Advertica

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

  1. संक्षेपण का स्वरूप।
  2. संक्षेपण के नियम
  3. संक्षेपण : कुछ आवश्यक निर्देश।
  4. अनेक शब्दों (पदों) के लिए एक शब्द (पद)।
  5. संक्षेपण के कुछ उदाहरण

1. संक्षेपण का स्वरूप
संक्षेपण की परिभाषा – किसी विस्तृत विवरण, सविस्तार व्याख्या,वक्तव्य, पत्रव्यवहार या लेख के तथ्यों और निर्देशों के ऐसे संयोजन को ‘संक्षेपण कहते हैं, जिसमें अप्रासंगिक, असम्बद्ध, पुनरावृत्त, अनावश्यक बातों का त्याग और सभी अनिवार्य, उपयोगी तथा मूल तथ्यों का प्रवाहपूर्ण संक्षिप्त संकलन हो।

इस परिभाषा के अनुसार, संक्षेपण एक स्वतःपूर्ण रचना है। उसे पढ़ लेने के बाद मूल सन्दर्भ को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सामान्यत: संक्षेपण मे लम्बे – चौड़े विवरण, पत्राचार आदि की सारी बातों को अत्यन्त संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूप में रखा जाता है। इसमें हम कम – से – कम शब्दों में अधिक – से – अधिक विचारों, भावों और तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं।

वस्तुतः संक्षेपण ‘किसी बड़े ग्रन्थ का संक्षिप्त संस्करण, बड़ी मूर्ति का लघु अंकन और बड़े चित्र का छोटा चित्रण’ है। इसमें मूल की कोई भी आवश्यक बात छूटने नहीं पाती। अनावश्यक बातें छाँटकर निकाल दी जाती हैं और मूल बातें रख ली जाती हैं। यह काम सरल नहीं। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यक है।

संक्षेपण उदाहरण 1

ऋतुराज वसन्त के आगमन से ही शीत का भयंकर प्रकोप भाग गया। पतझड़ में पश्चिम – पवन ने जीर्ण – जीर्ण पत्रों को गिराकर लताकुंजों, पेड़ – पौधों को स्वच्छ और निर्मल बना दिया। वृक्षों और लताओं के अंग में नूतन पत्तियों के प्रस्फुटन से यौवन की मादकता छा गयी। कनेर, करवीर, मदार, पाटल इत्यादि पुष्पों की सुगन्धि दिग्दिगन्त में अपनी मादकता का संचार करने लगी। न शीत की कठोरता, न ग्रीष्म का ताप।

समशीतोष्ण वातावरण में प्रत्येक प्राणी की नस – नस में उतफुल्लता और उमंग की लहरें उठ रही हैं। गेहूँ के सुनहले बालों से पवनस्पर्श के कारण रुनझुन का संगीत फूट रहा है। पत्तों के अधरों पर सोया हुआ संगीत मुखर हो गया है। पलाश – वन अपनी अरुणिमा में फूला नहीं समाता है। ऋतुराज वसन्त के सुशासन और सुव्यवस्था की छटा हर ओर दिखायी पड़ती है। कलियों के यौवन की अंगड़ाई भ्रमरों को आमन्त्रण दे रही है। अशोक के अग्निवर्ण कोमल एवं नवीन पत्ते वायु के स्पर्श से तरंगित हो रहे हैं। शीतकाल के ठिठुरे अंगों में नयी स्फूर्ति उमड़ रही है।

वसन्त के आगमन के साथ ही जैसे जीर्णता और पुरातन का प्रभाव तिरोहित हो गया है। प्रकृति के कण – कण में नये जीवन का संचार हो गया है। आम्रमंजरियों की भीनी गन्ध और कोयल का पंचम आलाप, भ्रमरों का गुंजन और कलियों की चटक, वनों और उद्यानों के अंगों में शोभा का संचार – सब ऐसा लगता है जैसे जीवन में सुख ही सत्य है, आनन्द के एक क्षण का मूल्य पूरे जीवन को अर्पित करके भी नहीं चुकाया जा सकता है। प्रकृति ने वसन्त के आगमन पर अपने रूप को इतना सँवारा है, अंग – अंग को सजाया और रचा है कि उसकी शोभा का वर्णन असम्भव है, उसकी उपमा नहीं दी जा सकती।

