Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 3

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
सांवेगिक बुद्धि को परिभाषित करें। इसके प्रमुख तत्वों का वर्णन करें। अथवा, संवेगात्मक बुद्धि से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख करें। .
उत्तर:
बुद्धि के क्षेत्र में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपना महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया और सिद्धान्तों की स्थापना की है। इस कड़ी में गोलमैन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त संवेगात्मक बुद्धि भी है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है जिसकी रचना गोलमैन ने 1995 में की है। संवेगात्मक बुद्धि (Emotional Quotient) बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient) दोनों में काफी भिन्नता है। संवेगात्पक बुद्धि को संवेगात्मक क्षेत्र में समायोजन कहा जा सकता है, जो जीवन में सफलता पाने में बहुत अधिक सहायक होता है। संवेगात्मक बुद्धि का संबंध वास्तव में व्यक्ति के कुछ ऐसे शीलगुणों से होता है जो संवेग की अवस्था में अभियोजन में सहायक होते हैं। इसके माध्यम से उसे अपने संवेगों की पहचान होती है तथा दूसरों के संवेगों को सही ढंग से समझते हुए सही ढंग से अभियोजन का प्रयास करता है। इसके माध्यम से वह लोगों के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ करता है।

संवेगात्मक बुद्धि (E. Q.) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सैलोवी तथा मायर (Salovey and Mayer) ने 1990 में किया था। उन्होंने इसके पाँच प्रमुख तत्त्वों की चर्चा की है, जिसका विवरण निम्नलिखित है-

  1. अपने संवेगों को पहचानना
  2. अपने संवेगों को प्रबंधन करना
  3. अपने आप को अभिप्रेरित करना
  4. दूसरों के संवेगों की पहचान करना
  5. अन्तर्वैयक्तिक संबंधों को संतुलित करना।

व्यक्ति को सामाजिक अभियोजन हेतु अपने संवेगों पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। संवेगों का प्रबंध जितना अधिक संतुलित होगा सामाजिक अभियोजन भी उतना ही सफल होगा। वास्तव में जीवन में सफलता पाने हेतु संवेगों का प्रबंधन आवश्यक होता है। व्यक्ति के अंतर्गत कई प्रकार के शीलगुण निहित होते हैं। इन्हीं शीलगुणों का उपयोग करके संवेगात्मक परिस्थितियों में अभियोजन करता है। सैलोवी तथा मायर ने संवेगात्मक बुद्धि के जिन पाँच तत्त्वों की चर्चा की है उसी के आधार पर किसी की संवेगात्मक बुद्धि की पहचान होती है। हालांकि बाद में आशावादिता को भी संवेगात्मक बुद्धि का एक तत्त्व माना गया है।

संवेगात्मक बुद्धि के मापन की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण शोध हुए हैं और उसके आधार पर कई प्रकार के जाँच को प्रकाश में लाया है। इस दिशा में बार-आन के कनाडा के ट्रेन्ट विश्वविद्यालय में एक आविष्कारिका का निर्माण किया जिसे बार-आन संवेगात्मक लब्धि आविष्कारिका (Bar-on emotional quotient inventory) के नाम से जाना जाता है। यह आविष्कारिका बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुकी है। संवेगात्मक बुद्धि मापन की दिशा में भारत में भी शोध कार्य जारी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. ए. के. चड्ढा ने भी एक टेस्ट का निर्माण किया है, जिसे सांवेगिक बुद्धि परीक्षण के नाम से जानते हैं। भारतीय संदर्भ में उनका यह जाँच काफी लोकप्रिय है।

चूँकि यह एक नया सिद्धान्त है, इस दिशा में शोध कार्य जारी है फिर भी इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि व्यक्ति को सिर्फ बुद्धि-लब्धि (I.Q.) के आधार पर ही सफलता नहीं मिलती बल्कि इसके लिए संवेगात्मक बुद्धि भी आवश्यक है।

प्रश्न 2.
बुद्धि में आनुवंशिकता बनाम पर्यावरण विवाद का वर्णन करें।
उत्तर:
आनुवंशिक एवं पर्यावरणीय दोनों ही प्रकार के प्रभाव होते हैं। अतः इस अध्ययन के अंतर्गत बुद्धि एवं संस्कृति के संदर्भ में चर्चा करेंगे। बुद्धि का अर्थ एवं अवधारणा समझ लेने के पश्चात् यह समझना उचित होगा कि बुद्धि का संस्कृति से क्या तारतम्य है एवं बुद्धि व सांस्कृतिक पर्यावरण में दोनों की क्या भूमिकाएँ हैं ?

विकास की ओर अग्रसर होता है एवं आस-पास के पर्यावरण से संयोजन करता है। बुद्धि की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वह पर्यावरण के अनुकूलन में सहायक होती है अर्थात् व्यक्ति जिस पर्यावरण में निवास करता है अथवा उससे भिन्न जिस पर्यावरण की ओर उन्मुख होता है तब बुद्धि ही उसको भिन्न पर्यावरण के अनुकूल बनाती है या यूँ कह सकते है कि व्यक्ति का सांस्कृतिक पर्यावरण बुद्धि के विकसित होने में एक संदर्भ प्रदान करता है।

