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 Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 2

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
उत्तर:
व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड हैं। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड (id), अहं (ego) और पराहम (super ego)। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए. व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है।

इड-यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सा-सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इंड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता है कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दण्ड का भागी हो सकता है।

वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग अवास्तविक और सुखेप्सा सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम् इड और अहं को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन मन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जा से निर्मित हुआ है। इड, अहं और पराहम की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की स्थिरता का निर्धारण करती है।

प्रश्न 2.
टाइप-ए तथा टाइप-बी प्रकार के व्यक्तित्व में अंतर करें।
उत्तर:
हाल के वर्षों में फ्रीडमैन एवं रोजेनमैन ने टाइप ‘ए’ तथा टाइप ‘बी’ इन दो प्रकार के व्यक्तित्वों में लोगों का वर्गीकरण किया है। इन दोनों शोधकर्ताओं ने मनोसामाजिक जोखिम वाले कारकों का अध्ययन करते हुए उन प्रारूप की खोज की। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग में उच्च स्तरीय अभिप्रेरणा, धैर्य की कमी, समय की कमी का अनुभव, उतावलापन और कार्य के बोझ से हमेशा लदे रहने का अनुभव करना पाया जाता है। ऐसे लोग निश्चिंत होकर मंद गति से कार्य करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग अतिरिक्त दान और कॉरेनरी हृदय रोग के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। इस प्रकार के लोगों में कभी-कभी सी. एच. डी. विकसित होने का खतरा, उच्च रक्त दाब, उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर और धूम्रपान से उत्पन्न होनेवाले खतरों की अपेक्षा अधिक होती है। उसके विपरीत टाइप ‘बी’ व्यक्तित्व को टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व की विशेषताओं के अभाव के रूप में जाना जाता है।

प्रश्न 3.
निर्धनता को दूर करने के उपायों का सुझाव दें। अथवा, गरीबी के उन्मूलन के लिए एक योजना बनाइए।
उत्तर:
निर्धनता को दूर करने के उपाय निम्नलिखित हैं-
1. कृषि तथा उद्योग में अधिक-से-अधिक रोजगार उत्पन्न करना- यदि देश के उद्योगधन्धे तथा कृषि पर अधिक बल दिया जाता है तो अधिक रोजगार के साधन उपलब्ध होने से बेरोजगारी समाप्त होगी, व्यक्तियों की आय बढ़ेगी और निर्धनता पर नियंत्रण होगा। इसके लिए सरकार को सकारात्मक उपाय करने चाहिए।

2. जनसंख्या नियंत्रण-निर्धनता कम करने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण करना आवश्यक है। जनसंख्या वृद्धि से विकास का परिणाम लुप्त हो जाता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः जनसंख्या को नियंत्रित करने से विकासात्मक उपायों से आय बढ़ेगी।

3. काले धन को समाप्त करना- काला धन चोरी करके छुपाई गई आय है जिस पर कर अदा नहीं किया जाता है। यह धन भ्रष्ट कार्यों में लगाया जाता है। इससे आर्थिक शोषण बढ़ता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः निर्धनता को कम करने के लिए काले धन को बाहर निकाला जाना चाहिए।

4. वितरणात्मक न्याय-विकास को प्राप्त होने वाले लाभ का यथोचित वितरण होना चाहिए। विकास के लाभ निर्धनों तक पहुँचना चाहिए। धनी व्यक्तियों पर कर (tax) का भार डालकर निर्धनों पर खर्च किया जाना चाहिए।

5. योजना का विकेन्द्रीकरण तथा कार्यान्वन-सरकार द्वारा गरीबों की भलाई के लिए चलाई गई योजनाओं का विकेन्द्रीकरण नहीं होगा तब तक ग्राम पंचायतों द्वारा निर्धन व्यक्ति की पहचान नहीं हो सकेगी तथा इन योजनाओं का लाभ गरीबों तक नहीं पहुँचेगा।

6. मनुष्य भूमि स्वामित्व-भू-स्वामी अपनी जमीन को जोतने के लिए गरीबों को देकर उपज का पर्याप्त भाग अपने पास रख लेते हैं। अतः जो जमीन को जोते स्वामित्व उसी का होने से यह शोषण नहीं हो पाएगा।

7. विभिन्न उपाय-ऋणदायी संस्थाओं में कम दरों पर ऋण देना, पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करना, युवकों को रोजगार करने योग्य बनाना, आदि उपाय भी सहायक हैं।

प्रश्न 4.
मनोगत्यात्मक चिकित्सा क्या है? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है। यह उपागम अत: मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्त:द्वन्द्व को बाहर निकालना है। मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुक्त रूप से संबद्ध करने के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूँकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।

उपचार की प्रावस्था :
अन्यारोपण (transference) तथा व्याख्या या निर्वचन (interpretation) रोगी का उपचार करने के उपाय हैं। जैसे ही अचेतन शक्तियाँ उपरोक्त मुक्त साहचर्य एवं स्वप्न व्याख्या विधियों द्वारा सचेतन जगत में लाई जाती है, सेवार्थी चिकित्सा की अपने अतीत सामान्यतः बाल्यावस्था के आप्त व्यक्तियों के रूप में पहचान करने लगता है। चिकित्सक एक अनिर्णयात्मक तथापि अनुज्ञापक अभिवृत्ति बनाए रखता है और सेवार्थी को सांवेगिक पहचान स्थापित करने की उस प्रक्रिया को जारी रखने का अनुमति देता है।

