यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रांति | Socialism in europe and revolutions





* फ्रांसीसी क्रान्ति ने सामाजिक संरचना के क्षेत्र में आमूल परिवर्तन
की सम्भावनाओं का सूत्रपात कर दिया था। क्रान्ति के बाद यूरोप
और एशिया सहित दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में व्यक्तिगत
अधिकारों के स्वरूप और सामाजिक सत्ता पर किसका नियन्त्रण
हो—इस पर चर्चा छिड़ गई।
* भारत में भी राजा राममोहन रॉय और डेरोजियो ने फ्रांसीसी क्रान्ति
के महत्त्व का उल्लेख किया।
* यूरोप में सभी लोग आमूल समाज परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे। इस
सवाल पर सबकी अलग-अलग राय थी। बहुत सारे लोग बदलाव
के लिए तो तैयार थे लेकिन वह चाहते थे कि यह बदलाव
धीरे-धीरे हो। एक खेमा मानता था कि समाज का आमूल पुनर्गठन
जरूरी है। कुछ 'रूढ़िवादी' (Conservative) थे तो कुछ
'उदारवादी' (Liberal) या 'आमूल परिवर्तनवादी' (Radical,
रेडिकल) समाधानों के पक्ष में थे।
* उदारवादी उदारवादी ऐसा राष्ट्र चाहते थे जिसमें सभी धर्मों
को बराबर का सम्मान और जगह मिले। उदारवादी समूहवंश
आधारित शासकों की अनियन्त्रित सत्ता के भी विरोधी थे। वे
सरकार के समक्ष व्यक्ति मात्र के अधिकारों की रक्षा के पक्षधर थे
पर यह समूह 'लोकतन्त्रवादी' (Democrat) नहीं था। ये लोग
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार यानी सभी नागरिकों को वोट का
अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि वोट का
अधिकार केवल सम्पत्तिधारियों को ही मिलना चाहिए।
* रेडिकल रेडिकल समूह के लोग ऐसी सरकार के पक्ष में थे जो
देश की आबादी के बहुमत के समर्थन पर आधारित
बहुत सारे लोग महिला मताधिकार आन्दोलन के भी समर्थक थे।
उदारवादियों के विपरीत ये लोग बड़े जमींदारों और सम्पन्न उद्योगपतियों को प्राप्त किसी भी त ह के विशेषाधिकारों के
खिलाफ थे। वे निजी सम्पत्ति के विरोधी नहीं थे लेकिन केवल कुछ
लोगों के पास सम्पत्ति के संकेन्द्रण का विरोध जरूर करते थे।
* रूढ़िवादी रूढ़िवादी तबका रेडिकल और उदारवादी, दोनों के
खिलाफ था। मगर फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद तो रूढ़िवादी भी
बदलाव की जरूरत को स्वीकार करने लगे थे। पुराने समय में,
यानी अठारहवीं शताब्दी में रूढ़िवादी आमतौर पर परिवर्तन के
विचारों का विरोध करते थे। लेकिन उन्नीसवों सदी तक
आते-आते वे भी मानने लगे थे कि कुछ परिवर्तन आवश्यक हो
गया है परन्तु वह चाहते थे कि अतीत का सम्मान किया जाए
अर्थात् अतीत को पूरी तरह ठुकराया न जाए और बदलाव को
प्रक्रिया धीमी हो।

