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 Bihar Board 12th Business Studies Important Questions Short Answer Type Part 3 in Hindi

Bihar Board 12th Business Studies Important Questions Short Answer Type Part 3 in Hindi

प्रश्न 1.
“नियोजन एक मानसिक प्रक्रिया है।” समझाइए।
उत्तर:
नियोजन एक ऐसी प्रक्रिया है जो संस्था के साथ ही प्रारंभ होती है और संस्था के समाप्त होने पर ही समाप्त होती है अर्थात् जब तक कोई संस्था चलती रहती है, नियोजन प्रक्रिया भी चलती रहती है। भविष्य अज्ञात होता है। कल क्या होने वाला है यह निश्चित रूप से कोई नहीं कह सकता है। चूँकि नियोजन भी भविष्य के लिए किया जाता है। इसलिए एक प्रबंधक को अपना पहला कार्य समाप्त होते ही दूसरे कार्य के लिए नियोजन करना पड़ता है। दूसरा कार्य समाप्त होते ही तीसरे कार्य के लिए नियोजन करना पड़ता है। इस तरह से यह नियोजन की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक संस्था मौजूद रहती है। संस्था के बंद होने के बाद ही नियोजन की क्रिया समाप्त होती है। इसलिए कहा जाता है कि नियोजन एक मानसिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 2.
संवर्द्धन की विशेषता को लिखें।
उत्तर:
संवर्द्धन की निम्न विशेषताएँ हैं-

  1. यह उपभोक्ताओं का ध्यान आकर्षित करने का एक साधन है।
  2. इसमें उपभोक्ताओं से प्रार्थना की जाती है, उन्हें सूचना दी जाती है और याद दिलाया जाता है।
  3. इसके अन्तर्गत उपभोक्ताओं को वस्तु की कीमत, गुण और वस्तु प्राप्ति के स्थान की जानकारी दी जाती है।
  4. यह विज्ञापन, विक्रय संवर्द्धन और वैयक्तिक विक्रय का मिश्रण है।
  5. यह विक्रय वृद्धि में सहायक है।
  6. यह उपभोक्ताओं के साथ-साथ वितरकों को भी प्रेरित करता है।
  7. यह विज्ञापन एवं वैयक्तिक विक्रय को अधिक प्रभावी बनाने में सहायक है।
  8. संवर्द्धन क्रियायें कुछ विशेष अवसरों पर की जाती हैं यह नियमित रूप से की जाने वाली क्रिया नहीं है।

प्रश्न 3.
जिला उपभोक्ता संरक्षण परिषद् का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
जिला उपभोक्ता संरक्षण परिषद् (District Consumer Protection Council) – राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा ऐसी तारीख से जो वह ऐसी अधिसूचना में निर्दिष्ट करें। प्रत्येक

जिला के लिए जिला उपभोक्ता संरक्षण परिषद् के रूप में एक परिषद् का गठन करेगी। इस परिषद् में निम्नलिखित सदस्य होंगे- 1. जिले का कलेक्टर (चाहे किसी नाम से ज्ञात हो) इसका अध्यक्ष होगा और 2. ऐसे हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरकारी या गैर-सरकारी सदस्य जो राज्य सरकार द्वारा नियत की जाए।

जिला परिषद् की बैठक आवश्यकतानुसार बुलाई जाएगी लेकिन प्रतिवर्ष दो से कम बैठक नहीं की जाएगी। जिला परिषद् उस समय व स्थान पर होगी जैसा अध्यक्ष उचित समझे एवं कार्य व्यवहार के बारें में ऐसी प्रक्रिया अपनाई जाएगी जो राज्य सरकार द्वारा निर्धारित की जाए।

जिला परिषद् के उद्देश्य जिला के भीतर उन्हीं उपभोक्ता अधिकारों का संवर्द्धन और संरक्षण करना होगा जो केन्द्रीय परिषद् के उद्देश्यों के अंतर्गत वर्णित हैं।

प्रश्न 4.
वित्तीय बाजार के प्रमुख कार्य क्या हैं ?
उत्तर:
वित्तीय बाजार, बचतकर्ता एवं विनियोगकर्ता के मध्य महत्वपूर्ण माध्यम का कार्य करता है। यह मुख्य रूप से अपनी सेवा प्रदान करता है।

  • प्राथमिक क्षेत्र से निधि का प्रयोग
  • व्यापार या विनियोग क्षेत्र में संसाधनों का वितरण

यह विनियोगकर्ता को लाभदायक माध्यम में अपने फण्ड का प्रयोग करने का अवसर प्रदान करता है ताकि अपने विनियोग पर अधिकतम आय प्राप्त हो सके।

वित्तीय बाजार द्वारा सीमित साधनों के वितरण की प्रक्रिया के मुख्य चार कार्य निम्नलिखित हैं-

  • उत्पादनीय कार्य के लिये बवत का प्रयोग एवं वितरण तथा तिथि का बचतकर्ता से विनियोगकर्ता को हस्तांतरण।
  • व्यावसाय ईकाई के द्वारा निधि के माँग एवं पूर्ति के क्रियाशक्ति द्वारा वित्तीय सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण।
  • निधि की तरलता अर्थात् आवश्यकतानुसार विनियोग का नगद में परिवर्तन।
  • क्रेता एवं विक्रेता को अपनी आवश्यकता की संतुष्टि के लिये सामान्य जगह उपलब्ध कराना। यह स्टॉक के आपूर्तिकर्ता एवं प्रयोग कर्ता को सूचनायें प्रदान कर लेन-देन के लागत को कम करता है।

इस तरह वित्तीय बाजार, संसाधनों का सही प्रयोग, स्टॉक का मूल्य निर्धारण विनियोग की तरलता एवं क्रेता एवं विक्रेता के निधि का प्रयोग कर अर्थव्यवस्था को बहुमूल्य सेवा प्रदान करता है।

प्रश्न 5.
एक अच्छे नेता के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर:
सभी नेता सफल नेता नहीं होते हैं। एक प्रभावी नेता वहीं है जो दूसरे के विश्वास को. जीतने में सफल होते हैं। वे अपने अनुयायियों के विश्वास, आदर और प्रेम को प्राप्त करने के योग्य होते हैं।

