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 Bihar Board 12th Pali Important Questions Long Answer Type

Bihar Board 12th Pali Important Questions Long Answer Type

प्रश्न 1.
‘धम्मचक्कत्यवत्तनं’ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा, ‘धम्मचक्करपवत्तनं’ के आधार पर मज्झिमा पटिपदा के महत्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा, धम्मचक्कत्पवत्तनं के अवसर भगवान बुद्ध द्वारा दिए गये उपदेशों का उल्लेख कीजिए।
अथवा, ‘धम्मचक्कत्पवत्तनं’ में वर्णित घटनाओं का उल्लेख अपने शब्दों में आलोचनात्मक ढंग से लिखें।
उत्तर:
डॉ. जगदानन्द ब्रह्मचारी द्वारा सम्पादित तथा हमारी पाठ्यक्रम के लिए निर्धारित ग्रंथ ‘पालि पाठ सङ्गहो’ के ‘धम्मचक्कत्पवत्तनं’ शीर्षक कहानी में भगवान बुद्ध के प्रथम धर्मोपदेश का विशद वर्णन प्रस्तुत करते हुए मज्झिमा पटिपदा पर समुचित प्रकाश डाला गया है। कुमार सिद्धार्थ ने व्यावहारिक जगत में हास्य को चीर रूदन में, ऐश्वर्य का निल्किचनता में हर्ष को विषाद में, खिलते फूल को कुम्हलाते, मुरझाते और सारी सुख सम्पदा की अट्टालिका को भर्राकर चकनाचूर होते देखा था। जिस जीवन और जगत की वैभव विभूतियों को उन्होंने चीर स्थायी तथा शाश्वत मानकर गले लगाया था।

उनका नींव नश्वरता एवं परिवर्तन को आघात मात्र से हिल उठा। परिणामस्वरूप यह मानव-जीवन उन्हें निस्सार, बेकार, जकड़न, बन्धन का केन्द्र एवं अनित्य मालूम पड़ा। बुढ़ापा, रोग, शोक, परिताप, बन्धन, मृत्यु आदि विषयक दुःख पूँजों से मानव को उद्धार दिलाने के लिए वे तत्पर हो उठे और अपनी 29 वर्ष की अवस्था में सारे राजपाट, विश्व की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी पत्नी यशोधरा नवजात शिशु राहल, पुत्र के लिए सभी सुखों को न्योछावर कर देने वाले पिता शुद्धोधन तथा महाप्रजापति गौतमी जैसी मौसी का परित्याग कर अंधेरी रात में अमृत की खोज में घर से निकल पड़े।

साधना और कठिन तपश्चर्य के छः वर्ष बीतने के बाद कुमार सिद्धार्थ के उरूवेला के जंगल में निरंजना नदी के तट पर बोधिवृक्ष के नीचे बुद्धत्व की प्राप्ति हुई। बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात् तथागत के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि जिस तान को मैंने प्राप्त किया है वह बड़ा ही गंभीर दूरदर्श, शान्त, उत्तम तर्क से अप्राप्त निपुन एवं पण्डितों द्वारा जानने योग्य है। अतः काम वासनाओं में तृप्त संसार के प्राणियों के बीच उसका प्रकाशन करना ठीक नहीं। परन्तु ब्रह्मा सहम्पत्ति ने तथागत के इस विचार को जान लिया और उनसे धर्मोपदेश करने का आग्रह किया तथागत ने ब्रह्म सहम्पत्ति के आग्रह को स्वीकार करते हुए अपना प्रथम धर्मोपदेश तीक्ष्ण बुद्धि वाले अपने दो गुरू आलार कालाम और उदक राम पुत्र को देना चाहा, लेकिन एक सप्ताह पहले दोनों गुरू काल कलवित हो चुके थे। तब उन्होंने वारणसी के ऋषिपतन मृगदाव में रह रहे पञचवर्षीय भिक्षुओं के समक्ष अपना धर्मोपदेश देने का निश्चय कर वहाँ पहुँचे।

अपना प्रथम धर्मचक्रवर्तन करते हुए तथागत ने इन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा-भिक्षुओं ? दो अन्तों का सेवन कभी भी अवजित के लिए उचीत नहीं है। दो अन्तों से उनका तात्पर्य दो प्रकार के विचारधाराओं से था, जो तत्कालीन समाज में प्रचलित थी तथा जिसके समर्थकों की संख्या भी कम न थी। इसमें प्रथम कामनाओं में कामसुखलिप्त होना था तथा दूसरा अनर्थों से युक्त काटा-कलेश में लगना। तथागत ने इसे अनार्य, ग्राम्य तथा अनर्थों से युक्त बतलाया, क्योंकि उन्होंने इन दोनों विचारों की अपने जीवन के व्यवहारिक पक्ष में लाकर देखा था और इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि इससे तृष्णा का विनाश सम्भव नहीं है। अतएव उन्होंने भिक्षुओं को मध्यम मार्ग का अनुशरण की शिक्षा दी। आठ अंगों से समन्वित यह मध्यम मार्ग अष्टांगिक मार्ग है जिसके आठ अंग है-समदिट्ठि, सम्मा संकल्पा, सम्मावाचा, समाकयान्तो, समाआजीवी, समावायामी, समासति और सम्मासमाधि। इन आठ अंगों को तथागत ने शील, समाधि और पता नामक तीन शीर्षों में बाँटा।

