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 Bihar Board 12th Sanskrit अनुवाद Important Questions

Bihar Board 12th Sanskrit अनुवाद Important Questions

प्रश्न 1.
अस्ति कस्मिंश्चित् तपोवने शालङ्कायनो नाम तपोधनः। स जाह्नव्यां स्नानार्थ गतः। तस्य च सूर्योपास्थानं कुर्वतस्तत्र प्रदेशे मूषिका काचित्खरतरनखानपुटेन श्येनेन गृहीता। तां दृष्ट्वा स मुनिः करुणार्द्रहृदयो मुञ्च मुञ्चेति कुर्वाण: पाषाणखण्डं प्राक्षिपत्। श्येनोऽपि पाषाणखण्डप्रहारव्याकुलेन्द्रियो भ्रष्टमूषिको भूमौ निपपात। मूषिकापि भयत्रस्ता कर्त्तव्यमनानती रक्षा रक्षेति जल्पन्ती मुनिचरणान्तिकमुपाविशत् श्येनेनापि चेतना लब्ध्वा मुनिरुक्तः-भो मुने, न युक्तमनुतिष्ठतं भवता यदहं पाषाणेन ताडितः। किं त्वधर्मात्र बिभेषि। तत्समर्पय ममैनां मूषिकाम्। नो चेत्प्रभूतं पातकमवाप्स्यसि इति ब्रुवाणं श्येनं प्रोवाच सः। भो विहंगाधम रक्षणीयाः प्राणिनां प्राणाः, दण्डनीयाः दुष्टाः, संमाननीयाः साधवः, पूजनीयाः गुरवः, स्तुत्याः देवाः। तत्किमसंबद्धं प्रजल्पसि।श्येन आह-मुने, न त्वं सूक्ष्मधर्मं वेत्सि। इह हि सर्वेषां प्राणिनां विधिना सृष्टि कुर्वताहारोऽपि विनिर्मितः।
उत्तर:
अनुवाद किसी तपोवन में शालकायन नाम का तपस्वी था। वह स्नान करने गंगा नदी में . गया। जब वह सूर्य की पूजा कर रहा था कि वहाँ बाज के द्वारा कठोर नख के अग्र भाग से एक चुहिया पकड़ लिया गया। उसे देखकर करुणार्द्र हृदय मुनि ने छोड़ो-छोड़ो कहते हुए पत्थर का टुकड़ा फेंका। बाज भी पत्थर के टुकड़े की चोट से व्याकुल होकर चूहिया को पृथ्वी पर गिरा दिया। चूहिया भी भय से त्रस्त अपने कर्त्तव्य को न जानती हुई बचाओ, बचाओ बोलती हुई मुनि के समीप बैठ गई। बाज भी स्वस्थ होकर मुनि से बोला-हे मुनि ! आपने मुझे पत्थर मारकर अच्छा नहीं किया है। क्या आप पाप से नहीं डरते हैं।

इस चुहिया को मुझे दे दें। नहीं तो बहुत पाप लगेगा। ऐसा बोलने पर उसने (मुनि ने) कहा-रे नीच पक्षी ! प्राणियों को प्राण की रक्षा करनी चाहिए। दुष्टों को दण्ड देना, सज्जनों का आदर सम्मान करना, गुरुओं की पूजा करना और देवताओं की स्तुति करना चाहिए। तुम क्या अनर्गल बोल रहे हो। बाज बोला-आप सूक्ष्म धर्म को नहीं जानते हैं। यहाँ ही सभी प्राणियों की रचना करते समय ब्रह्मा ने सभी के भोजन भी निश्चित किए।

प्रश्न 2.
मुनिर्विहस्य आह-वृक्षा प्रलापितेन, गच्छ त्वम्। नो चेच्छापयिष्यामि। अथ गते श्येने मूषिकया स मुनिरभिहितः। भगवन् नय मां स्वाश्रयम्। नो चेदन्यो दुष्टपक्षी कश्चिन्मां व्यापादयिष्यति। तदहं तवैवाश्रये त्वद्दत्ताहारमुष्ट्या कालं नेष्यामि। सोऽपि दाक्षिण्यवान्सकरुणो व्यचिन्तयत् कथं मया मूषिका हस्ते धृता नेया जनहारस्यकारिणी। तदेनां कुमारिकां कृत्वा नयामि। एवं सा कन्यका कृता।
उत्तर:
अनुवाद-मुनि हँसकर बोला-बेकार प्रलाप कर रहे हो, जाओ तुम। नहीं तो शाप दै दूंगा। इसके पश्चात् बाज के चले जाने पर चूहिया ने मुनि से कहा-भगवन् मुझे अपने आश्रय में ले चलें नहीं तो कोई दूसरा दुष्ट पक्षी मुझे मार देगा। अतः मैं आपके ही आश्रय में आपके द्वारा दिया गया मुट्ठी भर भोजन से समय व्यतीत करूँगी। उसने भी दयावश करुणायुक्त होकर सोचने लगे कि चूहिया को हाथ में लेकर जाना हास्यास्पद होगा। अतः इसे कुमारी कन्या बनाकर ले चलता हूँ। इस तरह वह कन्या बन गई।

प्रश्न 3.
सर्वेषां प्राणिनामाधाररूपा या पृथ्वी दृश्यते तां परितो व्याप्यावस्थितं यत्पदार्थजातं सर्वमेव तत्पर्यावरणमिति साम्प्रतमुच्यते। प्राचीन काले सर्वास्वेव विश्वसभ्यतासु भूमिरापो वायुरग्निराकाशमिति पञ्च भूतानि पूज्यन्ते स्मा एतान्येव सकलप्राणिप्राणनसाधन-स्वरूपाणीति प्राक्तनाः पुरुषा विश्वसन्ति। किन्तु तदानीन्तना जनाः प्रकृति-प्रकोपभाजनभूता अप्यभूवन्। क्रमेण सुखं जीवनसौविध्यानि चान्विष्यन्तस्ते वैज्ञानिक विकासमकार्षः।
उत्तर:
अनुवाद-सभी प्राणियों के आधाररूपा जो पृथ्वी दृश्यमान है उसको चारों ओर से घेरकर स्थित जो पदार्थ हैं उसे सम्प्रति पर्यावरण कहा जाता है। प्राचीनकाल में सभी विश्व सभ्यताओं में भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश को पंचभूत मानकर पूजे जाते थे। उन्हें सभी प्राणियों के जीवन साधन के रूप में पुराने लोग मानते थे। लेकिन उस समय के लोग प्राकृतिक प्रकोपों के भुक्तभोगी. भी होते थे। धीरे-धीरे वैज्ञानिकों ने सुखमय जीवन के सौविध्य का विकास किया।

