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 भारतीय विज्ञान : विकास के विभिन्न चरण व उपलब्धियाँ (Indian Science : Different Stages of Development and Achievements)


भारतीय विज्ञान : विकास के विभिन्न चरण व उपलब्धियाँ
(Indian Science : Different Stages of Development and
Achievements)

सुविधानुसार समग्र भारतीय वैज्ञानिक परंपरा को निम्नलिखित 2 चरणों में बाँटा जा सकता है-


जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि हड़प्पा व मोहनजोदड़ो सभ्यताओं
से विज्ञान का प्रयोग शुरू हो चुका था। उनके भवन निर्माण, धातु विज्ञान,
वस्त्र निर्माण, परिवहन व्यवस्था आदि उन्नत दशा में विकसित हो चुके
थे। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल, कालीबंगा, चन्हुदड़ो, बनवाली, सुरकोटदा
आदि स्थानों पर हुई खुदाई में मिले नगरों के खंडहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण
हैं। फिर आर्यों के साथ भारत में विज्ञान की परंपरा और विकसित हुई। 
वैदिक काल से भारत में विज्ञान के सैद्धांतिक पहलुओं की जानकारी एवं
उनके प्रयोग के नए युग की शुरुआत होती है। इस काल में अनेक ऐसे
ग्रंथों की रचना हुई जो धार्मिक दृष्टि के साथ-साथ वैज्ञानिक एवं तकनीकी
दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय के एक प्रसिद्ध ग्रंथ 'शुल्व-सूत्र'
में यज्ञशालाओं तथा हवनकुंडों की ज्यामितीय आकृतियों का सचित्र वर्णन
मिलता है। प्राचीन काल में गणित, ज्योतिष, रसायन, खगोल, चिकित्सा,
धातु आदि क्षेत्रों में विज्ञान ने खूब उन्नति की। इस काल में आर्यभट्ट,
वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, बोधायन, चरक, सुश्रुत, कणाद से लेकर नागार्जुन
तक वैज्ञानिकों की एक लंबी फेहरिस्त देखने को मिलती है।
प्राचीन भारत में खगोल विज्ञान बहुत उन्नत था। आर्यभट्ट ने खगोल
विज्ञान को नई ऊँचाइयाँ दीं। उनके 'आर्यभटीयम्' ग्रंथ में कुल 121
श्लोक हैं। इसमें खगोल विषयक परिभाषाओं, नक्षत्रों की सही स्थिति
को पहचानने के विभिन्न तरीकों, सूर्य और चंद्रमा की गतियों के वर्णन,
ग्रहणों की गणना जैसे अनेक खंड हैं। आर्यभट्ट ने वर्गमूल, घनमूल,
त्रिभुज का क्षेत्रफल, पिरामिड का आयतन, वृत्त का क्षेत्रफल आदि संबंधी
अवधारणाएँ दीं। उन्होंने शून्य को केवल संख्या नहीं, बल्कि एक चिह्न
के रूप में व्याख्यायित किया।
वराहमिहिर ने खगोल शास्त्र संबंधी प्रसिद्ध रचना 'बृहत्संहिता' में
बता दिया था कि चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा करता है। उन्होंने
जलविज्ञान, भूगर्भीय विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान के क्षेत्र में विशेष
योगदान दिया। वराहमिहिर ने अपने ज्योतिष ग्रंथ 'पंचसिद्धांतिका' में
सर्वप्रथम बताया कि अयनांश (Amount of Precession) का मान 50.32
सेकंड के बराबर होता है। उन्होंने आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित 'ज्या सारणी'
को और अधिक परिशुद्ध किया। उन्होंने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं
के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया।
बोधायन छठी शताब्दी ईसा पूर्व के गणितज्ञ थे, जिन्होंने सर्वप्रथम
'पाई' के मान की गणना की। उन्होंने पाइथागोरस से वर्षों पहले उसके
सिद्धांत की अवधारणा प्रस्ततु की। उन्होंने ज्यामितीय विधि द्वारा 2 के
वर्गमूल को दशमलव के पाँच अंकों तक ज्ञात किया। ब्रह्मगुप्त जो प्राचीन
भारत के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी एवं गणितज्ञ थे, ने चक्रीय चतुर्भुज के
