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 Bihar Board 12th Hindi 50 Marks पद्य खण्ड Important Questions Long Answer Type

Bihar Board 12th Hindi 50 Marks पद्य खण्ड Important Questions Long Answer Type

प्रश्न 1.
पठित पाठ के आधार पर रहीम के दोहों को अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कविवर रहीम मध्ययुगीन हिन्दी काव्य की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैं। युग के भावों का परम्परा, संस्कार और परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव उनकी रचनाओं में पूर्णतया स्पष्ट है। उनकी नीतियाँ, व्यावहारिकता के उर्वर धरातल पर सहज ही उग आनेवाली हरियाली की है। इस तरह मन को मोहती है। रहीम ने जीवन की सच्चाई को, सच्चे पथ पर-सामाजिक पथ पर चलते रहने के क्रम में जो फूल-काँटे प्राप्त होते हैं, उन्हें पूरी ईमानदारी के साथ व्यक्त कर दिया है।

(1) रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहले वे मरे, जिन मुख निकसत नाहिं॥
रहीम ने इस दोहे में वैसे लोगों की प्रकृति का परिचय दिया है, जो कुछ मांगने के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाने जाते हैं। कवि कह रहा है कि ऐसे लोगों को जिंदा रहते हुए भी मरा हुआ ही समझना चाहिए। लेकिन इनसे भी पहले वे लोग मरे हुए हैं, जो माँगनेवाले को कुछ देने के बदले मुख से नकारात्मक उत्तर देते हैं। कविवर रहीम बड़े प्रसिद्ध दानी थे। इस आदत के कारण उनको अनेक आर्थिक कष्ट झेलने पड़े थे, क्योंकि अपने द्वार से उन्होंने कभी किसी को खाली हाथ लौटने नहीं दिया।

(2) रहिमन, पानी राखिये, बिन पानी सब सून ।
पानी गये न ऊबरें, मोती मानुस चून ।।
यहाँ रहीम कवि ने लोगों से कहा है कि अपना पानी जरूर बनाए रखो, अर्थात् अपनी इज्जत बरकरार रखो, क्योंकि इज्जत ही चली जाएगी, तो शेष क्या रह जाएगा ! दूसरा अर्थ जल से है। पानी का महत्त्व इतना अधिक है कि पानी में ही मोती पाया जाता है, पानी से ही प्यास मिटती है और पानी के अभाव में चूना मर जाता है अर्थात् मोती, मनुष्य और चूना-तीनों बिना पानी के नहीं रह सकते।

(3) धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाइ ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाइ ।।
कवि रहीम कहते हैं कि गंदला पानी भी अधिक साधुवाद का पात्र है जिससे छुद्र जीव (कुत्ते आदि) अपनी प्यास बुझा लेते हैं। किन्तु, समुद्र का जल किस काम का, उसे पीकर कोई भी अपनी प्यास नहीं बुझा सकता है। प्यासा उसके तट से अतृप्त वापस चला जाता है।

(4) रहिमन, राज सराहिये, ससि सम सुखद जो होइ ।
कहा बापुरो भानु हैं, तपै तरैयनि खोइ ।।
रहीम कवि ने यहाँ अच्छे राज्य की तुलना चन्द्रमा से की है। जैसे चन्द्रमा की चाँदनी अत्यन्त ही शीतल एवं लुभावनी होती है, वैसे ही अच्छा राज्य प्रजा के लिए आनन्ददायक होता है। लेकिन जो राज्य अच्छे नहीं हैं, वे उस ताप-तप्त सूर्य की तरह हैं, जो तारागण को नष्टकर तपता रहता है।

(5) ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोई।
बारे उजियारो करै, बढ़े अंधेरो होइ ।।
रहीम कहते हैं कि जो गति दीप की है, वही गति कपूत या सपूत की होती है। यहाँ ‘कपूत’ बुझे दीप का और ‘सपूत’ जलते दीप का प्रतीक है। जलता दीप प्रकाश करता है और बुझ जाने पर अंधेरा बढ़ाता है। संतान यदि ‘सपूत’ हुई, तब तो घर में उजियारा-ही-उजियारा छा जाता है, अन्यथा संतान के ‘कपूत’ होने पर छाया हुआ उजाला भी अन्धेरे में बदल जाता है।

