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रबीन्द्रनाथ टैगोर  जीवनी जन्म, प्रारंभिक जीवन, रचनाएँ ,परिवार और शिक्षा


विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर

रवींद्रनाथ टैगोर बाँगला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे | भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ट रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही। आम तौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है।

रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के पुत्र के रूप में एक संपन्न बाँगला परिवार में हुआ था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी टैगोर सहज ही कला के कई स्वरूपों जैसे-साहित्य, कविता, नृत्य और संगीत की ओर आकृष्ट हुए।

दुनिया के समकालीन सांस्कृतिक रुझान से वे भली-भाँति अवगत थे। साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवि व्यक्तित्व का विस्तार था। हालाँकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी। उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोश का विकास कर लिया था। टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं पारंपरिक कला जैसे दृश्य कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी।

शिक्षा

रवींद्रनाथ टैगोर की स्कूली शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया, लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रवींद्रनाथ टैगोर को बचपन से ही कविताएँ और कहानियाँ लिखने का शौक था। उनके पिता देवेंद्रनाथ टैगोर एक जाने-माने समाज-सुधारक थे। वे चाहते कि रवींद्र बड़े होकर बैरिस्टर बनें। उन्होंने रवींद्र को कानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा, लेकिन रवींद्र का मन साहित्य में ही रमता था। उन्हें अपने मन के भावों को कागज पर उतारना पसंद था। आखिरकार, उनके पिता ने
पढ़ाई के बीच में ही उन्हें वापस भारत बुला लिया और उन पर घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ डाल दीं। रवींद्रनाथ टैगोर को प्रकृति से बहुत प्यार था। वे गुरुदेव के नाम से लोकप्रिय थे। भारत आकर उन्होंने फिर से लिखने का काम शुरू किया।

रचनाएँ

रवींद्रनाथ टैगोर को 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान
किया गया। टैगोर ने बाँगला साहित्य में नए गद्य और छंद तथा लोकभाषा के
उपयोग की शुरुआत की और इस प्रकार शास्त्रीय संस्कृत पर आधारित पारंपरिक
स्वरूपों-प्रारूपों से उसे मुक्ति दिलाई। उन्होंने कम आयु में काव्य-लेखन
आरंभ कर दिया था। 1890 के दशक में उन्होंने कविताओं की अनेक पुस्तकें
प्रकाशित की।

विलक्षण प्रतिभा

दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवींद्रनाथ टैगोर पारंपरिक ढाँचे के लेखक नहीं थे। वे एकमात्र कवि हैं, जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। भारत का राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' और बांगलादेश का राष्ट्र गान 'आमार सोनार बाँगला' उनकी ही रचनाएँ हैं। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्म समाजी होने के बावजूद उनका दर्शन मानवता के प्रति समर्पित रहा। वे एक ऐसे कवि थे, जिनका केंद्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था। वे मनुष्य मात्र के स्पंदन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनकी रगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके नाटकों में मनुष्य की गहरी जिजीविषा है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आसपास से कथानक चुनता है, बुनता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा की आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत करे, बल्कि उस कथालोक
में वह मनुष्य के अंतिम गंतव्य की तलाश करता है।

रचना कर्म

शिलाइदह और शहजादपुर स्थित अपनी खानदानी जायदाद के प्रबंधन के लिए रवींद्र 10 वर्षों तक पूर्वी बंगाल (वर्तमान बाँगलादेश) में रहे। वहाँ वे अकसर पद्मा नदी (गंगा नदी) पर एक हाउस बोट में ग्रामीणों के निकट संपर्क में रहते थे। उन ग्रामीणों की निर्धनता व पिछड़ेपन के प्रति उनकी संवेदना उनकी बाद की रचनाओं का मूल स्वर बनी। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ जिनमें दीन-हीनों का जीवन और उनके दैनंदिन जीवन की पीड़ा वर्णित है, 1890 के बाद की हैं। उनकी मार्मिकता में हल्का सा विडंबना का पुट है, जो टैगोर की निजी विशेषता है तथा जिसे सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे अपनी बाद की फिल्मों में कुशलतापूर्वक पकड़ पाए हैं।

