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 जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग  (Applications of Biotechnology)



निम्नांकित प्रमुख क्षेत्रों में जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों का अध्ययन करेंगे- स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, पर्यावरण, पशुपालन

स्वास्थ्य (Health)

इंटरफेरॉन- इंटरफेरॉन वायरस संक्रमित कोशिकाओं द्वारा उत्पादित वे प्रोटीन होते हैं जो अन्य स्वस्थ कोशिकाओं को विषाणुओं से सुरक्षा
प्रदान करते हैं। इनकी खोज ए, आइजैक्स एवं जे. लिडेनमान ने 1957 में की थी। इंटरफेरॉन द्वारा विषाणुओं से सुरक्षा गैर-विशिष्ट (Non-
Specific) होती है, क्योंकि किसी एक विषाणु द्वारा प्रेरित इंटरफेरॉन अन्य विषाणुओं से भी सुरक्षा प्रदान करता है। इंटरफेरॉन मुख्य रूप से 3 प्रकार के होते हैं: (i) इंटरफेरॉन- a (IFN-a) श्वेत रुधिर कोशिकाओं द्वारा उत्पादित होता है, जबकि (ii) इंटरफेरॉन-B (IFN-B) का उत्पादन तंतु कोरकों (Fibroblasts) द्वारा किया जाता है। (iii) उद्दीप्त T-लिम्फोसाइटों द्वारा इंटरफेरॉन । (IFN-7) का उत्पादन होता है, अत: इसे प्रतिरक्षा इंटरफेरॉन (Immune Interferon) भी कहते हैं।
इंटरफेरॉन प्राकृतिक मारक कोशिकाओं (Natural Killer Cells या NK Cells, एक प्रकार के लिम्फोसाइट) की साइटोटॉक्सिक (Cytotoxic) क्रिया को बढ़ाते हैं। NK कोशिकाएँ कुछ प्रकार के ट्यूमर्स की वृद्धि रोकती हैं। अतः ट्यूमर्स के उपचार के लिये अत्यधिक महँगा होने के बावजूद इंटरफेरॉन का उपयोग हो रहा है। इंटरफेरॉन का उत्पादन पहले दाता रुधिर (Donor Blood) से विलगित श्वेत रक्त कोशिकाओं द्वारा तथा मूषक तंतु कोरक (Fibroblast) कल्चरों से होता था, लेकिन अब इंटरफेरॉन का उत्पादन ई. कोलाई, यीस्ट तथा स्तनपायी कोशिका कल्चरों से (रीकॉम्बिनेंट डी.एन.ए. टेक्नोलॉजी द्वारा) किया जा रहा है।
इंसुलिन- इंसुलिन एक पॉलीपेप्टाइड हॉर्मोन है जो रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित करता है। मधुमेह से पीड़ित व्यक्ति के रक्त में
इंसुलिन की कमी से ही ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है। जीवाणुओं द्वारा मनुष्य के लिये इंसुलिन हॉर्मोन्स का उत्पादन जैव प्रौद्योगिकी द्वारा संभव हो सका है।
अमीनो अम्ल- विगत कुछ वर्षों में जैव प्रौद्योगिकी विधियों से अमीनो अम्लों, जैसे- लाइसिन इत्यादि के उत्पादन में बहुत तेजी आई
है। जैव प्रौद्योगिकी से हम अमीनो अम्ल को 'L' (एल) के रूप में प्राप्त कर सकते हैं जिसकी हमें आवश्यकता होती है, साथ ही इसकी लागत
भी कम होती है।
ऊतक संवर्द्धन- दवाओं के क्षेत्र में ऊतक संवर्द्धन के माध्यम से निकोटीन एवं डायोसजेनिन का उत्पादन संभव है। इसके माध्यम से जहाँ
ट्यूमर निरोधी पदार्थ, अमीनो अम्ल, प्रोटीन, प्रतिजैविक, स्टेरॉयड, रंग वाले पदार्थ तथा विटामिन इत्यादि बनाए जा सकते हैं, वहीं इसके उपयोग से कम समय में अधिक उपज देने वाले पौधे भी प्राप्त किये जा सकते हैं।

क्लैरिटी (CLARITY-Clear Lipid-exchanged
Acrylamide-hybridized Rigid Imaging/Immunostaining
InSitu-hybridization-Compatible Tissue hydrogel)

यह वस्तुतः एक्रिलामाइड आधारित हाइड्रोजेल का उपयोग कर मस्तिष्क के ऊतकों को पारदर्शी बनाने और उन्हें जोड़ने की एक
तकनीक है। वैज्ञानिक पहले से ही नशीली दवाओं की लत, अल्जाइमर रोग और अन्य न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर के जैविक कारकों के बारे में अध्ययन करने के लिये इस तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। डॉक्टर्स इस प्रौद्योगिकी का प्रयोग कैंसर, संक्रमण, ऑटोइम्यून विकार सहित शरीर की अन्य बीमारियों का निदान करने के लिये कर रहे हैं।

हाइब्रिडोमा प्रौद्योगिकी (Hybridoma Technology)