यही अन्यारोपण की प्रक्रिया है। चिकित्सक उस प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है क्योंकि उससे उसे सेवार्थी के अचेतन द्वंद्वों को समझने में मदद मिलती है सेवार्थी अपनी कुंठा, क्रोध, भय और अवसाद जो उसने अपने अतीत में उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में रखी थी लेकिन उस समय उनकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाया था को चिकित्सक के प्रति व्यक्त करने लगता है उस अवस्था को अन्यारोपण कहते हैं। सकारात्मक अन्यारोपण में सेवार्थी चिकित्सक की पजा करने लगता है या उससे प्रेम करने लगना है कि चिकित्सक का अनुमोदन चाहता है। नकारात्मक अन्यारोपण तब प्रदर्शित होता है जब सेवार्थी में चिकित्सक के प्रति शत्रुता, क्रोध अप्रसन्ता की भावना होती है। अन्यारोपण प्रक्रिया में प्रतिरोध भी होता है।

निर्वचन मूल युक्ति है जिसमें परिवर्तन को प्रभावित किया जाता है। प्रतिरोध एवं स्पष्टीकरण निर्वचन की दो विश्लेषणात्मक तकनीक है। प्रतिरोध में चिकित्सक सेवार्थी के किसी एक मानसिक पथ की ओर संकेत करता है जिसका सामना सेवार्थी को अवश्य करना चाहिए। स्पष्टीकरण एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से चिकित्सक किसी अस्पष्ट या भ्रामक घटना को केन्द्र बिन्दु में लाता है। यह घटना के महत्त्वपूर्ण विस्तृत वर्णन को महत्त्वहीन वर्णन से अलग करके तथा विशिष्टता प्रदान करके किया जाता है। निर्वचन एक अधिक सूक्ष्म प्रक्रिया है। प्रतिरोध, स्पष्टीकरण तथा निर्वचन को प्रयुक्त करने की पुनरावृत्ति प्रक्रिया को समाकलन कार्य कहा जाता है। समाकलन कार्य रोगी को अपने आपको और अपनी समस्याओं के स्रोत को समझने में तथा बाहर आई सामग्री को अपने अहं में समाकलित करने में सहायता करता है।

प्रश्न 4.
पूर्वधारणा को दूर करने की किन्हीं तीन विधियों का वर्णन करें।
उत्तर:
पूर्व धारणा को दूर करने की तीन विधियाँ निम्नलिखित हैं
1. शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्षण समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंतःसमूह अभिन्न की समस्या से निपटना।
2. अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यय सम्प्रेषण समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों की खोज करने का अवसर प्रदान करता है। ये युक्ति तभी सफल होती है जब

  • दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोगी संदर्भ में मिलते हैं। .
  • समूह के मध्य घनिष्ठ अन्तःक्रिया एक दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है।
  • दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।

3. समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्टता प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह के महत्त्व को बलहीन करना।
अतः पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होंगी जब उनका प्रयास होगा-

  • पूर्वाग्रहों के अधिगमन के अवसरों को कम करना।
  • ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
  • अन्त:समूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना तथा
  • पूर्वाग्रह वे शिकार लोगों में स्वतः साधक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना।

प्रश्न 5.
साक्षात्कार कौशल क्या है ? इसके चरणों का वर्णन करें।
अथवा, साक्षात्कार कार्य कौशल क्या है? साक्षात्कार प्रारूप के विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता को विभिन्न चरणों से होकर गुजरना पड़ता है, जिसका विवरण निम्नलिखित है
(i) प्रारंभिक अवस्था-यह साक्षात्कार की सबसे पहली अवस्था है। वास्तव में साक्षात्कार की सफलता उसकी प्रारंभिक तैयारी पर ही निर्भर होती है। यदि इस अवस्था में गलतियाँ होगी तो साक्षात्कार का सफल होना संभव नहीं है।

(ii) प्रश्नोत्तर की अवस्था-साक्षात्कार की यह सबसे लंबी अवस्था है। इस अवस्था में साक्षाकारकर्ता साक्षात्कारदाता से प्रश्न पूछता है और साक्षात्कारदाता उसके प्रश्नों को सावधानीपूर्वक सुनता है और कुछ रूककर उसे समझता है, उसके बाद उत्तर देता है। उसके उत्तर देते समय साक्षात्कारकर्ता उसके हाव-भाव, मुखाकृति का भी अध्ययन करता है।

(iii) समापन की अवस्था- साक्षात्कार का यह सबसे अंतिम चरण है। जब साक्षात्कारकर्ता को सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाय और ऐसा अनुभव हो कि उसे महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी प्राप्त हो चुकी है तो साक्षात्कार का समापन किया जाता है। इस अवस्था में साक्षात्कारदाता के मन में बननेवाली प्रतिकूल अवधारणा का निराकरण करना चाहिए। साक्षात्कारदाता भी जब यह कहता है कि और कुछ पूछना है तो उसे प्रसन्नतापूर्वक समापन की सूचना देनी चाहिए तथा सफल साक्षात्कार के लिए उसे धन्यवाद भी देना चाहिए।

प्रश्न 6.
मानव व्यवहार पर पर्यावरणीय प्रभावों का वर्णन करें।
अथवा, “मानव पर्यावरण को प्रभावित करते हैं तथा उससे प्रभावित होते हैं।” इस कथन की व्याख्या उदाहरणों की सहायता से कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण पर मानव प्रभाव-मनुष्य भी अपनी शारीरिरक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्मित पर्यावरण के सारे उदाहरण पर्यावरण के ऊपर मानव प्रभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, मानव ने जिसे हम ‘घर’ कहते हैं, उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जिससे कि उन्हें एक आश्रय मिल सके। मनुष्यों के इस प्रकार के कुछ कार्य पर्यावरण को क्षति भी पहुँचा सकते हैं और अंततः स्वयं उन्हें भी अनेकानेक प्रकार से क्षति पहुँचा सकते हैं।

उदाहरण के लिए, मनुष्य उपकरणों का उपयोग करते हैं, जैसे-रेफ्रीरजेटर तथा वातानुकूलन यंत्र जो रासायनिक द्रव्य (जैसे-सी.एफ.सी. या क्लोरो-फ्लोरो कार्बन) उत्पादित करते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा अंततः ऐसे शारीरिक रोगों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे कैंसर के कुछ प्रकार। धूम्रपान के द्वारा हमारे आस-पास की वायु प्रदूषित होती है तथा प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है।

