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 डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग (DNA Fingerprinting)



आनुवंशिक स्तर पर लोगों की पहचान सुनिश्चित करने की तकनीक को ही डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग या डी.एन.ए. प्रोफाइलिंग कहते हैं। वस्तुतः यह एक जैविक तकनीक है जिसके अंतर्गत किसी व्यक्ति के विभिन्न अवयवों, जैसे- रुधिर, बाल, लार, वीर्य या अन्य कोशिकीय स्रोतों की सहायता से उसके डी.एन.ए. की पहचान सुनिश्चित की जाती है।

नोट:
◆ वर्ष 1984 में ब्रिटिश लीसेस्टर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक सर एलेक जेफ्रेज़ (Sir Alec Jeffreys) द्वारा डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग टेक्नोलॉजी विकसित की गई।
◆ भारत में डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग का जनक लालजी सिंह को माना जाता है।

यह तकनीक मुख्यतः इस आधार पर कार्य करती है कि प्रत्येक मानव में पाई जाने वाली डी.एन.ए. पुनरावृत्ति (DNA Replication) एकसमान नहीं होती है, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति का डी.एन.ए. प्रारूप विशिष्ट और अद्वितीय होता है। हालाँकि, सभी व्यक्तियों में 99.9 प्रतिशत
डी.एन.ए. समान ही होता है। लेकिन फिर भी काफी मात्रा में ऐसा डी.एन.ए. होता है, जो एक व्यक्ति को अन्य से अलग करता है।
डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग विधि के अंतर्गत पहचान करने के लिये दो नमूने (उपर्युक्त बताए गए अवयवों में से) लिये जाते हैं- एक विवादित
बच्चे अथवा संदिग्ध व्यक्ति का और दूसरा उसके माता-पिता या किसी नज़दीकी संबंधी (रक्त संबंधी) का। विदित है कि मात्र श्वेत रक्त
कोशिकाओं (WBCs) में ही डी.एन.ए. पाया जाता है, लाल रक्त कोशिकाओं (RBCs) में नहीं।


डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग (DNA Fingerprinting) के लिये अनेक
विधियाँ अपनाई जाती हैं, जिनमें से RFLP (Restriction Fragment Length
Polymorphism) की प्रक्रिया निम्नलिखित चरणों में संपन्न होती है-
● सर्वप्रथम प्राप्त कोशिकाओं से डी.एन.ए. को अलग कर लिया जाता है।
● यदि डी.एन.ए. की मात्रा अत्यंत कम है तो PCR (Polymerase Chain Reaction) द्वारा इसकी मात्रा को कई गुना बढ़ा लिया जाता है।
● रेस्ट्रिक्शन एंजाइम (Restriction Enzyme) की सहायता से डी. एन.ए. को निश्चित स्थानों से काटकर VNTRs (Variable Number
of Tandem Repeats) को अलग कर लिया जाता है। VNTR, एक ही प्रकार के न्यूक्लियोटाइड सिक्वेंस की पुनरावृत्ति है, जो अलग-अलग प्राणियों में अलग-अलग होती है।
● जेल इलेक्ट्रोफोरेसिस (Gel Electrophoresis) विधि का उपयोग कर इन VNTRs को आकार (Size) के आधार पर क्रमबद्ध कर लिया
जाता है।
● Southern Blot तकनीक की सहायता से इन VNTRs को नाइट्रोसेलूलोज (Nitrocellulose) या नायलॉन शीट पर स्थानांतरित कर दिया जाता है।
● Radiolabeled अणु, जो कि उस जीनोम (Genome) के पूरक होते हैं, जिनसे VNTRs प्राप्त हुए हैं, उनको VNTRS से जोड़ा जाता
है तथा अतिरिक्त Radiolabeled अणुओं को पानी द्वारा हटा दिया जाता है।
● नायलॉन शीट पर X-Ray Film डालकर छोड़ दिया जाता है, जिससे X-Ray Film पर उन DNA Sequences के निशान प्राप्त होते हैं,
जिनसे जाकर Radiolabeled अणु जुड़े थे। ये डी.एन.ए. फिंगरप्रिंट्स (DNA Fingerprints) हैं।

डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग तकनीक के उपयोग
(Uses of DNA Fingerprinting Technology)

डी.एन.ए. फिंगरप्रिटिंग तकनीक निम्नलिखित विषयों के संबंध में अत्यंत उपयोगी एवं कारगर समझी जाती है-
● पैतृक संपत्ति से संबंधित विवादों को सुलझाने के लिये।
● आनुवंशिक बीमारियों की पहचान एवं उनसे संबंधित चिकित्सकीय कार्यों के लिये।
● बच्चों के वास्तविक माता-पिता की पहचान के लिये।
● आपराधिक गतिविधियों से संबंधित गुत्थियों को सुलझाने के लिये। दुर्घटना के दौरान शवों की पहचान करने के लिये।
● विश्व में प्रजातियों (Species) के भौगोलिक वितरण का पता लगाने में, आदि।

डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग की सीमाएँ
(Limitations of DNA Fingerprinting)

डी.एन.ए. फिंगरप्रिंटिंग तकनीक में एक मुख्य समस्या यह है कि नमूना सरलता से नष्ट हो सकता है। जेनेटिक 'जंक' के सूक्ष्मतम कण
डी.एन.ए, नमूनों को संक्रमित कर उन्हें अनुपयोगी बना सकते हैं। हालाँकि डी.एन.ए फिंगरप्रिंटिंग को कार्य करने के लिये एक उपयुक्त नमूने की आवश्यकता होती है, फिर भी पीसीआर (Polymerase Chain Reaction) नामक एक नवीन तकनीक के उपयोग से इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। पीसीआर डी.एन.ए, के बेहद सूक्ष्म नमूनों का इस्तेमाल कर सकता है और त्वरित परिणाम दे सकता है। परंतु पीसीआर द्वारा उपयोग किये गए डी.एन.ए. नमूने भी अपने आकार के कारण संक्रमित हो सकते हैं, क्योंकि संक्रमणविहीन छोटे नमूने प्राप्त होना बहुत मुश्किल होता है। डी.एन.ए, फिंगरप्रिंटिंग की एक अन्य सीमा यह है कि इसकी प्रक्रिया अत्यधिक जटिल होने के कारण डी.एन.ए, पैटर्न को पढ़ने में असहजता होती है और इसी वजह से कभी-कभी अस्पष्ट साक्ष्य ही प्राप्त हो पाता है।

पॉलीग्राफ टेस्ट (Polygraph Test)

● पॉलीग्राफ टेस्ट झूठ पकड़ने वाली तकनीक है जिसमें आदमी के बातचीत के कई ग्राफ एक साथ बनते हैं और इसके हर संभावित झूठ को पकड़ने की कोशिश की जाती है।
● असल में जिस इंसान का टेस्ट होना है उसकी धड़कन, साँस और रक्तचाप के उतार-चढ़ाव को ग्राफ के रूप में दर्ज किया जाता है।
● शुरू में नाम, उम्र और पता पूछा जाता है और उसके बाद अचानक उस विशेष दिन की घटना के बारे में पूछ लिया जाता है। इस
अचानक सवाल से उस इंसान पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है और ग्राफ में बदलाव दिखता है। अगर बदलाव नहीं आता है तो इसका
मतलब है कि वह सच बोल रहा है। टेस्ट के दौरान संबंधित व्यक्ति से कुछ सवाल पूछे जाते हैं जिनमें 4 से 5 उस घटना से संबंधित होते हैं। जिन-जिन सवालों पर ग्राफ में बदलाव आता है, उसका विशेषज्ञ विश्लेषण करते हैं।

