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 Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 5

Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 5

प्रश्न 1.
अकबर की मनसबदारी व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
1573 ई० में भारत में मुगल सम्राट अकबर ने मंगोलों से प्रेरणा लेकर दशमलव पद्धति के आधार पर मनसबदारी प्रथा को चलाया।

प्रत्येक मनसबदारी को दो पद ‘जात’ और ‘सवार’ दिये जाते थे। एक मनसबदार के पास जितने सैनिक रखने होते थे, वह ‘जात’ का सूचक था। ‘सवार’ से तात्पर्य मनसबदारों को रखने वाले घुड़सवारों की संख्या से था। जहाँगीर ने खुर्रम (शाहजहाँ) को 1000 और 5000 का मनसब दिया। अर्थात् शाहजहाँ के पास 10000 सैनिक और पाँच हजार घुड़सवार थे। सबसे छोटा मनसब 10 का और बड़ा 60000 तक का था। बड़े मनसब राजकुमारों तथा राज परिवार के सदस्यों को ही दिये जाते थे। जहाँगीर के काल में मनसबदारी व्यवस्था में दु-अश्वा (सवार पद के दुगने घोड़े) सि-अश्वा (सवार पद के तिगुने घोड़े) प्रणाली लागू हुई। हिन्दु, मुस्लिम दोनों मनसबदार हो सकते थे और इनकी नियुक्ति, पदोन्नति, पदच्युति सम्राट द्वारा की जाती थी।

प्रश्न 2.
बर्नियर भारतीय नगरों को किस रूप में देखता है ?
उत्तर:
बर्नियर के अनुसार मुगल काल में अनेक बड़े और समृद्ध नगर थे। आबादी का 15 प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यूरोपीय शहरों की तुलना में मुगलकालीन नगरों की आबादी अधिक घनी थी। दिल्ली और आगरा नगर राजधानी नगर के रूप में विख्यात थे। नगरों में भव्य रिहायसी इमारतें, अमीरों के मकान और बड़े बाजार थे। नगर दस्तकारी उत्पादों के केन्द्र थे। नगर में राजकीय कारखाना थे, जहाँ विभिन्न प्रकार के सामान बनाए जाते थे। नगर में कलाकार, चिकित्सक, अध्यापक, वकील, वास्तुकार, संगीतकार, सुलेखक रहते थे। जिन्हें राजकीय और अमीरों का संरक्षण प्राप्त था। नगरों का एक प्रभावशाली वर्ग व्यापारी वर्ग था। पश्चिमी भारत में बड़े व्यापारी महाजन कहलाते थे। इनका प्रधान सेठ कहलाता था। वर्नियर नगरों की उत्पादन एवं व्यापार में भूमिका को स्वीकार करते हुए भी इनके वास्तविक स्वरूप को स्वीकार नहीं करता है। वह मुगलकालीन नगरों को ‘शिविन नगर’ कहता है जो सत्य से परे है।

प्रश्न 3.
शाहजहाँ के काल को स्वर्णयुग कहा जाता है। वर्णन करें।
उत्तर:
मध्यकालीन भारतीय इतिहास में शाहजहाँ के काल को (1627-1658) ‘स्वर्णयुग’ कहा जाता है। जैसाकि शाहजहाँ के समकालीन लेखक राय भारमल तथा खफी खाँ ने भी उसके शासनकाल को स्वर्णयुग कहा है क्योंकि वह व्यक्ति और शासक के रूप में महान था। उसका शासन अत्यंत सफल था। उस समय पूरे राज्य में शांति और व्यवस्था कायम थी, निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था थी। उसके समय में कला, शिक्षा एवं साहित्य का भी काफी उत्थान हुआ। आर्थिक क्षेत्र में भी काफी तरक्की हुई। इन्हीं आधारों पर हम कहते हैं कि शाहजहाँ का काल स्वर्णयुग था। इसका विस्तृत वर्णन हम निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं-

(i) उत्तम शासक-शाहजहाँ एक उदार एवं प्रगतिशील व्यक्ति था। वह सुशील, दयालु तथा सज्जन प्रकृति का था। वह विद्वान तथा सुरुचि सम्पन्न सम्राट था। उनका स्वभाव मृदुल एवं नम्र था। साहित्य तथा ललित कलाओं में वह विशेषरूप से रुचि लेता था। यद्यपि डा. स्मिथ ने उसे अच्छा व्यक्ति नहीं माना है क्योंकि उसने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह किया था लेकिन मुगल शाहजादों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। जहाँगीर ने भी अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया था। इसके अलावे शाहजहाँ ने जो भी काम किया वह नूरजहाँ के विरोधी कार्यों के चलते ही किया। डॉ० स्मिथ उसे आदर्श पति भी नहीं मानते हैं क्योंकि मुमताज महल की मृत्यु के बाद भी उसका सम्बन्ध अन्य पत्नियों से रहा। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि मुगल सम्राट बहुपत्नीवादी होते थे। साथ ही शाहजहाँ ने तो कई वर्षों तक मुमताज के प्रति प्रेम को पवित्रतापूर्वक निभाने की हर संभव कोशिश की थी। इस प्रकार एक व्यक्ति के रूप में वह अच्छा था।

(ii) उत्तम सैनिक-व्यवस्था – शाहजहाँ एक कुशल सेना एवं सेनानायक था। वह वृद्धावस्था में भी स्वयं युद्ध की योजनाएँ बनाता था तथा युद्ध का संचालन करता था। उसने मुगल सेना को पुनर्संगठित कर उसे सशक्त एवं क्रियाशील बनाया। कुशल सेनानायक होने के कारण ही उसने अपने प्रारंभिक वर्षों में हुए विद्रोहों को सफलतापूर्वक दबा सका। उसने पुर्तगालियों को बढ़ती हुई शक्ति को नष्ट किया तथा दक्षिण में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा आदि राज्यों पर मुगल सत्ता को सुदृढ़ किया।

(iii) उत्तम शांति-व्यवस्था – शाहजहाँ एक कुशल शासक, कुशल प्रबन्धक तथा उच्च कोटि का राजनीतिज्ञ था। उसके शासनकाल में राज्य में पूरी शांति व्यवस्था बनी रही। उसके विशाल साम्राज्य को देखते हुए, जो पश्चिम में सिंध से लेकर पूरब में आसाम तक तथा उत्तर में काश्मीर से लेकर सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था, इस तरह की शासन-व्यवस्था कोई मामूली बात न थी। इतने बड़े साम्राज्य को सुसंगठित और सुव्यवस्थित रखना ही उसके कुशल शासक होने का द्योतक है। यद्यपि मध्ययुग में अशांति रहती थी तथा चोरी, डकैती, हत्या आदि होते रहते थे लेकिन शाहजहाँ ने सामान्य जीवन को सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से उचित कदम उठाये। फलस्वरूप इस तरह की बारदातों में काफी कमी आई।