तत्पश्चात उन्होंने भिक्षुओं को चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया। ये हैं-दुःख अरियसच्यं, दुःख समुदाय अरिय सच्चं, दुक्ख निरोध अरिय सच्चं, दुक्ख निरोध गामिनिपटिपदा अरिय सच्चा अपने प्रथम धर्मोपदेश के क्रम में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के समक्ष भगवान बुद्ध ने दुःख अनित्य और अनात्म पर विचार करते हुए संसार को निलक्षणात्मक बतलाया तथा प्रतीत्य समुत्पाद का प्रकाशन कर इसके महत्व को भी दर्शाया। अन्त में भगवान बुद्ध के इस उपदेशों को सतव्यत पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने अपने जीवन को ध्यान माना तथा सम्यक आचरण करने के सन्कल्प को लेकर बुद्ध के उपदेशों का अभिनन्दन किया और बुद्ध धर्म एवं संघ की शरण में आकर बौद्ध उपासक बन गये।

प्रश्न 2.
‘अम्बापालि गणिका’ का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर:
अम्बपालि गणिका महापरिनिब्बान सुत्त से संग्रहित है जो पालि साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ दीघ निकाय का है। इसमें भगवान बुद्ध के अन्तिम यात्रा का वर्णन मिलता है।

अम्बपालि वैशाली राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी थी। उस समय वैशाली एक समृद्ध राज्य था। समृद्ध राज्य की गणिका होने के कारण योवनावस्था में उससे भौतिक एवं दैहिक सुख का भरपूर उपयोग किया था। जब वह भगवान के शरण में आयी, उसने सात्विक और शास्वत सुख का रसास्वादन किया तो उसे संसार निस्सार लगने लगा।

अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में भगवान बुद्ध की यात्रा राजगृह से प्रारम्भ होकर कुशीनारा में अन्त हुई। इस यात्रा के क्रम में वे पाटलिपुत्र से कोटी ग्राम पहुँचे। सूचना पाते ही अम्बापालि गणिका सुन्दर रथ पर सवार होकर कोटि ग्राम की ओर चल पड़ी। सड़क के बाद रथ से उतर पैदल ही भगवान बुद्ध के पास पहुंची। तथागत ने उसे धार्मिक कथाओं से संतुष्ट कर दिया। गदगद होकर उसने अपने पुज्य महात्मा बुद्ध को भिक्षु संघ के साथ भोजन के लिए आमंत्रित किया। भगवान बुद्ध ने अपनी बौद्ध परम्परा के अनुसार उसे मौन रहकर स्वीकृति दे दी। अम्बपालि तथागत की स्वीकृति जानकर अभिवादन और प्रदक्षीणा कर प्रस्थान कर गई।

इधर वैशाली की लिच्छवी तथागत के आने के सूचना मिलते ही सुन्दर रथ एवं सुन्दर पोशाक में सजकर दर्शन के लिए जा रहे थे कि अम्बपालि अपने रथ को उसके रथ से टकरा देती है और सूचना देती है कि तथागत कल का भोजन बौद्ध संघ सहित हमारे निवास स्थान पर स्वीकार किया है। यह सुनकर लिच्छवी तिलमिला गई और उसे निमन्त्रण को खरीदने के लिए मोल-जोल करने लगी। परन्तु उसका दो टुक उत्तर सुनकर वे अवाक् रह गयी। अन्त में निराश होकर तथागत के निकट पहुँचती है तथा विधिवत अभिवादन कर एक ओर बैठ जाती है। उन्हें भी धार्मिक कथाओं एवं उपदेशों को कहते हुए यह सूचना देते हैं कि अम्बपालि के निमंत्रण को स्वीकार कर चुके हैं, अतः लिच्छवी कुमारी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।

अगले दिन श्रद्धालु उपासिका अम्बपालि ने श्रद्धा से उत्तम भोजन बनाकर उचित समय पर भगवान बुद्ध एवं संघ को सूचना दी। पूर्वाह्न समय में भगवान बुद्ध ने भिक्षु मंडली सहित अम्बपालि के निवास स्थान पर पहुँचे और बिछे आसन पर बैठ गये। अम्बपालि ने स्वयं अपने हाथों से परोस-परोस कर उनको भोजन कराया। उनके भोजन करा लेने के पश्चात वह एक ओर बैठ गई तब भगवान बुद्ध ने उसे धार्मिक वचन का रसास्वादन कराया। उनके उपदेशों से मानों कृत्य-कृत्य होकर उसने अपना प्रिय आम्रवन उन्हें समर्पित कर दिया। “अम्बपालि बुद्ध प्रमुक्सस्य भिक्खु संघस्स दम्माति” तथागत इस दान को स्वीकार करते हैं।

