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 Bihar Board 12th Sanskrit Grammar Important Questions Part 2

Bihar Board 12th Sanskrit Grammar Important Questions Part 2

प्रश्न 1.
समास किसे कहते हैं ? इसे भेदों को उदाहरण सहित परिभाषित करें।
उत्तर:
समास-समसनं समासः अर्थात् बहुत से पदों को मिलाकर एक पद बन जाना समास कहलाता है। ‘सम्’ उपसर्ग पूर्वक अस् (एक साथ रखना) धातु से ‘समास’ शब्द बना है। जैसेराजपुत्रः-राज्ञः पुत्रा
समास के मुख्य चार भेद हैं-
(i) अव्ययीभाव,
(ii) तत्पुरुष
(iii) द्वन्द्व
(iv) बहुव्रीहि।

तत्पुरुष के मुख्य दो भेद हैं-
(i) कर्मधारय
(ii) द्विगु। इस प्रकार समास के छः भेद हुए।

1. अव्ययीभाव समास – पूर्वपदप्रधानोऽव्ययीभावः-अव्ययीभाव समास का पूर्व पद (पहला पद) प्रधान होता है और पहला पद अव्यय होता है तथा दूसरा पद संज्ञा होता है। नपुंसकलिंग में रहता है। उत्तर पद यदि दीर्घ स्वर होता है तो उसे हृस्वान्त कर देते हैं। उप + नदी-उपनदि। उप + वधू-उपवधू।

विभक्ति, समीप, समृद्धि, नाश, व्यृद्धि, अर्थाभाव, अत्यय, असम्प्रति, शब्द प्रादुर्भाव, पश्चात् योग्यता, वीप्सा, अनतिक्रम्य, आनुपूण्य, यौगपद्य, सादृश्य, सम्पति, साकल्य, आदि शब्दों में अव्ययीभावं समास होता है।

2. तत्पुरुष समास – उत्तर पदार्थ प्रधानः तत्पुरुषः-तत्पुरुष समास में उत्तर पद के अर्थ की प्रधानता होती है। जैसे-राज्ञः पुत्रः-राजा का पुत्र। कृष्णाश्रितः कृष्णाश्रितः इत्यादि।

3. कर्मधारय समास – तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः अर्थात् वैसा तत्पुरुष, जिसमें पहला . पद दूसरे पद का विशेषण हो, दोनों पदों का अधिकरण एक या समान हो, उसे समानाधिकरण तत्पुरुष समास या कर्मधारय समास कहते हैं। अथवा जहाँ विशेष्य-विशेषण भाव प्रकट हो या उपमान की तुलना उपमेय से की जाए वहाँ कर्मधारय समास होता है। जैसे-चन्द्र के समान मुखं – चन्द्रमुख, मुखं कमलम् इव – मुखकमल। कमल के समान नयन – कमलनयन।

4. द्विगु समास – जिस कर्मधारय पद के प्रारंभ में संख्या वाचक शब्द हो, उसे द्विगु समास कहते हैं। जैसे-पंचानां वटानां समाहारः पंचवटी इत्यादि।

5. द्वन्द्व समास-चार्थे द्वन्द्वः-द्वन्द्व समास में उभयपद की प्रधानता होती है। इसमें दो शब्दों के जोड़ने के लिए ‘च’ का अर्थ छिपारहता है। जैसे-माता च पिता च – मातापितरौ
इन्द्रश्च वरुणश्च – इन्द्रवरुणौ।

6. बहुब्रीहि समास-अन्य पदार्थ प्रधानो बहुब्रीहि-बहुब्रीहि समास में अन्य पद की प्रधानता होती है। पूरा समस्तपद किसी अन्य पद का विशेषण बन जाती है। जैसे-पीतम् अम्बरं यस्य सः पीताम्बरम् अर्थात् कृष्ण। श्वेतम् अम्बरम् यस्य साः श्वेताम्बर अर्थात् सरस्वती।

1. पदेषु मध्ये चतुर्णां समस्तपदानां चयनं कृत्वा तेषां विग्रहं कुरुत।

समस्त पद – विग्रहः

समक्षम् = अक्षणः समीपम्
निर्जनम् = जनानाम् अभावः
सज्ञानम् = ज्ञानेन सह
उपवनम् = वनस्य समीपम्
अधिगोपम् = गोपाः तस्मिन्
यथाशक्तिः = शक्तिम् अनतिक्रम्य
सपरिवारम् = परिवारेण सह
विद्याविहीनः = विद्यया विहीनः
ग्रामगतः = ग्रामम् गतः
वस्त्रपूतम् = वस्त्रेण पूतम्

तत्कृतम् = तेन कृतम्
रणपट्ट = रणे पटुः
अनुरूपम् = रूपस्य योग्यम्
जनहितम् = जनेभ्यः हितम्
कुलपतिः = कुलस्य पतिः
विराटेश्वरः = विराटस्य ईश्वरः
प्रियाविहीनाः = प्रियया विहीनाः
जीवनरक्षा = जीवनस्य रक्षा
वनदेवता = वनस्य देवता
गणेशः = गणानाम् ईशः

अपरकायः = अपरं कायस्य
धर्मसाधनम् = धर्मस्य साधनम्
कार्यकुशलः = कार्ये कुशलः
यौवनारूढ़ः = यौवने आरुढ़
मध्यान्तरः = मध्ये अन्तरः
नक्षत्रम् = न क्षत्रम्
हितकरः = हितं करोति इति।
जलदः = जलम् ददाति इति
मधुरवचनम् = मधुरं वचनम्
मुखचन्द्रः = मुखम् चन्द्र इव

पीताम्बरम् = पीतं अम्बरम्
नीलकमलम् = नीलं कमलम्
नीलवर्णः = नीलं वर्णम्।
नरसिंहः = नरश्चासौ सिंहः च।
वीरपुरुषः = वीरः च असौ पुरुषः
नीलमेधम् = नीलं मेधम्
सीतारामौ = रामश्च सीता च
धर्मार्थों = धर्मश्च अर्थश्च
पार्वती परमेश्वरौ = पार्वती च परमेश्वर च
अहर्निम् = अहश्च निशा च अनयोः समाहारः

प्राप्त धनः = प्राप्तं धनं यं सः
द्वादशः = द्वि च दश च
पाणिपादम् = पाणी च पादौ च एषां समाहारः
पतितपर्णः = पतितानि पर्णानि यस्मात् सः
महासेनः = महती सेना यस्य सः
जितेन्द्रियः = जितानि इन्द्रियाणि येन सः
चन्द्रमुखी = चन्द्र इव मुखं यस्याः सा
सपरिवारः = परिवारेण सह विद्यमानः
चन्द्रशेखरः = चन्द्रः शेखरे यस्य सः
चक्रपाणिः = चक्रं पाणौ यस्य सः
अपत्रः = अविद्यमान पुत्रः यस्य सः

2. निम्नलिखित विग्रहपदेषु मध्ये चतुर्णा विग्रहपदानां चयनं कृत्वा तेषां समस्तपदं लिखतः।

विग्रह पद – समस्त पद

वीरश्च असौ पुरुषः = वीरपुरुषः
मुखं चन्द्रः इव = मुखचन्द्रः
कुत्सिता गौ = किंगौ
नष्टिम् = अनिष्टम्
भिक्षायाः पात्रम् = भिक्षापात्रम्
कृष्णस्य सखा = कृष्णसखा
पूर्वं सत्रे = पूर्वरात्रः
अर्थस्य गौरवम् = अर्थगौरवम्
धनाय लोभः = धनलोभः
पाठाय शाला = पाठशाला
राष्ट्रस्य पतिः = राष्ट्रपतिः
धान्येन अर्थः = धान्यार्थः
कूपं पतितः = कूपपतितः
ज्ञानेन सह = सज्ञानम्
जनस्य पश्चात् = अनुजनम्
मतिम् अनतिक्रम्य = यथामतिः
नगरस्य समीपम् = उपनगरम्
जनानाम् अभावः = निजनम्
न आयासः = अनायासः
धर्मश्च अर्थश्च कामश्च = धर्मार्थकामाः
चन्द्र इव मुखम् सस्या सा = चन्द्रमुखी।

कारक

कारक – क्रिया के साथ जिस शब्द का सीधा संबंध होता है, वह कारक कहलाता है ( क्रियान्वयि कारकम्)। संस्कृत भाषा में छः कारक होते हैं-
कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण।
प्रश्न-निम्नलिखितानां सूत्रानां उदाहरण पुरस्सरम् व्याख्यायताम्।

1. स्वतंत्रः कर्त्ता क्रिया की निष्पति में जो स्वतंत्र होता है, उसे कर्ता कहते हैं अथवा क्रिया को करने वाला कर्ता कहलाता है। जैसे-
‘बालः पुस्तकं पठति’-इस वाक्य में ‘पठति’ क्रिया है जिसकी सिद्धि बालक के द्वारा स्वतंत्र रूप से की जा रही है। अतः ‘बालः’ कर्ता कारक है।

2. सम्बोधने च-सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है।
यथा-हे राम ! हे लते ! हे ज्ञान !

3. कत्तुरीप्सिततमं कर्म-क्रिया के द्वारा कर्ता जिसे सबसे अधिक चाहता है, उसे कर्म कहते हैं। यथा-‘देवः शकटेन ग्रामं गच्छति’-यहाँ ‘जाना’ क्रिया है, जिसके द्वारा कर्ता ‘ग्राम’ को प्राप्त करना चाहता है, अतः यह कर्म हुआ।
उदाहरण:
(क) छात्रा पाठशाला में जाती है। छात्रा पाठशाला गच्छति।
(ख) रसोइया चावल पकाता है। सूदः तण्डुलान् पचति।

4. कर्मणि द्वितीया- कर्म कारक में सदा द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-(पाठ्य-पुस्तक से उद्धत)
(क) छात्रः विद्यालयं गच्छति।
(ख) पाचकः तण्डुलं पचति।

5. तथायुक्तं चानीप्सितम्- ईप्सित के समान क्रिया होने पर कहीं-कहीं अनीप्सित की भी कर्म संज्ञा होती है। जैसे-ग्रामं गच्छन् तृणं स्पृशति (गाँव जाता हुआ तृण को छूता है)। यहाँ ‘गाँव’ ईप्सित कर्म है तथा ‘तृण’ अनीप्सित कर्म है। अनीप्सित कर्म होने पर भी ‘तृण’ शब्द की कर्म संज्ञा होकर द्वितीया का प्रयोग हुआ है।

6. अधिशीङ्स्थासां कर्म- ‘अधि’ के साथ ✓ शी (सोना) ✓स्था (ठहरना), ✓ आस् (होना),
धातुओं का प्रयोग होने पर द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-
हरिः वैकुण्ठम् अधिशेते। (विष्णु वैकुण्ठ में रहते हैं।)
तापसः शिलापट्टम् अधितिष्ठति। (तपस्वी पत्थर से बैठता है।)

7. ‘अभिनिविशश्च’ (पा० सू०)-‘नि’, ‘अभि’, उपसर्गपूर्वक ‘विश्’ धातु के आधार में कर्म कारक होता है। जैसे-अभिनिविशते सन्मार्गम् (सि० को०) (सन्मार्ग पर जाता है।)

8. ‘उपान्वध्याङ्वसः’ (पा० सू०)-‘उप’, ‘अनु’, ‘अधि’ और ‘आ’ उपसर्गपूर्वक वस् धातु के आधार पर कर्मसंज्ञा होती है। जैसे-
उपवसति काशी विश्वनाथः। (काशी में विश्वनाथ रहते हैं।)
इसी प्रकार-अनुवसति, अधिवसति, आवसति वा वैकुण्ठं हरिः।