सामान्यतः झूठ बोलते समय श्वसन लेने की गति और लय बदल जाती हैं। इस दौरान ब्लड प्रेशर, पल्स, साँस की गति और शरीर से
निकल रहे पसीने के आधार पर यह जानने की कोशिश की जाती है कि व्यक्ति सच बोल रहा है या नहीं। इस तरह के वैज्ञानिक तकनीक वाले टेस्ट में यह जरूरी नहीं है कि आरोपी सच ही बोले। इसमें झूठ बोलने की पूरी आशंका होती है। यही कारण है कि कोर्ट इन्हें साक्ष्य के रूप में नहीं मानता। कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिसमें पुलिस को इस टेस्ट से कोई मदद नहीं मिली।

नोट: पॉलीग्राफ मशीन या 'लाई डिटेक्टर' का आविष्कार 1921 में जॉन ऑगस्टस लार्सन (John Augustus Larson) द्वारा किया गया।

नार्को टेस्ट (Narco Test)

नार्को शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द 'Narke' से हुई है जिसका अभिप्राय है- Anesthesia अर्थात् निश्चेतना। 'नार्को एनालिसिस' शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम ब्रिटिश साइकेट्रिस्ट जे. स्टीफन हर्सले (J. Stephen Horsley) द्वारा किया गया था। नार्को टेस्ट में आपराधिक जाँच के दौरान आरोपी को टुथ सीरम (सोडियम पेंटाथॉल या सोडियम एमाइटल) देकर अर्द्ध-मूछित अवस्था में लाकर अपराध के विषय में पूछताछ की जाती है।
ध्यातव्य है कि दवा का असर होते ही व्यक्ति को नींद आने लगती है जिससे उसके दिमाग का तुरंत प्रतिक्रिया करने वाला हिस्सा काम
करना बंद कर देता है। इस स्थिति में उसके पास ज्यादा सोचने और समझने की क्षमता नहीं होता है। वह बेहोशी की हालत में होता है
जिसकी वजह से वह पूछे गए सवालों का घुमा-फिरा कर उत्तर नहीं दे पाता है। इसके अलावा वह ज्यादा बोल नहीं पाता और सवालों का
ज्यादातर सही और सटीक जवाब देता है। नार्को टेस्ट के लिये व्यक्ति को यह दवा देने से पहले उसका अच्छी तरह से शारीरिक परीक्षण किया जाता है। उसकी उम्र, स्वास्थ्य और लिंग के आधार पर ही उसे यह दवा दी जाती है। हालाँकि, यह टेस्ट ख़तरे से खाली भी नहीं है क्योंकि यदि नार्को टेस्ट के दौरान व्यक्ति को अधिक मात्रा में दवा दे दी जाए तो वह कोमा में भी जा सकता है और उसकी मौत होने की भी संभावना हो सकती है। विदित है कि नार्को टेस्ट, जो एक फॉरसिक टेस्ट है, जाँच अधिकारी, डॉक्टर, साइकोलॉजिस्ट और फॉरेंसिक एक्सपर्ट की मौजूदगी में किया जाता है। यह माना जाता है कि नार्को टेस्ट में अपराधी व्यक्ति हमेशा सच बोलता है, किंतु कुछ नगण्य परिणामों में ऐसा भी पाया गया है कि व्यक्ति द्वारा गलत उत्तर दिया गया है और विशेषज्ञों को गुमराह किया गया है।

ब्रेन मैपिंग (Brain Mapping)

ब्रेन मैपिंग एक प्रकार का सत्य परीक्षण होता है। इसका प्रयोग आपराधिक मामलों की सत्यता परीक्षण हेतु किया जाता है। ब्रैन मैपिंग
में मस्तिष्क में उठने वाली विभिन्न आवृत्तियों की तरंगों का अध्ययन किया जाता है। परीक्षण में जांच अधिकारी एवं फॉरसिक विशेषज्ञ की
मौजूदगी में व्यक्ति को अपराध से जुड़ी तस्वीरें दिखाई जाती हैं या फिर कुछ ध्वनियाँ सुनाते हैं और उन पर आरोपी के मस्तिष्क की प्रतिक्रिया का निरीक्षण कर उसकी संदिग्धता का पता लगाते हैं।
सेंसर मस्तिष्क की गतिविधियों को मॉनिटर करता है और पी-300 तरंगों को अंकित करता है। ये तरंगें तभी पैदा होती हैं जब आरोपी का
उन चित्रों और ध्वनियों से कोई संबंध होता है। निर्दोष आरोपी अपराध से जुड़ी ध्वनियों और चित्रों को पहचान नहीं पाता है, जबकि दोषी संदिग्ध उन्हें पहचान लेते हैं। उल्लेखनीय है कि इस जाँच के दौरान संदिग्ध आरोपी से कोई सवाल नहीं पूछा जाता है। ब्रेन मैपिंग टेस्ट के नतीजे 99.99 प्रतिशत सटीक होते हैं।

