंग्लैण्ड

** इंग्लैण्ड में क्रिकेट के आयोजन पर अंग्रेजी समाज की छाप साफ है। अमीरों को, जो मजे के लिए क्रिकेट खेलते थे, 'शौकिया' खिलाड़ी कहा गया और अपनी रोजी-रोटी के लिए खेलने वाले गरीबों को 'पेशेवर' (प्रोफेशनल) कहा गया।
** अमीर शौकिया दो कारणों से थे एक, यह खेल उनके लिए एक तरह का मनोरंजन था-खेलने के आनन्द के लिए न कि पैसे के लिए खेलना नवाबी ठाठ की निशानी था। दूसरे, खेल में अमीरों को लुभा सकने लायक पैसा भी नहीं था।
** शौकीनों की सामाजिक श्रेष्ठता क्रिकेट की परम्परा का हिस्सा बन गई। शौकीनों को जहाँ 'जेन्टलमेन' की उपाधि दी गई तो पेशेवरों को 'खिलाड़ी' (प्लेयर्स) का अदना-सा नाम मिला। मैदान में घुसने के उनके प्रवेश-द्वार भी अलग-अलग थे। शौकीन जहाँ बल्लेबाज हुआ करते वहीं खेल में असली मशक्कत और ऊर्जा वाले काम, जैसे तेज गेंदबाजी, खिलाड़ियों के हिस्से आते थे। क्रिकेट में सन्देह का लाभ (बेनेफिट ऑफ डाउट) हमेशा बल्लेबाज को क्यों मिलता है, उसकी एक वजह यह भी है।
** सन् 1930 के दशक में जाकर पहली बार अंग्रेजी टीम की कप्तानी किसी पेशेवर खिलाड़ी-यॉर्कशायर के बल्लेबाज लेन हटन ने की अकसर कहा जाता है कि 'वाटरलू का युद्ध ईटन के खेल के मैदान में जीता गया। इसका अर्थ यह है कि ब्रिटेन की सैनिक सफलता का राज उसके पब्लिक स्कूल के बच्चों को सिखाए गए मूल्यों में था। अंग्रेजी आवासीय विद्यालय में अंग्रेज लड़कों को शाही इंग्लैण्ड के तीन अहम संस्थानों-सेना, प्रशासनिक सेवा व चर्च में कैरियर के लिए प्रशिक्षित किया जाता था।
** उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक टॉमस आर्नल्ड-जो मशहूर रग्बी स्कूल के हेडमास्टर होने के साथ-साथ आधुनिक पब्लिक स्कूल प्रणाली के प्रणेता थे-राबी व क्रिकेट जैसे खेलों को महज मैदानी खेल नहीं मानते थे बल्कि अंग्रेज लड़कों को अनुशासन, ऊँच-नीच का बोध, हुनर, स्वाभिमान की रीति नीति और नेतृत्व क्षमता सिखाने का जरिया मानते थे। इन्हीं गुणों पर तो ब्रितानी साम्राज्य को बनाने और चलाने का दारोमदार था।
** विक्टोरियाई साम्राज्य-निर्माता दूसरे देशों को जीतना नि:स्वार्थ समाज सेवा मानते थे, क्योंकि उनसे हारने के बाद ही तो पिछड़े समाज ब्रितानी कानून व पश्चिमी ज्ञान के सम्पर्क में आकर सभ्यता का सबक सीख सकते थे। क्रिकेट ने अभिजात अंग्रेजों की इस आत्मछवि को पुष्ट करने में मदद की-ऐसा शौकिया खेल को बतौर आदर्श पेश करके हुआ, यानी खेल जहाँ फायदे या जीत के लिए न होकर सिर्फ खेलने और स्पिरिट ऑफ फेयरप्ले (न्यायोचित खेल भावना) के लिए खेला जाता था।