वृक्षों के कटान या निर्वनीकरण के द्वारा कार्बन चक्र एवं जल चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इससे अंततः उस क्षेत्र विशेष में वर्षा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ सकता है और भू-क्षरण तथा मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो सकती है। वे उद्योग जो निस्सारी का बहिर्वाह करते हैं तथा इस असंसाधित गंदे पानी को नदियों में प्रवाहित करते हैं, इस प्रदूषण के भयावह भौतिक (शारीरिक) तथा मनोवैज्ञानिक परिणामों से तनिक चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं।

मानव व्यवहार पर पर्यावरणी प्रभाव :
(i) प्रत्यक्षण पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण के कुछ पक्ष मानव प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका की एक जनजाति समाज गोल कुटियों (झोपड़ियों) में रहती है अर्थात् ऐसे घरों में जिनमें कोणीय दीवारें नहीं हैं। वे ज्यामितिक भ्रम (मूलर-लायर भ्रम) में कम त्रुटि प्रदर्शित करते हैं, उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो नगरों में रहते हैं और जिनके मकानों में कोणीय दीवारें होती हैं।

(ii) संवेगों पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण का प्रभाव हमारी सांवेगिक प्रतिक्रियाओं पर भी पड़ता है। प्रकृति के प्रत्येक रूप का दर्शन चाहे वह शांत नदी का प्रवाह हो, एक मुस्कुसता हुआ फूल । हो, या एक शांत पर्वत की चोटी हो, मन को एक ऐसी प्रसन्नता से भर देता है जिसकी तुलना किसी अन्य अनुभव से नहीं की जा सकती। प्राकृतिक विपदाएँ, जैसे-बाढ़, या सूखा, भू-स्खलन, भूकंप चाहे पृथ्वी के ऊपर हो या समुद्र के नीचे हो, वह व्यक्ति के संवेगों पर इस सीमा तक प्रभाव डाल सकता है कि वे गहन अवसाद और दुःख तथा पूर्ण असहायता की भावना और अपने जीवन पर नियंत्रण के अभाव का अनुभव करते हैं। मानव संवेगों पर ऐसा प्रभाव एक अभिघातज अनुभव है जो व्यक्तियों के जीवन को सदा के लिये परिवर्तित कर देता है तथा घटना के बीत जाने के बहुत समय बाद तक भी अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post-traumatic stress disorder-PTdS) के रूप में बना रहता है। .

(iii) व्यवसाय, जीवन-शैली तथा अभिवृतियों पर पारिस्थितिक का प्रभाव-किसी क्षेत्र का प्राकृतिक पर्यावरण या निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र के निवासी कृषि पर (जैसे-मैदानों में) या अन्य व्यवसायों, जैसे-शिकार तथा संग्रहण पर (जैसे-वनों, पहाड़ों या रेगिस्तानी क्षेत्रों में) या उद्योगों पर (जैसे-उन क्षेत्रों में जो कृषि के लिए उपजाऊ नहीं हैं) निर्भर रहते हैं परन्तु किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के व्यवसाय भी उनकी जीवन-शैली और अभिवृत्तियों का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 7.
मनोविदलता के लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोविदलता (Schizopherenia) को पहले dementia praecox के नाम से जाता था। Dementia praecox शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग क्रेपलिन ने किया था, जिसका तात्पर्य मनोविचछन्नता होता है। Schizophrenia शब्द का सर्वप्रथम ब्ल्यू मर (Bleumer) ने 1911 ई. में किया था। उन्होंने कहा है कि इस रोग में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विभाजन हो जाता है। बाद में इस अर्थ को भी छोड़ दिया गया। आधुनिक युग में इस संबंध में अनेक अनुसंधान किए जा रहे हैं तथा इसकी परिभाषा देते हुए जे. सी. कोलमैन (J.C. Coleman) ने कहा है, “मनोविद्गलता वह विवरणात्मक पद है जिसमें मनोविकृति से संबंधित कई विकारों का बोध होता है। इसमें बड़े पैमाने पर वास्तविकता तोड़-मरोड़कर दिखायी देती है। रोगी सामाजिक अन्तः क्रियाओं से पलायन करता है। व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण, विचार और संवेग, अपूर्ण और विघटित रूप में होते हैं।”

लक्षण (Symptoms)-मनोविदलता के रोगियों में बहुत प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लक्षण देखे जाते हैं, जिनमें कुछ मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. संवगात्मक उदासीनता-मनोविदलता की रोगी संवेगात्मक रूप से उदासीन रहता है, अर्थात् रोगी emotional apathy में पाया जाता है। फिशर (Fisher) ने emotional apathy को मनोविदलता का Most Common Symptom स्वीकार किया है। रोगी बाह्य वातावरण के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है। यहाँ तक कि यदि उसके परिवार में किसी व्यक्ति की मौत हो जाय, तो भी उसे किसी प्रकार का दुःख की अनुभूति नहीं होती। प्रश्न पूछे जाने पर वह संक्षिप्त उत्तर देता है। कभी-कभी दो विरोधी संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ एक साथ देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए उसमें रोने और हँसने की क्रिया एक साथ देखी जा सकती है। रोगी अपने शारीरिक . अवस्थाओं के प्रति काफी उदासीन होता है। उसे खाने-पीने की कोई परवाह नहीं रहती। मैकडूगला ने भी emotional apathy को इस मानसिक रोग का एक प्रमुख लक्षण माना है।

2. मानसिक हास-मनोविदलता के सभी रोगियों में मानसिक ह्रास के लक्षण देखे जाते हैं। कहने का तापत्पर्य यह है कि उसकी मानसिक क्रियाएँ विभिन्न दोषों से युक्त रहती हैं। उसका चिन्तनपूर्ण रूप से अव्यवस्थित रहता है। इसकी स्मृति बहुत कमजोर होती है। अपनी परिस्थितियों को सुलझाने में असमर्थ रहते हैं और यहाँ तक कि अपना नाम, पता आदि को भी नहीं बदल पाते। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि इसके रोगी का I. Q. सामान्य से बहुत कम होता है।