(6) माँगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बड़ काम ।
तीन पैर बसुधा करी, तऊ बावनै नाम ।।
कवि रहीम कहते हैं कि मांगने या याचना करने से अपनी मर्यादा को हानि ही पहुँचती है, आदमी दूसरों की नजर में गिरने लगता है। बाद में कितना भी बड़ा काम कीजिए, पद की मर्यादा फिर प्राप्त नहीं की जा सकती। विष्णु भगवान ने वामन का अवतार धारण कर तीन ही पग में सारी पृथ्वी नाप ली थी, फिर भी उनका नाम वामन ही कहलाया।

(7) रहिमन, निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय ।
सुन अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय ॥
रहीम कवि कहते हैं, अपना दुःख अपने मन में ही धारण कर संतोष से रहना चाहिए। कोई किसी का दुःख बाँट नहीं लेता, उल्टे खिल्ली उड़ाता है। इसलिए धैर्य का महत्त्व कुछ कम नहीं है। अतः अपनी व्यथा दूसरों के सामने व्यक्त नहीं करनी चाहिए। …

(8) जो रहीम ओछौ बढ़े, तो अति ही इतराइ।
प्यादा सों फरजी भयो, टेढो-टेढो जाइ।।
रहीम कवि अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि ओछे की जब बढ़ोत्तरी होती है, तो वह इतराने लगता है, पर यह ठीक नहीं। उदाहरण के रूप में, ‘प्यादा’ जब ‘फरजी’ हो जाता है तो वह अपने को बड़ा मानकर सीधे नहीं चलता यानी उसकी चाल शतरंज के खेल में मोहरों की तरह ही टेढ़ी हो जाती है।

प्रश्न 2.
जीवन-संदेश शीर्षक कविता का भारांश लिखिए।
उत्तर:
जीवन-संदेश में कर्मण्यता का उपदेश देते हुए कवि कहता है कि यह संसार हमारी कर्म-स्थली है। यहाँ सभी को अपने कर्तव्य का निर्वाह करना पड़ता है। संसार में जितने भी जड़-चेतन और स्थावर पदार्थ हैं सभी अपने-अपने काम में लगे हुए हैं। इस संसार के प्रत्येक प्राणी के जीवन का एक निश्चित उद्देश्य है जिसकी पूर्ति के लिए वह जीवन-भर प्रयत्न करता है। उदाहरणस्वरूप, वृक्ष की पत्तियाँ छाते की भांति वृक्ष के चारों ओर छाई रहती हैं, जिन्दगी भर धूप सहती है और इस प्रकार कष्ट सहकर भी अपने उद्देश्य को पूरा करती रहती है। समुद्र-रूपी पक्षी लहर-रूपी पंखों को फैलाकर घरती रूपी अंडे की रक्षा प्रतिपल करता रहता है। इसी भांति, शीतल सुगन्धित हवा प्रतिदिन घर-घर में जाकर नयी सुगन्ध बिखेर आती है। उधर असमान में बादल प्रतिदिन जन्म-ग्रहण करते हैं और धान के खेतों को सींचने के लिए अपने को मिटा देते हैं। इस प्रकार संसार के प्रत्येक प्राणी का एक ही महान उद्देश्य है-सेवा।

इस संसार में सभी जीव अपने-अपने काम में लगे हुए हैं। सूर्य इस संसार को जीवन प्रदान करता है और चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। इस संसार में कोई भी आलसी बनकर बैठा हुआ नहीं है। तुच्छ घास के जीवन का भी कोई-न-कोई उद्देश्य है और उसी उद्देश्य की पूर्ति में वह अपने कर्त्तव्य में लगी रहती हुई अपने जीवन का अन्त कर देती है।

कवि कहता है कि तुम मनुष्य हो, तुममें अपार बुद्धि तथा बल है। क्या तुम्हारा यह जीवन संसार में उद्देश्यरहित है, क्या तुमने अपने जीवन के सारे कर्त्तव्य समाप्त कर लिए?