प्रश्न 4.
वैज्ञानिकस्य विकासस्य गतिं प्रकृतिर्बहुकालंसहमाना मानवस्य सहायतामेव वाञ्छितवती। तावत्कालं सर्वं पर्यावरणं शोभनं रम्यं प्राणिनां वनस्पतीनां च हितकारकमेवाभवत्। किन्तु ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ इति न्यायेन स्वार्थ समीहमानेन मानवसमूहेन वृक्षा वनस्पतियो भूयोभूयो मर्दिताः सन्तोऽद्य मानवहिताद् विरताः। ते हि वायुशोधनकर्मणि स्वयं प्रवृत्ताः, आकाशादागतं वृष्टिवेगं दधाना भूक्षरणं च वारितवन्तः। किन्तु सम्प्रति स्वयमसमर्था वनस्पतयः शनैः शनैर्विनाशपथं प्रवर्तन्ते। तत्फलं च सर्वतः पर्यावरणस्य प्रदूषणम्।
उत्तर:
अनुवाद-वैज्ञानिक विकास की गति को प्रकृति बहुत समय तक सहन करती हुई मनुष्य की सहायता ही चाहती रही। तबतक सम्पूर्ण पर्यावरण शोभायुक्त रमणीय और प्राणियों के हितकारक : रही। किन्तु अति सर्वत्र वर्जयेत इस न्याय से स्थायी मानव समुदाय ने वृक्ष और वनस्पति को पुनः पुनः नष्ट किया जो आज मानव हित के विपरीत है। वे ही हवा शुद्ध करने में स्वयं लगे थे, आकाश से बरसने वाले वर्षा के वेग को अपने ऊपर धारणकर भूक्षरण को रोकते हैं। किन्तु आज स्वयं में ‘ असमर्थ वनस्पति विनाश के मार्ग पर जा रहे हैं। इसका फल है कि पर्यावरण सर्वत्र दूषित हो गया है।

प्रश्न 5.
युवकैरपि कार्येऽस्मिन्नवकाशसमये प्रयतनीयम्। धार्मिकस्थानानां यथा निर्मलीकरणं वाञ्छितं तथैव नदीतीरस्य, सरोवरस्य, शिक्षणपरिसरस्य,मार्गस्य परिमार्जनं क्रियते चेदल्पारम्भः क्षेमकरः स्यात्।मार्गमुभयतो वृक्षारोपणं ससमारोहं वर्षाकालारम्भे विधेयम्। एतेन जीवन-साधनं संरक्षितं भवेत्।
उत्तर:
अनुवाद-इस कार्य में युवाओं को भी अवकाश के समय में प्रयास करना चाहिए। जिस तरह धार्मिक स्थानों की स्वच्छता वाञ्च्छनीय है उसी तरह नदियों के तटों का, तालाबों का, शिक्षण संस्थानों का और’सडकों को साफ करना चाहिए क्योंकि थोडा भर प्रयास कल्याणकारी होता है। सड़कों के दोनों ओर वर्षाकाल के आरंभ में समारोहपूर्वक वृक्षारोपण करना चाहिए। इससे जीवन संरक्षित होगा।

प्रश्न 6.
ततः परस्मिन्दिवसे वामदेवान्तेवासी तदाश्रमवासी समाराधितदेवकीर्ति निर्भर्सितमारमूर्ति कुसुमसुकुमारं कुमारमेकवगम्य्य नरपतिमवादीत्-देव ! तीर्थयात्राभिलाषेण कावेरीतीरमागतोऽहं तत्र विलोलालकं बालकं निजोत्सङ्गतले निधाय रुदती स्थविरामेकां विलोक्यावोचम्-स्थाविरे ! का त्वम्, अयमर्भकः कस्य नयनानन्दकरः, कान्तारं किमर्थमागता, शोककारणं किम् इति।
उत्तर:
अनुवाद – इसके बाद दूसरे दिन उस समय आश्रम में रहने वाले वामदेव के शिष्य देवार्चन के बाद जो कामदेव से भी अधिक सुन्दर फूलों के समान सुकुमार कुमार राजा के समीप जाकर बोला-देव ! तीर्थयात्रा की अभिलाषा से कावेरी के तट पर मैं गया। वहाँ हिलते हुए केश वाले एक बालक को अपनी गोद में रखकर रोती हुई एक वृद्धा स्त्री को देखकर मैंने कहा-वृद्धे तुम कौन हो ? यह बालक किसकी आँखों में आनन्द देने वाला हैं, किस प्रयोजनवश जंगल में आयी हो, तुम्हारे दुःख का कारण क्या है, आदि।

प्रश्न 7.
सा करयुगेन वाष्पजलमुन्मृज्य निजशोकशङ्कृत्पाटनक्षममिव मामवलोक्य शोकहेतुमवोचत्-द्विजात्मज ! राजहंसमन्त्रिणः सितवर्मणः कनीयानात्मजः सत्यवर्मा। तीर्थयात्राभिलाषेण देशमेनमागच्छत्। स कस्मिश्चिदग्रहारे काली नाम कस्यचिद् भूसुरस्य नन्दिनीं विवाह तस्या अनपत्यतया गौरी नाम तद्भगिनीं काञ्चनकान्तिं परिणीय तस्यामेकं तनयमलभताकाली सासूयमेकदा धात्र्या मया सह बालमेनमेकेन मिषेणानीय तटिन्यामेतस्यामाक्षिपत्। करेणैकेन बालमुद्धृत्यापरेण प्लवमाना नदीवेगागतस्य कस्यचित्तरोः शाखामवलम्ब्य तत्र शिशुं निधाय नदीवेगेनोह्यमाना केनचित्तरुलग्नेन कालभोगिनाहमदंशिामदवलम्बीभूतो भूरुहोऽयमस्मिन्देशे तीरमगमत्। गरलस्योद्दीपनतया मयि मृतायामरण्ये कश्चन शरण्यो नास्तीति मया शोच्यते इति।
उत्तर:
अनुवाद – उसने अपने दोनों हाथों से आँसू पोंछकर शोक रूपी काँटे को उखाड़ती हुई मुझे देखकर शोक का कारण कहा-हे ब्राह्मण पुत्र ! राजहंस के मंत्री सितवर्मा का छोटा पुत्र सत्यवर्मा है। वह तीर्थयात्रा की अभिलाषा से इस प्रदेश में आया और राजा के दिए गाँव में काली नामक : । किसी ब्राह्मण की पुत्री से विवाह किया, उसके संतानहीन रहने पर उसकी बहन गौरी जो सोने की कौति की तरह थी, से विवाहकर उसमें एक पुत्र प्राप्त किया। ईर्ष्यावश एक बार काली मुझ धायी हैं के साथ इस बालक को नदी में फेंक दिया। एक हाथ से इस बालक को उठाकर दूसरे हाथ से तैरती हुई नदी की धारा के वेग से आए हुए किसी पेड़ की डाली को पकड़कर, वहाँ बालक को रखकर नदी के वेग से ले जायी जाती हुई मुझे किसी काला नाग ने डंस लिया। जिस पेड़ पर मैं . था वह इस क्षेत्र में नदी के किनारे आ गया। विष की तीव्रता से मेरे मर जाने पर इसका कोई आश्रय,इस जंगल में नहीं होगा, मैंने सोचा।

