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 पहनावे का सामाजिक इतिहास | Social History of Clothing 



** मध्यकालीन यूरोप में समाज के विभिन्न तबकों पर परिधान-संहिताएँ लागू करने के लिए कानून बनाए जाते थे और इसमें अकसर बारीक चीजों पर भी ध्यान दिया जाता था।
** करीब सन् 1294 से फ्रांसीसी क्रान्ति (सन् 1789) तक, फ्रांस के लोगों से उम्मीद की जाती थी कि वे सम्चुअरी कानूनों का पालन करें। इन कानूनों का मकसद था समाज के निचले तबकों के व्यवहार का नियन्त्रण उन्हें खास-खास कपड़े पहनने,खास व्यंजन खाने और खास तरह के पेय (मुख्यतः शराब) पीने और खास इलाकों में शिकार खेलने की मनाही थी। इस तरह वह मध्यकालीन फ्रांस में एक साल में कोई कितने कपड़े खरीद सकता है, यह सिर्फ उसकी आमदनी पर निर्भर नहीं था बल्कि उसके सामाजिक ओहदे से भी तय होता था। परिधान सामग्री भी कानून-सम्मत होनी थी। सिर्फ शाही खानदान ही बेशकीमती कपड़े
** एमाइन, फर, रेशम, मखमल या जरी की पोशाक सिर्फ राजा-रजवाड़े ही पहन सकते थे। कुलीनों से जुड़े कपड़ों के जनसाधारण द्वारा इस्तेमाल पर पाबन्दी थी। फ्रांसीसी क्रान्ति ने इस
** सारे सम्झरी कातून सामाजिक ऊँच-नीच पर जोर नहीं देते थे। कुछ कानून तो आयात से देशी उत्पादों की रक्षा के लिए बनाए गए थे। मिसाल के तौर पर सोलहवीं सदी के इंग्लैण्ड में, फ्रांसीसी और इतालवी सामग्री का आयात कर बनाई गई मखमल की टोपियाँ पुरुषों में लोकप्रिय थीं।
** इंग्लैण्ड ने कानून बनाकर ऊँचे ओहदे के लोगों और छ: वर्ष से नीचे के बच्चों को छोड़कर सभी के लिए रविवार को और रिटयों के दिन इंग्लैण्ड में बनी ऊनी टोपी पहनना अनिवार्य कर दिया। यह कानून 26 वर्ष तक कायम रहा और इससे इंग्लैण्ड के ऊनी वस्त्र उद्योग को खड़ा करने में मदद मिली।

