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 कक्षा (Orbit)


कक्षा (Orbit)


भौतिकी में 'कक्षा' या 'ऑर्बिट' दिक् (Space) में स्थित एक बिंदु के इर्द-गिर्द एक मार्ग को कहते हैं जिस पर चलकर कोई वस्तु उस बिंदु की परिक्रमा करती है। खगोल विज्ञान में अक्सर उस बिंदु पर कोई बड़ा तारा या ग्रह स्थित होता है जिसके इर्द-गिर्द छोटा ग्रह या उपग्रह अपनी कक्षा में उसकी परिक्रमा करता है। दूसरे शब्दों में, कक्षा एक नियमित (Regular) तथा दोहराए जाने वाला (Repeating) पथ होती है, जिसमें कोई आकाशीय पिंड या मानव निर्मित उपग्रह किसी अन्य आकाशीय पिंड का चक्कर लगाता है।

नोट: खगोलीय वस्तुओं की कक्षाएँ प्रायः वृत्ताकार या अंडाकार होती हैं।

कक्षाओं के प्रकार (Types of Orbits)

ऊँचाई के आधार पर (On the basis of height)

निम्न भू-कक्षा (Low Earth Orbits-LEO)

निम्न भू-कक्षा पृथ्वी की सतह से लगभग 200-2000 किमी. ऊँचाई में स्थित होती है। यह उत्तर-दक्षिण दिशा में पृथ्वी के ध्रुवों से होकर गुजरती है, ध्रुवों के ऊपर से गुजरने के कारण इसे 'ध्रुवीय कक्षा' (Polar Orbit) भी कहते हैं। इस कक्षा में स्थित उपग्रह 24 घंटे की अवधि में पृथ्वी के एक से अधिक चक्कर लगा सकते हैं, क्योंकि इस कक्षा में परिक्रमा करने वाले उपग्रहों का परिक्रमण काल लगभग 80 से 130 मिनट का होता है। अत: निम्न कक्षाओं में स्थित उपग्रह पृथ्वी के अधिकांश क्षेत्रों में काफी नजदीक से नज़र रख सकते हैं। इन कक्षाओं में स्थित उपग्रहों से सुदूर संवेदन, मैपिंग, निगरानी अभियानों और पृथ्वी के पर्यावरणीय अध्ययन से संबंधित महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ हासिल की जा सकती हैं। ISS, हबल टेलीस्कोप, ऐस्ट्रोसैट सहित रिमोट सेंसिंग, जासूसी उपग्रह आदि इसी कक्षा में स्थापित किये गए हैं।

मध्य भू-कक्षा (Medium Earth Orbit-MEO)

मध्य भू-कक्षा पृथ्वी के वायुमंडल में निम्न भू-कक्षा 86 से ऊपर और भू-स्थिर कक्षा से नीचे का क्षेत्र है, जो लगभग 2000-35,786 किमी. की ऊँचाई पर स्थित है। इस कक्षा के अंतर्गत ज्यादातर उपग्रह 20,200 किमी. की ऊँचाई पर अर्थात् अर्ध तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित किये जाते हैं। इस ऊँचाई पर उपग्रह लगभग 12 घंटे में कक्षा पूर्ण कर लेते हैं। इस कक्षा में घूम रहे उपग्रहों का मुख्य कार्य नैविगेशन, संचार और अंतरिक्ष वायुमंडल का अध्ययन करना होता है। MEO में स्थित उपग्रहों का परिक्रमण काल 2-24 घंटे का होता है। Telstar, GPS, GLONASS, Galileo जैसी नैविगेशन प्रणालियों में प्रयुक्त उपग्रह 'MEO' में ही स्थापित किये गए हैं।

नोट: विभिन्न मानक स्रोतों में निम्न भू-कक्षा और मध्य भू-कक्षा की ऊँचाई में भिन्नता देखने को मिलती है।

भू-तुल्यकालिक कक्षा (Geosynchronous Orbit-GSO)

भू-तुल्यकालिक/समकालिक कक्षा (Geosynchronous Orbit- Gso) धरती के चारों ओर 35,786 किमी. -36000 किमी. की ऊँचाई पर स्थित वह दीर्घवृत्ताकार कक्षा है, जिसमें घूमने वाले पिंड (कृत्रिम उपग्रह) का आवर्तकाल 1 Sidereal दिन (पृथ्वी के घूर्णन काल के बराबर अर्थात् 23 घंटा, 56 मिनट, 4 सेकंड) होता है। परिणाम यह होता है कि धरती की सतह पर स्थित किसी प्रेक्षक को किसी दिन किसी समय पर वह वस्तु आकाश में उसी स्थान पर दिखेगी, जहाँ पिछले दिन उसी समय दिखी थी। यदि किसी दिन की बात करें (लगभग 24 घंटे) तो आकाश में वस्तु अंग्रेज़ी के 8 जैसी आकृति बनाती प्रतीत होती है। संचार उपग्रहों को सामान्यतः इसी कक्षा में रखा जाता है, ताकि धरती पर मौजूद एंटीना का स्थान और दिशा बार-बार बदलनी न पड़े और वह आकाश की तरफ एक ही कोण पर स्थित हो।