(iv) आर्थिक सम्पन्नता – उसके समय में राज्य की आर्थिक स्थिति भी काफी अच्छी थी। साम्राज्य का राजस्व मंत्री मुर्शीद कुली खाँ बड़ा ही योग्य व्यक्ति था और उसने विभिन्न प्रयत्नों से राज्य की आमदनी को काफी बढ़ाया। उसके पहले राज्य कर के रूप में उपज का 2/3 भाग भूमिकर के रूप में लगता था लेकिन उसने अब उसे बढ़ाकर 9/2 भाग कर दिया जिससे राज्य की आमदनी में काफी वृद्धि हुई और राज्य सम्पन्न हो गया। इसके अलावे उसके समय में शांति-व्यवस्था कायम थी इसलिए देश अधिक समृद्ध एवं सम्पन्न बन गया। प्रजा भी काफी खुशहाल थी।

(v) उत्तम न्याय-व्यवस्था – शाहजहाँ के काल में न्याय की भी उत्तम व्यवस्था थी। वह एक न्यायप्रिय शासक था तथा निष्पक्ष न्याय के लिए प्रसिद्ध था। वह सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में रहता था तथा अपराधियों को कठोर दंड दिया करता था। वह प्रत्येक बुधवार को महल के न्यायालय में बैठकर सभी की शिकायतों को सुनता था तथा अपराधियों को कड़ा दंड देता था। फलस्वरूप अपराध कम होते थे और लोग शांतिमय जीवन बसर करते थे।

(vi) लोकहितकारी कार्य – शाहजहाँ निरंकुश शासक होते हुए भी बहुत ही लोकप्रिय था। वह बहत ही परिश्रमी, कर्तव्यनिष्ठ तथा सहनशील था और प्रत्येक काम जनता की भलाई को देखकर करता था। उसने जनता की भलाई के लिए कई काम किए, जैसे-कई स्कूल, मस्जिदें, सराय, बगीचे आदि का निर्माण किया तथा सिंचाई के उद्देश्य से यमुना नहर का निर्माण करवाई। 1650 ई०में जब दक्षिण में अकाल पडा तो वहाँ लगान माफ कर तथा अन्य उपायों द्वारा अकाल पीड़ितों की सहायता की थी। 1696 ई० में जब पंजाब में भी अकाल पड़ा तो उस समय भी इसी तरह की व्यवस्था कर लोगों के प्राणों की रक्षा की।

(vii) शिक्षा एवं साहित्य का उत्थान – शाहजहाँ के काल में शिक्षा एवं साहित्य का उत्थान हुआ। खासकर संस्कृत, हिन्दी तथा फारसी साहित्य की काफी उन्नति हुई। उसके दरबार में विभिन्न भाषाओं के कई विद्वान रहा करते थे। ‘गंगाधर’ तथा गंगालहरी के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पंडित के अलावे हिन्दी और संस्कृत के कई विद्वान (कवीन्द्र आचार्य सरस्वती) उसके दरबार में रहा करते थे। वह इन लोगों को संरक्षण प्रदान करता था। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सुन्दर दास और चिंतामणि भी इसी के दरबार में रहते थे। फारसी साहित्य की भी काफी उन्नति हुई। अब्दुल हमीद लाहौरी ने कई ग्रंथों की रचना की।

साहित्य के अलावे ज्योतिष विज्ञान की भी काफी उन्नति हुई। शाहजहाँ ज्योतिष में विश्वास करता था अतः उसने जन्मकुण्डलीयाँ बनाने, विवाह हेतु शुभ लग्न निकालने, तथा सैनिक अभियानों के लिए शुभ मुहुर्त बतलाने हेतु कई ज्योतिषियों को भी दरबार में रखता था। इसके अलावे ज्ञान-विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में भी काफी उन्नति हुई।

(viii) कलाओं का विकास – शाहजहाँ के शासन काल में ललित कला, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य कला आदि का काफी विकास हुआ। खासकर स्थापत्य कला के क्षेत्र में तो यह मुगल काल में सर्वश्रेष्ठ थी। उसके द्वारा निर्मित भव्य एवं सुरम्य महल तथा अन्य इमारतें, दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद, आगरा का ताजमहल आदि मुगल वास्तुकला की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती हैं। ताजमहल तो विश्व के आश्चर्यजनक चीजों में गिना जाता है। उसने मयूर सिंहासन का भी निर्माण करवाया था। उसके समय में संगीत कला का भी काफी विकास हआ।

(ix) उद्योग-धंधों तथा व्यापार में प्रगति – शाहजहाँ के शासन-काल में उद्योग-धंधों तथा व्यापार में काफी प्रगति हुई क्योंकि उस समय देश में शांति एवं व्यवस्था कायम थी। भारत से सिल्क तथा सती कपडे नमक, लोहा, मोम, अफीम, मसाले, विभिन्न औषधियाँ भंगार प्रसाधन आदि पश्चिमी एशिया भेजे जाते थे। इन उद्योगों तथा विदेशी व्यापार से राज्य को काफी आमदनी होती थी।

इस प्रकार शाहजहाँ के शासनकाल में देश की राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, कला खासकर स्थापत्य कला आदि की प्रगति को देखकर हम कह सकते हैं कि उसका शासन काल मध्यकालीन भारत का स्वर्णयुग था।

प्रश्न 4.
मुगल काल में जमींदारों की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुगल काल में जमींदारों की स्थिति निम्नलिखित प्रकार से थी-
(i) कृषि उत्पादन में सीधे हिस्सेदारी नहीं करते थे। ये जमींदार थे जो अपनी जमीन के मालिक होते थे और जिन्हें ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत की वजह से कुछ खास सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं। जमींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति था; दूसरा कारण यह था कि वे लोग राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ (नजराना) देते थे।

(ii) जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन। इन्हें मिल्कियत कहते थे, यानि संपत्ति मिल्कियत जमीन पर जमींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती होती थी। अक्सर इन जमीनों पर दिहाड़ी के मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी मर्जी के मुताबिक इन जमीनों को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे।

(iii) जमींदारों की ताकत इस बात में थी कि वे अक्सर राज्य की ओर से कर वसूल कर सकते थे। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था। सैनिक संसाधन उनकी ताकत का एक 139 और जरिया था। ज्यादातर जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी जिनमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे।