नोट: ब्रेन मैपिंग को 'ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग' भी कहा जाता है। ब्रेन मैपिंग टेस्ट का आविष्कार अमेरिकी न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. लॉरेंस ए, फारवेल ने
1995 में किया था।

विशेष

● 5 मई, 2010 को दिये गए अपने एक निर्णय में भारत के उच्चतम न्यायालय ने कहा कि नार्को, ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ टेस्ट जैसे
परीक्षण व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन है। यह व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में घुसपैठ है। अगर कोई खुद इसकी इजाजत देता
है तो नार्को किया जा सकता है, इसके लिये भी मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी किये गए दिशा-निर्देश का पालन किया जाए।
● भारतीय संविधान का अनुच्छेद-20(3) कहता है, "किसी व्यक्ति को जिस पर कोई आरोप लगे हैं, उसे अपने खिलाफ गवाह के तौर
पर इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।" यही कारण है कि पॉलीग्राफ टेस्ट, नार्को, ब्रेन मैपिंग से प्राप्त सूचनाओं का उपयोग साक्ष्य के रूप में
नहीं किया जा सकता है।

जीन डोपिंग (Gene Doping)

जीन डोपिंग की मदद से इंसान की आनुवंशिक बनावट में इस तरह से फेरबदल किया जाता है कि शरीर की मांसपेशियाँ पहले से अधिक
मज़बूत और गतिशील हो जाती हैं। जीन चिकित्सक प्रयोगशाला में तैयार खास कृत्रिम जीन को मरीज़ के जीनोम से जोड़ते हैं। ऐसा करने से शरीर की मांसपेशियों को तैयार करने वाले हॉर्मोन उत्तेजित हो जाते हैं तथा लाल रक्त कोशिकाओं (Red Blood Cells-RBCs) का बनना बढ़ जाता है। इससे एथलीटों को अपने प्रदर्शन के दौरान अधिक-से-अधिक ऑक्सीजन मिलती है और वे थकते नहीं हैं।
ध्यातव्य है कि फ्रांस के नैट्स स्थित स्वास्थ्य और चिकित्सा अनुसंधान से जुड़े फ्रेंच नेशनल इंस्टीट्यूट में जीन डोपिंग को विकसित करने में जुटे डॉ. फिलिप मौलियर ने कुछ वर्ष पहले इससे जुड़ा शोध-पत्र प्रकाशित किया था। विश्व समुदाय की इस पर प्रतिक्रिया अच्छी नहीं थी। मौलियर ने अपने प्रयोग से साबित कर दिया कि एक खास जीन, जो एरिथ्रोपोएटिन बनाता है, उसे कृत्रिम रूप से तैयार करना और फिर
उसे शरीर में डालना संभव है। एरिथ्रोपोएटिन हॉर्मोन या ईपीओ, जो लाल रक्त कोशिकाओं की उत्पत्ति को नियंत्रित करता है, खिलाड़ियों के लिये गैर-कानूनी डोप का जरिया बना। यही वह जादुई दवा थी, जिसका प्रयोग लांस आर्मस्ट्रॉन्ग ने 'टूअर डी फ्राँस' की साइकिल दौड़ में किया था।