कवि कहता है-जिस धरती पर पेट रूपी खोह से निकल कर तुमने जन्म लिया है, जिस धरती का अन्न खाकर तथा अमृत रूपी जल पीकर तुम बड़े हुए हो, जिस पर खेले-कूदे तथा घर बसाकर सुख प्राप्त किया है, जिसका रूप-सौन्दर्य निहार कर तुमने अपने मन, आँखों तथा प्राणों को जुड़ाया है, क्या उस धरती माता के प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं है ?

माता के सदृश पृथ्वी स्नेह की मूर्ति और दयालु है। क्या उसके प्रति तुम्हारा कुछ भी कर्तव्य बाकी नहीं रहा है ? जिन्होंने सबसे पहले तुम्हें चलना सिखाया और भाषा का ज्ञान देकर हृदय की भावनाओं का मूर्त रूप दिखाने में मदद की, क्या उनके प्रति तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं है।

कवि कहता है-जिनकी कठिन कमाई का फल खाकर तुम बड़े हुए हो और बाधाओं में भी इस विशाल शरीर के साथ निर्भय खड़े हो, जिनके बनाये हुए वस्त्रों से तुमने अपना शरीर ढंका है और सर्दी-गर्मी-वर्षा से अपने शरीर को पीड़ित होने से बचाया है, क्या उनका कुछ भी उपकार तुम पर नहीं है ? उनके प्रति क्या तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं है ? तुम कायर के समान उन्हें दुःख की अग्नि में जलते हुए छोड़कर निर्जन वन में भाग आये हो।

तुम उनके दुःखों को सुनकर केवल विचलित होते हो किन्तु उनके दुःखों को दूर करने का प्रयास नहीं करते। यह मनुष्य जाति के लिए घोर निन्दा तथा लज्जा का विषय है। तुम शुद्ध प्रेम के मर्म तथा उसकी महिमा से परिचित हो किन्तु प्रेम-पीड़ा से तुम्हारा चित्त क्या व्याकुल नहीं होता?

प्रश्न 3.
‘जीवन-संदेश’ शीर्थक कविता का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रस्तुत कविता ‘जीवन का संदेश’ ‘पथिक’ खण्डकाव्य के द्वितीय सर्ग से उद्धृत अंश है। यहाँ कवि कर्मण्यता का उपदेश देते हुए कहता है कि यह संसार हमारी कर्म-स्थली है। यहाँ सभी को अपने कर्तव्य का निर्वाह करना पड़ता है। संसार में जितने भी जड़-चेतन और स्थावर पदार्थ हैं सभी अपने-अपने काम में लगे हुए हैं। इस संसार के प्रत्येक प्राणी के जीवन का एक निश्चित उद्देश्य है जिसकी पूर्ति के लिए वह जीवन-भर प्रयत्न करता है। उदाहरणस्वरूप, वृक्ष की पत्तियाँ छाते की भाँति वृक्ष के चारों ओर छाई रहती हैं, जिन्दगी भर धूप सहती हैं और इस प्रकार कष्ट सहकर भी अपने उद्देश्य को पूरा करती रहती हैं। समुद्र-रूपी पक्षी लहर-रूपी पंखों को फैलाकर धरती की रक्षा प्रतिपल करता रहता है। इसी भाँति, शीतल, सुगन्धित हवा प्रतिदिन घर-घर में जाकर नयी सुगन्ध बिखेर जाती है। उधर आसमान में बादल प्रतिदिन जन्म-ग्रहण करते हैं और धान के खेतों को सींचने के लिए अपने को मिटा देते हैं। इस प्रकार संसार के प्रत्येक प्राणी का एक महान उद्देश्य है-सेवा।

आगे की पंक्ति में कवि कहता है कि इस संसार में सभी अपने-अपने काम में लगे हुए हैं। सूर्य इस संसार को शोभा प्रदान करता है और चन्द्रमा अमृत की वर्षा करता है। इस संसार में कोई भी आलसी बनकर बैठा हुआ नहीं है। तुच्छ घास के जीवन का भी कोई-न-कोई उद्देश्य है और उसी उद्देश्य की पूर्ति में वह अपने कर्त्तव्यमय जीवन का अन्त कर देती है।

