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 Bihar Board 12th Pali सप्रसंग व्याख्या Important Questions

Bihar Board 12th Pali सप्रसंग व्याख्या Important Questions

प्रश्न 1.
न भिक्खवे, अन्नुञयातो मातापितूहि पुत्तों पब्यजितब्बो, यो पब्बाजेय्य आपत्ति, दुक्कटस्सा ति।
उत्तर:
व्याख्या – अवतरित गूढ वाक्य हमारी पाठ्य पुस्तक ‘पालि पाठ सङ्गहो’ के ‘राहुलकुमारस्य दायज्जदानं’ शीर्षक कहानी की महत्वपूर्ण पक्ति है। इसमें तथागत द्वारा भिक्षुसंघ को प्रव्रज्या के नियमों में संशोधन का आदेश दिया गया है।

राहुल कुमार अपने पिता तथागत से उत्तराधिकार की याचना करता है। अपने शास्ता अर्थात् भगवान बुद्ध के आदेशानुसार सारिपुत्र को प्रब्रजित कर लेते हैं। भगवान बुद्ध द्वारा राहुल कुमार को प्रबजित करने के लिए दिये गये आदेश पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सम्राट शुद्धोध न प्रव्रज्या के नियमों की कटु आलोचना एवं निन्दा करते हैं। वे भगवान बुद्ध के समक्ष अपना कारूण्य भाव प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि अपनी तथा नन्द की प्रब्रज्या से मुझे असह्य तथा असीम पीड़ा हुई, जिससे मेरे हृदय पर धक्का लगा। परन्तु, किसी प्रकार इस बालक (राहुल) के आश्रम से अपने आपको संभाला। आप ही बतादें कि इसे प्रब्रजित कर लेने के पश्चात् अब मेरा आश्रयदाता कौन होगा ? अतः यह नियम अनुचित, अव्यवहारिक एवं निन्दनीय है। इसमें प्रबजित किये जाने वाले व्यक्ति के माता-पिता की अनुमति अपेक्षित है।

सम्राट शुद्धोधन की उपर्युक्त बात तथागत को रूचिकर प्रतीत हुई। जिसके कारण प्रव्रज्या के निमयों के परिवर्तन (संशोधन) लाना आवश्यक समझा। तत्पश्चात् उन्होंने अपने संघ के भिक्षुओं को आदेश दिया कि बिना माता-पिता की आज्ञा (अनुमति) प्राप्त किये किसी भी व्यक्ति को प्रब्रजित न किया जाय। साथ-ही-साथ यह भी निर्देश दिया कि जो ऐसा करेंगा उसे दुक्कट के अपराध से युक्त माना जायेगा।

इस तरह प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से हमें यह देखने को मिलता है कि भगवान बुद्ध तानाशाही प्रवृत्ति के व्यक्ति न थे, बल्कि समाज और परिस्थिति की पुकार पर अपने संघ-संचालन की व्यवस्था करते थे।

प्रश्न 2.
इद खो पन भिक्खवे, दुक्खसमुदयं अरियसच्चं – यायं तण्हा
पानेब्भविका नन्दिरागसहगता तत्रतत्राभिनन्दिनी,
सेय्यथीदं कामतण्हा, भवतण्हा, विभवतण्हा।
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत गद्यांश डा० जगदानन्द ब्रह्मचारी द्वारा सम्पादित एवं हमारी पाठ्य-क्रम के लिए निर्धारित पुस्तक ‘पालि पाठ सङ्गहो’ के ‘धम्मचक्कप्पवत्तन’ शीर्षक कहानी से अवतरित है। इस भावपूर्ण गद्यांश में तृष्णा के यथार्थ स्वरूप का प्रतिबिम्ब खींचा गया।

भगवान बुद्ध वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव में पञ्चवर्गी भिक्षुओं को अपना प्रथम धर्मोपदेश में चार आर्य सत्य का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि संसार के समस्त प्राणी दुखों से अक्रान्त हैं और इस दुःख का कारण है तृष्णा। अपने द्वितीय आर्य सत्य अर्थात् ‘दुक्खसमुदाय अरिय सच्चं’ में इसी तृष्णा का व्यापक वर्णन करते हुए भगवान बुद्ध ने तृष्णा को समस्त दु:खों की जननी कहा है। यह तृष्णा बार-बार जन्म लेने वाली तथा आनन्द मार्ग में मस्त रहने वाली होती है जो मानव मन को असीम इच्छाओं के साम्राज्य में उलझाकर उसे मोक्ष से कोसों दूर फेंक देती है। यह तृष्णा बौद्ध दर्शन के अनुसार तीन प्रकार की इच्छा बतलायी गयी हैं, यथा