9. ‘अभितः परितः समयानिकषा हा प्रति योगेऽपि ( वार्त्तिक)- अभितः (दोनों तरफ) परितः (चारों तरफ), समया, निकषा (निकट), हा (अफसोस), प्रति (ओर, पर) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-
प्रयागमभितः नद्यौ स्तः। (प्रयाग के दोनों ओर नदियाँ हैं।)
ग्रामं परितः वृक्षाः सन्ति। (गाँव के चारों ओर वृक्ष हैं।)

10. साधकतमं करणम्- क्रिया के सम्पादन में सबसे अधिक सहायक वस्तु को करण कहते हैं।
यथा-(क) रामः रावणं बाणेन अहन्। (राम ने रावण को बाण से मारा।)
(ख) अहं शकटेन ग्रामम् अगच्छम्। (मैं गाड़ी से गाँव को गया।)

11. येनाङ्गविकार:- जिस अंग से शरीर का विकार प्रसिद्ध हो उस अंगवाचक में तृतीया विभक्ति
होती है।
जैसे-अक्ष्णा काणः। (आँख का काना।)
पादेन खञ्जः। (पैर का लँगड़ा )
कर्णाभ्यां बधिरः। (कानों का बहरा।)
पृष्ठेन कुब्जः। (पीठ का कुबड़ा ।) आदि।

12. इत्थंभूतलक्षणे- जिस लक्षण या चिह्न के द्वारा कोई वस्तु या मनुष्य लक्षित हो उस लक्षणबोध शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-
जटाभिस्तापसः। (जटा के द्वारा तपस्वी मालूम देता है।)

13. हती-हेतु अर्थ में अर्थात् किसी वस्तु क्रिया का हेतु (प्रयोजन) प्रकट करने वाले शब्दों में
तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-पुण्येन दृष्टो हरिः। (पुण्य के कारण हरि दिखाई दिए।)
अध्ययनेन वसति। (अध्ययन के हेतु (प्रयोजन) बसता है।

14. दिवः कर्म च-‘खेलना’ अर्थक दिव्-धातु के प्रयोग में द्वितीया या तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-अक्षरक्षान् वा दीव्याति। (पाशों में जुआ खेलता है।)

15. संज्ञोऽन्यतरस्यां कर्मणि-सम् उपसर्गपूर्वक ज्ञा धातु के कर्म में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे-पित्रा पितरं वा संजानीते। (पिता को जानता है।)

16. रुच्यर्थानां प्रीयमाण:-रुच् धातु तथा इसकी समानार्थक धातुओं के प्रयोग में प्रसन्न होने वाले पद की सम्प्रदान संज्ञा होती है।
यथा-देवाय भक्तिः रोचते। (देव की भक्ति अच्छी लगती है।)
बालाय दधि स्वदते। (बच्चे को दही अच्छा लगता है।)

17. श्लाघ हनुङ्स्थाशपां जीप्स्यमानः (पा० सू०)-श्लाघ, हनुङ, स्था, शप-इन धातुओं के प्रयोग में जिसको जनाया जाए उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है।
यथा-गोपी स्मरात् कृष्णाय श्लाघते। (गोपी कामवश हो कृष्ण की श्लाघा करती है।)
गोपी स्मरात् कृष्णाय हनुते। (गोपी कामवश हो कृष्ण को पत्नी से दूर करती है।)

18. धारेरुत्तमर्णः (पा० सू०)-‘धृ धातु (ऋणी होना, उधार लेना अर्थ में) के प्रयोग में ऋण देने वाले में सम्प्रदान कारक होता है। यथा-
त्वं मह्यं शतं धारयसि (सि० को०)। (तुम मुझसे 100 रु० ऋण ले रहे हो।)
द्वे वृक्षसेचनके मे धारयसि (शकु०)। (तू मेरे दो वृक्ष सींचने की ऋणी है।)

19. स्पृहेरीप्सितः (पा० सू०)-ण्यन्त ‘स्पृह्’ धातु के प्रयोग में जो वस्तु चाही जाए उनमें सम्प्रदान कारक होता है।
यथा-पुष्पेभ्यः स्पृहयति (सि० को०)। (फूलों की स्पृहा करता है।)

20. क्रुधगुहोरुपसृष्टयोः कर्म-यदि क्रुध् व द्रुह धातु उपसर्ग के साथ हो तो उसकी कर्म संज्ञा होती है।
यथा-देवः श्यामम् अभिक्रुध्यति। (देव श्याम पर क्रोध करता है।)।

21. तादयें चतुर्थी वाच्या (वार्त्तिक)-जिस प्रयोजन के लिए कार्य किया जाता है उस प्रयोजन में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-
मुक्तये हरिं भजति। (मुक्ति के लिए हरि को भजता है।)
काव्यं यशसे। (काव्य यश के लिए होता है।)

22. प्रत्याभ्यां श्रुवः पूर्वस्य कर्ता (पा० सू०)-‘प्रति’ पूर्वक या ‘आ’ पूर्वक ‘श्रु’ (प्रतिज्ञा करना) धातु के योग में जिससे प्रतिज्ञा की जाती है उनमें सम्प्रदान कारक होता है।
यथा-विप्राय गां प्रतिशृणोति आशृणोति वा। (विप्र से गाय की प्रतिज्ञा करता है।)

23. ‘क्लपि संपद्यमाने च’ (वार्त्तिक)-‘क्लुप्’ धातु (उत्पन्न होना, समर्थ होना) के योग में तथा उसी प्रकार की अर्थ की अन्य धातुओं के प्रयोग में (संपद्, जन्, भू में) आदि परिमाण चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे-भक्तिः ज्ञानाय कल्पते संपद्यते जायते भवति वा। (भक्ति ज्ञान के लिए होती है।)
साधोः शिक्षा गुणाय सम्पद्यते, नासाधोः। (साधु की शिक्षा गुणकारी है, असाधु की नहीं।)

24. ध्रुवमपाये अपादानम्-पृथक् होने की स्थिति में जो स्थिर रहता है, उसे अपादान कहते हैं ।
यथा-रामः ग्रामात् आयाति। (राम गाँव से आता है।)
यहाँ ‘राम’ एवं ‘गाँव’ दोनों पृथक् होने की स्थिति में है।’गाँव’ अपने स्थान पर स्थिर है
तथा राम उससे अलग होता है। अतः ‘ग्राम’ अपादान कारक हुआ।

25. अपादाने पञ्चमी-अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति होती है। यथा-
मेघात जलं पतति। (बादल से जल गिरता है।)
पृथिव्याः रज उत्पपति। (पृथ्वी से धूल उड़ती है।)

26. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम्-जुगुप्सा, विराम, प्रमाद वाची धातुओं के योग में पंचमी
विभक्ति होती है। यथा-
देवः पापात् जुगुप्सते। (देव पाप से घृणा करता है।)

27. अनिकर्तुः प्रकृतिः-✓भू धातु के कर्ता की उत्पत्ति स्थान की अपादान संज्ञा होती है।
यथा-कामात् क्रोधोऽभिजायते। (काम से क्रोध उत्पन्न होता है।)

28. भुवः प्रभव:-✓ भू धातु के कर्ता की उत्पत्ति स्थान की अपादान संज्ञा होती है।
यथा-हिमालयात् गंगा प्रभवति। (हिमालय से गंगा निकलती है।)

29. पराजेरसोढः-‘परा’ + ✓ जि धातु के प्रयोग में असह्य वस्तु की अपादान संज्ञा होती है।
यथा-बालः अध्ययनात् पराजयते। (बच्चा अध्ययन से हार रहा है।)

30. वारणार्थानामीप्सितः-दूर करना या हटाना अर्थवाची धातु के प्रयोग में इष्ट वस्तु की अपादान संज्ञा होती है।
यथा-सन्मित्रं पापान्निवारयति। (अच्छा मित्र पाप से बचाता है।)
कृषक: यवेभ्यः गां निवारयति। (किसान यव से गाय को हटाता है।)

31. शेपे षष्ठी-कर्म आदि कारकों से अतिरिक्त शेष (= सम्बन्ध) को बताने के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है। यह संबंध कई प्रकार का होता है तथा सर्वत्र षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।
यथा-
एषः राज्ञः पुरुषः अस्ति। (यह राजा का सेवक है।)
सतां चरितं शोभनम् भवति। (सज्जनों का चरित्र सुन्दर होता है।)
बालः मातुः स्मरति। (बच्चा माता के संबंध में याद करता है।)

32. दुरान्तिकार्थेः षष्ठ्यन्तरास्याम् (पा० सू०)-दूर और अन्तिक (समीप) तथा इनके अर्थ वाले अन्य शब्दों के योग में पञ्चमी और षष्ठी विभक्ति होती है। यथा-
दूरं निकटं ग्रामस्य ग्रामाद्वा। (गाँव से दूर समीप। )
अतः समीपे परिणेतुरिष्यते। (इसलिए पति के पास जाना उचित है।)

33. अधीगर्थदयेशां कर्मणि-स्मरण अर्थ वाली। (स्मृ० आदि) धातु तथा दय् (दया करना), ईश् (राज्य करना-मालिक होना), प्र + भू (प्रभुता पाना या समर्थन होना), अधि पूर्वक इ ध तु (याद करना) के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-
मातुः स्मरणं करोति। (माता का स्मरण करता है।)
रामस्य दयते। (राम पर दया करता है।)

34. व्यवहपणोः समर्थयो:-क्रय-विक्रय (सौदे का लेन-देन) तथा द्यूत (जुआ) अर्थ में ‘वि’ और ‘अव’ उपसर्ग पूर्वक ह और पण धातु के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा-शतस्य व्यवहरणं पणनं वा। (सौ रुपये का लेन-देन करना या पण-दाँव लगाना ।)
शतस्य व्यवहरति सः। (वह सौ रुपये से व्यवहार करता है।)

35. दिवस्तदर्थस्य-द्यूत (जुआ) अर्थ तथा क्रय-विक्रय रूप व्यवहार में दिव् धातु के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा-शतस्य दीव्यति (सौ रुपये से जुआ खेलता है।)

36. विभाषोपसर्गे-परन्तु जब उपर्युक्त अर्थ में दिव् धातु उपसर्ग पूर्वक रहती है तब षष्ठी और द्वितीया दोनों होती हैं।
यथा-शतस्य शतं वा प्रप्तिदीव्यति (सि० को०)। (सौ रुपये से जुआ खेलता है।)

37. कृत्वोऽर्थप्रयोगे कालेऽधिकरणे-बार-बार या अनेक बार अर्थ प्रकट करने वाला ‘कृत्वसुच’ (कृत्व:) प्रत्यय तथा उसके समान अर्थ को व्यक्त करने वाले प्रातिपदिक (द्विः, त्रिः, आदि) . शब्दों के प्रयोग में काल तथा अधिकरण वाचक शब्दों से षष्ठी विभक्ति होती है । यथा-पंचकृत्व:
अह्नः भोजनं करोति। (दिन में पाँच बार खाता है।)

38. कर्तृकर्मणोः कृति-कृत् प्रत्ययान्त (क्तिन्, ति), तृच् (तृ), ल्युट् (अन्), आदि शब्दों के प्रयोग में कर्ता और कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है।
यथा-जगतः कर्ता ईश्वरः अस्ति। (जगत् को बनाने वाला ईश्वर है।) ईश्वरस्य सृष्टिः इयम्। (यह ईश्वर की रचना है।)

39. आधारोऽधिकरणम्- आधार को अधिकरण कहते हैं। अधिकरण तीन प्रकार का होता है।
यथा-(क) औपश्लेषिक आधार-उपश्लेष का अर्थ (भौतिक) संयोग है। जिसके साथ आधेय का भौतिक संयोग (संश्लेष) होता है उसे औपश्लेषिक आधार कहते हैं। यथा-
देवः कटे आस्ते। (देव चटाई पर है।)
स्थाल्यां पचति। (पतीली में पकाता है।)
(ख) वैषयिक आधार-विषय का अर्थ है-निमित्त (बौद्धिक संयोग)। यथा-
मोक्षे इच्छा अस्ति। (मोक्ष के विषय में इच्छा है।)

(ग) अभिव्यापक आधार-अभिव्याप्ति रूप क्रिया का आधार होने से अधिकरण अभिव्यापक कहलाता है।
यथा-तिलेषु तैलम् अस्ति। (तिलों में तेल है।)
यहाँ तिल अभिव्यापक आधार है क्योंकि तेल का सब तिलों में संयोग है।

40. सप्तम्यधिकरणे च- अधिकरण कारक में तथा ‘दूर’ आदि उपरिकथित शब्दों के योग में सप्तमी – होती है।
यथा-सः फलके पुस्तकं स्थापयति। (वह मेज पर पुस्तक रखता है।)
तिलेषु तैलं भवति। (तिलों में तेल होता है।) .