इस कहानी से यह स्पष्ट होता है कि उस समय भगवान बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे और सत्यनिष्ठा से उनका सत्यकार करते थे।

प्रश्न 3.
विशाखा मिगारमाता में वर्णित आठ वरों का उल्लेख करते हुए उनकी महत्ता पर प्रकाश डालें।
अथवा, विशाखा मिगारमाता का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर:
विशाखा अंग राज्य भट्यिा नगर में राज्य धनंजय की पुत्री थी। वह बौद्ध धर्म की परम श्रद्धालु और सर्व प्रमुख उपासिका थी। उसकी शादी श्रावस्ती के राजा मिगार के पुत्र पज्ञावर्द्धन से हुई थी। बचपन से ही वह बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा रखती थी। वह एक अत्यन्त एवं कुशल और कुशाग्र बुद्धि की नारी थी। जिन बातों को दासी अपनी आँखों से देखकर नहीं समझती थी उसे वह अनुमान से ही जान जाती थी।

‘विशाखा ने अपनी शादी के बाद तथागत को भिक्षु संघ सहित भोजन के लिए आमंत्रित किया जिसे भगवान ने अपनी परम्परा के अनुसार मौन रहकर उसकी स्वीकृति प्रदान कर दी। विशाखा ने दूसरे दिन प्रणीत भोजन बनाकर दासी के द्वारा सूचना भेजी। उस समय भगवान बुद्ध की आज्ञा के अनुसार सभी भिक्षु वर्षा में अन्तिम र्षा का स्नान कर रहे थे। वस्त्र के अभाव में उन्होंने वस्त्र को उतार कर रख दिया था। दासी ने उन्हें अजीवक समझ और आश्रम खाली पाकर लौट गई। वहाँ लौटकर दासी ने विशाखा को इसकी सूचना दी। किन्तु विशाखा ने स्थिति की भांप लिया। तथागत ने भत्रच्छेद के भय से भिक्षु संघ सहित जेतवन से अन्तर्धान होकर विशाखा के कोठे पर जा पहुंचे। विशाखा को घोर आश्चर्य हुआ कि इतनी घनघोर वर्षा के बावजूद भी किसी भिक्षु के पाँव तक नहीं भीगे हैं। विशाखा ने हृषितमन से भगवान की भिक्षु-संघ के साथ भोजन करवाया। भोजन के उपरान्त वह एक ओर बैठ गई और तथागत से आठ वरदानों की याचना की। विशाखा ने जो आठ माँग माँगा वे इस प्रकार हैं-

  • वस्सिका साटिका – इसका अर्थ है वर्षा-ऋतु के वस्त्र। चूँकि वस्त्राभाव में भिक्षुगण नग्न स्नान करते थे। नग्नता गन्दी घृणित बुरी, असभ्य एवं अमानविक कर्म है, जिसे दूर करने के लिए विशाखा ने बुद्ध से अनुरोध किया था कि आप मुझे अनुमति दे कि मैं अपने जीवन भर पूरे भिक्षु संघ की वास्सिका साटिका या वर्षाकाल के लिए अतिरिक्त वस्त्र देना चाहती हूँ।
  • आगन्तुकमतं – नावगन्तुक भिक्षुओं को जीवन भर भोजन देते रहने का वरदान या अधिकार भी विशाखा ने पाया।
  • गमिकमतं – बाहर जाने वाले भिक्षु को जीवन भर भोजन देकर बाहर भेजने का वरदान, ताकि जाने वाले भिक्षु को भोजन के लिए मार्ग में किसी प्रकार कष्ट न हो।
  • गिलानमतं – उचित भोजनाभाव में कभी-कभी रोगी भिक्षु की मृत्यु हो जाती थी। अतः यह देख विशखा ने रोगी भिक्षु को जीवन भर भोजन देते रहने की अनुमति प्राप्त की।
  • गिलानुपट्ठाकमत – रोगी कि सेवा करने वाले भिक्षु को या तो कभी स्वयं भूखे रह जाना पड़ता था या अपने भोजन की खोज में लगे रहने के कारण रोगी भिक्षु को भाँति-भांति देखभाल नहीं कर पाते थे। परिणामस्वरूप या तो रोगी की मृत्यु हो जाती थी या सेवक की। इस बात को दूर करने के लिए विशाखा ने आजीवन रोगी के सेवक को भोजन देते रहने की प्रतिज्ञा की।
  • गिलानभेसज्जं – औषधि के अभाव में रोगी भिक्षु मर न जाय, इसलिए जीवन प्रयन्त उन्हें दवा देते रहने की प्रतिज्ञा भी विशाखा ने किया।
  • धुवयागु-भिक्षु-भिक्षुणियों को नित्य नियमित रूप से भोजन मिलता रहे, इसके लिए विशाखा ने बौद्ध-संघ को सदा खिचड़ी देने की स्वीकृति भी बुद्ध से प्राप्त की।
  • उदकसाटिका- वस्त्राभाव में भिक्षुणियाँ नग्न होकर स्नान करती थी। अतः वस्त्राभाव के कारण वे समाज में मखौल और उपहास का विषय न बनें, इसके लिए विशाखा ने आजीवन बौद्ध भिक्षुणियों को उदकसाटिका (वस्त्र) देते रहने की अनुमति भी बुद्ध से माँगी।