भू-स्थैतिक कक्षा (Geostationary Orbitu Geosynchronous Equatorial Orbit-GEO)

'भू-स्थैतिक कक्षा' पृथ्वी से लगभग 36,000 किमी. की ऊँचाई पर स्थित उस कक्षा को कहा जाता है, जहाँ स्थित उपग्रह पृथ्वी से हमेशा एक ही स्थान पर दिखाई देगा। यह कक्षा भूमध्य रेखा के ऊपर स्थित होती है जिसका भूमध्य रेखा पर झुकाव शून्य (Zero angle of inclination) होता है एवं उपग्रह के घूर्णन की दिशा पृथ्वी के घूर्णन
के समान होती है। यह भू-समकालिक कक्षा का ही एक प्रकार है। संचार तथा मौसम उपग्रहों को इस कक्षा में स्थापित किया जाता है।

नोट: सभी भू-स्थैतिक कक्षाएँ, भू-तुल्यकालिक होती हैं लेकिन सभी भू-तुल्यकालिक कक्षाएँ, भू-स्थैतिक नहीं होती हैं।

👉 भू-तुल्यकालिक उपग्रहों को समझने के लिये इस प्रकार के तारे की कल्पना की जा सकती है, जिसकी स्थिति 24 घंटे में समय के साथ बदलती रहती हो, परंतु अगले दिन वह किसी निश्चित समय पर उसी निश्चित स्थान पर दिखेगा, जहाँ पिछले दिन दिखा था, जबकि भू-स्थैतिक उपग्रहों की स्थिति उस तारे के समान मानी जा सकती है, जो पूरे 24 घंटे एक ही स्थान पर स्थिर रहता है।

👉 ध्यातव्य है कि भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित उपग्रह के फोकस क्षेत्र (प्रभाव क्षेत्र) को 'फूटप्रिंट' (Footprint) कहा जाता है। सामान्यतः एक भू-स्थैतिक उपग्रह पृथ्वी की सतह का एक-तिहाई भाग कवर कर सकता है।

सूर्य तुल्यकालिक कक्षा (Sun Synchronous Orbit-SSO)

सूर्य तुल्यकालिक कक्षा (SSO) एक ऐसी भू-केंद्रिक (Geocentric) कक्षा है, जिसकी ऊँचाई तथा झुकाव इस प्रकार संयोजित होता है कि उसमें स्थित उपग्रह सदैव सूर्य के प्रकाश का सामना करे। वास्तव में यह एक प्रकार की निम्न भू-कक्षा (LEO) ही है। यह कक्षा उन सुदूर संवेदी (Remote Sensing) उपग्रहों के लिये विशेष रूप से उपयोगी होती है, जो दृश्य और अवरक्त प्रकाश का प्रयोग करते हुए पृथ्वी की सतह की इमेजिंग करते हैं। जो सूर्य तुल्यकालिक कक्षाएँ ध्रुवों के ऊपर से होकर गुज़रती हैं, उन्हें सूर्य तुल्यकालिक धुव्रीय कक्षाएँ (SSPO) कहते हैं।

भू-तुल्यकालिक स्थानांतरण कक्षा (Geosynchronous/ Geostationary Transfer Orbit-GTO)

GTO निर्दिष्ट भू-तुल्यकालिक या भू-स्थैतिक कक्षा से कम ऊँचाई पर स्थित एक प्रकार की अति दीर्घवृत्ताकार कक्षा होती है, जहाँ तक उपग्रहों को 'प्रमोचन यान' की सहायता से पहुँचा दिया जाता है। उसके बाद 'थ्रस्टर्स' की मदद से उन्हें निर्दिष्ट कक्षा में स्थापित किया जाता है।

नोट: इस कक्षा के विचार का प्रतिपादन जर्मन वैज्ञानिक डब्ल्यू. होमैन (W. Hohmann) द्वारा 1925 में किया गया।

ट्रांसपोंडर (Transponder)

