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 आधुनिक विश्व में चरवाहे | Pastoralists in Modern World


** घुमन्तू ऐसे लोग होते हैं जो किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते
बल्कि रोजी-रोटी के जुगाड़ में यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं। घुमन्तू
चरवाहों की किसी टोली के पास भेड़-बकरियों का रेवड़ या झुण्ड
होता है तो किसी के पास ऊंट या अन्य मवेशी रहते हैं।


** पहाड़ों में जम्मू और कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय के
लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े रेवड़ रखते हैं। इस समुदाय के
अधिकतर लोग अपने मवेशियों के लिए चरागाहों की तलाश में
भटकते-भटकते उन्नीसवीं सदी में यहाँ आए थे। जैसे-जैसे समय
बीतता गया वे यहीं के होकर रह गए और यहीं बस गए।
** पास के ही पहाड़ों में चरवाहों का एक और समुदाय रहता था।
हिमाचल प्रदेश के इस समुदाय को गपी कहते हैं। ये लोग भी
मौसमी उतार-चढ़ाव का सामना करने के लिए इसी तरह
सर्दी-गर्मी के हिसाब से अपनी जगह बदलते रहते थे। वे भी
शिवालिक की निचली पहाड़ियों में अपने मवेशियों को झाड़ियों में
चराते हुए जाड़ा बिताते थे।
** गढ़वाल और कुमाऊँ के गुज्जर चरवाहे सर्दियों में भाबर के सूखे
जंगलों की तरफ और गर्मियों में ऊपरी घास के मैदानों बुग्याल की
तरफ चले जाते थे। इनमें से बहुत सारे हरे-भरे चरागाहों की
तलाश में उन्नीसवीं सदी में जम्मू से उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों में
आए थे और बाद में यहीं बस गए।
** सर्दी-गर्मी के हिसाब से हर साल चरागाह बदलते रहने का यह
चलन हिमाचल के पर्वतों में रहने वाले बहुत सारे चरवाहा
समुदायों में दिखाई देता था।
** पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में इन मैदानों में चरवाहे सिर्फ
पहाड़ों में ही नहीं रहते थे। वे पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में भी
बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे। धंगर महाराष्ट्र का एक जाना-माना
चरवाहा समुदाय है। बीसवीं सदी की शुरुआत में इस समुदाय की
आबादी लगभग 467000 थी। उनमें से ज्यादातर गड़रिये या
चरवाहे थे हालांकि कुछ लोग कम्बल और चादरें भी बनाते थे जब कि कुछ भैंस पालते थे। 
धंगर गड़रिये बरसात के दिनों में महाराष्ट्र के मध्य पठारों में रहते थे।
** कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में भी सूखे मध्य पठार घास और पत्थरों
से अटे पड़े थे। इनमें मवेशियों, भेड़-बकरियों और गड़रियों का ही
बसेरा रहता था। यहाँ गोल्ला समुदाय के लोग गाय-भैंस पालते थे
और
कुरुबा समुदाय भेड़-बकरियाँ पालते थे और
हाथ के बुने कम्बल बेचते थे। ये लोग जंगलों और छोटे-छोटे
खेतों के आस-पास रहते थे। वे अपने जानवरों की देखभाल के
साथ-साथ कई दूसरे काम-धन्धे भी करते थे। पहाड़ी
चरवाहों के
विपरीत यहाँ के चरवाहों का एक स्थान से दूसरे स्थान जाना
सर्दी-गर्मी से तय नहीं होता था। ये लोग बरसात और सूखे मौसम
के हिसाब से अपनी जगह बदलते थे। सूखे महीनों में वे तटीय
इलाकों की तरफ चले जाते थे जबकि बरसात शुरू होने पर वापस
चल देते थे।
** चरवाहों में एक जाना-पहचाना नाम बंजारों का भी है। बंजारे
उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में
रहते थे। ये लोग बहुत दूर-दूर तक चले जाते थे और रास्ते में
अनाज और चारे के बदले गाँव वालों को खेत जोतने वाले जानवर
और दूसरी चीजें बेचते जाते थे।
** राजस्थान के रेगिस्तानों में राइका समुदाय रहता था। इस इलाके में
बारिश का कोई भरोसा नहीं था होती भी थी तो बहुत कम।
इसीलिए खेती की उपज हर साल घटती-बढ़ती रहती थी। बहुत
सारे इलाकों में तो दूर-दूर तक कोई फसल होती ही नहीं थी।
इसके चलते राइका खेती के साथ-साथ चरवाही का भी काम
करते थे।