(iv) इस तरह, अगर हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में करें, तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे।

(v) समसामयिक दस्तावेजों से पता लगता है कि जंग में जीत जमींदार की उत्पत्ति का संभावित स्रोत रहा होगा। अक्सर, जमींदारी फैलाने का एक तरीका था ताकतवर सैनिक सरदारों द्वारा कमजोर लोगों को बेदखल करना। मगर इसकी संभावना कम ही है कि किसी जमींदार को इतने आक्रामक रुख की इजाजत राज्य देता हो जब तक कि एक राज्यादेश (सनद) के जरिये इसकी पुष्टि नहीं कर दी गई हो।

(vi) इससे भी महत्त्वपूर्ण थी जमींदारी को पुख्ता करने की धीमी प्रक्रिया। स्रोतों में दस्तावे वेज भी शामिल हैं। यह कई तरीकों से किया जा सकता था: नयी जमीनों को बसाकर (जंगल-बारी), अधिकारों के हस्तांतरण के जरिये, राज्य के आदेश से, या फिर खरीद कर।

(vii) यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके जरिये अपेक्षाकृत “निचली” जातियों के लोग भी जमींदारों के दर्जे में दाखिल हो सकते थे। क्योंकि इस काल में जमींदारी धडल्ले से खरीदी और बेची जाती थी।

(viii) जमींदारों ने खेती लायक जमीनों को बसाने में अगआई की और खेतिहरों को खेती के साजो-समान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी मदद की। जमींदारी की खरीद-फरोख्त से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। इसके अलावा, जमींदार अपनी मिल्कियत की जमीनों की फसल भी बेचते थे। ऐसे सबूत हैं जो दिखाते हैं कि जमींदार अक्सर बाजार (हाट) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फसलें बेचने आते थे।

(ix) यद्यपि इसमें कोई शक नहीं कि जमींदार शोषण करने वाला तबका था, लेकिन किसानों से उनके रिश्तों में पारस्परिकता, पैतृकवाद और संरक्षण का पुट था। जो पहलू इस बात की पुष्टि करते हैं। एक तो यह कि भक्त संतों ने जहाँ बड़ी बेबाकी से जातिगत और दूसरी किस्मों के अत्याचारों की निंदा की। वहीं उन्होंने जमींदारों को (या फिर, दिलचस्प बात है, साहूकारों को) किसानों के शोषक या उन पर अत्याचार करने वाले के रूप में नहीं दिखाया। आमतौर पर राज्य का राजस्व अधिकारी ही उनके गुस्से का निशाना बना। दूसरे, सत्रहवीं सदी में भारी संख्या में कृषि विद्रोह हुए और उनमें राज्य के खिलाफ जमींदारों को अक्सर किसानों का समर्थन मिला।

प्रश्न 5.
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ ?
उत्तर:
अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण बड़ी तेजी के साथ हुआ। यूरोपीय मूलतः अपने-अपने देशों के शहरों से आए थे। उन्होंने औपनिवेशिक सरकार के काल में शहरों का विकास किया। पुर्तगालियों ने 1510 में पणजी, डचों ने 1605 में मछलीपटनम, अंग्रेजों ने 1639 में मद्रास (चेन्नई), 1661 में मुम्बई और 1690 में कलकत्ता (कोलकाता) बसाए तो फ्रांसीसियों ने 1673 में पांडिचेरी नामक शहर बसाए। इनमें से अनेक शहर समुद्र के किनारे थे। व्यापारिक गतिविधियों के केंद्र होने के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यकलापों के भी केंद्र थे। अनेक व्यापारिक गतिविधियों के साथ इन शहरों का विस्तार हुआ। आसपास के गाँवों में अनेक सस्ते मजदूर, कारीगर, छोटे-बड़े व्यापारी, सौदागर, नौकरी-पेशा, बुनकर, रंगरेज, धातु कर्म करने वाले लोग रहने लगे। इन शहरों में ईसाई मिशनरियों ने सक्रिय रूप से भाग लिया। अनेक स्थानों पर पश्चिमी-शैली की इमारतें, चर्च और सार्वजनिक महत्त्व की इमारतें बनाई गईं। स्थापत्य में पत्थरों के साथ ईंट, लकड़ी, प्लास्टर आदि का प्रयोग किया गया। छोटे गाँव कस्बे और कस्बे छोटे-बड़े शहर बन गए।

आस-पास के किसान तीर्थ करने के लिए कई शहरों में आते थे। अकाल के दिनों में प्रभावित लोग कस्बों और शहरों में इकट्ठे हो जाते थे। लेकिन जब कस्बों पर हमले होते थे तो कस्बों के लोग ग्रामीण क्षेत्रों में शरण लेने के लिए चले जाते थे। व्यापारी और फेरी वाले लोग कस्बों से गाँव में जाकर कृषि उत्पाद और कुछ कुटीर व छोटे पैमाने के उद्योग-धंधों में तैयार माल बिक्री के लिए शहरों और कस्बों में आते थे। इससे बाजार का विस्तार हुआ। भोजन और पहनावे की नई शैलियाँ विकसित हुई। अनेक शहरों की चारदीवारियों को 1857 के विद्रोह के बाद तोड़ दिया गया जैसे दिल्ली का शाहजहाँनाबाद। दक्षिण भारत में मदुरई, कांचीपुरम मुख्य धार्मिक केन्द्र भी बन गए। 18वीं शताब्दी में शहरी जीवन में अनेक बदलाव आए।

राजनीतिक तथा व्यापारिक पुनर्गठन के साथ पुराने नगर जैसे आगरा, लाहौर, दिल्ली पतनोन्मुख हुए तो नए शहर मद्रास (चेन्नई), मुम्बई, कलकत्ता (कोलकाता) शिक्षा, व्यापार, प्रशासन, वाणिज्य आदि के महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गए। विभिन्न समुदायों, जातियों, वर्गों, व्यवसायों के लोग यहाँ रहने लगे।

नई क्षेत्रीय ताकतों के विकास से क्षेत्रीय राजधानी जैसे अवध की राजधानी लखनऊ, दक्षिण के अनेक राज्यों की राजधानियाँ जैसे तंजौर, पूना, श्रीरंगपट्टनम, नागपुर, बड़ौदा के बढ़ते महत्त्व दिखाई दिए।

व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार तथा अन्य लोग पुराने मुगल केंद्रों से नई राजधानियों की ओर काम तथा रोजगार की तलाश में आने लगे।

नए राज्यों और उदित होने वाली नई राजनीतिक शक्तियों में प्रायः निरंतर लड़ाइयाँ होती रहती थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि भाड़े के सिपाहियों को भी तैयार रोजगार मिल जाता था।