41. षष्ठी चानादरे (पा० सू०)-जिसका अनादर या तिरस्कार करके कोई कार्य किया जाता है,
वहाँ भाव में षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती है। यथा-
रुदति पत्रे रुदतः पुत्रस्य वा पिताऽव्राजीत (सि० को०)।
(रोते हुए पुत्र को कुछ न समझ कर पिता संन्यासी हो गया।)

42. फेंकना या झपटना अर्थवाची धातुओं के योग में सप्तमी विभक्ति होती है।
यथा-व्याधः खगेषु बाणान् अमुञ्चत्। (शिकारी ने पक्षियों पर बाण चलाए।) सः कथं मयि बाणान् क्षिपति। (वह मुझ पर बाण क्यों चलाता है।)

सन्धि

परिभाषा- दो वर्गों के एक-दूसरे के अत्यंत समीप चले आने के बाद उनके मेल से जो विकार उत्पन्न होता है, उसे सन्धि कहते हैं। “वर्णानां परस्परं विकृतिमत संधानं सन्धिः” अर्थात वर्णों का आपस में विकृतियुक्त (विकारसहित) मिलना ‘सन्धि’ कहलाता है। ‘विकार’ से मतलब है-वर्ण-परिवर्तन’। उदाहरण के लिए नीचे दिए गए कुछ शब्दों को देखें-

(क) राम + ईश्वरः = रामेश्वरः-ए (वर्ण-विकार)
(ख) इति + आदिः = इत्यादिः-य् (वर्ण-विकार)

उपर्युक्त उदाहरणों में, पहले में ‘राम’ शब्द के ‘अ’ वर्ण के अत्यंत समीप ‘ईश्वरः शब्द का ‘ई’ वर्ण चला आया है और इन दोनों वर्गों के मेल से एक नया विकार या वर्ण-परिवर्तन सामने आता है-अ + ई = ए, जिनके कारण राम + ईश्वरः = ‘रामेश्वरः’ शब्द बनता है। यह ‘वर्ण-विकार’ या ‘वर्ण-परिवर्तन’ की ‘सन्धि’ है।

इसी प्रकार, इति + आदिः = ‘इत्यादिः’ में ‘य’ वर्ण-विकार को समझा जा सकता है। ‘सन्धि’ के लिए अनिवार्य तत्त्व है ‘संहिता’। ‘संहिता’ की परिभाषा है-“परः सन्निकर्षः संहिता”, अर्थात् “दो वर्णों का अत्यंत सन्निकट हो जाना ही संहिता है।”

सन्धि के भेद

1. दो वर्गों के एक-दूसरे के अत्यंत करीब चले आने पर विभिन्न प्रकार का वर्ण-विकार. उत्पन्न होता है। यह ‘वर्ण-विकार’ या ‘वर्ण-परिवर्तन’ परस्पर मेल की दृष्टि से तीन प्रकार का होता है-
(क) जब पहला वर्ण स्वरवर्ण हो
(ख) जब पहला वर्ण व्यंजन (हल) वर्ण हो
(ग) जब पहला वर्ण विसर्गयुक्त हो

2. पहले वर्ण के बाद आनेवाला वर्ण क्रमशः स्वर वर्ण, व्यंजन वर्ण अथवा दोनों में से कोई भी वर्ण हो सकता है। उदाहरणार्थ, नीचे तीन सन्धि-रूप दिए जा रहे हैं-
(क) यदि + अपि :- यद्यपि (पहला वर्ण ‘दि’-इ-स्वरवाला है)
(ख) जगत् + नाथः – जगन्नाथः (पहला वर्ण ‘त्’ व्यंजन वर्ण है)
(ग) मनः + रथः – मनोरथः (पहला वर्ण ‘न’ विसर्गवाला हैं)

3. उपर्युक्त ‘वर्ण-विकार’ के तीन रूपों के कारण ही ‘सन्धि’ के तीन प्रकार माने जाते हैं-
(क) स्वरसन्धि
(ख) व्यंजनसन्धि
(ग) विसर्गसन्धि

(i) स्वर-सन्धिः

(क) दीर्घ-सन्धिः
समान वर्ण परे होने पर, अक् (अ, आ, ई, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ) वर्गों के स्थान पर एक वर्ण, किन्तु दीर्घ स्वर (आ, ई, ऊ, ऋ) आदेश हो जाता है।

1. अ से परे अ हो तो दोनों के स्थान पर आ हो जाता है-अ + अ = आ। जैसे-
मुर + अरिः म मुरारिः
क्व + अपि = क्वापि
प्र + अभवत् = प्राभवत्
सुख + अन्तः = सुखान्तः
एक + अक्षरः = एकाक्षरः
शक + अरिः = शकारिः
लाभ + अलाभौ = लाभालाभौ
दैत्य + अरिः = दैत्यारिः
जय + अजयौ = जयाजयौ
सुर + असुराः = सुरासुराः
हिम + अंशुः = हिमांशुः
शश + अंकः = शशांकः

2. अ (हस्व) से परे आ (दीर्घ) हो तो दोनों के स्थान पर आ हो जाता है-अ + आ = आ। जैसे-
देव + आलयः = देवालयः
तव + आशा = तवाशा
पुस्तक + आलयः = पुस्तकालयः
मम + आशा = ममाशा
हिम + आलयः = हिमालयः
तव + आदरः = तवादरः
शिव + आलयः = शिवालयः
परम + आनन्दः = परमानन्दः
धन + आदेशः = धनादेशः
पद्म + आकरः = पद्माकरः
रत्न + आकरः = रत्नाकरः
राम + आश्रयः = रामाश्रयः

3. आ (दीर्घ) से परे अ (हस्व) हो तो दोनों के स्थान पर आ हो जाता है- आ + अ = आ।जैसे-
तथा + अपि = तथापि
विद्या + अरण्यः = विद्यारण्यः
सा + अपि = सापि
महा + अर्घः = महाघः
विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
सीता अस्ति = सीतास्ति
महा + असुरः = महासुरः
लता + अत्र = लतात्र
रमा + अगच्छत्. = रमागच्छत्
का + अद्य = काद्य

4. आ (दीर्घ) से परे आ (दीर्घ) हो तो दोनों के स्थान पर आ (दीर्घ) हो जाता है-आ + आ = आ। जैसे-
घोरा + आकृतिः = घोराऽऽकृतिः
चिकित्सा + आलयः = चिकित्सालयः
‘सीता + आगता = सीतागता
विद्या + आलयः = विद्यालयः
दया + आनन्दः = दयानन्दः
महा + आशयः = महाशयः
विद्या + आतुरः – विद्यातुरः
सुधा + आकरः = सुधाकरः

5. इ (हस्व) के परे ई (दीर्घ) होने पर दोनों को मिलाकर दीर्घ ई होता है-ई + इ = ई।जैसे-
इति + इव = इतीव
मुनि + इन्द्रः = मुनीन्द्रः
कवि + इन्द्रः = कवीन्द्रः
रवि + इन्द्रः = रवीन्द्रः
अभि + इष्टः = अभीष्टः
वारि + इति = वारीति

6. इ (हस्व) के परे ई (दीर्घ) होने पर दोनों के स्थान पर दीर्घ ई हो जाता है-इ + ई = ई।जैसे-
मुनि + ईशः = मुनीशः
प्रति + ईक्षा = प्रतीक्षा
कपि + ईशः = कपीशः
अभि + ईप्सितम् = अभीप्सितम्
अभि + ईक्षते = अभीक्षते
परि + ईप्सितम् = परीक्षा
क्षिति + ईशः = क्षितीशः
कवि + ईश्वरः = कवीश्वरः

7. ई (दीर्घ) के परे इ (हस्व) होने पर दोनों के स्थान में दीर्घ ई होता है-ई + इ = ई।जैसे-
लक्ष्मी + इन्द्रः = लक्ष्मीन्द्रः
मही + इन्द्रः = महीन्द्रः
नदी + इव = नदीव
देवी + इयम् = देवीयम्
राज्ञी + इह = राज्ञीह
महती + इच्छा = महतीच्छा

8. ई (दीर्घ) के परे ई (दीर्घ) हो, तो भी दोनों के स्थान पर ई (दीर्घ) आदेश हो जाता है-ई + ई = ई। जैसे-
श्री + ईशः = श्रीशः
लक्ष्मी + ईश्वरः = लक्ष्मीश्वरः
मही + ईशः = महीशः
महती + ईहा = महतीहा

9. उ (हस्व) के परे उ (हस्व) होने पर, दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) आदेश हो जाता है-उ + उ = ऊ। जैसे-
भानु + उदयः = भानूदयः
गुरु + उपदेशः = गुरूपदेशः
इन्दु + उदयः = इन्दूदयः
सु + उक्तिः = सूक्तिः
पृथु + उदक: = पृथूदकः
लघु + उपदेशः = लघूपदेशः

10. उ (हस्व) के परे ऊ (दीर्घ) होने पर, दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) आदेश हो जाता है-3 + ऊ = ऊ। जैसे-
लघु + ऊर्मिः = लघूमिः
सिन्धु + ऊर्मिः = सिन्धर्मिः
साधु + ऊचुः = साधूचुः :
विधु + ऊर्ध्वम् = विधूर्ध्वम्

11. ऊ (दीर्घ) के परे उ (हस्व) होने पर, दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) हो जाता है-ऊ + उ = ऊ। जैसे-
वधू + उत्सवः = वधूत्सवः
वधू + उपदेशः = वधूपदेशः
वधू + उपरि = वधूपरि
वधू + उक्तिः = वधूक्तिः

12. ऊ (दीर्घ) के परे ऊ (दीर्घ) होने पर दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) हो जाता है-ऊ + ऊ = ऊ। जैसे-
भू + ऊर्ध्वम् = भूर्ध्वम्
विशेष- ऋ से परे यदि ल हो तो वहाँ भी दोनों के स्थान में दीर्घ ऋ हो जाती है। जैसे-होत + लकारः = होतृकारः (होत्लुकारः, होतृलकारः भी रूप बनता है।)
परन्तु हृस्व ऋ से हृस्व ऋ के परे होने पर दोनों के स्थान पर दीर्घ ऋ विकल्प से होती है। जैसे-
पितृ + ऋणम् = पितृणम्।
होतृ + ऋकारः = होतृकारः, होतृकारः।
दीर्घ-सन्धि के अपवादकुल-
कुल + अटा = कुलटा
मार्त + अण्डः = मार्तण्डः
सीम + अन्तः = सीमन्तः
सार + अङ्गः = सारङ्गः
शक + अन्धुः = शकन्धुः
कर्क + अन्धुः = कर्कन्धुः