औपनिवेशिक शासन और चरवाहों का जीवन

** औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों की जिंदगी में गहरे
बदलाव आए। उनके चरागाह सिमट गए, इधर-उधर आने-जाने
पर बन्दिशें लगने लगीं और उनसे जो लगान वसूल किया जाता था
उसमें भी वृद्धि हुई। खेती में उनका हिस्सा घटने लगा और उनके
पेशे और हुनरों पर भी बहुत बुरा असर पड़ा।
** अंग्रेज सरकार चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील कर देना
चाहती थी। जमीन से मिलने वाला लगान उसकी आमदनी का एक
बड़ा स्रोत था। खेती का क्षेत्रफल बढ़ने से सरकार की आय में और
बढ़ोत्तरी हो सकती थी। इस तरह खेती के फैलाव से चरागाह
सिमटने लगे और चरवाहों के लिए समस्याएँ पैदा होने लगी।
** उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते देश के विभिन्न प्रान्तों में
वन अधिनियम भी पारित किए जाने लगे थे। इन कानूनों की आड़
में सरकार ने ऐसे कई जंगलों को 'आरक्षित वन घोषित कर दिया
जहाँ देवदार या साल जैसी कीमती लकड़ी पैदा होती थी। इन
जंगलों में चरवाहों के घुसने पर पाबन्दी लगा दी गई। कई जंगलों
को 'संरक्षित' घोषित कर दिया गया। इन जंगलों में चरवाहों को
चरवाही के कुछ परम्परागत अधिकार तो दे दिए गए लेकिन
उनकी आवाजाही पर फिर भी बहुत सारी बन्दिशें लगी रहीं।
** अंग्रेजी अफसर घुमन्तू किस्म के लोगों को शक की नजर से देखते
थे। वे गाँव-गाँव जाकर अपनी चीजें बेचने वाले कारीगरों,
व्यापारियों और अपने रेवड़ के लिए हर साल नये-नये चरागाहों
की तलाश में रहने वाले, हर मौसम में अपनी रिहाइश बदल लेने
वाले चरवाहों पर यकीन नहीं कर पाते थे। सन् 1871 में
औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम
(Criminal Tribes Act) पारित किया। इस कानून के तहत
दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को
अपराधी समुदायों की सूची में रख दिया गया। उन्हें कुदरती और
जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया गया। इस कानून के लागू होते
ही ऐसे सभी समुदायों को कुछ खास अधिसूचित गाँवो/बस्तियों में
बस जाने का हुक्म सुना दिया गया। उनके बिना परमिट आवाजाही
पर रोक लगा दी गई।
** अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने लगान वसूलने का हर
सम्भव रास्ता अपनाया। चरवाहों से चरागाहों में चरने वाले
एक-एक जानवर पर टैक्स वसूल किया जाने लगा।

इन बदलावों ने चरवाहों की जिन्दगी को किस तरह प्रभावित किया?

** जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा चरागाहों को सरकारी कब्जे में लेकर
उन्हें खेतों में बदला जाने लगा, वैसे-वैसे चरागाहों के लिए
उपलब्ध इलाका सिकुड़ने लगा। इसी तरह, जंगलों के आरक्षण का
नतीजा यह हुआ कि गड़रिये और पशुपालक अब अपने मवेशियों
को जंगलों में पहले जैसी आजादी से नहीं चरा सकते थे।
** जब चरागाह खेतों में बदलने लगे तो बचे-कुचे चरागाहों में चरने
वाले जानवरों की तादाद बढ़ने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि
चरागाह सदा जानवरों से भरे रहने लगे।
** अब तक तो घुमन्तू चरवाहे अपने मवेशियों को कुछ दिन तक ही
एक इलाके में चराते थे और उसके बाद किसी और इलाके में चले
जाते थे। इस अदला-बदली की वजह से पिछले चरागाह भी फिर
से हरे-भरे हो जाते थे। लेकिन चरवाहों की आवाजाही पर लगी बन्दिशों 
और चरागाहों के बेहिसाब इस्तेमाल से चरागाहों का स्तर
भी गिरने लगा। जानवरों के लिए चारा कम पड़ने लगा। फलस्वरूप
जानवरों की सेहत और तादाद भी गिरने लगी। चारे की कमी और
जब-तब पड़ने वाले अकाल की वजह से कमजोर और भूखे
जानवर बड़ी संख्या में मरने लगे।

चरवाहों ने इन बदलावों का सामना कैसे किया?

** कुछ चरवाहों ने तो अपने जानवरों की संख्या ही कम कर दी। जब
पुराने चरागाहों का इस्तेमाल करना मुश्किल हो गया तो कुछ
चरवाहों ने नये-नये चरागाह ढूँढ लिए।
** बहरहाल, चरवाहों पर इस तरह के बदलाव सिर्फ हमारे देश में ही
नहीं थोपे गए थे। दुनिया के बहुत सारे इलाकों में नये कानूनों और
बन्दिशों के नये तौर-तरीकों ने उन्हें आधुनिक दुनिया में आ रहे
बदलावों के मुताबिक अपनी जिंदगी का ढर्रा बदलने पर मजबूर
किया है।

आधुनिक विश्व में आए इन बदलावों से निपटने के लिए बाकी देशों के चरवाहों ने क्या रास्ते अपनाए?