3. विभ्रम-मनोविदलता के रोगी का प्रधान लक्षण विभ्रम है। इससे ग्रस्त रोगियों में अनेक प्रकार के विभ्रम देखे जाते हैं, फिर उनमें संरक्षण की प्रधानता रहती है। मनोविदलता का रोगी ऐसा अनुभव करता है कि उसे भगवान या किसी काल्पनिक व्यक्ति की आवाज सुनाई पड़ रही है। कभी-कभी वह भगवान की आवाज को सुनता है और चिल्लाता है। रोगी वह भी समझता है कि सभी लोग उसके दुश्मन हैं और जहर देकर मारना चाहते हैं। खाने में उसे कोई स्वाद नहीं मिलता और वह आस-पास की दुर्गन्ध से सशक्ति रहता है। इस प्रकार के रोगी विभिन्न प्रकार के विभ्रमों का शिकार बन जाता है। .

4. व्यामोह-मनोविदलता के रोगियों में व्यामोह (dilusions) के लक्षण भी देखे जाते हैं। रोगी यह अनुभव करता है कि लोग उसे जान से मारने का षड्यंत्र कर रहे हैं। चिकित्सक को भी वह दुश्मन समझता है। दवा को जहर समझकर पीने से इनकार करता है। डॉ पेज ने मनोविदलता के रोगियों के व्यामोह की तुलना सामान्य व्यक्ति के स्वप्न से की है। जिस प्रकार स्वप्न की स्थिति में दृश्य को हम देखते हैं, वे शून्य प्रतीत होते हैं, ठीक उसी प्रकार इस रोग से पीड़ित रोगी अपने dilusions को शून्य स्वीकार कर लेता है।

5. भाषा-दोष-रोगी में बोलने की गड़बड़ी के लक्षण भी देखे जाते हैं। उनके वाक्य निरर्थक एवं लम्बे होते हैं। कभी-कभी कोई शब्दों को मिलाकर एक नए वाक्य का निर्माण कर लेते हैं। कभी रोगी इतनी तेज रफ्तार से बोलता है, जिसे दूसरे लोग सुन नहीं पाते हैं। इसी प्रकार रोगी में विचित्र लेखन के लक्षण देखे जाते हैं। उसकी लेखशैली दोषपूर्ण होती है। लिखने के सिलसिले में वे symbols, lines, drawing and words को एक ही साथ मिला देते हैं। व्याकरण के नियमों का वे कभी पालन नहीं करते हैं।

6. शारीरिक क्षमता का हास-मनोविदलता के रोगी शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। शरीर में मेहनत करने की क्षमता नहीं होती। वह हमेशा नींद की कमी महसूस करता है। इस प्रकार schizophrernia के रोगी में अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक दोष पाये जाते हैं।

प्रश्न 8.
व्यक्तित्व विकास की अवस्थाओं का वर्णन करें। अथवा, फ्रायड ने किस तरह से व्यक्तित्व विकास की व्याख्या की है?
अथवा, फ्रायड द्वारा प्रस्तावित व्यक्तित्व-विकास की पंच अवस्था सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
फ्रायड ने व्यक्तित्व-विकास का एक पंच अवस्था सिद्धांत प्रस्तावित किया जिसे मनोलैंगिक विकास के नाम से भी जाना जाता है। विकास की उन पाँच अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था पर समस्याओं के आने से विकास बाधित हो जाता है और जिसका मनुष्य

के जीवन पर दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। फ्रायड द्वारा प्रस्तावित पंच अवस्था सिद्धांत निम्नलिखित है-
(i) मौखिक अवस्था-एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती हैं। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जिसके लिए यह संसार कटु अनुभवों से परिपूर्ण हैं, संभवत: मौखिक अवस्था का उसका विकास कठिनाई से हुआ करता है।

(ii) गुदीय अवस्था-ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ मांगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है। इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे एक आयु में इन क्रियाओं को करने में आनंद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की मांग के बीच भी द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है।

(iii) लैंगिक अवस्था-यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आय में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंथि का समाधान कर लेता है। वह ऐसा अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उसी तरह का व्यवहार करता है।

बलिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोड़े भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि कहते हैं। इसे मनोग्रंथि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप से उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रतिद्वंद्वी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं। बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लैंगिक इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती है।

(iv) कामप्रसुप्ति अवस्था-यह अवस्था सात वर्ष की आयु से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है। किन्तु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि- संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।

(v) जननांगीय अवस्था-इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।

प्रश्न 9.
अभिवृत्ति से आप क्या समझते हैं? अभिवृत्ति परीक्षण के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें। अथवा, अभिवृत्ति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अभिवृत्ति मन की एक अवस्था है। किसी विषय के संबंध में विचारों का एक पुंज है जिसमें एक मूल्यांकनपरक विशेषता पाई जाती है अभिवृत्ति कहलाती है।
अभिवृत्ति की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं-कर्षण शक्ति, चरम सीमा, सरलता या जटिलता तथा केन्द्रिकता।
(i) कर्षण शक्ति (सकारात्मक या नकारात्मक)-अभिवृत्ति की कर्षण शक्ति हमें यह बताती है कि अभिवृत्ति विषय के प्रति कोई अभिवृत्ति सकारात्मक है अथवा नकारात्मक। उदाहरण के लिए यदि किसी अभिवृत्ति (जैसे-नाभिकीय शोध के प्रति अभिवृत्ति) को 5 बिन्दु मापनी व्यक्त करता है जिसका प्रसार 1. बहुत खराब, 2. खराब 3. तटस्थ न खराब न अच्छा 4. अच्छा से 5. बहुत अच्छा तक है। यदि कोई व्यक्ति नाभिकीय शोध के प्रति अपने दृष्टिकोण या मत का आकलन इस मापनी या 4 या 5 करता है तो स्पष्ट रूप से यह एक सकारात्मक अभिवृत्ति है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को पसंद करता है तथा सोचता है कि यह कोई अच्छी चीज है। दूसरी ओर यदि आकलित मूल्य 1 या 2 है तो अभिवृत्ति नकारात्मक है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को नापसंद करता है एवं सोचता है कि यह कोई खराब चीज है। हम तटस्थ अभिवृत्तियों को भी स्थान देते हैं। यदि इस उदाहरण में नाभिकीय शोध के प्रति तटस्थ अभिवृत्ति इस मापनी पर अंक 3 के द्वारा प्रदर्शित की जाएगी तब एक तटस्थ अभिवृत्ति में कर्षण शक्ति न तो सकारात्मक होगी न ही नकारात्मक।

