वन्य समाज और उपनिवेशवाद | Forest Society and colonialism 



** औद्योगीकरण के दौर में सन् 1700 से सन् 1995 के बीच 139 लाख वर्ग किमी जंगल यानी दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 9.3% भाग
औद्योगिक इस्तेमाल, खेती-बाड़ी, चरागाहों व ईंधन की लकड़ी के लिए साफ कर दिया गया। वनों के लुप्त होने को सामान्यत:
वन-विनाश कहते हैं।
** वन-विनाश कोई नई समस्या नहीं है। वैसे तो यह प्रक्रिया कई सदियों से चली आ रही थी लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान इसने कहीं अधिक व्यवस्थित और व्यापक रूप ग्रहण कर लिया।

भारत में वन-विनाश के कारण जमीन की बेहतरी

** सन् 1600 में हिन्दुस्तान के कुल भू-भाग के लगभग छठे हिस्से पर खेती होती थी। आज यह आँकड़ा बढ़ कर आधे तक पहुँच गया है।
इन सदियों के दौरान जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई और खाद्य पदार्थों की माँग में भी वृद्धि हुई, वैसे-वैसे किसान भी जंगलों को साफ करके
खेती की सीमाओं को विस्तार देते गए।
** औपनिवेशिक काल में खेती में तेजी से फैलाव आया। इसकी कई वजहें थीं। पहली, अंग्रेजों ने व्यावसायिक फसलों जैसे पटसन, गन्ना,
गेहूँ व कपास के उत्पादन को जम कर प्रोत्साहित किया।
** उन्नीसवीं सदी के यूरोप में बढ़ती शहरी आबादी का पेट भरने के लिए खाद्यान्न और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की
जरूरत थी, लिहाजा इन फसलों की माँग में इजाफा हुआ। दूसरी वजह यह थी कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक
सरकार ने जंगलों को अनुत्पादक समझा। उनके हिसाब से इस व्यर्थ के बियाबान पर खेती करके उससे राजस्व और कृषि उत्पादों को पैदा
किया जा सकता था और इस तरह राज्य की आय में बढ़ोत्तरी की जा सकती थी। यही वजह थी कि सन् 1880 से सन् 1920 के बीच
खेती योग्य जमीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की बढ़त हुई।

पटरी पर स्लीपर

** उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैण्ड में बलूत (ओक) के जंगल लुप्त होने लगे थे। इसकी वजह से शाही नौसेना के लिए
लकड़ी की आपूर्ति में मुश्किल आ खड़ी हुई।
** सन् 1820 के दशक में खोजीदस्ते हिन्दुस्तान की वन-सम्पदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के भीतर बड़े
पैमाने पर पेड़ काटे जाने लगे और भारी मात्रा में लकड़ी का हिन्दुस्तान से निर्यात होने लगा।
** सन् 1850 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नई तरह की माँग पैदा कर दी। शाही सेना के आवागमन
और औपनिवेशक व्यापार के लिए रेल लाइनें अनिवार्य थीं।
** इंजनों को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए स्लीपरों के रूप में लकड़ी की भारी
जरूरत थी। एक मील लम्बी रेल की पटरी के लिए 1760-2000 स्लीपरों की आवश्यकता पड़ती थी।
** भारत में रेल-लाइनों का जाल सन् 1860 के दशक से तेजी से फैला। सन् 1890 तक लगभग 25500 किमी लम्बी लाइनें बिछाई जा चुकी थीं।
** सन् 1946 में इन लाइनों की लम्बाई 765000 किमी तक बढ़ चुकी थी। रेल लाइनों के प्रसार के साथ-साथ बड़ी तादाद में पेड़ भी काटे गए। अकेले मद्रास प्रेसीडेन्सी में सन् 1850 के दशक में प्रतिवर्ष 35000 पेड़ स्लीपरों के लिए काटे गए।

बागान

** यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया।
** औपनिवेशक सरकार ने जंगलों को अपने कब्जे में लेकर उनके । विशाल हिस्सों को बहुत सस्ती दरों पर यूरोपीय बागान मालिकों
को सौंप दिया। इन इलाकों की बाड़ा बन्दी करके जंगलों को साफ कर दिया गया और चाय-कॉफी की खेती की जाने लगी।