औद्योगिक समाज और सामाजिक परिवर्तन

* यह दौर गहन सामाजिक एवं आर्थिक बदलावों का था। यह ऐसः
समय था जब नये शहर बस रहे थे, नये-नये औद्योगिक क्षेत्र
विकसित हो रहे थे, रेलवे का काफी विस्तार हो चुका था और
औद्योगिक क्रान्ति सम्पन्न हो चुकी थी।
* औद्योगीकरण ने औरतों-आदमियों और बच्चों, सबको कारखानों
में ला दिया। काम के घण्टे यानी पाली बहुत लम्बी होती थी और
मजदूरी बहुत कम थी।
* बेरोजगारी आम समस्या थी। औद्योगिक वस्तुओं की माँग में
गिरावट आ जाने पर तो बेरोजगारी और बढ़ जाती थी। शहर तेजी
से बसते और फैलते जा रहे थे इसलिए आवास और साफ-सफाई
का काम भी मुश्किल होता जा रहा था।
* उदारवादी और रेडिकल, दोनों ही इन समस्याओं का हल खोजने
की कोशिश कर रहे थे।
* लगभग सभी उद्योग व्यक्तिगत स्वामित्व में थे। बहुत सारे रेडिकल
और उदारवादियों के पास भी काफी सम्पत्ति थी और उनके यहाँ
बहुत सारे लोग नौकरी करते थे।
* उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में समाज परिवर्तन के इच्छुक
बहुत सारे कामकाजी स्त्री-पुरुष उदारवादी और रेडिकल समूहों व
पार्टियों के इर्द-गिर्द गोलबन्द हो गए थे।
* यूरोप में सन् 1815 में जिस तरह की सरकारें बनीं उनसे छुटकारा
पाने के लिए कुछ राष्ट्रवादी, उदारवादी और रेडिकल
आन्दोलनकारी क्रान्ति के पक्ष में थे। फ्रांस, इटली, जर्मनी और
रूस में ऐसे लोग क्रान्तिकारी हो गए और राजाओं के तख्तापलट
का प्रयास करने लगे।
* राष्ट्रवादी कार्यकर्ता क्रान्ति के जरिए ऐसे 'राष्ट्रों' की स्थापना
करना चाहते थे जिनमें सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों।
नाम से

यूरोप में समाजवाद का आना

* समाज के पुनर्गठन की सम्भवत: सबसे दूरगामी दृष्टि प्रदान करने
वाली विचारधारा समाजवाद ही थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक
यूरोप में समाजवाद एक जाना-पहचाना विचार था। उसकी तरफ
बहुत सारे लोगों का ध्यान आकर्षित हो रहा था।
* इंग्लैण्ड के जाने-माने उद्योगपति रॉबर्ट ओवेन (सन् 1771-1885)
ने इण्डियाना (अमेरिका) में नया समन्वय (New Harmony) के
एक नये तरह के
समुदाय की रचना का प्रयास किया।
* फ्रांस में लुई ब्लांक (सन् 1813-1882) चाहते थे कि सरकार
पूँजीवादी उद्यमों की जगह सामूहिक उद्यमों को बढावा दे।
* को-आपरेटिव ऐसे लोगो के समूह थे जो मिल कर चीजे बनाते थे
और मुनाफे को प्रत्येक सदस्य द्वारा किए गए काम के हिसाब से
आपस में बाँट लेते थे।
* कार्ल मार्क्स (सन् 1818-1882) और फ्रेडरिक एंगेल्स
(सन् 1820-1895) ने इस दिशा में कई नये तर्क पेश किए। मार्क्स
का विचार था कि औद्योगिक समाज 'पूँजीवादी' समाज है।
फैक्ट्रियों में लगी पूँजी पर पूँजीपतियों का स्वामित्व है और
पूँजीपतियों का मुनाफा मजदूरों की मेहनत से पैदा होता है।
* मार्क्स का निष्कर्ष था कि जब तक निजी पूँजीपति इसी तरह मुनाफे
का संचय करते जाएँगे तब तक मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं
हो सकता। अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए मजदूरों को
पूँजीवाद व निजी सम्पत्ति पर आधारित शासन को उखाड़ फेंकना
होगा।

समाजवाद के लिए समर्थन

* सन् 1870 का दशक आते-आते समाजवादी विचार पूरे यूरोप में
फैल चुके थे। अपने प्रयासों में समन्वय लाने के लिए
समाजवादियों ने द्वितीय इन्टरनेशनल के नाम से एक अन्तर्राष्ट्रीय
संस्था भी बना ली थी।
* इंग्लैण्ड और जर्मनी के मजदूरों ने अपनी जीवन और कार्य
स्थितियों में सुधार लाने के लिए संगठन बनाना शुरू कर दिया था।
* जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एस.पी.डी) के साथ इन
संगठनों के काफी गहरे रिश्ते थे और संसदीय चुनावों में वे पार्टी की
मदद भी करते थे।
* सन् 1905 तक ब्रिटेन के समाजवादियों और ट्रेड यूनियन
आन्दोलनकारियों ने लेबर पार्टी के नाम से अपनी एक अलग पार्टी
बना ली थी।
* फ्रांस में भी सोशलिस्ट पार्टी के नाम से ऐसी ही एक पार्टी का गठन
किया गया। किन्तु समाजवादी संगठन सन् 1914 तक कोई भी
सरकार स्थापित नहीं कर सके थे।