(ii) चरम सीमा-एक अभिवृत्ति को चरम-सीमा यह इंगित करती है कि अभिवृत्ति किस सीमा तक सकारात्मक या नकारात्मक है। नाभिकीय शोध के उपयुक्त उदाहरण में मापनी मूल्य ‘1’ उसी चरम सीमा का है जितना ‘5’। बस अंतर इतना है कि दोनों ही विपरीत दिशा में है। तटस्थ अभिवृत्ति नि:संदेह न्यूनतप तीव्रता की है।

(ii) सरलता या जटिलता (बहविधता)- इस विशेषता से तात्पर्य है कि एक व्यापक अभिवृत्ति के अंतर्गत कितनी अभिवृत्तियाँ होती हैं। उस अभिवृत्ति को एक परिवार के रूप में समझना चाहिए जिसमें अनेक ‘सदस्य’ अभिवृत्तियाँ हैं। बहुत-से विषयों (जैसे स्वास्थ्य एवं विश्व शांति) के संबंध में लोग एक अभिवृत्ति के स्थान या अनेक अभिवृत्तियाँ रखते हैं। जब अभिवृत्ति तंत्र में एक या बहुत थोड़ी-सी अभिवृत्तियाँ हों तो उसे ‘सरल’ कहा जाता है और जब वह अनेक अभिवृत्तियों के पाए जाने की संभावना है, जैसे व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का संप्रत्यय, प्रसन्नता एवं कुशल-क्षेम के प्रति उसका दृष्टिकोण एवं व्यक्ति स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता कैसे प्राप्त कर सकता है, इस संबंध में उसका विश्वास एवं मान्यताएँ आवश्यक हैं।

इसके विपरीत, किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अभिवृत्ति में मुख्य रूप में एक अभिवृत्ति के पाये जाने की संभावना है। एक अभिवृत्ति तंत्र के घटकों के रूप में नहीं देखना चाहिए। एक अभिवृत्ति तंत्र के प्रत्येक सदस्य अभिवृत्ति में भी संभाव्य या ए. बी. सी. घटक होता है।

(iv) केन्द्रीकता-यह अभिवृत्ति तंत्र में किसी विशिष्ट अभिवृत्ति की भूमिका को बताता है। गैर-केन्द्रीय या परिधीय अभिवृत्तियों की तुलना में अधिक केन्द्रीकता वाली कोई अभिवृत्ति, अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को अधिक प्रभावित करेगी। उदाहरण के लिए विश्वशांति के प्रति अभिवृत्ति में सैनिक व्यय के प्रति एक नकारात्मक अभिवृत्ति, एक प्रधान या केन्द्रीय अभिवृत्ति के रूप में ही हो सकती है तो बहु-अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को प्रभावित कर सकती है।

प्रश्न 10.
विभिन्न प्रकार के मनोचिकित्सा का वर्णन करें।
उत्तर:
चिकित्सा या मनोचिकित्सा का अर्थ मनोवैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा मानसिक विकृतियों, . द्वन्द्वों तथा व्याधियों का उपचार करना है। सरासन (Sarason, 2005) ने भी इसी अर्थ में मनोचिकित्सा को परिभाषित किया है।

मनोचिकित्सा के कई प्रकार होते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-
(i) मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा (Psychoanalytic therapy)-इस विधि को फ्रॉयड ने विकसित किया। इसकी कई अवस्थाएँ होती हैं। इन्हीं अवस्थाओं को साक्षात्कार की अवस्था, स्वतंत्र साहचर्य की अवस्था, दैनिक जीवन की भूलों की अवस्था, स्वप्न विश्लेषण की अवस्था, अंतरण की अवस्था, पुर्नशिक्षण की अवस्था तथा समापन की अवस्था कहते हैं। यह मनोचिकित्सा विधि मानसिक रोगियों के उपचार में केवल आंशिक रूप से सफल है।\

(ii) व्यवहार चिकित्सा (Behaviour therapy)-इस चिकित्सा विधि को स्किनर ने विकसित किया तथा उल्पे ने इसमें योगदान किया। इस विधि के कई परिमार्जित प्रकार या रूप हैं। इनमें विमुखता चिकित्सा (aversive therapy), संकेत व्यवस्था (token economy), मुकाबला (flooding), व्यवहार प्रतिरूपण (behaviour modeling) आदि प्रमुख हैं। आवश्यकता के अनुकूल इन चिकित्सा प्रविधियों का उपयोग करके रोगी का उपचार किया जाता है। यह चिकित्सा विधि भी आशिक रूप में ही सक्षम है।

(iii) संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive behaviour therapy)-संज्ञानात्मक चिकित्सा को बेक नामक मनोवैज्ञानिक ने विकसित किया। वास्तव में यह चिकित्सा विधि व्यवहार चिकित्सा का ही विकसित एवं परिमार्जित रूप है। इसमें व्यवहार परिमार्जन के साथ-साथ रोगी के संज्ञान परिवर्तन पर भी बल दिया गया है। इसलिए यह चिकित्सा विधि वास्तव में अधिक प्रभावी एवं उपयोगी है।
इसके अलावे भी चिकित्सा या मनोचिकित्सा के कई प्रकार हैं, जैसे-समूह चिकित्सा, खेल चिकित्सा, अनादेश चिकित्सा आदि।