यह पृथ्वी माता के सदृश स्नेह की मूर्ति और दयालु है। कवि पूछता है कि क्या उसके प्रति तुम्हारा कुछ भी कर्तव्य नहीं है? तुम्हारे परिवारवालों ने तुम्हें चलना सिखाया और भाषा का ज्ञान देकर हृदय की भावनाओं को मूर्त रूप दिखाने में मदद की। क्या उनके प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं ? तुम्हें तो केवल अपनी ही चिन्ता है। तभी तो मस्ती में एकांत गीत गाते हो। तुम अकेले खाते-पीते और हँसते हुए मौज कर रहे हो। संसार से दूर रहकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना ही तुमने अपनी कीर्ति का रूप समझ लिया है। परन्तु तुम्हीं सोचो कि इस संसार में तुम्हारे समान कौन-सा व्यक्ति स्वार्थ के वशीभूत है?

चूँकि मनुष्य पशु से महान है इसलिए उसे स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ की बात सोचनी चाहिए। उसे राष्ट्रप्रेम, मातृभूमि, समाज, स्वजन आदि के कल्याणार्थ अपने आपको होम कर देना चाहिए। जो पुरुष समाज के कल्याणार्थ अपने पौरुष, साहस तथा अन्य सद्गुणों का प्रयोग करता है वही पुरुषोत्तम कहलाता है।

मनुष्य पर सबसे पहला अधिकार उस देश का है जिसकी रज में लोटकर, अन्न-जल खाकर बड़ा हुआ है। दूसरा अधिकार उस जाति का है जिसने उसे संस्कार दिये हैं, सभ्यता दी है। प्रत्येक राष्ट्र तथा जाति अपने प्रत्येक नागरिक से यह उम्मीद रखती है कि संकट के समय वह उसे मदद करे। अतः प्रत्येक मनुष्य का यह पावन कर्त्तव्य है कि वह अपने राष्ट्र और जाति के ऋण से उऋण हो।

इस प्रकार प्रस्तुत कविता उपदेशों से भरपूर है। इसमें मुख्यतः कर्मण्यता का उपदेश दिया गया है। सृष्टि का कोई भी प्राणी निश्चेष्ट और निष्क्रिय नहीं है। सबके अपने निश्चित उद्देश्य हैं। अतः मनुष्य को भी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सदा-सर्वदा कर्मरत रहना चाहिए। दूसरे, इसमें पलायनवादिता का विरोध किया गया है। यह ठीक है कि यह संसार दुःखों का कारागार है। किन्तु सांसारिक दुःखों से घबड़ाकर जो जंगल की शरण लेता है, वह स्वार्थी है। प्रत्येक व्यक्ति को ‘निःस्वार्थ प्रेम की जग में ज्योति जलाओ’ का उपदेश दिया गया है। तीसरे, कविता का संदेश है कि समाज-सेवा, देश-प्रेम का प्रथम सोपान है।

हमें अपने देश तथा समाज के कल्याणार्थ सर्वदा तत्पर रहना चाहिए, इससे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। यही हमारा पुनीत कर्तव्य है। हमें अपना दृष्टिकोण व्यापक बनाना चाहिए। हमें सबों से प्रेम-भाव रखना चाहिए। जाति, धर्म अथवा रंग के आधार पर भेद-भाव रखना हमारी भूल है। अन्त में कवि कहता है कि यह संसार ईश्वर की लीला-भूमि है। जो व्यक्ति सृष्टि के कण-कण में ईश्वर की झांकी पाता है, वही महामानव है।

प्रश्न 4.
सुमित्रानन्दन पंत की कविता ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ का सारांश लिखिए।
उत्तर:
प्रस्तुत कविता में कवि ने भारतमाता का चित्र उपस्थित किया है। प्रस्तुत कविता का रचना-काल स्वतंत्रता के पूर्व का है। कवि ने भारत की दीन-हीन दशा का चित्र प्रस्तुत किया है।