तथागत ने विशाखा के इन वरदानों को संघ की सुव्यवस्था की दृष्टि से अत्यन्त ही महत्वपूर्ण समझा और उसे अनुमति दी ये सब जितने अभाव हैं उनकी पूर्ति का समुचित प्रबंध करे।

अन्त में भगवान बुद्ध ने विशाखा के दानशीलता की प्रशंसा की और उसके मंगलमय जीवन की शुभकामनाएँ देते हुए भिक्षुओं को अभाव की चीजों को ग्रहण करने का आदेश दिया। इस सुत्त के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ‘विशाखा मिगारमाता’ बौद्ध धर्म की एक सच्ची एवं कर्तव्यानिष्ठ उपासिका थी। तथागत के उपदेश से मिगार का चित्त प्रसन्न हो गया था। मिगार ने सोचा कि यह उपदेश उसे विशाखा के द्वारा ही मिला और वह विशाखा को. माता कहकर पुकारने लगा। इसलिए वह विशाखा मिगार माता के नाम से विख्यात है।

प्रश्न 4.
“राहुल कुमारस्यं दायज्जदानं का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर:
इस कहानी में राहुल कुमार के प्रवजित होकर संघ में शामिल होने की कथा का वर्णन मिलता है। राहुल कुमार भगवान बुद्ध का एक मात्र सुपुत्र यशोधरा का लड़का एवं महाराज शुद्धोदन का प्यारा पौत्र था। जिस समय सिद्धार्थ कुमार महाभिनिष्क्रमन की तैयारी में थे उस समय वे अपने पुत्र से नहीं मिल पाते थे। उन्होंने कहा था “बुद्धो हुत्वाच आगन्त्वा पुत्रं परिसस्सामी ति” इसी वाणी के अनुसार चारिका करते हुए भगवान बुद्ध अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु पहुँचे और अपने पुत्र एवं परिवार का दर्शन किया।

भगवान बुद्ध ने राजगृह में इच्छानुसार विहार कर कपिलवस्तु के लिए प्रस्थान किया और अनुक्रम चारिका करते हुए कपिलवस्तु पहुंचे। वहाँ भगवान बुद्ध शाक्यों के बीच कपिलवस्तु के निग्रोधाराम में ठहरे। दूसरे दिन पूर्वछण में भिक्षाटन हेतु चीवर धारण कर पात्र शालेक्य शुद्धोदन के राजमहल में पहुँचे। जब वे यशोधरा से ही मिले तो यशोधरा ने, ‘पधारो हे, भव-भव के भगवान’ कहकर उनका स्वागत किया। पुनः राहुल माता यशोधरा ने अपने पुज्य पिता के पास जा और अपने उत्तराधिकार का माँग कर। तब आज्ञाकारी बालक पिता के पास पहुँचकर बोला-“श्रवण तेरी क्षाया सुखमय है।” जब भगवान अपने आसन से उठकर प्रस्थान करने लगे, तो सप्तवर्षीय राहुल ने “दायाज्ज में शरण देहिय का रट लगाते हुए उनके पिछे-पिछे चल पड़े।

उन्होंने अनुभव किया कि ये बालक ज्ञान पिपासु है और सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के लिए तत्पर है। तब भगवान बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य सारिपुत्त को आज्ञा दी ओ सारिपुत्त? राहुल को प्रव्रजित करो। सारिपुत्त को आश्चर्य हुआ की इतना छोटा बालक प्रव्रज्या कैसे ग्रहण करेगा ? क्या वह प्रव्रज्या के मंत्रों का उच्चारण कर सकेगा ? अतः उन्होंने भगवान. से पूछा-“कथंह, भन्ते राहुल कुमारं पब्बाजेही ति?” भगवान बुद्ध ने एक नियम घोषणा की’अनुजानामि भिक्खवे, तेहि सरणगमनेहि सामणीर पब्वज्जो’ तब आयुष्मान सारिपुत्र ने राहुल कुमार को प्रव्रजित किया और संघ में शामिल कर लिया। इस प्रकार राहुल कुमार अपने उत्तराधिकार को पाने में सफल हुआ।