● एंटीबॉडी (Antibody) पैदा करने वाली लिम्फोसाइट कोशिका और कैंसर युक्त कोशिका को मिलाकर एक संकर कोशिका (Hybrid Cell) का निर्माण किया गया, जिसमें ऐसा गुण पाया गया जो एक तरफ तो एंटी बॉडी उत्पन्न करती है, तो दूसरी तरफ उनका तेजी से विभाजन होता रहता है। इस आधार पर यह संकर कोशिका बड़ी मात्रा में एक समान गुणों वाले एंटीबॉडी उत्पन्न करने में सक्षम होती है। एंटीबॉडी की लगभग सभी लक्षणों की समानता के कारण इसे मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (Monoclonal Antibody) भी कहते हैं तथा जिस तकनीक से यह संकर कोशिका तैयार की जाती है, उसे 'हाइब्रिडोमा प्रौद्योगिकी' कहते हैं।
● शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के मुख्य उद्देश्य से इस तकनीक का विकास किया गया। व्यावहारिक तौर पर तो इसका सफलतम प्रयोग चूहे पर ही किया गया, किंतु इन मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज की सहायता से HIV/AIDS, हेपेटाइटिस जैसे रोगों की पहचान की जा रही है।
नोट: हाइब्रिडोमा प्रौद्योगिकी की खोज व विकास हेतु जी. कोहलर तथा सी. मिलस्टेइन को वर्ष 1984 में चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार
से सम्मानित किया गया।

कृषि (Agriculture)

कृषि के क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी का बहुआयामी उपयोग किया जा रहा है। इसके द्वारा ही आज हमें ऊतक संवर्द्धन, भ्रूण संवर्द्धन जैसी पौध
प्रवर्द्धन विधियाँ प्राप्त हुई हैं। जैव प्रौद्योगिकी की मदद से ही आज फसलों की किस्मों एवं उत्पादन की गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है। फसलों की समय सीमा को कम करके किसी एक ही भूखंड पर बार-बार खाद्यान्न फसलों का उत्पादन किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने
जैव प्रौद्योगिकी की मदद से फसलों की ऐसी किस्में तैयार की हैं जिनमें हानिकारक गुणों की अपेक्षा लाभकारी गुण अधिक हैं। पौधों एवं फसलों की ऐसी प्रजातियों का विकास किया जा रहा है जिन पर कवकनाशी तथा कीटनाशी रसायनों के अवशेषों का प्रभाव न पड़े।
जीन अभियांत्रिकी और पौधों की नवीन विकसित प्रजनन प्रौद्योगिकी द्वारा फलों तथा सब्जियों के स्वाद भी नियंत्रित किये जा सकते हैं और
उनमें इस तरह के गुणों को समाविष्ट किया जा सकता है जिससे कि वे लंबे समय तक खराब न हों। कृषि के क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों का अध्ययन हम विभिन्न उप-क्षेत्रों के अंतर्गत करेंगे- बीज (Seeds), जैव-उर्वरक (Bio- Fertilizers) और जैव-कीटनाशक (Bio-Pesticides)।

बीज (Seeds)

बीजों के क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों का अध्ययन हम पराजीनी फसलों (Transgenic Crops), बीटी कपास, बीटी बैंगन एवं
गोल्डन राइस के अंतर्गत करेंगे- 

पराजीनी फसलें (Transgenic or Genetically Modified Crops)

जैव प्रौद्योगिकी द्वारा जब किसी फसल में ऐसे बाहरी जीन को प्रविष्ट कराया जाता है, जो कि उस फसल में विद्यमान नहीं है तो इस तरह की फसल को 'ट्रांसजेनिक फसल या पराजीनी फसल' कहा जाता है। ऐसी फसल में बाहरी जीन को प्रविष्ट कराकर कुछ विशिष्ट गुणों का विकास किया जाता है, जैसे- बीमारियों एवं कीटों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करना, फसलों की गुणवत्ता एवं उत्पादकता में वृद्धि करना, जल की आवश्यकता को कम करना तथा प्रोटीन एवं खनिजों की मात्रा को बढ़ाकर अधिक पौष्टिक बनाना आदि।
पराजीनी पौधों के निर्माण के लिये प्राय: दो विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं:-
● द्विबीजपत्री पौधों हेतु प्लाज्मिड वाहक द्वारा अप्रत्यक्ष या परोक्ष जीन हस्तांतरण।
● एकबीजपत्री पौधों के लिये प्रत्यक्ष जीन हस्तांतरण। प्रत्यक्ष जीन हस्तांतरण में पौधों की कोशिका में डी.एन.ए, को बिना किसी जैविक कारक की सहायता से प्रवेश कराया जाता है। इसके लिये पार्टिकल गन मेथड, इलेक्ट्रोपोरेशन तकनीक आदि प्रयोग में लाई जाती हैं।

पराजीनी फसलों से लाभ (Advantages of
Transgenic or Genetically Modified Crops)