कुछ स्थानीय विशिष्ट लोगों तथा उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य से संबंधित अधिकारियों ने भी इस मौके का उपयोग करके पुरम और गंज जैसी शहरी बस्तियों में अपना विस्तार किया।

लेकिन राजनैतिक विकेन्द्रीकरण का प्रभाव सर्वत्र एक जैसे नहीं थे। कई स्थानों पर नए सिरे से आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ीं, कुछ अन्य स्थानों पर लूटपाट तथा राजनीतिक अनिश्चितता, आर्थिक पतन में बदल गई। जो शहर व्यापार तंत्रों से जुड़े हुए थे। उनमें परिवर्तन दिखाई देने लगे। यूरोपीय कम्पनियों ने अनेक स्थानों पर अपने आर्थिक आधार या फैक्ट्रियाँ स्थापित कर ली। 18वीं शताब्दी के अंत तक एकल आधारित साम्राज्य का स्थान, शक्तिशाली यूरोपीय साम्राज्यों ने लिया। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्यवाद और पूँजीवाद की शक्तियाँ अब समाज के स्वरूप को परिभाषित करने लगी थीं।

मध्य अठारहवीं शताब्दी से परिवर्तन का नया चरण शुरू हुआ। अब व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य स्थानों पर केंद्रित होने लगी। मुगल काल में जो तीन शहर बहुत प्रगति पर थे-सूरत, मछलीपटनम और ढाका उनका निरंतर पतन होता चला गया।

1757 में प्लासी, 1767 में बक्सर और 1765 में इलाहाबाद की संधि के बाद अंग्रेजों ने बंगाल में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपना व्यापार फैलाया। मद्रास (चेन्नई), मुम्बई और कलकत्ता (कोलकाता) तीनों औपनिवेशिक शहर न केवल बंदरगाह शहर बने बल्कि नई आर्थिक राजधानियों के रूप में भी उभरे। ये तीनों औपनिवेशिक शहर औपनिवेशिक सत्ता और प्रशासन के मुख्य केंद्र बन गए।

नए शहरों में नए भवन, संस्थाएँ विकसित हुईं और शहरी स्थानों को नए ढंग से व्यवस्थित किया गया। अनेक जगहों पर (पश्चिमी शिक्षा केंद्र, अस्पताल. रेलवे दफ्तर. व्यापारिक गोदाम. सरकारी कार्यालय आदि) नए-नए रोजगार विकसित हुए। दूर-दूर के प्रदेशों और गाँवों से पुरुष, महिलाएँ औपनिवेशिक शहरों की ओर उमड़ने लगे। देखते-ही-देखते 1800 तक जनसंख्या की दृष्टि से औपनिवेशिक शहर देश के सबसे बड़े शहर बन गए।

प्रश्न 6.
प्लासी युद्ध के कारणों एवं परिणामों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्लासी युद्ध का भारतीय इतिहास में विशेषतः राजनैतिक महत्व है। इस युद्ध ने देश की राजनीति में महान परिवर्तन ला दिया। इस युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

(i) भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित करने का विचार-अंग्रेज यद्यपि भारत में व्यापार करने के लिए आये थे, परंतु यहाँ की राजनीतिक स्थिति को देखकर उनके विचारों में परिवर्तन हो गया। उन्होंने यहाँ अपने साम्राज्य की स्थापना का विचार कर लिया। फ्रांसीसियों को पराजित करने के पश्चात् उन्होंने भारतीय शासकों को पराजित करने का कार्यक्रम बनाया और बंगाल से ही अपने कार्यक्रम को लागू करना आरंभ किया।

(ii) सिराजुद्दौला से अंग्रेज आतंकित-प्लासी के युद्ध के समय बंगाल का शासक सिराजुद्दौला था। वह देश के लिए अंग्रेजों को खतरनाक समझता था। अंग्रेज भी उससे घबराये हुए थे। मरने से पूर्व उसके नाना अलीवर्दी खाँ ने कहा था-“मुल्क के अंदर यूरोपियन कौमों की ताकत पर नजर रखना। यदि खुदा मेरी उम्र बढ़ा देता तो मैं तुम्हें इस डर से भी आजाद कर देता-अब मेरे बेटे यह काम तुम्हें करना होगा …..।”

अलीवर्दी खाँ ने भी एक बार अंग्रेजों से कहा था-“तुम लोग सौदागर हो, तुम्हें किलों की क्या जरूरत ? तब तुम मेरी हिफाजत में हो तो तुम्हें किसी दुश्मन का डर नहीं हो सकता।”

परंतु अब अंग्रेज न तो केवल सौदागर ही रहना चाहते थे और न दूसरे के शासन में रहना चाहते थे, वे भारत में अपना राज्य स्थापित करना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने प्लासी का युद्ध लड़ा।

(iii) बंगाल को प्राप्त करना – अंग्रेज हर परिस्थिति में राजनैतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान बंगाल को प्राप्त कर लेना चाहते थे। अतः उन्हें इस प्रदेश को प्राप्त करने हेतु किसी न किसी बहाने की आवश्यकता थी जो उन्हें प्लासी का युद्ध करने के लिए शीघ्र मिल गया।

(iv) किलेबंदी – सिराजुद्दौला के नाना अलीवर्दी खाँ ने अंग्रेज और फ्रांसीसियों को किलेबंदी न करने की स्पष्ट चेतावनी दी थी परंतु उसके मरते ही फिर किलेबंदी होनी प्रारंभ हो गई। सिराजुद्दौला ने भी किलेबंदी करनी की मनाही की इससे फ्रेंच कंपनी ने किलेबंदी समाप्त कर दी, . परंतु अंग्रेजों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इस कारण सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के संबंध कटु हो गये। और उनमें युद्ध होना आवश्यक हो गया। .