पोशाक और खूबसूरती के पैमाने

** सम्प्चुअरी कानूनों के खात्मे का यह मतलब बिल्कुल नहीं था कि यूरोपीय देशों में हर कोई एक-जैसी पोशाक पहनने लगा हो। फ्रांसीसी क्रांति ने समता का सवाल उठाया था और उनको समर्थन देने वाले कानूनों की इति कर दी थी। लेकिन सामाजिक तबकों के बीच अन्तर लगातार जारी रहा।
** पहनावें की शैलियों का फर्क मर्दो और औरतों के बीच था।
** विक्टोरियाई इंग्लैण्ड में महिलाओं को बचपन से ही आज्ञाकारी, खिदमती, सुशील व दब्बू होने की शिक्षा दी जाती थी। आदर्श नारी वही थी जो दुख दर्द सह सके। जहाँ मर्दो से धीरे-गंभरी, बलवान, आजाद और आक्रामक होने की उम्मीद की जाती थी वहीं औरतों को क्षुद्र, छुई-मुई, निष्क्रिय व दब्बू माना जाता था। पहनावे के रस्मो-रिवाज में भी यह अन्तर झलकता था। छुटपन से ही लड़कियों को सख्त फीतों से बंधे कपड़ों-स्टेज में कसकर बांधा जाता था मकसद यह था कि उनके जिस्म का फैलाव न हो, उनका बदन इकहरा रहे। थोड़ी बड़ी होने पर लड़कियों को बदन से चिपके कॉसेंट पहननें होते थे। टाइट फीतों से कसी पतली कमरवाली महिलाओं को आकर्षक, शालीन व सौम्य समझा जाता था। इस तरह विक्टोरियाई महिलाओं की अबला-दब्बू छवि बनाने में पोशाक ने अहम भूमिका निभाई।
** आदर्श नारी की उपरोक्त परिभाषा को बहुत सारी महिलाएँ मानती थीं। यह संस्कार उनके माहौल में उस हवा में जहाँ वे साँस लेती.
वह साहित्य जो वे पढ़तीं और घर व स्कूल में जो शिक्षा उन्हें दी जाती थी सर्वव्याप्त था। बचपन से ही उन्हें घुट्टी पिला दी जाती थी कि पतली कमर रखना उनका नारी सुलभ कर्त्तव्य है। सहनशीलता स्त्रीत्व का जरूरी गुण है। आकर्षक वस्त्रियोचित दिखने के लिए उनका कॉसेंट पहनना आवश्यक था। इसके लिए शारीरिक कष्ट या यातना भोगना मामूली बात मानी जाती थी। उपरोक्त मूल्यों को सभी औरतों ने स्वीकार नहीं किया। उन्नीसवीं सदी के दौरान विचार भी बदले। इंग्लैण्ड में सन् 1830 के दशक तक महिलाओं ने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दिया।
**  सफ्रेज आन्दोलन के जोर पकड़ने पर पोशाक-सुधार की मुहिम भी चल पड़ी। महिला पत्रिकाओं ने बताना शुरू कर दिया कि तंग
लिबास व कॉसेंट पहनने से युवतियों में कैसी-कैसी बीमारियाँ और विरूपताएँ आ जाती है। ऐसे पहनावे जिस्मानी विकास में बाधा पहुँचाते हैं, इनसे रक्त प्रवाह भी अवरुद्ध होता है। मांसपेशियाँ अविकसित रह जाती हैं और रीढ़ भी झुक जाती है। डॉक्टरों ने बताया कि महिलाएं आमतौर पर कमजोरी की शिकायत लेकर आती हैं, बताती हैं कि शरीर निढाल रहता है, जब-तब बेहोश हो जाया करती हैं।
** अमेरिका में भी पूर्वी तट के गोरे प्रवासी बाशिन्दों के बीच ऐसा ही आन्दोलन चला। पारम्परिक जनाना लिबास को कई कारणों से बुरा
बताया गया। कहा गया कि लम्बे स्कर्ट (घाघरा, लहँगा) फर्श बुहारते चलते हैं, अपने साथ-साथ कूड़ा बटोरते हुए चलते हैं जो बीमारी का कारण है। फिर स्कर्ट इतने विशाल होते थे कि सम्भलते ही नहीं थे और चलने में परेशानी के कारण औरतों का काम करके जीविका कमाना मुहाल था। वस्त्र-सुधार से महिलाओं की स्थिति में बदलाव आएगा, ऐसा कहा गया। कपड़े अगर आरामदेह हों, तो औरतें काम-धन्धा कर सकती हैं, स्वतन्त्र भी हो सकती हैं।
** राष्ट्रीय महिला मताधिकार सभा ने श्रीमती स्टैन्टन के नेतृत्व में और लूसी स्टोन वाली महिला मताधिकार सभा ने सन् 1870 के
दशक में पोशाक सुधार के लिए मुहिम चलाई। उनका कहना था कपड़ों को सरल बनाओ, स्कर्ट छोटी करो और कॉर्सेट का त्याग
करो। इस तरह अटलाण्टिक के दोनों तरफ आसानी से पहने जाने वाले कपड़ों की मुहिम चल पड़ी।
** सामाजिक मूल्यों में बदलाव लाने में सुधारक फौरन कामयाब नहीं हुए। उन्हें उपहास और रंज दोनों झेलना पड़ा। दकियानूस तबकों ने
हर जगह परिवर्तन का विरोध किया। उनका प्रलाप यह होता था कि पारम्परिक शैली के परिधान छोड़ देने से महिलाओं की खूबसूरती तो जाती ही रही थी, उनका जनानापन और उनकी शालीनता भी गायब हो गई थी। इन लगातार हमलों से त्रस्त होकर कई महिला सुधारकों ने अपने कदम वापस घरों में खींच लिए और एक बार फिर पारम्परिक पोशाक पहनने लगीं।