क्षेत्रफल और विकर्णों की लंबाई ज्ञात करने, शून्य के प्रयोग के नियम
और द्विघात समीकरणों को हल करने के सूत्र दिये। ब्रह्मगुप्त गणित के
सिद्धांतों को ज्योतिष में प्रयोग करने वाले प्रथम विद्वान थे। ब्रह्मगुप्त का
प्रसिद्ध ग्रंथ, 'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' है, जिसमें शून्य का प्रयोग एक अलग
अंक के रूप में किया गया है तथा इसमें ऋणात्मक अंकों से संबंधित
नियम भी दिये गए हैं।
चरक, जिन्हें प्राचीन भारतीय 'औषध विज्ञान का जनक' माना जाता
है, ने सर्वप्रथम पाचन, चयापचय और शरीर प्रतिरक्षा की अवधारणा को
दुनिया के सामने रखा। उन्होंने बताया कि शरीर में 'वात-पित्त-कफ'
जैसे त्रिदोष पाए जाते हैं। ये त्रिदोष शरीर की समस्त क्रियाओं के लिये
उत्तरदायी होते हैं। उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ 'चरक संहिता' का
संपादन किया जिसमें बड़ी संख्या में रोगों के वर्णन के साथ-साथ रोग
निरोधक और रोगनाशक जड़ी-बूटियों का उल्लेख है। 'शल्य चिकित्सा के
पितामह' पंडित सुश्रुत ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'सुश्रुत संहिता' में 121 शल्य 
उपकरणों का वर्णन किया है। उन्होंने अस्थियों को जोड़ने और आँखों
के मोतियाबिंद आदि ऑपरेशनों का तरीका भी बताया है। रोग मुक्ति के
लिये नाड़ियों पर शल्य क्रिया (न्यूरोसर्जरी) का भी 'सुश्रुत संहिता' में
उल्लेख किया गया है। उन्होंने बहुत ही शुद्ध रूप में कटे अंगों को जोड़ने
की विधि का विवरण दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि जो क्रम
सुश्रुत ने भंग (कटे-फटे) अंगों को आपस में जोड़ने का बताया है, वही
क्रम आज के प्लास्टिक सर्जरी के विशेषज्ञों द्वारा अपनाया जा रहा है।
'सुश्रुत संहिता' में कुछ गंभीर प्रकार की शल्य क्रिया के भी उदाहरण
दिये गए हैं, जैसे- गर्भ से शिशु निकालना (सिजेरियन), जख्मी मलाशय
को ठीक करना, मूत्राशय से पथरी निकालना आदि।
प्राचीन भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का विकास किस ऊँचाई
तक पहुँच चुका था, बिना महर्षि कणाद और नागार्जुन की चर्चा के
अधूरी-सी जान पड़ती है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के वैज्ञानिक महर्षि
कणाद छ: भारतीय दर्शनों में से एक 'वैशेषिक दर्शन' के प्रतिपादक
थे। महर्षि कणाद के अनुसार, “यह भौतिक विश्व परमाणुओं से बना
है, जिन्हें मानवीय आँखों से नहीं देखा जा सकता। इनका पुनः विखंडन
नहीं किया जा सकता अर्थात् न तो इन्हें विभाजित किया जा सकता
है और न ही इनका विनाश संभव है।" अतः निस्संदेह यह वही तथ्य
है, जो आधुनिक आणविक सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। परमाणुओं
के बारे में महर्षि कणाद का यह कथन डॉल्टन से लगभग 2500 वर्ष
पहले का है तथा ऐसा पहली बार था, जब किसी ने परमाणुओं के बारे
में बात की थी।
दसवीं शताब्दी के महान वैज्ञानिक नागार्जुन के परीक्षणों का मूल
उद्देश्य धातुओं को सोने में बदलना था, जैसा कि पश्चिमी दुनिया के
कीमियागर (Chemist) करते थे। हालाँकि, उनको इस दिशा में सफलता
नहीं प्राप्त हो सकी, फिर भी वे सोने जैसी चमक वाले एक तत्त्व का
न निर्माण कर सके। आज इसी तकनीक का प्रयोग कर नकली जेवर
बनाए जाते हैं।
के भारतीय धातु विज्ञान में कितने प्रवीण थे, इसका जीवंत प्रमाण
न है- महरौली का लौह स्तंभ। कुतुब मीनार परिसर में स्थापित लौह स्तंभ
के उच्च कोटि की मिश्रित धातुओं का जीवंत उदाहरण है। सैकड़ों वर्षों
म से खुले आकाश तले खड़े इस लौह स्तंभ में आज तक जंग नहीं लगा
के है। प्राचीन काल में क्षार और अम्ल का उत्पादन किया जाता था तथा