एक अच्छे नेता के निम्नलिखित गुण होते हैं-

  • एक आकर्षक व्यक्तित्व।
  • अपने अनुयायियों को प्रभावित करने की क्षमता और ज्ञान।
  • उच्च नैतिक मूल्यों के साथ ईमानदारी एवं विश्वास।
  • संगठन के लाभ के लिये पर्याप्त साहस और अवसर को प्राप्त करने की इच्छा शक्ति।
  • किसी भी विचार को विश्लेषण करने की क्षमता ताकि लोग आसानी से समझ सके।
  • लोगों को पूर्णतः संतुष्ट करने के लिये आवश्यकता और प्रेरणा को बढ़ाने की योग्यता।
  • प्रबंध के कार्य को दृढ़ता से कराने की योग्यता।
  • सही सहयोग, समझ, सामाजिकता और मित्रता के द्वारा अच्छे मानवीय संबंधों को स्थापित करने की तत्परता।

प्रश्न 6.
एक संगठन में नियन्त्रण के महत्व का वर्णन करें।
उत्तर:
नियंत्रण प्रबन्ध का एक कार्य है। इसका उद्देश्य बिना किसी विचलन के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त करना है। इसका उद्देश्य यह भी जाँच करना है कि सभी संसाधनों का प्रयोग सही तरीके से पूर्व निर्धारित कक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये किया गया है। इसके अन्तर्गत (a) वास्तविक कार्य की तुलना प्रभाव कार्य से करना (b) विचलन की पहचान करना एवं (c) सुधारात्मक क्रिया का प्रयोग करना है।

उपर्युक्त सभी क्रिया भविष्य में अधिक अच्छे नियोजन बनाने में मदद करता है। संगठन में एक अच्छे नियोजन प्रणाली के निम्नलिखित महत्व हैं-

  • नियन्त्रण, कार्यक्रम का निर्देशन एवं विकास की जाँच के द्वारा संगठन के उद्देश्य को प्राप्त करने में मदद करता है।
  • बदलते परिवेश के अनुसार प्रभाव कार्यक्रम में सुधार करना एवं उसकी सत्यता की जाँच में मदद करना है।
  • कार्यक्रम के बीच अवशेष/अवशिष्ट को कम कर संसाधनों के सर्वोत्तम प्रयोग को बढ़ावा देना।
  • अधिक कार्य निस्पादन के लिये कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना क्योंकि वे पहले से ही अपनी प्रशंसा के आधार को समझते हैं।
  • आदेश और अनुशासन को बढ़ाना एवं बेईमान आचरण को कम करना है।
  • क्रियाकलाप में समन्वय को बढ़ावा देना एवं संगठन के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये प्रयास में समायोजन करना है।

नियंत्रण इसलिये एक अनुशीलन क्रियाकलाप है जो यह बताता है कि नियोजन सही तरीके से क्रियान्वित हुआ।

प्रश्न 7.
उद्यमिता में सफलता की अभिप्रेरणा की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
उद्यमिता का मुख्य उद्देश्य सफलता है। यह लाभ, ख्याति, सामाजिक प्रतिष्ठा या बाजार में हिस्सेदारी के रूप में हो सकता है यह ग्राहकों के द्वारा ब्रांड के प्रति विश्वास के रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है। व्यावसायिक इकाई की सफलता, इसलिए वित्तीय स्वास्थ्य के साथ-साथ प्रबंधकीय दक्षता भी है। सफलता की आवश्यकता का इकाई की सफलता, इसलिए वित्तीय स्वास्थ्य के साथ-साथ प्रबंधकीय दक्षता भी है। सफलता की आवश्यकता का अर्थ है, कुछ कठिन या नया या भिन्न करने की इच्छा। इसके अंतर्गत मुख्यतः संसाधनों का संगठन जैसे-भौतिक घटक, मानवीय प्रयास एवं विकासशील विचार सम्मिलित है। सफलता अधिक तीव्र गति एवं स्वतंत्र रूप से प्राप्त की जानी चाहिए-

  • कठिनाइयों को दूर किया जाना चाहिए।
  • प्रमाप दक्षता निर्धारित की जानी चाहिए।
  • अपने प्रतियोगी से आगे होना चाहिए।
  • अपने हितों की रक्षा के लिये योग्यता एवं दक्षता का प्रयोग।

सफलता की प्रेरणा, उद्यमिय आचरण का आधारभूत तत्व है।

प्रश्न 8.
क्या आप सोचते हैं कि नियोजन प्रबंध का महत्वपूर्ण कार्य है ? अपने उत्तर के समर्थन में कारण बतावें।
उत्तर:
नियोजन दक्षता का आधार है क्योंकि यह आवश्यकता एवं प्राथमिकता के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह संसाधनों का समन्वय एवं क्रियाकलापों का निर्देशन है। नियोजन निश्चितता, निर्देशन एवं उपयोगिता को बढ़ावा देता है। नियोजन के निम्नलिखित लाभ, प्रबंध में इसके महत्व को दर्शाता है-

  1. सामूहिक रूप से यह संगठन के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये कार्यों का निर्देशन करता है।
  2. यह भविष्य की घटना की अनिश्चितता एवं खतरे को कम करता है।
  3. यह सफल संचालन एवं प्रयासों के समन्वय के द्वारा बर्बादी एवं कार्य के दोहरेपन को रोकता है।
  4. यह भविष्य के कार्यक्रम के संबंध में नये विचार को बढ़ावा देता है जो संगठन के समृद्धि एवं वृद्धि में सहायक होती है।
  5. यह निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये विभिन्न विकल्पों के संबंध में निर्णय लेने में सहायता करता है।
  6. यह वास्तविक निष्पादन को नियंत्रित करने के लिये प्रभाव को स्थापित करता है और किसी भी तरह के विचलन को दूर करने के लिये दिशा-निर्देश देता है।

नियोजन के उपर्युक्त योगदान के कारण यह प्रबंध का एक महत्वपूर्ण भाग है।

प्रश्न 9.
नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने में कौन-से कदम सम्मिलित है?
उत्तर:
नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने की प्रक्रिया में मुख्य तीन कदम सम्मिलित हैं-
1. अवसर की तलाश-यह अनुभव एवं उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर विभिन्न विकल्पों की खोज है जो लाभदायक साबित हो।

2. सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव-विभिन्न विकल्पों के अध्ययन के बाद उसमें से सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव किया जाता है। यह सृजनशीलता एवं नयी खोज के द्वारा निर्धारित होता है ताकि अच्छे वस्तु एवं सेवा का उत्पादन हो सकें। वह यह भी अनुमान लगाता है कि किस मूल्य पर वस्तु को बेचा जाय ताकि ग्राहक उसे पसंद करें।

3. तरलता विश्लेषण-नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने में यह अन्तिम कदम हैं। इसके भविष्य में विस्तार की जाँच करता है। यह. लाभ अर्जन के उद्देश्य से प्रस्तावित प्रोजेक्ट का सामाजिक, आर्थिक एवं तकनीकी विश्लेषण है।