भारत (भूमि) माता ग्रामवासिनी है। भारत एक कृषि-प्रधान देश है। हमारी माता का आँचल धूलों-भरा मैला आँचलं है। चूंकि यह किसानों का देश है, हमारी माँ एक गरीबिनी माता है। गंगा और यमुना मानों इसी गरीबिनी माँ के अश्रु-रूप हैं। इसीलिए यह मिट्टी की प्रतिमा अपने . मटमैले. रूपों में आज और भी उदास हो गयी है। इसकी नीची निगाहें इसकी चिंता की सूचना दे रही हैं और लगता है, जैसे अभी-अभी रोते-रोते चुप हुई है। युगीन गतिविधियाँ मन का झकझोर विषण्ण कर चुकी हैं, व्यक्ति-व्यक्ति मुमूर्ष हो चुका है। लगता है, माता अपने में ही प्रवासिनी-सी हो गई हैं। इसकी तीस कोटि संतानें निर्वस्त्र हैं, भूखी हैं; अत्याचारों के प्रभाव में दमित, शोषित हैं। दयनीयता यहाँ तक आ पहुंची है कि सभी निर्वस्त्र हो गए हैं। इसकी संतानों की यह स्थितिगत मार्मिकता-निर्धनता, अशिक्षा, असभ्यता और मूढ़ता देखकर भारत माता स्वयं किसी पेड़ की छाया में निवास करने लगी है।

इस माता के पास आभूषण के रूप में धान के पौधे हैं, लेकिन, ये भी दूसरों के अधीन हैं, अर्पित है। परवश हुई यह अपनी वस्तु का भी उपयोग नहीं कर पा रही है, बिल्कुल कुंठाग्रस्त हो चुकी है। बाधा-विपदाओं की सहिष्णु-शक्ति भी आज किसी काम नहीं आ सकी। शोषण, अत्याचार के आगे यह मौन है। शरद के चंद्र को ज्यों, राहु ने ग्रस लिया है। यह कंल-कपित है, मुख से बोल नहीं फूट रहे।

किन्तु, आज बहुत दिनों के बाद उसका सारा तप-त्याग अचानक सफल होने लगा है। वह अपने स्तन का अहिंसामय अमृत अपनी संतानों को पिलाने लगी है। इससे जगत का भय विनष्ट होने लगा है, मन-मानस हर्षित होने लगा है, संसार का भ्रमरूपी अज्ञानांधकार मिटने लगा है और एक विकास-स्थिति निखर आयी है। गांधीजी के सत्य-अहिंसा व्रत की ओर कवि यहाँ आस्थामय है।

प्रश्न 5.
“हिमालय का संदेश’-शीर्षक कविता का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
अथवा, “हिमालय का संदेश’-कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर:
हिमालय का संदेश’- राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ लिखित राष्ट्रीय भाव की कविताओं का सर्वोपरि है। इस कविता के माध्यम से कवि ने राष्ट्रीयता और राष्ट्रप्रेम की सही व्याख्या की है। राष्ट्र के रूप में भारत की चेतना और संवेदना से साक्षात्कार कराया है।

भारत मात्र भोगोलिक सत्ता नहीं है, बल्कि उसका वास्तविक स्वरूप प्रेम, ऐक्य और त्याग में है। कवि स्पष्ट घोषणा करते हैं।
मानचित्र पर जो मिलता है। नहीं देश भारत है।

अभिप्राय यह कि विश्व के मानचित्र पर त्रिभुज की आकृति में त्रिभुज की आकृति में जो देश मिलता है, वह भारत नहीं है। भारत भौगोलिक विस्तार मात्र नहीं है। भारत धरती पर नहीं बल्कि लोगों के मन में है। स्वयं दिनकर जी एक स्थान पर कहते हैं-
भारत नहीं स्थान का वाचक गण विशेष भर का है।

अर्थात् श्रेष्ठ मानवीय गुणों का नाम भारत है। भारत एक स्वप्न है, एक विचार है एक भाव है, एक कल्पना है। भारत उस विचार का नाम है। जो पृथ्वी को स्वर्ग बना दे। भारत उस कमल के समान है। जिसपर जल का दाग नहीं लगता है। अभिप्राय यह कि भारत की संस्कृति अप्रभावी है। भारत अपना वास्तविक स्वरूप अक्षुण्ण रखने में सक्षम है। भारत मनुष्य की आया है
अर्थात् बौद्धिक ज्ञान का नाम भारत है। कवि कहते हैं-
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है, देश-देश में खड़ा वहाँ भारत जीवित भास्वर है।
संसार में जहाँ कहीं एकता है, प्रेम है, सहयोग और सद्भाव है, वहाँ भारत है। जहाँ भारत है, वहाँ जीवन-साधना भ्रम में नहीं है।