नया दौर

** ब्रिटेन में नई सामग्री व नई प्रौद्योगिकी ने इस परिवर्तन को सम्भव बनाया। दो विश्वयुद्धों व महिलाओं की कार्यस्थिति में आए परिवर्तन के चलते भी कुछ और बदलाव हुए।
** सत्रहवीं सदी के पहले ज्यादातर ब्रिटिश महिलाओं के पास आमतौर पर फ्लैक्स, लिनेन या ऊन के कपड़े बहुत कम होते थे। इन्हें साफ करना भी मुश्किल होता था।
** सन् 1600 के बाद भारत के साथ व्यापार के चलते व रखरखाव में आसान भारतीय छीट कई यूरोपियों के घरों और अलमारियों का
हिस्सा बन गई।
** औद्योगिक क्रान्ति के दौरान उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन ने सूती कपड़ों का थोक उत्पादन और भारत सहित कई देशों में निर्यात करना शुरू
किया। यूरोप के बहुत बड़े तबके के लिए सूती वस्त्र अब आसानी से उपलब्ध हो गया। बीसवीं सदी की शुरुआत तक कृत्रिम रेशों से बने
कपड़े और ज्यादा सस्ते तथा साफ कर पहनने में आसान हो गए।

महायुद्ध

** महिला परिधान में कई बदलाव तो विश्वयुद्धों के कारण हुए। यूरोप में ढेर सारी औरतों ने जेवर और बेशकीमती कपड़े पहनने छोड़ दिए। उच्च वर्ग की महिलाएं अन्य तबकों की नारियों से घुलने-मिलने लगी, जिससे सामाजिक सीमाएँ भी टूटीं और महिलाएँ एक-सी दिखने लगीं।
** पहले विश्वयुद्ध (सन् 1914-1918) के दौरान कपड़ों के छोटे होने के निहायत व्यावहारिक कारण थे। ब्रिटेन में सन् 1917 तक आते-आते 70000 औरतें हथियार की फैक्ट्रियों में काम कर रही थी। वे ब्लाउज व पैंट की कामकाजी वर्दी पर ऊपर से स्कार्फ डाल लेती थीं। बाद में इस वर्दी ने ओवरऑल के साथ टोपी का रूप ले लिया। जंग के लम्बा खिंचने के साथ-साथ चटख रंग गायब होने लगे, हल्के रंग पहने जाने लगे यानी कपड़े सादे और सरल हो गए। स्कर्ट तो छोटे हुए ही, ट्राउजर भी जल्द ही पाश्चात्य महिला की पोशाक का अहम हिस्सा बन गया। इससे उन्हें चलने-फिरने की बेहतर आजादी हासिल हुई और सबसे जरूरी बात, सहूलियत की खातिर औरतों ने बाल भी छोटे रखने शुरू कर दिए।
** बीसवीं सदी आते-आते और सादगी-भरी जीवन-शैली गम्भीरता और प्रोफेशनल अन्दाज का पर्याय हो गई। बच्चों के नये विद्यालयों में सादी पोशाक पर जोर दिया गया और तड़क-भड़क को हतोत्साहित किया गया।
** लड़कियों के पाठ्यक्रम में भी जिम्नास्टिक व खेलों का प्रवेश हुआ। खेलने-कूदने में उन्हें ऐसे कपड़ों की दरकार थी जिससे उनकी गति में बाधा न पड़े। उसी तरह काम हेतु बाहर जाने के लिए उन्हें आरामदेह और सुविधाजनक कपड़ों की जरूरत थी।