प्रश्न 8.
ततो विषमविषज्वालावलीढावयवा सा धरणीतले न्यपतत्। दयाविष्टहृदयोऽहं मन्त्रबलेन विषव्यथामपनेतुमक्षमः समीपकुञ्जेष्वोषधिविशेषमन्विष्य प्रत्यागते व्युत्क्रान्तजीवितांतांव्यलोकयम्।

तदनु तस्याः पावकसंस्कारं विरच्य शोकाकुलचेता बालमेनमगतिमादाय सत्यवर्मावृत्तान्तश्रवणवेलायां यन्निवासाग्रहारनामधेयस्याश्रुततया तदन्वेषणमशक्यमित्यालोच्य भवदमात्यतनयस्य भवानेवाभिरक्षितेति भवन्तमेनमनयम्।

तन्निशम्य सत्यवर्मस्थितेः सम्यगनिश्चिततया खिन्नमानसो नरपतिः सुमतये मन्त्रिणे सोमदत्तं नाम तदनुजतनयमर्पितवान्। सोऽपि सोदरमागतमिव मन्यमानो विशेषणे पुपोष।
उत्तर:
अनुवाद – विष के दाह से प्रभावित अंगों वाली वह पृथ्वी पर गिर गई। दया युक्त हृदयवाली में मन्त्र के द्वारा विष के कष्ट को दूर करने में अक्षम होकर समीप की झाड़ी में औषधि विशेष को खोजकर आने पर उसे मरी हुई देखी।

तब उसका अग्नि संस्कार करके शोकाकुल मन से इस बालक को शीघ्रतापूर्वक लाकर सत्यवर्मा की कथा सुनने के समय-राजा के दिए हुए गाँव की खोज में अक्षम होकर सोची कि आप तो मंत्री के पुत्र की रक्षा करेंगे, आपके समीप लाई हूँ।

इसे सुनकर सत्यवर्मा खिन्न मन से भली प्रकार सोचकर अपने बुद्धिमान मंत्री सोमदत्त को उसके छोटे भाई के पुत्र को दे दिया। वह भी सोदर का पुत्र मानकर सम्यक् प्रकार से उसका पालन पोषण किया।

प्रश्न 9.
भारतस्य वर्षस्य कण्ठहाररूपं बिहारराज्यं पर्वतराजाद हिमवतो दक्षिणदिशायां देवनदीमुभयतः स्थितं नैसर्गिकीभिः सम्पद्भिरलङ्कृतम्। गङ्गां वामतो दक्षिणश्चानेकाः सदानीरा नद्यो सर्वदा पूरयन्ति। एतस्य राज्यस्य प्रतिष्ठिता मेधाविनो लेखकाः कवयश्च सुरसरस्वती-सेवायां समर्पितवयसोऽभूवन्। जीवनस्य चतुषु पुरुषार्थेषु धर्मार्थ-काममोक्षाख्येषु स्वरचनाभिर्बिहारवासिनः प्राचीना लेखका महतीं ख्यातिमवाप्नुवन्। धर्मशास्त्रे याज्ञवल्क्यस्मृतिः, अर्थशास्त्रे कौटिल्येन रचितमर्थशास्त्रम्, कामशास्त्रे पाटलिपुत्र एवावस्थितेन वात्स्यानेन रचितं कामशास्त्रम्, मोक्षशास्त्रे च गौतमस्य न्यायदर्शनं याज्ञवल्क्यस्य च बृहदारण्यकोपनिषदि वर्तमानं ब्रह्मतत्त्वचिन्तनं सर्वत्र चिन्तनकौशलं प्रकटयति।
उत्तर:
अनुवाद – भारत देश के कंठहारस्वरूप बिहार राज्य पर्वतराज हिमालय के दक्षिण दिशा में गंगा नदी के दोनों ओर प्राकृतिक आपदा से अलंकृत है। गंगा के बाएँ तरफ दक्षिण में अनेक सदा जल से पूर्ण रहनेवाली नदियाँ हैं। इस राज्य की प्रतिष्ठित मेधावी लेखक और कवि देवी सरस्वती की सेवा में समर्पित थे। बिहार के प्राचीन लेखकों ने जीवन के चार पुरुषार्थों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में अपनी रचना से मंहती ख्याति प्राप्त की है। धर्मशास्त्र में याज्ञवल्क्य स्मृति, अर्थशास्त्र में कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र, कामशास्त्र में पाटलिपत्र में ही रहने वाले वात्स्यायन रचित कामशास्त्र, मोक्षशास्त्र में गौतम का न्यायदर्शन और याज्ञवल्क्य के वृहदारण्यकोपनिषद् में वर्तमान ब्रह्मतत्त्वविवेचन सर्वत्र चिन्तन कौशल को प्रकट करता है।

प्रश्न 10.
दक्षिणबिहारे राजसम्पोषितं नालन्दाविद्यापीठंबहकालं मुख्यतो बौद्धधर्म दर्शनाध्ययन केन्द्र बभव यत्राचार्याः नानाशास्त्रेषु कशला महायानसंस्कृतग्रन्थान चितवन्तः। शोणनदस्योपतीरं स्थितस्य प्रीतिकूटग्रामस्याभिजनो बाणभट्टः महान् गद्यकारो बभूव। तस्य हर्षचरितं कादम्बरी चेति गद्यकाव्यद्वयं संस्कृतगद्यरचनायाः कीर्ति-स्तम्भ-रूपेण राजते।
उत्तर:
अनुवाद-दक्षिण बिहार में राजा द्वारा सम्पोषित नालंदा विद्यापीठ बहुत समय तक मुख्यत: बौद्ध दर्शन के अध्ययन का केन्द्र रहा है जहाँ अनेक शास्त्रों के निपुण विद्वानों ने महायान संस्कृत ग्रंथों की रचना की। सोन नदी के किनारे स्थित प्रीतकूट ग्राम के निवासी बाणभट्ट महान् गद्यकार हुए। उनकी हर्षचरित और कादम्बरी दो गद्यकाव्य संस्कृत गद्य रचना की कीर्ति स्तंभ के रूप में सुशोभित हैं।