(ख) गुण-सन्धिः

अ या आ के अनन्तर हस्व या दीर्घ इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ तथा लु आवे तो दोनों के स्थान . पर क्रमशः ए, ओ, अर्, अल् आदेश हो जाते हैं। (अ, ए, ओ, गुण स्वर कहलाते हैं इसलिए इस सन्धि को गुण सन्धि कहते हैं।)

1. हस्व अ के बाद ह्रस्व इ परे होने पर, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है-अ + इ = ए। जैसे-
नर + इन्द्रः = नरेन्द्रः
तव + इति = तवेति
उप + इन्द्रः = उपन्द्र
मम + इव = ममेव
हित + इच्छुः = हितेच्छुः
तस्य + इति = तस्येति
धीर + इन्द्रः – धीरेन्द्रः
वीर + इन्द्रः = रमेश्वरः

2. ह्रस्व अ के बाद दीर्घ ई परे होने पर, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है-अ + इ :- ए। जैसे-
नर + ईशः = नरेशः
परम + ईशः = परमेशः
खग + ईशः = खगेशः
मम + ईप्सितम् = ममेप्सितम्:
सुर + ईशः = सुरेशः
राम + ईश्वरः = रामेश्वरः

3. दीर्घ आ के पश्चात् ह्रस्व इ होने पर, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है-आ + इ = ए। जैसे-
महा + इन्द्रः = महेन्द्रः
सखा + इति = सखेति
रमा + इच्छा = रमेच्छा
सखा + इव = सखेव
रमा + इति = रमेति
गङ्गा + इति = गङ्गेति
यथा + इष्ट: = यथेष्टः
लता + इव = लतेव

4. दीर्घ आ के परे दीर्घ ई होने पर भी, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है-आ + ई = ए। जैसे-
महा + ईशः = महेशः
रमा + ईशः = रमेशः
यथा + ईप्सितम् = यथेप्सितम्
महा + ईश्वरः = महेश्वरः

5. ह्रस्व अ के परे हृस्व उ होने पर दोनों के स्थान में ओ (गुण) आदेश हो जाता है-अ + उ = ओ। जैसे-
सूर्य + उदयः = सूर्योदयः
हित + उपदेशः = हितोपदेशः
नर + उत्तमः = नरोत्तमः
पुरुष + उत्तमः = पुरुषोत्तमः
सर्व + उदयः = सर्वोदयः
चन्द्र + उदयः = चन्द्रोदय:

6. ह्रस्व अ के पश्चात् दीर्घ ऊ होने पर, दोनों के स्थान में ओ (गुण) आदेश हो जाता है-अ + ऊ = ओ। जैसे-
जल + ऊर्मिः = जलोमिः
कृष्ण + ऊरुः = कृष्णोरुः
सुयोधन + ऊरु: = सुयोधननोरुः
नव + ऊढा = नवोढा

7. दीर्घ आ के पश्चात् हृस्व उ होने पर, दोनों के स्थान में ओ (गुण) आदेश हो जाता है आ + उ = ओ। जैसे-
गंगा + उदकम् = गंगोदकम्
परीक्षा + उत्सुकः = परीक्षोत्सुकः
यथा + उच्चकैः = यथोच्चकैः
यथा + उचितम् = यथोचितम्

8. दीर्थ आ के पश्चात् दीर्घ ऊ होने पर भी दोनों के स्थान में ओ (गुण) आदेश हो जाता है- आ + ऊ = ओ। जैसे
महा + उरुः = महोरु
गङ्गा + उर्मिः = गङ्गोर्मिः
दया + ऊर्मि = दयोर्मि
लता + ऊर्ध्वम् = लतोर्ध्वम्

9. ह्रस्व अ से परे ऋ होने पर दोनों के स्थान पर अर् आदेश हो जाता है-अ + ऋ = अर्।जैसे-
कृष्ण + ऋद्धि = कृष्णर्द्धिः
देव + ऋषि = देवर्षिः
वसन्त + ऋतुः = वसन्तर्तुः
ग्रीष्म + ऋतुः = ग्रीष्मर्तुः
सप्त + ऋषिः = सप्तर्षिः
हेमन्त + ऋतुः = हेमन्तर्तुः

10. दीर्घ आ के परे ऋ होने पर भी दोनों स्थान पर अर् आदेश होता है-आ + ऋ = अर्। जैसे-
महा + ऋषिः = महर्षिः
वर्षा + ऋतुः = वर्षर्तुः
महा + ऋद्धिः = महर्द्धिः
राजा + ऋषिः = राजर्षिः

11. अ (हस्व) के बाद ल होने पर दोनों के स्थान में अल् आदेश होता है-अ + ल = अल्। जैसे-
तव + लकारः = तवल्कारः
मम + लकारः = ममल्कारः

12. दीर्घ आ के बाद ल होने पर दोनों के स्थानों में अल् आदेश होता है-आ + ल = अल्। जैसे-
माला + लृकार = मालल्कारः
शाला + लृकार:  = शालल्कार:

गुण सन्धि के अपवाद-
अक्ष + ऊहिनी = अक्षौहिणी (न् ® ण) प्र + ऊढः = प्रौढ़
उप + ऋच्छति = उपाच्छति प्र + ऋच्छति = प्रार्छति
सुख + ऋतः = सुखार्तः (तृतीया तत्पुरुष समास होने पर)
दुःख + ऋत = दुःखार्तः (तृतीया तत्पुरुष समास होने पर)
पिपासा + ऋतः = पिपासातः

(ग) वृद्धि-सन्धिः
अ अथवा आ के अनन्तर यदि ए या ऐ हो तो दोनों के स्थान पर ऐ हो जाता है और यदि ओ, या औ हो तो दोनों के स्थान पर औ हो जाता है। इस सन्धि को वृद्धि सन्धि कहते हैं। (ऐ – तथा औ वृद्धि स्वर कहलाते हैं)-

1. अ + ए = ऐ
एक + एकशः = एकैकशः
कृष्ण + एकत्वम् = कृष्णैकत्वम्
तव + एव = तवैव
तेन + एकः = तेनैकः

2. आ + ए = ऐ
तथा + एव = तथैव
मया + एव = मयैव
सा + एव = सैव
सदा + एव = सदैव
तदा + एव = तदैव
बाला + एका = बालैका

3. अ + ऐ = ऐ
मत + ऐक्यम् = मतैक्यम्
देव + ऐश्वर्यम् = देवैश्वर्यम्
इन्द्र + ऐरावतौ = इन्द्ररावतौ
परम + ऐश्वर्यम् = परमैश्वर्यम्
राम + ऐश्वर्यम् = रामैश्वर्यम्
गण + ऐक्यम् = गणैक्यम्

4. आ + ऐ = ऐ
महा + ऐरावतः = महैरावतः
तथा + ऐश्वर्यम् = तथैश्वर्यम्
धारा + ऐक्यम् = धारैक्यम्
महा + ऐश्वर्यम् = महेश्वर्यम्

5. अ + औ = औं
च + ओघबलान् = चौघबलान्
भव + ओषधम् = भवौषधम्
जल + औषः = जलौघः
जन + ओघः = जनौघः

6. आ + औ = औ
महा + ओघः = महौघः
विद्या + ओजः = विद्यौजः
महा + ओषधम् = महौषधम्
महा + ओषधिः = महौषधिः

7. अ + औ = औ
धर्म + औत्सुक्यम् = धर्मोत्सुक्यम्
तव + औदार्यम् = तवौदार्यम्

8. आ + औ = औ
महा + औदार्यम् = महौदार्यम्
विद्या + औत्सुक्यम् = विद्यौत्सुक्यम्

वृद्धि सन्धि के अपवाद-
प्र + एजते = प्रेजते (पररूपम्)
उप + ओषति = उपोषति (पररूपम्)
अधर + ओष्ठः = अधरोष्ठः, अधरौष्ठः
बिम्ब + ओष्ठः = बिम्बोष्ठः, बिम्बौष्ठः

(घ) यण-सन्धिः
हृस्व या दीर्घ इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु (इक्) के अनन्तर कोई असवर्ण स्वर. (अच्) आए तो. इ, उ, ऋ लु के स्थान पर क्रमशः य, व, र, ल् (यण्) हो जाते हैं।

1. इ + असमान वर्ण (इ, ई से भिन्न स्वर) = य् + असमान वर्ण
यदि + अपि = यद्यपि
इति + आदि = इत्यादि
इति + उवाच = इत्युवाच
इति + ऊचुः = इत्यचुः
इति + ऋषिः = इत्यृषिः
प्रति + एकम् = प्रत्येकम्
मुनि + ऐक्यम् = मुन्यैक्यम्
वारि + ओघः = वार्योघः
इति + औदार्यम् = इत्यौदार्यम्

2. ई + असमान वर्ण (इ, ई से भिन्न स्वर) = य् असमान वर्ण
नदी + अत्र = नद्यत्र
नदी + आकृतिः = नद्याकृतिः
देवी + उवाच = देव्युवाच
पृथ्वी + ऊर्ध्वम् = पृथ्व्यूर्ध्वम्
देवी + ऋद्धिः = देव्यृद्धिः
मही + एका = मह्येका
महती + एषणा = महत्येषण
देवी + एक्यम् = देव्यैक्यम्
गोदावरी + ओघः = गोदावोघः
सखी + औदार्यम् = सख्यौदार्यम्
सरस्वती + औत्सुक्यम् = सरस्वत्यौत्सुक्यम् .
सुधी + उपास्यः = सुध्युपास्यः

3. उ + असमान वर्ण (उ, ऊ से भिन्न स्वर) = व् + असमान वर्ण
मधु + अरिः = मध्वरिः
अनु + अयः =क अन्वयः
गुरु + आदेशः = गुर्वादेशः
सु + आगतम् = स्वागतम्
साधु + इति = साध्विति
रिपु + ईशः = रिप्वीशः
गुरु + ऋद्धिः = गुर्वृद्धिः
गच्छतु + एकः = गच्छत्वेकः
अनु + एषणम् = अन्वेषणम्
गुरु + एकत्वम् = गुर्वेकत्वम्
धनु + एक्यम् = धेन्वैक्यम्
सिन्धु + ओघः = सिन्ध्वोघः
शत्रु + औदार्यम् = शञ्चौदार्यम्

4. ऊ + असमान वर्ण (उ, ऊ से भिन्न स्वर)
व् + असमान वर्ण
वधू + आदेशः = वध्वादेशः
चमू + आगमनम् = चम्वागनम्
वधू + आज्ञा = वध्वाज्ञा

5. ऋ + असमान वर्ण (ऋ, ऋ से भिन्न स्वर) = र् + असमान वर्ण
भ्रातृ + अंशः = भ्रात्रंशः
पितृ + उपदेशः = पित्रुपदेशः
मात + ‘अंशः = मात्रंशः
‘पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञाः
मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा
दातृ + ईशः = दात्रीशः
पितृ + आदेशः = पित्रादेशः.
धातृ + औदार्यम् = धात्रौदार्यम्

6. ल् + असमान वर्ण (ल से भिन्न पर) = ल् + असमान वर्ण
ल + आकृतिः = लाकृतिः
लु + आकारः = लकारः

(ङ) अयादि-सन्धिः
अयादि का अर्थ है अय, अव्, आय तथा आव्। यदि पूर्ववर्ण ए, ओ, ऐ तथा औ (एच) हो तो परवर्ण कोई भी स्वर (अच्) हो तो पूर्ववर्ण ए, ओ, ऐ तथा और (एच) के स्थान पर क्रमशः अय, अव्, आय तथा आव् (अयादि) हो जाते हैं।