(v) अंग्रेजों द्वारा विरोधियों को सहायता देना – अंग्रेज व्यापारी सिराजुद्दौला के विरोधियों की सहायता कर रहे थे। असंतुष्ट दरबारियों तथा अन्य शत्रुओं को अंग्रेज शरण दिया करते थे, इससे सिराजुद्दौला अंग्रेजों से चिढ़ गया था। अंग्रेजों ने नवाब की इच्छा के विरुद्ध ढाका के दीवान राजबल व कृष्ण बल्लभ को भी अपने यहाँ शरण दी जिससे उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। ऐसी स्थिति में युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।

(vi) सुविधाओं का अनुचित उपयोग – मुगल शासकों द्वारा जो सुविधायें अंग्रेजों को दी गई थीं, उसका वे दुरूपयोग कर रहे थे। अपने माल के साथ भारतीय व्यापारियों के माल को भी वह अपना माल बताकर चुंगी को बचा लेते थे और उनसे स्वयं चुंगी लेते थे। इससे आपसी संबंध कटु होते गये और युद्ध की स्थिति स्पष्ट नजर आने लगी।

(vii) उत्तराधिकार के मामलों में हस्तक्षेप – अंग्रेज़ सिराजुद्दौला के विरोधी उत्तराधिकारियों के पक्ष में झुक रहे थे। ढाका के शासक की विधवा बेगम तथा उसकी मौसी के पुत्र शौकत जंग का अंग्रेज समर्थन किया करते थे। ऐसी परिस्थिति में सिराजुद्दौला उनसे रुष्ट हो गया और उनसे युद्ध करने की ठान ली।

सिराजुद्दौला ने रुष्ट होकर अंग्रेजों को बंगाल से निष्कासित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उसने जनवरी 1756 में कासिम बाजार में स्थित अंग्रेजी कारखाने पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् वह कलकत्ता की ओर चला। 18 जून, 1756 को नवाब ने कलकत्ते पर आक्रमण किया तथा उस पर सिराजुद्दौला का अधिकार हो गया। इसी समय काल कोठरी की घटना घटी। जैसे कि इतिहासकारों ने बताया है कि 146 अंग्रेजों को एक कोठरी में बंद करके मार डाला गया। यह घटना ‘ब्लैक हॉल’ के नाम से प्रसिद्ध है। 2 जनवरी, 1757 को कलकत्ता पर मानिक चन्द के विश्वासघात करने के कारण अंग्रेजों का फिर से अधिकार हो गया। अब अंग्रेजों ने सेनापति मीरजाफर तथा सेठ अमीचन्द को अपनी ओर मिलाकर सिराजुद्दौला को परास्त करने की योजना बनाई।

इस बीच क्लाइव ने सिराजुद्दौला पर अलीनगर की संधि भंग करने का आरोप लगाया और 22 जून, 1757 को 3200 सैनिकों को लेकर राजधानी के समीप प्लासी स्थान पर पहुँच गया। सिराजुद्दौला अपनी 50 हजार सेना को लेकर मैदान में आया। 23 जून, 1757 को युद्ध प्रारंभ हुआ। मीरजाफर और राय दुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ चुपचाप खड़े रहे। केवल मोहनलाल और मीरमदान ने पूर्ण साहस से शत्रुओं का सामना किया, परंतु अपने प्रमुख सहयोगियों द्वारा विश्वासघात करने पर सिराजुद्दौला का दिल टूट गया। प्लासी के मैदान में उसकी पराजय हुई। 24 जून, 1757 को वह अपनी पत्नी के साथ महल की एक खिड़की से कूदकर भाग गया परंतु वह पकड़ा गया और मीरजाफर के पुत्र मीर द्वारा उसकी हत्या कर दी गई।

प्लासी के युद्ध के परिणाम-

  • बंगाल की नवाबी मीरजाफर को मिली।
  • 24 परगनों की जमींदारी कंपनी को प्राप्त हुई।
  • अमीचन्द को इस युद्ध में निराश रहना पड़ा।
  • बंगाल में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
  • अंग्रेज अब केवल व्यापारी न होकर शासक हो गया।
  • कंपनी का व्यापार पूरे बंगाल में फैल गया।
  • अलीवर्दी खाँ के वंश का अंत हो गया।

प्रश्न 7.
1857 के विद्रोह के कारणों को लिखें।
उत्तर:
1857 के सिपाही विद्रोह के महत्त्वपूर्ण प्रमुख कारण निम्नांकित थे-
(i) सामाजिक कारण (Social causes) – अंग्रेजों ने अनेक भारतीय सामाजिक कुरीतियों कोने के लिए कानन बनाया। उन्होंने सती प्रथा को काननी अपराध घोषित कर दिया। उन्होंने विधावा पुनर्विवाह करने की कानूनी अनुमति दे दी। स्त्रियों को शिक्षित किया जाने लगा। रेलवे तथा यातायात के अन्य साधनों को बढ़ावा दिया गया। रूढ़िवादी लोग इन सब कामों को संदेह से देखते थे। उन्हें भय हुआ कि अंग्रेज हमारे समाज को तोड़-मरोड़ कर हमारी सारी सामाजिक मान्यताओं को समाप्त कर देना चाहते हैं। संयुक्त परिवार, जाति, व्यवस्था तथा सामाजिक रीति-रिवाज को वे नष्ट करके अपनी संस्कृति हम पर थोपना चाहते हैं। अतः उनके मन में विद्रोह की चिंगारी सुलग रही थी। अंग्रेज भारतीयों को उच्च पद देने के लिए तैयार न थे। अपने जातीय अहंकार के कारण वे लोग समझते थे कि उनके क्लबों में काले लोग नहीं जा सकते। एक साथ वे एक ही रेल के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते हैं। वे भारतीयों को निम्न कोटि का समझते थे।

(ii) धार्मिक कारण (Religious causes) – ईसाई धर्म प्रचारक धर्म परिवर्तन करा देते थे। जेलों में ईसाई धर्म की शिक्षा का प्रबन्ध था। 1850 ई० में एक कानून बनाकर ईसाई बनने वाले व्यक्ति को अपनी पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा मिलना निश्चित किया गया। अंग्रेजों ने मंदिरों और मस्जिदों की भूमि पर कर लगा दिया। अतः पंडितों और मौलवियों ने रुष्ट होकर जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध जागृति फैला दी।

(iii) सैनिक कारण (Military causes) – भारतीय एवं यूरोपियन सैनिकों में पद, वेतन पदोन्नति आदि को लेकर भेदभाव किया जाता था। भारतीय सैनिकों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था और उन्हें कम महत्त्व दिया जाता था। उन पर कई प्रकार के प्रतिबंध थे, जैसे वे तिलक, चोटी, पगड़ी या दाढ़ी आदि नहीं रख सकते थे। सामूहिक रसोई होने के कारण भी उच्च वर्ग के (ब्राह्मण और ठाकुर) लोग निम्न वर्ग के लोगों के साथ खाने से प्रसन्न न थे।

(iv) तात्कालिक कारण (Immediate causes) – तात्कालिक कारण कारतूसों में लगी सूअर और गाय की चर्बी थी। नयी स्वफील्ड बंदूकों में गोली भरने से पूर्व कारतूस को दाँत से छीलना पड़ता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही गाय और सूअर की चर्बी को अपने-अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे। अतः उनका भड़कना स्वाभाविक था।