का उनका उपयोग औषधियों के निर्माण में किया जाता था। इसी तकनीक
का उपयोग अन्य शिल्प कलाओं, जैसे- रंगों और डाई आदि बनाने में
त किया जाता था। अजंता के चित्र सैकड़ों वर्ष बाद भी अपनी चमक के
कारण रंगों की उत्तमता को प्रदर्शित करते हैं। एक तरफ जहाँ प्राचीन
ता काल में भारतीयों ने वस्त्र निर्माण में असाधारण दक्षता प्राप्त की थी तो
को दूसरी तरफ उनका रत्न विज्ञान भी उच्च कोटि का था। भारतीयों को
मुक्ता, स्फटिक, पुलक, गोमेद, प्रवाल, उत्पल, पुष्पराग (पुखराज) आदि
रत्नों का ज्ञान था। हीरा जैसे कठोरतम पदार्थ को काटने के उपकरण भी
नये प्राचीन काल में भारतीयों ने विकसित किये थे।

 मध्यकालीन तथा आधुनिक भारतीय विज्ञान

के मध्यकाल में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की कोई विशेष प्रगति नहीं
हुई। यद्यपि शासकों के प्रयासों से भारतीय पारंपरिक वैज्ञानिक संस्कृति 
और दूसरे देशों में प्रचलित वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मध्य समन्वय के
प्रयास किये जाते रहे। इस काल में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी दो धाराओं में
विकसित हुई- प्राचीन परंपराओं पर आधारित ज्ञान और इस्लामिक व
यूरोपियन प्रभाव से उत्पन्न नए विचारों पर आधारित ज्ञान।
प्रारंभिक मध्य युग में भारत के विभिन्न गणितज्ञों ने गणित के क्षेत्र
में विशेष कार्य किये हैं। श्रीधर का 'गणितसार' और भास्कराचार्य द्वारा
रचित 'लीलावती' ने गणित के क्षेत्र में 'मील का पत्थर' स्थापित किया।।
'गणितसार' में गुणा, भाग, संख्या, घन, वर्गमूल, क्षेत्रमिति आदि के विषय
में पर्याप्त जानकारी दी गई है। 'लीलावती' नामक ग्रंथ में अंकगणित,
बीजगणित तथा अन्य का विवेचन किया गया है। यह ग्रंथ एक 'पाटीगणित'
(ज्ञात अंकों से अज्ञात अंकों को जानने की विद्या) है, जिसमें त्रिकोणमिति,
त्रिभुज तथा चतुर्भुज का क्षेत्रफल, पाई का मान, गोलों के तल का क्षेत्रफल
तथा आयतन आदि के बारे में जानकारी (प्रश्न-उत्तर के रूप में) दी गई है।
मध्यकाल में आयुर्वेद और औषध पद्धति का विकास उतने अच्छे
तरीके से नहीं हो पाया, जितना कि प्राचीन काल के दौरान हुआ था।
दरअसल, इस समय औषध पद्धति को राजकीय संरक्षण का पर्याप्त अभाव
था, बावजूद इसके 'चिकित्सासमग्र' तथा 'भावप्रकाश' जैसी आयुर्वेद की
कुछ प्रमुख कृतियों की रचना की गई। मध्यकाल में विभिन्न बीमारियों
पर विशेष शोध प्रबंधन करने तथा बीमारियों के निदान के लिये नाडी
व मूत्र परीक्षण की व्यवस्था थी। शारंगधर रचित 'शारंगधर संहिता' में
अफीम को औषध के रूप में उपयोग किये जाने की बात कही गई है।
जबकि वहीं लगभग 17वीं शताब्दी में 'मुहम्मद मुनीन' द्वारा रचित फारसी
ग्रंथ 'तुहफ़त-उल-मुमीनिन' में विभिन्न चिकित्सकों के मतों का वर्णन
किया गया है।
मध्यकाल में रसायन विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति देखने को मिलती है।
इस काल में भारत में कागज़ का प्रयोग शुरू हो गया था। कागज़ के
निर्माण में रसायन शास्त्र का विशेष योगदान था। मुगलों के पास बारूद
निर्माण और उसका बंदूकों में प्रयोग किये जाने के विषय में विस्तृत
जानकारी थी। मुगल शासक बाबर ने अपनी आत्मकथा 'तुजुक-ए-बाबरी'
में तोप के गोलों को भी बनाने का वर्णन किया है। वहीं, 'आइन-ए-अकबरी'
में अकबर के इत्र कार्यालय के नियमन का वर्णन मिलता है। उस काल
में गुलाब के इत्र की सुप्रसिद्ध सुगंध होती थी, जिसे बनाने का श्रेय
नूरजहाँ की माँ 'अस्मत बेगम' को दिया जाता है।
मध्यकाल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का चरमोत्कर्ष स्थापत्य क्षेत्र