नये व्यवसाय अक्सर अज्ञात खतरे से संबंधित होता है। वैसे खतरे को सावधानीपूर्वक जाँच से कम किया जा सकता है और निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

प्रश्न 10.
व्यावसायिक संगठन के द्वारा किस प्रकार के नीतिगत निर्णय किये जाते हैं ?
उत्तर:
एक नीति, कार्यक्रम का विस्तृत नियोजन है। यह संगठन के उद्देश्य को प्राप्त करने पर बल देता है, यह संगठन के क्षेत्र एवं निर्देश के संबंध में भविष्य का निर्णय है।

एक नीति में तीन मुख्य निर्णय सम्मिलित हैं-

  1. फर्म के दीर्घकालिन उद्देश्य को निर्धारित करना।
  2. एक निर्धारित क्रियाविधि को अपनाना।
  3. उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये निर्धारित संसाधन का वितरण करना।

नीति निर्धारण करते समय निम्नलिखित घटक को ध्यान में रखना चाहिए-

  1. बदलते व्यावसायिक परिवेश।
  2. संचालन की सहायता के लिये उपलब्ध संसाधन की गुण एवं मात्रा।
  3. व्यवसाय की पहचान को कैसे बचाया जा सकता है ?

एक संगठन के मुख्य नीतिगत निर्णय हैं-

  1. क्या व्यवसाय समान पटरी पर चल सकता है?
  2. क्या विद्यमान व्यवसाय के साथ नये व्यवसाय को समायोजित किया जा सकता है ?
  3. क्या समान बाजार में महत्व बढ़ाने की आवश्यकता है।

स्पष्टतः कोई भी नीतिगत निर्णय किसी भी फर्म के लिये उपयोगी, लाभदायक एवं व्यावहारिक होता है।

प्रश्न 11.
प्रेरणा को परिभाषित करें।
उत्तर:
स्कॉट के अनुसार, “प्रेरणा लोगों को उद्दीपित कर निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है।”

डेविन के शब्दों मे “प्रेरणा एक जटिल शान्ति है जो एक संगठन में लोगों के क्रिया को ध्यान में रख कर प्रारम्भ किया जाता है जिससे व्यक्ति क्रियाशील होता है।”

मकफॉरलैण्ड का कहना है कि प्रेरणा के द्वारा मानवीय आचरण का वर्णन किया जाता है। प्रेरणा, इसलिए, एक उत्साह, लालच या प्रोत्साहन है जो लोगों को सही तरीके से कार्य करने के प्रति उत्साहित करता है। उसका मुख्य उद्देश्य स्वेच्छा से कार्य में योगदान देना है।

प्रश्न 12.
उपभोक्ता न्यायालय में कौन शिकायत दर्ज कर सकता है ?
उत्तर:
उपभोक्ता न्यायालय में निम्नलिखित व्यक्ति शिकायत दर्ज कर सकता है-

  1. कोई उपभोक्ता।
  2. कोई भी पंजीकृत उपभोक्ता संघ।
  3. राज्य एवं केन्द्रीय सरकार।
  4. उपभोक्ता के बदले कोई अन्य प्रतिनिधि जिसका समान हित हो।
  5. मृत उपभोक्ता के उत्तराधिकारी या अन्य प्रतिनिधि।

प्रश्न 13.
व्यावसायिक वातावरण क्या है ?
उत्तर:
किसी भी व्यवसाय की सफलता आन्तरिक प्रबंध पर निर्भर नहीं करता है। अनेक बाहरी शक्तियाँ भी व्यावसायिक उपक्रम के संचालन को प्रभावित करता है। इसमें विनियोक्ता, उपभोक्ता, सरकार एवं प्रतिस्पर्धी फर्म के क्रियाकलाप एवं निर्णय सम्मिलित हैं। ये बाहरी शक्तियाँ व्यावसायिक नियंत्रण के बाहर होती हैं और एक वातावरण का निर्माण करती है जो व्यक्तिगत एवं संस्थागत तत्व होती है, ये निम्नलिखित का मिश्रण भी है-

  • आर्थिक वातावरण
  • सामाजिक वातावरण
  • राजनीतिक वातावरण
  • कानूनी वातावरण
  • तकनीकी वातावरण

व्यावसायिक निष्पादन पर वातावरणीय प्रभाव के उदाहरण हैं-

  • सरकार के कराधान नीति में परिवर्तन।
  • उपभोक्ता के ईच्छा एवं फैशन में परिवर्तन।
  • उत्पादन के नयी तकनीक।
  • बाजार में बढ़ती प्रतियोगिता।
  • राजनीतिक अनिश्चितता।

प्रश्न 14.
अभिप्रेरण के तीन उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
अभिप्रेरण के तीन उद्देश्य निम्नवत् हैं-

  • लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु
  • मानवीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग हेतु
  • कुशलता में वृद्धि हेतु।

प्रश्न 15.
समन्वय के लाभों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
समन्वय के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं-

  1. समन्वय के परिणामस्वरूप समूह की कुल उपलब्ध व्यक्तियों की पृथक्-पृथक् उपलब्धियों के योग से कहीं अधिक होती है। इसे मेरी पार्कर फोलेट (Mary Parker Follet) ने समूह का धनात्मक मूल्य (Plus value) कहा है।
  2. समन्वय के परिणामस्वरूप संस्था के समस्त विभागों तथा उनमें काम करने वाले कर्मचारियों को संस्था के मूलभूत लक्ष्यों की जानकारी हो जाती है।
  3. समन्वय मानवीय सम्बन्धों की महत्ता पर प्रकाश डालता है।
  4. समन्वय से दुर्बलताओं का ज्ञान होता है एवं उनकी रोकथाम की व्यवस्था करना सुगम हो जाता है।
  5. समन्वय विभिन्न प्रबन्धकों को उपक्रम के हित, विभिन्न विभागीय हितों से ऊपर रखने में समर्थ बनाता है।
  6. संस्था के सुचारु संचालन में इससे बड़ी सहायता मिल सकती है।

प्रश्न 16.
नीति और नियम में अन्तर बतायें।
उत्तर:
नीति और नियम में अन्तर निम्नलिखित हैं-

