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 Bihar Board 12th Hindi निबंध लेखन Important Questions Part 1

Bihar Board 12th Hindi निबंध लेखन Important Questions Part 1

1. नोटबंदी कानून या विमुद्रीकरण नीति

8 नवम्बर 2016 रात्रि लगभग 8 बजे भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रमोदी ने ऐतिहासिक घोषणा किया कि 500 और 1000 रु० के बड़े नोटों का प्रचलन बंद होगा। इस साहसिक एवं अप्रत्याशित घोषणा से सम्पूर्ण भारत में खलबली मच गयी। यह घोषणा आर्थिक आपात्काल की तरह था। नोट बदलने की अवधि 30 दिसम्बर तक रखी गयी है। सम्पूर्ण भारत के लोग नोट बदलने के लिए बैंकों और डाकघरों के सामने पंक्तियों में खड़े हो गये। प्रत्येक व्यक्ति इस फैसले की चर्चा करने लगा।

500 और 1000 रुपये के नोटों का चलन बंद करने से आतंकवाद, उग्रवाद, अपहरण जैसी घटनाओं पर कठोर अंकुश लगा है। कालाधन और कालेधन के व्यापार पर कठोर प्रहार है। भारत में पड़ोसी शत्र देश पाकिस्तान द्वारा बड़े पैमाने पर 500 और 1000 रु० के जाली नोट भेजे जा रहे थे। आतंकवाद का खेल काले धन से चल रहा था। नेता, डॉक्टर, व्यापारी, शिक्षा माफिया, उग्रवादी नेता और आतंक के आकाओं के पास अरबों रुपया के बड़े नोट पड़े थे। केन्द्र सरकार के विमुद्रीकरण नीति 1000 और 500 के नोट कागज के टुकड़े मात्र रह गये। यद्यपि सरकार के इस निर्णय से साधारण जनता को काफी परेशानी हो रही है।

लोग बैंकों और A.T.M. के सामने सुबह से शाम तक खड़े है। किसी के घर में शादी होनी है। कहीं बच्चों को पढ़ाई खर्च देनी है। घर खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है। लोग पैसे-पैसो को तरस रहे हैं। लेकिन धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हो रही है। मोदी जी ने लोगों से 50 दिन मांगा है। कालेधन के धन कुबेरों से लड़ने लिए देश के लोग हर परेशानी और कुर्बानी देने को तैयार है। इसलिए देश के लोग हर परेशानी झेल कर प्रधानमंत्री के साथ हैं और संयम तथा धैर्य से काम ले रहे हैं।

निश्चय ही बड़े नोटों के विमुद्रीकरण के दूरगामी प्रभाव होगा। धन कुबेरों के काला धन जो देश की साधारण जनता से लूटा गया है, सब खत्म हो जाएगी धन बल का खेल समाप्त हो जाएगा। भ्रष्टाचार और कदाचार पर अंकुश लगेगा। अमीरी गरीबी की बढ़ती खाई कम होगी। चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाने का खेल खत्म होगा। मंहगाई पर अंकुश लगेगी।

शत्रु देश पाकिस्तान प्रयोजित आतंकवाद खत्म होगा। भारत को बर्बादी करने की आतंकवादियों की सारी योजनाएं विफल हो जाएगी। भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन खत्म होगा। प्रधानमंत्री श्री मोदी के इस कठोर निर्णय से विपक्षी पार्टियों हैरान है। भ्रष्ट नेता और कालाधन के धनकुबेर विक्षिप्त से हो गये हैं। मायावती, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, राहुल गांधी सभी शीर्षस्थ विपक्षी नेता मोदी सरकार की नोटबंदी नीति से पूरी तरह आहत है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल प्रधानमंत्री पर हमला बोल रहे हैं। लेकिन मोदी जी जिस दृढ़ता और साहस का परिचय दे रहे हैं यह अत्यन्त । सराहनीय है। धन कुबेरों ने सोना खरीदना शुरू किया तो सोना के दाम अप्रत्याशित वृद्धि हुई।

नोटबंदी या बड़े मूल्य के नोटों का विमुद्रीकरण नीति कालाधन और आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध है। यह युद्ध लड़ने के लिए उनके पास कोई हथियार नहीं। अब उन्हें खाने के लाले पड़ेगे।। नोटबंदी मे सबको अहसास करा दिया कि धन का अभाव क्या चीज है। धनी भी निर्धन हो गये।

महज चार हजार के लिए पंक्तियों में खड़े हो गये। निश्चय ही नोटबंदी का निर्णय एक ऐतिहासिक घटना है। मशहूर प्राध्यापक डॉ० बृजनन्दन प्रसाद ने कहा है कि नोटबंदी का निर्णय स्वतंत्र भारत के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है और इसका दूरगामी सकारात्मक प्रभाव होगा।

2. परीक्षा में कदाचार

परीक्षा में कदाचार एक गंभीर बीमारी की तरह सम्पूर्ण शिक्षा जगत को ग्रस लिया है। ज्यों-ज्यों वर्ग में छात्र-छात्राओं की संख्या बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों परीक्षाओं में कदाचार और नकल की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। परीक्षाओं में कदाचार और नकल रोकना सरकार के लिए एक गंभीर चुनौते बनती जा रही है। बिहार राज्य में कदाचार मुक्त परीक्षा। इतिहास की बात हो गयी है। . सरकार, विश्वविद्यालय, परीक्षा बोर्ड एवं शिक्षक, वीक्षक और परीक्षक सब मुक दर्शक बन गये हैं। कहीं-कहीं तो नकल के सहयोगी भी। परीक्षाओं में हो रहा कदाचार शिक्षा व्यवस्था को चौपट कर दिया है।

विगत वर्ष 2016 के इंटरमीडिएड के परीक्षा परिणाम के बाद टॉपर घोटाला का उजागर हुआ। सम्पूर्ण देश हतप्रभ रह गया। रक्षक ही भक्षक थे। परीक्षाओं में अच्छे अंक दिलाने का धंधा वर्षों से चल रहा था। परीक्षा में उत्तर-परीक्षा लिखवाने और उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन के समय अच्छे अंक दिलवाने का खेल वर्षों से चल रहा है। सरकारी से लेकर निजी कॉलेज एवं स्कूल इस धंधा में संलिप्त हैं। निजी स्कूलों में जब से स्कूल आधारित परीक्षा का प्रचलन हुआ है नकल चरम सीमा पर पहुंच गया है।

स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं की परीक्षाओं में सर्वाधिक नकल और कदाचार है। कई विश्वविद्यालयों की स्नातक कक्षाओं की परीक्षाओं में नलल शब्द छोय पड़ गया है। गेर पेपर रखकर उतार देना ही परीक्षा देना है। वीक्षक मात्र उत्तर पुस्तका और प्रश्न पत्र उपलब्ध कर देते हैं। परीक्षार्थियों की उपस्थिति ले लेते हैं। एक के बदले दूसरा परीक्षा दे सकता है। प्रतियोगिता परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर प्रश्नपत्र लिक होते हैं।

परीक्षा में नकल और कदाचार छात्रों के लिए आत्मघाती कदम है। नकल करके ऊँची डिग्री प्राप्त विद्यार्थी गुणवत्ताविहीन होता है। वह अनपढ़ के बराबर होता है। यह कारण है कि एम०ए० और एम० ए० सी० करके विद्यार्थी बेरोजगार भटक रहे हैं। ऊंची-ऊंची डिग्री लेकर छोटी-छोटी नौकरियों के लिए दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। एम०ए० और एम०ए०सी० करके प्राथमिक स्कूल के बच्चों को नहीं पढ़ा पा रहे हैं।

नकल पर नकेल मात्र सरकार और पुलिस के बल पर संभव नहीं है। पुलिस के बल पर परीक्षाओं में कदाचार कतिपय समय के लिए रोका जा सकता है, लेकिन इसकी स्थायी निदान पुलिस बल नहीं है। शराबबंद और नोटबंदी की तरह नकलबंदी पर कठोर कानून की आवश्यकता है। पाठ्क्रम का नवीनिकरण प्रश्न पत्रों के स्वरूप में परिवर्तन आवश्यक है। प्रश्न पत्र विश्लेषणात्मक, विवरणात्मक, अनुकरणात्मक आधार पर ऐसी होनी चाहिए कि जहाँ नकल की गुंजाईश नहीं हो। नकल पर नकेल के लिए पाठ्यक्रम का नवीनिकरण आवश्यक है। नकल रोकने से पूर्व स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई अनिवार्य हो। शैक्षणिक माहौल के लिए शिक्षकों का स्थानान्तरण का निर्धारित अवधि में अनिवार्य हो। विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक उपलब्ध हो। शिक्षण संस्थान संसाधन सम्पन्न हो। शिक्षा व्यक्तित्व के विकास के लिए अनिवार्य है तो शिक्षा के लिए परीक्षाओं में नकल पर नकेल अनिवार्य है।