● कीटरोधी पराजीनी फसलों में कीटनाशक दवाइयों की आवश्यकता नहीं पड़ती जिससे पर्यावरण प्रदूषण की समस्या नहीं आती और
किसानों पर आर्थिक दबाव भी कम पड़ता है।
● मैंग्रोव पौधों से खारे जल को सहने वाले जीन को निकालकर धान के पौधों में प्रविष्ट कराया गया है जिससे समुद्र तट पर खारे जल
में धान की पैदावार की संभावना बढ़ गई है।
● राइजोबियम जीवाणु से नाइट्रोजन स्थिर करने वाले निफ जीन (Nif Gene) को निकालकर दलहन वाली फसलों के अतिरिक्त अन्य
फसलों में स्थानांतरित किया जा सकेगा जिससे नाइट्रोजन उर्वरकों पर व्यय में कमी आएगी तथा पर्यावरण प्रदूषण में भी कमी आएगी।
● चूँकि, इस तकनीक में इच्छित लक्षण के लिये उत्तरदायी जीन को ही निकालकर स्थानांतरित किया जाता है, अतः इसमें अनचाहे अन्य
लक्षण दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित नहीं हो पाते हैं, जैसा कि प्रजनन के परंपरागत तरीके वरण (Selection) व संकरीकरण (Hybridization)
में होता है।
● प्रजनन के पारंपरिक तरीकों में इच्छित लक्षण समान कुल या प्रजाति से प्राप्त किये जा सकते हैं जबकि पराजीनी पौधों में ऐसी कोई
सीमा नहीं होती। वांछित लक्षण किसी भी जीव या पौधे से प्राप्त किये जा सकते हैं।
● जीन हस्तांतरण द्वारा खाद्य टीके का निर्माण कर मानव में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास किया जा सकता है। उदाहरण के लिये,
हैजे का टीका आलू में डाला गया है।
● लंबी अवधि तक न सड़ने-गलने वाले फलों व सब्जियों को इस तकनीक से प्राप्त किया जा सकता है।
● अर्द्धविकसित व पिछड़े देशों में, जहाँ जनसंख्या वृद्धि दर अति उच्च है. पराजीनी फसलों के माध्यम से खाद्य सुरक्षा (Food Security)
सुनिश्चित की जा सकती है।

पराजीनी फसलों से नुकसान (Disadvantages of
Transgenic or Genetically Modified Crops)

● पर्यावरणविदों के अनुसार आस-पास के पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के संदर्भ में पराजीनी फसलों का उत्पादन लाभदायक नाही
है। इनके अनुसार ये पौधे मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ सकते हैं, अतः पराजीनी पौधों से संभावित खतरों का
अध्ययन अति आवश्यक है। साथ ही, ध्यान देने योग्य बात यह है कि पराजीनी फसलों पर कार्य बहुराष्ट्रीय निजी कंपनियाँ (MNCH)
कर रही हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य लाभ अर्जित करना है न कि किसानों में खुशहाली लाना।
● ये पराजीनी फसलें पर्यावरण में संक्रमण करके वनस्पति और पर्यावरण को प्रभावित कर सकती हैं। जीन के साथ छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप एलरजेंस (एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्त्व) तथा टॉक्सिन (जहरीले तत्त्व) के उत्पन्न होने की संभावना रहती है जो एक पौधे से दूसरे पौधे में स्थानांतरित हो सकते हैं।
● पराजीनी फसलों से कीटनाशी प्रोटीनों का उत्पादन होता रहता है। खाद्य श्रृंखला के माध्यम से ये विषाक्त तत्त्व अन्य जीव-जंतुओं तक
पहुँच सकते हैं व पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ सकता है।
● पराजीनी फसलों से परागकण उड़कर खरपतवारों व अन्य गैर-लक्षित प्रजातियों पर जा सकते हैं, जिससे खरपतवारों में कीटनाशक प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न हो सकती है तथा इससे किसानों के लिये इन खरपतवारों को नियंत्रित करना दुष्कर कार्य हो जाएगा। पराजीनी फसलें टर्मिनेटर टेक्नोलॉजी से विकसित बीजों से उत्पन्न होती हैं। इस बात की संभावना बनी रहती है कि इन पराजीनी फसलों से परागकण उड़कर अन्य पौधों व फसलों को अपनी चपेट में ले लें तथा गैर-टर्मिनेटर बीज भी टर्मिनेटर बनकर नष्ट हो जाएँ।

टर्मिनेटर जीन (Terminator Gene)