'गल्पगुच्छ' की तीन जिल्दों में उनकी सभी चौरासी कहानियाँ संगृहीत हैं, जिनमें से केवल दस प्रतिनिधि कहानियाँ चुनना टेढ़ी खीर है। 1891 से 1895 के बीच का पाँच वर्षों का समय रवींद्रनाथ की साहित्य साधना का महान् काल था। उनकी कहानियों में वर्षा, नदियाँ और नदी किनारे के सरकंडे, वर्षा ऋतु का आकाश, छायादार गाँव, वर्षा से भरे अनाज के लहलहाते खेत मिलते हैं। उनके साधारण पात्र कहानी खत्म होते-होते असाधारण मनुष्यों में बदल जाते हैं और महानता की पराकाष्ठा छू लेते हैं। उनकी कराहती पीड़ा की मूक करुणा हमारे हृदय को अभिभूत कर देती है।

उनकी कहानी 'पोस्टमास्टर' इस बात का सजीव उदाहरण है कि एक सच्चा कलाकार साधारण उपकरणों से कैसी अद्भुत सृष्टि कर सकता है। कहानी में केवल दो सजीव साधारण से पात्र हैं। बहुत कम घटनाओं से भी वे अपनी कहानी का महल खड़ा कर देते हैं। एक छोटी लड़की कैसे बड़े-बड़े इनसानों को अपने स्नेह-पाश में बाँध देती है, 'काबुलीवाला' इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। रवींद्रनाथ ने पहली बार अपनी कहानियों में साधारण सी महिला का बखान किया।

रवींद्रनाथ की 'काबुलीवाला', 'मास्टर साहब' और 'पोस्टमास्टर' कहानियाँ आज भी लोकप्रिय हैं। उनकी कहानियाँ सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी
लोकप्रिय हैं और लोकप्रिय होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ हैं।

अपनी कल्पना के पात्रों के साथ रवींद्रनाथ की अद्भुत सहानुभूतिपूर्ण एकात्मकता और उसके चित्रण का अतीव सौंदर्य उनकी कहानी को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं, जिसे पढ़कर द्रवित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। उनकी कहानियाँ फौलाद को मोम बनाने की क्षमता रखती हैं।

"अतिथि' कहानी का तारापद रवींद्रनाथ के अविस्मरणीय पात्रों में से एक है। इसका नायक कहीं बँधकर नहीं रह पाता। आजीवन 'अतिथि' ही
रहता है, 'सुधित पाषाण' कहानी में कलाकार की कल्पना अपने सुंदरतम रूप में व्यक्त हुई है। यहाँ अतीत वर्तमान के साथ वार्तालाप करता है-रंगीन प्रभामय अतीत के साथ नीरस वर्तमान। समाज में महिलाओं का स्थान तथा नारी जीवन की विशेषताएँ उनके लिए गंभीर विषय थे और इस विषय में भी उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है।

राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के रचयिता टैगोर को बंगाल के ग्राम्यांचल से प्रेम था और इनमें भी पद्मा नदी उन्हें सबसे अधिक प्रिय थी-जिसकी छवि
उनकी कविताओं में बार-बार उभरती है। उन वर्षों में उनके कई कविता संग्रह और नाटक आए, जिनमें काव्य रचना 'सोनार तरी' (सुनहरी नाव),1894 तथा नाटिका चित्रांगदा, 1891 उल्लेखनीय हैं।

चित्रकला

साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवि व्यक्तित्व का विस्तार था। हालांकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, फिर भी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोश का विकास कर लिया था। टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं पारंपरिक कला जैसी दृश्य-कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी। एक अवचेतन प्रक्रिया के आरंभिक रूप में टैगोर की पांडुलिपियों में उभरती और मिटती रेखाएँ खास स्वरूप लेने लगीं। धीरे-धीरे टैगोर ने कई चित्रों को उकेरा, जिनमें कई बेहद काल्पनिक एवं विचित्र जानवरों, मुखौटों, रहस्यमय मानवीय चेहरों, गूढ़ भू-परिदृश्यों, चिड़ियों एवं
फूलों के चित्र थे।

उनकी कृतियों में फंतासी, लयात्मकता एवं जीवंतता का अद्भुत संगम दिखता है। कल्पना की शक्ति ने उनकी कला को जो विचित्रता प्रदान की. उसकी व्याख्या शब्दों में संभव नहीं है। तकनीकी रूप से टैगोर ने सृजनात्मक स्वतंत्रता का आनंद लिया। उनके पास कई उद्वेलित करने वाले विषय थे। रोशनाई से बने उनके चित्रों में एक स्वच्छंदता दिखती है, जिसके तहत कूची, कपड़ा, रुई के फाहों और यहाँ तक कि उँगलियों का बखूबी इस्तेमाल किया गया है। टैगोर के लिए कला मनुष्य को दुनिया से जोड़ने का माध्यम है। आधुनिकतावादी होने के नाते टैगोर विशेषकर कला के क्षेत्र में पूरी तरह समकालीन थे।