(शब्द : लगभग 300)

संक्षेपण : वसन्तऋतु की शोभा वसन्तऋतु के आते ही शीत की कठोरता जाती रही। पश्चिम के पवन ने वृक्षों के जीर्ण – शीर्ण पत्ते गिरा दिये। वृक्षों और लताओं में नये पत्ते और रंग – बिरंगे फूल निकल आये। उनकी. सुगन्धि से दिशाएँ गमक उठी। सुनहले बालों से युक्त गेहूँ के पौधे खेतों मे हवा से झूमने लगे। प्राणियों की नस – नस में उमंग की नयी चेतना छा गयी। आम की मंजरियों से सुगन्ध आने लगी; कोयल कूकने लगी; फूलों और भौरे मँडराने लगे और कलियाँ खिलने लगीं। प्रकृति में सर्वत्र नवजीवन का संचार हो उठा।

(शब्द : 96)

संक्षेपण उदाहरण 2

अनन्त रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है – कहीं मधुर, सुसज्जित या सुन्दर यप में; कहीं रूखे, बेडौल या कर्कश रूप में कहीं भव्य, विशाल या विचित्र रूप में; और कहीं उग्र, कराल या भयंकर रूप में। सच्चे कवि का हृदय उसके उन सब रूपों में लीन होता है, क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुखभोग नहीं, बल्कि चिरसाहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है।

जो केवल प्रफुल्ल प्रसूनप्रसाद के सौरभ – संचार, मकरन्दलोलुप मधकर के गंजार, कोकिलकजित निकंज और शीतल सखस्पर्श समीर की ही चर्चा किया करते हैं, वे विषयी या भोगलिप्सु हैं। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभासहिम – विन्दुमण्डित मरकताभ शाद्वलजाल, अत्यन्त विशाल गिरिशिखर से गिरते जलप्रपात की गम्भीर गति से उठी हुई सीकरनीहारिका के बीच विविधवर्ण स्फरण की विशालता, भव्यता और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं वे तमाशबीन हैं, सच्चे भावुक या सहृदय नहीं।

प्रकृति के साधारण, असाधारण सब प्रकार के रूपों को रखनेवाले वर्णन हैं वाल्मिीकि, कालिदास, भवभूति इत्यादि संस्कृति के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने मुक्तक – रचना में तो अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं का अलग – अलग उल्लेख केवल उद्दीपन की दृष्टि से किया है। प्रबन्धरचना में थोड़ा – बहुतसंश्लिष्ट चित्रण किया है, वह प्रकृति की विशेष रूपविभूति को लेकर ही। (शब्द : 119)

संक्षेपण : कवि और प्रकृति प्रकृति के दो रूप हैं; एक सुन्दर, दूसरा बेडौल। सच्चे कवि का हृदय दोनों में रमता है। किन्तु, जो प्रकृति के बाहरी सौन्दर्य का चयन अथवा उसकी रहस्यमयता का उद्घाटन करता रह गया, वह कवि नहीं है। प्रकृति के सच्चे रूपों का चित्रण संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। प्रबन्धकाव्यों में उसका संश्लिष्ट वर्णन हुआ है। (शब्द : 58)

संक्षेपण उदाहरण 3

एक दिन मेम – डाक्टर बेला से रूखे – से स्वर में पूछ बैठी – “तू कहाँ जायेगी? जाती क्यों नहीं? दूध और केले पर कहाँ तक पड़ी रहेगी?”