टर्मिनेटर जीन के प्रभाव से पौधे अपने ही भ्रूण के विकास को अवरुद्ध कर देते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जैव प्रौद्योगिकी की सहायता से किसी भी पौधे में इस प्रकार के जीन डाले जा सकते हैं जिससे उस पौधे की अच्छी फसल तो प्राप्त की जा सकेगी, लेकिन इसके बीज नए पौधे उत्पन्न करने में सक्षम नहीं होंगे। इस तरह के जीन का विकास वस्तुत: जेनेटिक प्रयोग प्रतिबंध तकनीक (Genetic Use Restriction Technologies-GURTs) के द्वारा किया जाता है।
ऐसे जीन वाले पौधों से उत्पन्न बीज चूंकि नए पौधों को उत्पन्न नहीं कर पाएंगे, अत: किसान को हर बार बीज कंपनियों से ही बीज खरीदना पड़ेगा। इस प्रकार यह तकनीक कृषि एवं बीजों के क्षेत्र में कार्यरत बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) के व्यापारिक एकाधिकार (Monopoly) का माध्यम बनती है। चूंकि, परंपरागत कृषि में किसान हर वर्ष अपनी फसलों से बीज बचाकर रखता है, जिन्हें वह अगली बार बोता है इसलिये ये फसल किस्में कई पीढ़ियों से किसान के पास बीजों के रूप में संरक्षित रहती हैं। लेकिन इन GM बीजों के प्रयोग के बाद किसानों को हर वर्ष कंपनियों से ही बीज खरीदने पड़ेगे। वहीं दूसरी ओर, बहुराष्ट्रीय बायोटेक कंपनियों का तर्क है कि टर्मिनेटर तकनीक इसलिये आवश्यक है ताकि नॉन-जी.एम. फसलों का GM फसलों के साथ सम्मिश्रण न हो। यदि जी.एम, फसलें टर्मिनेटर गुण वाली होंगी तो वे वातावरण में फैल नहीं पाएंगी और जैव-विविधता की सुरक्षा सुनिश्चित होगी। लेकिन अन्य GM-जीनों की तरह टर्मिनेटर जीन भी संकरण (Cross-Fertilisation) या अन्य कारणों से अन्य पादप प्रजातियों तक फैल सकते हैं अर्थात् टर्मिनेटर जीन दुर्घटनावश नॉन-जी.एम. फसलों
तक पहुँच सकते हैं जिससे उनके बीज भी बाँझ (Sterile Seed) पैदा होने लगेंगे और फसलीय विविधता कुप्रभावित हो सकती है। उल्लेखनीय है कि विकासशील देशों में किसान पीढ़ी-दर-पीढ़ी कोई फसल उगाते रहते हैं और इस दौरान वे स्थानीय मिट्टी और जलवायु के अनुकूल नई फसल किस्में भी विकसित करते रहे हैं। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप ही हजारों प्रकार की स्थानीय देशज फसलें पाई जाती हैं जो स्थानीय जलवायविक परिस्थितियों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती हैं। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के इस दौर में जब स्थानीय परिस्थितियों के लिये अनुकूलित फसलों के संरक्षण का मुद्दा महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है तब टर्मिनेटर जीन वाले बीजों के कारण स्थानीयता के विनाश का ख़तरा बढ़ता दिखता है।
टर्मिनेटर जीन युक्त बीजों को बिक्री से पूर्व टेट्रासाइक्लीन के संपर्क में लाया जाता है। पर्यावरणविदों का मानना है कि टेट्रासाइक्लीन
युक्त बीजों को बार-बार बोए जाने से मृदा में उपस्थित लाभप्रद सूक्ष्म- म-जीव नष्ट हो जाते हैं जिससे मृदा की उर्वरता घट जाती है।

बीटी कपास (Bt Cotton)

बीटी कपास आनुवंशिक रूप से परिवर्तित कपास है जिसमें बैसिलस थूरिनजिएनसिस नामक बैक्टीरिया का 'क्राई' नामक जीन डाला जाता है, जिससे पौधा स्वयं कीटनाशक प्रभाव उत्पन्न करने लगता है और पौधों पर कीटनाशक दवाइयों को छिड़कने की आवश्यकता नहीं रहती। बैसिलस थूरिनजिएनसिस एक भूमिगत बैक्टीरिया है जो डेल्टा एंडोटॉक्सिन नामक क्रिस्टल प्रोटीन का निर्माण करता है। क्रिस्टल प्रोटीन कीटाणुओं को नष्ट कर देता है।
आनुवंशिक रूप से परिवर्तित 'बीटी कपास' की तीन किस्मों मेक-12, मेक-162 और मेक-184 के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति
भारत सरकार ने मार्च 2002 में प्रदान की थी। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 'जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रवल कमिटी द्वारा मंजूर की गई बीटी कपास की इन किस्मों को बहुराष्ट्रीय कंपनी 'मोनसेंटो' की भारतीय अनुषंगी कंपनी 'महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्स कंपनी प्राइवेट लिमिटेड' (महिको) ने विकसित किया है। इन बीजों के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति कुछ शर्तों के साथ इस कंपनी को
प्रदान की गई है, जो निम्नलिखित हैं-
● बीज अधिनियम, 1966 की शर्ते पूरी करना।
● बीज पर यह इंगित करना कि यह आनुवंशिक रूप से परिवर्तित बीज है।
● बीजों के वितरकों व विक्री के डाटा को जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमिटी (G.E.A.C) को उपलब्ध कराना।
● बोए गए क्षेत्रफल की जानकारी उपलब्ध कराना।
● लगातार तीन वर्षों तक यह रिपोर्ट देना कि इन किस्मों में किसी प्रकार की बीमारी के बैक्टीरिया तो नहीं पनप रहे हैं।
● बीटी कपास वाले खेत की बाह्य-सीमा पर गैर-बीटी कपास उगाई
जाए ताकि इसके पड़ने वाले प्रभावों का निरीक्षण किया जा सके।
नोट: बीटी कपास की फसल को व्यावसायिक उत्पादन के लिये सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका में 1995 में मंजूरी दी गई। भारत में
उगाई जाने वाली करीब 90 प्रतिशत कपास बीटी कपास ही है।

बीटी कपास से लाभ (Advantages of Bt Cotton)
● कपास के उत्पादन में वृद्धि, जिससे किसानों की आय में भी वृद्धि होगी।
● पौधों में स्वयं ही कीटनाशक प्रभाव पैदा करने की क्षमता, जिससे कीटनाशक दवा के छिड़काव की आवश्यकता नहीं होती है।
● कीटनाशकों के उपयोग में कमी से पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहन।
● रोग या महामारी से फसलों के खराब होने की संभावना कम।
● बीटी कपास का उपयोग कीट नियंत्रण की अन्य विधियों के साथ भी संभव।