3. प्रिय खेल-क्रिकेट

मेरा प्रिय खेल ‘क्रिकेट’ है। आज क्रिकेट भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय और लोकरुचि का खेल बन गया है। यद्यपि यह भारत का राष्ट्रीय खेल नहीं है, तथापि सर्वत्र भारत में सर्वाधिक . लोकप्रिय खेल है। इस खेल की शुरुआत ब्रिटिश काल में हुआ था। अंग्रेज जहाँ गये इस खेल को ले गये। भारत में यह खेल काफी लोकप्रिय हुआ। भारत में बड़े पैमाने पर इस खेल को दूरदर्शन पर देखते हैं। क्रिकेट खेल का दर्शक भारत में सर्वाधिक है।

विश्व में क्रिकेट खेलने वाले प्रमुख देश हैं-ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, वेस्टइंडिज, भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका। अब कई अन्य देशों में भी क्रिकेट लोकप्रिय हो रही है।

क्रिकेट के खेल में भारत विश्व के अग्रणी देशों में एक है। भारत में महान् क्रिकेट खिलाड़ियों । का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें प्रमुख हैं- सुनील गावस्कर, कपीलदेव, सचिन तेंदुलकर, विराटकोहली इत्यादि।

निश्चय ही क्रिकेट एक रोचक खेल है। इस खेल के कई प्रारूप हैं-टेस्ट क्रिकेट, एकदिवसीय क्रिकेट और 20 ओवर का मैच। इस खेल के तीनों प्रारूप का अपना विशेष महत्त्व है। टेस्ट क्रिकेट-इस खेल का मूल प्रारूप है, जिसमें बल्लेबाजों की शक्ति, सामर्थ और धर्य-शौर्य . की वास्तविक परीक्षा होती है। एक दिवसीय क्रिकेट का रोमांच अलग है। सबसे रोमांचक है बीस ओवर का मैच क्रिकेट में बल्लेबाजी करना, गेंदबाजी करना और फिल्डिंग करना अलग-अलग कौशल है। यदि मैच भारत-पाकिस्तान का हो तो खेल का रोमांच चरम पर होता है। भारत और पाकिस्तान के बीच मैच नहीं, मानों यंग होता है। कोई भी पक्ष हारना नहीं चाहता। जितना अधिक विजय की खुशी होती है, उतना ही अधिक हार का गम होता है। भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सचिन तेंदुलकर के प्रादुर्भाव के बाद भारत ने पाकिस्तान को ही नहीं बल्कि विश्व के सबसे शक्तिशाली टीम आस्ट्रेलिया को भी निरन्तर हराया है। महेन्द्र सिंह धोनी भारतीय क्रिकेट के घुवतारा है। धोनी के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट काफी लोकप्रिय हुआ है।

निश्चय ही क्रिकेट का खेल भारतीय दर्शकों को काफी मनोरंजन प्रदान कर रहा है। क्रिकेट प्रेमी दर्शक अपने घरों में बैठकर इस खेल का मजा उठाते हैं। यद्यपि भारत में हॉकी, फुटबॉल, कबड़ी, शतरंज, टेनिस इत्यादि खेल भी हैं, लेकिन जन-जन में प्रिय क्रिकेट ही है। भारत में क्रिकेट एक जुनून है, एक नशा है। आज हर बच्चा सचिन सौरभ और कोहली बनना चाहता है। क्रिकेटरों की लोकप्रियता के सामने बड़े-बड़े अभिनेता और राजनेता भी फीके पड़ जाते हैं।

4. प्रदूषण की समस्या

आज संपूर्ण विश्व के लिए जो सर्वाधिक चिंता का विषय है उसे हम पर्यावरण की समस्या कहते हैं। इसके कारण मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है। हम जिस प्राकृतिक वातावरण में रहते है, अर्थात् हमारे आसपास चारों ओर जो प्राकृतिक आवरण है, उसे हम ‘पर्यावरण’ कहते हैं। वायुमंडल, वन, पर्वत, नदियां, जल आदि इसके अंग कहलाते हैं।

हमारे जीवित रहने की जितनी शर्ते हैं उनमें पर्यावरण की शुद्धता महत्वपूर्ण है। लेकिन, आज मारा यह, पर्यावरण ही प्रदूषित हो गया है। मानव ने अपनी सुख-सुविधा के लिए जो कुछ किया हैं, उसी से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई है। पर्यावरण के घटकों के संतुलन बिगड़ने को ही पर्यावरण प्रदूषण कहा जाता है। पर्यावरण प्रदूषणं के कई रूप हैं-वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा अर्थात् मिट्टी प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण आदि।

प्रदूषण के कई कारण हैं। सर्वप्रथम वृक्षों की कटाई ही इसका बड़ा कारण है। वैध अथवा अवैध तरीकों से बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई के कारण पर्यावरण-संतुलन में बाधा उत्पन्न हुई है। पेड़-पौधे वायुमंडल के कार्बन का अवशोषण करते हैं। इससे एक ओर वायुमंडल अर्थात् वायु की स्थिति सामान्य बनी रहती है तथा दूसरी ओर इससे वर्षा भी होती है। इसी तरह ईधन के रूप में लकड़ी का प्रयोग, बढ़ती हुई गाड़ियों के प्रयोग से धुआँ तथा बड़े पैमाने पर जहरीले और हानिकारक गैसों के वातावरण में मिलने से वायु प्रदूषण हो रहा है। बड़े-बड़े नगरों और औद्योगिक कारखानों से निकलनेवाले जहरीले अवशेष नदियों में गिराए जा रहे हैं। इससे जल प्रदूषण का खतरा उत्पन्न हो गया है। वाहनों और कल-कारखानों से होनेवाली तेज आवाज के कारण ध्वनि प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है। इसी तरह, रासायनिक और कीटनाशक औषधियों के प्रयोग से मिट्टी भी प्रदूषित हो रही है।

पर्यावरण प्रदूषण से अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं और संभावनाओं का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसका सबसे भयानक प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य के ऊपर पड़ता है। जहरीली गैसें हवा में मिलती जा रही है। कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ोतरी हो रही है। इसका बुरा प्रभाव मानव-शरीर के ऊपर पड़ रहा है। पर्यावरण प्रदूषण से खाद्यान्न-संकट उत्पन्न होने की संभावना बढ़ रही है। धरती की उर्वरा शक्ति का ह्रास, अनियमित वर्षा और प्रदूषित वायुमंडल के कारण हमारे खेतों की उपज में कमी होगी। इससे ऋतुचक्र प्रभावित होगा। गर्मी अधिक पड़ेगी। पेय जल का संकट उत्पन्न होगा। वनों की कटाई से वायुमंडल में जलवाष्प की कमी हो गई है। वर्षा कम होने से जल-स्तर जमीन के नीचे गिरता जा रहा है। इससे वाष्प-निर्माण का संतुलन बिगड़ रहा है। इसका परिणाम अकाल अर्थात् अनावृष्टि के रूप में सामने आएगा।\

पर्यावरण प्रदूषण के कारण ओजोन संकट उत्पन्न हो रहा है। धरातल से लगभग 25 किलोमीटर ऊपर एक बीस किलोमीटर का गैस आवरण है, जिसे धरती की सुरक्षा होती है। इस आवरण को ओजोनमंडल कहा जाता है। इससे धरती के ऊपर के वायुमंडल की सुरक्षा होती .. है तथा सूर्य की किरणों को इससे पार करना पड़ता है, जिससे उसकी हानिकारक किरणें धरती पर नहीं आ पाती हैं। आज इस ओजोनमंडल में छिद्र हो गया है। धरती के पर्यावरण प्रदूषण के कारण ओजोन हमारी सुरक्षा करने में असमर्थ हो रहा है। इसी तरह अन्य तरह के प्रदूषणों से मानव और प्राकृतिक उपादानों पर खतरा उत्पन्न हो रहा है। खतरा तो यहाँ तक बढ़ गया है कि तेजाबी वर्षा का भय तक उत्पन्न हो रहा है।

पर्यावरण प्रदूषण से बचाव हो सकता है। मानव ने ही पर्यावरण को प्रदूषित किया हैं यही इसमें सुधार ला सकता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाए जाएँ, वनों की सुरक्षा की जाए। अन्धाधुंध वन-कटाई को रोका जाए। वाहनों और औद्योगिक संस्थानों से निकलनेवाला धुआँ हमारे वायुमंडल को प्रभावित कर रहा है। इस पर ध्यान दिया जाए। इसे कम किया जाए। शहरों के नालों और औद्योगिक संस्थानों के मलवे को नदियों में गिरने से रोका जाए। , इसी तरह अन्य उपाय भी किए जा सकते हैं।