में देखने को मिलता है। इस काल में निर्मित विभिन्न ऐतिहासिक स्मारक
आज भी संपूर्ण विश्व के लिये आश्चर्यजनक है। इस संदर्भ में 'ताजमहल'
का उल्लेख आवश्यक है। ताजमहल का निर्माण मुगल सम्राट शाहजहाँ
ने अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में करवाया था। ताजमहल की
सर्वप्रमुख विशेषता है उसके प्रस्तर-खंडों पर उकेरी गई आकृतियाँ, जो
आधार से लेकर शीर्ष तक एक ही आकार की दिखती हैं।
ध्यान देने योग्य है कि भारत में प्राचीन समय से ही यातायात के
क्षेत्र में अच्छी तकनीक का उपयोग किया जाता रहा है। 
मध्यकाल में अफगान शासक शेरशाह द्वारा निर्मित ग्रैंड ट्रंक रोड (जी.टी. रोड)
अद्वितीय है।
मध्यकाल में जीव विज्ञान और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रगति
देखने को मिलती है। जहाँगीर द्वारा रचित 'तुजुक-ए-जहाँगीरी' में पशुओं
की कुल 36 प्रजातियों का वर्णन किया गया है। इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ में
जहाँगीर ने जनन प्रक्रिया और संकरण का अवलोकन तथा प्रयोगों का
विस्तृत लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। खगोल के क्षेत्र के अगर देखा जाए
तो जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी,
मथुरा और जयपुर नक्षत्र विषयक वेधशालाएँ बनवाई।
मुगल शासन के बाद जब अंग्रेजी शासन स्थापित हुआ तो भारत
में एक बार फिर से विज्ञान की परंपरा तेजी से विकास की ओर उन्मुख
हुई। भारतीय वैज्ञानिक परंपरा, विभिन्न संस्कृतियों के साथ मिलकर काफी
प्रौढ़ हो चुकी थी। अंग्रेजी शासन के दौरान ज्ञान-विज्ञान के विविध स्रोत
और संसाधन विकसित हुए, जिस कारण यहाँ की वैज्ञानिक परंपरा को
विकसित होने के लिये अधिक उर्वर भूमि प्राप्त हुई।
भारत में आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा का विकास मुख्य रूप से ईस्ट
इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद से शुरू हुआ। गौरतलब है कि आधुनिक
वैज्ञानिक परंपरा प्राचीन वैज्ञानिक परंपरा से बहुत भिन्न नहीं है, बल्कि
उसी को आगे बढ़ाने वाली एक कड़ी के रूप में विकसित हुई है। दोनों
परंपराओं के विकास में एक मूलभूत अंतर है, वह है 'यांत्रिकी का
विकास'। यांत्रिकी के विकास ने ही विज्ञान की सभी शाखाओं और
प्रौद्योगिकी के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधानों और आविष्कारों के माध्यम
से आधुनिक वैज्ञानिक परंपरा को समृद्ध किया है।
15 अगस्त, 1947 से पहले भारत ब्रिटेन के अधीन था। अत: ब्रिटेन
की औद्योगिक क्रांति और उसके वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय विकास का
असर भारत में भी होना स्वाभाविक था। ब्रिटिश शासन के अधीन रहते
हुए अधिकतर अनुसंधान अंग्रेजों द्वारा ही किये गए। भारत में विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी की असल शुरुआत तो 1940 के दशक से ही मानी जाती
है जब 26 सितंबर, 1942 को डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर की कोशिशों
के चलते वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (CSIR) की स्थापना
दिल्ली में एक स्वायत्त संस्था के रूप में हुई। अत: इसी विकास ने 'लैब
टू लैंड' जैसी अवधारणाओं को साकार करने में योगदान दिया। 1938
के 'नेहरू ड्राफ्ट' में भी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास को ही भारत
के विकास के साथ जोड़ा गया, जो स्वतंत्रता के बाद एक राष्ट्रीय
आवश्यकता के रूप में सामने आया। अत: इसी के परिणामस्वरूप
डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल
नेहरू की वैज्ञानिक सोच और संयुक्त प्रयासों से जनवरी 1955 में डॉ.