बीटी कपास से नुकसान (Disadvantages of Bt Cotton)
● कीटों में प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न हो जाने से बीटी कपास के साथ-साथ अन्य फसलों को भी नुकसान पहुँच सकता है।
● इस तरह की फसलों की उत्पादन लागत बहुत अधिक होती है।

बीटी बैंगन (Bt Brinjal)

बीटी बैंगन भी एक पराजीनी या जैव संवर्द्धित फसल है। यह बैंगन के जीनोम में बैसिलस थ्युरिनजेनसिस बैक्टीरिया (Bacillus Thuringiensis) से प्राप्त होने वाले CryIAc नामक जीन को प्रविष्ट कराने से तैयार होता है। इस जीन को प्रविष्ट कराने के बाद बैंगन में प्ररोह और फल छिद्रक कीटों के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता आ जाती है। आलू के बाद बैंगन की पैदावार भारत में सबसे ज्यादा होती है। भारत के कुल सब्जी उत्पादन का लगभग 9 फीसदी बैंगन ही होता है। बीटी बैंगन को महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड्स कंपनी (महिको) ने विकसित किया है। भारत में बीटी बैंगन को लेकर हालिया सालों में काफी विवाद पैदा हुआ है। जीएम फसल होने के कारण इसके विरोध का आधार भी वही है, जो अन्य जीएम फसलों का है। पर्यावरणविद् तथा कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जीएम फसल की वजह से क्षेत्रानुकूल पारंपरिक कृषि प्रभावित होगी, फसलचक्र का पालन न होने से पृथ्वी की उर्वराशक्ति समाप्त हो जाएगी, कृषि के लिये लाभप्रद छोटे जीव प्रभावित होंगे, जो कृषि तथा प्राकृतिक जैव विविधता के विनाश का कारण बन सकते हैं।

नोट: बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा गठित अर्जुला रेड्डी की अध्यक्षता
वाली समिति ने अक्तूबर 2009 में दी थी, लेकिन उन पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी उद्योग के दबाव
में आकर स्वीकृति दी थी।

गोल्डन राइस या सुनहरा चावल (Golden Rice)

गोल्डन राइस वैज्ञानिकों द्वारा विकसित धान की एक लाभप्रद किस्म है, जो 'बीटा कैरोटीन' पैदा करने में सक्षम होती है। मानव शरीर में
विटामिन 'ए' का निर्माण बीटा कैरोटीन के संश्लेषण के कारण ही होता है। साधारण चावल के दानों में बीटा कैरोटीन नहीं पाया जाता है। बीटा कैरोटीन होने के कारण ही चावल की इस किस्म का रंग सुनहरा पीला हो जाता है. इसलिये इसे 'गोल्डन राइस' कहा जाता है।
गोल्डन राइस को विकसित करने के लिये तीन बाह्य जीनों का उपयोग किया जाता है। इसमें से एक जीन PSY है, जो डैफोडिल नामक
पौधे के जीनोम से प्राप्त किया जाता है, जबकि दूसरा जीन CRT1 है, जिसे एक बैक्टीरिया से प्राप्त किया जाता है। तीसरा LCY है, जो
अधिकतर धान की किस्मों में स्वतः पाया जाता है। अत: इसका ज्यादा उपयोग नहीं किया जाता। ये तीनों जीन मिलकर ही चावल के दाने के
एंडोस्पर्म में चार चरणों में बीटा कैरोटीन को विकसित करते हैं। सुनहरे चावल का सर्वप्रथम निर्माण स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी द्वारा किया गया था। 2005 में Syngenta नामक कंपनी ने PSY जीन को मक्के से प्राप्त किया तथा उसे CRT1 जीन के साथ
जोड़कर गोल्डन राइस-2 का निर्माण किया, जो कई गुना अधिक बीटा कैरोटीन उत्पन्न करता है।
उल्लेखनीय है कि विटामिन ए की कमी से आँखों की रोशनी कम होती है और अंधापन भी आ सकता है। इसकी कमी से जेरोफ्थैलमिया
(Xerophthalmia) रोग हो सकता है तथा इस रोग में आँख आँसू उत्पन्न करना बंद कर देती है। विकासशील देशों में विटामिन ए की कमी एक बड़ी समस्या है।

नोट: भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ. गुरदेव सिंह खुश गोल्डन राइस के अनुसंधान से जुड़े हुए हैं।

जीएम सरसों (GM Mustard)

GM-सरसों (GM- Mustard): सरसों एक स्वपरागित (Self Pollinating) फसल है। अतः इसको संकरित (Hybridise) करना कठिन है। इस कार्य को आसान बनाने के लिये दिल्ली यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक दीपक पेंटल तथा उनकी टीम ने भारतीय सरसों की एक किस्म 'वरुणा' तथा पूर्वी यूरोप की सरसों की एक किस्म Early Heera-2 का जीन संशोधन (Genetic Modification) किया। इस कार्य हेतु मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया बैसिलस अमाइलोलिक्विफेसिएंस (Bacillus amyloliquefaciens) के दो जीनों 'बारनेस' (Barnase) तथा 'बार्सटर' (Barstar) का उपयोग किया गया।
इन दोनों किस्मों से उत्पन्न संकरित किस्म को DMH-11 (Dhara Mustard Hybrid-11) नाम दिया गया है। दीपक पेंटल तथा उनकी
टीम के अनुसार DMH-11 की उत्पादन क्षमता अन्य किस्मों से 20-30 प्रतिशत तक अधिक है।