  1. नियम क्रिया-प्रदर्शक होते हैं जबकि नीति, निर्णय लेने से सम्बन्धित विचार का प्रदर्शक होता है।
  2. नीति का पालन करना ऐच्छिक होता है परन्तु नियमों का पालन दृढ़ता से किया जाता है।
  3. नीतियों में प्रबन्धकों को अपनी सूझ-बूझ से परिवर्तन करने का अधिकार होता है परन्तु नियमों में परिवर्तन का अधिकार नहीं होता है।
  4. नियम क्रिया प्रदर्शक होते हैं जबकि नीतियाँ प्रबन्ध का निर्णय-निर्देश होती हैं।
  5. नीतियाँ सामान्य परिस्थितियों के लिए बनाई जाती हैं जबकि नियम परिस्थिति विशेष के लिए बनाये जाते हैं।
  6. नीतियों का अपवाद हो सकता है जबकि नियम का कोई अपवाद नहीं होता है।

प्रश्न 17.
अल्पकालीन वित्तीय-नियोजन क्या है ?
उत्तर:
साधारणतया एक व्यवसाय में एक वर्ष के लिए जो वित्तीय-नियोजन किया जाता है, वह अल्पकालीन वित्तीय-वियोजन कहलाता है। अल्पकालीन वित्तीय-नियोजन मध्यकालीन एवं दीर्घकालीन नियोजन का ही एक भाग होता है। अल्पकालीन वित्तीय-नियोजन में प्रमुख रूप से कार्यशील पूँजी के प्रबन्ध की योजनाएँ बनाई जाती हैं तथा उसकी विभिन्न अल्पकालीन साधनों से वित्तीय व्यवस्था करने का कार्य किया जाता है। विभिन्न प्रकार के बजट एवं प्रक्षेपित लाभ-हानि विवरण कोषों की प्राप्ति एवं उपयोगों का विवरण व चिट्टे बनाए जाते हैं।

प्रश्न 18.
आर्थिक विकास की प्रक्रिया में उद्यमिता कैसे मदद करता है ?
उत्तर:
उद्यमिता आर्थिक बदलाव की एक गतिशील क्रिया है, यह व्यवसाय की वृद्धि की एक आवश्यक प्रक्रिया है।
आर्थिक विकास की प्रक्रिया में उद्यमिता का निम्नलिखित योगदान है-

  1. मालिक एवं कर्मचारी दोनों के लिये रोजगार के अवसर को बढ़ाना।
  2. बचत का उत्पादकीय विनियोग द्वारा पूँजी का निर्माण करना।
  3. वित्तीय एवं तकनीकी विश्लेषण के बाद, खतरे एवं हानि को कम कर मूल्यवान प्रोजेक्ट का निर्माण करना।
  4. लघु उद्योगों की स्थापना के द्वारा देश का संतुलित क्षेत्रीय विकास करना।
  5. यह नीति के निर्माण में सहायता करता है। बाजार से संबंधित महत्वपूर्ण सूचनाओं को प्रदान करता है। लाभ कमाने के तरीकों को बताता है।
  6. अतिरिक्त आय प्राप्त करने के लिये देश के अन्दर एवं बाहर नये बाजारों की खोज करता है।
  7. उपभोक्ता संतुष्टि, औद्योगिक शांति एवं औद्योगिक विकास में मदद करता है। उपर्युक्त योगदान के कारण उद्यमिता आर्थिक विकास का एक आवश्यक भाग माना जाता है।

प्रश्न 19.
दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन के बारे में लिखें।
उत्तर:
एक व्यवसाय में पाँच वर्ष या इससे अधिक अवधि के लिए जो वित्तीय-नियोजन किया जाता हैं, वह दीर्घकालीन वित्तीय-नियोजन कहलाता है यह नियोजन विस्तृत दृष्टिकोण पर आधारित होती है। जिसमें संस्था के सामने आने वाली दीर्घकालीन समस्याओं के समाधान हेतु कार्य किया जाता है। इस नियोजन में संस्था के दीर्घकालीन वित्तीय लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु पूंजी की मात्रा, पूँजी ढाँचे, स्थायी सम्पत्तियों के प्रतिस्थापन, विकास एवं विस्तार हेतु अतिरिक्त पूँजी प्राप्त करने आदि कार्य शामिल किए जाते हैं।

प्रश्न 20.
समन्वय तथा सहयोग में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
समन्वय तथा सहयोग में निम्न अन्तर है-
Bihar Board 12th Business Studies Important Questions Short Answer Type Part 3, 1

प्रश्न 21.
स्थायी पूँजी से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
ऐसा धन जो स्थायी सम्पत्ति पर विनियोजन के लिए लिया जाता है, उसे स्थायी पूँजी (Fixed or Blocked Capital) कहा जाता है। यह पूँजी का उपयोग स्थायी रूप से रहती है और इसे इच्छानुसार वापस नहीं लिया जा सकता है इस प्रकार की पूँजी का उपयोग स्थायी सम्पत्ति को क्रय करने लिए किया जाता है।

इसके अतिरिक्त व्यवसाय की स्थापना के बाद भविष्य में भी दीर्घकालीन वित्त अथवा स्थायी पूँजी की आवश्यकता अप्रचलित तथा घिसी-पिटी मशीनों को बदलने, विस्तार कार्यक्रमों के अन्तर्गत नयी मशीनों को खरीदने, भवन में वृद्धि करने, कच्चे माल एवं स्टोर के न्यूनतम स्टॉक की मात्रा बढ़ाने आदि की व्यवस्था के लिए भी होती है। इन सम्पत्तियों में किया गया विनियोग बिल्कुल गैर-तरल प्रकार की पूँजी को स्थायी पूँजी के अलावा दीर्घकालीन पूँजी, अचल पूँजी अथवा ब्लॉक कैपिटल के रूप में पुकारा जाता है।

प्रश्न 22.
हेनरी फेयोल तथा कूण्ट्ज एवं ओ’डोनेल के अनुसार प्रबंध कार्यों का वर्गीकरण कीजिए।
उत्तर:
जिस प्रकार प्रबन्ध की परिभाषा पर विभिन्न विद्वानों में मतभेद है, ठीक उसी प्रकार प्रबन्ध के कार्यों के विषय में भी विभिन्न विद्वानों में मतभेद हैं, परन्तु इस बात पर सभी एक मत हैं कि प्रबन्ध के कुछ कार्य ऐसे हैं जो सर्वव्यापक हैं। चाहे एक प्रबन्धक व्यवसाय, मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, स्कूल, कॉलेज, होस्टल किसी का प्रबन्ध क्यों न करे, उसके कुछ आधारभूत कार्य का निष्पादन आवश्यक रूप से करना होता है। प्रबन्ध के कार्य गतिशील हैं जिनमें वातावरण व परिस्थिति के अनसार संशोधन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कार्य गतिशील हैं। जिनमें वातावरण व परिस्थिति के अनुसार संशोधन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रबन्ध के कार्य अन्तर-सम्बन्धित व अन्तर-निहित हैं। यही कारण है कि प्रबन्ध को निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया माना जाता है।