1. ए + कोई स्वर = अय् + कोई स्वरः
ने + अति = न् + अय् + अति = नयति
हरे + ए = हर् + अय् + ए = हरये
प्रयोगः- सः अजां गृहं नयति (ने + अति)।

2. ओ + कोई स्वर = अव् + कोई स्वरः
भो + अति = भ् + अव् + अति = भवति
पो + अन् = प् + अव् + अन् = पवनः
विष्णो + ए = विष्ण + अव् + ए = विष्णवे
प्रयोगः-ईश्वरः सर्वत्र भवति (भो + अति)।

3. ऐ + कोई स्वर = आय् + कोई स्वरः
नै + अकः = न् + आय् + अकः = नायक
ग्लै + अति = ग्ल् + आय् + अति = ग्लायति
प्रयोगः-उदयनः नाटकस्य नायकः (नै + अक:) अस्ति।

4. औ + कोई स्वर = आव् + कोई स्वरः
रौ + अनः = र् + आव् + अनः = रावणः
(र के बाद न् को ण् हो जाता है)
पौ + अकः = प् + आव् + अकः = पावकः
द्वौ + अपि = द्व + आव् + अपि = द्वावपि
नौ + इकः = न् + आव् + इकः = नाविकः
भौ + उकः = भ् + आव् + उकः = भावुकः
प्रयोगः-मम पिता अतीव भावुकः (भौ + उक:) अस्ति।

उपर्युक्त आयादि-सन्धि के अन्तर्गत एक और नियम होता है, जिसके अनुसार किसी पद के अन्त में य, व, हों और उनसे ठीक पहले अ या आ हो और बाद में अश् (= सभी स्वर, ह, य, र, ल, व्, वर्गों के तीसरे, चौथे तथा पाँचवें वर्ण) हों तो य और व् का लोप हो जाता है, किन्तु यह लोप विकल्प से होता है।

हरे + इह = हर् + अय् + इह (अयादेश) हर् + अ + इह = हर इंह, हरयिह
ते + आगच्छन्ति = आगच्छन्ति, तयागच्छन्ति
ते + आसन् = तयासन्, त आसन्
के + आगच्छन् = कयागच्छन्, क आगच्छन्
श्रियै + उत्सुकः = श्रिया उत्सुकः, श्रियायुत्सुकः
श्रियै + अभिलाषः = श्रियायभिलाषः, श्रिया अभिलाषः
अस्यै + इमानि = अस्या इमानि, अस्यायिमानि
वटो + ऋक्षः = वट ऋक्षः वटवृक्षः
प्रभो + आगच्छ = प्रभावगच्छ, प्रभ आगच्छ
गुरो + आयाहि = गुर आयाहि, गुरवायाहि
ऋतौ + अन्नम् = ऋता अन्नम्, ऋतावन्नम्
धेनौ + आगतायाम = धेनावागतायाम्, धेना आगतायाम्
शिशिरवसन्तौ + इह = शिशिरवसन्ता इह, शिशिरवसन्ताविह
रात्रौ + आगतः = रात्रा आगतः, रात्रावागतः
द्वौ + अपि = द्वा अपि, द्वावपि

किन्तु यदि ओ या औ के अनन्तर ऐसा प्रत्यय हो जिसका आदि वर्ण य् हो तो ओ, औ के स्थान पर अव्, आव् हो जाते हैं। जैसे-
गो + यम् = गव्यम्
नौ + यम् = नाव्यम्
सन्धिविच्छेद के उदाहरण
उभावपि, उभा अपि = उभौ + अपि
रात्रावागतायाम्, रात्रा आगतायाम् = रात्रौ + आगतायाम्
तावत्र, ता अत्र = तौ + अत्र
द्वावपि, द्वा अपि = द्वौ अपि
कन्यायासनम्, कन्याया आसनम् = कन्यायै + आसनम्
मुनावासीने, मुना आसीने = मुनौ + आसीने
कयागच्छन्, क आगच्छन् = के + आगच्छन्
हरयिह, हर इह = हरे + इह
विष्णविह, विष्ण इह = विष्णो + इह
शत्रावागते, शत्रा आगते = शत्रौ + आगते
कवयेहि, कव एहि = कवे + एहि
नाववतु, ना अवतु = नौ + अवतु

सन्धि के उदाहरण
द्वौ + अपि = द्वावपि, द्वा अपि
कस्मै + इति = कस्मायिति, कस्मा इति
नद्यै + इह = नद्यायिह, नद्या इह
कवे + एहि = कवयेहि, कव एहि
हरे + इह = हरयिह, हर इह ।
‘प्रभो + एहि = प्रभविह, प्रभ इह प्रयोगः-
(i) उभा अपि/उभावपि (उभौ + अपि) मुखौं स्तः।
(ii) विष्ण इह/विष्णविह (विष्णो + इह) शीघ्रम् अवतरतु।

अयादि-सन्धिः-तालिका

पूर्ववर्णः . परवर्णः विकारः
Bihar Board 12th Sanskrit Grammar Important Questions Part 2 1
प्रयोगः-सः अजां गृहं नयति (ने + अति)।
प्रयोगः-ईश्वरः सर्वत्र भवति (भो + अति)।
पदान्त-
ए, ऐ, ओ, औ से युक्त
1. हरे = हर् + ए = हर + अय् ।
2. श्रियै = श्रिय् + ऐ = श्रिय + आय्
3. प्रभो = प्रभ् + ओ = प्रभ् + अव्
4. गुरौ = गुर् + औ = गुर् + आव्

पदान्त
अय्, आय, अव् आव् से युक्त
हरय् श्रियाय् प्रभव् गुराव्

पदान्त
अन्तिम वर्ण य-व के लोप से युक्त
हर श्रिया प्रभ गुरा

सन्धि
वैकल्पिक रूप में पुनः सन्धि नहीं होती
हरे + आगच्छ =
हरय + आगच्छ = हरयागच्छ
हर + आगच्छ = हर आगच्छ
श्रियै + अभिलाषाः =
श्रियाय् + अभिलाषः = श्रियायभिलाषः
श्रिया + अभिलाषः = श्रिया अभिलाष:
प्रभो + आगच्छ =
प्रभव् + आगच्छ = प्रभवागच्छ
प्रभ + आगच्छ = प्रभ आगच्छ
गुरौ + जागते =
गुराव् + जागते = गुरावागते
गुरा + आगते = गुरा आगते

विशेष-(1) तथा (3) उदाहरणों में परवर्ण आ (आगच्छ) है, इसलिए यहाँ अयादि सन्धि हुई है। यदि परवर्ण अ होता है तो यहाँ पूर्वरूप सन्धि का नियम लागू होता है।

(च) पूर्वरूप-सन्धिः .
यह ‘अयादि-सन्धि का अपवाद है। पूर्वरूप-संधि के अनुसार पदान्त (पद के अन्त) में ए या ओ होने पर और उसके बाद हृस्व अ होने पर अयादि सन्धि का नियम लागू नहीं होता अपितु अ को पूर्वरूप हो जाता है। पूर्वरूप होने पर वह अ पहले शब्द के अंतिम स्वर में बिना परिवर्तन के मिल जाता है तथा उसकी सूचना मात्र के लिए 5 (अवग्रह) चिह्न लगा दिया जाता है। जैसे-
हरे + अव = हरेऽव (हे हरि, रक्षा कीजिए)
को + अत्र = कोऽत्र (यह कौन है)
अरण्ये + अगच्छत् = अरण्येऽगच्छत् (वन में गया)
पूर्वरूप सन्धि के उदाहरण
सामवेदो + अस्मि = सामवेदोऽस्मि
कीटो + अपि = कीटोऽपि
के + अपि = केऽपि
वने. + अस्मिन् = वनेऽस्मिन्
‘प्रभो + अव = प्रभोऽव
पुस्तके +. अत्र = पुस्तकेऽत्र
देशे + अभाव = देशेऽभावः.
विष्णो + अत्र = विष्णोऽत्र
विभो + अस्मान् = विभोऽस्मान्
सेवते + अधुना = सेवतेऽधुना
मोदे + अहम् = मोदेऽहम्
लज्जते + अयम् = लज्जतेऽयम्
गृहे + अपि = गृहेऽपि
साधो + अत्र = साधोऽत्र
प्रभो + अनुग्रहः = प्रभोऽनुग्रहः
त्यागे + अपि = त्यागेऽपि
परिणामे + अमृतम् = परिणामेऽमृतम्
सर्वे + अस्मिन् = सर्वेऽस्मिन्

विशेष-अयादि सन्धि में पदान्त में ए या ओ होने पर परवर्ण अ से भिन्न होना चाहिए, किन्तु यदि पदान्त में ऐ अथवा औ वर्ण हो तो परवर्ण के रूप में कोई स्वर हो, भले ही ‘अ’ भी क्यों न हो तो वहाँ अयादि सन्धि का नियम लागु होगा। वहाँ पर पूर्वरूप सन्धि का नियम लागू नहीं होगा।
Bihar Board 12th Sanskrit Grammar Important Questions Part 2 2
प्रयोगः-
(i) गृहेऽपि (गृहे + अपि) मूषकाः सन्ति।
(ii) देशेऽभावः (देशे + अभाव:) नास्ति कस्याचित् पदार्थस्य।
(ii) व्यञ्जन-सन्धिः

1. परसवर्ण-सन्धि
(क) अपदान्त अनुस्वार के अनन्तर यय् [क्, ख, ग, घ, ङ, च्, छ्, ज, झ्, ज, ट, ठ, · ड्, द, ण, त्, थ्, द्, ध्, न्, प, फ, ब, भ, म्, य, र, ल, व्-ये 29 वर्ण यय् कहलाते हैं। वर्णों में से कोई एक वर्ण हो तो अनुस्वार का परवर्ण के वर्ग का पाँचवाँ वर्ण (पर-सवर्ण, ङ्, ञ्, ण, ण, न्, म्) हो जाता है। जैसे-

(i) पूर्ववर्ण अपदान्त अनुस्वार हो तथा परवर्ण कवर्ग (क्, ख, ग, घ, ङ) में से कोई सा + वर्ण हो तो अनुस्वार के स्थान पर ‘ङ्’ (कवर्ग का पाँचवाँ वर्ण) हो जाता है। उदाहरणानि-
अं+ कः = अंङ् + कः = अंङ्कः
अं+ कितः = अङ् + कितः = अङ्कितः
प्रे + खणम् = प्रेङ् + खणम् = प्रेङ्खणम्
अं+ गम् = अंङ् + गम् = अङ्खणम्
सं + घः = सङ् + घः = सङ्घः
सं + ङकार = सङ् + ङकारः = सङकारः

प्रयोगः-
(i) सङघे (सं + घे) शक्तिः कलौ युगे।
(ii) तेन शतप्रतिशतम् अङ्काः (अं + काः) प्राप्ताः।
(iii) पूर्ववर्ण अपदान्त अनुस्वार हो तथा परवर्ण चंवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ्) में से कोई वर्ण . हो तो अनुस्वार के स्थान पर चवर्ग का पञ्चम वर्ण ‘ब्’ हो जाता है। उदाहरणानि-
पं + चमः = पञ् + चम्ः = पञ्चमः
सं + छादनम् = सञ् + छादनम् = सञ्छादनम्
सं + जयः = सञ् + जयः = सञ्जयः
झं + झावातः = झञ् + झावात् = झञ्झावातः
सं + बकारः = सञ् + अकारः = सञ्जकारः