“कहाँ जाऊँ”?”
“मैं क्या जानूँ, कहाँ जायेगी !”
“मेरा तो इस दुनिया में कोई अपना नहीं है !”
“तो इसके लिए मैं जिम्मेवार हूँ? अस्पताल तो कोई यतीमखाना या आश्रम नहीं है। अगर तू खुद यहाँ से निकलेगी, तो मैं आज शाम को धक्के देकर निकलवा दंगी।”
“क्यों, मैंने क्या कसूर. . . . . . . . ”

“कसूर का सवाल नहीं है। मुझे इस ‘बेड’ पर दूसरे मरीज को जगह देनी है। आज ही वह आती होगी। तू तो अब बिलकुल चंगी हो गयी।”
“तो आप अपने यहाँ मुझे अपनी नौकरानी बनाकर रख लें। मैं झाडू – बुहारू करूँगी, बरतन साफ करूँगी। मेरे लिए एक जून सूखी रोटी काफी होगी।”
“माफ करे, मैं बाज आयी !” – मेम साहिबा ने जरा मुस्कराकर कहा – “तुझे अपने घर पर ले जाकर रखू और मेरी चौखट पर रँगीलों का फैन्सी मेला हो ! ना, मुझे कबूल नहीं !”

“तब और किसी शरीफ के घर में . . . . . . . .”
“क्या टें – टें करती है? “मैं दवा देती हूँ, रोजी नहीं देती।”
“अस्पताल में दाई का काम नहीं मिल सकता?”
“बिना तनख्वाह के?”
“जो कुछ आप दें !”

“तू तो सिर हो रही !” – मेम साहिबा झल्ला उठीं – “यहाँ जगह नहीं है। तेरे लिए तो बाजार खला है ! वहाँ तो खासी आमदनी होगी।”

राजा राधिकारमण : ‘राम – रहीम’ (शब्द : 218)

संक्षेपण : मेम ने बेला को निकाल देने की धमकी दी
बेला जब भली – चंगी हुई, तब एक दिन मेम साहिबा ने उसे अस्पताल से चले जाने को कहा। लेकिन, उसका तो दुनिया में अपना कोई न था। मेम ने जब शाम को धक्के देकर निकलवा देने की धमकी दी, तो बेला ने नौकरानी बनने या अस्पताल में दाई का काम करने की इच्छा प्रकट की। इसपर मेम ने झल्लाकर कहा कि उसके लिए बाजार छोड़ दूसरी जगह नहीं हो सकती।

(शब्द : 71)

संक्षेपण उदाहरण 4

सेवा में,
श्री सम्पादक, आर्यावर्त,

पटना,
18 – 10 – 59

पटना – 1

प्रिय महोदय,
यह पत्र प्रकाशनार्थ भेज रहा हूँ। आशा है, आप इसे अपने पत्र में स्थान देंगे और इसपर स्वयं भी विचार करेंगे।

हर साल की तरह इस वर्ष भी विजयादशमी का पावन पर्व देश के कोने – कोने में बड़ी धूमधाम से मनाया गया है। पत्रकारों, नेताओं और लेखकों ने पत्रों, मंचों और रेडियो के माध्यम से इसके उच्चतम आदेशों और अमर सन्देशों का परिचय सर्वसाधारण को दिया। जहाँ – तहाँ संगीत, नृत्य और नाट्य के बड़े – बड़े आयोजन हुए। बूढ़े, बच्चे और जवान, सबने रंग – बिरंगे परिधानों में दिल खोलकर इस राष्ट्रीय त्योहार का स्वागत किया।

वस्तुतः, यह हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन, खेद तब होता है, जब कुछ गैरजिम्मेवार लोग विजयोत्सव के नाम पर कुछ भद्दे प्रदर्शन करते हैं, जिनसे देश की राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक एकता को धक्का लगता है।

देश के भिन्न – भिन्न प्रदेशों में दशहरे का त्योहार विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। हिन्दी प्रदेशों में रावण पर राम की विजय का प्रतीक मानकर विजयोत्सव मनाया जाता है, बंगाल में माँ दुर्गा की पूजा होती है और दक्षिण में माँ सरस्वती की अर्चना। इन सबमें मानव – मन की उदात्त भावनाओं को जगाने और आसुरी वृत्तियों को त्यागने की सामान्य प्रवृत्ति मुख्यरूप से लक्षित है।