अभिप्राय यह कि भारत एक संस्कृति है, भूखंड नहीं। भारतीय संस्कृति उस संगम की तरह है। जहाँ अनेक सरिताएँ आकर मिलती हैं। भारत की संस्कृति समन्वयवादी है। अनेक विचार और संस्कृति इसमें समाहित है।

लेकिन आज भारत में कहीं भारत नहीं है। भारत का अर्थ है। भा = भाव, र = रस, त = ताल ।

लेकिन आज भारत का अर्थ है-
भा = भ्रष्टाचार
र = रिश्वत
त= तिकड़म।

निश्चय ही आज भारत में भारत नहीं है-
तभी तो कवि कहते हैंवृथा, मत लो भारत का नाम।
हिमालय भारत का संरक्षक है। अतः कवि हिमालय के माध्यम से भारत के वास्तविक स्वरूप की अभिव्यंजना करते हैं। राष्ट्र और राष्ट्रीयता का साक्षात्कार यह कविता करती है।

प्रश्न 6.
सुन्दर का ध्यान कहीं सुन्दर-
शीर्षक कविता का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
अथवा, “सुन्दर का ध्यान, कहीं सुन्दर”-शीर्षक कविता का सारांश लिखिए।
अथवा, श्री गोपाल सिंह नेपाली द्वारा रचित कविता “सुन्दर का ध्यान कहीं सुन्दर” का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
श्री गोपाल ‘सिंह’ नेपाली उत्तर-छायावाद काल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि-गीतकार थे। इनकी रचनाओं में स्वाधीनता, समानता और लोकतांत्रिक मूल्यों की अभिर्व्यजना है।

‘सुन्दर का ध्यान कहीं सुन्दर’-शीर्षक गीत में कवि ने मानवीय प्रेम और सौन्दर्य की महता पर प्रकाश डाला है। किसी प्रियजन के हँसता-मुस्कुराता चेहरा प्रकृति के विभिन्न दृश्यों से उत्तम है। संसार में ज्ञान की बड़ी महिमा है, लेकिन प्रेमी-युगल का प्रेम अधिक सुखद है। आकाश में गरजते मेघ की अपेक्षा बुल बुल का ज्ञान अधिक सुन्दर है। यह संसार विशाल महासागर की तरह है। मानव सागर के जल सतह पर तैरते छोटे जलयान की तरह है। सागर की ऊंची-ऊँची लहरों की अपेक्षा जल-सतह पर तैरते छोटे जलयान अधिक सुन्दर दिखते हैं। सागर की ऊंची लहरें प्राकृतिक घटा है तो चंचल जलयान मानवीय छटा है।

परमात्मा सौन्दर्य का श्रोत है, लेकिन वह मानवीय भावनाओं के प्रति मौन रहता है। कवि कहते हैं-
तू सुन्दर है पर तू न कभी,
देता प्रति-उत्तर ममता का।

ईश्वर से प्रेम-भाव का आदान-प्रदान नहीं होता। दो प्रेमी-युगल अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। कवि कहते हैं-
देवालय का देवतामौन, पर मन का देव मधुर बोले।

मन्दिरों के देवता मौन होते हैं, पर प्रेमी बातचीत करते हैं। अभिप्राय यह कि ईश्वरीय प्रेम की अपेक्षा मानवीय प्रेम से व्यक्ति को अधिक संतुष्टि प्राप्त होता है। कवि का अभिप्राय यह है कि प्राकृतिक दृश्य यद्यपि मनोरम है तथापि मानवीय सौन्दर्य सर्वापरि है। तभी तो कवि कहते हैं-
दुनिया देखी पर कुछ न मिला,
तुझको देखा सब कुछ पाया।

इस गीत में मानवीय सौन्दर्य और प्रेम-भावना को सर्वोपरि घोषित किया है। तेरी मुस्कान कही सुन्दर-एक टेक पद है, जिसे प्रत्येक दो पंक्तियों के बाद दुहराया गया है। गीतों में टेक पद लय के लिए अनिवार्य होता है। भाव और शिल्प दोनों दृष्टि से यह गीत श्रेष्ठ है।