(iv) योगा चिकित्सा (Yoga therapy)-योगा चिकित्सा वास्तव में भारतीय चिंतकों में योगदानों का परिणाम है। इस चिकित्सा में योगा के माध्यम से रोगी को रोगमुक्त किया जाता है। योगा के कुछ निश्चित नियम हैं, जिनके अनुसार रोगी को व्यवहार करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप वह क्रमशः रोगमुक्त बन जाता है। इसका गुण यह है कि इसका कोई हानिप्रद प्रभाव नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि रोगी सदा के लिए रोगमुक्त हो जाता है।

प्रश्न 11.
मनोचिकित्सा को वर्गीकृत करने के विभिन्न प्राचल का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोचिकित्सा विविध प्रकार के मानवीय रोगों एवं विक्षोभों, विशेषतया जो मनोजात कारणों से होते हैं, का निराकरण करने के लिए मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धांतों का योजनाबद्ध एवं व्यवस्थित ढंग से उपयोगी है।

चिकित्सात्मक संबंधों की प्रकृति को निम्नवत् रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) प्रतिरोध (Resistance)-सामान्यतः रोगी की समस्याएँ उसके अचेतन मन से संबंध रखती है जो असामाजिक और लैंगिक होती है। रोगी उनको बताने के बाद एकदम से रुक जाता है। जब ऐसी स्थिति आए तो चिकित्सक का कर्तव्य बनता है कि वह रोगी की प्रतिरोधात्मक बातों का कोई निवारण करें। ऐसी स्थिति सामान्यतः तब उत्पन्न होती है जब रोगी तथा चिकित्सक के बीच आत्मीय संबंध स्थापित हों, ऐसी स्थिति में रोगी अपनी समस्या को प्रकट करने में प्रतिरोध करता है।

(ii) संक्रमण (Transference)-मनोचिकित्सा में रोगी और चिकित्सक के बीच एक संबंध स्थापित हो जाता है जिसके कारण चिकित्सक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि कहीं न कहीं रोगी अपनी घृणा या प्रेम का वास्तविक पात्र उस चिकित्सक को मान लेता है जिसके परिणामस्वरूप अगर चिकित्सक सावधानियाँ न अपनाए तो उसे परेशानियाँ अर्थात् रोग घेर लेते हैं जिसके फलस्वरूप संक्रमण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

(ii) आत्मीयता संबंध की स्थापना (Establishment of report formation)-आत्मीयता संबंध की स्थापना का मुख्य उद्देश्य यह है कि किसी भी तरह से रोगी के मस्तिष्क के उन रोगों को दूर करना जिसकी वजह से व्यक्ति असामान्य हो जाता है या असामान्य व्यवहार करने लगता है। आत्मीयता संबंध की स्थापना करने से ही मनोचिकित्सा का आरंभ होता है। इसमें चिकित्सा काल में व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न किया जाता है और उसके व्यक्तित्व को संगठित किया जाता है जिससे वह अपने आसपास के लोगों तथा पर्यावरण के मध्य एक उचित संबंध स्थापित कर सके। एक चिकित्सक हमेशा यही चाहता है कि वह जिस भी रोगी का इलाज कर रहा है वह उसे पूर्ण रूप से ठीक कर सके। परंतु यह तभी संभव है जब रोगी और चिकित्सक के मध्य आत्मीयता के विचार जागृत हों या सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित हों।

(iv) अन्तर्दृष्टि (Insight)-अगर किसी रोगी की चिकित्सा उचित ढंग से हो रहा हो तो वह अपनी दमित भावनाओं, परेशानियों आदि के विषय में चिकित्सक को बताने लगता है। इसका सीधा संबंध अहम् और असामाजिकता को छोड़ने से होता है। इसलिए यह जरूरी है कि ये इच्छाएँ जिस रूप में दमित हुई थीं ठीक उसी प्रकार से बाहर आयें या रोगी उसी प्रकार से उन्हें व्यक्त कर सके। जिस प्रकार से इच्छाएँ दमित हुई ठीक उसी प्रकार से व्यक्त न कर पाने के कारण व्यक्ति अपनी समस्याओं और परेशानियों में उलझ जाता है और निषेधात्मक रूप से अपनी बातों को प्रकट करता है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि चिकित्सक अपने आपको इस बात के लिए तैयार करें कि वह रोगी की उन निषेधात्मक बातों को भी समझ सके। इससे रोगी में अन्तर्दृष्टि आ जाती है।

(v) संवेगात्मक पुनर्शिक्षा तथा सामान्य समायोजन (Techniques of psychotherapy)जब रोगी को इस बात का आभास होता है कि उसकी अन्तर्दृष्टि ठीक प्रकार से काम कर रही है तो वह सामान्य व्यक्तियों की तरह कार्य करने लगता है और वह स्वयं भी अपनी परेशानियों को दूर करने की कोशिश करता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि रोगी को यदि उचित प्रकार की मनोचिकित्सा मिलती है तो इस रोगी को आराम अवश्य मिलता है।

प्रश्न 12.
समूह को परिभाषित करें। समूह का निर्माण किस तरह होता है ? अथवा, समूह संरचना के मुख्य घटकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तो उसे समूह कहते हैं। रन्तु, सामाजिक समूह के लिए दो आवश्यक शर्ते हैं। दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्रित होना तथा उनके बीच कार्यात्मक संबंध का होना । यदि दो व्यक्ति बाजार में साथ-साथ टहल रहे हो तो उसे समूह नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि, दोनों के बीच कार्यात्मक सम्बन्ध नहीं है। परन्तु, दोनों के बीच कार्यात्मक संगठन हो जाए तो उसे समूह की संज्ञा देंगे। लिण्डग्रेन (Lindgren) ने इसी अर्थ में समूह को परिभाषित करते हुए कहा है, “दो या दो से अधिक व्यक्तियों के किसी कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर समूह का निर्माण होता है।” । समूह का निर्माण (Formation of Group)-समूह संरचना के मुख्य घटक निम्नलिखित है