(i) कामतण्हा-विषय-वासना से उत्पन्न होने वाली सुख की इच्छा या कामना,
(ii) भवतण्हा-सांसारिक वैभव विभूतियों की प्राप्ति से मिलने वाली आनन्द की इच्छा या कामना और
(iii) विभवतण्हा-भव से अलग जनवादी या शाश्वतवादी धारणाओं से मिलने वाली सुख की इच्छा या कामना।

भगवान बुद्ध ने तृष्णा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए बतलाया है कि यह तृष्णा बड़ी मनोरम प्रकृति की है। तृष्णा के वशीभूत होकर ही प्राणी दुःख झेलता रहता है। तृष्णाएँ अनन्त होती हैं। मनुष्य को एक तृष्णा पूरी भी न हो पाती हैं कि दूसरी तृष्णा बलवती हो उठती हैं। अपने अनन्त तृष्णाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिए प्राणी असंख्य अकुशल तथा पापमूलक कर्मों को करते हुए आश्रवं, संयोजन, नीवरण एवं पुण्य के अनेक अवरोधों को एकत्र करते हुए अकुशल संस्कार संयोता रहता है, जिसके परिणामस्वरूप पुनर्जन्म की उपलब्धि होती है और तब फिर अभाव, बुढ़ापा, व्याधि, मृत्यु, पुर्नजन्म के तार बंध जाते हैं। इस प्रकार यह तृष्णा ही मनुष्य के जन्म-मरण एवं अन्यन्य दु:खों का प्रधान हेतु चक्र है।

प्रश्न 3.
द्वेमे, भिक्खवे, अन्ता पल्बजितेन न सेवितब्बा।

व्याख्या – यह गूढ वाक्य हमारी पाठ्य-क्रम ‘पालि पाठ सङ्गहो’ के ‘धम्मचक्कप्पवत्तन’ शीर्षक कहानी का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण अंश है। इस भावपूर्ण वाक्य के माध्यम से तथागत ने पञ्चवर्गीय भिक्षुकों को अपने प्रथम धर्मोपदेश के क्रम में दो अन्तों का सेवन निषिद्ध बतलाया है।
उत्तर:
बोधगया में निरञ्जना नदी के तट पर बोधिवृक्ष के नीचे बुद्धत्व-प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध ब्रह्मा सहम्पति के आग्रह पर सारनाथ के ऋषिपतन मृगदाव में जाकर पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को अपना प्रथम धर्मोपदेश देते हैं। इस अवसर पर वे उन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को दो अन्तों का सेवन न करने को कहा। दो अन्तों से उनका तात्पर्य दो प्रकार की विचारधाराओं से है, जो उस समय समाज में प्रचलित थी। ये हैं-अतिशय काम-सुख में लिप्त होना तथा अतिशय काय-क्लेश में लगना। तथागत की दृष्टि में ये दोनों ही विचार असेवनीय हैं, क्योंकि इनसे व्यक्ति की तृष्णाओं का दमन नहीं होता। भगवान बुद्ध ने इन दोनों ही विचारों को अपने जीवन के व्यावहारिक पक्ष में लाकर देखा था-एक राजकुमार के रूप में कामजनित सभी सुख-सौख्य का उपभोग करके तथा दूसरा साधक के रूप में अत्यधिक काय-क्लेश सहकर लेकिन इनसे उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई।

अतएव उन्होंने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को इन दोनों अन्तों का सेवन अनुपयुक्त बतलाते हुए . इन्हें त्यागकर स्वनिर्मित ‘मध्यम मार्ग’ को अपनाने की सीख दी, जो आर्य अष्टांगिक मार्ग का शील समाधि और राजा के नाम से प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 4.
अकुप्पा में विमुत्ति, अयमन्तिमा जाति, नत्थ दानि पुनएभवोति।
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण उद्धृतांश हमारी पाठ्य-क्रम ‘पालि पाठ सङ्गहो’ के ‘धम्मचक्कप्पवत्तन’ शीर्षक कहानी का अन्तिम तथा महत्वपूर्ण पंक्ति है। इसमें तथागत ने चार आर्य सत्यों के महत्व पर प्रकाश डाला है।