क्रिकेट का प्रसार

** हॉकी व फुटबॉल जैसे टीम खेल तो अन्तर्राष्ट्रीय बन गए, पर क्रिकेट औपनिवेशिक खेल ही बना रहा, यानी यह उन्हीं देशों तक सीमित रहा जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य के अंग थे। क्रिकेट की पूर्व-औद्योगिक विचित्रता के कारण इसका निर्यात होना मुश्किल था। इसने उन्हीं देशों में जड़ें जमाई जहाँ अंग्रेजों ने कब्जा जमाकर शासन किया।
** हालांकि ब्रिटिश शाही अफसर उपनिवेशों में यह खेल लेकर जरूर आए पर इसके प्रसार के लिए, खास तौर पर वेस्टइण्डीज व हिन्दुस्तान जैसे गैर-गोरे उपनिवेशों में, उन्होंने शायद ही कोई प्रयास किया। क्रिकेट खेलना यहाँ सामाजिक व नस्ली श्रेष्ठता का प्रतीक बन गया और अफ्रीकी-कैरिबियाई आबादी को क्लब क्रिकेट खेलने से हमेशा हतोत्साहित किया गया। नतीजतन, इस पर गोरे बागान-मालिकों और उनके नौकरों का बोलबाला रहा। वेस्टइण्डीज में पहला गैर-गोरा क्लब उन्नीसवीं सदी के अन्त में बना और यहाँ भी सदस्य हल्के रंग वाले मुलैट्टो समुदाय के थे। इस तरह काले रंग के लोग समुद्री बीचों पर, सुनसान गलियों और पार्को में बड़ी संख्या में क्रिकेट खेलते थे, लेकिन क्लब क्रिकेट पर सन् 1930 के दशक तक गोरे अभिजनों का ही वर्चस्व रहा।
** जब वेस्टइण्डीज ने सन् 1950 के दशक में इंग्लैण्ड के खिलाफ अपनी पहली टेस्ट श्रृंखला जीती, तो राष्ट्रीय उत्सव मनाया गया, मानो वेस्टइण्डियनों ने दिखा दिया हो कि वे गोरे अंग्रेजों से कम नहीं है।