उदाहरण के लिए वे समाज जिनमें तकनीकी विकास को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है, उनमें तर्कना एवं निर्णयन के आधार पर निजी उपलब्धियों का परिमार्जन होता है अर्थात् उसे बुद्धि समझा जाता है जबकि वे समाज जिनमें सामाजिक अन्तर्वैयक्तिक संबंधों का निर्माण करने वाले तत्वों का संयोजन होता है उनमें सामाजिक एवं सांवेगिक (Social and emotional) कौशलों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृति के अनुरूप ही बुद्धि का अनुकूलन हो जाता है।

प्रश्न 3.
सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना किस तरह से की है? अथवा, फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना की व्याख्या कैसे की है?
उत्तर:
फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड, अहं और पराहम्। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है। इड, अहं और परामहम् संप्रत्यय है न कि वास्तविक भौतिक संरचनाएँ।
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इड- यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सासिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं को संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्राय: इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दंड का भागी हो सकता है वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग आवस्तविक और सुखेप्सा-सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम्, इड और अहं बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जाओं से निर्मित हुआ है। कुछ लोगों में इड पराहम् से अधिक प्रबल होता है तो कुछ अन्य लोगों में पराहम् इड से अधिक प्रबल होता है। इड, अहं और पराहम् की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को स्थिरता का निर्धारण करती है। फ्रायड के अनुसार इड की दो प्रकार की मूलप्रवृत्तिक शक्तियों से ऊर्जा प्राप्त होती है जिन्हें जीवन-प्रवृत्ति एवं मुमूर्षा या मृत्यु-प्रवृत्ति के नाम से जाना जाता है। उन्होंने मृत्यु-प्रवृत्ति (अथवा काम) को केंद्र में रखते हुए अधिक महत्त्व दिया है। मूलप्रवृत्तिक जीवन-शक्ति जो इड को ऊर्जा प्रदान करती है कामशक्ति लिबिडो कहलाती है। लिबिडो सुखेप्सा-सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है और तात्कालिक संतुष्टि चाहता है।

प्रश्न 4:
स्वास्थ्य को परिभाषित करें। व्यक्ति की शारीरिक तंदुरुस्ती को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।
उत्तर:
“स्वास्थ्य एक ऐसी तंदुरूस्ती या कुशल क्षेत्र की अवस्था होती है जिसमें दैहिक, सांस्कृतिक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति सांस्कृतिक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति पाई जाती है।” स्वास्थ्य में कई तरह के कारकों का एक समन्वय पाया जाता है तथा इसमें रोग की अनुपस्थिति होती है। जब व्यक्ति इस सभी कारकों से प्रभावित होते हुए अपने आपको एक संतुलित अवस्था में बनाए रखने में सक्षम होता है, तो उसका स्वास्थ्य उत्तम कहलाता है।

व्यक्ति की शारीरिक तंदरूस्ती को प्रभावित करने वाला प्रमख कारक निम्नलिखित हैं-
(i) संज्ञान संबंधित कारक (Factors related to cognition)-व्यक्ति किस तरह से अपने विभिन्न शारीरिक लक्षणों जैसे सर्दी लगना, डायरिया होना, उल्टी होना, चेचक आदि के प्रति सोचता है या किस तरह का विश्वास रखता है, से उसकी शारीरिक तंदुरुस्ती काफी प्रभावित होता है। यदि व्यक्ति यह सोचता है कि वह ज्यादा दही खा लिया है, इसलिए उसे इन्फ्लुएंजा हो गया है, तो वह डॉक्टर के पास नहीं जायेगा। परंतु यदि वह यह सोचता है कि उस इन्फ्लुएंजा का कारण उसका फेफड़ा में संक्रमण का होना है, तो वह डॉक्टर की मदद लेने के लिये तैयार हो जायेगा। इस तरह से रोग के बारे में उसे क्या जानकारी है तथा यह विश्वास कि यह किस तरह से उत्पन्न होता है, से बहुत हद तक व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।

(ii) व्यवहार से संबंधित कारक (Factors related to behaviour)-मनोवैज्ञानिकों द्वारा यह स्थापित किया जा चुका है कि व्यक्ति जिस तरह का व्यवहार करता है तथा जिस तरह की जीवनशैली को वह अपनाता है, उससे उसका स्वास्थ्य काफी हद तक प्रभावित होता है। जैसे-कुछ लोग दिन भर में 10 कप चाय पीना आवश्यक समझते हैं, कुछ लोग 8-10 सिगरेट पीना अति आवश्यक समझते हैं, कुछ लोग स्वच्छंद होकर लैंगिक सहवास करते हैं, कुछ लोग विशेष तरह का भोजन एवं प्रतिदिन दैनिक व्यायाम करते हैं, कुछ लोग प्रतिदिन मांसाहारी भोजन करना अधिक पसंद करते हैं, आदि-आदि। ऐसे व्यवहारों का कुछ खास-खास शारीरिक रोगों जैसे चक्रीय हृदय रोग, कैंसर, एच० आई० वी० (HIV) / एड्स (AIDS) आदि से सीधा संबंध होता है। जैसे-नियमित व्यायाम करने वाले व्यक्ति को चक्रीय हृदय रोग होने की संभावना कम होती है। मनोविज्ञान की एक नई शाखा जिसमें व्यवहारों में परिवर्तन लाकर रोगों से होने वाले दबावों को कम करने का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, का विकास हुआ है। इस शाखा को व्यवहारपरक औषधि की संज्ञा दी गई है।