तथागत ने एक सफल चिकित्सक की भाँति दुःख से ग्रसित संसार के प्राणियों को उससे त्राण दिलाने हेतु ही अपना समस्त उपदेश दिया है। जैसे कोई डाक्टर किसी रोगी के रोग का नामकरण, रोग का निरोध तथा रोग के निरोध के उपायों को बताकर रोगी को रोग मुक्त करता है वैसे ही तथागत ने समस्त मानवता के मूल रोग दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निरोध तथा दुःख के उपायों पर प्रकाश डालते हुए क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ आर्य सत्यों की स्थापना की है, जिनके सम्यक् अनुशीलन तथा अनुपालन से मनुष्य निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है। साथ ही पुनर्जन्म के बन्धनों से अपने आप को परे रख सकता है।

इन चार आर्य सत्यों-दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध तथा दुःख निरोधगामिनी पटिपदा के सम्बन्ध में तथागत ने अपने प्रथम धर्मोपदेश में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा है कि भिक्षुओं। जब तक मैंने चार आर्य सत्यों का तेहरा करके अर्थात् उसके द्वादस स्वरूप का दर्शन नहीं कर लिया तब तक मैंने सम्यक् सम्बोधि प्राप्त कर लेने की घोषणा नहीं किया कि मैंने ज्ञान लोक का दर्शन कर लिया है। मेरी विमुक्ति अचल है और यह मेरा अन्तिम जन्म है, अर्थात् इसके पश्चात् मेरा इस संसार में पुनर्जन्म नहीं होगा।

इस तरह हम देखते हैं कि प्रस्तुत पंक्ति में चार आर्य सव्य को ही तथागत ने विमुक्ति का यथार्थ साधन माना है।

प्रश्न 5.
संखित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा।
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण पक्ति हमारी पाठ्य-क्रम ‘पालि पाठ सङ्गहो के’ धम्मचक्कप्वत्तनं शीर्षक कहानी का उद्धृतांश है। इस पंक्ति में तथागत ने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को जीवन के दुःखमय स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है।

बुद्धत्व-प्राप्ति के पश्चात् भगवान बुद्ध वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को अपना प्रथम धर्मोपदेश देते हैं। इस अवसर पर उन्होंने कहा है कि जीवन के प्रत्येक . : क्षण में मानव दुःख झेलता रहता है। लाख प्रयत्न करने पर भी उसे इससे त्राण नहीं मिल पाता। इन दुःखों की गणना करना सहज संभव नहीं: क्योंकि जन्म भी दुःख है, जरा (बुढ़ापा) भी दुःख है, व्याधि (रोग) भी दुःख है, मरण भी दुःख है, अप्रिय का संयोग भी दुख है, प्रिय का वियोग भी दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना भी दुख है। संक्षेपतः यही कहा जा सकता है कि मानव व्यक्तित्व का सृजन जिन पाँच उपादान स्कन्धों, यथा-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान से हुआ है, वे सभी दुःख का कारण हैं।

अतः उद्धृत व्याख्यात्मक पंक्ति में इन्हीं पञ्च उपादान स्कन्धों को तथागत ने दुःखमय बतलाते हुए अपने प्रथम आर्य सत्य अर्थात् दुक्ख अरियसच्चं में ‘दुःख क्या है’ के हर पहलुओं पर विस्तृत विवेचन उपस्थित किया है।

प्रश्न 6.
माता-पिता दिशा पुब्बा, आचरिया दक्खिणा दिशा ।
पुत्तदारा दिसा पच्छा, मित्तामच्चा च उत्तरा ॥
दासकम्पकरा हेट्ठा, उद्धं समणब्राह्मणा ।
एतादिसा नमस्सेय्य, अलमत्तो कुले गिही ॥
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण गाथा पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-क्रम ‘पालि पाठ सङ्गहो’ के सिंगाल-सुत्त शीर्षक कहानी से उद्धृत है। इन गाथाओं में दिशा-पूजन के महत्व को बतलाया गया है।