(i) भूमिकाएँ (Roles)-सामाजिक रूप से परिभाषित अपेक्षाएँ होती हैं जिन्हें दी हुई स्थितियों में पूर्ण करने की अपेक्षा व्यक्तियों से की जाती है। भूमिकाएँ वैसे विशिष्ट व्यवहार को इंगित करती हैं जो व्यक्ति को एक दिये गये सामाजिक संदर्भ में चित्रित करती हैं। किसी विशिष्ट भूमिका में किसी व्यक्ति से अपेक्षित व्यवहार इन भूमिका प्रत्याशाओं में निहित होता है। एक पुत्री या पुत्री के रूप में आप से अपेक्षा या आशा की जाती है कि आप बड़ों का आदर करें, उनकी बातों को सुनें और अपने अध्ययन के प्रति जिम्मेदार रहें।

(ii) प्रतिमान या मानक (Norms) -समूह के सदस्यों द्वारा स्थापित, समर्थित एवं प्रवर्तित व्यवहार एवं विश्वास के अपेक्षित मानदंड होते हैं। इन्हें समूह के ‘अकथनीय नियम’ के रूप में माना जा सकता है। परिवार के भी मानक होते हैं जो परिवार के सदस्यों के व्यवहार का मार्गदर्शन करते हैं। इस मानकों का सांसारिक दृष्टिकोण के रूप में समझने या सहप्रतिनिधित्व के रूप में देखा जा सकता है।

(i) हैसियत या प्रतिष्ठा (Status)-समूह के सदस्यों को अन्य सदस्यों द्वारा दी जाने वाली सापेक्ष स्थिति को बताती है। यह सापेक्ष स्थिति या प्रतिष्ठा या तो प्रदत्त या आरोपित (संभव है कि यह एक व्यक्ति की वरिष्ठता के कारण दिया जा सकता है) या फिर साधित या उपार्जित (व्यक्ति ने विशेषज्ञता या कठिन परिश्रम के कारण हैसियत या प्रतिष्ठा को अर्जित किया है) होती है। समूह के सदस्यता होने से हम इस समूह से जुड़ी हुई प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त करते हैं।

इसलिए हम सभी ऐसे समूहों के सदस्य बनना चाहते हैं जो प्रतिष्ठा में उच्च स्थान रखते हों अथवा दूसरों द्वारा अनुकूल दृष्टि से देखे जाते हों। यहाँ तक कि किसी समूह के अंदर भी विभिन्न सदस्य भिन्न-भिन्न सम्मान एवं प्रतिष्ठा रखते हैं। उदाहरण के लिए, एक क्रिकेट टीम का कप्तान अन्य सदस्यों की अपेक्षा उच्च हैसियत या प्रतिष्ठा रखता है, जबकि सभी सदस्य टीम की सफलता के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।

(iv) संसक्तता (cohesiveness)-समूह सदस्यों के बीच एकता, बद्धता एवं परस्पर आकर्षण को इंगित करती है। जैसे-जैसे समूह अधिक संसक्त होता है, समूह के सदस्य एक सामाजिक इकाई के रूप में विचार, अनुभव एवं कार्य करना प्रारंभ करते हैं और पृथक्कृत व्यक्तियों के समान कम। उच्च संसक्त समूह के सदस्यों में निम्न संसक्त सदस्यों की तुलना में समूह में बने रहने की तीव्र इच्छा होती है। संसक्तता दल-निष्ठा अथवा ‘वयं भावना’ अथवा समूह के प्रति आत्मीयता की भावना को प्रदर्शित करती है। एक संसक्त समूह को छोड़ना अथवा एक उच्च संसक्त समूह की सदस्यता प्राप्त करना कठिन होता है।

प्रश्न 13.
समूह संघर्ष क्या है ? समूह संघर्ष के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
समूह संघर्ष के अन्तर्गत एक व्यक्ति या समूह या प्रत्यक्षण करते हैं कि अन्य व्यक्ति उनके विरोधी हितों को रखते हैं तथा दोनों पक्ष एक दूसरे का खण्डन करने का प्रयत्न करते रहते हैं। समूह संघर्ष लोग समूह मानकों का अनुसरण करते हैं जबकि ऐसा न करने पर वे एकमात्र दण्ड का सामना कर सकते हैं वह है समूह की अप्रसन्नता या समूह संघर्ष से भिन्न देखा जाना। लोग अनुरूपता को क्यों दर्शाते हैं जबतक वे यह भी जानते हैं कि मानक स्वयं में वांछनीय नहीं है।

अनुरूपता के घटक (Component of Confirmity)-
(i) समूह का आकार (Size of group)-जब समूह बड़े से तुलनात्मक छोटा होता है। अनुरूपता तब अधिक पाई जाती है। ऐसा क्यों होता है ? छोटे समूह में विसामान्य सदस्य (वह जो अनुरूपता को दर्शाता नहीं है) को पहचानना सरल होता है। किन्तु एक बड़े समूह में यदि ज्यादातर सदस्यों के मध्य प्रबल सहमति होती है तो यह बहुसंख्यक समूह को सशक्त बनाता है तथा इसलिए मानक भी मजबूत होते हैं। ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक सदस्यों के अनुरूप प्रदर्शन की संभावना अधिक होती है क्योंकि समूह का दबाव प्रबल होगा।