प्रयोगः-
(i) कोकिलस्य स्वरः पञ्चमः (पं + चमः) भवति।
(ii) सञ्जय (सं + जयः) उवाच।
(iii) पूर्ववर्ण अपदान्त अनुस्वार हो तथा परवर्ण टवर्ग (ट्, ठ्, ड्, द, ण) में से कोई वर्ण हो तो अनुस्वार के स्थान पर टवर्ग का पञ्चम वर्ण ‘ण’ हो जाता है। उदाहरणानि-
क + टकः = कण् + टकः = कण्ठक
क + ठः = कण + ठः = कण्ठः
दं + डः = दण् + डः = दण्डः
ढं + ढमः = ढण् + ढमः = ढण्ढम
सं+ णकारः = सण + णकारः = अण्णकारः

प्रयोगः-
(i) सः दण्डं (दं + डं) गृहीत्वा आगतः
(ii) तस्य मधुरः कण्ठः (कं + ठः) अस्ति।
(iii) पूर्ववर्ण अपदान्त अनुस्वार हो तथा परवर्ण तवर्ग (त, थ्, द, ध्, न्) में से कोई वर्ण हो तो अनुस्वार के स्थान पर तवर्ग का पञ्चम वर्ण ‘न्’ हो जाता है। उदाहरणानि-
शां + तः = शान् + त् = शान्तः
मं+ थनम् = मन् + थनम् = मन्थनम्
बिं + दुः = बिन् + दुः = बिन्दुः
सिं + धुः = सिन् + धुः = सिन्धुः
सं + नद्धः = सन् + नद्धः = सन्नद्धः

प्रयोगः-
(i) शान्तं (शां + तं) पापम्।
(ii) अयं विशाल: सिन्धुः (सिं + धुः) अस्ति।
(iii) पूर्ववर्ण अपदान्त अनुस्वार हो तथ. परवर्ण पवर्ग (प, फ, ब, भ्, म्) में से कोई हो तो अनुस्वार के स्थान पर पवर्ग का पञ्चम वर्ण ‘म्’ हो जाता है। उदाहरणानि-
सं + पन्नः = सम् + पन्नः = सम्पन्न:
गुं + फितः = गुम् + फितः = गुम्फितः
सं + बभूव = सम् + बभूव = सम्बभूवः
सं + भारः = सम् + भारः = सम्भारः
सं+ मानम् = सम् + मानम् = सम्मानम्

प्रयोगः-
(i) कार्यक्रमः शीघ्रं सम्पन्न (सं + पन्न:) अभवत्।
(ii) गुरुणां सम्मानं (सं + मानं) कुरु।
विशेष:- यदि पूर्ववर्ण पदान्त का अनुस्वार हो तथा परवर्ण यय् हो तो अनुस्वार के स्थान : पर वर्ग का पञ्चम वर्ग विकल्प से होता है। उदाहरणानि-
त्वं + करोषि = त्वं करोषि, त्वङ्करोषि
अयं + खादति = अयं खादति, अयखादति
अहं + गदामि = अहं गदामि, अहङ्गदामि
वयं + घोषयामः = वयं घोषयामः, वयङ्घोषयामः
अयं + ङवते = अयं ङ्वते, अंयङवते
त्वं + चलसि = त्वं चलसि, त्वञ्चलसि।
सादरं + त्वाम् = सादरं त्वाम्, सादरन्त्वाम्
त्वां + नमामः = त्वं नमामः, त्वान्नमामः
आशिष + देहि = आशिष देहि, आशिषन्देहि
अजय्यां + च = अजय्यां च, अजय्याञ्च
‘सुशीलं + जगत् = सुशीलं जगत्, सुशीलञ्जगत्
ननं + भवेत् = ननं भवेत, नम्रम्भवेत्
श्रुतं + चैव = श्रुतं चैव, श्रुतञ्चैव
नदी + तरति = नदीं तरति, नदीन्तरति
फलं + पतति = फलं पतति, फलम्पतति
सत्यं + ब्रूते = सत्यं ब्रूते, सत्यम्ब्रूते
शत्रु + जयति = शत्रु जयति, शत्रुञ्जयति
नगरं + गच्छति = नगरं गच्छति, नगरङ्गच्छति
किं+ करोषि = किं करोषि, किङ्करोषि
गुरुं + नमति = गुरुं नमति, गुरुन्नमति

प्रयोग:-
(i) अजय्यां च/अजय्याञ्च (अजय्यां + च) विश्वस्य देहीश शक्तिम्।
(ii) सुशीलं जगधेन/सुशीलञ्जगद्येन (सुशीलं + जगद्येन) ननं भवते। .

2. छत्व-सन्धिः (श् → छ)
वर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्गों में से कोई वर्ण पूववर्ण, हो तथा परवर्ण ‘श्’ हो तथा श् वर्ण से परे कोई स्वर अथवा य, र, ल, व्, ह, ङ्, ञ्, ण, न्, म्, वर्णों वर्ण हो तो श् वर्ण के स्थान पर विकल्प से ‘छु’ वर्ण हो जाता है। उदाहरणानि-

(क) पूर्वपद का अन्तिम वर्ण-क/ख/ग्/घ्
उत्तरपद का आदि वर्ण -श्
शकार (श्) के बाद का वर्ण-स्वर/य/र/ल्/व्/ह्/ङ्/ज्/ण्/न/म्

विकार श् के स्थान पर विकल्प से छ
यथा-वाक + शरः – वाक्शरः. वाक्छर:
प्राक + शरः प्राक्शरः, प्राक्छर:

प्रयोगः-
वाक्शर:/वाक्छरः (वाक् + शरः) श्रात् तीव्रतरः भवति।
(ख) पूर्वपद का अन्तिम वर्ण-त्/थ्/ /ध्
उत्तरपद का आदि वर्ण श्
शकार (श्) के बाद का वर्ण-स्वर/य, र, ल, व, ह, ङ, बु, ण, न, म्
विकार-पूर्ववर्ण त् के स्थान पर च्, तथा परवण् श् के स्थान पर छ्
यथा-तत् + शरण – तच्शरेण, तच्छरेण
तत् + श्रुत्वा में तच्छुत्वा
तत् + शत्रुः = तच्शत्रु, तच्छत्रुः
तत् + श्लोकेन = तच्श्लोकेन, तच्छलोकेन
तत् + शिवः = तच्शिवः, तच्छिवः
एतत् + श्रुत्वा = एतच्श्रुत्वा, एतच्छुत्वा
एतत् + शङ्करैण = एतच्शङ्करेण, एतच्छङ्करेण
जगत् + शिवानि = जगत्शिवानि, जगच्छिवानि
मत् + शिरः – मत्शिरः, मच्छिरः
जगत् + शत्रुः – जगच्शत्रुः, जगच्छत्रुः
तत् + शान्तिः = तच्शान्तिः, तच्छान्तिः
सत् + शीलः मम सच्शीलः, सच्छील:
श्रीमत् + शरच्चन्द्रः श्रीगच्शरच्चन्द्रः, श्रीमच्छरच्चन्द्रः .
उत् + श्रितम् = उच्श्रितम्, उच्छ्तिम् ..
त्यागात् + शान्तिः = त्यागाच्शान्तिः, त्यागाच्छान्तिः
एतत् + शक्यम् = एतच्शक्यम्, एतच्छक्यम्
उत् + श्वासः = उच्श्वासः, उच्छ्वास::
हृत् + शान्तिः = हृच्शान्तिः, हृच्छान्तिः।
प्रयोगः-
(i) अहं मत्शिर:/मच्छिरः (मत् + शिरः) ददामि।
(ii) तस्य कर्माणि जगत्शिवानि/जगच्छिवानि (जगत् + शिवानि) सन्ति।

3. तुक-आगमः-सन्धिः (‘च’ वर्ण का आगम)
हस्व स्वर से परे छ होने पर छ से पहले च् जोड़कर छ के स्थान पर ‘च्छ्’ कर दिया जाता है।
हृस्वस्वर + छ = हस्वस्वर + च्छ
तरु + छाया = तरुच्छाया
स्व + छः = स्वच्छः
तुक-आगमः-सन्धिः के अन्य उदाहरण-
वृक्ष + छाया = वृक्ष + च् + छाया = वृक्षच्छायाः
स्व + छन्दः = स्व + च् + छन्दः = स्वच्छन्दः
स्व + छत्रम् = स्व + च् + छत्रम् = स्वच्छत्रम्
शिव + छाया = शिव + च् + छाया = शिवच्छाया
गज + छाया = गज + च् + छाया = गजच्छाया
स्निग्ध + छाया = स्निग्ध + च् + छाया = स्निग्धच्छाया
अनु + छेदः = अनु + च् + छेदः = अनुच्छेदः
वि + छेदः = वि + च् + छेदः = विच्छेदः
तरु + छायायाम् = तरु + च् + छायायाम् = तरुच्छायायाम्
परि + छेदः = परि + च् + छेदः = परिच्छेदः
शुभ + छायः = शुभ + च् + छायः = शुभच्छायः
वि + छित्तिः = वि + च् + छित्तिः = विच्छित्तिः
प्र + छादनम् = प्र + च् + छादनम् = प्रच्छादनम्
एक + छात्रः = एक + च् + छात्रः = एकच्छात्रः

प्रयोगः-
(i) गङ्गायाः जलं स्वच्छं (स्व + छं) भवति।
(ii) ग्रीष्मे तरुच्छाया (तरु + छाया) सुखदा भवति।
विशेष:- पदान्त दीर्घ स्वर से परे यदि छ हो तो छ से पहले च विकल्प से जोड़ा जाता है। जैसे-
लता + छाया = लातच्छाया, लताछाया
लीला + छत्रम् = लीलाच्छत्रम्, लीलाछत्रम्
लक्ष्मी + छाया = लक्ष्मीच्छाया, लक्ष्मीछाया

4. मोऽनुस्वारः
पदान्त् ‘म्’ से परे कोई भी व्यंजन हो तो म् को अनुस्वार हो जाता है। जैसे-
हरिम् + वन्दे = हरिं वन्दे
मधुरम् + हसति = मधुरं हसति
सत्वरम् + याति = सत्वरं याति

किन्तु पदान्त के स्थान पर होने वाले अनुस्वार से परे यदि किसी वर्ग का कोई वर्ण आता है तो उस अनुस्वार हो उसी वर्ग का पाँचवाँ वर्ण विकल्प से हो जाता है। जैसे-
अयम् + कथयति = अयं कथयति, अयङ्कथयति
अयम् + ख्याति = अयं ख्याति, अयङ्ख्याति
अयम् + गदति = अयं गदति, अयङ्गदति
अयम् + घोषयति = अयं घोषयति, अयङ्घोषयति
अयम् + ङ्वते = अयं ङवते, अयङवते
अयम् + चकास्ति = अयं चकास्ति, अयञ्चकास्ति
अयम् + छदयति = अयं छयति, अयछदयति
अयम् + जयति = अयं जयति, अयञ्जयति
अयम् + झर्चति = अयं झर्चति, अयञ्झर्चति
अयम् + बकारम् = अयं अकारम्, अयज्ञकारम्
अयम् + टीकते = अयं टीकते, अयण्टीकते
अयम् + ठकारम् =: अयं ठकारम्, अयण्ठकारम्
अयम् + डमति = अयं डमति, अयण्डमति
अयम् + ढौकत = अयं ढौकते, अयण्ढौकते
अयम् + णकारम् = अयं णकारम्, अयण्णकारम्
अयम् + त्रायते = अयं त्रायते, अयन्त्रायते
अयम् + थर्वति = अयं थर्वति, अयन्थर्वति
अयम् + ददाति = अयं ददाति, अयन्ददाति ..
अयम् + धन्यः = अयं धन्यः, अयन्धन्य
अयम् + नयति = अयं नयति, अयन्नयति
अयम् + पाति = अयं पाति, अयम्पाति
अयम् + फलति = अयं फलति, अयम्फलति
अयम् + बुध्यते = अयं बुध्यते, अयम्बुध्यते
अयम् + भाति = अयं भाति, अयम्भाति
अयम् + मन्यते = अयं मन्यते, अयम्मन्यते
त्वम् + करोषि = त्वं करोषि, त्वङ् करोषि

