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 Bihar Board Class 12th Political Science Notes Chapter 15 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

Bihar Board Class 12th Political Science Notes Chapter 15 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

→ सन् 1967 के पश्चात् से भारतीय राजनीति में इन्दिरा गांधी एक मजबूत नेता के रूप में उभरी थीं तथा उनकी लोकप्रियता अपने उच्चतम स्तर पर थी। इस दौर में दलगत प्रतिस्पर्धा कहीं अधिक तीखी व ध्रुवीकृत हो चली थी।

→ सन् 1971-72 के बाद के वर्षों में भी देश की सामाजिक-आर्थिक दशा में कुछ विशेष सुधार नहीं हुआ। बंगलादेश के संकट से भारत की
अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा था। लगभग 80 लाख शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भारत आ गए थे। ।

→ सन् 1972-73 के वर्ष में मानसून असफल रहा। इससे कृषि पैदावार में कमी आई। आर्थिक स्थिति की बदहाली को लेकर पूरे देश में असन्तोष का माहौल था। इस स्थिति में गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने बड़े कारगर ढंग से जन विरोध का नेतृत्व किया।

→ इस अवधि में कुछ मार्क्सवादी समूहों की सक्रियता भी बढ़ी। इन समूहों ने वर्तमान राजनीतिक प्रणाली तथा पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए हथियार उठाए व राज्य विरोधी तकनीकों का सहारा लिया। ये समूह मार्क्सवादी-लेनिनवादी (अब माओवादी) या नक्सलवादी के नाम से जाने गए।

→ गुजरात और बिहार दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी। गुजरात में जनवरी 1974 में छात्रों ने खाद्यान्न, खाद्य तेल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमत तथा उच्च पदों पर जारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन छेड़ दिया।

→ मोरारजी देसाई अपने कांग्रेस के दिनों में इन्दिरा गांधी के प्रमुख विरोधी रहे थे।

→ मार्च 1974 में बढ़ती हुई कीमतों, खाद्यान्न के अभाव, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार के छात्रों ने भी आन्दोलन छेड़ दिया। आन्दोलन के क्रम में इन्होंने जयप्रकाश नारायण (जेपी) को बुलावा भेजा। आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना प्रारम्भ हुआ।

→ सन् 1975 में जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने जनता के ‘संसद मार्च’ का नेतृत्व किया। जयप्रकाश नारायण को भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी जैसे गैर-कांग्रेसी दलों का समर्थन प्राप्त था।

→ सन् 1974 में रेलवे कर्मचारियों के संघर्ष से सम्बन्धित राष्ट्रीय समन्वय समिति ने जॉर्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में रेलवे कर्मचारियों की एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया।

→ केशवनन्द भारती के विख्यात केस में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संविधान का एक बुनियादी ढाँचा है और संसद इन ढाँचागत विशेषताओं में संशोधन नहीं कर सकती है।

→ सन् 1973 में सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी करके इनसे कनिष्ठ न्यायमूर्ति ए०एन० रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यह निर्णय राजनीतिक रूप से विवादास्पद बन गया।

→ 25 जून, 1975 के दिन सरकार ने घोषणा की कि देश में गड़बड़ी की आशंका है और इस तर्क के साथ उसने संविधान के अनुच्छेद-352 को
लागू कर दिया। इस अनुच्छेद में प्रावधान किया गया है कि बाहरी या आन्तरिक गड़बड़ी की आशंका होने पर सरकार आपातकाल लागू कर सकती है।

→ आपातकाल की घोषणा के साथ ही शक्तियों के बँटवारे का संघीय ढाँचा व्यावहारिक तौर पर निष्प्रभावी हो जाता है और समस्त शक्तियाँ केन्द्र सरकार के हाथ में चली जाती हैं। दूसरे, सरकार चाहे तो ऐसी स्थिति में किसी एक अथवा मौलिक अधिकारों पर रोक लगा सकती है अथवा इनमें कटौती कर सकती है।

→ आपातकालीन प्रावधानों में प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी।

→ सरकार ने निवारक नजरबन्दी को बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। इस प्रावधान में लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान में लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं।

→ मई 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री जे० सी० शाह की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। इस आयोग का गठन 25 जून, 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गयी कार्रवाई तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलुओं की जाँच के लिए किया गया था।

→ आपातकाल की घोषणा के कारण का उल्लेख करते हुए संविधान में बड़े सादे ढंग से ‘अन्दरूनी गड़बड़ी’ जैसे शब्द का व्यवहार किया गया है।

→ राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और प्रेस पर लगी पाबन्दी के अलावा आपातकाल का बुरा प्रभाव आम लोगों को भुगतना पड़ा।

→ 18 महीने के आपातकाल के बाद जनवरी 1977 में सरकार ने चुनाव कराने का फैसला किया।

→ सन् 1977 के चुनावों को जनता पार्टी ने आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया।

→ चुनाव के अन्तिम परिणामों ने सभी को चौंका दिया। स्वतन्त्रता के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार गयी।

→ मोरारजी देसाई देश के प्रधानमन्त्री बने, लेकिन इससे जनता पार्टी के भीतर सत्ता की खींचतान समाप्त नहीं हुई। इस सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया। कांग्रेस पुन: सत्ता में आई।

→ सन् 1980 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को विजय प्राप्त हुई एवं इन्दिरा गांधी प्रधानमन्त्री बनीं।

→ आपातकाल और इसके आस-पास की अवधि को हम संवैधानिक संकट की अवधि के रूप में भी देख सकते हैं। संसद और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर छिड़ा संवैधानिक संघर्ष भी आपातकाल के मूल में था।

→ आपातकाल-विकट स्थिति का समय। सन् 1973 से 1975 के बीच आए बदलावों की परिणति देश में ‘आपातकाल’ लागू कराने के रूप में हुई। सन् 1975 में जून माह में देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी। आपातकाल से हमारे मन में युद्ध और आक्रमण या प्राकृतिक आपदा की तस्वीर सामने आती है लेकिन अपने देश में आपातकाल की यह घोषणा अन्दरूनी अव्यवस्था की आशंका को ध्यान में रखते हुए की गयी थी।

→ सम्पूर्ण क्रान्ति–जयप्रकाश नारायण ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दायरे में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का आह्वान किया ताकि उन्हीं के शब्दों में ‘सच्चे लोकतन्त्र’ की स्थापना की जा सके।

→ गुरिल्ला युद्ध-थोड़े से लोगों द्वारा बड़ी सैन्य शक्ति के विरुद्ध छुपकर लड़ने की युद्ध नीति को गुरिल्ला युद्ध कहा जाता है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी ने क्रान्ति करने के लिए गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई।

→ प्रेस सेंसरशिप-आपातकालीन प्रावधानों के अन्तर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेना आवश्यक है। इसे ‘प्रेस सेंसरशिप’ के नाम से जाना जाता है।

→ मौलिक अधिकार–नागरिकों के सर्वांगीण विकास हेतु मौलिक अधिकार आवश्यक हैं। भारत के
संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का प्रावधान है। भारतीय संविधान में नागरिकों को छह मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। इनका उल्लंघन होने पर नागरिक न्यायालय की शरण ले सकता है। इन अधिकारों को आपातकाल के दौरान प्रतिबन्धित किया जा सकता है।

→ निवारक नजरबन्दी-आपातकाल के दौरान सरकार ने निवारक नजरबन्दी का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान में लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान में लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं।

→ बन्दी प्रत्यक्षीकरण–व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए यह लेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है। इस तरह अनुचित एवं गैर-कानूनी रूप से बन्दी बनाए गए व्यक्ति बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख के आधार पर स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं। दोनों पक्षों की बात सुनकर न्यायालय इस बात पर निर्णय करता है कि नजरबन्दी वैध है अथवा अवैध।

→ शाह जाँच आयोग-मई 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य
न्यायाधीश श्री जे० सी० शाह की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। इस आयोग का गठन ’25 जून, 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गई कार्यविधि तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलुओं की जाँच के लिए किया गया था।

→ चारु मजूमदार-कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी एवं नक्सली नेता। इन्होंने क्रान्तिकारी हिंसा का नेतृत्व किया। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की स्थापना करने वाले मजूमदार की पुलिस हिरासत में मौत हो गयी।

→ लोकनायक जयप्रकाश नारायण-जेपी के नाम से प्रसिद्ध। सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के नायक। बिहार आन्दोलन के नेता। इन्होंने आपातकाल का विरोध किया।

→ मोरारजी देसाई-भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री। स्वतन्त्रता सेनानी एवं गांधीवादी नेता के रूप में प्रसिद्ध।

→ चौधरी चरणसिंह-मोरारजी देसाई के बाद देश के प्रधानमन्त्री बने। इन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में अपना योगदान दिया।

→ जगजीवन राम-स्वतन्त्रता सेनानी तथा बिहार के कांग्रेसी नेता। देश के उप-प्रधानमन्त्री रहे।

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