महाराज शुद्धोदन व्यस्तता के कारण इस घटना से दूर था. जब उन्हें राहुल कुमार के प्रव्रज्या के समाचार मिला तो उनके हृदय को बड़ा आघात लगा। वे जहाँ भगवान थे वहाँ गये और उन्हें अभिवादन कर एक ओर बैठ गये और अपनी आपार व्यथा की चर्चा की। उन्होंने भगवान बुद्ध का ध्यान अव्यस्कता की ओर दिलाया और अनुरोध किया कि अल्प व्यस्क बालक. को बिना उनके माता-पिता की अनुमती के प्रव्रजित न किया जाय, क्योंकि पुत्र-प्रेम कभी-कभी व्यक्ति के हृदय को छलनी बना देता है। आपको शायद इस बात का पता नहीं होगा कि आपके प्रवजित होने पर मुझपर क्या बीति थी।

परन्तु राहुल के रहने से हृदय में संतोष था। अब आपने मेरी बिना अनुमति के मुझसे छीन लिया। वह पिड़ा मेरे लिए असहन्य हो रही है। भविष्य में किसी और व्यक्ति की यह पिड़ा नहीं झेलनी पड़े, इसलिए मैं आपसे उपयुक्त वर की माँग करता हूँ. अच्छा हो भन्ते आर्य माता-पिता की अनुज्ञा के बिना किसी को प्रव्रजित न करें। भगवान बुद्ध ने महाराज शुद्धोदन के परामर्श का सहर्ष अनुमोदन किया। इसी प्रकरण में धार्मिक कथा कहा ? भिक्षुओं को सम्बोधित किया-“न भिक्खवे ! अननुज्ञातो माता पितूहि पुत्रो पबगाजेतब्बों, यो पब्बाजटेय, अपति दुम्कटस्सा ति।” अर्थात् माता-पिता के अनुज्ञा के बिना किसी को प्रव्रजित नहीं करना चाहिए। जो प्रव्रजित करे उसे दुक्कट का दोष लगेगा।

प्रश्न 5.
‘सुखवग्गो’ में वास्तविक सुख और शान्ति का संदेश प्रस्तुत किया गया है। इस कथन की विवेचना करें।
अथवा, ‘सुखवग्गो’ की कथावस्तु पर प्रकाश डालें।
अथवा, ‘सुखवग्गो’ का सारांश लिखते हुए उसमें निहित देशनाओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
ईसा के पाँचवी-छठी शताब्दी पूर्व भारतीय समाज परम्परागत रूप से दुखाक्रान्त था। सामान्यतया मानव जीवन में अभाव, व्याधि एवं विभिन्न प्रकार के दुःख (पीड़ा) जिस प्रकार विराजमान रहते हैं वैसे ही उस युग के समाज में भी थे। धन, विद्या, जाति, गोत्र तथा विभिन्न बातों के आधार पर तत्कालीन समाज विश्रृंखलित था। वैसे समाज में सुख, शान्ति और सम्पन्नता की कल्पना निरर्थक थी। ऐसी ही समाज में भगवान बुद्ध का आविर्भाव भारतवर्ष में हुआ।

बुद्ध ने तत्कालीन समाज की दुःखावस्था से द्रविभूत होकर समाज को सुसम्पन्न, समुन्नतशील, शान्त और सुखी बनाने का सफल प्रयास किया। कठिन तप से अर्जित ज्ञान-कोष . को बुद्ध ने मानवीय समाज को सुखी जीवन के लिए अपने उपदेशों के माध्यम से विखेर दिया, जिसका निचोड़ हम ‘सुखवग्गो’ नामक शीर्षक में पाते हैं। ‘सुखवग्गो’ में मानव-जीवन एवं समाज को सुखी तथा सम्पन्न बनाने के उपायों और साधनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, अर्थात् यहाँ यह बतलाया गया कि हमारा जीवन कैसे सुखी हो सकता है ?

‘सुखवग्गो’ में सुखी जीवन की कल्पना करते हुए तथागत ने प्रथम तीन गाथाओं में यह आदर्श उपस्थित किया है कि हमें विरोधियों, आसक्तियाँ तथा महत्वाकांक्षियों के समाज में क्रमशः मित्र, अनासक्त और तृष्णा रहित जीवन व्यतीत करना चाहिए। सुखी और शान्त जीवन के लिए जय-पराजय की भावना से मुक्त होकर शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए। छट्ठी गाथा में राम, द्वेष तथा स्कन्ध को दुःखमय बतलाते हुए सुखाकांक्षी को इनसे मुक्त रहने का उपदेश दिया गया है। इसी प्रकार तृष्णा (नदी, तण्हा) को भयंकर रोग तथा संस्कार को साक्षात् दुःख मानकर इनके निरोध द्वारा निर्वाण की प्राप्ति से सुखी जीवन ग्रहण करने की शिक्षा सातवीं गाथा में दी गई है। सुन्दर स्वास्थ्य, संतोष तथा विश्वास को परम हितकारी बतलाते हुए आठवीं गाथा में इन तीनों को सुखी जीवन का आवश्यक तत्व कहा गया है।

इसी तरह आगे की गाथा में सुख की कामना करने वाले प्राणी को मूखों की दु:खद संगति को त्याग करके पण्डितों या ज्ञानियों के साहचर्य ग्रहण का उपदेश दिया गया है। अन्त में सुखी और शान्तिपूर्ण जीवन व्यतित करने की शिक्षा हमें इस सुत्त में वैसे ही दी गयी है जैसे नक्षत्र-पथ की परिक्रमा चन्द्रमा करता हैं।