26 फरवरी, 1857 ई. को बहरामपुर में 19वीं नेटिव एनफैण्ट्री ने नये कारतूस प्रयोग करने से मना कर दिया। 19 मार्च, 1857 ई० को चौंतीसवीं नेटिव एनफैण्ट्री के सिपाही मंगल पाण्डेय ने दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला। बाद में उसे पकड़कर फाँसी दे दी गई। सिपाहियों का निर्णायक विद्रोह 10 मई, 1857 को मेरठ में शुरू हुआ।

प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह की प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन कोजिए।
उत्तर:
विद्रोह की उपलब्धियाँ (Achievements of the Revolt) – 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम चाहे असफल रहा, परन्तु इसकी अनेक उपलब्धियाँ एवं परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण थे। यह विद्रोह व्यर्थ नहीं गया। यह अपनी उपलब्धियों के कारण ही हमारे इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रेणियों में आ सका। इसकी उपलब्धियाँ निम्न थीं-

1. हिन्दू-मुस्लिम एकता (Hindu-Muslim Unity) – इस आन्दोलन एवं संघर्ष के दौरान हिन्दू एवं मुस्लिम न केवल साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर अपने देश में एक सामान्य मंच पर आए, बल्कि देश के लिए लड़े और एक साथ ही यातनायें भी सहीं। अंग्रेजों को यह एकता तनिक भी नहीं भायी। इसलिए उन्होंने शीघ्र ही अपनी ‘फूट डालो एवं शासन करो’ की नीति को और तेज कर दिया।

2. राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि (The Background of National Movement) – राष्ट्रीय आन्दोलन एवं स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष की पृष्ठभूमि इस विद्रोह ने तैयार की। इस संग्राम ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता के जो बीज बोए उसी का फल 15 अगस्त, 1947 को प्राप्त हुआ।

3. देशभक्ति की भावना का प्रसार (Spread ofPatriotic Feelings) – इस संग्राम ने भारतीय जनता के मस्तिष्क पर वीरता, त्याग एवं देशभक्तिपूर्ण संघर्ष की एक ऐसी छाप छोड़ी कि वे अब प्रान्तीय एवं क्षेत्रीयता की संकर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर धीरे-धीरे राष्ट्र के बारे में एक सच्चे नागरिक की तरह सोचने लगे। विद्रोह के नायक सारे देश के लिए प्रेरणा के स्रोत एवं घर-घर में चर्चित होने वाले नायक बन गए। यह इस आन्दोलन की एक महान उपलब्धि थी।

4. देषी राज्यों को मारत (Relifeofthe Princelv States) – देशी राजाओं को अंग्रेजी सरकार ने यह आश्वासन दिया कि भविष्य में उनके राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग नहीं बनाया जाएगा। उनका अस्तित्व स्वतन्त्र रूप से बना रहेगा। इसलिए अधिकांश देशी राजाओं ने ब्रिटिश शासन का समर्थन करना शुरू कर दिया। भारतीय शासकों को दत्तक पुत्र लेने का अधिकार दे दिया गया। इससे अनेक शासकों ने राहत की साँस ली।

5. भारतीयों को सरकारी नौकरियों की घोषणा (Govt. Service to the Indians) – सैद्धान्तिक रूप में भारतीय सर्वोच्च पदों पर धीरे-धीरे प्रगति करके जा सकते थे। सरकारी घोषणा की गई थी कि भारतीयों के साथ जाति एवं रंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा; लेकिन अंग्रेजों ने अपना वायदा पूरा नहीं किया, जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन बराबर बढ़ता गया।

6. धार्मिक हस्तक्षेप समाप्त कर दिया गया (The Religious Interference Ended) – सैद्धान्तिक रूप से भारतीय प्रजा को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता का विश्वास दिलाया गया, लेकिन व्यावहारिक रूप में हिन्दू और मुसलमानों में धार्मिक घृणा एवं साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया।

प्रश्न 9.
“ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में जोतदारों का उदय” विषय पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
जोतदारों का उदय (The rise of the Jotedars)-
(i) वे धनी किसान थे जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी में कुछ गाँवों, समूहों, में अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी।

(ii) 19वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक आते-आते जोतदारों के जमीन के बड़े-बड़े रकबे (भूखंड), जो कभी-कभी कई हजार एकड़ में फैले थे, प्राप्त कर लिए थे।

(ii) जोतदारों का स्थानीय ग्रामीण व्यापार और साहूकारों के कारोबार पर नियंत्रण था। वे अपने क्षेत्र के गरीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे।

(iv) जोतदारों की जमीन का बड़ा भाग बटाईदारों के माध्यम से जोता जाता था जो खुद अपना हल लाते थे, जोतदारों के खेतों में काम करते थे और फसल की उपज का 50 प्रतिशत जोतदारों को दे देते थे।

(v) गाँव में जोतदारों की शक्ति, जमींदारों की शक्ति से ज्यादा प्रभावशाली थी। जमींदार तो शहरों में रहते थे जबकि जोतदार गाँव में ही रहा करते थे। गाँव में रहने वाले गरीब लोगों के काफी बड़े तबके पर उनका सीधा नियंत्रण होता था।

(vi) जोतदारों का जमींदारों से टकराव होता था इसके कई कारण थे। प्रथम, जब जमींदार गाँव की जमा (लगान) बढ़ाने की कोशिश करते थे तो जोतदार उसका विरोध करते थे। दूसरे जमींदारों की अधिकारियों को अपने कर्तव्य का पालन करने से रोकते थे। तीसरा, जो रैयत उन पर निर्भर रहते थे उन्हें वे अपने पक्ष में एकजुट रखते थे और जमींदारों से खुन्दक निकालने के लिए वे रैयतों को राजस्व के भुगतान में जानबूझकर देरी करने के लिए उकसाते रहते थे। चौथा, जब जमींदारी की भू-सम्पदाएँ नीलाम होती थीं तो जोतदार उनकी जमीनों को खरीदकर कटे पर नमक छिड़कने का काम करते थे।

(vii) संक्षेप में कहा जा सकता है उत्तरी बंगाल में जोतदार सर्वशक्तिशाली थे। उनके उदय होने से जमींदारों के अधिकारों का कमजोर पड़ना स्वाभाविक था। कई स्थानों पर जोतदारों को हवलदार या मंडल या गाँटीदार भी कहते थे। प्रायः जमींदार जोतदारों को पसंद नहीं करते थे क्योंकि जोतदार बड़ी-बड़ी जमीनें जोतने और अपनी उभरी हुई स्थिति के कारण कठोर और जिद्दी भी थे।