औपनिवेशिक भारत में बदलाव

** औपनिवेशिक काल में पुरुष और नारी-परिधानों में महत्त्वपूर्ण बदलाव हुए। एक तरफ तो इसके पीछे पश्चिम ड्रेस शैली और मिशनरियों के काम का असर था, तो दूसरी तरफ भारतीयों द्वारा प्रचारित ऐसे पहनावे का भी, जो देशी परम्परा व संस्कृति में रचा-बचा हो।
** कपड़ा और पहनावा दरअसल राष्ट्रीय आन्दोलन के निहायत महत्वपूर्ण प्रतीक बन गए।
** जब उन्नीसवीं सदी में पश्चिमी वेशभूषा आई तो हिन्दुस्तानियों की प्रतिक्रिया तीन तरह की थी
1. बहुत से लोग, खासकर मर्द, पाश्चात्य पहनावे की कुछ चुनिन्दा चीजों को अपनाने लगे। पश्चिमी फैशन के कपड़े अपनाने वालों में पहला नम्बर पश्चिमी भारत के अमीर पारसियों का था। बैगी ट्राउजर और फेण्टा (याहैट) के साथ कॉलर वाले कोट और बूट पहने जाते थे और जेन्टलमैन दिखने में कोई कसर न रह जाए, इसलिए हाथ में एक छड़ी भी ले ली जाती थी। इस समूह के लोगों के लिए पश्चिमी परिधान आधुनिकता और प्रगति का प्रतीक था। पश्चिमी ड्रेस का आकर्षण निम्न जाति के उन तबकों में भी था जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था। उनके लिए यह मुक्ति का प्रतीक था। यहाँ भी औरतों से ज्यादा मों ने यह चलन अपनाया।
2. कुछ लोगों का निश्चित मत था कि पश्चिमी संस्कृति से पारम्परिक सांस्कृतिक अस्मिता का नाश हो जाएगा। उनके लिए पश्चिमी पोशाक पहनना कलयुग के आने जैसा था।
3. कुछ पुरुषों ने इस दुविधा का हल ऐसे ढूँढा कि बगैर अपनी भारतीय पोशाक छोड़े पश्चिमी कपड़े पहनने शुरू कर दिए। उन्नीसवीं सदी के आखिरी हिस्से में कई बंगाली अफसरों ने घर के बाहर काम के लिए पश्चिमी शैली के वस्त्र रखने शुरू किए और घर आते ही वे आरामदेह हिन्दुस्तानी कपड़ों में समा जाते थे।

जाति-संघर्ष और पोशाक-परिवर्तन

** हालाँकि भारत में यूरोपीय किस्म के सम्प्चुअरी कानून नहीं थे, लेकिन यहाँ खान-पान, वेशभूषा, रहन-सहन की अपनी सख्त सामाजिक संहिताएँ थीं।
** उच्च जाति व निम्न जाति के लोग क्या पहनेंगे, क्या खाएँगे, यह जाति प्रथा द्वारा तय था और इन आचार संहिताओं के पीछे कानून की ताकत थी। इसलिए जब भी पहनावे में बदलाव से इन आचारों का उल्लंघन हुआ, हिंसक सामाजिक प्रतिक्रियाएँ हुई।
** मई, 1822 में दक्षिण भारत की त्रावणकोर रियासत में उच्च जाति के नायरों ने शनार जाति की महिलाओं पर हमला किया, क्योंकि
उन्होंने अपने शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े डालने की हिम्मत की थी। आगे के दशकों में वस्त्र-संहिता को लेकर कई हिंसक टकराव
होते रहे।

ब्रिटिश राज और पोशाक-संहिताएँ

** अलग-अलग संस्कृतियों में किसी भी परिधान के अकसर भिन्न-भिन्न अर्थ लगाए जाते हैं। इससे कई मौकों पर गलतफहमी पैदा होती है, टकराव होते हैं। पहनावे में ब्रिटिश राज के दौरान आए बदलाव इसी टकराव का नतीजा थे।
** जब शुरू-शुरू में यूरोपीय व्यापारी भारत आने लगे तो उनकी पहचान 'हैटवालो' की थी जबकि हिन्दुस्तानियों की 'पागडवालों की। सिर पर धारण की जाने वाली ये दो चीजें न केवल देखने में भिन्न थीं, बल्कि उनके मायने भी जुदा-जुदा थे। भारत में पगड़ी, धूप व गमीं से तो बचाव करती ही थी. सम्मान का प्रतीक भी थी जिसे जब चाहे उतारा नहीं जा सकता था। पश्चिमी रिवाज तो यह था कि जिन्हें आदर देना हो, सिर्फ उनके सामने हैट उतारा जाए। इस सांस्कृतिक भिन्नता से गलतफहमी पैदा हुई। ब्रिटिश अफसर जब हिन्दुस्तानियों से मिलते और उन्हें पगड़ी उतारते न पाते तो अपमानित महसूस करते। दूसरी तरफ बहुतेरे हिन्दुस्तानी अपनी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अस्मिता को जताने के लिए जान-बूझकर पगड़ी पहनते।
** इसी तरह का टकराव जूतों को लेकर हुआ। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में रिवाज था कि फिरंगी अफसर भारतीय शिष्टाचार का पालन करते हुए देसी राजाओं व नवाबों के दरबार में जूते उतारकर जाएँगे। कुछेक अंग्रेज अधिकारी भारतीय वेश-भूषा भी धारण करते थे। लेकिन सन् 1830 में, सरकारी समारोहों पर उन्हें हिन्दुस्तानी लिबास पहनकर जाने से मना कर दिया गया, ताकि गोरे मालिकों की सांस्कृतिक नाक ऊँची बनी रहे।