इस प्रकार ‘सुखवग्गो’ में न केवल वास्तविक सुख और शान्ति का संदेश प्रस्तुत किया गया है, बल्कि सुखी एवं समुन्नतशील जीवन व्यतीत करने के लिए उपयुक्त तथा आवश्यक आधार विषयक साधनों की ओर संकेत करते हुए भगवान बुद्ध ने हमें शील और प्रज्ञा से युक्त होकर कुशल कर्मों के सम्पादन की नैतिक शिक्षा दी है।

प्रश्न 6.
‘धातु विभाजनीय कथा’ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा, भगवान बुद्ध के धातु विभाजन की कथा अपनी पाठ्य-पुस्तक के आधार पर लिखें।
उत्तर:
प्रत्येक सम्प्रदाय में अपने धर्म प्रवर्तक के प्रति श्रद्धा, विश्वास और सम्मान प्रकट करने के लिए सृष्टि के आदिकाल से ही परम्परा रही है कि उनके शिष्यगण गुरू की मृत्यु के ‘पाठ्य-पुस्तक’ पालि पाठ सङ्गहो में संकलित सुत्त ‘धातुविभाज़नीय कथा’ में पाते हैं कि इस परम्परा के निर्वाह को मोह बौद्ध भिक्षु भी न छोड़ सके थे। लगभग 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनारा के युगल शाल वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद एक चक्रवर्ती सम्राट की भाँति उनका दाह-संस्कार सम्पन्न किया गया।

बुद्ध की मृत्यु की सूचना जब सारे जम्बुद्वीप में प्रसारित हो गयी तब विभिन्न क्षेत्राधिपतियों ने उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी स्मृति में स्तूप निर्माण हेतु अस्थियों (धातुओं) को प्राप्त करने के लिए जेहाद छेड़ दी। अन्ततोगत्वा स्थिति को विषम, गंभीर, जटिल और विस्फोटक होते देख द्रोण नामक ब्राह्मण ने पंचायती की। उन्होंने लोगों को बतलाया कि भगवान बुद्ध झगड़े और अशान्ति के निवारक थे। वे युद्ध एवं हिंसा में विश्वास नहीं करते थे और उन्हीं के धातुओं को लेकर आप झगड़ते हैं, अशान्ति फैलाते हैं तो इससे बुद्ध धातु को महाकष्ट होगा।

द्रोण भिक्षु की वाणी से संतुष्ट होकर बुद्ध धातु. के विभाजन का अधिकार उपस्थित राजाओं ने उन्हें दे दिया। इसके बाद द्रोण भिक्षु ने सम्पूर्ण अस्थियों को आठ बराबर भागों में विभक्तकर मगध नरेश अजातशत्रु, वैशाली के लिच्छवी, कपिलवस्तु के शाक्य, अल्लकप्प के बुल्ली, रामग्राम के कोलिय, वेदद्वी के ब्राह्मण, पावा तथा कुशीनारा के मल्लों को बुद्ध की मौलिक अस्थि प्रदान कर दी और स्वयं बुद्ध के नित्य के उपयोग में आनेवाला कुम्भ को ही लेकर संतोष का अनुभव किया। मौर्य प्रदेश के लोगों ने तब उसमें अंगार को ही ग्रहण किया। इस प्रकार इन अस्थियों को प्रतीक मान दस स्तूप विभिन्न प्रदेशों में निर्मित हुए।

पुनः शमशान के बचे खुचे राखों से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए एक स्वर्गलोक में, एक गंधार में, एक कलिंग में तथा एक नागराज द्वारा पूजित हुआ। इसी प्रकार भगवान बुद्ध के पात्र, दण्ड और चीवर से बजिरा में कुशासन तथा सयनासन से कलिपवस्तु में उनके कमरबन्द से पाटलिपुत्र में उदकसाटिका से चम्पा में, कायबध्यन से कौशल में कषाय वसा से स्वर्ग लोक में, आसन से अवन्तिपुर में लकड़ी से मिथिला में सूई धागे से इन्द्रराष्ट्र में तथा अविशष्ट परिष्कार से अपरन्तक प्रदेशों में स्तूप का निर्माण हुआ।

इस प्रकार सारे जम्बुद्वीप में तथागत के अस्थियों एवं उनके द्वारा प्रयुक्त स्मृति स्वरूप स्तूपों का निर्माण किया। लोगों के हृदय में तथागत के प्रति इस सच्ची निष्ठा एवं लगन के फलस्वरूप उनके धातुओं तथा अवशिष्ट अस्थियों का सर्वत्र प्रसार हो गया और अनुकम्पक शास्त्र के विचार से बहुत लोग अवगत हुए। इस तरह प्रस्तुत ‘धातु विभाजनीय कथा’ में भारतीय संस्कृति के आदर्श की एक झलक देखने को मिलती है और इससे आज भी हम भारतीय गौरवान्वित होते हैं।