(iii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक (Sovial and cultural factors)-कुछ सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक भी होते हैं जिनसे व्यक्ति की दैहिक अनुक्रियाएँ प्रभावित होती हैं और फिर उनसे शारीरिक तंदुरुस्ती प्रभावित होती है। जैसे-भारतीय सांस्कृतिक में चेचक को किसी विशेष देवी माता का प्रकोप समझकर उस देवी माता की पूजा-अर्चना करके इस रोग का उपचार करने की कोशिश की जाती है। ऐसा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वास पश्चिमी देशों में नहीं पाया जाता है। फलतः इस रोग के प्रति इस ढंग की प्रतिक्रिया नहीं की जाती है। इन दोनों तरह की अनुक्रियाओं या प्रतिक्रियाओं से व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है। देवी माता का प्रकोप मानकर उपचार करने में व्यक्ति के स्वास्थ्य को कुप्रभावित होने की संभावना अधिक होती है। उसी तरह से भारतीय समाज में महिलाओं को दिया गया मेडिकल राय या अन्य महिलाओं द्वारा दिया गया मेडिकल सुझाव पर कार्य देर से प्रारम्भ किया जाता है जिसके पीछे यह विश्वास होता है कि वे लोग या तो इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं या फिर उनकी प्रकृति दु:ख दर्द सहने की ही होती है। स्पष्ट हुआ कि कई ऐसे कारक है जिनके व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।

प्रश्न 5.
पूर्वाग्रह को नियंत्रित करने के लिए एक योजना का निर्माण करें।
उत्तर:
पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होगी जब उनका प्रयास होगा-
(a) पूर्वाग्रहों के अधिगम के अवसरों को कम करना।
(b) ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
(c) अंत:समूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना।
(d) पूर्वाग्रह के शिकार लोगों में स्वतः अधिक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना।

इन लक्ष्यों को निम्न प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है-
(i) शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्ष्य समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंत:समूह अभिनति की समस्या से निपटना।

(ii) अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यक्ष संप्रेषण, समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों को खोज करने का अवसर प्रदान करना है। हालांकि ये युक्तियाँ तभी सफल होती हैं, जब दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोग संदर्भ में मिलते हैं।
समूहों के मध्य घनिष्ठ अंतःक्रिया एक-दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है। दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।

(iii) समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्ट प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह (अंतः एवं बाह्य दोनों ही समूह) के महत्त्व को बलहीन करना।

प्रश्न 6.
कार्ल रोजर्स की विचारधारा का वर्णन करें।
उत्तर:
काल रोजर्स की विचारधारा-
(i) मानव व्यवहार लक्ष्य निर्देशित (Goal directed) एवं लाभप्रद (Worthwhile) होता है।

(ii) मानव जो जन्मजात ही नेक प्रकृति के होते हैं, हमेशा ही आत्म-सिद्ध (Seif actualized) तथा अनुकूली (Adaptive) व्यवहार करते हैं।कार्ल रोजर्स के अनुसार, व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू आत्म (Self) का विकास होता है जिसमें व्यक्ति को अपनी अनुभूतियों एवं अन्य मानसिक प्रक्रियाओं का ज्ञान होता है। आत्म-सम्मान का विकास शैशवावस्था में होता है जब शिशु की अनुभूतियों का एक अंश अधिक मूर्त (abstract) रूप प्राप्त करने लगता है और ‘मैं’ या ‘मुझको’ के रूप में धीरे-धीरे विशिष्ट होने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि शिशु धीरे-धीरे अपनी अस्मिता या पहचान से अवगत होने लगता है। फलतः उसमें अच्छे-बुरे का ज्ञान होने लगता है।

आत्म-संप्रत्यय से तात्पर्य व्यक्ति के उन सभी पहलुओं एवं अनुभूतियों से होता है कि जिनसे व्यक्ति अवगत होता है। आत्म-संप्रत्यय का निर्माण एक बार हो जाने से उसमें परिवर्तन नहीं होता है। आत्म-संप्रत्यय से संगत अनुभूतियों को व्यक्ति स्वीकार करता है और असंगत अनुभूतियों को वह अस्वीकार करता है।

रोजर्स का यह भी मत है कि प्रत्येक व्यक्ति का एक आदर्श आत्म भी होता है। आदर्श आत्म से तात्पर्य अपने बारे में विकसित की गई एक ऐसी छवि से होता है जिसे वह आदर्श मानता है। एक सामान्य व्यक्ति में वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म में संगति होता है। इससे व्यक्ति में खुशी उत्पन्न होती है। परंतु जब व्यक्ति का वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म में अंतर हो जाता है तो इससे असंतुष्टि तथा दुःख व्यक्ति में उत्पन्न होता है।

रोजर्स का यह मत है कि व्यक्ति आत्म-सिद्धि के माध्यम से अपने आत्म को अधिक-से-अधिक विकसित करने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति का आत्म विकसित होने के साथ-ही-साथ सामाजिक भी हो जाता है।

रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व विकास एक सतत् प्रक्रिया होता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति द्वारा अपना किया गया आत्म-मूल्यांकन तथा आत्म-सिद्धि की प्रक्रिया में प्रवीणता विकसित करना सम्मिलित होता है। इन्होंने आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भूमिका को भी स्वीकार किया है। उनका मत है कि जब सामाजिक हालात धनात्मक या अनुकूल होते हैं, तो व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है। दूसरे तरफ, जब सामाजिक हालात प्रतिकूल होते हैं, व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान दोनों ही कम हो जाते हैं। जिन व्यक्तियों का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है, वे प्रायः खुले विचार के होते हैं जिनसे वे आत्म-सिद्धि की ओर तेजी से बढ़ते हैं।

रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व दो तरह की आवश्यकताओं द्वारा मूलतः प्रभावित होता है-स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा आत्म-श्रद्धा। स्वीकारात्मक श्रद्धा से तात्पर्य दूसरों द्वारा स्वीकार किये जाने, दूसरों का स्नेह पाने एवं उनके द्वारा पसंद किये जाने की इच्छा से होती है। स्वीकारात्मक श्रद्धा की आवश्यकता दो तरह की होती है-शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा शर्तरहित स्वीकारात्मक श्रद्धा। शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं अनुराग प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा निश्चित किये गए मानदंडों के अनुरूप व्यक्ति को व्यवहार करना पड़ता है। रोजर्स ने इस तरह की श्रद्धा को व्यक्तित्व विकास के लिये उपयुक्त नहीं माना है। शर्तहीन स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं मान-सम्मान पाने के लिये कोई शर्त नहीं रखा जाता है। माता-पिता द्वारा बच्चों को दिया गया स्नेह एवं मान-सम्मान इसी श्रेणी का श्रद्धा होता है। ऐसे व्यक्ति अपनी क्षमताओं एवं प्रतिभाओं को सर्वोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का पूरा-पूरा प्रयास करते हैं।

प्रश्न 7.
आक्रामकता क्या है? आक्रामकता के कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
आक्रामकता आधुनिक समाज की प्रमुख समस्या है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आक्रामकता एक ऐसा व्यवहार होता है जो दूसरों को शारीरिक रूप से या शाब्दिक रूप से हानि पहुँचाने के आशय से किया जाता है। ऐसी अभिव्यक्ति व्यक्ति अपने वास्तविक व्यवहार के माध्यम से अथवा फिर कटु वचनों या आलोचनाओं के माध्यम से करता है। इसकी अभिव्यक्ति दूसरों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाओं द्वारा भी की जाती है।

आक्रामकता के निम्नलिखित कारण हैं-
(i) सहज प्रवृत्ति-आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।

(ii) शरीर क्रियात्मक तंत्र-शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड़ के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आर्द्र मौसम में।

(iii) बाल-पोषण-किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग करते हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, अधिक आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

(iv) कंठा-आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुंठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुंठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कुछ आकर्षक खिलौनों, जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।

प्रश्न 8.
प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of Gifted Children)-प्रतिभाशाली बालकों की कुछ ऐसी विशेषताएँ होते हैं, जिससे कि उसे सामान्य बच्चों से अलग किया जा सकता है–

  • मानसिक गुण- मानसिक गुण प्रतिभाशाली बालकों की सबसे प्रमुख विशेषता है। इनमें सामान्य बालकों की उपेक्षा अधिक मानसिक योग्यता होती है। अनेक अध्ययनों के आधार पर देखा गया है कि प्रतिभाशाली बालकों का 1.Q. 140 या इससे अधिक होता है।
  • चिन्तन- प्रतिभाशाली बालक सामान्य बच्चों की अपेक्षा अधिक अमूर्त चिन्तन करते हैं। ये बच्चे सूक्ष्ममातिसूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकते हैं तथा कठिन समस्याओं को समझने तथा उनका हल करने में अधिक कुशाग्र होते हैं।
  • शारीरिक गण-सामान्य बालकों की तुलना में प्रतिभाशाली बच्चे अधिक लम्बे तथा भारी बदन के होते हैं। ये जन्म के समय सामान्य बच्चों की अपेक्षा एक पौण्ड भारी तथा डेढ़ इंच लम्बे होते हैं।
  • सीखने की योग्यता- प्रतिभाशाली बालकों में सीखने की योग्यता सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होती है। अन्य बच्चों की अपेक्षा इनका भाषा विकास तीन माह पहले हो जाता है। फलतः इनका शब्दभण्डार बड़ा होता है। स्कूल जाने के पहले ही ये कुछ शब्दों को पढ़ना-लिखना सीख लेते हैं। ये कम समय में ही पाठ्य-पुस्तक विषयों को याद कर लेते हैं।
  • रूचि- प्रतिभाशाली बालकों की रूचि किसी एक ओर अधिक समय तक नहीं रहती है। वातावरण की सभी वस्तुओं का ज्ञान ये प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए उनका ध्यान बराबर विचलित होते रहते हैं।
  • सामाजिक गण- जो बालक प्रतिभाशाली होते हैं वे सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक सामाजिक होते हैं। ऐसे बालक खेलों में भी ज्यादा अभिरूचि लेते हैं। ऐसे बच्चों में नेतृत्व का गुण अधिक होता है।
  • उच्च वंश-परम्परा-प्रायः प्रतिभाशाली बालक उच्च वंश के होते हैं। इनके माता-पिता अधिक बुद्धिमान एवं शिक्षित होते हैं। या तो वे अच्छे पद पर होते हैं या बड़े व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं। परन्तु यह बात पूरी तरह से सही नहीं है, क्योंकि अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो गरीब परिवार के होते हुए भी प्रतिभाशाली हुए हैं।
  • समझने की क्षमता-प्रतिभाशाली बालक निर्देशन कम होने पर भी अधिक समझ लेते हैं और अपनी समझ-बूझ एवं पूर्व अनुभवों का लाभ उठाते हैं। अध्यापक को विषय समझाने में विशेष कठिनाई नहीं होती है।
  • ध्यान-प्रतिभाशाली बालकों का ध्यान विस्तार सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होता है। ऐसे बच्चे किसी विषय में अपने ध्यान को अधिक समय तक केन्द्रित करने में समर्थ होते हैं। इनका ध्यान कम भंग होता है।
  • अन्य शीलगुण-प्रतिभाशाली बालक प्रायः ईमानदार, दयालु एवं परोपकारी होते हैं। परन्तु, इसके लिए उन्हें उचित निर्देशन मिलना आवश्यक है।