(ii) अल्पसंख्यक समूह का आकार (Size of minor group)-मान लीजिए कि रेखाओं के विषय में निर्णय के कुछ प्रयत्नों के पश्चात् प्रयोज्य यह देखता है कि एक दूसरा सहभागी प्रयोज्य की अनुक्रिया से सहमति का प्रदर्शन करना आरम्भ कर देता है। क्या अब प्रयोज्य के अनुरूपता प्रदर्शन की संभावना अधिक है या ऐसा करने की संभावना कम है ? जब अल्पसंख्यकों में वृद्धि होती है तो अनुरूपता की संभावना कम होती है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि वास्तव में यह समूह में भिन्न मतधारियों या अनुपथियों की संख्या में वृद्धि कर सकता है। इसे ऐश के प्रयोग द्वारा समझाया गया है।

(iii) कार्य की प्रकृति (Nature of work)-ऐश के प्रयोग में प्रयुक्त कार्य में इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा की जाती है जिसका सत्यापन किया जा सकता है वह गलत भी हो सकता है तथा सही भी हो सकता है। माना कि प्रायोगिक कार्य में किसी विषय के बारे में विचार प्रकट करना है। इस स्थिति में कोई उत्तर सही या गलत नहीं होता है। किस स्थिति में अनुरूपता के पाये जाने की संभावना प्रबल है, प्रथम स्थिति जिसमें गलत अथवा सही उत्तर की तरह कोई चीज हो या दूसरी स्थिति जिसमें बिना किसी सही या गलत उत्तर के व्यापक रूप से उत्तर में परिवर्तन किया जा सके ? हो सकता है कि आपका अनुमान सही हो, दूसरी स्थिति में अनुरूपता के पाए जाने की संभावना कम है।

प्रश्न 14.
प्राकृतिक महाविपदा के प्रभावों का वर्णन करें। उनके विध्वंसकारी प्रभावों को कम करने के तरीकों का वर्णन करें।
उत्तर:
मानव भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी पर्यावरण पर अपना प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, जिस घर में हम रहते हैं उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जाता है जिससे कि उस घर में मानव शरण ले सकें। मनुष्यों द्वारा कुछ कार्य पर्यावरण को नुकसान भी पहुँचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्यों ने अपनी सुविधा के लिए कुछ उपकरणों का आविष्कार किया है जैसे-रेफ्रिजरेटर तथा वातानुकूलन यंत्र।

किन्तु ये उपकरण एक प्रकार की रासायनिक गैस छोड़ते हैं जो वायु को प्रदूषित करती है जिस कारण मानव अन्य रोगों से ग्रसित हो सकते हैं। धूम्रपान के द्वारा एक विशेष व्यक्ति तो रोग से ग्रसित होता ही है साथ-साथ धूम्रपान के द्वारा आस-पास की वायु भी प्रदूषित होती है। प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है। वृक्षों के काटने से जल चक्र में व्यावधान उत्पन्न हो सकता है।

अनेक उदाहरणों का यह संदेश है कि मनुष्य ने उन्हें प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर दर्शाने के लिए ही जनित किया है। मानव जीवन अपनी सुविधाओं के लिए टेक्नोलॉजी का उपयोग कर प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित कर रहा है जबकि वास्तविकता तो यह है कि वे संभवतः जीवन की गुणवत्ता को और खराब बना रहे हैं।

शोर (Noise), प्रदूषण (Pollution), भीड़ (Crowding) तथा प्राकृतिक विपदाएँ (Natural disasters) ये सब पर्यावरणीय दबाव-कारकों के उदाहरण हैं। अपितु, इन विभिन्न दबाव-कारकों के प्रति मानव की प्रतिक्रियाएँ भिन्न हो सकती हैं।

प्रश्न 15.
मनोदशा मनोविकृति से आप क्या समझते हैं ? मनोदशा मनोविकृति के प्रकारों के मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोदशा मनोविकृति- इस विकार में व्यक्ति का संवेगात्मक अवस्था में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। व्यक्ति में सबसे ज्यादा भावदशा विकार होता है। इसमें व्यक्ति के अंदर नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कभी-कभी व्यक्ति पर अवसाद (Depression) इस कदर हावी हो जाता है कि वह मृत्यु तक करने की सोच लेता है। यह एक प्रकार का विकार है जिसका सीधा प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है।
सामान्य तौर पर व्यक्ति इस अवसाद से तब ही ग्रस्त होता है जब उसके दिल पर कोई गहरी चोट लगी हो।

मुख्य भावदशा विकार में तीन प्रकार के विकार होते हैं-
(i) अवसादी विकार (Depressive disorder)-इस प्रकार के रोगियों में उदास होने, चिन्ता में डूबे रहने, शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं की कमी, अकर्मण्यता, अपराधी प्रवृत्ति आदि के लक्षण पाये जाते हैं।

(ii) उन्मादी विकार (Mania disorder)-उन्मादी विकार में रोगी हर समय खुश दिखाई देता है। वह हर समय संतुष्ट तथा चुस्त दिखाई पड़ता है। वह प्रायः नाचना, गाना, दौड़ना, बातचीत करना, बड़बड़ाना, चिल्लाना आदि हरकतें करना ज्यादा पसंद करता है।

(iii) द्विध्रुवीय भावात्मक विकार (Bipolor Affective Disorder)-मनोदशा विकारों को इस मनोव्याधिकीय श्रेणी में रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें उत्साह और अवसाद दोनों के आक्षेप हों। एक बार उत्साह के आक्षेप के साथ-साथ अवसादी आक्षेप होता है। कुछ रोगियों में उत्साही (उन्मादी) आक्षेप एकदम से प्रकट हो जाते हैं तथा दो सप्ताह से छः माह तक रहते हैं। इसके मध्य भी व्यक्ति पूर्ण रूप से ठीक रहता है। अवसाद आक्षेप या तो इसके तुरंत बाद ही हो जाते हैं या कभी-कभी हो सकते हैं। अवसादी आक्षेपों में रोग के लक्षणों की गंभीरता कम या ज्यादा होती रहती है।

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