अपने मृत पिता की अन्तिम इच्छा की पूर्ति हेतु सिंगाल द्वारा दिशाओं के पूजन को देखकर भगवान बुद्ध दिशाओं के पूजन की विधि तथा उसके फलों को समझाते हुए सिंगाल से कहासिंगाल ! आर्य के धर्म-विनय में दिशाएँ छः मानी गयी हैं; यथा-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, नीचे और ऊपर की दिशा। ये छः दिशाएँ छः प्रकार के व्यक्तियों का घोतक करती है, जिनमें पूर्व तथा दक्षिण दिशा क्रमशः माता-पिता एवं आचार्य (गुरु) का, पश्चिम तथा उत्तर दिशा क्रमशः स्त्री-पुत्र एवं मित्र-अमात्यों का और नीचे तथा ऊपर की दिशा क्रमशः दास-कम्मकार एवं श्रवण-ब्राह्मण का प्रतीक माना गया है और इनके प्रति सम्यक् कर्त्तव्य का पालन ही इन छः दिशाओं का सम्यक् (यथेष्ट) पूजन है।

इस प्रकार उद्धृत गाथाओं के माध्यम से समाज के व्यक्तियों के प्रति हमारे कर्तव्य का यथोचित ज्ञानबोध कराने के लिए ही तथागत ने दिशाओं के पूजन का महत्व बतलाया है। समाज के लोगों में अपनी प्रेम तथा सद्भावना बनाये रखने से राष्ट्र एवं व्यक्ति दोनों के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। इसलिए गृहस्थ को अपने कुल में इन दिशाओं को अच्छी तरह नमस्कार (पूजन) करने की सीख दी गयी है।

प्रश्न 7.
“जितम्हा वत भो अम्बकाय, पराजितम्हा वत भो अम्बकाया, ति।”
उत्तर:
व्याख्या – यह प्रस्तुत वाक्य हमारी पाठ्य पुस्तक ‘पालि पाठावलि’ के ‘अम्बपालि गणिका’ शीर्षक से उद्धृत है। इसमें लिच्छवी कुमारों के मानसिक संताप की झलक परिलक्षित होती है।

भगवान का दर्शन कर लौट रही अम्बपालि को भगवान् के दर्शनार्थ जाते लिच्छवी कुमारों से मार्ग में भेंट होती है। अम्बपालि प्रसन्नता के भावावेश में उनका मार्ग रोक लेती है। उन्हें आश्चर्य होता है और वे कारण पूछते हैं। कारण जानकर उनलोगों ने समझा कि एक गणिका भला भगवान बुद्ध को हमारे समझ क्या निमन्त्रण देगी। यह तो पैसे की भूखी होती है। इसे रूपये देकर इसका मुँह बन्द कर दिया जायेगा। अतः इस आशय का उन्होंने अम्बपालि के सामने प्रस्ताव रखा। पर उनके प्रस्ताव को तुच्छ समझकर अस्वीकार कर दिया। उसने कहा- आर्यों, सौ हजार कार्षापण क्या, वैशाली की सारी सम्पत्ति भी इस भोजन के समक्ष बौनी है। इतना सुनते ही लिच्छवी कुमारों का भ्रम टूट गया। उन्होंने समझ लिया कि आज अम्बपालि ने हमें मात दे दी है। इसके हृदय में भी भगवान के प्रति अपार श्रद्धा एवं अटूट विश्वास झिलमिला रहा है। यह हमलोगों से पीछे नहीं, आज आगे हो गयी। इसके समक्ष हम गौण हो गये हैं।

प्रश्न 8.
“इत्थी खो गिल्मनी पुरिसानं अमनापा।”
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘पालि पाठावलि’ के ‘जीवको’ कोमार भच्चों शीर्षक से उद्धृत है। इसमें गर्भवती नारी के मनोवैज्ञानिक पहलू पर दृष्टिपात किया गया है।

शालवती कुमारी राजगृह की गणिका के पद पर प्रतिष्ठित होकर अपनी सुन्दरता एवं कला के कारण लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन चुकी थी। अभी वह अपनी सम्पूर्ण कला का प्रदर्शन भी न कर सकी थी कि वह गर्भवती हो गई। यह उसकी चिन्ता का विषय हो गया। वह सोचने लगी कि गर्भवती स्त्रियाँ पुरुषों के मनोरंजन के योग्य नहीं रहती हैं। अब मैं लोगों को न तो अपने कला-प्रदर्शन के माध्यम से और न अपने सौन्दर्य-जाल से आकर्षित कर सकूँगी। अब मेरी कला एवं सुन्दरता दोनों शिथिल पड़ जायेंगी और मेरी ओर कोई मुड़कर भी नहीं देखना चाहेगा। मैं अब अपना सारा सम्मान खो दूंगी। पुरुष गर्भवती महिला से सर्वथा दूर रहना चाहता है, क्योंकि उसके मन में गर्भवती महिला के प्रति विराग उत्पन्न हो जाता है।