यीट्स द्वारा अनुवाद

टैगोर की कविताओं की पांडुलिपि को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था और वे इतने मुग्ध हो गए कि उन्होंने अंग्रेजी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी जगत् के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने ही इंडिया सोसाइटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गई, जिनमें से सिर्फ 250 प्रतियाँ ही बिक्री के लिए थीं। बाद में मार्च 1913 में मैकमिलन एंड कंपनी, लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर, 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर के अंग्रेजी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें टैगोर के पास भेजा और लिखा-"हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि
नजर आ रही है।"

यीट्स ने ही बाद में अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका लिखी। उन्होंने लिखा कि कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिये मैं रेलों, बसों और रेस्तराँओं में घूमा हूँ और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस डर से पढ़ना बंद करना पड़ा है कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए देख न ले। अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं, जिनमें शायद एक भी पन्ना ऐसा आनंद नहीं देता है। बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रेंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ और टैगोर की ख्याति दुनिया के कोने-कोने में फैल गई।

शांति-निकेतन

1901 में टैगोर ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांति- निकेतन में एक प्रायोगिक विद्यालय की स्थापना की, जहाँ उन्होंने भारत और
पश्चिमी परंपराओं के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों को मिलाने का प्रयास किया। वे विद्यालय में ही स्थायी रूप से रहने लगे। यही प्रायोगिक विद्यालय 1921 में विश्वभारती विश्वविद्यालय बन गया। 1902 तथा 1907 के बीच उनकी पत्नी और दो बच्चों की मृत्यु से उपजा गहरा दु:ख उनकी बाद की कविताओं में परिलक्षित होता है, जो पश्चिमी जगत् में गीतांजलि, सॉन्ग ऑफ रिंग्स (1912) के रूप में पहुंचा।

शांति-निकेतन में उनका जो सम्मान समारोह हुआ था, उसका सचित्र समाचार भी कुछ ब्रिटिश समाचार-पत्रों में छपा था। 1908 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन के सभापति और बाद में ब्रिटेन के प्रथम लेबर प्रधानमंत्री रेम्जे मेक्डोनाल्ड 1914 में एक दिन के लिए शांति निकेतन गए थे। उन्होंने शांति-निकेतन के संबंध में पार्लियामेंट के एक लेबर सदस्य के रूप में जो कुछ कहा, वह भी ब्रिटिश समाचार-पत्रों में छपा। उन्होंने शांति-निकेतन के संबंध में सरकारी नीति की भर्त्सना करते हुए इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि शांति-निकेतन को सरकारी सहायता मिलनी बंद हो गई है।

ब्रिटेन में गुरुदेव

टैगोर 1878 से लेकर 1930 के बीच सात बार इंग्लैंड गए। 1878 और 1890 उनकी पहली दो यात्राओं के संबंध में ब्रिटेन के समाचार-पत्रों में कुछ भी नहीं छपा, क्योंकि तब तक उन्हें वह ख्याति नहीं मिली थी कि उनकी ओर किसी विदेशी समाचार-पत्र का ध्यान जाता। उस समय तो वे एक विद्यार्थी ही थे।

जब वे तीसरी बार 1912 में लंदन गए, तब तक उनकी कविताओं की पहली पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हो चुका था। अत: उनकी ओर ब्रिटेन के समाचार-पत्रों का ध्यान गया। उनकी यह तीसरी ब्रिटेन यात्रा वस्तुतः उनके प्रशंसक एवं मित्र बृजेंद्रनाथ शील के सुझाव एवं अनुरोध पर की गई थी। इस यात्रा के आधार पर पहली बार वहाँ के प्रमुख समाचार-पत्र 'द टाइम्स' में उनके सम्मान में दी गई एक पार्टी का समाचार छपा। इसमें ब्रिटेन के कई प्रमुख साहित्यकार यथा डब्ल्यू.पी. यीट्स, एच.जी. वेल्स, जे.डी. एंडरसन और डब्ल्यू. रोथनस्टाइन आदि उपस्थित थे।