प्रश्न 11.
आधुनिकेऽपि काले मैथिलसंस्कृतपण्डिताः संस्कृतपरम्परांसाधु वहन्तिा दरभङ्गानरेश सम्पोषणात्यायशश्चतुश्शतवर्षेभ्यः संस्कृत-भाषायां न्याय-व्याकरण-साहित्य-तन्त्र-ज्योतिषधर्मशास्त्रादिषु परःसहस्रा ग्रन्था रचिता येषामुल्लेखोऽप्यत्रासम्भवः। एकोनविंशतितमे शतके पण्डिताम्बिकादत्तव्यासः काशीतो जीविकार्थं विहारमागतः।तेन संस्कृतभाषायाः प्रथम उपन्यासः शिवराजविजयाख्यो रचितः। तदनु पटना कालेजस्य संस्कृताध्यापको रामावतारशर्मा बहून संस्कृत-प्रबन्धनाटकादीन् अरचयत्। तद्रचना मिथिलासंस्कृतविद्यापीठात् प्रकाशिताः। तदनु साम्प्रतिकेषु लेखकेषु कविषु च रामकरणशर्मा-काशीनाथमिश्र-जगन्नाथपाठकादयः प्रतिष्ठताः
सन्ति।
उत्तर:
अनुवाद – वर्तमान काल में भी संस्कृत के विद्वान मैथिल संस्कृत की परम्परा को अच्छी तरह संरक्षित किए हुए हैं। दरभंगा नरेश द्वारा सम्पोषित प्रायः चार सौ वर्षों तक संस्कृत भाषा में न्याय-व्याकरण-साहित्य-तंत्र, ज्योतिष-धर्मशास्त्र आदि पर हजारों ग्रंथ लिखे गए जिनका नामोल्लेख करना यहाँ संभव नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी में पंडित अम्बिकादत्त व्यास काशी से जीविकार्थ बिहार आए। उसने संस्कृतभाषा में प्रथम उपन्यास शिवराजविजय की रचना की। पश्चात् पटना कॉलेज के संस्कृत के अध्यापक रामावतार शर्मा अनेक संस्कृत-प्रबंध, नाटक आदि की रचना की। उनकी रचना मिथिला संस्कृत विद्यापीठ से प्रकाशित हुई। पश्चात् आधुनिक, लेखकों, कवियों में रामकरण शर्मा, काशीनाथ मिश्र, जगन्नाथ पाठक आदि प्रतिष्ठित हैं।

प्रश्न 12.
1893 ई० वर्षस्य एकादश सितम्बर तिथौ सोमवारे सम्मेलनस्य प्रथम सत्रं प्रारभत। मध्ये कार्डिनल गिबन्स उपविष्टः। तस्य पार्वे प्राच्यप्रतिनिधयः ब्रह्मसमाजप्रमुखः प्रतापचन्द्रः, ईश्वरवादी नागरकरः, श्रीलङ्कायाः बौद्धप्रतिनिधयः धर्मपालः, जैन गान्धी महोदयः, थियोसोफिकलसमाजसदस्यः इत्येते स्थिताः। तन्मध्ये कश्चिद् युवकः उपविष्टः। स च सर्वेषां स्वीकयोऽपि न कस्यापि सम्प्रदायविशेषस्यासीत्। परःसहस्रान् दर्शकानसावाकृष्टवान्। तस्य मनोहरंमुखमण्डलं कुलीनमाचरणं भव्यवेशश्च रहस्यमयाद्जगतः अवतीर्णस्य दिव्यव्यक्तित्वमयस्य प्रभावं सुतरामवर्धयन्। सर्वे प्रतिनिधयः परिचयपुरःसरं स्वधर्मस्य समासेन वैशिष्ट्यं वर्णितवन्तः।
उत्तर:
अनुवाद – 11 सितम्बर, 1893 ई०, सोमवार के दिन सम्मेलन का प्रथम सत्र प्रारंभ हुआ। बीच में कार्डिनल गिबन्स बैठे हुए थे। उनके समीप पश्चिमी देश के प्रतिनिधि, ब्रह्म समाज के प्रमुख प्रतापचन्द्र, ईश्वरवादी नागरकर, श्रीलंका के बौद्ध प्रतिनिधि धर्मपाल, जैन गाँधी महाभाग, थियोसोफिकल समाज के सदस्य बैठे थे। उनके बीच में कोई युवक बैठा हुआ था। वह सबों का था किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं। उसने हजारों से अधिक दर्शकों को आकृष्ट किया। उनका सुन्दर मुखमंडल, कुलीन आचरण और भव्य वेशभूषा रहस्यपूर्ण संसार में अवतीर्ण दिव्य व्यक्तित्व का प्रभाव अच्छी तरह लोगों को प्रभावित किया। सभी प्रतिनिधियों ने अपना परिचय देते हुए संक्षेप में अपने धर्म की विशेषता का व्याख्यान किया।

प्रश्न 13.
अन्ये सर्वेऽपि वक्तारः ईश्वरं चर्चितवन्तः तं च सार्वभौमसत्ताबद्धं कृतवन्तः। इतः पूर्वं कस्यापि प्रतिनिधेः भाषणम् उदारतामयं नासीत्। दिवसान्तरेषु सोऽयं युवको विवेकानन्दः दशाधिकवारमभाषत। तस्य भाषणेषु सर्वेषां धर्माणां न केवलं सारं प्रत्युत विज्ञानस्य सर्जनमुखीनाम् उपलब्धीनामपि विवरणमासीत् यत्र सम्पूर्णस्य मानवस्वरूपस्य आत्मनः आशादीपो बभूव।
उत्तर:
अनुवाद अन्य सभी वक्ताओं ने ईश्वर की चर्चा की लेकिन उसने सर्वव्यापी ईश्वर की चर्चा की। इसके पहले किसी का भी भाषण उदारपूर्ण नहीं था। युवक विवेकानन्द ने दस बार से अधिक भाषण दिया। उनके भाषण में सभी धर्मों का न केवल सार तत्व निहित था अपितु विज्ञान का सर्वजनमुखी विवरण भी था जहाँ सम्पूर्ण मानव स्वरूप का आत्मा का आशादीप हुआ।

प्रश्न 14.
विवेकानन्दस्य समन्वयमयस्य व्याख्यानस्य प्रभावः अमेरिकादेशे सर्वत्रान्वभूयत। “मानवे अन्तर्निहिता दिव्यता तस्य विकासस्यानुपमक्षमता एव एकाकी सिद्धान्तः। एतादृशो मानवधर्मश्चेत् सर्वाणि राष्ट्राणि तदनुसरणं करिष्यन्ति। प्राचीन काले उदारधर्मस्य यः कोऽपि प्रयासो जातः स आंशिकः एव। यथा अशोकस्य बौद्धधर्ममूला परिषद्, अकबरस्य दीन-एइलाही इति मतं सोद्देश्यमपि कुलीनमात्राश्रितम्। इदं सौभाग्यम् अमेरिकादेशस्यैव यत् सर्वधर्मेषु ईश्वरैक्यस्य संदेशं संसारे प्रेषयतु।”
उत्तर:
अनुवाद – विवेकानन्द के समन्वयात्मक व्याख्यान का प्रभाव अमेरिका देश में सर्वत्र अनुभव किया गया। मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता उसके विकास की अनुपम क्षमता है यही उनका एकमात्र सिद्धांत था। इस तरह के मानवधर्म का सभी देश अनुसरण करेंगे। प्राचीन काल में उदार धर्म का जो कोई भी प्रयास किया गया, वह आशिक था। जैसे अशोक के बौद्ध धर्माश्रित परिषद्, अकबर का दीन-ए-इलाही ये उद्देश्यपूर्ण होते हुए भी कुलीन आश्रित थे। यह सौभाग्य अमेरिका देश का ही है जो सभी धर्मों में ईश्वर के एकत्व का संदेश संसार को दिया।

