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 Bihar Board 12th Sanskrit Grammar Important Questions Part 1

Bihar Board 12th Sanskrit Grammar Important Questions Part 1

प्रश्न 1.
लकार क्या है ? उनके भेदों को सोदाहरण परिभाषित करें।
उत्तर:
लकार-लः इति लकारः’ अर्थात् ‘ल’ से आरंभ होने वाले काल अथवा वृत्तिसूचक भेदों को ‘लकार’ कहते हैं। किञ्चित भिन्नता होते हुए भी इसे अंग्रेजी में Tense और हिन्दी में ‘काल’ कहते हैं।

जैसे-काकः व्रणीति (कौआ बोलता है) वर्तमान काल।
सीता गृहम् अगच्छत् (सीता घर गई) भूतकाल।
बालकः आगमिष्यति (बालक आएगा) भविष्यत् काल।
सा वदेत (उसे बोलना चाहिए)।
भवान् पाठयतु (आप पढ़ाएँ)। इन वाक्यों में विधि एवं अनुरोध का वृत्ति की गई है। यह वृत्ति ..क्रिया के करने या कहने की विधि है।
संस्कृत में लकारों की संख्या दस है जो हमें क्रिया के होने के समय का बोध कराती है।
लकार – काल (Tense)

  1. लट् लकार – वर्तमान काल (Present Tense)
  2. लङ् लकार – अनद्यतनभूतकाल (Past Imperfect Tense)
  3. लुङ् लकार – सामान्य भूतकाल (Aorist)
  4. लिट् लकार – परोक्षभूत काल (Past Perfect Tense)
  5. लट् लकार – सामान्य भविष्यत् काल (Simple Future or Second Future)
  6. लुट् लकार – आसन्न या अनद्यतन भविष्यत् काल (First Future)
    लकार – वृत्तियाँ (Moods)
  7. लोट् लकार – mis (Imperative mood)
  8. विधिलिङ् – विधिलिङ् (Potential mood)
  9. आर्शीलिङ् – आशीर्लिङ् (Benedictive)
  10. लुङ् – संकेत / क्रियातिपत्रि | हेतु हेतु मद्भूत (Conditional)
    लेट् (Subjunctive) ग्यारहवाँ भेद है जिसका प्रयोग सिर्फ वेद में ही मिलता है।

1. लट् लकार (वर्तमान काल)-‘वर्तमाने लट्’ / ‘प्रारब्धोऽपरिसमाप्तश्च कालः वर्तमान कालः’ अर्थात् प्रारंभ से समाप्त होने तक क्रिया में लगने वाला काल वर्तमान काल कहलाता है। और वर्तमान काल में लट् लकार का प्रयोग होता है। जैसे-त्वम्, पठसि, त्वं पठन् असि, अहम् पठामि, इवं पूजा भवति इत्यादि।

2. लङ् (अनद्यतन भूतकाल)-यह सार्वधातु स्थल है। इसमें गणविकरण होता है। लेकिन लोट् लकार की तरह इसमें भी प्रत्ययों में ही विकृति करके रूप भेद किया जाता है। लङ् लकार का रूप लिङ् लकार से मिलता है। इसलिए रूपभेद रखने के लिए व्यंजनादि धातु से पूर्व ‘अ’ और स्वरादि धातु से पूर्व ‘आ’ भी जोड़कर धातु में थोड़ा परिवर्तन किया जाता है। जैसे-अगच्छत किम् (गया क्या)। यह अनद्यतन भूतकाल का बोध कराता है।

3. लुङ लकार-लुङ् लकार सामान्य भूतकाल का बोध कराता है। किसी विशेष समय का बोध नहीं कराता है। जैसे-पितृनपारीत समस्त बन्धून अर्थात् पितरो को तृप्त किया और संबंधियों का आदर किया। यह उसी दिन के भूतकाल के कार्य का बोध कराता है। जैसे-अद्यः वृष्टि अभूत । अर्थात् आज वर्षा हुई। क्रिया की निरंतरता और समय की समीपता बताने में, यथा-यावत् जीवम् अन्नम्पदात् अर्थात् उसने जीवन भर अन्न का दान दिया।

‘पुरा’ अव्यय का प्रयोग होने पर लुङ्, लङ्, लिट्, लट् इन चारों का प्रयोग होता है, परंतु ‘स्म’ का साथ में प्रयोग होने पर केवल लुङ् का प्रयोग होगा, यथा-यजति स्म पुरा (वह पहले यज्ञ करता था। अत्र वसति स्म पुरा (वह पहले यहाँ रहता) ‘माङ्’ और मास्म शब्दों के योग में तीनों कालों में ही लुङ् का प्रयोग होता है, यथा-प्रिये, मा भैषीः (प्रिये डरो मत) मा भूत दुःखम् (दु:खीमत होओ)। मास्म प्रतीप गमः (विपरीत मत हो जाना)।

4. लिट् लकार ( परोक्ष भूतकाल)-

  • यह लकार परोक्ष में हुई घटना का सूचक है। यह अत्यन्त प्राचीन समय का बोध कराता है। जैसे-छिन्नमूल इथ पपात्। (वह कटी हुई जड़वाले पेड़ की भाँति नीचे गिर पड़ा।)
  • सत्य को छिपाने के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है। यथा-अपि कलिङ्गेष, अवस? नाहं कलिङ्गन जगाम। (क्या तुम कलिंग में रहे ? नहीं मैं कभी कलिंग देश में नहीं गया)
  • उत्तम पुरुष में लिट् लकार का प्रयोग नहीं होता किन्तु स्वप्न और उन्मत्त अवस्था में उत्तम पुरुष में भी लिट् लकार का प्रयोग होता है, जैसे-अहम् उन्मत्तः सन् वनं विचार। (मैंने पागलपन की दशा में वन में विचरण किया।)