प्रश्न 9.
इमानि खो राजकुलानि न सुकरानि असिप्येन उपजीवितुं।
यंनूनाहं सिप्पं सिक्खेय्यं ति।।
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत वाक्य डॉ० आत्रेय एवं डॉ० मिश्र द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘पालि पाठावलि’ के जीवको कोमार भच्चो से उद्धृत किये गये हैं। इनमें शिल्प (विद्या) के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।

जीवक’ कुमार भृत्य बाल सुलभ चंचलतावश एक दिन अभय राजकुमार से अपनी माँ एवं पिता का परिचय पूछ बैठता है। अभय कुंमार से उत्तर सुनकर जीवक अपनी कुशाग्र बुद्धि से समझ जाता है कि यह मेरा अपना घर नहीं है। यह कोई राज घराना है, जहाँ मेरा लालन-पालन मेरे अनाथ होने के कारण किया जा रहा है। अभी मैं बाल्यावस्था में हूँ, अतः लोग मुझे अपना प्यार दे रहे हैं। युवा एवं पौढ़ावस्था में भी इस परिवार में बने रहने और लोगों का प्यार पाते रहने के लिए मुझे ज्ञानार्जन करना चाहिए। बिना किसी शिल्प में दक्षता प्राप्त किए यह सम्भव नहीं क्योंकि कहा गया है-सित्यं समं धन नत्यि एवं ईघा लोके सित्यं मित्त। अतः उसने शिल्प सीखने (विद्याध्ययनं करने) का दृढ़ संकल्प किया-यन्न्नाहं सित्यं सिक्खेय्यं ति।’

प्रश्न 10.
सेय्थापि नाम वलवा पुरिसो समिञ्जितं दा वाहं पस्सारेय्थ, पसारितं वा वाहं समिळ्थ्य एवमेव जेतवने अन्तरहितो विसाखाय मिगारमातुया कोट्ठके पातुरहोसि।
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत सारगर्भित पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक ‘पालि पाढावली’ के ‘विशाखा मिगारमाता’ शीर्षक कहानी से लिया गया है। इस पंक्ति में भगवान बुद्ध के पुरुषार्थ एवं अलौकिक गुणों को दिखाया गया है।

श्रावस्ती में अनाथापिण्डिका के जेतवनाराम में विहार कर रहे भगवान भिक्षु-संघ सहित एक दिन विशाखा मिगारमाता ने अपने यहाँ भोजन पर आमन्त्रित किया। उसके कुछ दिन पूर्व से ही अन्तिम चतुदर्शिक महामेघ वरस रहा था, जिसके कारण चारों ओर प्रलय सा दृश्य उपस्थित हो गया था और जीवन अस्त-व्यस्त होने लगा था। ऐसी स्थिति में भी भगवान बुद्ध अपने भिक्षु संघ के साथ ठीक समय पर चीर पहनकर पात्र ले जैसे वलवान पुरुष अपनी समेटी वाहों को पसारे अथवा पसारी वाँहों को समेट ले, ठीक उसी प्रकार जेतवन में अतध्यान हो विशाखा मिगार माता के कोठे पर प्रगट हुए।

भगवान बुद्ध के ऐसे पुरुषार्थ को देख विशाखा आश्चर्य में पड़ गयी, क्योंकि जांघ भर कमरभर बाढ़ के रहते एक भी भिक्षु का पैर या चीवर तक न भिंगा था। इस तरह बुद्ध के ऐसे अद्भूत भरे कार्यों के दृव्यावलोकन से उनमें अलौकिक गुणों का समावेश होना स्पष्ट परिलक्षित होता है अथवा यो कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बुद्ध पहुंचे हुए ऋद्धिमान पुरुषावतार थे।

प्रश्न 11.
एवं तुम्हाकं ज्यो अन्ता परिग्गाहिता भविसन्ती ति ।
या, असुचित भन्ते नग्गियं पटिक्कूलं।
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण पंक्तियाँ ‘पालि पाढावलि’ के ‘विशाखा मिगारमाता’ शीर्षक से लिया गया है। इस वाक्य में बौद्ध भिक्षुणियाँ तत्कालीन वेश्याओं द्वारा तीखा प्रहार किया गया है।