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विश्व-स्तर की समस्या है। इसपर संपूर्ण विश्व को सोचना होगा। यही कारण है कि सभी देशों ने अपने-अपने यहाँ पर्यावरण सुरक्षा को एक अभियान के रूप में लिया है। इस संबंध में भारत ने इसके लिए कई कदम उठाए हैं। जैसे-1874 ई० में जल-प्रदूषण निवारण और नियंत्रण अधिनियम, 1986 ई० में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम आदि न्यायाधिकरण की व्यवस्था की गई है।
इस तरह, पर्यावरण प्रदूषण निश्चय ही मानव जाति तो क्या, संपूर्ण चराचर के लिए चिंतनीय विषय बन गया है।

5. महँगाई

मूल्य-वृद्धि की समस्या भारतवर्ष की गम्भीरतम आन्तरिक समस्या है। उसने राष्ट्रीय जीवन को अस्त-व्यस्त कर एक घनीभूत नैराश्य की सृष्टि की है। वर्षों से आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों की वृद्धि ने जनसमुदाय के लिए जीवन-निर्वाह की समस्या को भीषण बना दिया है। आज रुपये का कोई मूल्य नहीं रह गया है। आज उसकी जितनी ही बहुलता है, वस्तुओं का उतना ही अभाव भी है।

सिद्धान्तः एक विकासशील अर्थ-व्यवस्था में मूल्य-वृद्धि एक विशिष्ट सीमा तक अपरिहार्य है, क्योंकि विनियोग के साथ ही मौद्रिक आय में तुरत वृद्धि आती है। किन्तु वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन शीघ्र नहीं बढ़ पाता है। आय और उत्पादन के बीच की बढ़ती हुई खाई ही मूल्य-वृद्धि के लिए उत्तरदायी है। किन्तु यह स्थिति स्थायी नहीं होती, क्योंकि उत्पादन में वृद्धि लाकर समस्या की गहनता को भंग किया जा सकता है। भारतवर्ष में मूल्य-वृद्धि की सीमा सहन-शक्ति की सीमा का उल्लंघन कर आकाश की ऊंचाइयों को छू रही है। इस मूल्य-वृद्धि ने आर्थिक निर्णय को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित कर चतुर्दिक उदासीनता और अनास्था की सृष्टि कर दी है।

भारतवर्ष में मूल्य-वृद्धि की समस्या की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता है-खाद्यान्नों और जीवनपयोगी वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होना। सबसे मौलिक वस्तु होन के कारण उनका प्रभाव समाज के हर अंग पर पड़ा है। इससे पारिवारिक बजट की सारी गणना झूठी सिद्ध हो रही है। वेतनभोगी वर्ग के लिए तो यह खतरे की घण्टी है, क्योंकि वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि और मुद्रा के मूल्यों में ह्रास ने उसके रहन-सहन के स्तर में ह्रास ला दिया है। द्वितीय योजना से प्रारंभ होकर यह निरन्तर बढ़ती ही गयी है।

मूल्य-वृद्धि का इतिहास 1955 ई० से प्रारंभ होता है। द्वितीय योजना-काल में उद्योगों के लिए विशाल मात्रा में धनराशि व्यय की गयी और प्रारंभ में अपरिहार्य दीख पड़ने वाली मूल्य-वृद्धि की समस्या अपनी जड़ें गहरी करती चली गईं। द्वितीय पंचवर्षीय योजना-काल में तीन प्रतिशत मूल्य-तल में वृद्धि आयी। द्वितीय योजना का प्रभाव दीर्घकालीन आर्थिक नीतियों के निर्धारण पर ही पड़ा, क्योंकि किसी भी क्षेत्र में हमारी उपलब्धियाँ लक्ष्य से कम थीं। खाद्यान्न के क्षेत्र में मौसम की प्रतिकूलता ने मंजिल पर पहुंचने से पहले ही हमारे कदम खींच लिए। औद्योगिक क्षेत्र में भी हम अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त कर सके।

तृतीय पंचवर्षीय योजना में हमारे अनुमान मूल-रहित साबित हो गये। सबसे भयावह स्थिति तो कृषि की ही रही। खाद्यान्नों के उतपादनों में कुछ भी वृद्धि नहीं हुई। इस बीच जनसंख्या का दबाव बढ़ता ही गया है। सरकार कोटा-परमिट की व्यवस्था करके अनियमित ढंग से सामनों को छिपाकर रखने की प्रवृति को बढ़ावा देती रही है। एक जगह से दूसरी जगह पर.सामानों को ले जाने पर प्रतिबंध भी महँगी के लिए उत्तरदायी है। फलतः तृतीय योजना-काल में पचीस प्रतिशत के करीब मूल्य-वृद्धि हुई। 1971 ई० से 1973 ई० के बीच वस्तु की कीमत में दो से ढाई गुनी वृद्धि हो गयी। 1974 से 1977 ई० के बीच तो मूल्य तल में पौने दो गुनी बुद्धि हो गयी।

लेकिन 1978 ई० में मूल्य-तल सामान्य बना रहा। पर 1978 ई० से 1981 ई० तक उपभोक्ता के सामानों की कीमत में अपार वृद्धि हुई। कोयला, चीनी, लोहा, सोना, डीजल, पेट्रोल, कागज, पकड़ा और सीमेंट आदि के मूल्य-तल आसामन छूने लगे। उसके बाद 1981 ई० की अपेक्षा 1982 ई० में सामानों की कीमत लगभग दुगुनी हो गई। मूल्य-वृद्धि की इससे भी. बुरी स्थिति 1983 ई० से 1987 ई० के बीच हुई। अब तक निरंतर कीमत में वृद्धि आसमान छूती जा रही है।

समग्रतः नियोजन काल में मूल्य-वृद्धि की रेखा में 80 प्रतिशत का बढ़ावा आया है और मुद्रा . के मूल्य में 80 प्रतिशत का हास। एक रुपया का मूल्य 1929 ई० से 1979 ई० की तुलना में बीस पैसे रह गया है। और अब तो और भी कमी हो गयी है। इस हास ने जनता की सुख-समृद्धि की आशाओं पर पानी फेर दिया है। अभाव-काल में कन्ट्रोल और राशनिंग की नीति अपरिहार्य है, ताकि उन वस्तुओं के वितरण की अनियमितता को दूर किया जा सके। परंतु स्थायी उपचार उत्पादन में वृद्धि से ही संभव है। अतः हमें उत्पादन को बढ़ाकर चतुर्दिक सुख-समृद्धि के विस्तार में योगदान देना चाहिए। उत्पादन में वृद्धि ही आर्थिक प्रगति की कुंजी है। इसे नजर-अन्दाज करना विपत्ति को आमंत्रित करना है।

हमारी सरकार की गलत आर्थिक नीतियों और आंकड़े भी इसके लिए कम उत्तरदायी नहीं है। इसमें जमाखोरी की प्रवृति में वृद्धि होती है और वस्तुएँ छिपाकर रखी जाती हैं। अतः जब तक जमाखोर की प्रवृति मिटाई नहीं जाएगी तब तक इस दिशा में लाख चेष्टाएँ की जाएं सभी व्यर्थ सिद्ध होंगी।

6. आतंकवाद

पिछले सात-आठ साल से हम आतंकवाद की भयावह समस्या से जुझ रहे हैं। आजादी प्राप्ति के चार दर्शक की लम्बी अवधि में हमें राष्ट्रीय स्तर पर जिन-जिन समस्याओं की विकरालता से जुझना पड़ा है उनमें आतंकवाद की समस्या सर्वाधिक चर्चित है। इस समस्या की उग्रता प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है। इससे हमारी राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा पर बड़ा ही घातक प्रभाव पड़ा हैं। इस समस्या के अस्तित्व ने आज हमारे सम्पूर्ण सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को संकटापन्न कर दिया है। यही कारण है कि आज अखबारों के पन्ने इस समस्या के दुष्प्रभावों और को कारनामों से रंगे रहते हैं। नेताओं के भाषणों, सरकार की नीतियों और सामान्य जनों के विचार-विनिमय से इस समस्या की जो जोरदार चर्चा उससे स्पष्ट है इस समस्या की भयावहता तथा विकरालता का स्वरूप क्या है।