प्रश्न 9.
आक्रमण एवं हिंसा के कारण या निर्धारकों का वर्णन करें।
उत्तर:
असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत मनष्य के असामान्य व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इसमें आक्रमण एवं हिंसा की अवधारणा पर भी विचार किया जाता है। जब किसी लक्ष्य या वस्तु को प्राप्त करने के लिए हिंसा को अपनाया जाता है तो उसे आक्रमण कहा जताा है। आक्रमण के निम्नलिखित कारण हैं-

(i) सहज प्रवृत्ति-आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।

(ii) शरीर क्रियात्मक तंत्र-शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड़ के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आर्द्र मौसम में। ..

(iii) बाल-पोषण-किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग करते हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, अधिक आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

(iv) कुंठा-आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कुछ आकर्षक खिलौनों, जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।

प्रश्न 10.
मन के गत्यात्मक पक्षों की विवेचना करें। अथवा, फ्रायड के अनुसार मन के गत्यात्मक पहलू का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोविश्लेषण के जन्मदाता फ्रायड ने मन के गत्यात्मक पक्षों का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया है और बताया है कि उस पहलू के द्वारा ही मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न मानसिक संघर्ष दूर होते हैं। इस संबंध में ब्राउन ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि “व्यक्तित्व के गत्यात्मक पहलू का अर्थ यह है जिसके द्वारा मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न संघर्षों का समाधान होता है।”

फ्रायड ने मन के गत्यात्मक के तीन पक्षों की चर्चा की है-
(i) इड (Id)-यह हमारे मन के गत्यात्मक पहलू का प्रथम भाग है। प्रारंभ में प्रत्येक बच्चा इड से ही प्रभावित होता है। जैसे-जैसे उम्र में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे इगो तथा सुपर इगो का विकास क्रमशः होने लगता है। इड को न तो समय का ज्ञान रहता है और न वास्तविकता का। यही कारण है कि बच्चे अपनी उन इच्छाओं को भी पूरा करना चाहते हैं, जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता है। फ्रायड और उनके समर्थकों ने इड को मूल प्रवृत्तियों का भंडार माना है।

(ii) इगो (Ego)-इगो मन के गत्यात्मक पहलू का वह भाग है, जिसका संबंध वास्तविकता से होता है। फ्रायड ने इसे Self conscious intelligence कहा है। चूँकि इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है, अत: इड और सुपर इगो के बीच संतुलन स्थापित करने का काम करता है। इगो तार्किक दोषों से वंचित रहता है। यह चेतन और अचेतन दोनों होता है। जीवन और वास्तविकता के बीच अभियोजन करने का काम इगो ही करता है। इसी के संतुलन पर हमारा व्यक्तित्व निर्भर करता है। इगो प्रत्येक काम के परिणाम को गंभीरतापूर्वक सोचता है और अनुकूल अवसर आने पर इड की इच्छाओं को संतुष्ट होने देता है। जो विचार इगो को मान्य नहीं होता वह अचेतन मन में दमित हो जाता है।

(iii) सुपर इगो (Super Ego)-सुपर इगो मन के गत्यात्मक का तीसरा और अंतिम भाग है। इसे आदर्शों की जननी कहा गया है। नाइस (Nice) के शब्दों में, “सुपर इगो व्यक्तित्व का वह भाग है, जिसे विवेक कहा जाता है। यह हमें सभ्य मानव की तरह व्यवहार करना सिखाता है। इस तरह यह इड की असंगत इच्छाओं की पूर्ति में बाधा डालता है।” सुपर इगो के कारण ही व्यक्ति में नैतिकता का जन्म होता है। हर हालत में इसका विकास सामाजिक परिवेश में होता है। यह मुख्यतः चेतन होता है। फलस्वरूप इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है। अपने सभी नैतिक कार्यों को करने से व्यक्ति घबराता है और यदि किसी कारणवश इन कार्यों को कर डालता है तो उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ता है।

प्रश्न 11.
युंग के व्यक्तित्व प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
युंग ने मानसिक और सामाजिक गुणों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है-
(i) अन्तःमुखी व्यक्तित्व (Introvert Personality)-युंग ने अन्त:मुखी के अंतर्गत ऐसे व्यक्तित्व वाले लोगों को रखा है जो कल्पना और चिंतन में ज्यादा समय बर्बाद करते हैं। ये लोग एकांत जीवन जीना पसंद करते हैं। अन्त:मुखी व्यक्ति बहुत अधिक भावुक होते हैं तथा उनमें आलोचनाओं को सहने की शक्ति कम होती है। इनका जीवन बहुत ही नियमित होता है। किसी काम को काफी सोच समझ कर करते हैं। अन्तःमुखी व्यक्तित्व वाले जोखिम नहीं उठा सकते। संवेगों पर इनका नियंत्रण होता है। इन लोगों को नैतिकता का विशेष ख्याल होता है। अतः ऐसे व्यक्तित्व विश्वसनीय होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति दार्शनिक, चिंतक, कलाकार या कवि हो सकते हैं।