एक बार बुद्धकालीन भिक्षुणियाँ वेश्याओं के साथ अचिरवती नदी में एक ही घाट पर नग्न होकर स्नान कर रही थी। नग्नता घृणित, गंदी, असभ्य, अनुचित एवं अमाननिय व्यवहार है। भिक्षुणियों के इस व्यवहार के साथ ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते देख वेश्याओं को बड़ा आश्चर्य होता है। वे समझ नहीं पाती की युवावस्था में ब्रह्मचर्य जीवन का क्या प्रयोजन है ? उनकी दृष्टि में युवावस्था तो कामनाओं के उपभोग का दिन होता है और ब्रह्मचर्य पालन वृद्धावस्था के लिए श्रेष्ठकर होता है। वृद्धावस्था में मनुष्य की समस्थ इन्द्रियाँ शिथिल पड़ जाती है और कामनाओं का वेग जाता रहता है। इसलिए भिक्षुणियों को नसीहत के तौर पर कहती है कि युवावस्था में कामनाओं के भोग का उपयोग करें और वृद्धा वस्था में ब्रह्मचर्य का पालन ऐसा करने से उन्हें दोनों ही फलों की प्राप्ति होगी, अर्थात् युवावस्था में इन्द्रियजनित सुख तथा , वृद्धावस्था. में मोक्ष्य की प्राप्ति।

इस तरह उद्धृत व्याख्यात्मक पंक्ति के आधार पर कहा जा सकता है कि तत्कालीन बौद्ध नवयुवती भिक्षुणियों कुछ आचरण ऐसे थे, जिसके कारण वे समाज में मखौल और उपहास का केन्द्र बिन्दु बन गई थी तथा समाज के निम्न वर्ग के लोगों द्वारा भी उनके ब्रह्मचर्य-जीवन यापन पर व्यंग कशा जाता था। अत: उपयुक्त बातों को ध्यान में रखकर ही विशाखा मिगार माता ने भगवान बुद्ध से आजीवन बौद्ध भिक्षुणियों के ‘उदकसाटिका” देते रहने की अनुमति प्रदान की थी।

प्रश्न 12.
नत्थि रागसमो अग्नि, नत्थि दोससमो कलि ।
नत्थि खन्धासमा दुक्खा, नत्थि सन्ति परं सुखं ॥
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण पंक्तियाँ ‘पालि पाठसंग्रहो’ द्वितीय भाग के ‘सुखवग्गो’ शीर्षक का छठा गाथा है। इस गाथा में तथागत के बड़ा मनोरम ढंग से दुःख निवारण को बतलाया है।

प्रस्तुत सुत्त में तथागत ने राग, द्वेष और मोह ये तीन अंकुश हेतु के बारे में बतलाया है। जिसके कारण मनुष्य इस भवचक्र में पड़ सांसारिक यातनाओं का उपभोग करता है। भगवान ने पञ्चस्कन्ध के बारे में भी बड़े ही मनोरम ढंग से बतलाया है। रूप, वेदना, संज्ञा संस्कार और विज्ञान ये पञ्चस्कन्ध हैं। जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। तथागत की दृष्टि में ये सभी दुःख कारक हैं। इन सभी के अमूल्य विनाश से ही निरूपधिशेष निर्वाण की प्राप्ति करता है जो परम सुख कारक है।

प्रश्न 13.
जयं वे पसवति, ‘दुक्खं सेति पराजितो ।’
उपसन्तों सुखं सेति, हित्वा जय पराजयं ॥
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत गाथा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘पालि पाठ संग्रहो’ ‘दुतियोभाग’ के ‘सुखवग्गो’ शीर्षक से ली गई है। इस सुत्त में जय और पराजय के बारे में वर्णित किया गया है। वैर शत्रुता को जन्म देती है जय और पराजय से परे रहकर सुख की निन्द सोता है।

इस गाथा में प्रशान्त चित्त की विशेषता पर प्रकाश डाला गया है। जिस व्यक्ति ने राग, द्वेष और मोह का सम्पूर्ण त्याग कर दिया है उसे प्रशान्त चित्त की संज्ञा प्रदान की जाती है। जिसका चित्र प्रशान्त हो जाता है उसे किसी वस्तु की कामना नहीं रह जाती है। फलतः वह जया, प्राजय दोनों से दूर रह निश्चित हो सुख की निन्द सोता है, क्योंकि वह जानता है कि विजय शत्रुता एवं प्रलोभन को जन्म देती है। पराजित व्यक्ति विजय का और विजय पराजित का शत्रु बन बैठते हैं। प्राजित व्यक्ति अपनी विजय से फूला नहीं समाता है उसका मद एवं प्रलोभन और बढ़ जाता है तब वह पुनः विजय और अभियान प्रारम्भ कर देता है।