प्रश्न 10.
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा की गई भू-राजस्व व्यवस्थाओं और सर्वेक्षण पर लेख लिखिए।
उत्तर:
भू-राजस्व व्यवस्था तथा सर्वेक्षण (Land Revenue Systems and Surveys)
(a) स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement)-

  • बंगाल में स्थायी बंदोबस्त 1793 में लागू किया गया था। इस व्यवस्था में भूमि जमींदारों को स्थायी रूप से दी दी जाती थी और उन्हें एक निश्चित धनराशि सरकारी कोष में जमा करनी पड़ती थी।
  • इससे जमींदारों को कानूनी तौर पर मालिकाना अधिकार मिल गये। अब वे किसानों से मनमाना लगान लेते थे।
  • इस व्यवस्था से सरकार को लगान के रूप में बँधी-बँधाई धनराशि मिल जाती थी।
  • इस व्यवस्था से नये जमींदारों का जन्म हुआ, जो शहरों में बड़े-बड़े बंगलों में और तरह-तरह की सुख-सुविधाओं के साथ रहते थे। गाँव में उनके कारिन्दे किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार करके भूमि कर ले जाते थे। जमींदार को किसानों को दुःख-सुख से कोई लगाव न था।
  • किसानों को बदले में सिंचाई या ऋण सुविधा नाममात्र को भी नहीं मिलती थी।

(b) रैयतवाड़ी व्यवस्था (Raiyatwari System) – दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत में रैयतवाड़ी बंदोबस्त लागू किया गया जिसके अंतर्गत किसान भूमि का मालिक था यदि वह भू-राजस्व का भुगतान करता रहा। इस व्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि यह वही व्यवस्था है, जो भारत में पहले से थी। बाद में यह व्यवस्था मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों में भी लागू कर दी गई। इस व्यवस्था में 20-30 वर्ष बाद संशोधन कर दिया जाता था तथा राजस्व की राशि बढ़ा दी जाती थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था में निम्नलिखित त्रुटियाँ थीं-

  1. भू-राजस्व 45 से 55 प्रतिशत था, जो बहुत अधिक था।
  2. भू-राजस्व बढ़ाने का अधिकार सरकार ने अपने पास रखा था।
  3. सूखे अथवा बाढ़ की स्थिति में भी पूरा राजस्व देना पड़ता था। इससे भूमि पर किसान का प्रभुत्व कमजोर पड़ गया।

प्रभाव –

  1. इससे समाज में असंतोष और आर्थिक विषमता का वातावरण छा गया।
  2. सरकारी कर्मचारी किसानों पर अत्याचार करते रहे तथा किसानों का शोषण पहले जैसा .. ही होता रहा।

(c) महालवाडी प्रथा (Mahalwari Systemi) –

  1. इस व्यवस्था के अंतर्गत मालगजारी का बंदोबस्त अलग-अलग गाँवों या जागीरों (महलों) के आधार पर उन जमींदारों या उन परिवारों के मुखिया के साथ किया गया जो भूमि कर के स्वामी होने का दावा करते थे।
  2. अब अपनी भूमि बेचकर भी किसान भू-राजस्व दे सकता था। अगर वह भू-राजस्व समय पर नहीं देता था तो सरकार उनकी भूमि नीलाम करवा सकती थी।

प्रश्न 11.
स्थायी बंदोबस्त से आप क्या समझते हैं ? इसके लाभ एवं हानियों का वर्णन करें।
उत्तर:
बंगाल का स्थायी बन्दोबस्त (Permanent Settlement of Bengal) – बंगाल की राजस्व व्यवस्था में सुधार करके लॉर्ड कॉर्नवालिस ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उसके द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था ही बाद में “स्थायी बन्दोबस्त” के नाम से प्रसिद्ध हुई।

स्थायी बन्दोबस्त के लिये उत्तरदायी परिस्थितियाँ : वारेन हेस्टिंग्स ने कम्पनी की आय में वृद्धि करने के विचार से भूमि को पाँच वर्ष के लिये और बाद में केवल एक वर्ष के लिये ठेके पर देना आरम्भ किया था। ठेके पर भूमि देने की यह प्रणाली अत्यन्त असन्तोषजनक और दोषपूर्ण सिद्ध हुई। उसमें अनेक दोष थे-

  1. उत्साह तथा जिद्द में आकर जमींदार अधिक से अधिक बोली लगाते थे, परन्तु वे भूमि की आय से इतनी राशि नहीं प्राप्त कर पाते थे, इस कारण सरकार का बहुत-सा धन बिना वसूल किये ही रह जाता था।
  2. जमींदारों को यह भी विश्वास नहीं होता था कि अगले वर्ष भूमि उनको मिलेगी अथवा नहीं, इस कारण वह भूमि की दशा को सुधारने का कोई प्रयास नहीं करते थे, परिणामस्वरूप भूमि ऊसर होने लगी।
  3. एक वर्ष के ठेके में अपनी धनराशि को पूरा करने के लिये जमींदार कृषकों पर बहुत अत्याचार करते थे।

बंगाल का स्थायी भूमि प्रबन्ध : इंगलैंड की सरकार को लॉर्ड कॉर्नवालिस के भारत आने के पूर्व ही भूमि ठेके पर देने के दोषों का पता चल चुका था। इसी कारण सन् 1784 के पिट्स इण्डिया ऐक्ट (Pit’s India Act) में कम्पनी के संचालकों को स्पष्ट आदेश दिया गया था कि वे भारत में वहाँ की न्याय व्यवस्था तथा संविधान के अनुसार उचित भूमि व्यवस्था लागू करें। अप्रैल 1784 ई० में जब कॉर्नवालिस भारत आ रहा था तो कम्पनी के संचालकों ने उसे स्पष्ट निर्देश दिए थे कि वह पिट्स इण्डिया ऐक्ट की धाराओं के अनुसार भारत में भूमि कर निश्चित कर दें।

लॉर्ड कॉर्नवालिस शीघ्रता से कोई कार्य नहीं करना चाहता था। उसने भूमि कर की जाँच-पड़ताल का कार्य बंगाल प्रशासन के एक अनुभवी सदस्य सर जान शोर को दिया। उसने सम्पूर्ण लगान व्यवस्था का लगभग तीन वर्ष तक अध्ययन किया। उसकी रिपोर्ट के आधार पर कॉर्नवालिस ने दस वर्ष के लिए भूमि जमींदारों को सौंप दी। जब यह परीक्षण सफल रहा तो कॉर्नवालिस ने उसे एक स्थायी रूप दे दिया और भूमि सदा के लिए जमींदारों को सौंप दी गई। इस व्यवस्था की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार थीं-