इस समस्या का प्रत्यक्ष रूप 1980 के आम चुनाव के बाद हमारे सामने आया। पंजाब के कुछ उग्रवादियों ने अपने गलत विचार और धारणा, तथाकथित गलत धार्मिक कट्टरता तथा पागलपन के आलोक में इस समस्या को जन्म दिया। राजनीति के साथ उसे बलात् जोड़कर कुछ स्वार्थी तथा मतफिरे पंजाब के नेताओं और युवकों ने उसके द्वारा अपनी गलत राजनीति सिद्धियाँ प्राप्त करनी चाहीं। इसके लिए सिखों के गुरुद्वारों और मन्दिरों को केन्द्र तथा कार्यस्थल बनाया गया। पंजाब के लोगों की धार्मिक भावना को गलत दिशा और दशा देकर उन्हें दिग्भ्रमित किया जाने लगा। फिर हत्या, खून, आगलगी, तोड़फोड़ जैसे कुत्सित कार्य कुछ जगहों में सामान्य कार्य के रूप में परिणत हो गये। इसके कुप्रभाव के कारण देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग का जनजीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हुआ और अन्य भागों में भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा। इस समस्या के ताण्डव के कारण हजारों लोग मारे गये ओर कितने लोग बेघबार तथा अर्द्धमृतक की स्थिति में जा गए।

इस आतंकवाद की समस्या की कालिमा ने अमृतसर के पवित्र स्वर्ण मंदिर के अस्त्र-शस्त्रों का आगार बना दिया। आजादी के बाद सम्भवतः पहली बार इतने व्यापक रूप में खून-खराबी का यह माहौल हमारे देश में उठ खड़ा हुआ है। इसी समस्या के घिनौने रूप के कुप्रभाव के कारण हमें अपने देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की नृशंस हत्या देखनी पड़ी। आतंकवाद की लपटें दिन-प्रतिदिन उग्र से उग्रतर होती चली जा रही हैं। इसकी भायावहता के कारण देश के शीर्षस्थ नेताओं के जीवन पर हर क्षण खतरा बना हुआ है। सम्पूर्ण उत्तरी-पश्चिमी भारत में प्रतिदिन व्यापक स्तरीय हत्या की घटनाएँ धड़ल्ले के साथ घट रही हैं। इसका कुप्रभाव दूर के देहाती क्षेत्रों में भी पड़ रहा है जहाँ इस समस्या ने आतंक और भय का वातवारण पैदा कर दिया है।

इस समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए सरकार हर संभव प्रयास कर रही है, लेकिन इसकी उग्रता अभी तक शामित नहीं हो पायी है। कई बार सेनाओं को भेजकर विशेष संवेदनशील क्षेत्रों में इस समस्या की उग्रता पर काबू पाने का प्रयास किया गया है। कई बार गुरुद्वारों और स्वर्णमन्दिर को अस्त्र-शास्त्रों से मुक्त किया गया है। नये सिरे से चुनाव करवाकर जनप्रिय सरकार को दायित्व सौंप दिया गया, फिर राष्ट्रपति शासन भी लागू किया गया, लेकिन हालात में सुधार न होकर और चिन्ता की ही स्थिति उत्पन्न हुई।

हमें हर स्थिति में इस समस्या पर काबू पाना है। इसके लिए सरकार तथा जनता दोनों को बड़ा ही विवेकपूर्ण ढंग से कठोर कदम उठाना है। इसके लिए सख्त प्रशासनिक कार्रवाई की अपेक्षा है। क्षुद्र स्वार्थ से घिरे दिग्भ्रमित लोगों को गलत धार्मिक कट्टरता तथा क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर सम्पूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रगति के सन्दर्भ में सोचना है। विदेशों में आतंकवादियों के चल रहे प्रशिक्षण शिविरों को अस्तित्व-विहीन कर उनके स्रोत को बंद करना है। इस समस्या की काली खाई में पड़ा हमारा देश विकास और प्रगति के पथ पर क्षिप्र-गति से बढ़ने में अपने आप को सक्षम नहीं पा रहा है। हमारी सारी योजनाओं के कार्यान्वयन की प्रक्रिया रुग्ण-सी हो गयी है। हम किंकर्तव्य-विमूढावस्था में हिंसा का ताण्डव देखने को विवश हैं। हमारी यह स्थिति कब तक बनी रहेगी?

7. निरक्षरता निवारण अथवा, साक्षरता

आधुनिक प्रगतिशील और घनघोर वैज्ञानिक युग में शिक्षा रोटी, कपड़ा और मकान की तरह शिक्षा अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। शिक्षा व्यक्तित्व और चरित्र के निर्माण तथा निखार के लिए आवश्यक साधन है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति का आध्यात्मिक, नैतिक और बौद्धिक विकास होता है। इसलिए वर्षों पूर्व राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भारत जैसे घोर अशिक्षित देश में साक्षरता अभियान को गतिशील करने के लिए काफी बल दिया था।

भारत में अशिक्षा का अन्धवमसू आज भी पूर्ण सघनता के साथ विद्यमान है। यह घोर कलंक की बात है। सरकार निरक्षरता के गर्हित कलंक के उन्मूलन के लिए कृतसंकल्प होकर शिक्षा की कनक-किरण के प्रचार-प्रसार के लिए की प्रयत्नशील रही। इसलिए उसने अपने चुनाव-घोषणा-पत्र में किये गये वादे के अनुरूप साक्षरता अभियान को काफी गतिशील किया, जिस क्रम में वयस्क शिक्षा का प्रौढ़ शिक्षा की आज सर्वत्र चर्चा है।

साक्षरता अभियान की गतिशीलता के क्रम में यह एक बाधक समस्या उठ खडी होती है कि छोटे बच्चों को तो प्रौढ़ होने तक शिक्षित बनाया जा सकता है, परंतु जो लोग प्रौढ़ हो चुके हैं और जिन्हें शिक्षित होने का सौभाग्य नहीं मिला है, उन्हें किस प्रकार शिक्षित बनाया जाए ? भारत जैसे देश में ग्रामीण क्षेत्र में 80 प्रतिशत प्रौढ़ लोग अशिक्षित हैं। उनके आस-पास स्कूल नहीं थे। ऐसे अभागे लोगों का आधा जीवन तो अशिक्षा के अन्धतमस् में ही ठोकर खाते-खाते बीत गया है। फिर भी उके मन में आकांक्षा और कामना की यह तीव्रता करवट लेती रहती है कि काश! हम भी शिक्षित होते और अपने जीवन को और भी सफल कर पाते ! प्रौढ़-शिक्षा अथवा साक्षरता अभियान का कार्यक्रम ऐसे लोगों के लिए वरदान-स्वरूप है।

प्रौढ़-शिक्षा अथवा साक्षरता अभियान की आवश्यकता और अनिवार्यता के मूल में हमारे देश की कलंकित निर्धनता है। हमारे देश में बहुसंख्यक निर्धन लोगों का एक ऐसा वर्ग है जिसको यह लगता है कि बच्चा स्कूल न जाकर कुछ कमाने के लिए ही घर से निकले। यदि संयोग से वह दो-चार साल के लिए स्कूल भी जाता है, तो बाद में पारिवारिक दबाव के कारण वह स्कूल छोड़ कर मजदूरी करने या कोई छोटी-मोटी नौकरी करने के लिए बाध्य हो जाता है। बड़ा होकर वह महसूस करता है कि उसके भाग्य में शिक्षित होने का सौभाग्य है ही नहीं। ऐसे लोगों में अधिकतर लोग तो यही चाहते हैं कि वे अपना नाम लिखना सीख लें और अपनी चिट्ठी-पत्री स्वयं पढ़-लिख सकें। दुकानों के माथे पर और सड़कों के दोनों ओर लगे साइनबोडों को वे ललचाई नजर से देखते रह जाते, हैं।

हमारे देश में अशिक्षित लोगों में एक वर्ग उन महिलाओं का है जो शत-प्रतिशत अशिक्षित हैं। जिनके माता-पिता ने लड़कियों को शिक्षा देने की अपेक्षा अल्प आयु में ही उनका विवाह कर देना उचित समझा था। मध्यवित समाज की बहुसंख्यक महिलाएं इसी वर्ग में आती हैं। वस्तुतः भारत की प्रगति की रीढ़ की हठी ये 80 प्रतिशत लोग ही हैं जो अनपढ़ हैं। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी इनका अशिक्षित रह जाना सचमुच कलंक और दुर्भाग्य की बात है।