व्यावसायिक वानिकी की शुरुआत

** अंग्रेजों को इस बात की चिन्ता थी, कि स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों का उपयोग व व्यापारियों द्वारा पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई से जंगल नष्ट हो जाएंगे इसलिए उन्होंने डायटिंच बॅडिस नामक और जर्मन विशेषज्ञ को इस विषय पर मशविरे के लिए बुलाया उसे देश का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया गया।
** ब्रेंडिस ने महसूस किया कि लोगों को संरक्षण विज्ञान में प्रशिक्षित करना और जंगलों के प्रबन्धन के लिए एक व्यवस्थित तन्त्र विकसित करना होगा। इसके लिए कानूनी मंजूरी की जरूरत पड़ेगी। वन सम्पदा के उपयोग सम्बन्धी नियम तय करने पड़ेंगे। पेड़ों की कटाई और पशुओं को चराने जैसी गतिविधियों पर पाबन्दी लगा कर ही जंगलों को लकड़ी उत्पादन के लिए आरक्षित किया जा सकेगा। इस तन्त्र की
अवमानना करके पेड़ काटने वाले किसी भी व्यक्ति को सजा का भागी बनना होगा। इस तरह ब्रेंडिस ने सन् 1864 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और सन् 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया।
** इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट की स्थापना सन् 1906 में देहरादून में हुई। यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे
'वैज्ञानिक वानिकी' (साइंटिफिक फॉरेस्टी) कहा गया। लेकिन आज पारिस्थितिकी विशेषज्ञों सहित ज्यादातर लोग मानते हैं कि यह पद्धति बिल्कुल वैज्ञानिक नहीं है।
** वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया। इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के
पेड़ लगा दिए गए। इसे बागान कहा जाता है। वन विभाग के अधिकारियों ने जंगलों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न किस्म के पेड़ों वाले क्षेत्र की नाप-जोख की और वन-प्रबन्धन के लिए योजनाएँ बनाईं। उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाएगा। कटाई के बाद खाली जमीन पर पुन: पेड़ लगाए जाने थे ताकि कुछ ही वर्षों में यह क्षेत्र पुन: कटाई के लिए तैयार हो जाए।
** सन् 1865 में वन अधिनियम के लागू होने के बाद इसमें दो बार संशोधन किए गए-पहले सन् 1878 में और फिर सन् 1927 में।
** सन् 1878 वाले अधिनियम में जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया। आरक्षित, सुरक्षित व ग्रामीण। सबसे अच्छे जंगलो को 'आरक्षित वन' कहा गया। गाँव वाले इन जंगलों से अपने उपयोग के लिए कुछ भी नहीं ले सकते थे। वे घर बनाने या ईंधन के लिए केवल सुरक्षित या ग्रामीण वनों से ही लकड़ी ले सकते थे।
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लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ?

** एक अच्छा जंगल कैसा होना चाहिए इसके बारे में वनपालों और मामीणों के विचार बहुत अलग थे। जहाँ एक तरफ प्रामीण
अलग-अलग जरूरतों जैसे ईधन, चारे व पत्तों की पूर्ति के लिए वन में विभिन्न प्रजातियों का मेल चाहते थे, वहीं वन-विभाग को ऐसे
पेड़ों की जरूरत थी जो जहाजों और रेलवे के लिए इमारती लकड़ी मुहैया करा सकें, ऐसी लकड़ियाँ जो सख्त, लम्बी और सीधी हो।
इसलिए सागौन और साल जैसी प्रजातियों को प्रोत्साहित किया गया और दूसरी किस्में काट डाली गई।
** वन्य इलाकों में लोग कन्दमूल फल, पने आदि वन उत्पादों की विभिन्न जरूरतों के लिए उपयोग करते हैं। फल और कन्द अत्यन्त
पोषक खाप है, विशेषकर मानसून के दौरान जब फसल कट का घर न आई हो। दवाओं के लिए जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल होता है,
लकडी का प्रयोग हल जैसे खेती के औजार बनाने में किया जाता है, बाँस से बेहतरीन बाड़ें बनाई जा सकती है और इसका उपयोग छतरी
तथा टोकरी बनाने के लिए भी किया जा सकता है।
** सूखे हुए कुम्हड़े के खोल का प्रयोग पानी की बोतल के रूप में किया जा सकता है। जंगलों में लगभग सब कुछ उपलब्ध है-पत्तों
को जोड़-जोड़ कर, खाओ-फेंको, किस्म के पत्तल और दोनें बनाए जा सकते हैं। सियादी (Bauhiria vahili) की लताओं से रस्सी
बनाई जा सकती है, सेमूर (सूती रेशम) की काँटेदार छाल पर सब्जियाँ छीली जा सकती हैं, महुए के पेड़ से खाना पकाने और
रोशनी के लिए तेल निकाला जा सकता है।
** वन अधिनियम के चलते देश भर में गाँव वालों की मुश्किलें बढ़ गई, इस कानून के बाद घर के लिए लकड़ी काटना, पशुओं को चराना,
कन्दमूल-फल इकट्ठा करना आदि रोजमर्रा की गतिविधियाँ गैर कानूनी बन गईं। अब उनके पास जंगलों से लकड़ी चुराने के अलावा कोई चारा नहीं बचा और पकड़े जाने की स्थिति में वे वन-रक्षकों की दया पर होते जो उनसे घूस ऐंठते थे। जलाने के लिए लकड़ी एकत्र करने वाली औरतें विशेष तौर से परेशान रहने लगीं।