भटनागर की मृत्यु तक देश के विभिन्न स्थानों पर किसी-न-किसी उद्योग
से जुड़ी, लगभग 15 अनुसंधान प्रयोगशालाओं की स्थापना हो चुकी थी।
डॉ. भटनागर के प्रयासों को नेहरू ने सदैव पूर्ण सहयोग दिया। इसलिये
प्रयोगशालाओं की बढ़ती कड़ी को 'नेहरू-भटनागर प्रभाव' कहा गया।
आधुनिक भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास-क्रम को
उद्योग, कृषि, चिकित्सा, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिकी, संचार, अंतरिक्ष, परिवहन, 
रक्षा आदि क्षेत्रों में बखूबी देखा जा सकता है। आज भारत न
सिर्फ दूसरे देशों से तकनीक लेकर अद्भुत कार्य कर रहा है बल्कि
मौलिक स्तर पर भी अपना योगदान कर रहा है। भारत हर प्रकार से
समाज के विभिन्न क्षेत्रों में वैज्ञानिक विकास में अग्रणी है।
अगर हम बात उद्योग क्षेत्र की करें तो देखा जा सकता है कि भारत
सरकार द्वारा लगातार इस दिशा में आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के
उपयोग को बल दिया जा रहा है। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान
परिषद् (CSIR) और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) इस
दिशा में विभिन्न अनुसंधान कार्यों को संपन्न कराने तथा उद्योग के क्षेत्र
में विभिन्न रसायनों, मशीनों, औषधियों, कीटनाशकों, खाद्य तकनीकी
आदि के निर्माण में सहायक भूमिका निभा रहे हैं। यहाँ तक कि अंतरिक्ष
में छोड़ी जाने वाली मिसाइलों का निर्माण कार्य भी इन्हीं संस्थानों के
माध्यम से किया जा रहा है।
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में आज भारत की गिनती विश्व के अग्रणी
देशों में होती है। वस्तुत: भारत में अंतरिक्ष कार्यक्रम का सूत्रपात सन्
1962 में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति के गठन से हुआ, :
जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय विकास के लिये अंतरिक्ष तकनीक में आत्मनिर्भरता
प्राप्त करना है। 1969 में गठित भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन :
(ISRO) नित नई उपलब्धियाँ हासिल करता जा रहा है। भारत पीएसएलवी,
जीएसएलवी, अंतरिक्ष प्रक्षेपण यानों की सफलता के बाद अब पुनरोपयोगी
प्रक्षेपण यान की ओर अपने कदम बढ़ा रहा है। चंद्रयान-I तथा मंगल
मिशन की सफलता के बाद अब चंद्रयान-II पर तेज़ गति से कार्य हो रहा
है। अब इसरो न केवल स्वदेशी, बल्कि विकसित देशों के उपग्रहों को
भी भू-कक्षा में स्थापित कर रहा है तथा व्यावसायिक लाभ कमा रहा है।
नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत की उपलब्धि शानदार रही है।
1948 में नेहरू ने कहा था, "भविष्य उनका है, जो परमाणु ऊर्जा से
युक्त होंगे।" अत: यह कथन परमाणु ऊर्जा की महत्ता को स्वयं ही स्पष्ट
कर देता है। इसी क्रम में डॉ. होमी जहाँगीर भाभा के अथक प्रयासों के
फलस्वरूप सन् 1948 में 'परमाणु ऊर्जा आयोग' का गठन हुआ। परमाणु
ऊर्जा के अंतर्गत नाभिकीय अनुसंधान के क्षेत्र में मुंबई स्थित भाभा परमाणु
अनुसंधान केंद्र (BARC) की भूमिका सराहनीय है। यहाँ हो रहे नित नए
अनुसंधानों के कारण हम पोखरण-II का सफल परीक्षण कर विश्व की
परमाणु शक्ति वाले देशों की पंक्ति में आ खड़े हुए हैं।
कृषि के क्षेत्र में भारत ने काफी प्रगति की है। आज भी भारत की
आधी से ज्यादा आबादी कृषि क्षेत्र से जुड़ी है। 20वीं सदी के छठे दशक
को भारतीय कृषि क्षेत्र के इतिहास में 'मील का पत्थर' कहा जाता है।
डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन, डॉ. बी.पी. पॉल और डॉ. नॉर्मन बोरलॉग के
प्रयासों से 'हरित क्रांति' ने देश को अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया।
दिल्ली स्थित 'भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्' (ICAR) भारत में