5. लृट् लकार (सामान्य भविष्यत्काल)-आसन्नवर्ती अर्थात् निकटवर्ती भविष्य के लिए . लृट् लकार का प्रयोग होता है। जैसे–अहम् अद्य गृहं गमिष्यामि (मैं आज घर जाऊँगा)

अभिज्ञा (स्मरण) और आश्चर्य के अर्थ में तथा निश्चयार्थक और समर्थ बोधक ‘अलं’ शब्द के साथ भी लृट् लकार होता है। जैसे–स्मरसि कृष्ण गोकुले वत्स्यामः (हे कृष्ण ! तुम्हें याद है तुम गोकुल में रहते थे।)

अलं कृष्णौ हस्तिनं हनिष्यति (निश्चय ही कृष्ण हाथी को मारेंगे)।

6. लुट् लकार (अनद्यतन भविष्यत्काल)-यह लकार दूरवर्ती अर्थात् जो का आज नहीं होगा कि अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे-अग्रिमे मासे अहमेव तत्र गन्तास्मि। (अगले महीने में ही वहाँ जाऊँगा) आज कल समीपवर्ती और दूरवर्ती दोनों के लिए लृट् लकार का ही प्रयोग होता है।

7. लोट् लकार (आज्ञार्थक)-अनुमति, निमंत्रण, आमंत्रण, अनुरोध, जिज्ञासा, सामर्थ्य आदि अर्थों में लोट् लकार का प्रयोग होता है। जैसे-अद्य भवान् अत्र आगच्छतु। आज आप यहाँ आए। अद्य भवान् इह भुङ्क्ताम् (आज आप यहाँ भोजन कीजिए।)

वने अस्मिन यथेच्छं वस (इस वन में इच्छानुसार रह सकते हैं।)
हे राजन्, माम् त्रायस्व (हे राजन मेरा त्राण करें) इत्यादि।

नोट-आशीर्वाद अर्थ में मध्यम और अन्य पुरुष में लोट् लकार का प्रयोग होता है। जैसे-
पन्थानः सन्तु ले शिवाः (तुम्हारे मार्ग कल्याणकारी हों)

  • आशीर्वाद के अर्थ में जब लोट् लकार का प्रयोग होता है तो ‘तु’ और ‘हि’ के स्थान में विकल्प से ‘तात्’ हो जाता है। जैसे–चिरं जीवात् (जीवतुः वा)।
  • उपदेश द्वारा आदेश का बोध होने पर भी लोट् लकार का प्रयोग होता है। यथा-यः सर्वाधिकार नियुक्तः प्रधानमंत्री सयथोचित करोतु।
  • ‘प्रश्न’ और ‘सामर्थ्य आदि का बोध होने पर उत्तम पुरुष में लोट् लकार होता है। जैसेकिं ते प्रियं करवाणि ? (मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूँ ?)

8. विधिलिङ- सामान्यतः हिन्दी में ‘चाहिए’ के अर्थ में विधिलिङ् का प्रयोग होता है। लोट् लकार में भी आज्ञार्थ का छोड़कर शेष में विधिलिङ् ही होता है।
* विधि (आदेश देना, अधीनस्थ को निर्देश देना आदि) निमंत्रण आमंत्रण (स्वीकृत करना) अधीष्ट (किसी को कोई अवैतनिक कार्य करने के लिए कहना) से प्रश्न (नम्रतापूर्वक किसी से कोई प्रश्न पूछना)और प्रार्थना करना आदि अर्थों में विधिलिङ् का प्रयोग होता है।
जैसे-स: ‘यजेत् (उसे यज्ञ करना चाहिए)। त्वं ग्रामं गच्छेः (तू गाँव को ज़ा) इह भवान् भुञ्जीत् (आप यहाँ खाना खाइए।) इहासीत भवान् (आप यहाँ बैठिए)। पुत्र मध्यापयेद भवान् (आप मेरें पुत्र को पढ़ा दीजिए) (अवैतनिक रूप में) किं भो व्याकरणम् धीमीय साहित्यम् ? (में व्याकरण पहूँ या साहित्य ?)

  • काल, समय, वेला आदि शब्दों के साथ यदि ‘यत्’ शब्द का प्रयोग हो, तो विधिलिङ् हो जाएगा। जैसे-कालः समयः वेला वा यद् भुञ्जीत भवान्। (अब समय है कि आप खाना खाएँ।
  • योग्य अर्थ होने पर धातु में विधिलिङ् होगा जैसे त्वं कन्याः वहेः। तुम कन्या से विवाह के योग्य हो। ..

9. आशीलिङ्-यह लकार आशीर्वाद अथवा वक्ता की कामना को प्रकट करता है। यथा-चिरं जीव्यात् भवान् (आप चिरंजीवी हो)। सः यशो लभेत् (वह यश प्राप्त करे)।

10. लुङ् लकार ( हेतुहेतुमद्भाव)-क्रिया की सिद्धि अथवा असिद्धि में भविष्यत् काल के अर्थ में लुङ् लकार का प्रयोग होता है। यह भूत और भविष्यत् दोनों अर्थों को प्रकट करता है। यह कार्य की सफलता अथवा विफलता में किसी कारण कार्य, भाव की सूचना देता है। यथायदि वृष्टिः अभविष्यत् अन्नमापि प्राभविष्यत् (यदि वर्षा हुई होती तो अन्न भी खूब होता)।

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