वनों के नियमन से खेती कैसे प्रभावित हुई?

** यूरोपीय उपनिवेशवाद का सबसे गहरा प्रभाव झूम या घुमन्तू खेती की प्रथा का पड़ा। इसे घुमन्तु खेती भी कहा जाता है। हिन्दुस्तान में
इसके लिए धया, पेन्दा, बेवर, नेवड़, झूम पोडू, खंदाद और कुमरी ऐसे ही कुछ स्थानीय नाम है।
** घुमन्तू, कृषि के लिए जंगल के कुछ भागों को बारी-बारी से काटा है बीज बो दिए जाते है और अक्टूबर-नवम्बर में फसल काटी जाती
| मानसून की पहली बारिश के बाद इस राख में है। इन खेतों पर एक या दो वर्ष खेती करने के बाद इन्हें 12 से 18 वर्ष तक के लिए परती छोड़ दिया जाता है जिससे वहाँ फिर से जंगल पनप जाए। इन भूखण्ड़ों में मिश्रित फसलें उगाई जाती है जैसे मध्य भारत और अफ्रीका में ज्वार-बाजरा, ब्राजील में कसावा और लैटिन अमेरिका के अन्य भागों में मक्का व फलियाँ।
** जंगलों पर वन विभाग का नियन्त्रण स्थापित हो जाने से लोगों को कई तरह के नुकसान हुए, लेकिन कुछ लोगों को व्यापार के नये
अवसरों का लाभ भी मिला। कई समुदाय अपने परम्परागत पेशे छोड़ कर वन-उत्पादों का व्यापार करने लगे।

युद्ध और वन-विनाश

** पहले और दूसरे विश्व युद्ध का जंगलों पर गहरा असर पड़ा। भारत में तमाम चालू कार्य योजनाओं को स्थगित करके वन विभाग ने
अंग्रेजों की जंगी जरूरतों को पूरा करने के लिए बेतहाशा पेड़ काटे।
** जावा पर जापानियों के कब्जे से ठीक पहले डचों ने 'भस्म-कर-भागो नीति' (Scorched Earth Policy) अपनाई। जिसके तहत् आरा-मशीनों और सागौन के विशाल लट्ठों के ढेर जला दिए गए जिससे वे जापानियों के हाथ न लग पाएँ। इसके बाद जापानियों ने वनवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य करके अपने युद्ध उद्योग के लिए जंगलों का निर्मम दोहन किया।

वानिकी में नये बदलाव

** अस्सी के दशक से एशिया और अफ्रीका की सरकारों को यह समझ में आने लगा कि वैज्ञानिक वानिकी और वन समुदायों को
जंगलों से बाहर रखने की नीतियों के चलते बार-बार टकराव पैदा होते हैं। परिणामस्वरूप, वनों से इमारती लकड़ी हासिल करने के
बजाय जंगलों का संरक्षण ज्यादा महत्त्वपूर्ण लक्ष्य बन गया है।
** सरकार ने यह भी मान लिया है कि इस लक्ष्य को हासेल करने के लिए वन प्रदेशों में रहने वालों की मदद लेनी होगी। मिजोरम से
लेकर केरल तक हिन्दुस्तान में हर कहीं घने जंगल सिर्फ इसलिए बच पाए कि ग्रामीणों ने सरना, देवराकुडु, कान, राई इत्यादि नामों
से पवित्र बगीचा समझ कर इनकी रक्षा की।

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