(ii) बर्हिमुखी व्यक्तित्व (Extrovert Personality)-इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोग व्यवहार कुशल होते हैं। ये अधिक लोगों के बीच घिरे रहना पसंद करते हैं। इनमें साहस और कुशलता अधिक देखी जाती है। बहिर्मुखी व्यक्ति कम भावुक होते हैं। ये हास्यप्रिय, हाजिर जवाब तथा अनिश्चित प्रकृति के होते हैं। एकांत में रहना ऐसे व्यक्तियों के लिए दुभर होता है। इनके दोस्ती की संख्या अधिक होती है। ये अधिक जोखिम भरे कार्य कर सकते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के लोगों में संवेगात्मक अस्थिरता भी देखी जाती है। बात-बात पर इन्हें क्रोधित होते देखा जाता है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले अधिकांश नेता या समाज सुधारक होते हैं। युग के व्यक्तित्व विभाजन के अनुसार कुछ ही ऐसे व्यक्ति होते हैं जो पूर्णतः अन्तर्मुखी या बहिर्मुखी होते हैं। अधिकांश व्यक्तियों में अन्तर्मुखी तथा बहिर्मुखी दोनों प्रकार के गुण पाए जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को उभयमुखी कहा जाता है।

प्रश्न 12.
असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
यदि व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विकास दोषपूर्ण होगा, तो उसके व्यवहार में असामान्यता की संभावना बहुत अधिक रहती है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का व्यवहार

कुसमायोजित हो जाता है उसके व्यवहार दोषपूर्ण हो जाते हैं। असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं-
(i) मातृवंचन (Maternal deprivation)-मातृवंचन असामान्य व्यवहार का एक बहुत बड़ा कारण है। ऐसा देखा जाता है कि जहाँ माताएँ शिशुओं को छोड़कर नौकरी या व्यवसाय करने के लिए चली जाती है, उन्हें उचित मात्रा में माता-पिता का स्नेह नहीं मिल पाता है। ऐसी अवस्था में शिशुओं का मनोवैज्ञानिक विकास अवरुद्ध हो जाता है, जो असामान्य व्यवहार को विकसित होने में सहायक होते हैं।

(ii) पारिवारिक प्रतिमान की विकृति (Pathogenic family pattern)-विकृत पारिवारिक दशाओं के कारण भी व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित दशाएँ आती हैं
(a) तिरस्कार,
(b) अति संरक्षण
(c) इच्छाओं की पूर्ति की अधिक छूट,
(d) दोषपूर्ण अनुशासन,
(e) अयथार्थ चाह। .

(iii) दोषपूर्ण पारिवारिक संरचना (Faulty family structure)-यदि पारिवारिक संरचना दोषपूर्ण होगी तो बच्चों में अनेक प्रकार के असामान्य व्यवहार के विकसित होने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे परिवार में बच्चों की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति उचित ढंग से नहीं हो पाती है और उनमें विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। अस्त-व्यस्त पारिवारिक वातावरण में बच्चों में तनाव उत्पन्न होता है।

(iv) प्रारंभिक जीवन के मानसिक आघात (Early psychic trauma)-यह भी असामान्य व्यवहारों को उत्पन्न करने में सहायक होता है। यदि बच्चों के प्रारंभिक जीवन में कोई तीव्र मानसिक आघात लगता है, तो उसका प्रभाव व्यक्ति के पूरे जीवन पर पड़ता है और व्यक्ति असामान्य हो जाता है। . (v) विकृत अन्तःवैयक्तिक संबंध (Faulty interpersonal relation)-असामान्य व्यवहारों के विकसित होने में एक मनोवैज्ञानिक कारक विकृत अन्त:वैयक्तिक संबंध भी है। यदि किसी कारणवश परस्पर संबंधित व्यक्तियों से आपसी संबंध विकृत हो जाते हैं या तीव्र मतभेद हो जाते हैं तो उन व्यक्तियों में अत्यधिक तनाव, असंतोष, चिंता आदि विकसित हो जाते हैं, जिससे व्यक्ति का व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है।

प्रश्न 13.
मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है-
1. मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है।

2. यह उपागम अत: मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्तःद्वन्द्व को बाहर निकालना है।

3. मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुख्य रूप से संबद्ध करने के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूँकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।

प्रश्न 14.
व्यवहार चिकित्सा क्या है? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
व्यवहार चिकित्सा मनश्चिकित्सा का एक प्रकार है। व्यवहार चिकित्साओं का यह मापन है कि मनावैज्ञानिक कष्ट दोषपूर्ण व्यवहार प्रतिरूपों या विचार प्रतिरूपों के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः इनका केन्द्रबिन्दु सेवार्थी में विद्यमान व्यवहार और विचार होते हैं। उसका अतीत केवल उसके दोषपूर्ण व्यवहार तथा विचार प्रतिरूपों की उत्पत्ति को समझने के संदर्भ में महत्वपूर्ण होता है। अतीत को फिर से सक्रिय नहीं किया जाता। वर्तमान में केवल दोषपूर्ण प्रतिरूपों में सुधार किया जाता है।