प्रश्न 15.
सर्वधर्मसम्मेलनमिदं स्पष्टीकरोति यत् धार्मिकता पवित्रता उदारता चेति नास्ति धर्मविशेषस्याधिकारः। सर्वधर्मपताकासु इदमेव अंकनीयं यत् सहायतां कुरु, मा युध्यस्व व विनाशः प्रत्युत समन्वयः, न विग्रहः प्रत्युत मैत्री शान्तिश्च। एतेषाम् ओजस्वितां शब्दानां सर्वत्र आश्चर्यकरः प्रभावः। अमेरिका-देशस्य समाचारेषु भारतस्य देशस्य महती प्रशंसा कृता। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्दः वैदेशिकानां प्रतिक्रियाभिः युगपुरुषो बभूव।
उत्तर:
अनुवाद – यह सर्वधर्मसम्मेलन यह स्पष्ट करता है कि धार्मिकता और पवित्रता किसी धर्मविशेष का अधिकार नहीं है। धर्मध्वजों में यहाँ लिखा जाना चाहिए कि सहायता करो, युद्ध नहीं करो, विनाश नहीं प्रत्युत समन्वय करो, युद्ध नहीं प्रत्युत मैत्री और शान्ति स्थापित करो। इन ओजस्वी शब्दों का प्रभाव सर्वत्र आश्चर्यजनक रूप से पड़ा। अमेरिका देश के समाचार-पत्रों में भारत देश की अतीव प्रशंसा हुई। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द विदेशियों के प्रतिक्रिया स्वरूप युग पुरुष बन गए।

प्रश्न 16.
अस्ति ह्यस्माकं किमपि बलीयः प्राकृतसौन्दर्य-सन्दर्शनव्यसनमाबाल्यादेव। ततश्चानन्ताविच्छिन्नस्वजन-पोषणावश्यक-बहुविधव्यापार-प्रवाहेभ्यः कथञ्चिद्विरामंलब्वैव कदाचिद्विजनहिमालय-पादमूलं, कदाचिद्वा सर्वथा जनसम्पर्करहितं महारण्यमभिधावामः।
उत्तर:
अनुवाद – बाल्यकाल से ही मुझमें प्रकृति सौन्दर्य देखने की बलवती इच्छा थी। पश्चात् अपने स्वजन की उदरपूर्ति के निमित्त अनेक कर्मों को रोकते हुए कभी हिमालय के वनप्रदेश में तो कभी निर्जन महारण्य में गये।

प्रश्न 17.
अथ सविस्यमं तावददृष्टपूर्वं दृश्यं पश्यतामेवास्कं, सहसा, सर्वविटपिपल्लवान्दोलन -पुरःसरं समुत्थितः पूर्वोक्तरूपो महान् ध्वनिस्तत्क्षणं विलीनश्च। तथाविधाद्भुतव्यापारमवलोक्य समुद्रिक्तविस्मयोपहतविवेक-प्रसराः कर्त्तव्यावधारणविमूढ़ा जीवन्मृता इव, भूताविष्टा इव, निश्चला निर्व्यापाराः शून्यहृदयास्तूष्णीमेवास्मत्सहचरवनेचरणांमुखेषु दृष्टिं व्यापारयन्तः स्थिताः।
उत्तर:
अनुवाद – पश्चात् विस्मयपूर्वक अदृष्टपूर्व दृश्य को देखते हुए हमलोग अकस्मात् सभी वृक्ष पल्लवों को चलायमान करते हुए बड़ी आवाज में विलीन हो गए। इस तरह के आश्चर्यजनक कार्य को देखकर आश्चर्य से विवेकशून्य, कर्तव्य अवधारण में अक्षम जीवित रहने पर भी मृतक के समान निश्चय, व्यापार हित, शून्य हृदय चुपचाप हमलोग अपने सहचर वनवासियों के मुख पर दृष्टि गड़ाए हुए रुक गए।

प्रश्न 18.
ते त्वेतावतैवोन्नीतास्मदभिप्रायाः किञ्चिद्विहस्याब्रुवन् “वृक्षाणां परिषदियमत्राश्वत्थो वक्ताऽपरें श्रोतारः। निरन्तरसहवासाद् वयमेतेषां भाषासु सम्यगभिज्ञा. एव। तद् यदि भवद्भ्यो रोचेत, वयमेतेषां प्रजल्पनमनुवदामः।” ततोऽस्माभिः सानुनयमभ्यर्थितेषु तेष्वन्यतमः प्रवयो वक्तुमारेभे।
उत्तर:
अनवाद – वे लोग हमारी बातों को समझकर कुछ हँसते हुए बोलने लगे-यहाँ वृक्षों की सभा हो रही है। पिपल वक्ता है और अन्य श्रोता। हमेशा इनके साथ रहने के कारण हमलोग इनकी भाषा को अच्छी तरह जानते हैं। यदि आपलोगों को अच्छा लगे तो हमलोग इनकी भाषा को अनुवाद करें। इसके बाद हमलोगों द्वारा अनुनयपूर्वक आग्रह करने पर उनमें जो बड़े थे कहने लगे।

प्रश्न 19.
अश्वत्थो वदति-“भो भो नानादिग्देशसमागताः सुभद्रा वनस्पतयः, परमप्रियतमा लतावध्वश्च, सावहिताः शृण्वन्तु भवन्तः, अद्य मानववार्ता एव अ वास्मत्समालोच्यविषयः। अत्र खल्वस्माभिर्बहु वक्तव्यमस्ति, भवद्भिश्च बहु श्रोतव्यं, मन्तव्यं, ज्ञातव्यं, शिक्षितव्यं, निदिध्यासितव्यञ्चास्ति, तदत्र श्रीमद्भिः श्रीमतीभिश्च दत्तावधानैर्भवितव्यमिति।
उत्तर:
अनवाद – पिपल कहता है-अनेक दिशाओं से आए हुए सुसज्जन वनस्पतियों परम प्रियतमा लताबंधुओं सावधान होकर आपलोग सुनें-आज मनुष्य की बात ही हमलोगों का आलोच्य विषय है। यहाँ हमलोगों को बहुत कुछ कहना है, आपलोगों को बहुत कुछ सुनना है, मनन करना है, जानना है, शिक्षित होना है। तो यहाँ आप श्रीमती/श्रीमान लोग सावधान होकर रहें।