डोपिंग में शामिल दवाइयों की श्रेणी

● स्टेरॉयडः डोपिंग में आने वाली दवाओं को मुख्यतः पाँच श्रेणियों में रखा गया है जिसमें स्टेरॉयड सबसे आम है। हमारे शरीर में स्टेरॉयड पहले से ही पाया जाता है लेकिन कुछ पुरुष एथलीट माँसपेशियों और पौरुष बढ़ाने के लिये स्टेरॉयड का इंजेक्शन लेते हैं।
● उत्तेजक पदार्थः उत्तेजक पदार्थ शरीर को चुस्त और दिमाग को तेज़ कर देते हैं। इनका इस्तेमाल प्रतियोगिता के दौरान प्रतिबंधित है,
लेकिन कुछ खिलाड़ी इसे खेल से पहले लेते हैं जिससे शरीर में ज्यादा ऊर्जा का संचार होता है। 1994 फुटबॉल विश्वकप के दौरान
अर्जेंटीनियाई खिलाड़ी मैराडोना ऐसे ही उत्तेजक पदार्थ एफेड्रीन के इस्तेमाल के दोषी पाए गए थे।
● पेप्टाइड हॉर्मोन: स्टेरॉयड की ही तरह पेप्टाइड हॉर्मोन भी शरीर में मौजूद होते हैं। इसलिये इनका अलग से सेवन शरीर में असंतुलन पैदा करता है। डायबिटीज के मरीजों के लिये जीवन रक्षक हॉर्मोन इंसुलिन को अगर स्वस्थ व्यक्ति ले तो शरीर से वसा घटती है और माँसपेशियाँ बनती हैं। इसके ज्यादा इस्तेमाल से शरीर में ग्लूकोज का स्तर अचानक काफी घट सकता है। ऐसे में शरीर जल्दी थकता है और हॉर्मोन का तालमेल बिगड़ता है।
नार्कोटिक्सः नार्कोटिक या मॉर्फिन जैसी दर्दनाशक दवाइयाँ डोपिंग में सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाती हैं। कॉम्पिटिशन के दौरान दर्द
का एहसास होने पर अक्सर खिलाड़ी इन दवाओं का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं।
डाइयूरेटिक्स: डाइयूरेटिक्स के सेवन से शरीर पानी को बाहर निकाल देता है जिससे कुश्ती जैसे खेलों में कम भार वाली श्रेणी में घुसने
का मौका मिल जाता है।

ब्लड डोपिंग (Blood Doping)

कुछ खिलाड़ी प्रदर्शन बेहतर करने के लिये किशोरों का रक्त खुद को चढ़ाते हैं, जिसे ब्लड डोपिंग कहते है। कम उम्र के व्यक्ति के रक्त में रेड ब्लड सेल्स (RBCS) ज्यादा होते हैं जो खूब ऑक्सीजन खींचकर जबरदस्त ताकत देते हैं। आमतौर पर ब्लड कैसर के मरीजों का रक्त समान ब्लड ग्रुप के रक्त से बदलना पड़ता है। ऐसे मरीजों के लिये किशोरों का रक्त सबसे अच्छा माना जाता है क्योंकि इसमें रेड ब्लड सेल्स की मात्रा ज्यादा होती है जिससे शरीर में ज्यादा कर्जा का संचार होता है।

उल्लेखनीय है कि इंटरनेशनल गेम्स में ड्रग्स के बढ़ते चलन को रोकने के लिये वाडा (वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी) की स्थापना 10 नवंबर,
1999 को लुसाने (स्विट्ज़रलैंड) में की गई थी। इसी की तर्ज पर हर देश में नाडा की स्थापना की जाने लगी। वर्तमान समय में वाडा का
मुख्यालय कनाडा के मॉण्ट्रियल शहर में है। (वैसे डोप टेस्ट की लैब कई शहरों में है।)
वर्तमान में वर्ल्ड डोपिंग एजेंसी और जर्मनी की नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी, डोपिंग को रोकने के लिये इससे होने वाले नुकसान के बारे में
जागरूकता फैलाने का काम कर रही हैं। वे दवाइयों की कंपनियों के साथ इसकी जाँच के तरीके निकालने और कालाबाजारी पर कानूनी-रोकथाम की भी कोशिश कर रही हैं।
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