अधिगम के सिद्धांतों का नैदानिक अनुप्रयोग ही व्यवहार चिकित्सा को गठित करता है व्यवहार चिकित्सा में विशिष्ट तरीकों एवं सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों का एक विशाल समुच्चय होता है। यह कोई एकीकृत सिद्धांत नहीं है जिसे क्लिनिकल निदान या विद्यमान लक्षणों को ध्यान में रखे बिना अनुप्रयुक्त किया जा सके। अनुप्रयुक्त किए जाने वाली विशिष्ट तकनीकों या सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों के चयन में सेवार्थी के लक्षण तथा क्लिनिकल निदान मार्गदर्शक कारक होते हैं। दुर्भीति या अत्यधिक और अपंगकारी भय के उपचार के लिए तकनीकों के एक समुच्चय को प्रयुक्त करने की आवश्यकता होगी जबकि क्रोध-प्रस्फोटन के उपचार के लिए दूसरी। अवसादग्रस्त सेवार्थी की चिकित्सा दुश्चितित सेवार्थी से भिन्न होगी। व्यवहार चिकित्सा का आधार दोषपूर्ण या अप्रक्रियात्मक व्यवहार को निरूपित करना, इन व्यवहारों के प्रबलित तथा संपोषित करने वाले कारकों तथा उन विधियों को खोजना है जिनसे उन्हें परिवर्तित किया जा सके।

प्रश्न 15.
व्यवहार चिकित्सा का मूल्यांकन करें। इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
व्यवहार चिकित्सा का इतिहास बहुत अधिक पुराना नहीं है। इसका प्रारंभ लगभग पच्चीस-तीस वर्ष पहले किया गया था। यह पद्धति मानसिक रोगियों की चिकित्सा के लिए बहुत अधिक कारगर साबित हुई है। यह विधि पैवल के संबंध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त पर आधारित है। इस चिकित्सा के माध्यम से मानसिक रोगियों से छुटकारा दिलाया जा सकता है, जिससे वे समाज में अपना अभियोजन ठीक ढंग से कर सके। व्यवहार चिकित्सा के संबंध में आइजेक (Eysenck) का कहना है कि “मानव व्यवहार एवं संवेगों को सीखने के नियमों के आधार पर लाभदायक तरीकों से परिवर्तन करने का प्रयास व्यवहार चिकित्सा है।” क्लीनमुंज (Keleinmuntz) ने भी लगभग इससे मिलती-जुलती परिभाषा दी है।उन्होंने कहा है कि,”व्यवहार चिकित्सा उपचार का एक प्रकार है, जिसमें लक्षणों को दूर करने के लिए शिक्षण के सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है।

व्यवहार चिकित्सा का स्वरूप कोलमैन (Coleman) की परिभाषा से और भी स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा है कि, “व्यवहार चिकित्सा संबंध प्रत्यावर्तन प्रतिक्रियाओं और व्यवहारवाद की अन्य धारणाओं पर आधारित एवं मनोचिकित्सा विधि है जो मूल रूप से स्वभाव परिवर्तन की ओर निर्देशित होती है। (Behaviour therapy is a phychotherapy based upon conditioned responses and other concepts of behaviour, primarily directed towards, habit change.) उपर्युक्त पारिभाषाओं से व्यवहार चिकित्सा का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इसमें रोगी के गलत व्यवहारों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर किया जाता है। व्यवहार चिकित्सा के निम्नलिखित प्रकारों की मुख्य रूप से चर्चा की जा सकती है।

1. क्रमबद्ध विहर्षण- इस विधि का सर्वप्रथम प्रयोग Wolpe ने किया था। शिक्षण के क्षेत्र में Watson and Rayner ने इस विधि को प्रयोग में लाया। Wolpeने अनेक मानसिक रोगियों की चिकित्सा इस विधि के माध्यम से की, जिसका परिणाम अच्छा निकला। कोलमैन ने इस विधि के संबंध में कहा है कि विहर्षण एक चिकित्सा प्रक्रिया है, जिसके द्वारा आघातजन्य अनुभवों की तीव्रता को उनके वास्तविक रूप या हवाई कल्पना को मृदुल ढंग से व्यक्ति को बार-बार दिखलाकर कम किया जाता है।
कोलमैन के विचार से स्पष्ट होता है कि विहर्षण एक मनोचिकित्सा पद्धति है, जो शिक्षण-सिद्धान्तों पर आधारित है। इसमें रोगी को मांसपेशियों को तनावहीन बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों को कल्पना श्रृंखलाबद्ध की जाती है। यह कल्पना रोगी को उस समय तक करने के लिए कहा जाता है, जबतक चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से भयभीत न हो।

किसी रोग पर इस चिकित्सा पद्धति के प्रयोग में लाने से पहले उसके गत जीवन की जानकारी प्राप्त कर ली जाती है, जिससे कि उसे रोग से संबंधित परिस्थितियों को आवश्यकतानुसार रोगी के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके। उसके बाद चिकित्सक सबसे कम भयावह परिस्थितियों से लेकर अधिक भयावह परिस्थितियों को सूचिबद्ध करता है। इन सूचियों को अलग-अलग कागज पर लिखकर रोगी को क्रमबद्ध रूप से लिखने को कहा जाता है। इसी समय चिकित्सक रोगी का साक्षात्कार भी करता है। अधिकांश रोग तनावों के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए रोगी को तनाव की स्थिति में लाकर तनावहीन स्थिति में लाने के लिए तैकॉविशन द्वारा बतलायी गयी विधि का सहारा लिया जाता है। इसमें रोगी को एक गद्दे पर लिटा कर उसके शरीर के विभिन्न स्नायुयों को व्यवस्थित रूप में फैलाने तथा सिकोड़ने के लिए कहा जाता है। उसे यह प्रक्रिया अकसर करने को कहा जाता है जिससे रोगी तनावहीन हो जाता है।