** अफ्रीका में दुनिया की आधी से ज्यादा चरवाहा आबादी रहती है।
आज भी अफ्रीका के लगभग सवा दो करोड़ लोग रोजी-रोटी के
लिए किसी न किसी तरह की चरवाही गतिविधियों पर ही आश्रित
हैं। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना
जैसे जाने-माने समुदाय भी शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर अब
अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों या सूखे रेगिस्तानों में रहते हैं जहाँ वर्षा
आधारित खेती करना बहुत मुश्किल है।
** यहाँ के चरवाहे गाय-बैल, ऊँट, बकरी, भेड व गधे पालते हैं और
दूध, माँस, पशुओं की खाल व ऊन आदि बेचते हैं। कुछ चरवाहे
व्यापार और यातायात सम्बन्धी काम भी करते हैं। कुछ चरवाही के
साथ-साथ खेती भी करते हैं।
** मासाई पशुपालक मोटे तौर पर पूर्वी अफ्रीका के निवासी हैं। इनमें
से लगभग, 300000 दक्षिणी कीनिया में और करीब 150000
तंजानिया में रहते हैं। मासाइयों की सबसे बड़ी समस्या यह रही है
कि उनके चरागाह दिनों-दिन सिमटते जा रहे हैं। औपनिवेशिक
शासन से पहले मासाईलैण्ड का इलाका उत्तरी कीनिया से लेकर
तंजानिया के घास के मैदानों तक फैला हुआ था। उन्नीसवीं सदी के
आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों ने अफ्रीका में कब्जे के
लिए मारकाट शुरू कर दी और बहुत सारे इलाकों को छोटे-छोटे
उपनिवेशों में तब्दील करके अपने-अपने कब्जे में लिया।
** सन् 1885 में ब्रिटिश कीनिया और जर्मन तांगान्यिका के बीच एक
अन्तर्राष्ट्रीय सीमा खींचकर मासाईलैण्ड के दो बराबर-बराबर
टुकड़े कर दिए गए। बाद के सालों में सरकार ने गोरों को बसाने 
के लिए बेहतरीन चरागाहों को अपने कब्जे में ले लिया। मासाइयों
को दक्षिणी कीनिया और उत्तरी तंजानिया के छोटे से इलाके में
समेट दिया गया। औपनिवेशक शासन से पहले मासाइयों के पास
जितनी जमीन थी उसका लगभग 60 फीसदी हिस्सा उनसे छीन
लिया गया। उन्हें ऐसे सूखे इलाकों में कैद कर दिया गया जहाँ न
तो अच्छी बारिश होती थी और न ही हरे-भरे चरागाह थे।
** अफ्रीका की अन्य जगहों पर भी चरवाहों को इसी तरह की
मुश्किलों का सामना करना पड़ा। दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका में
स्थित नामीबिया के काओकोलैण्ड चरवाहे परम्परागत रूप से
काओकोलैण्ड और पास ही में स्थित ओवाम्बोलैण्ड के बीच
आते-जाते रहते थे। नई भौगोलिक सीमाओं ने दूर-दूर के इलाकों
में उनके आने-जाने पर पाबन्दी लगा दी जिससे उनका पहले की
तरह दोनों इलाकों में आना-जाना पूरी तरह बन्द हो गया।

सरहदें बन्द हो गईं

** उन्नीसवीं सदी में चरवाहे चरागाहों की खोज में बहुत दूर-दूर तक
चले जाते थे। जब एक जगह के चरागाह सूख जाते थे तो वे अपने
रेवड़ लेकर किसी और जगह चले जाते थे। लेकिन उन्नीसवीं सदी
के आखिरी दशकों से औपनिवेशिक सरकार उनकी आवाजाही पर
तरह-तरह की पाबन्दियाँ लगाने लगी।
** मासाइयों की तरह अन्य चरवाहों को भी विशेष आरक्षित इलाकों
की सीमाओं में कैद कर दिया गया। अब ये समुदाय इन आरक्षित
इलाकों की सीमाओं के पार आ-जा नहीं सकते थे। वे विशेष
परमिट लिए बिना अपने जानवरों को लेकर बाहर नहीं जा सकते
थे। लेकिन परमिट हासिल करना भी कोई आसान काम नहीं था।
इसके लिए उन्हें तरह-तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता
था और उन्हें तंग किया जाता था।

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