5. वर्गीयप्रथमाक्षराणां तृतीयवर्णे परिवर्तनम्
किसी शब्द में यदि झल् अर्थात् वर्गों के पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्ण तथा श्, ष, स्, ह हों तथा उसके अनन्तर कोई भी अन्य वर्ण हो तो झलों के जश्. (इसी वर्ग का तीसरा वर्ण अर्थात् ग्, ज्, ड्, द्, ब्) हो जाता है। नियम व्यापक रहने पर भी भाषा में उदाहरण ऐसे ही मिले हैं जिसके अनुसार क्, च्, ट्, त्, पद के अन्त में होते हैं और अनन्तर कोई वर्ण होता है तो इन्हें क्रमशः ग, ज, ड्, , ब हो जाता है। जैसे-
दिक् + अम्बरः = दिगम्बरः क् → ग्
दिक् + गजः = दिग्गजः क् → ग्
वाक् + अर्थो = वागर्थौ क् → ग्
वाक् + ईशः = वागीशः क् → ग्
अच् + अन्तः = अजन्तः व् → ज्
षट् + आननः = षडाननः ट् → ड्
षट् + देवाः = षड्देवाः ट् → ड्
बृहत् + रथः = बृहदथः त् → द्
जगत् + ईशः – जगदीशः त् → द्
महत् + दानम् = महाद्दानम् त् → द्
सत् + आचारः – सदाचारः त् → द्
चित् + आनन्दः = चिदानन्दः त् → द्
सुप् + अन्ताः = सुबन्ताः प् → ब्
अप् + जः = अब्जः प् → ब्
वाक्’ + उत्तमाः = वागुत्तमा क् → ग्
अच् + आदिः = अजादिः च → ज्
जगत् + बन्धुः = जगद्बन्धुः त् → द्
महत्’ + धनम् = महद्धनम् त् → द्
चित् + रूपम् = चिद्रूपम् त् → द्
पृथक् + उच्यते = पृथगुच्यते क् → ग्

6. प्रथमवर्णस्य पञ्चमवणे परिवर्तनम्
नदीम् + तरति = नदी तरति, नदीन्तरति .
पुष्पम् + चिनोति = पुष्पं चिनोति, पुष्पञ्चिनोति
अहम् + करोमि = अहं करोमि, अहङ्करोमि
त्वम् + चलसि = त्वं चलति, त्वञ्चलसि
पत्रम् + तरति = पत्रं तरति।

(iii) विसर्ग सन्धि

विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन की सन्धि, विसर्ग सन्धि कहलाती है। इसके निम्नलिखित प्रमुख प्रकार हैं-
1. सत्व (श, ष, स्)
नियम-(i) विसर्ग (:) के बाद यदि च् या छ हो तो विसर्ग का श्; ट् या ठ् हो तो ए तथा त या थ हो तो स हो जाता है।
उदाहरण-

निः + चलः = निश्चलः (: + च् = श्च्)
शिरः + छेदः = शिरश्छेदः (: + छ = श्छ)
धनु: + टंकारः = धनुष्टंकारः (: + ट् = ष्ट्)
नमः + ते = नमस्ते (: + त् = स्त्)
मनः + तापः = मनस्तापः (: + त् = स्त्)
इतः + ततः = इतस्ततः (: + त् = स्त्)

(ii) विसर्ग के बाद यदि श्, ष् या स् आए तो विसर्ग का क्रमशः श्, ष् या स् हो जाता है या विसर्ग ही रह जाता है। जैसे-
हरिः + शेते = हरिश्शेते (: + श् = श्श्) या हरिः शेते
दु: + शासनः = दुश्शासनः या दुःशासनः
निः + सन्देहः = निस्सन्देहः या निःसन्देहः

(iii) विसर्ग के पहले यदि इ या उ हो और बाद में क्, ख्, या प्, फ् में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग के स्थान में ष् हो जाता है। जैसे-
निः + कपटः = निष्कपटः
दु: + कर्म = दुष्कर्म
चतुः + पात् = चतुष्पात्
निः + फलः = निष्फल:
अपवाद-दु: + खम् = दु:खम्

(iv) गति-संज्ञक नमः और पुरः के बाद. यदि क, ख या प, फ आए तो विसर्ग का स् हो जाता है। जैसे-
नमः + कारः = नमस्कारः (: + क् = स्क्)
पुरः + कारः = पुरस्कारः (: + क् = स्क्)
इसी प्रकार नमस्कारोति, पुरस्करोति।

2. उत्व (उ)
(i) अ: अ = अ + उ (ओ) + अ
नियम-विसर्ग के पहले यदि अ हो और विसर्ग बाद भी अ हो तो विसर्ग के स्थान में उ. होता है। इसके बाद गुण तथा पूर्वरूप हो जाता है।
उदाहरण-
सः + अपि = सोऽपि (अः + अ = अ + उ + अ = ओ + अ = ओऽ)
प्रथमः + अध्यायः = प्रथमोऽयायः (,,)
नृपः । अवदत् = नृपोऽवदत् (,;)

(ii) अ: + घोष व्यंजन = अउ (ओ) + घोष व्यंजन
विसर्ग के पहले यदि अ हो और बाद में कोई घोष व्यंजन (वर्णों के तृतीय, चतुर्थ एवं पञ्चम वर्ण, य, र, ल, व्, ह) हो तो विसर्ग के स्थान में उ हो जाता है।
उदाहरण-तपः + वनम् = तपोवनम् (अः + व् = अ + उ + व् = ओव)
मनः + रथः — मनोरथः
बालः + गच्छति = बालो गच्छति
नमः + वयम् – नमो वयम्

3. रुत्व (र)
नियम-यदि विसर्ग से पहले अ, आ को छोड़ कोई अन्य स्वर हो तथा बाद में कोई स्वर . या घोष व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान में र् हो जाता है।
उदाहरण-मुनिः + अयम् = मुनिरयम् (इः + अ = इर् + अ)
हरिः + आगच्छति हरिरागच्छति (इः आ = इर् + आ)
पितु: + इच्छा = पितुरिच्छा (उ: + इ = उर् + इ)
गुरुः + जयति = गुरुर्जयति (उः + ज् – उर् + ज्)

4. लोप (लोप)
नियम-(i) यदि विसर्ग के पहले अ हो और बाद में अ को छोड़ कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है। (और पुनः वहाँ कोई सन्धि नहीं होती)।
उदाहरण-अतः + एव = अतएव (अः + ए = अ + ए)
नरः + इव = नर इव
सूर्यः + उदेति : = सूर्य उदेति
कुतः + आगतः = कुत आगतः

विशेष-सः और एषः के बाद अ को छोड़ कोई भी वर्ण हो (स्वर या व्यंजन) तो विसर्ग का लोप हो जाता है।
जैसे-स: + पठति = स पठति
सः + करोति = स करोति
एषः + हरिः = एष हरिः
एषः + इच्छति = एष इच्छति
स: + उवाच – स उवाच

(ii) यदि विसर्ग के पहले आ हो और विसर्ग के बाद घोष व्यंजन या कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है।
उदाहरण-छात्रा: + आगच्छति = छात्रा आगछन्ति
अध्यापकाः + वदन्ति = अध्यापका वदन्ति
अश्वाः + धावन्ति == अश्वा धावन्ति
देवाः + रक्षन्तु = देवा रक्षन्तु

स्मरणीयः

एक + अक्षरः = एकाक्षरः
शक + अरिः = शकारिः
लाभ + अलाभौ = लाभालाभौ
दैत्य + अरिः = दैत्यारिः
जय + अजयौ = जयाजयौ
सुर + असुराः = सुरासुराः
मुर + अरिः = मुरारिः
क्व + अपि = क्वापि
प्र + अभवत् = प्राभवत्
सुख + अन्तः = सुखान्तः

देव + आलयः = देवालयः
तव + आशा. = तवाशा
पुस्तक + आलयः = पुस्तकालयः
मम + आशा = ममाशा
हिम + आलयः = हिमालयः
शिव +आलयः = शिवालयः
धन + आदेशः = धनादेशः
सा + अपि = सापि
विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
महा + असुरः = महासुरः

घोरा + आकृतिः = घोराऽऽकृतिः
सीता + आगता = सीतागता
इति + इव = इतीव
कवि + इन्द्रः = कवीन्द्रः
मुनि + ईशः = मुनीशः
कपि + ईशः = कपीशः
लक्ष्मी + इन्द्रः = लक्ष्मीन्द्रः
नदी + इव = नदीव
राज्ञी + इह = राज्ञीह
मही + ईशः = महीशः

भानु + उदयः = भानूदयः
इन्दु + उदयः = इन्दूदयः
पृथु + उदकः = पृथूदकः
साधु + ऊचुः = साधूचुः
वधू + उपरि = वधूपरि
नर + इन्द्रः = नरेन्द्रः
उप + इन्द्रः = उपेन्द्रः
सुर + ईशः = सुरेशः
महा + इन्द्रः = महेन्द्रः
रमा + इच्छा = रमेच्छा

रमा + इति = रमेति
यथा + इष्टः = यथेष्टः
महा + ईशः = महेशः
यथा + ईप्सितम् = यथेप्सितम्
नर + उत्तमः = नरोत्तमः
सर्व + उदयः = सर्वोदयः
सुयोधन + ऊरुः = सुयोधनोरुः
गंगा + उदकम् = गंगोदकम्
यथा + उच्चकैः = यथोच्चकैः
महा + उरुः = महोरुः

वसन्त + ऋतुः = वसन्तर्तुः
सप्त + ऋषिः = सप्तर्षिः
तव + लृकारः = तवल्कारः
यदि + अपि = यद्यपि
इति + उवाच = इत्युवाच
देवी + उवाच = देव्यवाच
देवी + ऋद्धिः = देव्युद्धिः
तव + आदरः = तवादरः
परम + आनन्दः = परमानन्दः
पद्म + आकरः = पद्माकरः

महा + अर्घः = महार्घः
सीता + अस्ति = सीतास्ति
लता + अत्र = लतात्र
चिकित्सा + आलयः = चिकित्सालयः
विद्या + आलयः = विद्यालयः
मुनि + इन्द्रः = मुनीन्द्रः
रवि + इन्द्रः = रवीन्द्रः
प्रति + ईक्षा =प्रतीक्षा
अभि + ईप्सितम् = अभीप्सितम्
मही + इन्द्रः = महीन्द्रः

देवी + इयम् = देवीयम्
महती + इच्छा = महतीच्छा
महती + ईहा = महतीहा
गुरु + उपदेशः = गुरूपदेशः
सु + उक्तिः = सूक्तिः
लघु + उपदेशः = लघूपदेशः
विधु + ऊर्ध्वम् = विधूर्ध्वम्
वधू + उक्तिः = वधूक्तिः
तव + इति = तवेति
मम + इव = ममेव

राम + ईश्वरः = रामेश्वरः
सखा + इति = सखेति
सखा + इव = संखेव
गङ्गा + इति = गङ्गति
लता + इव = लतेव
रमा + ईशः = रमेशः
महा + ईश्वरः = महेश्वरः
पुरुष + उत्तमः = पुरुषोत्तमः
चन्द्र + उदयः = चन्द्रोदयः
नव + ऊढा = नवोढा

परीक्षा + उत्सुकः = परीक्षोत्सुकः
यथा + उचितम् = यथोचितम्
गङ्गा + उर्मिः = गङ्गोर्मिः
ग्रीष्म + ऋतुः = ग्रीष्मर्तुः
हेमन्त + ऋतुः = हेमन्तर्तुः
मम + लृकारः = ममल्कारः
इति + आदि = इत्यादि
इति + ऊचुः = इत्यचुः
पृथ्वी + ऊर्ध्वम् = पृथ्यूर्ध्वम्
मही + एका = मोका