प्रबन्ध के कार्यों का वर्गीकरण दो विचारधाराओं के अनुसार किया जा सकता है-
(i) हेनरी फेयोल द्वारा कार्यों का वर्गीकरण-प्रबन्ध के कार्यों का सर्वप्रथम वर्गीकरण हेनरी फेयोल ने किया। उन्होंने प्रबन्ध के तत्वों को ही उसके कार्य माने हैं। फेयोल के अनुसार, “प्रबंध का आकार पूर्वानुमान तथा योजना बनाना, संगठन करना, आदेश देना, समन्वय करना तथा नियन्त्रण करना है।” इस प्रकार इनके अनुसार प्रबन्ध के निम्नलिखित पाँच कार्य स्पष्ट होते हैं। जिन्हें P.O.C.C से जाना जाता है। थियो हेमैन के अनुसार, “हेनरी फेयोल ने प्रबन्ध से सम्बन्धित जिन कार्यविधियों का मुख्यतः वर्णन किया है, उन सब का वर्गीकरण उतना ही प्रचलित है जितना प्रबन्ध के क्षेत्र में परिगणित वे कार्य-विधियाँ, जिनका परिगण दूसरे लेखकों ने किया है।

  1. पूर्वानुमान तथा योजना बनाना (To forecast and plan),
  2. संगठन करना (Organising),
  3. आदेश देना (Commanding),
  4. समन्वय करना (Co-ordinating),
  5. नियन्त्रण करना (Controlling)।

(ii) कून्ट्ज तथा ओ’डोनेल द्वारा वर्गीकरण-कून्ट्ज तथा ओ’डोनेल ने प्रबन्ध के निम्न पाँच कार्य बताए हैं जिन्हें P.O.D.C.S. से जाना जाता है-

  1. योजना बनाना (Planning),
  2. संगठन करना (Organising),
  3. निर्देशन तथा नेतृत्व (Direction and Leadership),
  4. नियन्त्रण (Control) एवं
  5. नियुक्तियाँ करना (Staffing)।

प्रश्न 23.
समन्वय के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
समन्वय का महत्त्व बताते हुए प्रोफेसर हेमैन (Haimann) एक स्थान पर लिखते हैं, “प्रबन्ध का कोई भी कार्य क्यों न लें, चाहे वह नियोजन या नियन्त्रण, संगठन करना हो या नियुक्तियाँ करना या आदेश देना, सभी में समन्वय की जरूरत पड़ती है।” समन्वय प्रबन्धकीय कार्यों की सबसे पहली अवस्था योजना बनाने से प्रारम्भ होती है और इसके समस्त कार्य जैसेसंगठन, निर्देश, नीति-पालन एवं अभिप्रेरण आदि समन्वय से जुड़े रहते हैं।

समन्वय के महत्त्व के पक्ष में एक उदाहरण भी दिया जा सकता है। आर्केस्ट्रा की दशा में यह नितान्त आवश्यक हो जाता है कि विभिन्न प्रकार के बाजे बजाने वाले व्यक्तियों में परस्पर समन्वय रहे। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यावसायिक संगठन के सफल संचालन हेतु समन्वय का होना नितान्त आवश्यक है। सामान्यतः सभी बड़ी संस्थाओं में कच्चे माल की खरीद का विभाग, श्रम-विभाग, विक्रय-विभाग आदि होते हैं। इन विविध विभागों के बीच परस्पर समन्वय का होना जरूरी है।

यदि विक्रय विभाग का लक्ष्य बीस हजार इकाइयों का निर्माण करना है तो बीस हजार इकाइयों के निर्माण के लिए कच्चे माल, यन्त्र, उपकरण, श्रमिक आदि सभी विभागों के बीच परस्पर समन्वय हो तो नियत लक्ष्यों की पूर्ति में कठिनाई नहीं होगी। वस्तुतः समन्वय के अभाव में भौतिक एवं मानवीय साधन केवल मात्र साधन ही बने रहते हैं, उत्पादक नहीं बन पाते। . इसी कारण ‘समन्वय’ को एक रचनात्मक शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है।

समन्वय के महत्त्व के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं-

  1. समन्वय एक रचनात्मक व सजनात्मक शक्ति है – बिना समुचित समन्वय के कच्चा माल केवल कच्चा माल एवं मशीनें केवल मशीनें रहती हैं, उनमें वस्तुओं एवं सेवाओं के रूप में निखार नहीं आ पाता।
  2. समन्वय प्रबन्ध का सार है-प्रबन्ध के समस्त कार्यों – नियोजन, संगठन, अभिप्रेरण व नियन्त्रण में प्रभावपूर्ण तालमेल समन्वय के माध्यम से ही स्थापित होता है। प्रबन्ध-प्रक्रिया में से समन्वय को निकाल देने से फिर शेष कुछ नहीं बचता। प्रबन्ध ही नियोजन को सौद्देश्य बनाता है, संगठन को आधार प्रदान करता है तथा नियन्त्रण को आमन्त्रित करता है।
  3. समन्वय संगठन को एक-तिहाई का स्वरूप प्रदान करता है – समन्वय के ही कारण : एक उपक्रम के समस्त विभाग स्वतन्त्र रूप से काम करते हुए भी एक सामान्य लक्ष्य की पूर्ति में सहयोग करते हैं। समन्वय की शक्ति ही यह सहयोग प्रदान करती है। समन्वय विविधता में एकता स्थापित करता है।
  4. समन्वय की अवधारणा सुमधुर मानवीय सम्बन्धों के विकास पर बल देती है। इससे परस्पर ईर्ष्या, जलन, द्वेष व विरोध का अन्त हो जाता है।
  5. समन्वय संस्था के लक्ष्यों, साधनों एवं प्रयासों में सन्तुलन स्थापित करता है। परिणामतः न्यूनतम लागत पर अधिकतम एवं श्रेष्ठतम उत्पादन प्राप्त होता है।