वयस्क शिक्षा के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सरकार की प्रयत्नशील है। गत वर्ष राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जन्म-दिवस के पवित्र अवसर पर वयस्क शिक्षा अथवा साक्षरता अभियान के कार्यक्रम को एक नये और शाश्वत ढंग से शुरू करने के लिए सरकार ने अपनी विस्तृत योजना की रूप-रेखा लोगों के सामने रखी। इस अभियान को सफल बनाने के लिए अपेक्षित निर्देश भेजे गये है। इस अभियान को सफल बनाना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। सरकार के साथ-साथ हमें भी इस दिशा में प्रयत्न करना चाहिए। हममें से यदि तीन शिक्षित व्यक्ति मिल कर एक-एक प्रौढ़ को शिक्षित बनाने का प्रयास करें तो इससे इस अभियान को सफल होने में बड़ा बल मिलेगा। सरकार की ओर से यह भी व्यवस्था होनी चाहिए कि हर शिक्षक को एक निश्चित कोटे तक लोगों को शिक्षित करना अनिवार्य-सा होगा, इसीलिए रात्रि पाठशाला की व्यवस्था करनी होगी। शिक्षकों में इस कार्य के लिए उत्साह बनाए रखने के लिए उन्हें पर्याप्त वेतन की सुविधा मिलनी चाहिए। प्रौढ़-शिक्षा के प्रचार और प्रसार करने के क्रम में बहुसंख्यक बेरोजगार लोगों को भी रोजी-रोटी की सुविधा प्राप्त होगी।

अतः प्रौढ़-शिक्षा अथवा साक्षरता-अभियान का कार्यक्रम हमारे देश की प्रगति के लिए एक ऐतिहासिक और राष्ट्रीय कार्यक्रम है जिसमें निहित पवित्र आकांक्षा को साकार करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है।

8. साम्प्रदायिकता

साम्प्रदायिकता एक मनोभाव है जो आदमी के विचार को संकुचित बनाता है। यह ऐसी भावना है जिससे आदमी की मूल्यवत्ता समाप्त हो जाती है। मानवता के नाम पर यह दानवता का आवरण है। हमारे राष्ट्र के लिए तो यह ऐसी बीमारी है जो लाइलाज होती जा रही है। यह राष्ट्रीय एकता की जड़ को कमजोर करने वाली है। स्नेह, प्रेम और भ्रातृत्व की कैंची है साम्प्रदायिकता।

किसी धार्मिक मतवाद या सम्प्रदाय के प्रति अतिशय आग्रह जो असहिष्णुता को जन्म देता है, उसे साम्प्रदायिकता कहते हैं। यह ऐसी मनोभावना है जिसके प्रभाव से दूसरे धर्म को सहन करना संभव नहीं, बल्कि उसका मूलोच्छेद ही करना चाहती है। इस प्रकार हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी आदि धर्मों से सम्बन्धित साम्प्रदायिकता हो सकती है।

साम्प्रदायिकता का जन्म हमारे देश में तब हुआ जब मुसलमान शासकों द्वारा जबरदस्ती हिन्दू से मुसलमान बनाने का अभियान शुरू हुआ। इस्लाम को स्वीकार नहीं करने पर दीवार में चुनवाने तथा तलवार के घाट उतारने के कुकाण्ड के विरोध में हिन्दुओं में भी सनातन धर्म के प्रति आग्रह उत्पन्न हुआ। इससे हिन्दू और मुसलमान के बीच एक चौड़ी खाई उत्पन्न हो गयी। इस साम्प्रदायिकता को अंग्रेजों ने और अधिक हवा दी। उन्होंने तो धर्म के नाम पर हिन्दू और मुसलमानों के बीच फूट और बैर का ऐसा बिरवा लगाया कि उससे आज तक उबर पाना संभव नहीं। ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति अपनाकर अंग्रेजों ने भारत में साम्प्रदायिकता की भावना को हमेशा पल्लवित और पुष्पित किया। इसका भयानक परिणाम हुआ भारत का विभाजन।

भारत-विभाजन के पूर्व हिन्दू-मुसलमान की आपसी लड़ाई ने गृहयुद्ध का रूप ले लिया था। रक्तपात, हत्या, लूट, बलात्कार के ऐसे अनेक कलकित धब्बे आज भी स्मृति को ताजा कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता ने भाई-भाई के बीच खून की होली का वातावारण उत्पन्न किया। हमने अपने ही भाइयों के रक्त से अपनी उंगलियाँ रंग लीं। आदमी के अन्दर का जानवर जाग गया और हिंसक होकर उसने अपनी इंसानियत को छोड़ दिया। इस भयानक वातावरण की याद तो रोमांच पैदा करती है। लाखों की संख्या में शरणार्थियों का आना, हजारों की संख्या में इसी तरह दूसरी जगह जाना-आखिर आदमी का बसा बसाया संसार समाप्त हो गया। नोआखाली और तारापुर की घटनायें तो मानवता के नाम पर कलंक ही हैं।

साम्प्रदायिकता एक सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह है जो समय-समय पर जागती रहती है। कभी इलाहाबाद तो कभी मेरठ, कभी नागपुर, कभी जबलपुर और कभी जमशेदपुर आदि जगहों में साम्प्रदायिकता रह-रहकर हिलोरें लेती रहती है। कभी पीपल के पेड़ खड़कने से तो कभी कब्रिस्तान की धूल उड़ने से साम्प्रदायिकता जागती है। साम्प्रदायिकता की आग में शहर और गाँव दोनों झूलसने लगते हैं। बच्चे, बूढ़े जवान सबके सब इसके शिकार होते हैं। हिंसा, रक्तपात, लूट और बलात्कार का बोलवाला हो जाता है। मंदिर और मस्जिद का यह झगड़ा लाखों-लाख लोगों को मौत के घाट उतार देता है। भारत-विभाजन से भी इस समस्या का समाधान नहीं हो सका।

साम्प्रदायिकता की आग को फैलानेवाले और कोई नहीं, हमारे ही बीच श्रेष्ठ कहलाने वाले लोग हैं। धर्म की आड़ में अपना उल्लू सीधा करनेवाले लोग इसे बढ़ावा देते हैं। धर्म की गलत व्याख्या और बेतुका अर्थ निकालकर आपस में फूट और बैर का बीज बोना इन लोगों का काम रहा है। मुल्ला -मौलवी, महंत-धर्मगुरु आदि ने धर्म के मर्म को समझा ही नहीं है। इतना ही नहीं, साम्प्रदायिकता के जहर को फैलाने में राजनीतिक पार्टियों का कम बडा हाथ नहीं है। धर्म, सम्प्रदाय और जाति की हवा देकर राजनीतिक लोग अपने वोट की रोटी सेंकने से भी बाज नहीं आते हैं। चुनाव के समय तो उम्मीदवारों का चयन इसी आधार पर होता है।

साम्प्रदायिकता की आग केवल हिन्दू और मुसलमान के बीच ही नहीं, सिख और अन्य धर्म के मानने वालों के बीच भी फैली हुई है। पंजाब समस्या के पीछे साम्प्रदायिकता का सबसे अधिक जोर है।

साम्प्रदायिकता की इस बीमारी का इलाज हो सकता है इसके लिए हमें आध्यात्मिक दृष्टि में परिवर्तन करना होगा। एक नयी आध्यात्मिकता को जन्म देना होगा। राजनीतिक लाभ उठाने वाले अगर अपनी बुरी नीयत से बाज आएँ तो बहुत कुछ संभव है कि इसका समाधान मिल जाय। चुनाव युद्ध में साम्प्रदायिकता के हथकण्डे से लड़ने वाले कुटिल राजनेता अगर इंसानियत की राह लें तो इसका समाधान हो सकता है। हमें शिक्षा को समान बनाना होगा। पूरे देश की शिक्षा समान होनी चाहिए। सामाजिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक भावनाओं को स्वस्थ और वैज्ञानिक बनाना होगा। सरकार साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले संगठनों, संस्थानों, पत्रों को केवल रोके नहीं बल्कि उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों को सजा दे। इससे भी बड़ी बात है कि हमें एक राष्ट्रीय जीवनदृष्टि पैदा करनी चाहिए। जबतक संकीर्णता के सीप में हम पलते रहेंगे तब तक साम्प्रदायिकता की भावना बनी रहेगी। इसलिए हमें उदार और व्यापक जीवन दृष्टि से काम करना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए-

इसी मुल्क में हुए और हम यहीं रहेंगे आगे भी,
लड़-मर कर संह चुके बहुत क्या और सहेंगे आगे भी?