प्रश्न 7.
‘जीवन का झरना’ कविता का भावार्थ लिखिए।
उत्तर:
आरसी प्रसाद सिंह बिहार के तरूण कवियों के आरसी है। उनकी प्रतिभा ने कितने ही काव्य सितारों का मार्ग-निर्देशन कर गन्तव्य स्थान तक पहुंचाने में सहायता पहुंचायी है। वे निरी कल्पना-कुंजों में विहार करने वाले जीवन की वास्तविकता से दूर के कवि नहीं है, बल्कि उनका आधार मानव-जीवन का ठोस धरातल है। उन्होंने जीवन को द्रष्य की भांति दूर से नहीं देखा है इसलिए इनकी कविता में जीवन का ठोस रूप उपस्थित हुआ है। आरसी जीवन-सरिता के किनारे दूंठ की तरह होकर देखने वाले कवि नहीं है बल्कि वह धारा में सतत प्रवमान है जो किसी डूबते के लिए तिनके का सहारा हो सकता है।

झरने की अजस्व गतिशीलता को देखकर कवि को मानव-जीवन की याद आती है, इसलिए झरना उसका प्रतीक बन गया है। सुख-दुःख के दोनों तीरों के बीच मर्यादित झरना अपनी मस्त चाल में बहता हुआ मानव-जीवन को संदेश देता जाता है। उसे क्या पता कि मार्ग में अनेक कठिनाईयाँ आने वाली है, बाधाओं से उसे लड़ना है तथा बड़े-बड़े चट्टान रास्ता रोककर खड़े हैं पर वह अपनी मनमानी चाल में अल्हड़ की तरह बहता जायेगा। उसमें इतना उत्साह है कि कठिनाइयाँ उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। वह उन्हें ठुकराता आगे बढ़ता जायेगा। यही उसका जीवन है जो बाधाओं से लड़-लड़ कर बीतता है।

मनुष्य को भी इससे प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। जीवन में कठिनाइयों से जूझने वालों को ही विजय-लक्ष्मी वरण करती हैं। सुख-दुःख तो जीवन-रथ के दो चक्र हैं जो दुःख से घबड़ाकर चलना बंद कर देगा, बाधाओं को देखकर पीछे हटेगा, वह जीवन में कभी भी सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है। क्योंकि जीवन गतिशीलता का नाम है, अगति तो मृत्यु है।

कवि कहता है कि जो वीर हैं, वे समय की प्रतीक्षा नहीं करते बल्कि समय ही उनसे अपेक्षा · रखता है। कठिनाइयों से घबड़ाने वाले तरंगायित सागर की छाती पर किश्ती खेने का मजा कहाँ ले पाते हैं। जबतक अनुकूल परिस्थिति की आकांक्षा रखते हैं तबतक वह परिस्थिति ही बदल जाती है। अनुकूल हवा देखकर पाल तानने वाले नाविक चतुर भले ही कहे जायें लेकिन समय उनकी प्रतीक्षा नहीं कर सकता है। ऐसे लोगों को पश्चाताप करना पड़ता है। दूसरी ओर जो वीर हैं, साहसी हैं, जिनमें यौवन की तरंग हैं, वे भला इन छोटी-छोटी लहरों को क्या चिन्ता करेंगे। ‘कठिनाइयों के काँटे’ पर चढ़ने वाले युवक अपने लक्ष्य पर बढ़ते ही जाते हैं।

मनुष्य का जीवन भी सुख-दुःख के बीच अनेक बाधाओं को पार करता हुआ बहता जाता है। मार्ग में कठिनाइयाँ आती है। लेकिन सफलता उसी को मिलती है जो झरने की भाँति बाधाओं को ठुकराता हुआ आगे बढ़ जाता है। जो तट पर बैठे हुए नाविक की भांति लहरों के शांत होने की प्रतीक्षा करता है, वह जीवन की बाजी पहले ही हार बैठता है। झरने में उत्साह है, वह बाधाओं पर मुस्काता चलता है जीवन में भी यौवन है। जो ललकार कर कहता है-‘बढ़े चलों, सोचो मत, होगा क्या चलकर’-कवि का भाव इन पंक्तियों में स्पष्टतः व्यक्त हुआ है-
“चलना है केवल चलना है, जीवन चलता ही रहता है।
मर जाना है रुक जाना है, निर्झर यह झर कर कहता है।”