प्रश्न 24.
प्रबन्ध के आधारभूत सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रबन्ध के सिद्धान्तों को क्रमबद्ध करने का प्रयास अनेक विद्वानों ने किया है। इन विद्वानों में हेनरी फेयोल प्रथम प्रबन्ध विशेषज्ञ थे जिन्होंने प्रबन्ध विज्ञान के विकास के लिए सिद्धान्तों की आवश्यकता को अनुभव किया। इनके अतिरिक्त चैस्टर बर्नार्ड (Chester Barnard), ब्राउन (Brown), टैरी (Terry) आदि विद्वानों ने प्रबन्ध के सिद्धान्तों के महत्त्व को स्वीकार किया है। कून्टज एवं ओ’डोनेल ने प्रबन्धकीय सिद्धान्त की परिभाषा इस प्रकार दी है, “प्रबन्धकीय सिद्धान्त मान्यता के आधारभूत सत्य हैं जो प्रबन्धकीय कार्यों के परिणाम की भविष्यवाणी करने की उपयोगिता रखते हैं। थियो हैमन (Theo Haiman) ने एक स्थान पर सिद्धान्तों के महत्त्व को दर्शाते हुए लिखा है, “एक प्रबन्धक का कार्य सरल हो जाता है तथा उसकी कार्यकुशलता व प्रभावशीलता में वृद्धि हो जाती है यदि वह प्राप्त विभिन्न प्रन्धकीय सिद्धान्तों को समझता है तथा उनका उचित प्रयोग करता है।

सिद्धान्तों तथा धारणाओं का ज्ञान प्रबन्धकों की शक्ति तथा श्रम में काफी बचत करता है तथा प्रबन्धकों को जटिल अवस्थाओं में से निकालने में मार्गदर्शन करता है।” प्रबन्ध के सिद्धान्त भौतिक विज्ञान की भाँति. पूर्ण (exact) नहीं होते क्योंकि प्रबन्ध एक सामाजिक विज्ञान है जिसे मानवीय व्यवहार एवं प्रतिक्रियाएँ आदि प्रभावित करती हैं, परन्तु फिर भी इनके द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध के सिद्धान्त आज भी महत्त्वपूर्ण हैं।

हेनरी फेयोल ने प्रबन्ध के 14 सिद्धान्त का, जार्ज आर० टैरी ने 28 सिद्धान्तों का, कून्ट्ज एवं ओ’डोनेल ने 57 सिद्धान्तों का और उर्विक ने 29 सिद्धान्तों का वर्णन किया है।

प्रश्न 25.
निर्देशन के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कून्ट्ज एवं ओ’डोनेल (Koontz and O’Dennell) के अनुसार, प्रभावी निर्देशन के निम्नलिखित 11 सिद्धान्त हैं-

  1. उद्देश्यों की प्राप्ति में व्यक्तिगत सहयोग का सिद्धान्त (Principle of Individual Contribution to Objective) – प्रबन्धकों को यह प्रयत्न करना चाहिए कि उनके अधीनस्थ कर्मचारी सर्वोत्तम कुशलता से कार्य कर सकें।
  2. उद्देश्य की मधुरता का सिद्धान्त (Principle of Harmony of Objectives) – प्रबन्धकों को प्रत्येक कर्मचारी के प्रति मधुर सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए ताकि संभावित संघर्ष को रोका जा सके।
  3. आदेश की एकता का सिद्धान्त (Principle of Unity of Command) – व्यावसायिक संगठन के अन्दर अधीनस्थ केवल एक ही स्रोत के प्रति उत्तरदायी हो और एक ही स्रोत से आदेश प्राप्त करे ताकि आदेशों में एकता हो सके।
  4. उचित निर्देशन विधि के चुनने का सिद्धान्त (Principle of Appropriateness of Direction Techniques) – निर्देश देने की विधि अधीनस्थ कर्मचारियों की आवश्यकतानुसार तथा काम की प्रकृति के अनुसार होनी चाहिए।
  5. प्रबन्धकीय संचार व्यवस्था का सिद्धान्त (Principle of Management Communication) – प्रत्येक संस्था में प्रबन्धक ही मख्य रूप से संचार व्यवस्था का मख्य सिद्धान्त होना चाहिए।
  6. सूचना का सिद्धान्त (Principle of Information) – प्रभावी संचार-व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि आवश्यक सूचनाओं का प्रत्यक्ष तथा लगातार आदान-प्रदान होना चाहिए ताकि निर्देशन कार्य सफलतापूर्वक किया जा सके।
  7. नेतृत्व का सिद्धान्त (Principle of Leadership) – प्रभावी निर्देशन कार्य के लिए प्रबन्धक में नेतृत्त्व करने का गुण होना चाहिए।
  8. निर्देशन की कुशलता का सिद्धान्त (Principle of Efficiency of Direction) – प्रभावशाली निर्देशन अपने उद्देश्य को न्यूनतम लागत पर प्राप्त कर सकता है।
  9. प्रत्यक्ष निरीक्षण का सिद्धान्त (Principle of Direct Supervision) – प्रबन्धकों को जहाँ तक सम्भव हो, स्वयं अधीनस्थों के कार्य का निरीक्षण करना चाहिए।
  10. सन्देश ज्ञान का सिद्धान्त (Principle of Comprehension) – यदि दिये गये सन्देश को अधीनस्थ कर्मचारी समझ ही न सके तो अपनाई गई संचार-व्यवस्था बेकार सिद्ध होगी। इसलिए कुशल निर्देशन के लिए उपयुक्त संचार व्यवस्था होनी चाहिए।
  11. अनौपचारिक संगठन के उपयोग का सिद्धान्त (Principle of Strategic Use of Informal Organisation) – प्रबन्धक को कुशल निर्देशन के लिए आवश्यक हो तो कर्मचारियों से अनौपचारिक सम्बन्ध भी बनाने चाहिए। . .

प्रश्न 26.
संदेशवाहन का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
संदेशवाहन (Communication) शब्द लैटिन भाषा के Cummunis शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है Comimon किसी विचार या तथ्य को कुछ व्यक्तियों में सामान्य (Common) बना देना है। इस प्रकार सन्देशवाहन का अर्थ विचारों तथा सूचनाओं को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक इस तरह पहुँचाना है कि वह उन्हें जान सके तथा समझ सके। इस तरह संदेशवाहन एक द्विमार्गीय (Tivo vay) प्रक्रिया है तथा इसके लिए आवश्यक है कि यह सम्बन्धित व्यक्तियों तक उसी अर्थ में पहुँच सके जिस अर्थ में सन्देशवाहनकर्ता ने उन विचारों का हस्तांतरण किया है। इस रूप में यदि हमने कुछ बोला या लिखा है तथा पढ़ने या सुनने वाला उसे प्राप्त नहीं करता या प्राप्त करने पर उससे वह अर्थ नहीं लेता जो उसका वास्तविक अर्थ है, तब इसे संदेशवाहन नहीं कहा जा सकता है।