ट्रांसपोंडर आपस में जुड़ी हुई अनेक यूनिटों, जैसे- एप्लीफायर, फ्रीक्वेंसी ट्रांसलेटर, फिल्टर आदि से मिलकर बना होता है। यह पृथ्वी से कम आवृत्ति पर संदेशों को ग्रहण करके उन्हें संवर्द्धित कर दूसरी आवृत्ति पर उस संदेश का संप्रेषण करता है, जिसे पृथ्वी पर एंटीना द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। विभिन्न आवृत्ति बैंडों पर कार्य करने के आधार पर ये विभिन्न प्रकार के होते हैं, जैसे- C-बैंड ट्रांसपोंडर, Ku- बैंड ट्रांसपोंडर आदि। C-बैंड ट्रांसपोंडर बड़े भौगोलिक क्षेत्र को कवर करता है, लेकिन इसकी ट्रांसमिशन क्षमता काफी कम होती है, जिसके चलते संदेश ग्रहण के लिये बड़े एंटीने आवश्यक हो जाते हैं। इस कारण यह ट्रांसपोंडर टेलीफोन जैसी सेवाओं के लिये ज्यादा अनुकूल है। वहीं Ku-बैंड कम भौगोलिक क्षेत्र को कवर करता है, लेकिन इसकी ट्रांसमिशन क्षमता अधिक होती है, इसलिये यह प्रसारण सेवाओं, जैसे- डीटीएच आदि के लिये अधिक अनुकूल होता है।

आवृत्ति बैंड (Frequency Bands)

अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (ITU) द्वारा संचार हेतु प्रयोग में लाई जाने
वाली सूक्ष्म तरंगों (Microwaves) तथा रेडियो तरंगों (Radio Waves)
को उनकी आवृत्तियों के आधार पर कुछ समूहों में बाँट दिया गया है।
इन समूहों को बैंड कहते हैं।

माइक्रोवेव आधारित प्रमुख संचार आवृत्ति बैंड निम्न हैं-

👉 L-बैंड (1-2 GHz)
👉 s-बैंड (2-4GHz)
👉 C-बैंड (4-8 GHz)
👉 x-बैंड (8-12 GHz)
👉 Ku-बैंड (12-18 GHz)
👉 K-बैंड (18-26.5 GHz)
👉 Ka बैंड (26.5-40 GHz) आदि।

उपग्रह के मुख्य घटक
(Major Components of a Satellite)

कृत्रिम उपग्रह मानव निर्मित मशीन होता है, जिसे अंतरिक्ष में कुछ
विशेष कार्यों को संपन्न करने के लिये प्रक्षेपित किया जाता है। उपग्रहों
के कुछ मुख्य हिस्से इस प्रकार हैं-

👉 बस (Bus): उपग्रह का वह हिस्सा जो पेलोड और संबंधित उपकरणों को वहन करता है। इसके अंतर्गत सोलर पैनल, विद्युत बैटरी तथा प्रतिक्रिया नियंत्रण प्रणाली भी कार्य करती है, जो उपग्रह प्रक्षेपण से लेकर कक्षा में स्थापित होने तक के लिये जिम्मेदार होती है।

👉 पेलोड (Payload): अपना उद्देश्य पूरा करने के लिये उपग्रह को एंटीना, कैमरा, रडार जैसे वैज्ञानिक उपकरणों की आवश्यकता होती है। इन्हें 'पेलोड' कहा जाता है। संचार उपग्रहों के मुख्य पेलोड 'ट्रांसपोंडर' होते हैं।

सिंथेटिक एपर्चर रडार
(Synthetic Aperture Radar SAR)

'सिंथेटिक एपर्चर रडार' सिग्नल के लिये कई एंटीनों से लैस होता है, जिससे स्पष्ट तस्वीरें खींची जा सकती हैं। 'एसएआर' का निर्माण इजराइल की एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ ने किया है, जो रक्षा क्षमताओं से युक्त है। एसएआर दिन-रात किसी भी मौसम और बादल वाले मौसम में भी तस्वीरें खींच सकता है। इसरो ने RISAT-1 में इसी रडार को लगाया है। पहले भारतीय उपग्रहों में ऐसी क्षमता नहीं थी।

अति उच्च विभेदन रेडियोमीटर (Very High Resolution Radiometer-VHRR): वीएचआरआर को मुख्यतः बहुउद्देशीय इमेजिंग तथा बादलों, वायु और वाष्प कणों की जानकारियाँ देने के लिये इनसैट उपग्रह श्रृंखला में उपयोग किया जाता है।

👉 ऊँचाई नियंत्रण तंत्र (Altitude Control System): उपग्रह का यह तंत्र उपग्रह को पृथ्वी के उस हिस्से की ओर केंद्रित रखता है, जिसके लिये उपग्रह का प्रक्षेपण किया जाता है।

👉 ऊर्जा तंत्र (Power System): ऊर्जा तंत्र उपग्रह के बाहर पैनलों में लगे हुए सोलर सेलों से बिजली पैदा करता है।

👉 टेलीमेट्री और निर्देश तंत्र (Telemetry and Command System): एक उपग्रह अंतरिक्ष में जाकर अपने संचालन के बारे में जो सूचनाएँ पृथ्वी पर प्रेषित करता है, उसे 'टेलीमेट्री' कहा जाता है। इन सूचनाओं के आधार पर ऑपरेटर उपग्रह को निर्देश जारी करता है।

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