महती + एषणा = महत्येषणा
देवी + एक्यम् = देव्यैक्यम्
मधु + अरिः – मध्वरिः
अनु + अयः = अन्वयः
गुरु + आदेशः = गुर्वादेशः
सु + आगतम् = स्वागतम्
साधु + इति =- साध्विति
रिपु + ईशः = रिप्वीशः
गुरु + ऋद्धिः = गुर्वृद्धिः
गच्छतु + एकः = गच्छत्वेकः

अनु + एषणम् = अन्वेषणम्
गुरु + एकत्वम् = गुर्वेकत्वम्
मातृ + अंश = मात्रंशः
पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञाः
पितृ + आदेशः = पित्रादेशः
धातृ + औदार्यम् = धात्रौदार्यम्
तृ + आकृतिः = लाकृतिः
तृ + आकारः = लकारः
पं+ चमः = पञ् + चम्ः = पञ्चमः
सं + छादनम् = सञ् + छादनम् = सञ्छादनम्

सं + जयः = सञ् + जयः = सञ्जयः
झं + झावातः = झञ् + झावात् = झञ्झावातः
सं+ अकारः = सञ् + जकारः = सबकारः
क + टकः = कण् + टकः = कण्टकः
कं + ठः = कण् + ठः = कण्ठः
दं + डः = दण् + डः = दण्डः
ढं + ढमः = ढण् + ढमः = ढण्ढमः
शां + तः = शान् + त् = शान्तः
मं + थनम् = मन् + थनम् = मन्थनम्
बिं + दुः = बिन् + दुः = बिन्दुः

सिं+ धुः = सिन् + धुः = सिन्धुः
सं + बभूव = सम् + बभूव = सम्बभूवः
सं + भारः = सम् + भारः = सम्भारः
सं + मानम् = सम् + मानम् = सम्मानम्
त्वं +.करोषि = त्वं करोषि, त्व ङ्करोषि
अयं + खादति = अयं खादति, अयखादति
अहं + गदामि = अहं गदामि, अहङ्गदामि
वयं + घोषयामः = वयं घोषयामः, वयङ्घोषयामः
अयं + ङवते = अयं ङ्वते, अयङवते
त्वं + चलसि = त्वं चलसि, त्वञ्चलसि

आशिष + देहि = आशिष देहि, आशिषन्देहि
अजय्यां + च = अजय्यां च, अजय्याञ्च
सुशीलं + जगत् = सुशीलं जगत्, सुशीलजगत्
नम्र + भवेत् = ननं भवेत, नम्रम्भवेत
श्रुतं + चैव = श्रुतं चैव, श्रुतञ्चै
नदी + तरति = नदी तरति, नदीन्तरति
फलं + पतति = फलं पतति, फलम्पतति
सत्यं + ब्रूते = सत्यं ब्रूते, सत्यम्ब्रूते
तत् + श्लोकेन = तच्छलोकेन, तच्छलोकेन
तत् + शिवः = तच्शिवः, तच्छिवः

एतत् + श्रुत्वा = एतच्श्रुत्वा, एतच्छुत्वा
एतत् + शङ्करेण = एतच्शङ्करेण, एतच्छङ्करेण
जगत् + शिवानि = जगत्शिवानि, जगच्छिवानि
मत् + शिरः = मशिरः, मच्छिरः
अयम् + कथयति = अयं कथयति, अयङ्कथयति
अयम् + ख्याति = अयं ख्याति, अयङ्ख्याति
अयम् + गदति = अयं गदति, अयङ्गदति
अयम् + घोषयति = अयं घोषयति, अयङ्घोषयति
अयम् + ङ्वते = अयं ङवते, अयङङ्वते
अयम् + चकास्ति = अयं चकास्ति, अयञ्चकास्ति

अयम् + छदयति = अयं छदयति, अयञ्छदयति
अयम् + जयति = अयं जयति, अयञ्जयति
अयम् + झर्चति = अयं झर्चति, अयञ्झर्चति
अयम् + अकारम् = अयं जकारम्, अयज्ञकारम्
अयम् + टीकते = अयं टीकते, अयण्टीकते
अयम् + ठकारम् = अयं ठकारम्, अयण्ठकारम्
अयम् + डमति = अयं डमति, अयण्डमति
अयम् + ढौकते = अयं ढौकते, अयण्डौकते
अयम् + णेकारम् = अयं णकारम्, अयण्णकारम्
अयम् + त्रायते = अयं त्रायते, अयन्त्रायते

अयम् + थर्वति = अयं थर्वति, अयन्थर्वति
अयम् + ददाति = अयं ददाति, अयन्ददाति
अयम् + धन्यः = अयं धन्यः, अयन्धन्य
अयम् + नयति = अयं नयति, अयन्नयति
अयम् + पाति = अयं पाति, अयम्पाति
अयम् + फलति = अयं फलति, अयम्फलति
अयम् + बुध्यते = अयं बुध्यते, अयम्बुध्यते
अयम् + भाति = अयं भाति, अयम्भाति
अयम् + मन्यते = अयं मन्यते, अयम्मन्यते
त्वम् + करोषि = त्वं करोषि, त्वङ्करोषि

दिक् + अम्बरः = दिगम्बरः क् → ग्
दिक् + गजः = दिग्गजः क् → ग्
वाक् + अर्थो = वागर्थों क् → ग्
वाक् + ईशः = वागीशः क् → ग्
अच् + अन्तः = अजन्तः च् → ज्
षट् + आननः = षडाननः द → ड्
षट् + देवाः = षड्देवाः द → ड्
बृहत् + रथः = बृहद्रथः त् → द्
जगत् + ईशः = जगदीशः त् → द्
महत् + दानम् = महद्दानम् त् → द्
सत् + आचारः = सदाचारः त् → द्
चित् + आनन्दः = चिदानन्दः त् → द्
सुप् + अन्ताः = सुबन्ताः प् → ब्
अप् + जः = अब्जः प् → ब्
वाक् + उत्तमा = वागुत्तमा क् → ग्
अच् + आदिः = अजादिः च् → ज्
जगत् + बन्धुः = जगद्बन्धुः त् → द्
महत् + धनम् = महद्धनम् त् → द्
‘चित् + रूपम् = चिद्रूपम् त् → द्
पृथक् + उच्यते = पृथगुच्यते क् → ग्
दु: + शासनः = दुश्शासनः या दुःशासनः
निः + सन्देहः = निस्सन्देहः या निःसन्देहः
निः + कपटः = निष्कपटः

दुः + कर्म = दुष्कर्म
चतः + पात = चतुष्पात
निः + फलः निष्फल:
बालः + गच्छति – बालो गच्छति
नमः + वयम् = नमो वयम्
मुनिः + अयम् = मुनिरयम् (इ: + अ = इर् + अ)
हरिः + आगच्छति – हरिरागच्छति (इः आ = इर् + आ)
पितः + इच्छा = पितरिच्छा (उः + इ = उर + इ)
गुरु: + जयति = गुरुर्जयति (उः + ज् = उर् + ज्)
नरः + इव = नर इव
सूर्यः + उदेति = सूर्य उदेति
कुतः + आगतः = कुत आगतः
स: + करोति = स करोति
एषः + हरिः = एष हरिः
एषः + इच्छति = एष इच्छति
सः + उवाच = स उवाच
छात्राः + आगच्छन्ति = छात्रा आगछन्ति
अध्यापकाः वदन्ति = अध्यापका वदन्ति
अश्वाः + धावन्ति = अश्वा धावन्ति
देवाः + रक्षन्तु = देवा रक्षन्तु।

वर्णो का उच्चारण स्थान

1. अनुस्वारस्य उच्चारण केन भवति ?
(अनुस्वार का उच्चारण किससे होता है ?)
उत्तरम् अनुस्वारस्य उच्चारणम् नासिकया भवति ।

2. स्वर वर्णाः के के सन्ति ?
(स्वर वर्ण कौन-कौन हैं ?)
उत्तरम्-अ, इ, उ, ए, ऋ, ल (ह्रस्व स्वराः)
आ, ई, ऊ, ऋ, ऐ, ओ, औ (दीर्घ स्वराः) सन्ति ।

3. स्वरस्य किं परिभाषा अस्ति ?
(स्वर वर्ण की क्या परिभाषा है)
उत्तरम्-स्वर्यन्ते स्वतः उच्चार्यन्ते वा ध्वनि विशेषणाः इति स्वराः।

4. व्यञ्जनस्य किं परिभाषा ?
(व्यंजन की क्या परिभाषा है ?)
उत्तरम्-व्यञ्जते वर्णान्तरसंयोगेन द्योत्यते ध्वनि विशेषो येन तद् व्यञ्जनम् ।

5. अन्तःस्थ वर्णाः के के सन्ति ?
(अन्तःस्थ वर्ण कौन-कौन हैं ?)
उत्तरम्-य, र, ल, व अन्त:स्थ वर्णाः सन्ति ?

6. उष्ण वर्णाः के के सन्ति ?
(उष्ण वर्ण कौन-कौन हैं ?)
उत्तरम्-श, ष, स, ह एते वर्णां उष्पवर्णाः सन्ति ।

7. कति स्पर्श वर्णाः सन्ति ?
(स्पर्श वर्ण कितने हैं ?)
उत्तरम्-पञ्चविंशन्ति: स्पर्श वर्णाः सन्ति ।

8. मूर्जा केषां वर्णानाम् उच्चारणम् भवति ?
(मूर्धा से किन वर्गों का उच्चारण होता है ?)
उत्तरम्- मूर्ना ऋ, टवर्ग (ट, ढ, ड, ढ, ण) र, एतेषां वर्णानाम् उच्चारणं भवति ।

9. कण्ठेन केषां वर्णानाम् उच्चारणं भवति ?
(कंठ से किन वर्णों का उच्चारण होता है ?)
उत्तरम्- कण्ठेन अ, आ, कवर्ग (क, ख, ग, घ, ड) ह विसर्गश्च उच्चारणम् भवति ।

10. तालव्येन केषां वर्णानाम् उच्चारणं भवति ?
(तालु से किन वर्णों का उच्चारण होता है ?)
उत्तरम्- तालव्येन इ, ई, चवर्ग (च, छ, ज, झ, ब्) व, श इत्येषां वर्णानां उच्चारणम् भवति ।

11. कण्ठतालुः वर्णाः के सन्ति ?
(कण्ठतालु वर्ण कौन-कौन हैं ?)
उत्तरम्- ए, ऐ वर्णाः कण्ठतालुः सन्ति ।

12. दन्त्यवर्णा के-के सन्ति ?
(दन्त्य वर्ण कौन-कौन हैं ?)
उत्तरम्- लु, तवर्ग (त, थ, द, ध, न) स इत्येषां वर्णाः दन्त्याः सन्ति ।

13: अनुनासिक वर्णाः के सन्ति ?
(अनुनासिक वर्ण कौन-कौन हैं ?)
उत्तरम्- ङ, ञ, ण, न, म अनुनासिक वर्णाः सन्ति ।

14. ओ, औ वर्णा उच्चारणं कुत्रतः भवतः ?
(ओ और औ वर्णों का उच्चारण कहाँ से होता है ?)
उत्तरम्- ओ, औ वर्णाः उच्चारणम् कण्ठोष्ठेन भवति ।

15. वकारण उच्चारणं केन भवति ?
(वकार का उच्चारण किससे होता है)
उत्तरम्- वकारस्य उच्चारणम् दन्त्यौष्ठेन भवति।

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