एक छोटी व्यावसायिक संस्था जिसमें दस बारह कर्मचारी काम करते हैं, संदेशवाहन की समस्या अधिक जटिल नहीं होती, क्योंकि वे एक दूसरे के पास जाकर भी संदेशों को प्राप्त कर सकते हैं और उन पर विचार-विमर्श कर सकते हैं। लेकिन जैसे-जैसे कार्यालय का आकार और संस्था के कर्मचारियों की संख्या बढ़ती जाती है, संदेशवाहन की समस्या अधिक जटिल होती जाती है। प्रबन्ध में इतना महत्त्व रखने वाले इस संदेशवाहन को कुछ समय पहले तक इतना महत्त्व नहीं दिया जाता था। इसे तो प्रबन्धक का एक स्वाभाविक गुण मानकर छोड़ देते थे। लेकिन जब एक ही कार्यालय की अनेक उपशाखाएँ होती हैं और प्रत्येक शाखा के अनेक विभाग होते हैं और प्रत्येक विभाग में अनेक कर्मचारी काम करते हैं, वहाँ यह समस्या उग्र रूप धारण कर लेती है।

परिभाषाएँ (Definitions) – प्रसिद्ध प्रबन्ध विद्वानों द्वारा संदेशवाहन की निम्नलिखित परिभाषाएँ दी गई हैं-

  1. हडसन (Hudson) के अनुसार, “सम्प्रेषण का अर्थ संदेश को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाना है।”
  2. न्यूमैन व समर (Newman and Summer) के शब्दों में, “संदेशवाहन दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच तथ्यों, विचारों, राय एवं भावनाओं का आदान-प्रदान है।”

प्रश्न 27.
स्थायी एवं कार्यशील पूँजी में अन्तर बतायें।
उत्तर:
स्थायी एवं कार्यशील पूँजी में निम्नलिखित अन्तर है-
Bihar Board 12th Business Studies Important Questions Short Answer Type Part 3, 2

प्रश्न 28.
किन्हीं चार अमौद्रिक प्रेरणाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
अमौद्रिक प्रेरणाएँ वे हैं, जिनका मुद्रा (रूपा पैसा) से कोई संबंध नहीं होता है। ये सामाजिक, सम्मान व आत्म-प्राप्ति आवश्यकताओं को संतुष्ट करने में सहायक होती है। इनमें मुख्यतः निम्न को सम्मिलित किया जाता है।

  • पद।
  • संगठनात्मक वातावरण।
  • कैदिया बढ़ोत्तरी अवसर
  • कार्य-सम्पन्नता।
  • क्रियाओं की विभिन्न श्रेणियों का पारस्परिक गठबंधन।।
  • क्रियाओं का उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक साधनों की वृद्धि से श्रेणीबद्ध करना, जिससे कि साधनों का अधिकतम उपयोग हो सके।

प्रश्न 29.
पूँजी बाजार के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
पूँजी बाजार केवल एक देश तक ही सीमित नहीं होता वरन् यह समस्त विश्व में व्याप्त होता है। दीर्घकालीन वित्त बड़े पैमाने पर व्यावसायिक संस्थाओं की प्राथमिक आवश्यकता होती है। प्रत्येक अर्थ-व्यवस्था की उन्नति, विकास एवं खुशहाली के लिए स्वस्थ पूँजी बाजार की आवश्यकता रहती है। पूँजी बाजार का महत्त्व निम्न कारणों में है-

(i) देश के औद्योगिक विकास में सहायक (It helps in Industrial Development) – उद्योगों को दीर्घकालीन पूँजी उपलब्ध कराकर पूँजी बाजार देश के औद्योगिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनके माध्यम से पुरानी संस्थाओं का विस्तार होता है एवं नये-नये उद्योग स्थापित होते हैं।

(ii) पूँजी निर्माण में वृद्धि (Increase in Capital Formation) – यह बचत एवं निवेश दोनों को प्रेरित करते हैं तथा वित्तीय संसाधनों के उपयोग को संवद्धित करता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह देश में पूँजी निर्माण (Capital Formation) का कार्य करता है।

(iii) पूँजी बाजार विदेशी निवेश को आकर्षित करता है (It attracts Foreign Investment) – पूँजी बाजार विदेश निवेश को आकर्षित करने में सहायक है। यह एक माध्यम प्रदान करता है। जिसके माध्यम से अप्रवासी भारतीय एवं विदेशी संस्थागत निवेशक भारतीय कम्पनियों की प्रतिभूतियों में अपनी निधि का निवेश कर सकते हैं।

(iv) प्रतिभूतियों को बदलना (Conversion is Securities) – पूँजी बाजार में मुद्रा को प्रतिभूतियों में एवं प्रतिभूतियों को मुद्रा में बदला जाता है। यहाँ व्यक्ति अपनी बचत को प्रतिभूतियों में निवेश कर सकते हैं और अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं। धन की आवश्यकता पड़ने पर वे इन्हें बेच सकते हैं।

(v) प्रतिभूतियों में तरलता (Liquidity in Sccurities) – पूँजी बाजार गौण बाजार की सहायता से प्रतिभूतियों में तरलता उत्पन्न करता है। इसका प्रभाव यह होता है कि जरूरत पड़ने पर प्रतिभूतियों को आसानी से बेचा जा सकता है।

(vi) अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य (Some Important Facts) – (अ) पूँजी बाजार औद्योगिक संगठनों, वित्तीय संस्थाओं, ट्रस्टों और सरकार को घरेलू एवं विदेशी निवेशकों से दीर्घ अवधि के लिए कोषों को जुटाने में सहायता करता है; (ब) यह व्यक्तियों एवं समाज की निष्क्रिय पड़ी बचत राशि को संघटित करके उत्पादक कार्यों में लगाता है एवं (स) विनियोगी के विविध विकल्प उपलब्ध होने के कारण विनियोजक अपनी इच्छानुसार अपने धन का निवेश कर सकते हैं।

प्रश्न 30.
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड के कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) निम्न तीन प्रकार के कार्य करता है-
I. सुरक्षात्मक कार्य (Protective Functions)-
SEBI प्रतिभूति बाजार में धोखाधड़ी एवं अनुचित कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाती है। अनुचित व्यापारिक कार्यों में निम्न को सम्मिलित किया जाता है-

  • प्रतिभूति के बाजार मूल्यों में वृद्धि अथवा कमी के एकमात्र उद्देश्य के लिए हेराफेरी करना;
  • ऐसे झूठे कथन जिससे किसी भी व्यक्ति को प्रतिभूति के क्रय-विक्रय के लिए उकसाया जा सके;
  • SEBI ने अंशों के भीतरी व्यापार (Insider Trading) पर रोक लगा रखी है। आन्तरिक व्यक्ति वह होता है जो कम्पनी से जुड़ा होता है जैसे-निर्देशक, प्रवर्तक आदि;
  • SEBI निवेशकों को शिक्षित करने के लिए कदम उठाती है (To Educate Investors): एवं
  • SEBI प्रतिभूति बाजार में उचित कार्यों (Fair Practices) एवं आचार संहिता (Codc of Conduct) को बढ़ावा देती है।