9. भ्रष्टाचार

यह भारी विडम्बना की बात है कि हमारी सभ्यता जितनी आगे बढ़ी है, भ्रष्टाचार और अपराध की घटनाएं भी उतनी ही तेजी से आगे बढ़ी है। यह हमारी आधुनिक सभ्यता की नस-नस में घूसती जा रही है।

भ्रष्टाचार कहाँ है ? भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है ? हमारे देश की भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व० श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने जैसा कहा था-“भ्रष्टाचार तो आज सारे संसार में है” (Corruption is a worldwide phenomenon). सारे संसार में चाहे भ्रष्टाचार हो न हो, मगर एक बात तो जरूर है कि हमारे देश में और खास तौर से आजादी (सन् 1947 ई०) के बाद भ्रष्टाचार का बाजार जिन्दगी के हर मोड़ पर कायम है।

किसी भी राष्ट्र के मुख्य आधार होते हैं-प्रशासन, पुलिस और न्यायालय। प्रशासन में देखिए तो क्या मजाल कि घूस-रिश्वत या पहुँच-पैरवी के बिना आपको कोई काम हो जाए। बहाली के लिए हो या अनुकूल पद स्थापना के लिए अथवा अनुकूल पद स्थानान्तरण के लिए-आपको घूस देनी ही पड़ेगी। सरकारी या गैर सरकारी तमाम नौकरियों में रिश्वत का बाजार गर्म है। यहाँ तक कि लोक सेवा आयोग जैसी संस्थाओं की प्रतियोगिता-परीक्षाओं में वांछित सफलता के लिए घूस देनी पड़ती है। प्राइवेट संस्थाओं की बात ही जाने दीजिए। कितने स्कूल-कॉलेज तो आज महज इसलिए खुल रहे हैं कि उम्मीदवारों से मोटी रकम रिश्वत लेकर धनोपार्जन किया जाए।

पुलिस की तो पुछिए मत। थाना जाइए और मार खाकर आइए। बिना घूस लिए थाना प्रभारी आपकी प्राथमिक रिपोर्ट (E.I.R.) भी दर्ज नहीं करेगा। थानेवाले दोनों तरफ से घूस लेते हैं। जो वादी हैं उनसे और जो प्रतिवादी हैं उनसे भी। घूस लेकर मामले को दबा देना या मामले को कमजोर बना देना तो पुलिस के लिए मामूली बात है।

सन्तरी से मंत्री तक आज हमारे देश में सब घुसखोर हैं। ईमानदार अगर कोई है तो वही जिसे बेईमानी का मौका ही नहीं मिला है। अन्यथा क्या डॉक्टर, आई०ए०एस०, क्या इंजीनियर या क्या मास्टर-प्रोफेसर सब बेईमान हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, घूस-रिश्वत में आकण्ठ डूबे हुए।

क्या कारण है आखिर इस भ्रष्टाचार का, रिश्वतखोरी का ? पहला कारण है-महँगाई और मूल्यवृद्धि। आज हमारे देश में किसी की भी तनख्वाह ईमानदारी से उतनी है नहीं, जितनी कि उसे आवश्यकता है। चीजों के मूल्य बढ़ गये हैं। खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने, किताब-कागज-जिन्दगी की तमाम आम जरूरत की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। जो पोस्टकार्ड देश की आजादी के पहले एक पैसे में आता था, आज 50 पैसे में आता है। सरकारी चीज के भी दामों में, जिसका उतपादन स्वयं सरकार करती है घोर वृद्धि हुई है।

अतः अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए कितने लोगों को अपनी अन्तरात्मा की आवाज के विरुद्ध घूस देनी पड़ती है। क्यो करें ? कैसे जियें ? कैसे अपनी जरूरतें पूरी करें? दूसरा कारण-निर्वाचन या चुनाव के चलते बड़े-बड़े पूंजीपतियों को राजनीतिक दलों को चन्दे देने पड़ते हैं और फल यह होता है कि वे लोग अपनी उत्पादित वस्तुओं की मनमानी कीमत बढ़ा देते हैं। तीसरा कारण है राजनीतिक नेताओं का गिरा हुआ चरित्र। राजनीतिक नेता चुनाव जीतने के लिए चन्दे तो वसूलते ही हैं और बदले में सेठों, पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार करने की छूट देते-दिलाते हैं और साथ ही येन-केन प्रकारेण बूथ कैपचर करने हेतु बदमाशों की ताकत का सहारा लेते हैं। बदले में उनका बचाव करते हैं। राजनीतिक नेताओं की छत्रछाया में आज दरअसल हमारे देश में गुण्डा का ही राज्य है। आज देश में गणतंत्र नहीं गुण्डानंत्र है। पकड़े कौन ? प्रशासन, पुलिस और न्यायालय सब तो स्वयं भ्रष्ट हैं।

अतः भ्रष्टाचार की शूर्पनखा पूरे देश के जिस्म को नोच रही है। भ्रष्टाचार के राक्षस तमाम आम लोगों को खाये जा रहे हैं। भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए बस एक ही रास्ता है-एक ही उपाय है-कि तमाम चुनाव (Election) समाप्त कर दिये जाएँ, देश में पढ़े लिखे लोगों की हुकुमत कायम की जाए, कम से कम दस साल के लिए मिलेटरी शासन कायम किया जाए, कम से कम आपातस्थिति लागू की जाए और कानून को खूब कड़ाई के साथ लागू किया जाए। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकसमितियाँ गठित की जाएं जिनको यह अधिकार रहे कि भ्रष्ट व्यक्ति को (चाहे वह कोई भी क्यों न हो) अविलम्ब फाँसी के तख्ते पर झुला दें।

साथ ही साथ समाज में आर्थिक समानता लाने का प्रयल होना चाहिए। चपरासी और अफसर, सन्तरी और मंत्री के वेतन और भत्ते में बहुत ज्यादा फर्क नहीं होना चाहिए। पूरे देश में नैतिक शिक्षा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाए, तभी बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और अपराधवृत्ति पर काबू पाया जा सकता है।

10. वन-संरक्षण

वन-सम्पदा मानव के अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई है। मानव के पूर्व भी वन-सम्पदा थी और जबतक वन-सम्पदा है तभी तक प्राणी जगत का अस्तित्व समझना चाहिए। वृक्षों की घनी हरियाली पर फैली चाँदनी का रजत-धवल आंचल अथवा प्रकृति का हरीतिमा के ऊपर छिटका का हुआ उषा का सिन्दूर सुहाग किसे नहीं भाता है। लेकिन समय की रफ्तार और परिस्थितियों के बदलाव ने हमारी सम्पूर्ण विचारधारा को बदल कर रख दिया है। हमारे सामने प्रक्रति एक सहचरी नहीं रह .. गई है वह तो हमारे विजय अभियान की मंजिल बन गई है। फलतः हमने शस्य श्यामला धरना के आँचल के बेलबूटों को लूटा, उसके सौंदर्य को कुचला और चाहा उसे ही ध्वस्त करना। लेकिन समझ नहीं पाये कि इससे हमारी अपनी ही आत्मा का श्रृंगार मिटनेवाला है।

आज जिधर देखिए उधर वृक्षारोपण के सम्बन्धित तख्तियां मिलेंगी “वन नहीं तो वर्षा नहीं तो अन्न नहीं” अथवा “वृक्ष लगाइये देश बचाईये।” इसी तरह की अनेकानेक बातें ठीक उसी तरह मिलेंगी जिस तरह परिवार नियोजन से सम्बन्धित घोषणायें। कहने का मतलब यह है कि हमने जनसंख्या तो बढ़ाई है लेकिन वृक्षसंख्या घटायी है। जिस तरह जनसंख्या हमारी आर्थिक व्यवस्था का संतुलन बिगाड़ रही है उसी तरह वृक्ष अभाव से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम वृक्ष लगायें और वनों को संरक्षित रखें।

वन सम्पदा हमारी सांस्कृतिक सम्पदा है। हमारी संस्कृति से लचीलापन है। हम प्रेम को प्रधान मानते हैं। जिस संस्कृति का विकास रेगिस्तिान के खुले आकाश तले हुआ है उसमें आज भी खून-खराबा की प्रधानता है। अब आप ही सोचिाए कि वृक्षारोपण और वन-संरक्षण तो हमारी संस्कृति का संरक्षण है। यह हमारी सांस्कृतिक सम्पदा हैं।

समय और सभ्यता के विकास के साथ-साथ हमने लकड़ियों का भरपूर उपभोग किया। जंगल काटे गये। बाग-बगीचे खेत बन गये। वृक्ष लगाना हम भूल गये। आज वृक्षाभाव विश्व के लिए चिन्तनीय विषय बन गया है। इमने जितने पेड़ काटे उसका दशांश भी नहीं लगाया। स्थिति यह हो गयी कि प्राकृतिक संतुलन खतरे में पड़ गया। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या सामने आ गयी। जैसा कि हम जानते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने से हवा का संतुलन बिगड़ जाता है। पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है। वृक्ष ही इसे संतुलित रखते हैं; क्योंकि आदमी ऑक्सीजन को साँस के रूप में ग्रहण करता है लेकिन पेड़-पौधे कार्बन डायऑक्साइड को ही साँस के रूप में लेते हैं। अगर इसी तरह वृक्ष का विनाश होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा साँस लेना भी मुश्किल होगा। अत: पर्यावरण को सुरिक्षत रखना है। तो वृक्ष लगाना ही होगा।