दक्षिणवालों ने माँ सरस्वती की पूजा में देवासुर संग्राम की कल्पना नहीं की। फिर भी, दशहरा हमारे लिए आसुरी वृत्तियों पर देवत्व की विजय का सन्देशवाहक है। इस सन्देश की अभिव्यक्ति के लिए हम प्रतिवर्ष रामायण के आधार पर रामलीलाएँ करते हैं। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन, आपत्ति की बात तब होती है, जब हम सार्वजनिक स्थानों पर रावण कुम्भकर्ण और मेघनाद के विशाल पुतले जलाने का खुलेआम आयोजन करते हैं। मैं समझता हूँ कि देश की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता के हित में ऐसे भद्दे नाट्यप्रदर्शन अनुचित और निरर्थक हैं। इन्हें रोका जाए।

(शब्द : 307)

आपका,
घनश्यामदास

संक्षेपण : पुतले जलाने की प्रथा रोकी जाए 18 अक्टूबर, 1959 को गया के श्री घनश्यामदास ने ‘आर्यावर्त’ के सम्पादक के नाम इस आशय का एक पत्र लिखा कि विजयादशमी का राष्ट्रीय त्योहार सारे देश में धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें छोटे – बड़े सभी दिल खोलकर भाग लेते हैं। विजयोत्सव के नाम पर कुछ गैरजिम्मेवार लोग रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले खुलेआम जलाते हैं। देश की एकता के हित में यह अनुचित है। यद्यपि देश के विभिन्न प्रदेशों में विजयोत्सव के भिन्न – भिन्न रूप हैं, तथापि ये सभी हृदय की उन्नत भावनाओं को जगाते हैं, संघर्ष को नहीं। इसलिए पुतले जलाने की प्रथा रोकी जाए।

(शब्द : 101)

संक्षेपण उदाहरण 5

मनुष्य उत्सवप्रिय होते हैं। उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य आनन्द – प्राप्ति है। यह तो सभी जानते हैं कि मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है। आवश्यकता की पूर्ति होने पर सभी को सुख होता है। पर, उस सुख और उत्सव के इस आनन्द मे बड़ा अन्तर है। आवश्यकता अभाव सूचित करती है। उससे यह प्रकट होता है कि हममें किसी बात की कमी है। मनुष्य – जीवन ही ऐसा है कि वह किसी भी वसस्था में यह अनुभव नहीं कर सकता कि अब उसके लिए कोई आवश्यकता नहीं रह गई है।

एक के बाद दूसरी वस्तु की चिन्ता उसे सताती ही रहती है। इसलिए किसी एक आवश्यकता की पूर्ति से उसे जो सुख होता है, वह अत्यन्त क्षणिक होता है; क्योंकि तुरन्त ही दूसरी आवश्कता उपस्थित हो जाती है। उत्सव में हम किसी बात की आवश्कता का अनुभव नहीं करते। यही नहीं, उस दिन हम अपने काम – काज छोड़कर विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति करते हैं। यह आनन्द जीवन का आनन्द है, काम का नहीं। उस दिन हम अपनी सारी आवश्यकताओं को भूलकर केवल मनुष्यत्व का खयाल करते हैं।

उस दिन हम अपनी स्वार्थ – चिन्ता दोड़ देते हैं, कर्तव्य – भार की उपेक्षा कर देते हैं तथा गौरव और सम्मान को भूल जाते हैं। उस दिन हममें उच्छंखलता आ जाती है, स्वच्छन्दता आ जाती है। उस रोज हमारी दिनचर्या बिलकुल नष्ट हो जाती है। व्यर्थ घूमकर, व्यर्थ काम कर, व्यर्थ खा – पीकर हमलोग अपने मन में यह अनुभव करते हैं कि हमलोग सच्चा आनन्द पा रहे हैं।।