राष्ट्रीय पोशाक का डिजाइन

** उन्नीसवीं सदी के अन्त तक भारत में चारों ओर राष्ट्रीय भावना हिलोरे मारने लगी और भारतवासी राष्ट्रीय एकता को व्यक्त करने वाले सांस्कृतिक प्रतीक गढ़ने में जुट गए। कलाकार राष्ट्रीय शैली की कला तलाश रहे थे जबकि कवि राष्ट्रगान रच रहे थे। राष्ट्रीय झण्डे के डिजाइन को लेकर भी बहस छिड़ी। राष्ट्रीय पोशाक की खोज राष्ट्र की पहचान को प्रतीकात्मक ढंग से परिभाषित करने की इसी प्रक्रिया का हिस्सा थी।
** हिन्दुस्तान के कई भागों में ऊँची जाति व वर्ग के स्त्री-पुरुषों ने पोशाक को लेकर सचेत प्रयोग किए। बंगाल के टैगोर खानदान ने सन् 1870 के दशक से ही हिन्दुस्तानी मर्दो और औरतों के लिए राष्ट्रीय पोशाक डिजाइन करने की कोशिश की।
** अखिल भारतीय शैली विकसित करने की कोशिशें पूरी तरह सफल नहीं हुई। आज भी गुजरात, कोडागू, केरल और असोम की महिलाएँ भिन्न-भिन्न किस्म की साड़ियाँ पहनती हैं।

स्वदेशी आन्दोलन

** अंग्रेज जब पहले-पहले व्यापार करने आए तो हिन्दुस्तानी सूती वस्त्र की जबरदस्त माँग पूरी दुनिया में थी। सत्रहवीं सदी में पूरे
विश्व के उत्पाद का एक-चौथाई भारत में बनता था।
** अठारहवीं सदी के मध्य में अकेले बंगाल में दस लाख बुनकर थे। लेकिन ब्रिटेन में हुई औद्योगिक क्रान्ति ने कताई और बुनाई का मशीनीकरण कर दिया। कच्चे माल के रूप में कपास और नील की मांग बढ़ गई और इसके साथ ही बदल गई विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हैसियत 
** हिन्दुस्तान पर राजनीतिक साम्राज्य से ब्रिटेन को दो फायदे हुए-भारतीय किसानों को नील जैसी फसलें उगाने के लिए मजबूर किया जा सकता था और सस्ते बने ब्रिटिश उत्पाद आसानी से यहाँ बने मोटे कपड़ों की जगह खपाए जा सकते थे। नतीजा यह हुआ कि माँग के अभाव में भारत के बुनकर बड़ी तादाद में बेरोजगार हो गए और मुर्शिदाबाद, मछलीपट्टनम और सूरत जैसे सूती वस्त्र के केन्द्रों का पतन हो गया।
** लेकिन बीसवीं सदी में आकर बड़ी संख्या में लोगों ने ब्रिटिश मिलों में बने कपड़ों का बहिष्कार शुरू कर दिया और उनकी जगह
खुरदरी, महँगी और दुर्लभ खादी पहनने लगे।
** ब्रिटिश राज के खिलाफ बढ़ते विरोध को काबू में करने के लिए लॉर्ड कर्जन ने सन् 1905 में बंगाल को विभाजित करने का फैसला
किया। 'बंग-भंग' की प्रतिक्रिया में स्वदेशी आन्दोलन ने जोर पकड़ा। पहले तो लोगों से अपील की गई कि वे तमाम तरह के विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करें और माचिस और सिगरेट जैसी चीजों को बनाने के लिए खुद उद्योग लगाएँ। जन आन्दोलन में शामिल लोगों ने कसम खाई कि वे औपनिवेशिक राज का खात्मा करके दम लेंगे।
** खादी का इस्तेमाल देशभक्ति का कर्त्तव्य बन गया। महिलाओं से अनुरोध किया गया कि रेशमी कपड़े व काँच की चूड़ियों को फेंक दें और शंख की चूड़ियाँ पहनें। हथकरघे पर बने मोटे कपड़े को लोकप्रिय बनाने के लिए गीत गाए गए, कविताएँ रची गईं।