बागवानी, मत्स्यन और पशु विज्ञान सहित कृषि के क्षेत्र में समन्वय,
मार्गदर्शन और अनुसंधान प्रबंधन के लिये सर्वोच्च निकाय है। यह एक
स्वायत्त संस्था है। इस संस्था के प्रयासों के फलस्वरूप ही 1950-51 से
2017-18 तक खाद्यान्न का उत्पादन लगभग 5.6 गुना, बागवानी फसलें 
लगभग 10.5 गुना, मत्स्य उत्पादन लगभग 16.8 गुना, दुग्ध उत्पादन लगभग
10.4 गुना तथा अंडा उत्पादन लगभग 52.9 गुना बढ़ा है। राष्ट्रीय खाद्य एवं
पोषण सुरक्षा पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है। कृषि में उच्च
शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टता बढ़ाने में परिषद् की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
आज हम देख सकते हैं कि वैज्ञानिक अनुसंधानों के बलबूते भारत
ने मोटर उद्योग, वस्त्र उद्योग, जलयान निर्माण आदि में आजादी के बाद
से लेकर अब तक काफी प्रगति की है। लेकिन रेलवे, रक्षा जैसे कुछ
क्षेत्र ऐसे भी हैं जहाँ भारत वैश्विक मानकों के आधार पर काफी पीछे
है और देश की जनसंख्या एवं अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की दृष्टि
से अभी हमें काफी लंबा सफर तय करना है।

भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का आधारभूत ढाँचा (Infrastructure of Science and Technology in India)

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की प्राचीन काल की
उपलब्धियों से लेकर 21वीं शताब्दी में प्राप्त महान सफलताओं की एक
लंबी और अनूठी परंपरा रही है। स्वतंत्रता पूर्व के 50 वर्षों में ज्यादातर
काम विशुद्ध अनुसंधान के क्षेत्र में हुए। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारा
वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी ढाँचा न तो विकसित देशों जैसा मज़बूत था और
न ही संगठित। इसके फलस्वरूप हम प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अन्य देशों
में उपलब्ध हुनर और विशेषज्ञता पर आश्रित थे। पिछले चार दशकों के
- दौरान राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये एक आधारभूत
ढाँचा बना है। आज हमने वह सामर्थ्य उत्पन्न कर ली गई है जिससे
अन्य देशों पर भारत की निर्भरता घटी है। यहाँ वस्तुओं, सेवाओं और
ने उत्पादों के लिये व्यापक पैमाने पर लघु उद्योग से लेकर अत्याधुनिक परिष्कृत 
उद्योगों तक की स्थापना की जा चुकी है। मूलभूत और अनुप्रयुक्त विज्ञान के क्षेत्र 
की नवीनतम जानकारी से लैस अनुभवी विशेषज्ञों का 
समूह अब हमारे पास उपलब्ध है जो प्रौद्योगिकियों में से विकल्प चुन
सकता है, नई प्रौद्योगिकियों का उपयोग कर सकता है और देश के भावी
विकास का ढाँचा तैयार कर सकता है।
उल्लेखनीय है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का विकास तभी संभव
है, जब उसकी आधारभूत संरचना सुव्यवस्थित व सुस्पष्ट हो। भारत में
वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय गतिविधियाँ केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, उच्चतर
शैक्षणिक क्षेत्र, सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र के उद्योगों और गैर-लाभार्थी
संस्थानों, संघों समेत एक विस्तृत ढाँचे के अंतर्गत संचालित की जाती
हैं। संस्थागत प्रतिष्ठानों ने अपनी अनुसंधान प्रयोगशालाओं के जरिये देश 
में अनुसंधान और विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इनमें प्रमुख हैं
** वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (CSIR)
** भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR)
** भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् (ICMR)
इसके अतिरिक्त विभिन्न मंत्रालयों/विभागों के अधीन प्रयोगशालाएँ हैं, जैसे-