रूसी क्रान्ति

* सन् 1917 की अक्टूबर क्रान्ति के जरिए रूस की सत्ता पर
समाजवादियों ने कब्जा कर लिया। फरवरी, 1917 में राजशाही के
पतन और अक्टूबर की घटनाओं को ही अक्टूबर क्रान्ति कहा
जाता है।

रूसी साम्राज्य, सन् 1914

* सन् 1914 में रूस और उसके पूरे साम्राज्य पर जार निकोलस II
का शासन था। मास्को के आस-पास पड़ने वाले भू-क्षेत्र के
अलावा आज का फिनलैण्ड, लातविया, लिथुआनिया, एस्तोनिया
तथा पोलैण्ड, यूक्रेन व बेलारूस के कुछ हिस्से रूसी साम्राज्य के
अंग थे। यह साम्राज्य प्रशान्त महासागर तक फैला हुआ था और
आज के मध्य एशियाई राज्यों के साथ-साथ जॉर्जिया, आर्मेनिया व
अजर बैजान भी इसी साम्राज्य के अन्तर्गत आते थे।

अर्थव्यवस्था और समाज

* बीसवीं सदी की शुरुआत में रूस की आबादी का एक बहुत बड़ा
हिस्सा खेती-बाड़ी से जुड़ा हुआ था। रूसी साम्राज्य की लगभग
85% जनता आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थी।
* रूस अनाज का एक बड़ा निर्यातक था। उद्योग बहुत कम थे। सेण्ट
पीटर्सबर्ग और मास्को प्रमुख औद्योगिक इलाके थे। हालाँकि
ज्यादातर उत्पादन कारीगर ही करते थे लेकिन कारीगरों की
वर्कशॉपों के साथ-साथ बड़े-बड़े कल-कारखाने भी मौजूद थे।
* बहुत सारे कारखाने सन् 1890 में दशक में चालू हुए थे जब रूस
के रेल नेटवर्क को फैलाया जा रहा था। उसी समय रूसी उद्योगों में
विदेशी निवेश भी तेजी से बढ़ा था। इन कारकों के चलते कुछ ही
सालों में रूस के कोयला उत्पादन में दो गुना और स्टील उत्पादन
में चार गुना वृद्धि हुई थी।
* सन् 1900 तक कुछ इलाकों में तो कारीगरों और कारखाना
मजदूरों की संख्या लगभग बराबर हो चुकी थी।
* ज्यादातर कारखाने उद्योगपतियों की निजी सम्पत्ति थे। मजदूरों को
न्यूनतम वेतन मिलता रहे और काम की पाली के घण्टे निश्चित हों
इस बात का ध्यान रखने के लिए सरकारी विभाग बड़ी फैक्ट्रियों
पर नजर रखते थे।
        