प्रश्न 7.
‘ब्राह्मणधम्मिक – सुन्त’ के आधार पर प्राचीन कालिक ब्राह्मणों के उत्थान एवं पतन के कारणों की समीक्षा कीजिए।
अथवा, “ब्राह्मणधम्मिक सुत्त’ की कथावस्तु पर प्रकाश डालें।
अथवा, ‘ब्राह्मणधम्मिक-सुत्त’ का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर:
‘ब्राह्मणधम्मिक – सुत्त’ में प्राचीनकालिक भारतीय ब्राह्मणों के क्या-क्या धर्म थे, उनका रहन-सहन तथा व्यवहार कैसा था और समाज में उनका क्या स्थान था इत्यादि बातों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत किया गया है अर्थात इस सुत्त में प्राचीनकालिन ब्राह्मणों के उत्थान एवं पतन के कारणों की समीक्षा की गयी है। साथ-ही-साथ इस सुत्त के आधार पर परोक्ष रूप में बुद्धकालीन भारतीय समाज की धार्मिक तथा अन्याय अवस्थाओं पर भी प्रकाश डाला गया है।

सुत्त के प्रारम्भ में यह बतलाया गया है कि प्राचीन काल में ब्राह्मण विद्यानुरागी, तपस्वी, धर्म-चिन्तक तथा परोपकारी थे। वे इन्द्रिय-जनित पंचकाम गुणों से विरत हो आत्म-चिन्तन में लीन रहा करते थे। इन ब्राह्मणों को न तो पशु और न सोने-चाँदी जैसे धन की ही चाह थी। चाकरी रहित जीवन व्यतीत करते हुए ऐसे ब्राह्मण निर्लोभी, अनासक्त, दलितोद्वारक तथा विद्याचरण सम्पन्न रहने के कारण-समाज में पुज्य माने जाते थे। लगभग आधी आयु तक वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शील, समाधि और प्रज्ञा अर्थात, आर्य अष्टांगिक मार्ग से युक्त होते थे। चावल, वस्त्र, तेल आदि धर्मपूर्वक समाज से लेकर वे जीवन-यापन करते थे। वे गायों को माता-पिता एवं भाई के समान आदर तथा रक्षा करते थे। गो-वंश को प्राचीन ब्राह्मण अन्नदाता, बलदाता, कर्म तथा सुख देने वाला मानते थे। इस प्रकार त्याग, निलाभ, क्षमा, दया. और धर्म के अवतार वे प्राचीन भारतीय ब्राह्मण समाज में अत्यधिक प्रतिष्ठित, पुनीत तथा विशिष्ट माने जाते थे।

परन्तु, काल – क्रम में लाभ और लोभ के गर्त में पड़कर उनका अधःपतन होने लगा। उपर्युक्त रीति से धार्मिक जीवन-यापन करने वाले वे प्राचीन ब्राह्मण तत्कालीन राजाओं, महाराजाओं के सुख-ऐश्वर्य को देखकर सुखोपभोग के साधनों के प्रति आकृष्ट होने लगे। सुअलंकृत नारियों से सम्बन्ध स्थापन प्रारम्भ किया। चारिका पद्धति का परित्याग करके उच्चासनों तथा गगनचुम्बी महलों के स्वामी बनने लगे। इन ब्राह्मणों ने स्वार्थ सिद्धि के अनुकूल और उपर्युक्त मंत्रों की रचना कर डाली। राजाओं से स्वरचित स्वार्थमूलक मंत्रों के द्वारा विवशतापूर्वक यज्ञ करवाने लगे तथा उनके कल्याण का प्रलोभन देकर यज्ञ के माध्यम से अपार धन धान्य ग्रहण करने लगे। इस प्रकार अब वे धार्मिक ब्राह्मण चित्रित रथ, सुन्दर भवन सोने-चाँदी तथा अन्यान्य सम्पत्तियों के स्वामी बनकर लोभ के कारण पतन के गर्व में आ धंसे।

इसके कारण प्राचीन काल में जो इच्छा, भुखमरी तथा बुढ़ापा जैसी तीन व्याधियाँ थीं, ब्राह्मणों के गो हिंसा के कारण बढ़कर लगभग 98 हो गयीं।

सुत्त के अन्त में यह बतलाया गया है कि धर्म के पतन होने पर शूद्रों और वैश्यों में वैमनस्य हो गया। क्षत्रिय भी अलग-अलग हो गये तथा स्त्रियाँ पति का अपमान करने लगीं। क्षत्रिय ब्राह्मण एवं दूसरे गोत्ररक्षक जातिवाद का विनाश कर विषयों के वंशीभूत हो गये अर्थात् वासनाओं में आसक्त होने के कारण यहाँ की समस्त जातियाँ मूलतः पतित आचार के धरातल पर अवतरित हो गयी।