II. विकास सम्बन्धी कार्य (Development Functions)-
1. SEBI प्रतिभूति बाजार के मध्यस्थों के प्रशिक्षण में प्रोत्साहन देती है;
2. SEBI प्रतिभूति बाजार में मध्यस्थों के प्रशिक्षण का प्रवर्तन करती है। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

  • SEBI ने पंजीकृत अंश दलालों के माध्यम से इन्टरनेट व्यापार की छूट दी है;
  • निर्गमन लागत में कमी करने की दृष्टि से सेबी ने अभिगोपन (Underwriting) को स्वैच्छिक बना दिया है; एवं
  • SEBI ने उस प्रणाली को स्वीकार कर लिया है जिसमें IPOs के विपणन के लिए स्कन्ध विपणि का उपयोग किया जा सकता है।

3. निवेशकों को शिक्षा प्रदान करना;
4. स्वतः संचालित संगठनों को प्रोत्साहित करना:
5 शोध कार्य करना:
6 प्रतिभति बाजार से सम्बन्धि व्यवहारों पर रोक लगाना; एवं
7. पूँजी बाजार के सभी पक्षकारों की सुविधा के लिए विभिन्न सूचनाओं को प्रकाशित करना।

III. नियन्त्रण/संचालन सम्बन्धी कार्य (Regulatory Functions) –
SEBI के संचालन सम्बन्धी कार्य निम्न हैं-

  • अंश बाजार में किए जाने वाले व्यवसाय का संचालन करना;
  • ब्रोकर, उप-ब्रोकर, हस्तान्तरण एजेण्ट, मर्जेन्ट बैंक आदि के कार्यों को पंजीकृत करना;
  • म्यूचुअल फण्डों का पंजीकरण एवं नियमन करना;
  • कम्पनियों के अधिग्रहण का नियमन करनाः
  • स्कन्ध विपणि के सम्बन्ध में छानबीन करना एवं उनका अंकेक्षण करना;
  • क्रेडिट रेटिंग एजेन्सी का पंजीकरण एवं संचालन करना;
  • वेंचर कैपिटल फण्ड का पंजीकरण एवं संचालन करना; एवं
  • प्रतिभूतियों में आन्तरिक ट्रेडिंग को रोकना।

पूँजी बाजार के नियमन एवं स्वस्थ पूँजी बाजार की स्थापना हेतु विगत वर्षों में सेबी (SEBI) ने अनेक कदम उठाए हैं-

  • शेयरों के मूल्य एवं प्रीमियमों का निर्धारण किया है।
  • व्यावसायिक बैंकों में ‘स्टॉक इन्वेस्ट’ योजना लागू करवाई है।
  • अण्डर राइटर्स नियमों को नियमित किया है तथा सम्बन्धित व्यक्तियों/संस्थाओं को चेतावनी दी है कि निर्गम के गैर-अभिदत्त (Unsubscribed) भाग की खरीद में किसी प्रकार की अनियमितता किये जाने पर उनका पंजीकरण निरस्त कर दिया जाएगा।
  • म्युचुअल फण्डों का नियमन किया है, एवं
  • विदेशी संस्थागत निवेशकों पर नियन्त्रण लगाया है।

प्रश्न 31.
ब्राण्ड तथा ट्रेडमार्क में अंतर बतायें।
उत्तर:
ब्राण्ड तथा ट्रेडमार्क में निम्न अंतर पाया जाता है-

  • पूंजीकरण (Registration) – ब्राण्ड एक शब्द, नाम, चिह्न, डिजाइन या इनके सहयोग से बना हुआ एक सम्मिश्रण है लेकिन जब इसी शब्द, नाम, चिह्न डिजाइन या सम्मिश्रण का कानून के अंतर्गत पंजीकरण करा लिया जाता है तो वह ट्रेडमार्क बन जाता है।
  • नकल (Copy) – ब्राण्ड की नकल अन्य प्रतियोगी संस्थाओं के द्वारा की जा सकती है जिसके परिणामस्वरूप उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाई नहीं की जा सकती है लेकिन ट्रेडमार्क की नकल करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई की जा सकती है तथा उनसे हर्जाना भी वसूल किया जा सकता है।
  • क्षेत्र (Scope) – ब्राण्ड शब्द का क्षेत्र सीमित है जबकि ट्रेडमार्क का विस्तृत है। ट्रेडमार्क में ब्राण्ड शामिल है। पहले ब्राण्ड तय करते हैं तब फिर उसका पंजीकरण कराकर उसी को ट्रेडमार्क कहने लगते हैं।
  • उपयोग (Use) – एक ट्रेडमार्क का उपयोग केवल एक ही निर्माता या विक्रेता कर सकता है। उसी को उपयोग करने का कानूनी अधिकार प्राप्त होता है लेकिन एक ब्राण्ड का उपयोग कई निर्माता या विक्रेता कर सकते हैं।

प्रश्न 32.
संवर्द्धन के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सामान्यतः संवर्द्धन के उद्देश्यों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत सरल ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है-
1. सूचना देना (To Inform) – संवर्द्धन क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य सूचना देना है। ऐसी सूचना सम्भावित ग्राहकों को दी जाती हैं। इस प्रकार की सूचना में वस्तु की उपलब्धता, प्राप्ति स्थान, मूल्य व कुछ मुख्य विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है।

2. याद दिलाना (To Remind) – यह उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में केवल सूचना देना ही पर्याप्त नहीं है। बाजार में प्रतिस्पर्धी उत्पादों की भरमार है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि उपभोक्ताओं को वस्तु या उत्पाद के सम्बन्ध में बार-बार याद दिलायी जायें जिससे उपभोक्ता प्रतिस्पर्धी उत्पादों की ओर न झकने पायें।

3. तैयार करना (To Persuade) – संवर्द्धन का उद्देश्य क्रेताओं को राजी करना या तैयार करना है। यह कार्य आसान नहीं हैं। जब क्रेताओं को बार-बार सूचना दी जाती है और याद दिलायी जाती है तो वे उत्पाद क्रय हेतु तैयार हो जाते हैं।

4. अन्य उद्देश्य (Other Objectives) – (i) ब्राण्ड स्वामिभक्ति अथवा प्राथमिकता का विकास करना; (ii) विक्रय में वृद्धि करना; एवं (iii) प्रतिस्पर्धा उत्पादों के ग्राहकों को अपने उत्पादन की ओर आकर्षिक करना आदि।

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