प्रश्न 20.
मानवा नाम सर्वासु सृष्टिधारासु निकृष्टतमा सृष्टिः। समन्तादभिनवोत्तरविलक्षणसृष्टिम् उत्पादयता भगवता जगत्सविसत्रा यादृग् बुद्धिप्रकर्षः सृष्टिनैपुण्यञ्च प्रदर्शितम्, मानवसर्ग विदधता पुनरनेन तत् सर्वमेकपद एवापहारितम्। एतावदुच्चावचसृष्टिपरम्परामवलोक्य स्रष्टुरगाधबुद्धिमत्त्वं ‘सृष्टिश्चेयं बुद्धिपूर्विकेति’ यदस्माभिरनुमितमासीत् पूर्वं, साम्प्रतं मानवसर्गसन्दर्शनेन तु निःशेषतोऽपगतोऽसौ संस्कारः, सञ्जातश्च तद्विपरीत: ‘स्रष्टुर्न स्वल्पापि बुद्धिर्विद्यत’ इत्येवंरूपः कोऽपि निश्चयः।
उत्तर:
अनवाद – मनुष्य की सृष्टि सभी सृष्टियों में निकृष्टतम है। चारों ओर अभिनय सृष्टि का सृजन करते हुए भगवान ब्रह्मा ने जिस प्रकार का बुद्धि प्रकर्ष और सृष्टि नैपुण्य प्रदर्शित किया है। मानव सृष्टि का निर्माण करते हुए सबों से निकृष्ट बनाया। इस प्रकार विभिन्न रूप की सृष्टि परम्परा को देखकर विधाता अगाध बुद्धिमत्तापूर्ण पर सृष्टि पहले की है. जैसा हमलोगों ने अनुमान किया है। पूर्व में और सम्प्रति मानवसृष्टि को देखने पर लगता है कि इसका पूरा संस्कार समाप्त हो गया है, इसके विपरीत थोड़ी भी बुद्धि शेष नहीं है, इस प्रकार का स्वरूप कोई निश्चित नहीं है।

प्रश्न 21.
प्राचीनाः शास्त्रकाराः प्रतिपुरुषं जातमात्रमेव ऋणनि कल्पयन्ति यथा देवऋणम्, ऋषिऋणम्, पितृऋणम्, मनुष्यऋणम्, भूतऋणं चेति। तत्र ऋषिऋणं स्वाध्यायरूपं कल्पितम्। प्राचीनाः ऋषयः लेखकाश्च पर्याप्त शास्त्रं साहित्यजातं चास्मभ्यः रचयित्वा प्रादुः। तेषामनुशीलनं संरक्षणं च ऋषिऋणस्य शोधनं मन्यते। पुस्तकालयस्तस्य अपाकरणस्य श्रेष्ठं साधनं वर्तते।
उत्तर:
अनवाद – प्राचीन शास्त्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जन्म से ही ऋण की कल्पना किए हुए हैं, जैसे देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण, मनुष्यऋण, भूतऋण आदि। वहाँ ऋषिऋण की कल्पना स्वाध्याय के रूप में की गई है। प्राचीन ऋषियों और लेखकों ने पर्याप्त ग्रन्थों का भंडार दिया है। उनके अध्ययन से ऋषिऋण का अन्त हो जाता है।

प्रश्न 22.
पुस्तकालयः नवीनानां सिद्धान्तानां जन्मस्थलं च भवति। लेखका युगप्रवर्तका विचारकाश्च पुस्तकालयेषु स्वजीवनस्य बहुमूल्यं कालं नीत्वा तथाविधं साहित्यं चिन्तनं च प्रास्तुवन् यत् देशे देशे प्रसिद्धिमापा समाजवादी विचारकः कार्लमार्क्स नामधेयः लन्दनपुस्तकालये ज्ञानराशिमालोड्य प्रसिद्ध समाजवादमतं निरूप्य प्रसिद्धिमगात्। श्रेष्ठाः पुस्तकालयाः सर्वदा विदुषां समवायं दृष्टवन्तः।
उत्तर:
अनवाद – पुस्तकालय नये सिद्धान्तों का जन्मस्थल होता है। लेखक, युगप्रवर्तक और विचारक पुस्तकालय में अपने जीवन का अधिकांश समय बिताकर इस तरह के साहित्य चिन्तन को प्रस्तुत किए हैं कि देशों में अपनी प्रसिद्धि पायी। कार्ल मार्क्स नामक सामाजिक विचारक ने लंदन के पुस्तकालय में ज्ञानराशि के मंथन पर प्रसिद्ध समाजवाद के सिद्धांत का निरूपण किया और ख्याति प्राप्त की। अच्छे पुस्तकालयों में सदा विद्वानों का समागम होता रहता है।

प्रश्न 23.
भारते वर्षे नालन्दाविश्वविद्यालयस्य ग्रन्थागारोऽतीव विशालः सर्वशास्त्रग्रन्थान् दधार। देशाद् देशान्तरेभ्यश्च विद्वांसः तत्रागत्य ज्ञान प्रापुः। बहूनि वर्षाणि स्थित्वायं सर्वनाशकारिभिराक्रामकैः अग्निसात्कृतः। एवमेव प्राचीनकाले नाना ग्रन्थागाराः अग्निशरणं प्रेषिताः स्वयं वा गताः संसारस्य विभिन्नेषु देशेषु। अस्माकं देशे ग्रन्थरक्षणे जैनानां विशिष्टं योगदानं विद्यते यतः जैनगृहस्थाः श्रमणेभ्यो पुस्तकदानं बहुकल्याणकरमन्यनत। अद्यापि हस्तलेखरूपास्तद्ग्रन्थाः पुस्तकालयेषु सर्वजनहिताय संकलिताः दृश्यन्ते।
उत्तर:
अनुवाद- भारतवर्ष में नालन्दा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय भी अत्यंत विशाल एवं सभी शास्त्रों के ग्रंथों से युक्त था। देश और विदेशों से विद्वान वहाँ आकर ज्ञान प्राप्त किये। बहुत वर्षों के.पश्चात् सर्वनाशक आक्रमणकारियों ने इसे जला दिया। इसी तरह प्राचीनकाल में संसार के विभिन्न देशों के पुस्तकालय भी अग्नि में झोंक दिये गये। अथवा स्वयं चले गये। हमारे देश में पुस्तकों के संरक्षण में जैनियों का विशेष योगदान है। क्योंकि जैन गृहस्थ और संन्यासियों द्वारा पुस्तक दान को अत्यंत कल्याणकारी मानते हैं। आज भी हस्तलिखित ग्रंथ पुस्तकालयों में लोगों के कल्याण के लिए संकलित देखे जाते हैं।