रूस में समाजवाद

* सन् 1914 से पहले रूस में सभी राजनीतिक पार्टियाँ गैर कानूनी
थीं। मार्क्स के विचारों को मानने वाले समाजवादियों ने सन् 1898
में रशियन सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी (रूसी सामाजिक
लोकतान्त्रिक श्रमिक पार्टी) का गठन किया था। सरकारी आतंक के
कारण इस पार्टी को गैर कानूनी संगठन के रूप में काम करना पड़ता
था। इस पार्टी का एक अखबार निकलता था, उसने मजदूरों को
संगठित किया था और हड़ताल आदि कार्यक्रम आयोजित किए थे।
* रूसी समाजवादियों ने सन् 1900 में सोशलिस्ट रिवोल्यूशनरी पार्टी
(समाजवादी क्रान्तिकारी पाटी) का गठन कर लिया। इस पार्टी ने
किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और माँग की कि
सामन्तों के कब्जों वाली जमीन फौरन किसानों को सौंपी
जाए।
* सामाजिक लोकतन्त्रवादी (Social Democrats) खेमा समाजवादी
क्रान्तिकारियों से सहमत नहीं था। लेनिन का मानना था कि किसानों
एकजुटता नहीं है वे बँटे हुए हैं। कुछ किसान गरीब थे तो कुछ
अमीर, कुछ मजदूरी करते थे तो कुछ पूँजीपति थे जो नौकरों से
खेती करवाते थे। इन आपसी 'विभदों के चलते वे सभी
समाजवादी आन्दोलन का हिस्सा नहीं हो सकते थे।
* संगठित रणनीति के सवाल पर पार्टी में गहरे मतभेद थे। व्लादिमीर
लेनिन (बोल्शेविक खेमे के मुखिया) सोचते थे कि जार (राजा)
शासित रूस जैसे दमनकारी समाज में पार्टी अत्यन्त अनुशासित
होनी चाहिए और अपने सदस्यों की संख्या व स्तर पर उसका पूरा
नियन्त्रण होना चाहिए।
* दूसरा खेमा (मेन्शेविक) मानता था कि पार्टी में सभी को सदस्यता
दी जानी चाहिए।

उथल-पुथल का समय सन् 1905 की क्रान्ति

* रूस एक निरंकुश राजशाही था। अन्य यूरोपीय शासकों के विपरीत
बीसवीं सदी की शुरुआत में भी जार राष्ट्रीय संसद के अधीन नहीं था।
* उदारवादियों ने इस स्थिति को खत्म करने के लिए बड़े पैमाने पर
मुहिम चलाई। सन् 1905 की क्रान्ति के दौरान उन्होंने संविधान की
रचना के लिए सोशल डेमोक्रेट और समाजवादी क्रान्तिकारियों को
साथ लेकर किसानों और मजूदरों के बीच काफी काम किया।
रूसी साम्राज्य के तहत उन्हें राष्ट्रवादियों (जैसे पोलैण्ड में) और
इस्लाम के आधुनिकीकरण के समर्थक जदीदियों (मुस्लिम बहुत
इलाकों में) का भी समर्थन मिला।
* रूसी मजदूरों के लिए सन् 1904 का साल बहुत बुरा रहा। जरूरी
चीजों की कीमतें इतनी तेजी से बढ़ीं कि वास्तविक वेतन में 20%
तक की गिरावट आ गई।
* अगले कुछ दिनों के भीतर सेण्ट पीटर्सबर्ग के 110000 से ज्यादा
मजदूर काम के घण्टे घटाकर आठ घण्टे किए जाने, वेतन में वृद्धि और कार्य स्थितियों में सुधार की माँग करते हुए हड़ताल पर चले
गए। इसी दौरान जब पादरी गैपॉन के नेतृत्व में मजदूरों का एक
जुलूस विण्टर पैलेस (जार का महल) के सामने पहुंचा तो पुलिस
और कोसैक्स ने मजदूरों पर हमला बोल दिया। इस घटना में 100
से ज्यादा मजदूर मारे गए और लगभग 300 घायल हुए। इतिहास
में इस घटना को खूनी रविवार के नाम से याद किया जाता है।
सन् 1905 की क्रान्ति की शुरुआत इसी घटना से हुई थी।
* सन् 1905 की क्रान्ति के दौरान जार ने एक निर्वाचित परामर्शदाता
संसद याड्यूमा के गठन पर अपनी समहति दे दी। क्रान्ति के समय
कुछ दिन तक फैक्ट्री मजूदरों की बहुत सारी ट्रेड यूनियन और
फैक्ट्री कमेटियाँ अस्तित्व में रहीं।
* सन् 1905 के बाद ऐसी ज्यादातर कमेटियाँ और यूनियन
अनधिकृत रूप से काम करने लगी क्योंकि उन्हें गैर-कानूनी
घोषित कर दिया गया था।
जार ने