संक्षेपण : उत्सव का आनन्द मनुष्य को उत्सव प्रिय है। क्योंकि वह आनन्दप्रद है आवश्कता की पूर्ति से भी एक प्रकार का आनन्द होता है, पर वह क्षणिक होता है; क्योंकि एक आवश्यकता की पूर्ति होते ही दूसरी आवश्यकता महसूस होने लगती है। उत्सव में किसी अभाव का अनुभव नहीं होता बल्कि विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति होती है। उस दिन लोग अपने कर्तव्य और मर्यादा को भूल जाते हैं। वे निश्चित, स्वच्छन्द और निरुद्देश्य होकर जीवन का रस लूटते हैं।

संक्षेपण उदाहरण 6

जब भक्त कवि भगवान को शिशु रूप देते हैं तो वे सर्वथा शिशु हो उठते हैं। जैसे सूर के बाल श्री कृष्ण और संसार के किसी दूसरे व्यक्ति के बच्चे की चेष्ठाओं में कोई अन्तर नहीं। जब सूर भगवान का प्रणयी रूप में चित्रण करते तब वे (कृष्ण) हमारे सामने हाड़ – मांस के प्राणी बन उठते हैं। उनमें कोई अपार्थिकता नहीं रह जाती।

यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास को बार – बार रामचरितमानस में याद दिलानी पड़ी कि राम दशरथ के पुत्र होते हुए भी परब्रह्म ही हैं, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि राम की पार्थिव लीलाओं के वर्णन में उनका सच्चिादानन्द रूप और ब्रह्मत्व तिरोहित न हो जाय। अतः वास्तविकता यह है कि भक्ति – भाव भगवान को मनुष्य के निकट नहीं लाता, भगवान को मनुष्य बनाबर उनकी सृष्टि कर देता है।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 130)

शीर्षक : भक्ति – काव्य

भक्त कवियों ने मानवीय रूप देकर कृष्ण और राम के लौकिक रूप का वर्णन किया है जिसमें अलौकिकता का भ्रम नहीं होता। यही कारण है कि तुलसीदास को राम के ब्रह्मत्व की याद दिलानी पड़ती है। अतः भक्ति काव्य भगवान को मनुष्य बनाकर सृष्टि करता है।

(संक्षेपित शब्द – संख्यासम्राट – 44)

संक्षेपण उदाहरण 7

राष्ट्रीय जागृति तभी ताकत पाती है, तभी कारगर होती है, तब उसके पीछे संस्कृति की जागृति हो और यह तो आप जानते ही हैं कि किसी भी संस्कृति की जान उसके साहित्य में, यानि उसकी भाषा में है। इस बात को हम यों कह सकते हैं कि बिना संस्कृत के राष्ट्र नहीं और बिना भाषा के संस्कृति नहीं। कुछ लोग ऐसा समझ सकते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा के लिए नियम ही ज्यादा बनाए, उसे बाँधा था, उसमें जान नहीं फूंकी, इसलिए बड़ी बात नहीं की।

लेकिन ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि बिगुल बजाकर सिपाही को जगाने और जोश दिखाने वाले का नाम जितना महत्व का है, कम – से – कम उतना ही महत्व उस आदमी का भी है जो सिपाही को ठीक ढंग से वर्दी पहनाकर और कदम मिलाकर चलने की तमीज सिखाता है। संस्कृति की चेतना को जगाने के काम में तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की क्या कोई बराबरी करेगा, लेकिन उसे संगठित करने के काम में महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्थान किसी से दूसरा नहीं है।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 168)

शीर्षक : संस्कृति और भाषा राष्ट्रीय जागृति संस्कृति पर निर्भर करती है और संस्कृति भाषा और साहित्य के विकास पर। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा में अनुशासन लाकर साहित्य में नयी जान फूंक दी। जिस प्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर संस्कृति की चेतना को जगाने में अकेले थे, उसी प्रकार संस्कृति को संगठित करने में द्विवेदी जी का स्थान किसी में कम नहीं है।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 56)