प्रश्न 24.
पुस्तकालयश्च इतिहासस्यावबोधे वर्तमानस्य ज्ञाने भविष्यतश्च दिशानिर्देशे भवत्येव साधनीभूतः। यतः सर्वविधानि त्रैकालिकानि साहित्यजातानि तत्र संकलितानि लभ्यन्ते। पाठकाः यथारुचि तत्तत्पुस्तकानामनुशीलनं कर्तुमर्हन्ति। प्राचीन इतिहासस्तदैव सिद्धिदो भवति यदासौ भविष्यदुन्मुखः। अस्माकं सर्वेषां लक्ष्याणि यथायर्थ साधयितुं पुस्तकालयः सर्वथा प्रेरको भवेदिति वाञ्छनीयम्।
उत्तर:
अनुवाद – पुस्तकालय इतिहास को जानने, वर्तमान ज्ञान और भविष्य के लिए दिशा-निर्देश का साधन है। क्योंकि सर्वप्रकार के सर्वकालिक साहित्य का संग्रह वहीं प्राप्त होते हैं। पाठक अपनी रुचि के अनुकूल पुस्तकों का अध्ययन-मनन करने में समर्थ हो सकते हैं। प्राचीन इतिहास तभी सिद्धिदायक हो सकता है यदि यह भविष्य की ओर उन्मुख हो। हमारे सभी उद्देश्यों को यथोचित सफल करने में पुस्तकालय सदा प्रेरक हो सकते हैं, यही आशा करनी चाहिए।

प्रश्न 25.
भृगुर्वै वारुणिः वरुणं पितरमुपससार अधीहि भगवो ब्रह्मेति। तस्मा एतत्प्रोवाच। अन्नं प्राणं चक्षुः क्षोत्रं मनो वाचमिति। तं होवाचा यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद् ब्रह्मेति। स तपोऽतप्यता स तपस्तप्त्वा।
उत्तर:
अनुवाद – भृगु ऋषि पिता वरुण के पास ब्रह्म विद्या का ज्ञान देने के लिए कहता है। उन्होंने इस प्रकार कहा। अन्न, प्राण, चक्षु, क्षोत्र, मन और वचन (ही ब्रह्म हैं) उसने कहा। जैसे ये पदार्थ जन्म लेते हैं और जिससे जन्म लेने वाले जीवित रहते हैं (कहें) जिसके ज्ञान से प्राप्त होते हैं। उसे जानने की जिज्ञास करो। वही ब्रह्म है। तप का आचरण करो। वह तप से प्राप्त होगा। .

प्रश्न 26.
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्। अन्नाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। अन्नेन जातानि जीवन्ति। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति। तं होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तपो ब्रह्मेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तत्त्वा।
उत्तर:
अनुवाद – अन्न को ही ब्रह्म जानो। अन्न से ही जीव उत्पन्न होते हैं। अन्न से ही जीव जीवित रहते हैं। अन्न को ही जाते हैं, प्रवेश करते हैं। इसे जानकर पुनः वरुण पिता के समीप जाता है। भगवन् मुझे ब्रह्म की शिक्षा दें। उसको कहते हैं। तपस्या से ब्रह्म को जानो। तप ही ब्रह्म है। तपस्या तप करके जानो।

प्रश्न 27.
प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात्। प्राणाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। प्राणेन जातानि जीवन्ति। प्राणं प्रत्यन्त्यभिसंविशन्तीति। तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति। तं होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तपो ब्रह्मेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा।
उत्तर:
अनुवाद – प्राण को ही ब्रह्म जानो। प्राण से ही ये जीव पैदा होते हैं। प्राण से ही जीवित रहते हैं। प्राण ही जीव में प्रवेश करते हैं। इसे जानकर पुनः वरुण पिता के पास जाता है। भगवन मुझे ब्रह्म की शिक्षा दें। तपस्या से ब्रह्म को जानो। तपस्या ही ब्रह्म है। उसने तपस्या की। वह तप से ही प्राप्त होगा।

प्रश्न 28.
मनो ब्रह्मेति व्यजानात्। मनसो ह्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। मनसा जातानि जीवन्ति। मनः प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति। तं होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्वा तपो ब्रह्मेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तत्त्वा।
उत्तर:
अनुवाद – मन को ही ब्रह्म जानो। मन से ही जीव उत्पन्न होते हैं। मन से ही जीते हैं। मन से ही जीव में प्रवेश करते हैं। इसे जानकर पुनः वरुण पिता के पास जाता है। भगवन् मुझे ब्रह्म का ज्ञान दें। तपस्या से ब्रह्म को जानो। तप ही ब्रह्म है। उसने तपस्या की वह तप से ही प्राप्त होगा।

प्रश्न 29.
विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्। विज्ञानाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति। विज्ञानं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति। तं होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्वा तपो ब्रह्मेतिास तपोऽतप्यतास तपस्तप्त्वा।
उत्तर:
अनुवाद – ज्ञान को ही ब्रह्म जानो। ज्ञान से ही ये जीव उत्पन्न होते हैं। ज्ञान से ही जीते हैं। ज्ञान से ही प्रवेश करते हैं। इसे जानकर पुनः वरुण पिता के पास जाता है। मुझे ब्रह्म की शिक्षा दें। उसने कहा। तप से ब्रह्म को जानो। तप ही ब्रह्म है। उसने तप किया। वह तप से ही प्राप्त होगा।

प्रश्न 30.
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। सैषा भार्गवी वारुणी विद्या परमे व्योमन् प्रतिष्ठिता। स य एवं वेद प्रतिष्ठिति।अन्नवानन्नादो भवति।महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन। महान् कोर्त्या ।
उत्तर:
अनुवाद – अन्न उपभोग करने वाले को ही ब्रह्म जानो। अन्न से ही ये जीव पैदा होते हैं। अन्न से ही जीवित रहते हैं। अन्न को जाते हैं और प्रवेश करते हैं। वहीं भृगु की जानी हुई विद्या वरुण के द्वारा बतायी गई है जो विस्तृत आकाश में प्रतिष्ठित है। जो इसे जानता है। वही जीवित है। अन्न का उपभोक्ता अन्नाद होता है। अपने ब्रह्मचर्य से प्रजा और पशुओं द्वारा महान होता है। उसकी कीर्ति महान होती है।

प्रश्न 31
(क)गंगा हिमालय से निकलती है। (ख) पिता के साथ पुत्र जाता है।(ग) हमलोगों की परीक्षा कब होगी ? (घ) मैं इतिहास पढ़ता हूँ। (ङ) तुम्हारा क्या नाम है ? (च) मुझे पुस्तक दो। (छ) कल मोहन विद्यालय नहीं गया। (ज) गाय चरती है। (झ) वृक्ष से पत्ते गिरते हैं।
उत्तर:
अनुवाद – (क) गंगा हिमालयात् प्रवहति। (ख) पुत्र पित्रेण सह गच्छति। (ग) अस्माकं. परीक्षा कदा भविष्यति। (घ) अहं इतिहासं पठामि। (ङ) तव किं नाम अस्ति ? (च) मह्यं पुस्तकं देहि। (छ) ह्याः मोहनः विद्यालयं न गतवान् (ज) गौः चरित। (झ) वृक्षात् पत्राणि पतन्ति।