पहला विश्व युद्ध और रूसी साम्राज्य

* सन् 1914 में दो यूरोपीय गठबन्धनों के बीच युद्ध छिड़ गया। एक
खेमे में जर्मनी, ऑस्ट्रिया और तुर्की (केन्द्रीय शक्तियाँ) थे तो
दूसरे खेमे में फ्रांस, ब्रिटेन व रूस (बाद में इटली और रूमानिया भी
इस खेमे में शामिल हो गए)। इन सभी देशों के पास विशाल वैश्विक
साम्राज्य थे इसलिए यूरोप के साथ-साथ यह युद्ध यूरोप के बाहर भी
फैल गया था। इसी युद्ध को पहला विश्व युद्ध कहा जाता है।
* इस युद्ध को शुरू-शुरू में रूसियों का काफी समर्थन मिला। जनता
ने जार का साथ दिया। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध लम्बा खिंचता गया,
ड्यूमा में मौजूद मुख्य पार्टियों से सलाह लेना छोड़ दिया।
उसके प्रति जन समर्थन कम होने लगा। जर्मनी-विरोधी भावनाएँ
दिनों दिन बलवती होने लगीं। जर्मनी-विरोधी भावनाओं के कारण
ही लोगों ने सेन्ट पीटर्सबर्ग का नाम बदल कर पेत्रोग्राद रख दिया
क्योंकि सेन्ट पीटर्सबर्ग जर्मन नाम था।
* प्रथम विश्व युद्ध में रूसी सेना की पराजय ने रूसियों का मनोबल
तोड़ दिया। सन् 1914 से सन् 1916 के बीच जर्मनी और ऑस्ट्रिया
में रूसी सेनाओं को भारी पराजय झेलनी पड़ी। सन् 1917 तक 70
लाख लोग मारे जा चुके थे। पीछे हटती रूसी सेनाओं ने रास्ते में
पड़ने वाली फसलों और इमारतों को भी नष्ट कर डाला ताकि
दुश्मन की सेना वहाँ टिक ही न सके।
* फसलों और इमारतों के विनाश से रूस में 30 लाख से ज्यादा लोग
शरणार्थी हो गए। इन हालातों ने सरकार और जार, दोनों को
लोकप्रिय बना दिया। सिपाही भी युद्ध से तंग आ चुके थे। अब वे
लड़ना नहीं चाहते थे।
* युद्ध से उद्योगों पर भी बुरा असर पड़ा। यूरोप के बाकी देशों के
मुकाबले रूस के औद्योगिक उपकरण ज्यादा तेजी से बेकार होने
लगे। सन् 1916 तक रेलवे लाइनें टूटने लगीं। अच्छी सेहत वाले
मर्दो को युद्ध में झोंक दिया गया। देश भर में मजदूरों की कमी
पड़ने लगी और जरूरी सामान बनाने वाली छोटी-छोटी वर्कशॉप्स ठप होने लगीं। ज्यादातर अनाज सैनिकों का पेट भरने के लिए
मोर्चे पर भेजा जाने लगा। शहरों में रहने वालों के लिए, रोटी और
आटे की किल्लत पैदा हो गई। सन् 1916 की सर्दियों में रोटी की
दुकानों पर अकसर दंगे होने लगे।