क्रिकेट, नस्ल और धर्म

** औपनिवेशिक भारत में क्रिकेट नस्ल व धर्म के आधार पर संगठित था। भारत में क्रिकेट का पहला सबूत हमें सन् 1721 से मिला है,
जो अंग्रेज जहाजियों द्वारा कैम्बे में खेले गए मैच का ब्यौरा है। पहला भारतीय क्लब, कलकत्ता क्लब, सन् 1792 में बना। पूरी अठारहवीं सदी में क्रिकेट भारत में ब्रिटिश सैनिकों व सिविल सर्वेण्ट्स द्वारा सिर्फ गोरे क्लबों व जिमखानों में खेला जाने वाला खेल रहा। इन क्लबों की निजी चहारदीवारियों के अन्दर क्रिकेट खेलने में मजा तो था ही, यह अंग्रेजों के भारतीय प्रवास के खतरों व मुश्किलों से राहत व पलायन का सामान भी था।
** हिन्दुस्तानियों में इस खेल के लिए जरूरी हुनर की कमी समझी जाती थी, न ही उनसे खेलने की उम्मीद की जाती थी। लेकिन वे
खेले।
** हिन्दुस्तानी क्रिकेट यानी हिन्दुस्तानियों द्वारा क्रिकेट की शुरुआत का श्रेय बम्बई के जरतुश्तियों यानी पारसियों के छोटे से समुदाय
को जाता है। व्यापार के चलते सबसे पहले अंग्रेजों के सम्पर्क में आए और पश्चिमीकृत होने वाले पहले भारतीय समुदाय के रूप में पारसियों ने सन् 1848 में पहले क्रिकेट क्लब की स्थापना बाय में की, जिसका नाम था ओरिएन्टल क्रिकेट क्लब
** ब्रिटिश औपनिवेशिक भारत को राष्ट्र नहीं मानते थे उनके लिए, तो यह जातियों, नस्लों व धर्मों के लोगों का एक समुच्चय था, जिन्हें उन्होंने उपमहाद्वीप के स्तर पर एकीकृत किया। 19वीं सदी के अन्त में कई हिन्दुस्तानी संस्थाएँ व आन्दोलन जाति व धर्म के आधार पर ही बने क्योंकि औपनिवेशिक सरकार भी इन बँटवारी को बढ़ावा देती थी-सामुदायिक संस्थाओं को फौरन मान्यता मिल जाती थी।
** औपनिवेशिक अफसर हरेक धार्मिक समुदाय को अलग राष्ट्रीयता मानते थे। यह भी साफ है कि धार्मिक प्रतिनिधित्व के नाम पर
स्वीकृति की गुंजाइश ज्यादा थी।
** जिमखाना क्रिकेट के इतिहास ने प्रथम श्रेणी के क्रिकेट को साम्प्रदायिक नस्ली आधारों पर संगठित करने की रिवायत डाली औपनिवेशिक हिन्दुस्तान में सबसे मशहूर क्रिकेट टूर्नामेण्ट खेलने वाली टीमें क्षेत्र के आधार पर नहीं बनती थीं, जैसा कि आजकल रणजी ट्रॉफी में होता है, बल्कि धार्मिक समुदायों की बनती थीं। इस टूर्नामेण्ट को शुरू-शुरू में क्वाडेग्युलरया चतुष्कोणीय कहा गया, क्योंकि इसमें चार टीमें-यूरोपीय, पारसी, हिन्दू व मुसलमान खेलती थीं। बाद में यह पेंटांग्युलर या पाँचकोणीय हो गया और दरेस्ट नाम की नई टीम में भारतीय ईसाई जैसे बचे-खुचे समुदायों को नुमाइन्दगी दी गई।
** पत्रकारों, क्रिकेटरों व राजनेताओं ने सन् 1930-40 के दशक तक इस पाँचकोणीय टूर्नामेण्ट की नस्लवादी व साम्प्रदायिक बुनियाद
पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
** बॉम्बे क्रॉनिकल नामक अखबार के मशहूर सम्पादक एसए बरेलवी, रेडियो कमेंटेटर एएफएस तलयार खान और भारत के सबसे लोकप्रिय राजनेता महात्मा गाँधी ने पेंटांग्युलर को समुदाय के आधार पर बाँटने वाला बताकर इसकी निन्दा की।
** बाद में क्षेत्र-आधारित नेशनल क्रिकेट चैम्पियनशिप नामक एक नये टूर्नामेण्ट का आयोजन शुरू हुआ (जिसे बाद में रणजी ट्रॉफी कहा गया), लेकिन पाँचकोणीय टूर्नामेण्ट की जगह लेने के लिए इसे आजादी का इन्तजार करना पड़ा। पाँचकोणीय टूर्नामेण्ट की नींव में ब्रितानी सरकार की 'फूट डालो और राज करो' की नीति थी। यह एक औपनिवेशिक टूर्नामेण्ट था, जो ब्रिटिश राज के साथ खत्म हो गया।

खेल के आधुनिक बदलाव

** आधुनिक क्रिकेट में टेस्ट और एकदिवसीय इन्टरनेशनल का वर्चस्व है, जिन्हें राष्ट्रीय टीमों के बीच खेला जाता है। मशहूर होकर लोगों की यादों में रच-बस जाने वाले क्रिकेटर आम तौर पर अपनी राष्ट्रीय टीमों के खिलाड़ी होते हैं।
** सी के नायडू भारत के पहले टेस्ट कप्तान थे। खेल और वि-औपनिवेशीकरण

** यूरोपीय साम्राज्यों से आजादी हासिल कर स्वतन्त्र राष्ट्रों के बनने की प्रक्रिया को वि-औपनिवेशिकरण कहा जाता है। सन् 1947 में
भारत की आजादी से शुरू होकर यह सिलसिला अगली आधी
** भारत की आजादी से ब्रितानी साम्राज्य के खात्मे का बिगुल तो बज गया था, पर क्रिकेट के अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन पर साम्राज्यवादी क्रिकेट कॉन्फ्रेन्स का नियन्त्रण बरकरार रहा। आईसीसी पर, जिसका सन् 1965 में नाम बदलकर इन्टरनेशनल क्रिकेट कॉन्फ्रेन्स हो गया, इसके संस्थापक सदस्यों का वर्चस्व रहा, उन्हीं के हाथ में कार्यकलाप के वीटो अधिकार रहे। इंग्लैण्ड व ऑस्ट्रेलिया के विशेषाधिकार सन् 1989 में जाकर खत्म हुए और वे अब सामान्य सदस्य रह गए।
** पिछली सदी के 50 व 60 के दशक में विश्व क्रिकेट के मिजाज का पता इस बात से मिलता है कि इंग्लैण्ड तथा कॉमनवेल्थ के दूसरे देशों-ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैण्ड ने दक्षिण अफ्रीका जैसे देश के साथ क्रिकेट खेलना जारी रखा, जहाँ न सिर्फ नीतिगत तौर पर नस्ली भेदभाव बरता जाता था, बल्कि टेस्ट मैचों में अश्वेतों (दक्षिण अफ्रीका की बहुमत आबादी) को खेलने की मनाही थी।