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्तुत ‘ब्राह्मणधम्मिक सुत्त’ में प्राचीन ब्राह्मणों के दिनचर्या पर प्रकाश डालते हुए भारत की समुन्नतशील अवस्था से लेकर हीनावस्था तथा उनके कारणों का विशद वर्णन प्रस्तुत किया गया है अन्ततः इस सुत्त के माध्यम से हमें निर्लिप्त और निर्लोभी. बनाकर धार्मिक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी गयी है।

प्रश्न 8.
‘पण्डितवग्गो’ के आधार पर पण्डितों के लक्षणों पर प्रकाश डालें।
अथवा, ‘पण्डितवग्गो’ का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर:
ज्ञान को भगवान बुद्ध ने आत्म प्रकाश माना है। बुद्ध के मतानुसार ज्ञान या बुद्धि ही अज्ञानता या अविधा का विनाशक तत्व है। यही कारण है कि बुद्ध ने ज्ञान या पाण्डित्य को अपने प्रवचन में तथा साधना में प्रमुख स्थान दिया है। जिसकी हल्की झाँकी हम बौद्धों, के परम पवित्र, लोकप्रिय एवं आदरनीय ग्रंथ धम्मपद से अपने पाठ्य-क्रम के लिए निर्धारित तथा डॉ० जगदानन्द ब्रह्मचारी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘पालि पाठ सङ्हो’ में संग्रहित सुत ‘पण्डितवग्गो’ में पाते हैं।

‘पण्डितवग्गो’ बालवग्गो का विरोधी विषय प्रतिपादित करता है। इस सुत्त में पण्डित या ज्ञानीजन के लक्षण एवं पहचान का निर्देश करते हुए उनके सद्गुणों के सुपरिणामों को मोहक अभिव्यंजना हम पाते हैं। साथ ही सज्जन एवं ज्ञानी पुरुषों के साहचर्य या सहवास से मिलने वाले भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभों का विवेचन इस सुत्त में देखने को मिलता है। पण्डित या ज्ञानीजन के लक्षण बतलाते हुए यहाँ कहा गया है कि जो व्यक्ति दुर्जन की संगति से अलग रहकर सज्जनों को साहचर्य में रहता है उसे पण्डित समझना चाहिए। दुर्जनों की संगति सदैव दुःखकारी होती है। इसलिए प्राणी को चाहिए कि दुष्ट मित्र और अधम पुरुष का परित्याग कर कल्याणकारी मित्र एवं सद्पुरुषों का साहचर्य ग्रहण करे।

पण्डितजन सदैव धर्मप्रिय, प्रसन्नचित्त और आर्यों द्वारा प्रशंसित होते हैं। जैसे नहर बनाने वाला अपनी इच्छित जगह पर पानी को ले जाता है, वाण बनाने वाला उसकी नोक को सीधा करता है, बढ़ई लकड़ी को चिकना कर मनचाही वस्तु बना देता है वैसे ही पण्डित या ज्ञानी पुरुष चतुर्दिक फैली हुई अपनी चित्र-वृत्तियों को ज्ञान के द्वारा समेटकर एकत्र करता है। ज्ञानी पुरुष की विशिष्टता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जैसे अचल पर्वत आँधी के कठोर झोकों में भी तनकर खड़ा रह जाता है वैसे ही पण्डितजनं निन्दा और प्रशंसा रूपी झंझवातों से भी तनिक नहीं घबराता बल्कि अडिग तथा अविचलित रहते हुए परिस्थितियों से डटकर मुकाबला करता है। अर्थात् ज्ञानी पुरुष न तो आत्म प्रशंसा से प्रफुल्लित होता है एवं न आत्म निन्दा से दुःखी ही।

आगे की गाथाओं में पण्डितों के लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जैसे विशाल सागर का तल पर्ण शान्त तथा गंभीर रहता है, वैसे ही पण्डित या ज्ञानी धर्मों के श्रवण मात्र से पूर्ण प्रसन्न, शान्त और गंभीर बन जाता है, पण्डितजन कदापि काम वासनाओं और सांसारिक आसक्तियों में लिप्त नहीं होता है। वह अपने लिए या किसी के लिए भी किसी प्रकार का लोभ प्रकट नहीं करता। वह शील एवं प्रज्ञा से युक्त होने के कारण अधर्मपूर्वक जीवन व्यतीत कभी नहीं करता। वह मृत्यु के भव सागर को निर्वाण को नौका से अनवरोध लाँघ जाता है अर्थात् वह चितमलों या चित्तक्लेशों से मुक्त हो सम्बोधित अंगों से युक्त होकर अन्ततोगत्वा निर्वाण को प्राप्त करते हुए जन्म-मरण से सदैव के लिए परे हो जाता है।

इस प्रकार ‘पण्डितवग्गो’ में ज्ञानार्जन के लक्षणों तथा उसके सदकर्मों का वर्णन करते हुए गाथाकार अर्थात् भगवान बुद्ध ने हमें ज्ञानार्जन द्वारा सदाचारी और प्रज्ञावान बनकर जीवन व्यतीत करके चरम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति करने की सीख दी है।

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