पेत्रोग्राद में फरवरी क्रान्ति

* सन् 1917 की सर्दियों में राजधानी पेत्रोग्राद की हालत बहुत खराब
थी। 22 फरवरी को दाएँ तट पर स्थित एक फैक्ट्री में तालाबन्दी
घोषित कर दी गई। अगले दिन इस फैक्ट्री के मजदूरों के समर्थन
में पचास फैक्ट्रियों के मजदूरों ने भी हड़ताल का ऐलान कर दिया।
बहुत सारे कारखानों में हड़ताल का नेतृत्व औरतें कर रही थीं। इसी
दिन को बाद में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस का नाम दिया गया।
* रविवार 25 फरवरी, 1917 को सरकार ने ड्यूमा को बर्खास्त कर
दिया। सरकार के इस फैसले के खिलाफ राजनीतिज्ञ बयान देने
लगे। 26 फरवरी को प्रदर्शनकारी बहुत बड़ी संख्या में बाएँ तट के
इलाके में इकट्ठा हो गए। 27 फरवरी को उन्होंने पुलिस
मुख्यालयों पर हमला करके उन्हें तहस-नहस कर दिया।
* रोटी, तनख्वाह, काम के घण्टों में कमी और लोकतान्त्रिक
अधिकारों के पक्ष में नारे लगाते असंख्य लोग सड़कों पर जमा हो
गए। उस शाम को सिपाही और मजदूर एक सोवियत या ‘परिषद्'
का गठन करने के लिए उसी इमारतो में जमा हुए जहाँ अब तक
ड्यूमा की बैठक हुआ करती थी। यहीं से पेत्रोग्राद सोवियत का
जन्म हुआ।
* अगले दिन एक प्रतिनिधिमण्डल जार से मिलने गया। सैनिक
कमाण्डरों ने उसे सलाह दी कि वह राजगद्दी छोड़ दे। उसने
कमाण्डरों की बात मान ली और 2 मार्च को गद्दी छोड़ दी।
* सोवियत और ड्यूमा के नेताओं ने देश का शासन चलाने के लिए
एक अन्तरिम सरकार बना ली और तय किया गया कि रूस के
भविष्य के बारे में फैसला लेने की जिम्मेदारी संविधान सभा को
सौंप दी जाए और उसका चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के
आधार पर किया जाए। फरवरी, 1917 में राजशाही को गद्दी से
हटाने वाली क्रान्ति का झण्डा पेत्रोग्राद की जनता के हाथों में था।

फरवरी के बाद

* अन्तरिम सरकार में सैनिक अधिकारी, भू-स्वामी और उद्योगपति
प्रभावशाली थे। उनमें उदारवादी और समाजवादी जल्दी से जल्दी
निर्वाचित सरकार का गठन चाहते थे। जन सभा करने और संगठन
बनाने पर लगी पाबन्दी हटा ली गई। हालाँकि निर्वाचन का तरीका
सब जगह एक जैसा नहीं था लेकिन पेत्रोग्राद सोवियत की तर्ज़ पर
सब जगह 'सोवियते' बना ली गई।
* अप्रैल, 1917 में बोल्शेविकों के निर्वासित नेता व्लादिमीर लेनिन
रूस लौट आए। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक सन् 1914 से ही
युद्ध का विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि अब सोवियतों को
सत्ता अपने हाथों में ले लेनी चाहिए।

* लेनिन ने बयान दिया कि युद्ध समाप्त किया जाए, सारी जमीन
किसानों के हवाले की जाए और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया
जाए। इन तीन मांगों को लेनिन की 'अप्रैल थीसिस' के नाम से
उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिए बोल्शेविक पार्टी का नाम
जाना जाता है। उन्होंने ये भी सुझाव दिया कि अब अपने रेडिकल
कम्युनिस्ट पार्टी रख दिया जाए।

अक्टूबर, 1917 की क्रान्ति

* जैसे-जैसे अन्तरिम सरकार और बोल्शेविकों के बीच टकराव
बढ़ता गया, लेनिन को अन्तरिम सरकार द्वारा तानाशाही थोप देने
की आशंका दिखाई देने लगी। सितम्बर में उन्होंने सरकार के
खिलाफ विद्रोह के बारे में चर्चा शुरू कर दी। सेना और फैक्ट्री
सोवियतों में मौजूद बोल्शेविकों को इकट्ठा किया गया।
* 16 अक्टूबर, 1917 को लेनिन ने पेत्रोग्राद सोवियत और
बोल्शेविक पार्टी को सत्ता पर कब्जा करने के लिए राजी
लिया। सत्ता पर कब्जा करने के लिए लियॉन ट्रॉट्स्की के नेतृत्व में
सोवियत की ओर से एक सैनिक क्रान्तिकारी समिति का गठन
किया गया। इस बात का खुलासा नहीं किया गया कि योजना को
किस दिन लागू किया जाएगा?
* 24 अक्टूबर को विद्रोह शुरू हो गया। संकट की आशंका को
देखते हुए प्रधानमन्त्री केरेन्स्की, सैनिक टुकड़ियों को इकट्ठा
करने शहर से बाहर चले गए।

रूसी क्रान्ति की तारीख

रूस में 1 फरवरी, 1918 तक जूलियन कैलेण्डर का अनुसरण किया
जाता था। इसके बाद रूसी सरकार ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर अपना लिया
जिसका अब सब जगह इस्तेमाल किया जाता है। ग्रेगोरियन कैलेण्डर
जूलियन कैलेण्डर से 13 दिन आगे चलता है। इसका मतलब है कि
हमारे कैलेण्डर के हिसाब से 'फरवरी क्रान्ति' 12 मार्च को और
'अक्टूबर क्रान्ति' 7 नवम्बर को सम्पन्न हुई थी।

अक्टूबर के बाद क्या बदला?