आज के दौर में व्यापार, मीडिया और क्रिकेट

** क्रिकेट 1970 के दशक में काफी बदल गया। यह ऐसा दौर था जिसमें इस पारम्परिक खेल बदलते जमाने के साथ खुद को ढाल लिया। अगर सन् 1970 में दक्षिण अफ्रीका को क्रिकेट से तो सन् 1971 को इसलिए याद किया जाएगा चूँकि इस साल इंग्लैण्ड व ऑस्ट्रेलिया के बीच सबसे पहला एकदिवसीय मैच मेलबर्न में खेला गया। क्रिकेट का यह छोटा संस्करण इतना लोकप्रिय हुआ कि सन् 1975 में पहला विश्व कप खेला गया और सफल रहा। 
** फिर सन् 1977 में, जब क्रिकेट टेस्ट औचों की सौवी जयन्ती मना रहा था, तो खेल हमेशा के लिए बदल गया। इस बदलाव में किसी
खिलाड़ी या प्रशासक का नहीं, बल्कि एक व्यवसायी का हाथ था। केरी पैकर नामक ऑस्ट्रेलियाई टेलीविजन मुगल ने क्रिकेट के प्रसारण की बाजारी सम्भावनाओं को भांपकर दुनिया के 51 बेहतरीन खिलाड़ियों को उनके बोर्ड की मर्जी के खिलाफ अनुबन्ध पर ले लिया और दो सालों तक वर्ल्ड सीरीज क्रिकेट के नाम से समान्तर, गैर-अधिकृत "टेस्ट' व एक दिवसीय खेलों का आयोजन किया। पैकर का यह 'सर्कस' (इसे तब यही कहा जाता था) दो सालो के बाद पैक हो गया, लेकिन टेलीविजन दर्शकों को लुभाने के लिए उसके द्वारा किए गए बदलाव स्थायी साबित हुआ. और इससे खेल का रंग-ढंग बदल गया।
** रंगीन वर्दी, हिफाजती हेल्मेट, क्षेत्ररक्षण की पाबन्दियाँ, रोशनी जलाकर रात को क्रिकेट खेलना, आदि कुछ ऐसी चीजें हैं जो पैकर के बाद क्रिकेट का स्थायी हिस्सा बन गए। सबसे अहम बात, पैकर ने जाहिर कर दिया कि क्रिकट पैसे का बाजार है और इसे बेचकर बहुत पैसे कमाए जा सकते हैं।
** टेलीविजन कम्पनियों को टेलीविजन प्रसारण का अधिकार बेचकर क्रिकेट बोर्ड अमीर हो गए।
** निरन्तर टीवी कवरेज के बाद क्रिकेटर सेलेब्रिटी बन गए और उन्हें अपने क्रिकेट बोर्ड से तो ज्यादा वेतन मिलने ही लगा, पर उससे
भी बड़ी कमाई के सामान टायर से लेकर कोला तक के टीवी विज्ञापन हो गए।
** टीवी प्रसारण से क्रिकेट बदल गया। इसके जरिए क्रिकेट की पहुँच छोटे शहरों व गाँवों के दर्शकों तक हो गई। क्रिकेट का सामाजिक
आधार भी व्यापक हुआ। महानगरों से दूर रहने वाले बच्चे जो कभी बड़े मैच नहीं देख पाते थे, अब अपने नायकों को देखकर सीख सकते हैं।
** उपग्रह (सैटेलाइट) टीवी की तकनीक और बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों की दुनिया भर की पहुँच के चलते क्रिकेट का वैश्विक बाजार बन गया।

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