वृक्ष में वह अदृश्य शक्ति होती है जो बादल को वर्षा में बदल सकती है। अगर वृक्ष ही नहीं रहेंगे तो वर्षा होगी ही नहीं। रेगिस्तान के खिलाफ लड़ना चाहते हैं तो वृक्ष लगाना होगा। अगर वृक्ष की अधिकता होगी तो निश्चय ही वर्षा भी अधिक होगी।

वृक्षों से तो लाभ ही लाभ हैं शीशम, सागवान, आदि लकड़ियों से हम विदेशी मुद्रा भी कमा सकते हैं। इसके साथ-साथ इन्हें अपने उपयोग में भी ला सकते हैं। फलदार पेड़ों से हमें फल की प्राप्ति होती है। जंगलों में जड़ी बूटियाँ मिलती हैं। इसी तरह दार्जिलिंग के वनों से चाय आदि मिलती है। अतः यह स्पष्ट होता है कि वन विकास और वन-संरक्षण से हमें अपने उपयोग और लाभ के सामान तो मिलते ही हैं, साथ-साथ हम विदेशी मुद्रा भी अर्जित कर सकते हैं।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम वृक्ष लगाये और वनों को संरक्षित एवं सुरक्षित रखें। आज संपूर्ण देश में वन विभाग की अलग व्यवस्था हो गयी है। वन-विभाग के भीतर भी कई उपविभाग हैं। जैसे-वृक्षारोपण, संरक्षण, नियंत्रण और विक्रय आदि । इन विभागों के आपसी सहयोग से सारे कार्यक्रम चलाये जाते हैं। प्रत्येक जिला-स्तर पर वन विभाग की सक्रियता देखी जा सकती है। जहाँ पौधे की नर्सरी तैयार की जाती है वहाँ से मुफ्त पौधे मिलते हैं, जिसे जन सामान्य अपने खेतों, मेड़ों और परती जमीन पर लगा सकें। मरुस्थलों में तो वन-विभाग ने क्रान्ति ला दी है। उन जगहों पर विभाग ने हरियाली का संसार बसाया है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि वन-सम्पदा हमारी सांस्कृतिक सम्पदा है। इसके ऊपर सम्पूर्ण प्राणीजगत का अस्तित्व निर्भर करता है। वन संरक्षण नहीं हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब इस सृष्टि का स्वरूप ही बदल जाय। हम वृक्ष लगायें, नहीं तो कहना होगा-
कड़ी धूप है जलते पाँव
तनिक ठहरते होती छाँव

11. नारी-शिक्षा अधवा स्त्री-शिक्षा

“न छू सकते हम जिसकां! कल्पना अन्तर की वह गूढ
भावना वह तुम अगम अजेय, रही जो युग-युग अकथ, अगेय!”

सृष्टि से प्रारंभिक काल से ही स्त्री पुरुष की शक्ति और उसकी प्रेरणा रही है। पुरुष ने सदैव उसे महिमामंडित रूप में देखा है और उसका सम्मान किया है। मनु ने तो यहाँ तक कहा है, “यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता।” कारण नारी नर की सहचरी है, सहधर्मिणी है। वह प्रभात की एक मंजुल रश्मि, धरती की एक मनोहर कविता है। उसमें रूप, लावण्य, सौन्दर्य, सौकुमार्य और ममता-ये गुण नर से अधिक हैं।

इतनी महिमामयी होकर भी नारी की सामाजिक स्थिति हमारे देश में अच्छी नहीं रही और तो और उसे शिक्षा पाने के अधिकार तक से वंचित किया गया है। युगों तक हमारे देश की नारी अशिक्षा और अज्ञान के अन्धकार में भटकती रही है। उसकी आत्मा सिसकती रही है, प्रकाश की एक किरण के लिए।

बीसवीं सदी ने प्रजातंत्र का स्वर्ण-विहान देखा। विश्व के प्रबुद्ध नागरिकों ने आवाज लगायी-
“मुक्त करा नारी को मानव, चिर बंदिनी नारी को
युग-युग की परतंत्रता से, जननी, सखी, प्यारी को !”

फलतः विश्व में नारी-जागरण का नव-विहान आया। हमारे देश की नारियों भी जग पड़ीं और पुरुषों से अपने अधिकारों की मांग करने लगी। शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक स्वतंत्र देश के नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है। नारी का भी यह मौलिक अधिकार हो। हमारे देश की नारियाँ अब पुरुषों के समान शिक्षा प्राप्त करने लगी हैं। विश्वविद्यालय की उच्चतम डिग्रीयाँ प्राप्त कर चुकी हैं।

आज से आधी सदी पूर्व तक यह दशा थी कि किसी लड़की को पढ़ाने का नाम तक नहीं लिया जाता था। कहा यह जाता था कि स्त्री का क्षेत्र घर-परिवार है। उसके जीने के सार्थकता बच्चों को जन्म देने और घर गृहस्थी को सुचारु रूप से चलाने में है। उस समय लोग शायद यह नहीं जानते थे कि ‘वह हाथ जो पालना हिलाता है, संसार में शासन भी करता है।’ (The hand that rocks the cradle rules over the world) नारी में बड़ी शक्ति है। शिक्षा द्वारा जब वह अपने गुणों का विकास कर लेती है तो किसी भी पुरुष से पीछे नहीं रहती।

स्त्री-शिक्षा के पक्ष और विपक्ष में बहुत से तर्क हैं। इसके पक्ष में हैं। आधुनिक शिक्षित और प्रगतिशील लोग और विपक्ष में हैं पुराने पुराणपन्थी लोग। इन पुराणपन्थियों का कहना है कि नारी के लिए आधुनिक शिक्षा निष्प्रयोजन है। उच्च शिक्षा नारी को पुरुष बना देती है। वह गृहकार्य से भागती है और बच्चों का लालन-पालन नहीं कर सकती। नारी को नृत्य-संगीत और गृह-कला की शिक्षा दी जानी चाहिए। उसे बच्चों के पालन-पोषण की शिक्षा दी जानी चाहिए। उसे राजनीति में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। नौकरी करना उसके लिए शोभनीय नहीं है। इसमें उसकी लज्जा और नारीत्व का नाश होता है। दूसरी तरफ प्रगतिशील लोगों का कहना है कि नारी उन सभी क्षेत्रों में जाएगी जिनमें पुरुष जाता है। अवसर पड़ने पर वह युद्ध क्षेत्र में भी जाएगी और बन्दुक चलाएगी। यदि नारी पुरुष की अर्धांगिनी है तो जीवन के झंझावातों से वह अपना दामन कैसे बचा सकती है? वह विज्ञान भी पढ़ेगी और राजनीति भी। वह शिक्षिका बनेगी, लेखिका बनेगी, शासनकत्री बनेगी और सैनिक बनेगी।

हमारे देश में प्राचीनकाल में मंडन मिश्र की पत्नी विदुषी भारती ने जगद्विजयी शंकराचार्य को भी शास्त्रार्थ में परास्त किया था। किन्तु काल-क्रम में हमारे देश में स्त्री-शिक्षा का लोप हो गया। फलतः हम गुलाम बने और दुःखी जीवन बिताते रहे। अब समय बदल गया है और स्त्री शिक्षा का महत्त्व समझ रहे हैं। एक विद्वान ने कहा है-“एक स्त्री को शिक्षित बनाना एक पुरुष को शिक्षित बनाने से अधिक आवश्यक है। एक पुरुष यदि शिक्षित बनाता है तो उससे एक ही व्यक्ति को लाभ होता है, किन्तु एक स्त्री यदि शिक्षिता बनती है तो उससे एक पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है, क्योंकि बच्चा पहली और सच्ची शिक्षा माता की गोद में ही पाता है।”

सममुच यदि देश में स्त्री-शिक्षा का खूब प्रसार है फिर यहाँ तो गार्गी, मैत्रेयी और विदुला जैसी विदुषी नारियाँ उत्पन्न होंगी। तब हमारा देश कभी गुलाम नहीं होगा। नर की शक्ति नारी ही है। जब वह शक्तिमयी बनेगी, तब नर भी शक्तिमान होगा। स्त्री-शिक्षा के कारण ही हमें
सरोजिनी नायडू, श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित और महादेवी वर्मा जैसी देश का मुख उज्ज्वल करने • वाली नारियाँ मिली हैं। अतः स्त्री-शिक्षा अति आवश्यक है।