* बोल्शेविक, निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के पूरी तरह खिलाफ थे।
ज्यादातर उद्योगों और बैंकों का नवम्बर, 1917 में ही राष्ट्रीयकरण
किया जा चुका था। उनका स्वामित्व और प्रबन्धन सरकार के
नियन्त्रण में आ चुका था।
* जमीन को सामाजिक सम्पत्ति घोषित कर दिया गया।
दी गई।
* किसानों को सामन्तों की जमीनों पर कब्जा करने की खुली छूट द
* शहरों में बोल्शेविक ने मकान-मालिकों के लिए पर्याप्त हिस्सा
छोड़कर उनके बड़े मकानों के छोटे-छोटे हिस्से कर दिए ताकि
बेघर-बार या जरूरतमन्द लोगों को भी रहने की जगह दी जा
सके। उन्होंने अभिजात्य वर्ग द्वारा पुरानी पदवियों के इस्तेमाल पर
रोक लगा दी।
*परिवर्तन को स्पष्ट रूप से सामने लाने के लिए सेना और सरकारी
अफसरों की वर्दियाँ बदल दी गई।
* बोल्शेविक पार्टी का नाम बदल कर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी
(बोल्शेविक) रख दिया गया।
* नवम्बर, 1917 में बोल्शेविकों ने संविधान सभा के लिए चुनाव
कराए लेकिन इन चुनावों में उन्हें बहुमत नहीं मिल पाया।
* जनवरी, 1918 में असेम्बली ने बोल्शेविकों के प्रस्तावों को खारिज
कर दिया और लेनिन ने असेम्बली बर्खास्त कर दी। उनका मत था
कि अनिश्चित परिस्थितियों में चुनी गई असेम्बली के मुकाबले
अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस कहीं ज्यादा लोकतान्त्रिक संस्था है।

गृह युद्ध

* सन् 1918 और सन् 1919 में रूसी साम्राज्य के ज्यादातर हिस्सों
पर सामाजिक क्रान्तिकारियों ('ग्रीन्स') और जार-समर्थकों
('व्हाइट्स') का ही नियन्त्रण रहा। उन्हें फ्रांसीसी, अमेरिकी,
ब्रिटिश और जापानी टुकड़ियों का भी समर्थन मिल रहा था।
* ये सभी शक्तियाँ रूस में समाजवाद को फलते-फूलते नहीं देखना
चाहती थीं। इन टुकड़ियों और बोल्शेविकों के बीच चले गृह युद्ध
के दौरान लूटमार, डकैती और भुखमरी जैसी समस्याएँ बड़े पैमाने
पर फैल गई।
* 'व्हाइट्स' में जो निजी सम्पत्ति के हिमायती थे उन्होंने जमीन पर
कब्जा करने वाले किसानों के खिलाफ काफी सख्त रवैया
अपनाया।
* जनवरी, 1920 तक भूतपूर्व रूसी साम्राज्य के ज्यादातर हिस्सों पर
बोल्शेविकों का नियन्त्रण कायम हो चुका था। उन्हें गैर-रूसी
राष्ट्रवादियों और मुस्लिम जदीदियों की मदद से यह कामयाबी
मिली थी। जहाँ रूसी उपनिवेशवादी ही बोल्शेविक विचारधारा के
अनुयायी बन गए थे, वहाँ यह मदद काम नहीं आ सकी।