प्रश्न 14.
साधु दस्सनमरियानं सन्निवासो सदा सुखो ।
अदस्सनेन बालान, निच्चमेव सुसी सिया ॥
उत्तर:
व्याख्या – अवतरित व्याख्यात्मक गाथा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘पालि पाठ संग्रहो’ के ‘सुखवग्गो’ का बड़ा ही महत्वपूर्ण अंश है। यह गाथा बुद्ध उपदिष्ट आर्य सत्यों के महत्व के साथ-साथ सत्यपुरुषों के साहचर्य तथा मूर्तों के संगती से दूर रहने का आदर्श उपस्थित किया गया है।

तथागत से संसार के प्राणियों की दुःख से त्राण दिलाने हेतु चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया है। जिसके बुद्ध उपदिष्ट चार आर्य सत्यों को भली-भाँति जान लिया है वह निश्चय ही निर्वाण प्राप्त कर दुःख से छुटकारा पा लेता है, क्योंकि आशक्ति, तृष्णा, आश्रव निवरण, संयोजन पुनर्जन्म आदि से मुक्त हो चुका होता है बुद्ध ने सदा सत्यपुरुषों की संगति करने को कहा है, क्योंकि सज्जन व्यक्ति लोभ, दोष, मोह आदि से रहित, निन्दा प्रशंसा में अविचलित कुशल तथा पुण्यात्मक कार्यों में सदा रत रहते हैं।

अतः बुद्ध मुखों की संगति न कर सज्जन की संगति करने की नेक सलाह दी है। सज्जनों की संगति सदा सुखदायी होती है, जबकि मुखों की संगति सदा दुःखदायी। मूर्ख अपनी अज्ञानता के कारण हिंसात्मक एवं पाप मूलक कर्मों के कारण सदा दु:ख के दल-दल में फंसता चला जाता है। सांसारिक आसक्ति एवं तृष्णाओं के साम्राज्य में वह उलझा रह जाता है। प्रेम, दया, त्याग, मैत्री, सहानुभूति आदि का मानव चित्र का उसमें अभाव रहता है।

अतः उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए भगवान बुद्ध ने प्रस्तुत व्याख्यात्मक गाथा के माध्यम से कहा है कि आर्य सत्यों का दर्शन सुन्दर है। सन्तों के साथ निवास सदा सुखदायक है और मूखों के दर्शन न होने से मनुष्य सदा सुखी रहता है। .

प्रश्न 15.
धम्मपीति सुखं सेति, विप्पसन्नेन चेतसा ।
भरियप्पवेदिते धम्मे, सद रमति पण्डितो ॥
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण एवं सारगर्भित गाथा हमारे पाठ्य पुस्तक के ‘पालिपाठ’ संगहो के ‘पण्डितवग्गो’ शीर्षक से अवतरित है। इस गाथा में पण्डितजनों की चारित्रिक विशेषताओं पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है।

तथागत के अनुसार पण्डित धर्म रस पान कर प्रसन्न चित्त हो सुख पूर्वक सोते हैं। उन्हें सांसारिक गतिविधियों की तनिक भी चिन्ता नहीं रह पाती। वे तो आधा पुरुषों के निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण कर सम्यक् जीवन यापन किया करते हैं। सतत जागरूकता के कारण उनका चित्त कुमार्गों की ओर अग्रसर नहीं हो पाता। अतः उनके चित्त में अदम्य साहस, अत्यधिक उत्साह एवं असिम आनन्द सदा विद्यमान रहता है।

इस तरह प्रस्तुत गाथा के द्वारा तथागत ने संसार के प्राणियों को पण्डित जनों के आचरण का अनुसरण करने का पाठ पढ़ाया है।

प्रश्न 16.
यथा मात-पित भाता, अज्जे वापि च जातक ।
गावो नो परमा मित्र, यासु जायन्ति ओसधा ॥
उत्तर:
व्याख्या – अवतरित गाथा ‘ब्राह्मणधम्मिक सुत्त’ शीर्षक पाठ की है, इस गाथा में गोधन महत्व को दर्शाया गया है। भारतीय पशुओं में गायों का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है। क्योंकि इसे माता-पिता, भ्राता आदि सदृश्य आदरणीय एवं पूज्य माना जाता है।