जैव-उर्वरक (Bio-Fertilizer)

ऐसे सूक्ष्म जीव, जिनका उपयोग कर पौधों को पोषक तत्त्वों की प्राप्ति कराई जा सकती है, 'जैव उर्वरक' कहलाते हैं। ये नाइट्रोजन स्थिरीकरण करके, फॉस्फोरस को घुलनकारी बनाकर आदि कई तरीकों से पौधों के लिये पोषक तत्त्वों की उपलब्धता सुनिश्चित करते हैं। इनके प्रयोग से रासायनिक खाद, जैसे- यूरिया आदि की आवश्यकता सीमित हो जाती है तथा सतत कृषि को बढ़ावा मिलता है। जैव उर्वरक के रूप में प्रमुख रूप से राइजोबियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम (Azospirillum) ब्लू-ग्रीन एल्गी (सायनोबैक्टीरिया) आदि सूक्ष्मजीवों का प्रयोग किया जाता है।

राइजोबियम (Rhizobium)

राइजोबियम दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियाँ बनाने की क्षमता रखने वाले उस जीवाणु का नाम है, जो कि वायुमंडल के नाइट्रोजन का
स्थिरीकरण (नाइट्रोजन को अमोनिया में बदलना) करके उसे पौधों तक पहुँचाता है।

एजोटोबैक्टर (Azotobacter)

एजोटोबैक्टर मृदा में पाया जाने वाला जीवाणु है, जो कि अदलहनी फसलों, जैसे- गेहूँ, मक्का, सरसों, आलू आदि में नाइट्रोजन स्थिरीकरण
में सहायक है।

एज़ोस्पाइरिलम (Azospirillum)

इसका प्रयोग गन्ना, मोटे अनाज आदि में नाइट्रोजन स्थिरीकरण हेतु किया जाता है।

एजोला (Azolla)

एजोला विश्व भर में पाया जाने वाला एक निम्नवर्गीय पादप है। यह मुख्यतः स्वच्छ जल, तालाबों, गड्ढों तथा झीलों में पानी की सतह पर तैरता रहता है। भारत में पाई जाने वाली इसकी प्रजाति एजोला पिन्नाटा है, जिसमें नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता कम होती है, इसीलिये इसके
स्थान पर धान की फसलों के प्रयोग हेतु अन्य प्रजाति एजोला माइक्रोफीला और एजोला केरोलिनिआना का प्रयोग किया जाता है, जो कि नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाली अच्छी प्रजातियाँ है।

फॉस्फेट विलयकारी जैव उर्वरक
(Phosphate Solubilizing Biofertilizer)

नाइट्रोजन के साथ-साथ फॉस्फोरस भी पौधों की वृद्धि के लिये आवश्यक पोषक तत्त्व है। प्रकृति में फॉस्फोरस हरी खाद, मिट्टी, पौधों तथा सूक्ष्म जीवों में पाया जाता है। फॉस्फोरस विभिन्न कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों के रूप में मिलता है, परंतु पौधे इस फॉस्फोरस का
उपयोग नहीं कर पाते हैं। पौधों द्वारा फॉस्फोरस का अवशोषण मुख्य रूप से प्राथमिक ऑर्थोफॉस्फेट आयन के रूप में होता है।
मिट्टी में पाए जाने वाले अनेक सूक्ष्म जीव, जैसे- स्यूडोमोनास पुटिडा आदि फॉस्फोरस विलयीकरण की क्षमता रखते हैं। इन्हीं का प्रयोग
फॉस्फेट को घुलनशील बनाने वाले जैव उर्वरकों के रूप में होता है।

जैव कीटनाशक (Biopesticides)

प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पदार्थों, जैसे- नीम, पौधों तथा जंतुओं से प्राप्त रसायन आदि, जिनका उपयोग कीटनाशकों के
रूप में किया जा सकता है, 'जैव कीटनाशक' कहलाते हैं। जैव कीटनाशकों के उदाहरण-

बैसिलस थूरिनजिएनसिस (Bacillus Thuringiensis) टॉक्सिन में

● विश्व भर में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला जैव-कीटनाशक।
● मच्छरों, मक्खियों, चीटियों, दीमकों, मकड़ियों और तितलियों को नष्ट करता है।

बैकुलोवायरस (Baculovirus)

● पौधों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों एवं अन्य आर्थोपोड्स क को नष्ट करते हैं।
● कपास, चावल और सब्जियों पर हमला करने वाले कीटाणुओं क को खत्म करने में बेहद प्रभावी।

नीम (Neem)

● इनमें फसलों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटाणुओं को नष्ट करने की क्षमता पाई जाती है। यह लाभदायक कीटों को हानि नहीं पहुँचाता है।
●  नीम लेपित यूरिया (Neem Coated Urea) के अंतर्गत यूरिया में नीम के तेल को मिलाया जाता है। यह जल, मृदा एवं वायु
है। प्रदूषण को कम करने में सहायक है एवं यूरिया के दुरुपयोग में भी कमी लाता है।

उद्योग (Industry)

जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों ने खाद्यान्न एवं पेय उद्योग में भी " अप्रत्याशित सफलता अर्जित की है। विगत कुछ वर्षों में मीठे एवं शर्करा
रहित (Sugar Free) पदार्थों की मांग में अत्यधिक वृद्धि हुई है, जिसने उद्योग क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग को विस्तारित कर दिया है। जैव प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके कम कैलोरी वाले मीठे पदार्थ एस्पार्टम (Aspartame) का निर्माण किया गया है। इसी तरह 'थॉमेटोकोकस डेनिएली (Thaumatococcus Daniellii) नामक पौधे से थॉमेटिन (Thaumatin) नामक पदार्थ बनाया गया है
जिसे अब तक निर्मित ऐसे सभी पदार्थों में सर्वाधिक मीठा कहा गया है। जैव प्रौद्योगिकी का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में महत्त्वपूर्ण उपयोग है। इसके द्वारा खाद्यों के सूक्ष्मजीवों का विनाश कर खाद्य की सुरक्षा एवं गुणवत्ता में सुधार लाते हैं। साथ ही खाद्य प्रसंस्करण उत्पादन में विभिन्न उपयोगी सूक्ष्मजीवों की सहायता से विभिन्न प्रकार के खाद्य उत्पाद तैयार किये जाते हैं, जो न सिर्फ पोषण की दृष्टि से उन्नत होते हैं बल्कि स्वाद, सुगंध आदि में भी उत्तम होते हैं। लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया दही बनाने में, लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया अचार बनाने हेतु किण्वन विधि
में, एसीटोबैक्टर मैलोरम बैक्टीरिया सिरका (Vinegar) के किण्वन में, सैक्रोमाइसीज सेरेविसियाई यीस्ट ब्रेड, बीयर, व्हिस्की, ब्रांडी, रम आदि तैयार करने में प्रयुक्त होते हैं।

पर्यावरण (Environment)

जैव विविधता संरक्षण तथा पर्यावरणीय जैव प्रौद्योगिकी कार्यक्रम का संपूर्ण लक्ष्य जैव प्रौद्योगिकी के प्रयोग के द्वारा, स्थायी तौर पर पर्यावरण संबंधी समस्याओं का हल निकालने हेतु अनुसंधान एवं विकास को संवर्द्धन देना है। पर्यावरणीय जैव प्रौद्योगिकी का प्रमुख उद्देश्य जलवायु
परिवर्तन के लिये अपशमन प्रौद्योगिकी का विकास, पर्यावरण सुधार के लिये सूक्ष्म जैव प्रौद्योगिकियों का विकास तथा औद्योगिक प्रवाह की
शोधन प्रक्रिया का विकास करना है। इसके साथ कई नई परियोजनाएँ, जैसे- जैवोपचारण प्रौद्योगिकी का विकास, कार्बन प्रच्छादन, प्राणी तथा पादप विविधता अध्ययन पर केंद्रित है।

जैव संवेदक (Bio-Sensors)

जैव संवेदक एक ऐसा विश्लेषणात्मक यंत्र (Analytical Device) है जो जैविक प्रतिक्रियाओं को विद्युतीय संकेतों में बदल देता है। यह
बायोटेक्नोलॉजी और माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स के संयुक्त उपयोग पर आधारित उपकरण है। इस उपकरण में एक जैविक भाग होता है, जिसके लिये सामान्यतः एंटीबॉडीज़ (Antibodies) का प्रयोग किया जाता है। जैविक भाग एक छोटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ट्रांसड्यूसर से जुड़ा होता है। बायोसेंसर में जैविक भाग किसी पदार्थ की पहचान तथा उसकी मात्रा निर्धारित करता है और ट्रांसड्यूसर पहचान निर्धारित होने के बाद संकेत देने का कार्य करता है। संकेतों की मात्रा उस अशुद्धि की मात्रा के समानुपाती होती है।
नोट: Father of Bio-sensors- Prof. L.C. Clark Jr.

जैव संवेदक के अनुप्रयोग (Applications of Bio-Sensors)

● पर्यावरण में उपस्थित प्रदूषकों का पता लगाने और मुख्यतः इसमें कि उनकी मात्रा का अनुपात क्या है?
● खाद्य पदार्थों की पोषक क्षमता व शुद्धता का पता लगाने में।
● चूँकि, भारत में मधुमेह रोगियों की संख्या सर्वाधिक है, अतः इसका उपयोग और भी बढ़ जाता है क्योंकि मानव रक्त में ग्लूकोज की
मात्रा निर्धारित करने में इसकी विशेष भूमिका होगी।
● कोशिका संरचना में होने वाले परिवर्तनों तथा कोशिका की उत्परिवर्तन (Mutation) क्षमता को मापने में।
● रोगाणुओं (Pathogens) का पता लगाने में।
● दवा (Drug) की खोज में, आदि।

जैव उपचार (Bio-Remediation)