समाजवादी समाज का निर्माण

* गृह युद्ध के दौरान बोल्शेविकों ने उद्योगों और बैंकों के
राष्ट्रीयकरण को जारी रखा। उन्होंने किसानों को उस जमीन पर
खेती की छूट दे दी जिसका सामाजीकरण किया जा चुका था।
* जब्त किए गए खेतों का इस्तेमाल बोल्शेविक यह दिखाने के लिए
करते थे, कि सामूहिकता क्या होती है?
* शासन के लिए केन्द्रीकृत नियोजन की व्यवस्था लागू की गई।
अफसर इस बात का हिसाब लगाते थे कि अर्थव्यवस्था किस तरह
काम कर सकती है। इस आधार पर वे पांच साल के लिए लक्ष्य
तय कर देते थे। इसी आधार पर उन्होंने पंचवर्षीय योजनाएं बनानी
शुरू की।
* पहली दो योजनाओं, (सन् 1927-1932 और सन् 1933-1938)
के दौरान औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने
सभी तरह की कीमतें स्थिर कर दी।
* केन्द्रीकृत नियोजन से आर्थिक विकास को काफी गति मिली।
औद्योगिक उत्पादन बढ़ने लगा (सन् 1929 से सन् 1933 के बीच तेल, कोयले और स्टील के उत्पादन में 100% वृद्धि हुई। नये-नये
औद्योगिक शहर अस्तित्व में आए।

स्तालिनवाद और सामूहिकीकरण

* सन् 1927-1928 के आस-पास रूस के शहरों में अनाज का भारी
संकट पैदा हो गया था। सरकार ने अनाज की कीमत तय कर दी
थी। उससे ज्यादा कीमत पर कोई अनाज नहीं बेच सकता था।
लेकिन किसान उस कीमत पर सरकार को अनाज बेचने के लिए
तैयार नहीं थे।
* लेनिन के बाद पार्टी की कमान सम्भाल रहे स्तालिन ने स्थिति से
निपटने के लिए कड़े कदम उठाए। उन्हें लगता था कि अमीर
किसान और व्यापारी कीमत बढ़ने की उम्मीद में अनाज नहीं बेच
रहे हैं। स्थिति पर काबू पाने के लिए सट्टेबाजी पर अंकुश लगाना
और व्यापरियों के पास जमा अनाज को जब्त करना जरूरी था।
* सन् 1928 में पार्टी के सदस्यों ने अनाज उत्पादक इलाकों का दौरा
किया। उन्होंने किसानों से जबरन अनाज खरीदा और 'कुलकों के
ठिकानों पर छापे मारे। रूस में सम्पन्न किसानों को कुलक कहा
जाता था।
* आधुनिक खेत विकसित करने और उन पर मशीनों की सहायता से
औद्योगिक खेती करने के लिए 'कुलकों का सफाया' करना,
किसानों से जमीन छीनना और राज्य नियन्त्रित यानी सरकारी
नियन्त्रण वाले विशालकाय खेत बनाना जरूरी माना गया।
* इसी के बाद स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम शुरू हुआ।
सन् 1929 से पार्टी ने सभी किसानों को सामूहिक खेतों
(कोलखोज) में काम करने का आदेश जारी कर दिया।
* किसान सामूहिक खेतों पर काम नहीं करना चाहते थे। स्तालिन
सरकार ने सीमित स्तर पर स्वतन्त्र किसानों की व्यवस्था भी
जारी रहने दी लेकिन ऐसे किसानों को कोई खास मदद नहीं
दी जाती थी।
* सामूहिकीकरण के बावजूद उत्पादन में नाटकीय वृद्धि नहीं हुई।
बल्कि सन् 1930-1933 की खराब फसल के बाद तो सोवियत
इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा जिसमें 40 लाख से ज्यादा
लोग मारे गए।

कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियाँ

* सन् 1850-1880 रूस में समाजवाद पर बहस।
* सन् 1898 रशियन सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी की स्थापना।
* सन् 1905 खूनी रविवार और सन् 1905 की क्रान्ति।
* सन् 1917 2 मार्च जार द्वारा पदत्याग। 24 अक्टूबर पेत्रोग्राद में बोल्शेविक विद्रोह।
* सन् 1918-20 गृहयुद्ध ।
* सन् 1919 कॉमिन्टर्न का गठन।
* सन् 1929 सामूहिकीकरण की शुरुआत।

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