प्राचीन भारतीय ब्राह्मण समाज में गायों के प्रति अमिट श्रद्धा थी। वे इसके प्रति वही श्रद्धा एवं स्नेह रखते थे, जो अपने माता-पिता, भ्राता तथा अन्य सगे-सम्बन्धियों के बीच रखते थे। इसका प्रमुख कारण था कि जिस प्रकार इन सम्बन्धियों से अपातकाल में मानव को अत्यधिक सहायता मिल पाती है। उसी प्रकार गायें भी मानव समाज के लिए काफी उपयोगी और सहायक सिद्ध होती है। गाय से मनुष्य को पौष्टिक पदार्थ की प्राप्ति होती है, इतना ही नहीं, बल्कि विभिन्न प्रकार की औषधियों के काम में लाये जाते हैं।

इस प्रकार भारतीय समाज की वृद्धि तथा सर्वांगीण विकास में अन्यतम सहायता देने के कारण ही गायें भारतीय संस्कृति में एवं भारतीय पशुओं में अत्यधिक सम्मानित मानी जाती थी और आज भी मानी जाती है।

प्रश्न 17.
ब्रह्मचरियं च शीलं च, अज्जवं मदृवं तप ।
सोरच्चं अविहिसं च, खन्तिं चापि अवण्णयुं ॥
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण गाथा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘पालि पाठ संग्रहो’ के ‘ब्राह्मणध म्मिक सुत्त’ शीर्षक पद्य से उद्धृत है। इसमें प्राचीन भारतीय ब्राह्मणों के परिशुद्ध चरित्र की झाँकी प्रस्तुत की गई है।

प्राचीन भारतीय ब्राह्मणों के समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। वे समाज के नायक माने जाते थे। उनके सम्यक् पथ-प्रदर्शन के कारण ही भारतीय समाज समुन्नतशील एवं गौरवान्वित हो सका था। इन ब्राह्मणों में ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, ओज, मृदुता, तपश्चर्य, सज्जनता अहिंसा क्षमाशीलता आदि गुण एक साथ विद्यमान थे। इन्हीं गुणों के कारण समाज के लोग इनकी प्रसन्नता करते थे।

इस तरह हम देखते हैं कि तत्कालीन भारतीय ब्राह्मण अपनी ज्ञान की अपूर्व ज्योति से सारे संसार को आलोकित कर रखा था एवं अपूर्व त्याग के कारण भारतीय सभ्यता संस्कृति की मूर्धन्य स्थान प्राप्त हो सका।

प्रश्न 18.
खतिया ब्रह्मबन्धु च, यं चज्जे गोतरक्खिता ।
जाति वादे निरङ्गत्वा, कामनं वसमागमुन्ति ॥
उत्तर:
व्याख्या – प्रस्तुत भावपूर्ण पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक पालि पाठ संग्रहो के ‘ब्राह्मणपतीक सुत्र’ की अन्तिम गाथा था। __उन्नति तथा आवन्ति प्राकृतिक का स्वाभाविक एवं खण्डन नियम है। इस अकाट्य सिद्धान्त के अनुरूप ही भारतीय समुन्नतशील समाज की स्थिति में परिवर्तन आया और यही भी हीनवस्था को प्राप्त किया। उपर्युक्त व्याख्यात्मक गाथा में इसकी हीनावस्था के कारण तथा वर्तमान स्थिति का सुक्षम दिग्दर्शन है।

भारतीय ब्राह्मणों, जिनकी तपश्चर्य एवं चरित्रवल के कारण ही भारतीय समाज गौरवान्वित हो चुका था, काल क्रम में लोभ और लाभ में पड़कर वे आचार परित हो गये। सांसारिक वस्तुओं के प्रति उनके हृदय में लिप्सा जागृत हुई। परिणाम स्वरूप भारतीय समाज आलोकित हो उन्नित के पथ पर अग्रसर होने से वंचित हो विभिन्न वर्गों में विभाजित होकर दुर्बल बन गये। क्षत्रिय, ब्राह्मण एवं दूसरे गोत्र के जाति का विनाश कर विषय के वशीभुत हो गये। सांसारिक वस्तुओं के प्रति व्यामोह का स्वार्थपरता उनमें इतनी प्रबल हो उठी कि वे इस भार को सम्भाल नहीं सके और विभिन्न दोष से युक्त हो सद्भव की भावना भूल गये।

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