(i) अभी तक जमींदारों की कानूनी स्थिति यह थी कि वे भूमिकर एकत्रित करने के अधिकारी तो थे, परन्तु भूमि के स्वामी नहीं थे, परन्तु अब उनको भूमि का स्थायी रूप से स्वामी मान लिया गया।

(ii) अब उन्हें नित्यप्रति दिये जाने वाले उत्तराधिकार के शुल्क से भी मुक्ति मिल गई।

(iii) इसके अतिरिक्त जमींदारों से लिया जाने वाला कर भी निश्चित कर दिया गया, परन्तु उसकी रकम में वृद्धि की जा सकती थी। यह निश्चित किया गया कि सन् 1793 ई० में किसी जमींदार को लगान से जो कुछ भी प्राप्त होता था, सरकार भविष्य में उसका 10/11 भाग लिया करेगी, शेष धन का अधिकारी जमींदार रहेगा।

स्थायी बन्दोबस्त से लाभ : मार्शमैन तथा आर० सी० दत्त जैसे विद्वानों ने स्थायी बन्दोबस्त की अत्यन्त प्रशंसा की है। मार्शमैन ने इसे एक अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य बताया है। इसी प्रकार इतिहासकार आर० सी० दत्त का कथन है, लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा प्रतिपादित स्थायी भूमि व्यवस्था, अंग्रेजों द्वारा किए गए कार्यों से सर्वाधिक बुद्धिमत्तापूर्ण तथा सफल कार्य था।”

स्थायी भूमि व्यवस्था के अनेक लाभ इस प्रकार हैं-
(i) जमींदारों के लिए लाभदायक- भूमि के इस स्थायी बन्दोवस्त का लाभ जमींदार वर्ग को ही रहा। उन्हें भूमि का स्वामित्व प्राप्त हो गया। समय के साथ-साथ भूमि से अधिक उत्पादन होने लगा जिससे जमींदार समृद्धशाली हो गये।

(ii) बार-बार भूमि कर निश्चित करने के झंझट से मुक्ति- इस व्यवस्था से सरकार और जमींदार दोनों को ही प्रतिवर्ष भूमि कर निश्चत करने वाली कठिनाइयों से मुक्ति मिल गई।

(iii) सरकार की आय का निश्चित होना-स्थायी प्रबन्ध से भूमि-कर की रकम निश्चित कर दी गई, परिणामस्वरूप सरकार की आय भी निश्चित हो गई तथा अब सरकार सरलता से बजट बना सकती थी।

(iv) प्रशासन की कार्यकुशलता में वृद्धि-स्थायी को अपना अधिकांश समय भूराजस्व एकत्रित करने तथा उससे संबंधित समस्याओं की ओर लगाना पड़ता था। परन्तु स्थायी व्यवस्था के परिणामस्वरूप सरकार को राजस्व संबंधी समस्याओं से मुक्ति मिल गई। अब सरकार अन्य प्रशासनिक कार्यों की ओर ध्यान दे सकती थी।

(v) उत्पादन तथा समृद्धि में वृद्धि-स्थायी व्यवस्था के फलस्वरूप भूमि की दशा में सुधार होने लगा और अधिक से अधिक अन्न का उत्पादन होने लगा।

(vi) ब्रिटिश सरकार को स्थिरता प्राप्त होना- स्थायी बन्दोवस्त के कारण बंगाल में अंग्रेजी सरकार का आधार सुदृढ़ हो गया। अंग्रेजों ने जमींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया था। इसी कारण वे सरकार के प्रबल समर्थक बन गये और सन् 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजों के भक्त बने रहे। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “राजनैतिक दृष्टि से भी यह कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। जमींदार ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा तथा उसके बने रहने में रूचि लेने लगे। विद्रोह के समय भी उनकी वफादारी दृढ़ रही। इस दृष्टिकोण से यह व्यवस्था अत्यन्त सफल रही।”

स्थायी बन्दोबस्त से हानि : मिल, थार्नटन और होम्ज आदि कुछ इतिहासकारों ने स्थायी व्यवस्था की कड़ी आलोचना की है। उनके अनुसार इस व्यवस्था में अनेक दोष थे-
(i) आरम्भ में जमींदारों पर उल्टा प्रभाव-प्रारम्भ में अनेक जमींदार परिवार नष्ट हो गये, क्योंकि उन्होंने अपना समस्त धन भूमि को सुधारने पर व्यय कर दिया, परन्तु उत्पादन में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हुई, इस कारण वह अपनी रकम को जो उस समय के अनुसार बहुत अधिक थी समय पर जमा न कर सके, फलतः बिक्री के नियम जो कि विनाशकारी नियम के नाम से भी प्रसिद्ध था, के अनुसार उनकी बिक्री कर दी गई।

(ii) कृषकों के हितों की उपेक्षा-स्थायी बन्दोबस्त में कृषकों के अधिकारों तथा हितों का तनिक भी ध्यान नहीं रखा गया तथा उन्हें पूर्ण रूप से जमींदारों की दया पर ही छोड़ दिया गया। जमींदार उन पर अनेक प्रकार के अमानवीय अत्याचार करते थे। उन्होंने किसानों से अधिकाधिक धनं बटोरना प्रारम्भ कर दिया।

(iii) राज्य के भावी हितों की अवहेलना-स्थायी व्यवस्था के द्वारा राज्य के भावी हितों की भी उपेक्षा की गई। समय के साथ-साथ भूमि से प्राप्त होने वाली आय में वृद्धि होने लगी, परन्तु राजकीय भाग निश्चित था, इस कारण बढ़ी हुई आय से सरकार को एक पैसा भी नहीं सका।

(iv) खेती करने वालों पर करों का भारी बोझ-समय के साथ-साथ सरकार के व्यय में वृद्धि हो रही थी, परन्तु वह जमींदारों से एक पाई भी अधिक लेने में असमर्थ थी। इस कारण जमींदारी से होने वाले घाटे को सरकार अन्य व्यक्तियों पर भारी कर लगाकर पूरा करती थी। इस प्रकार जमींदारों के लाभ के लिए अन्य लोग करों के भार से दब गए जो पूर्णतया अन्याय था।

(v) अन्य प्रान्तों पर भार- समय व्यतीत होने पर सरकार के लिए बंगाल एक घाटे का प्रान्त बन गया। बंगाल के अकृषक वर्ग पर भी कर लगाने से जब यह घाटा पूरा न हुआ तब सरकार ने बाध्य होकर अन्य प्रान्तों पर भारी कर लगाये।

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