जैव उपचार एक ऐसी तकनीक है जिसमें सूक्ष्मजीवों (कवक, बैक्टीरिया आदि) का प्रयोग कर पर्यावरणीय प्रदूषकों को कम करने या
रोकने का कार्य किया जाता है। इसके अंतर्गत पर्यावरण से प्रदूषकों को दूर करने के साथ-साथ प्रदूषित जगहों को उनके पूर्व रूप में लाया जाता है तथा भविष्य में होने वाले प्रदूषण की रोकथाम की जाती है। यह तकनीक मुख्यतः इस आधार पर कार्य करती है कि सूक्ष्म जीवों
में जैविक यौगिकों को नष्ट करने की असीमित क्षमता होती है। अनुसंधान के तौर पर बायो रेमेडिएशन का व्यापक रूप से प्रयोग मरुस्थलीकरण को रोकने, वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने एवं पदार्थों के जीवन चक्र को उनके प्राकृतिक रूप में बनाए रखने के लिये किया जा रहा है। साथ ही, इस दिशा में ऐसे सूक्ष्म जीवों के विकास पर बल दिया जा रहा है जो मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को विपरीत दिशा में मोड़ने में सहायता करें।

पशुपालन (Animal Husbandry)

● पशु जैव प्रौद्योगिकी की विविध विधाओं, जैसे- भ्रूण हस्तांतरण, भ्रूण परिवर्द्धन, पोषण, स्वास्थ्य, रोगों के उपचार, परखनली निषेचन में
उल्लेखनीय प्रगति के माध्यम से पशुओं की नई नस्लें विकसित करने, नस्ल सुधार एवं स्वास्थ्य सुधार में विशेष सफलता मिली है।
● भ्रूण हस्तांतरण तकनीक के सफल प्रयोग द्वारा मवेशियों की उत्पादकता बढ़ाई जा रही है। भ्रूण हस्तांतरण तकनीक का प्रयोग गाय, बैल,
भैंस, घोड़ा, ऊँट, बकरी, भेड़ आदि पशुओं पर सफलतापूर्वक किया गया है।
● विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा शुरू की गई पशुधन जीनोमिक्स स्कीम का उद्देश्य विशिष्ट चयन की प्रजनन प्रक्रियाओं को बढ़ावा
देकर पशुओं की आबादी में आनुवंशिक सुधार करना है, ताकि अधिक उत्पाद, अधिक रोग प्रतिरोधी व पहले से अधिक अनुकूल पशुधन सुनिश्चित हो सके। योजना द्वारा हाई डेनसिटी डी.एन.ए, चिप्स का विकास किया जाना है, जिससे भावी प्रजनन कार्यक्रमों के लिये लागत एवं समयांतराल को कम किया जाए तथा स्वदेशी पशुओं की उत्पादकता में वृद्धि हो।

नीली या समुद्री जैव प्रौद्योगिकी
(Marine or Blue Biotechnology)

समुद्री जैव प्रौद्योगिकी के अंतर्गत विभिन्न समुद्री जीवों की खोज तथा उनका उपयोग कर मानव उपयोगी उत्पादों को विकसित करना
शामिल है। दूसरे शब्दों में, समुद्री जैव प्रौद्योगिकी के तहत वे सभी प्रयास शामिल हैं, जिनमें जैविक समुद्री संसाधनों को जैव प्रौद्योगिकी
के स्रोत के रूप में मानव लाभ के लिये उपयोग किया जाता है। समुद्री जैव प्रौद्योगिकी और जैव-विविधता ने वैज्ञानिकों को समुद्री जीवों के विकास और उनसे जुड़े महत्त्वपूर्ण पहलुओं को समझने में सुविधा प्रदान की है। चूंकि समुद्री जीव समुद्र के भीतर, प्रकाश की अनुपस्थिति, अधिक तापमान और दबाव में विकसित होते हैं, इसलिये वैज्ञानिकों ने इनकी मदद से विशिष्ट प्रकार की दवाओं और एंजाइमों को तैयार करने में सफलता हासिल की है। समुद्री जैव प्रौद्योगिकी पर बढ़ते शोध ने बहुत-सी दवाओं के विकास को संभव बनाया है। कैरिबियाई समुद्री जीवों की मदद से बनाई गई एंटी-वायरल दवाएँ, जैसे-जोविरेक्स (Zovirax) [Generic Name- एसाइक्लोविर (Acyclovir)] आदि पहले ही काफी सफल साबित हो चुकी हैं।

समुद्री जैव प्रौद्योगिकी के कुछ अनुप्रयोग
● समुद्री जीवों (समुद्री शैवालों, अकशेरुकियों अर्थात् बिना रीढ़ वाले जीव) आदि ने बहुत-सी नई दवाओं के विकास को संभव बनाया है। इससे कैंसर के इलाज में भी कुछ सफलता मिली है।
● मछलियों और अन्य समुद्री जीवों से मिलने वाले एंजाइम खाद्य प्रसंस्करण में उपयोग होने वाले परंपरागत एंजाइमों से ज्यादा प्रभावी और फायदेमंद होते हैं। मछलियों से मिलने वाले कोलेजन (Collagens) और जिलेटिन (Gelatin) प्रोटीन अपेक्षाकृत कम तापमान पर खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने में समर्थ होते हैं।
● समुद्र में पाए जाने वाले अतिसूक्ष्म शैवालों से ऐसे बायोपॉलिमर्स का निर्माण संभव है, जो तेल निष्कर्षण की प्रक्रिया में मदद करते हैं।
● समुद्री जीवाणुओं से जैव बहुलकों का विकास संभव हुआ है।
● हिंद महासागर में पाया जाने वाला डोलास्टेटिन (Dolastatin) ब्रेस्ट कैंसर और अन्य प्रकार के कैंसर के इलाज में बहुत उपयोगी साबित हुआ है।

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