संक्षेपण उदाहरण 8

धरती का कायाकल्प, यही देहात की सबसे बड़ी समस्या है। आज धरती रूठ गई है। किसान धरती में मरता है पर धरती से उपज नहीं होती। बीज के दाने तक कहीं – कहीं धरती पचा जाती है। धरती से अन्न की इच्छा रखते हुए गाँव के किसानों ने परती – जंगल जोत डाले, बंजर तोड़ते – तोड़ते किसानों के दल थक गये पर धरती न पसीजी और किसानों की दरिद्रता बढ़ती चली गई।

‘अधिक अन्न उपजाओं’ का सूग्गा – पाठ किसान सुनता है। वह समझता है अधिक धरती जोत में लानी चाहिए। उसने बाग – बगीचे के पेड़ काट डाले, खेतों को बढ़ाया पर धरती ने अधिक अन्न नहीं उपजाया। अधिक धरती के लिए अधिक पानी चाहिए, अधिक खाद चाहिए। धरती रूठी है, उसे मनाना होगा, किसी रीति से उसे भरना होगा।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 128)

शीर्षक : धरती की समस्या धरती का कायाकल्प देहात की बड़ी समस्या है। अधिक अन्न उपजाओं के लिए किसानों के दल बंजर – परती और बाग – बगीचे जोतते – जोतते थक गये, लेकिन अधिक अन्न नहीं उपजा। इसके लिए अधिक पानी और खाद चाहिए। इसी से रूठी धरती मान सकेगी।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 42)

संक्षेपण उदाहरण 9

किसी देश की संस्कृति जानने के लिए वहाँ के साहित्य का पूरा अध्ययन नितांत आवश्यक है। साहित्य किसी देश तथा जाति के विकास का चिह्न है। साहित्य से उस जाति के धार्मिक विचारों, सामाजिक संगठन, ऐतिहासिक घटनाचक्र तथा राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब मिल जाता है।

भारतीय संस्कृति के मूल आधार हमारे साहित्य के अमूल्य ग्रन्थ – रत्न हैं, जिनके विचारों से भारत की आंतरिक एकता का ज्ञान हो जाता है। हमारे देश की बाहरी विविधता भारतीय वाङ्गमय के रूप में बहनेवाली विचार और संस्कृति की एकता को ढंक लेती है। वाङ्गमय की आत्मा एक है, पर अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में हमारे सामने आती है।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 104)

शीर्षक : साहित्य से संस्कृति का ज्ञान देश या जाति की संस्कृति, धर्म, समाज, इतिहास और राजनीति के प्रतिबिम्ब स्वरूप साहित्य में होती है। भारतीय संस्कृति का मूलाधार विविधता में एकता है जो अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में भी एकात्म है।

संक्षेपण उदाहरण 10

राजनीतिक दाव – पेंच के इस युग से चुनाव को व्यवसाय बना दिया गया है। चुनाव में मतदाताओं को ठगने एवं उनको मायाजाल में फंसाने के लिए रंग – बिरंगे वायदे किए जाते हैं। गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, सड़क बनवाने, स्कूल खुलवाने, नौकरी दिलवाने आदि अनेक प्रकार के वायदे चुनाव के समय किए जाते हैं।

गरीबी और बेरोजगारी को हटाने के लिए उद्योगों की स्थापना करनी होगी, नयी परियोजनाओं का संचालन करना होगा। शिक्षा को रोजगार से जोड़ना होगा, न कि केवल चुनावी वायदों का वाग्जाल फैलाकर मतदाता को फंसाकर रखने से गरीबी और बेरोजगारी हटेगी। चुनावी वायदों की रंगीन परिकल्पनाओं से मतदाता की आस्था धीरे – धीरे सामप्त होने लगेगी।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 108)

शीर्षक : चुनावी वायदों के कोरे वाग्जाल आजकल चुनावी व्यवसाय में उम्मीदवार मतदाताओं को गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, स्कूल खुलवाने जैसे – अनेक रंगीन वादों से ठगते हैं। परन्तु बेरोजगारी और गरीबी उद्योगों की स्थापना से मिटेगी, न कि नकली वाग्जाल से 1 अन्यथा इससे हमारी आस्था समाप्त हो जाएगी।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 38)

Previous Post Next Post