प्रश्न 32.
(क) कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है। (ख) राम के साथ सीता वन गई। वह रामायण पढ़ता है। (घ) गरीबों को धन दो। (ङ) तालाब में कमल खिलते हैं। (च) दशरथ के चार पुत्र थे। (छ) हवा धीरे-धीरे बहती है। (ज) तुम कब घर जाओगे ? (झ) सूर्य के अस्त होने पर वह घर गया।
उत्तर:
अनुवाद – कविषु कालिदासः श्रेष्ठः (अस्ति)। (ख) रामेण सह सीता वरन् आगच्छत्। (ग) सः रामायणं पठति। (घ) निर्धनेभ्यः धनं देहि। (ङ) तड़ागे कमलानि खिलन्ति। (च) दशरथस्य चत्वारः पुत्राः आसन्। (छ) पवनः मन्दं मन्दं प्रवहति। (ज) त्वम् कदा गृहं गमिष्यसि। (झ) सूर्ये अस्तंगते सः गृहम् गतः।

प्रश्न 33.
(क) गंगा हिमालय से निकलती है। (ख) पिता के साथ पुत्र जाता है। (ग) हमलोगों की परीक्षा कब होगी ? (घ) मैं इतिहास पढ़ता हूँ। (ङ) तुम्हारा क्या नाम है ? (च) मुझे पुस्तक दो। (छ) कल मोहन विद्यालय नहीं गया। (ज) गाय चरती है। (झ) वृक्ष से पत्ते गिरते हैं।
उत्तर:
अनुवाद – (क) गंगा हिमालयात् प्रवहति। (ख) पुत्र पित्रेण सह गच्छति। (ग) अस्माकं परीक्षा कदा भविष्यति। (घ) अहं इतिहासं पठामि। (ङ) तव किं नाम अस्ति ? (च) मह्यं पुस्तकं देहि। (छ) ह्याः मोहनः विद्यालयं न गतवान् (ज) गौः चरित। (झ) वृक्षात् पत्राणि पतन्ति।

प्रश्न 34.
(क) हिमालय पर्वतों का राजा है। (ख) संस्कृत भारत की प्राचीन भाषा है। (ग) वह पढ़कर घर गया। (घ) मुझे मोदक अच्छा लगता है। (ङ) सीता राम के साथ वन गयी। (च) राजा ब्राह्मण को वस्त्र देता है। (छ) वह साँप से डरता है। (ज) गाँव के दोनों
ओर वृक्ष है। (झ) दिनेश कान से बहरा है। (ज) कवियों में कालिदास श्रेष्ठ हैं।
उत्तर:
अनुवाद – (क) हिमालयः पर्वतानां राजा वर्तते। (ख) संस्कृत भाषा भारतवर्षस्य प्राचीन भाषा वर्तते। (ग) सः पठित्वा गृहम् अगच्छत्। (घ) महयं मोदकं रोचते। (ङ) सीता रामेण सह वनम् अगच्छत्। (च) राजा ब्राह्मणेभ्यः वस्त्रं (वस्त्रान्) ददाति। (छ) सः सात् विभेति। (ज) ग्रामम् उभयतः वृक्षाः सन्ति। (झ) दिनेशः कर्णेन वधिरः वर्तते। (ब) कविषु कालिदासः श्रेष्ठः वर्तते।

प्रश्न 35.
(क) हमारा देश भारत है। (ख) भारत की राजधानी दिल्ली है। (ग) गंगा एक पवित्र नदी है। (घ) पटना गंगा नदी के किनारे बसा है। (ङ) पटना का गोलघर प्रसिद्ध है। (च) तुम्हारा क्या नाम है ? (छ) ऋतुओं का राजा वसन्त है। (ज) तुम्हारी परीक्षा कब होगी ? (झ) वह पढ़ने में तेज है।
उत्तर:
अनुवाद – (क) अस्माकं देशः भारतः अस्ति। (ख) भारतस्य राजधानी दिल्ली अस्ति। (ग) गंगा एका पवित्रा नदी अस्ति। (घ) पाटलिपुत्रं गंगायाः तटे अवस्थितम् अस्ति। (ङ) पाटलिपुत्रस्य गोलगृहं प्रसिद्धम् अस्ति। (च) तब किं नाम। (छ) ऋतुनां राजा वसंतः अस्ति। (ज) तब परीक्षा कदा भविष्यति ? (झ) सः पठने तीव्रः (मेघावी) अस्ति।

प्रश्न 36.
(क) विद्या से ज्ञान की प्राप्ति होती है। (ख) भिक्षुक को धन दो। (ग) राम पिता के साथ घर गया। (घ) कवियों में कालिदास श्रेष्ठ हैं। (ङ) हिमालय पहाड़ से गंगा निकलती है। (च) तुम कब पटना जाओगे ?(छ) चाणक्य अर्थशास्त्र के विद्वान थे। (ज) मुझे संस्कृत अच्छी लगती है। (झ) ऋतुओं का राजा वसन्त है।
उत्तर:
अनुवाद – (क) विद्यया ज्ञानस्य प्राप्ति भवति। (ख) भिक्षुकाय धनं देहि। (ग) रामः पित्रा सह गृहं अगच्छत्। (घ) कविषु कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति। (ङ) हिमालयपर्वतात् गंगा निस्सरति। (च) त्वं कदा पाटलिपुत्रं गमिष्यसि ? (छ) चाणक्यः अर्थशास्त्रस्य विद्वान् आसीत्। (ज) मह्यं संस्कृत रोचते। (झ) ऋतुणां राजा वसन्तः अस्ति।

प्रश्न 37.
(क) दशरथ अयोध्या के राजा थे। (ख) सीता राम की पत्नी थी। (ग) सड़क के दोनों ओर वृक्ष हैं। (घ) पटना का गोलघर बहुत पुराना है। (ङ) गरीबों को धन दो। (च) क्या तुम विद्यालय चलोगे ? (छ) रमेश अभी कहाँ रहता है ? (ज) हिमालय पर्वतों का राजा है ? (झ) मेघदूत कालिदास की रचना है।
उत्तर:
अनुवाद – (क) दशरथः अयोध्यायाः नृपः आसीत्। (ख) सीता रामस्य भार्या आसीत्। (ग) राजमार्गम् उभयतः, वृक्षा सन्ति। (घ) पाटलिपुत्रस्य गोलगृहम् अतिप्राचीनम् अस्ति। (ङ) निर्धनेभ्यः अन्नं देहि। (च) किं त्वं विद्यालयं चलिष्यसि ? (छ) रमेशः अधुना कुत्रः निवसति ? (ज) हिमालयः पर्वतानाम् नृपः अस्ति। (झ) मेघदूतं कालिदासस्य कृतिः अस्ति।

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