महात्मा गाँधी के पोशाक-प्रयोग

** महात्मा गाँधी के वस्त्र-सम्बन्धी प्रयोगों में भारतीय उप-महाद्वीप में पहनावे के प्रति बदलते रवैये का सार छुपा हुआ है।
** लुंगी-कुर्ता पहनने का पहला प्रयोग उन्होंने सन् 1913 में डर्बन में किया, जब कोयला खदान मजदूरों को गोली मारे जाने के खिलाफ सिर मुंडाकर उन्होंने अपना सार्वजनिक शोक जाहिर किया।
** भारत वापसी पर सन् 1915 में वह काठियावाड़ी किसान की वेश-भूषा में रहने लगे। सन् 1921 में जाकर उन्होंने वह छोटी धोती धारण की जिसे वे आजीवन पहनते रहे। साल भर में स्वराज हासिल करने के उद्देश्य से असहयोग आन्दोलन शुरू करने के एक साल बाद, 2 सितम्बर, 1921 को उन्होंने ऐलान किया 'मैं चाहता हूँ कि 31 अक्टूबर तक कम से कम अपनी टोपी और गंजी तो त्याग ही दूँ और सिर्फ धोती से काम चलाऊँ और देह बचाने के लिए कभी-कभी चादर ले लूँ। मैं इस बदलाव की सलाह इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि ‘पर उपदेस कुशल बहुतेरे' में मेरी आस्था नहीं है ....। (यानी मैं दूसरों से ऐसा कुछ करने को नहीं कहता जो खुद नहीं कर सकता।)
** हिन्दुस्तान के फकीर-संन्यासियों का बाना सचेत रूप से छोड़कर उन्होंने निर्धनतम भारतीय का पहनावा अपनाया। सफेद और खुरदरी खादी उनके लिए शुद्धता, सादगी और गरीबी का प्रतीक थी। इसे पहनना राष्ट्रभक्ति का पर्याय हो गया और पश्चिमी मिल उत्पादित कपड़ों के विरोध का भी।
** जब सन् 1931 में गोलमेज सम्मेलन के लिए गाँधीजी इंग्लैण्ड गए तो बिना कमीज के वही छोटी धोती पहने हुए। जब बकिंघम पैलेस
जाने की बारी आई तो उन्होंने समझौता करने से इनकार कर दिया और सम्राट जॉर्ज पंचम के सामने भी धोती में ही पधारे। जब पत्रकारों ने उनसे कहा कि सम्राट के समक्ष में जाने के लिए उन्होंने पर्याप्त कपड़े नहीं पहन रखे हैं, तो उन्होंने मजाक-मजाक में जवाब दिया कि 'सम्राट ने हम दोनों के हिस्से के कपड़े पहन तो रखे हैं।
** महात्मा गाँधी का सपना था कि पूरा राष्ट्र खादी पहने। उन्हें लगता
था कि खादी से जाति-धर्म आदि के भेद मिट जाएंगे।
** जाति-प्रथा के चलते सदियों से वंचित तबकों का पश्चिमी शैली के कपड़ों के प्रति सहज आकर्षण था। इसलिए बाबा साहब अम्बेडकर जैसे राष्ट्रभक्तों ने पाश्चात्य शैली का सूट कभी नहीं छोड़ा। कई सारे दलित सन् 1910 के दशक में सार्वजनिक मौकों पर जूते-मोजे और थ्री-पीस सूट पहनने लगे, जो कि उनकी तरफ से आत्मसम्मान का राजनीतिक वक्तव्य था।

गाँधी टोपी

** दक्षिण अफ्रीका से सन् 1915 में भारत लौटने के बाद गाँधी जी जो कश्मीरी टोपी कभी-कभार पहनते थे, उसे उन्होंने सस्ती, सफेद
खादी टोपी का रूप दे दिया। यह टोपी वह खुद सन् 1919 के बाद दो साल तक पहनते रहे थे, फिर छोड़ दी। लेकिन तब तक यह
राष्ट्रीय वर्दी बन चुकी थी-अंग्रेजों के खिलाफ अवज्ञा का प्रतीक।

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