जो संग्राम में हारकर हताश हो चुके हैं, जिनकी आशाएँ मिट चुकी हैं, सपने साकार होने को नहीं हैं, यदि वे भी इस कविता को हृदयंगम करें तो सूखी नसों में तरल रक्त प्रवाहित होने लगेगा, नई स्फूर्ति आ जायेगी।

प्रश्न 8.
श्री आरसी प्रसाद सिंह द्वारा रचित कविता “जीवन का झरना” का सारांश लिखिए।
उत्तर:
कवि आरसी प्रसाद सिंह ने “जीवन का झरना” शीर्षक कविता में हमेशा गतिशील रहने का संदेश दिया है। जीवन उस झरने के समान है जो अपने लक्ष्य तक पहुंचने की लगन लिए पथ की बाधाओं से मुठभेड़ करता बढ़ता ही जाता है गतिं ही जीवन है और स्थिरता मृत्यु। अतः मनुष्य को भी निर्झर के समान गतिमान रहना चाहिए।

जीवन और झरना दोनों का स्वरूप और आचरण एक जैसा ही है। जिस प्रकार झरने के विषय में यह कहना कठिन है कि वह किस पहाड़ के हृदय से कब कहाँ-क्यों फुट पड़ा। यह पहले किसी पतले से सोते के रूप में और फिर एक विशाल झरने के रूप में झरता हुआ समतल पर उतरकर दोनों किनारों के बीच एक विशाल नंदी के रूप में बहने लगा है। इसी प्रकार इस मानव जीवन में सहसा नहीं कहा जा सकता है कि यह ‘मानव जीवन’ कब, कैसे, क्यों प्रारंभ हुआ, कब धरती पर, मानवों के जीवन प्रवाह के रूप में उतर आया और सुख एवं दुःख के दो किनारों के बीच निरंतर बहने लगा।

निर्झर अपनी जलपूर्णता में पूरी गतिशीलता से युक्त रहता है। वैसी अवस्था में, जवानी में भी सत्यात्मकता ही एक मात्र स्वभाव होनी चाहिए। जिस तरह झरना अपने मस्तीपूर्ण गान, कल-कल निनाद और आगे बढ़ते जाने के अलावा अन्य कोई चिंता नहीं करता तथा लक्ष्य नहीं रखता, उसी तरह मनुष्य-जीवन का लक्ष्य सतत् विकास-पथ पर प्रगति करते जाना ही होना चाहिए। उसे अन्य तरह की चिन्ताओं में नहीं उलझना चाहिए।

यह कविता हमें याद दिलाती है कि जीवन में सुख-दुख दोनों को सहज भाव में अपनाते हुए हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए। हमें काम करने का उत्साह भर रहना चाहिए। आगे बढ़ने में विघ्न-बाधाएँ यदि आती हैं तो आएं हम उनका जमकर सामना करें, उनपर काबू प्राप्त करें और अपनी मंजिल की ओर बढ़ चलें जैसा एक झरने की होती है। हमें भी वैसा ही मस्ती भरी रहनी चाहिए।

कवि का कहना है कि निर्झर तथा जीवन दोनों के लिए गतिशीलता अनिवार्य है। जीवन में कर्म की प्रगतिशीलता ही उसे सार्थकता तथा जीवन्तता का आकर्षण प्रदान करती है। अन्यथा जीवित अवस्था में होने के बावजूद मृत्यु बोधक स्थायित्व या ठहराव आ जायेगा।

निर्झर का प्रवाह रुक जाने का मतलब है उसकी स्रोत बन्द हो चुकी हैं और वैसी अवस्था में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। जीवन में भी कर्मगत गतिशीलता ही जीवन होने तथा सृष्टि अथवा संसार के विकास की मुख्य शर्त है। गतिशीलता के अवरुद्ध हो जाने या जीवन में ठहराव आ जाने का तात्पर्य संसार या जीवन के अस्तित्व पर ही खतरा होता है। ठहराव निर्झर तथा जीवन दोनों के लिए समान रूप से अंत या मृत्यु का सूचक होता है क्योंकि दोनों का समान धर्म है।

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