12. सुभाषचन्द्र बोस

त्याग और बलिदान से स्वतंत्रता के मोल चुकाने वालों में सुभाषचन्द्र बोस का नाम भी आगे की पंक्ति में है। इस महापुरुष का जन्म 23 जनवरी, सन् 1897 ई० को कटक में हुआ था। वैसे इनका पैतृक घर बंगाल चौबीस परगना जिले कोडोनिया ग्राम में था। इनके पिता जानकी नाथ उन दिनों उड़ीसा की वर्तमान राजधानी कटक में वकील थे। कटक के मिशनरी स्कूल से इन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की और वहाँ से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा पासकर ये कोलकाता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में दाखिल हुए। वहाँ से सन् 1919 ई० में इन्होंने बी० ए० की परीक्षा पास की और अपने विषय दर्शनशास्त्र में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके बाद वे पिता के आदेश पर विलायत गये और आई० सी० सी० की परीक्षा में शानदार सफलता हासिल की।

सुभाष बाबू बचपन से ही अक्खड़, न्यायप्रिय एवं देशभक्त थे। अन्याय तथा शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करना उनका स्वभाव-सा हो गया था। उनका यह स्वभाव बाद में अपनी मौलिकता के साथ बना रहा। बंग-भंग के समय जो अंग्रेजों के खिलाफ इन्होंने आवाज उठाई, वह फिर कभी शान्त नहीं हुई। बाद में रौलेट बिल, पंजाब हत्याकांड, मार्शल ला आदि अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों ने युवा सुभाष के दिल को झकझोर कर रख दिया। उसी समय महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ। वे इस असहयोग आन्दोलन में साथ हो गये थे। उन्होंने आई० सी०एस० का पद त्याग दिया। बंगाल के महान नेता देशबन्धु चितरंजन दास व्यावहारिक राजनीति में आपके गुरु थे। सुभाष बाबू की आवाज में अजीब आकर्षण था, उनके व्यक्तित्व में अजीव सम्मोहन था। परिणामतः देखते-देखते बंगाल के कण-कण में उनकी ख्याति फैल गयी।

दूसरी ओर सरकार की आँखों के वे काँटा बन गये। सुभाष बाबू 1921 ई० के दिसम्बर माह में पकड़ लिये गये। वे स्वयं स्थापित ‘युवक दल’ के माध्यम से अंग्रेजों का विरोध करते रहे। कितनी बाधाएँ आयीं, किन्तु सुभाष बाबू डटे रहे। 1934 ई० में ‘बंगाल अध्यादेश’ के अधीन बिना आरोप के ही अनिश्चित काल के लिए पकड़ लिये गये। जेल की कठोर यातना भुगतने के क्रम में इनका स्वास्थ्य खराब हो गया और वे मरणासन्न स्थिति में जेल से रिहा कर दिये गये, फिर स्वास्थ्य लाभ कर वे अपने कार्य में जुट गये। आगे चलकर काँग्रेस के साथ इनका ताल-मेल नहीं बैठा। वे काँग्रेस से अलग हो गये। उन्होंने ‘आजाद हिन्द फौज’ का संगठन किया और इसका नेतृत्व कर अंग्रेजी सरकार की नींव हिलाते रहे।

फिर परिस्थिति बदली। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी पराजित हो गया। अमेरिका के अणुबम के सामने जापान को झुकना पड़ा। अंग्रेजों की शक्ति बनी रही। नेताजी के ‘आजाद हिन्द फौज’ के क्रिया-कलाप पर इसका गहरा असर पड़ा। इन पर पड़ी अंग्रेजों की कड़ी निगाह और भी कड़ी हो गयी। फिर भी नेताजी ने हिम्मत नहीं छोड़ी। वे उस महाशक्ति से जूझते रहे। उनकी रणनीति बड़ी विचित्र थी। कभी-कभी वे बहुत दिन तक भूमिगत हो जाते और फिर साधन जुटाकर प्रकट हो जाते। उसी क्रम में जो अन्तर्धान हुए फिर प्रकट नहीं हो सके। उनके शेष जीवन के सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता है। काश, नेताजी होते और भारत की आजादी को देखकर नये भारत की नयी रूप-रेखा के निर्माण में सहायता करते।

13. साहित्यकार प्रेमचन्द

प्रेमचन्द हिन्दी के लोकप्रिय उपन्यासकार एवं प्रसिद्ध कहानीकार हैं। प्रेमचन्द का जन्म वाराणसी से पाँच मील दूर लमही ग्राम में 31 जुलाई, सन् 1880 को हुआ था। इनके बचपन का नाम धनपत राय था। इनके पिता अजायब राय डाकखाने में किरानी थे। आर्थिक दृष्टि से यह बड़ा ही गरीब परिवार था। कम ही उम्र में धनपत राय के पिता चल बसे। परिवार का सारा बोझ इस बालक के कंधे पर आ पड़ा। उधर स्कूल की पढ़ाई, इधर परिवार के भार का वहन। जैसे-तैसे द्वितीय श्रेणी से मैट्रिक पास किया। इंटरमीडिएट की परीक्षा में गणित के कारण दो बार फैल हुए। फिर वर्षों बाद आई० ए० की परीक्षा पास की। फिर स्कूल में मास्टरी की लेकिन संघर्ष के इस माहौल में भी अध्ययन और साहित्य-सर्जन का कार्य चलता रहा। मैट्रिक पास करने के पहले ही उन्हें लिखने का चस्का लग गया था। पढ़ाई और .ट्यूशन आदि से जो समय बचता उसे वे किस्से-कहानियाँ पढ़ने-लिखने में बिताते। 1901-02 में उनके एक-दो उपन्यास प्रकाशित हुए थे। 1907 ई० में कानपुर के उर्दू मासिक ‘जमाना’ में उनकी पहली कहानी ‘संसार का सबसे अनमोल रतन’ प्रकाशित हुई थी। उस समय वे उर्दू में लिखा करते थे।

धीरे-धीरे प्रेमचन्द की रचनाएँ लोकप्रियता हासिल करने लगीं। 1920 ई० तक उन्होंने उपन्यास तथा कहानी-संग्रह प्रकाशित कराये। पत्र-पत्रिकाओं में उनके कई निबन्ध छपे। 1928 ई० के बाद वे जमकर हिन्दी लिखने लगे। 1921-22 में ‘मर्यादा’ पत्रिका का सम्पादन किया। फिर ‘माधुरी’ के सम्पादक के रूप में उनकी अप्रतिम योग्यता लोगों के सामने आयी। सन् 1930 में उन्होंने ‘हंस’ का सम्पादन किया तथा 1932 में ‘जागरण’ का। नागार्जुन के शब्दों में “हद-दर्जे की ईमानदारी और अपनी ड्यूटी को अच्छी तरह निभाने की मुस्तैदी, खुद तकलीफ झेलकर दूसरों को सुख पहुंचाने की लगन, सौ-सौ बन्धनों में जकड़ी हुई भारत-माता की स्वाधीनता की आतुरता, बाहरी और भीतरी बुराइयों की तरफ से लोगों को आगाह रखने का संकल्प, हर तरफ के शोषण का विरोध, अपनी इन खूबियों से प्रेमचन्द खूब लोकप्रिय हो उठे।”

प्रेमचन्द की रचनाओं में गोदान, सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, रंगभूमि, मानसरोवर तथा प्रेमाश्रम का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचन्द का कथा-साहित्य और उपन्यास साहित्य इस बात का प्रमाण है कि वे नवीन क्रांतिकारी चेतना के अग्रदूत बनकर अवतरित हुए थे। हिन्दी उपन्यास का वास्तविक प्रारंभ प्रेमचन्द से ही माना जाता है। उन्हीं के समय से उपन्यास, प्रेमकथा, तिलस्म, ऐय्यारी, जासूसी चमत्कारों तथा धार्मिक उपदेशात्मक क्षेत्रों को छोड़कर सच्चे अर्थों में समाज के क्षेत्र में आया। प्रेमचन्द के पहले उपन्यास रचना का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन था। प्रेमचन्द ने सर्वप्रथम यथार्थ की भूमिका पर चरित्र-चित्रण की ओर ध्यान दिया। उन्होंने मानव जीवन और मुख्यतया कृषक-वर्ग एवं राष्ट्रीय आन्दोलन को अपने उपन्यासों में बड़ी संवेदनशील शैली में प्रदर्शित. किया।

वस्तुतः राजनीति में जिस शुभ कार्य का सम्पादन गाँधीजी ने किया साहित्य के क्षेत्र में उसी कार्य का सम्पादन प्रेमचन्द ने किया।

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