** परमाणु ऊर्जा विभाग
** महासागर विकास विभाग
** इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग
** रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO)
** विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय
** अंतरिक्ष विभाग
** पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय
** नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय
औद्योगिक उपक्रमों की अपनी लगभग 12,000 अनुसंधान व विकास
इकाइयाँ हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों में
भी विज्ञान संबंधी अनुसंधान एवं विकास कार्य जारी हैं।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से संबद्ध केंद्रीय स्तर पर योजनाओं का
निर्माण नीति आयोग द्वारा होता है। भारत सरकार के अधीन सभी मंत्रालयों
में अधुनातन प्रौद्योगिकी तथा सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों के बीच समन्वय
एवं अपेक्षित प्रौद्योगिकी के निर्माण के लिये सलाहकार समितियों की
व्यवस्था की गई है।
भारत में वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय गतिविधियों से संबंधित 6 विभाग केंद्र सरकार के अधीन कार्यरत हैं-
1. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology-DST)
2. वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान विभाग (Department of Scientific and Industrial Research-DSIR)
3. जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology-DBT)
4. सामुद्रिक विकास विभाग (Department of Ocean Development- DOD)
5, अंतरिक्ष विभाग (Department of Space-DOS)
6. परमाणु ऊर्जा विभाग (Department of Atomic Energy-DAE)
है। यह सामाजिक प्रयासों से जुड़े अनेक क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकीय
अंतराक्षेपण उपलब्ध कराता है, जिसमें पर्यावरण, स्वास्थ्य, पेयजल, खाद्य,
आवास, ऊर्जा, कृषि एवं गैर-कृषि क्षेत्र शामिल हैं। इसके अतिरिक्त,
वैज्ञानिक एवं तकनीकी मानव संसाधन विकास में सीएसआईआर की
भूमिका उल्लेखनीय है।
सीएसआईआर का प्रमुख उद्देश्य है- “ऐसा वैज्ञानिक औद्योगिक
अनुसंधान एवं विकास उपलब्ध कराना जिससे भारत की जनता को
अधिकतम आर्थिक, पर्यावरणीय एवं सामाजिक लाभ होते हों।"
सीएसआईआर ने नवीन विज्ञान और उन्नत ज्ञान के क्षेत्रों में अग्रणी कार्य
किया है। सीएसआईआर का वैज्ञानिक स्टाफ भारत की वैज्ञानिक जनशक्ति
का लगभग 3-4 प्रतिशत है किंतु भारत के वैज्ञानिक निर्गत में उनका
योगदान लगभग 10 प्रतिशत है। सीएसआईआर प्रतिवर्ष औसतन लगभग
200 भारतीय पेटेंट और 250 विदेशी पेटेंट फाइल करता है। सीएसआईआर
के लगभग 13.86 प्रतिशत पेटेंट को लाइसेंस प्राप्त है, जो वैश्विक औसत
से अधिक है।
सीएसआईआर ने उद्यमशीलता को प्रोत्साहन देने के लिये वांछित
क्रियाविधि तैयार की है जिससे नए आर्थिक क्षेत्रों के विकास को नया
आधार बनाते हुए मूल और वृहद् नवोन्मेषों के सृजन और वाणिज्यीकरण
को प्रोत्साहन दिया जा सकेगा।
गौरतलब है कि वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय मानव संसाधन विकास
के लिये सीएसआईआर के अग्रणी सतत योगदान को राष्ट्रीय स्तर पर
सराहा गया है। सीएसआईआर का एक प्रभाग, मानव संसाधन विकास
समूह (HRDG) इस उद्देश्य को विभिन्न अनुदानों, फेलोशिप स्कीमों आदि
के माध्यम से साकार करता है। मानव संसाधन विकास समूह जिज्ञासु
समाज एवं तेजी से विकसित होने वाली ज्ञान अर्थव्यवस्था का निर्माण
करने के लिये महत्त्वपूर्ण योगदान देता रहा है। इसकी अनेक स्कीमों में
वैज्ञानिकों की व्यापक श्रेणियाँ (15 से 65 वर्ष की आयु) शामिल हैं।

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