उसके बाद विहर्षण की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है। रोगी को यह निर्देश दिया जाता है कि पहले सिखायी गयी प्रक्रिया में तनाव या कष्ट का अनुभव हो, तो अंगुली उठाकर इसकी सूचना दे। उसके बाद तटस्थ रूप से दृश्यों की कल्पना करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसी बीच उसे कम कष्टदायक तथा भयावह परिस्थितियों की कल्पना करने की सलाह देता है। चिकित्सक उसे बड़ी सावधानी से नोट करता है और अंत में रोगी के सामने सबसे अधिक चिन्ता करने वाली परिस्थितियों को.तब तक उपस्थित किया जाता है जब तक कि रोगी की चिन्ता या भय के लक्षण दूर नहीं हो जाते हैं।

विहर्षण विधि का उपयोग नपुंसकता तथा उत्साहशून्यता के उपचार में सफलतापूर्वक किया जाता है। नपुंसकता को दूर करने के लिए इस विधि का प्रयोग, कूपर, लेजारस तथा वोल्पे ने सफलतापूर्वक किया। कुछ रोगी कम ही समय में इस चिकित्सा से चंगा हो जाते हैं, परन्तु कुछ अधिक समय ले लेते हैं।

2. दृढ़ग्राही प्रशिक्षण-व्यवहार चिकित्सा की इस पद्धति के द्वारा ऐसे मानसिक रोगियों की चिकित्सा की जाती है जिनमें पारस्परिक संबंधों या अन्य व्यवहारों में चिन्ता के कारण अवरोध पैदा हो जाता है। इसमें चिकित्सक यह प्रयास करता है कि रोगी का अवरोध कैसे दूर हो तथा उसकी चिन्ता में कैसे कमी हो। चिकित्सक यह भी बतलाता है कि रोगी का व्यवहार कैसे maladjusted हो गया है। वोल्पे तथा लेजारस ने बतलाया कि इस तरह के रोगी की चिकित्सा में तर्क-वितर्क तथा दृढ़ग्राही प्रतिक्रियाओं का वास्तविक जीवन में व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वोल्पे ने कहा है कि चिन्ता का असंबद्धता प्रायः व्यववहार पूर्वाभ्यास में ही हो जाती है। फ्रीडमैन का कहना है कि इस विधि की कला चिन्ता अवरोध की वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में सामान्यीकरण स्थापित करती है। इस संबंध में कोटेला ने अपना अध्ययन एक युवती पर किया जो माता-पिता के सामने डटकर बातचीत करने में हिम्मत नहीं रखती थी। कोटेला ने इस पद्धति के माध्यम से उसमें डटकर बात करने की योग्यता को विकसित किया।

3. विरुचि संबंध प्रत्यावर्तन- इस प्रकार की चिकित्सा के माध्यम से रोगी की गलत आदतों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार की चिकित्सा के संबंध में कहा जा सकता है कि, “सबल उत्तेजक का प्रयोग अवांछित व्यवहार के उपस्थित होने पर उसे दूर करने के उद्देश्य से किया जाता है, तो इसे विरुचित संबंध प्रत्यावर्तन कहा जाता है।” इसका सफल Feldman तथा Meuch ने समजाति लैंगिकता और वस्तु लैंगिकता के उपचार में किया। इससे जैसे ही रोगी अपने यौन के व्यक्ति या वस्तु की ओर देखना प्रारंभ करता था वैसे ही उसके विद्युत आघात पहुँचाया जाता है।

इसके माध्यम से नशे की आदत से आसानी से छुटकारा दिलाया जा सकता है। इस विधि द्वारा अवांछित व्यवहारों को दूर करने के लिए सबल उत्तेजक, जैसे-विद्युत आघात, वमन करने वाली दवाएँ आदि का सहारा लिया जाता है। जैसे-एक शराब पीने वाले का उपचार करने के लिए पहले उसे तैयार किया जाता है। उसके बाद रोगी को एक ग्लास गरम खारे घोल में ह्विस्की के साथ कुछ वमन करने वाली दवाइयाँ दी जाती है। के होने के कुछ देर बाद उसे ह्विस्की पीने को दिया जाता है। यदि पहले पैग में वमन नहीं होता है, तो दूसरे पैग में दिया जाता है, जिससे कि रोगी को वमन होने लगे। धीरे-धीरे रोगी शराब की गंध से वमन करना प्रारंभ कर देता है। यहाँ असम्बद्ध उत्तेजक दवा है जो कै करवाती है और उसे संबद्ध उत्तेजक शराब की गन्ध एवं स्वाद है।

जेम्स ने एक चालीस वर्षीय समजाति लैंगिक का उपचार इस विधि द्वारा किया। परिणामस्वरूप वह व्यक्ति समजाति लैंगिक से विषम जाति लैंगिक बन गया। उसका ध्यान मर्दो से हटकर औरतों की ओर हो गया। इस पद्धति के आधार पर गरीब रोगियों की चिकित्सा कम-से-कम समय तथा कम-से-कम खर्च में की जाती है।

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