इसके कुछ दिन बाद 'द टाइम्स' में ही उनके काव्य की प्रशंसा में तीन पैराग्राफ लंबा एक समाचार भी छपा और फिर उनकी मृत्यु के समय तक ब्रिटेन के समाचार-पत्रों में उनके जीवन और कृतित्व के संबंध में कुछ-न- कुछ बराबर ही छपता रहा। परंपरागत रूप से भारत विरोधी समाचार-पत्र उनके संबंध में चुप्पी ही लगाए रहे, पर निष्पक्ष और भारत के प्रति सहानुभूति रखनेवाले समाचार-पत्रों ने बड़ी उदारता से उनके संबंध में समाचार, लेख आदि प्रकाशित किए। ब्रिटेन के कट्टर रूढ़िवादी कंजरवेटिव समाचार-पत्र 'डेली टेलीग्राफ' ने उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना तक प्रकाशित करना उचित नहीं समझा। जबकि उस दिन के अन्य सभी समाचार-पत्रों में इस सूचना के साथ ही पुरस्कृत कृति 'गीतांजलि' के संबंध में वहाँ के समीक्षकों की सम्मति भी प्रकाशित हुई।

'गीतांजलि' का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होने के एक सप्ताह के अंदर लंदन से प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध साप्ताहिक 'टाइम्स लिटरेरी', 'सप्लीमेंट' में उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई थी और बाद में आगामी तीन महीने के अंदर तीन समाचार-पत्रों में भी उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई। रवींद्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने के संबंध में ब्रिटिश समाचार-पत्रों में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई। इस संबंध में 'द टाइम्स' ने लिखा था कि 'स्वीडिश अकादमी' के इस अप्रत्याशित निर्णय पर कुछ समाचार-पत्रों में आश्चर्य प्रकट किया गया है, पर इस पत्र के स्टॉकहोम स्थित संवाददाता ने अपने डिस्पैच में लिखा था कि स्वीडन के प्रमुख कवियों और लेखकों ने स्वीडिश कमेटी के सदस्यों की हैसियत से नोबेल कमेटी के इस निर्णय पर पूर्ण संतोष व्यक्त किया है। इस संबंध में ब्रिटेन के प्रतिष्ठित समाचार-पत्र 'मैनचेस्टर गार्जियन' ने लिखा था कि रवींद्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना पर कुछ लोगों को आश्चर्य अवश्य हुआ, पर असंतोष नहीं। टैगोर एक प्रतिभाशाली कवि हैं। बाद में 'द केटसेंट मून' की समीक्षा करते हुए एक समाचार-पत्र ने लिखा था कि इस बंगाली (रवींद्रनाथ टैगोर) का अंग्रेजी
भाषा पर जैसा अधिकार है, वैसा बहुत कम अंग्रेजों का होता है।

जलियाँवाला कांड की निंदा

1919 में हुए जलियाँवाला कांड की जब रवींद्रनाथ टैगोर ने निंदा की तो ब्रिटिश समाचार-पत्रों का रुख अचानक बदल गया। टैगोर ने जलियाँवाला कांड के विरोधस्वरूप अपना 'सर' का खिताब लौटाते हुए वायसराय को जो पत्र लिखा, वह भी ब्रिटिश समाचार-पत्रों ने छापना उचित नहीं समझा, पर लॉर्ड मांटेग्यू ने पार्लियामेंट में जब घोषणा की कि 'सर रवींद्रनाथ को दिया गया खिताब वापस नहीं लिया गया है ' तो यह समाचार ब्रिटिश समाचार-पत्रों में अवश्य छपा। डेली टेलीग्राफ' ने तो व्यंग्यपूर्वक यह भी लिखा कि रवींद्रनाथ टैगोर के अंग्रेजी प्रकाशक मैकमिलन्स उनके नाम के साथ अभी भी 'सर' छाप रहे हैं।

नोबेल पुरस्कार

टैगोर के 'गीतांजलि' समेत बाँगला काव्य-संग्रहों से ली गई कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद के इसी शीर्षक के संकलन की डब्ल्यू.बी. यीट्स और आंद्रे जीद ने प्रशंसा की और इसके लिए टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

मृत्यु

इस महान् साहित्यकार की मृत्यु 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में हुई थी।

महान् रचनाकार

बीसवीं सदी की अंग्रेजी कविता के सशक्त हस्ताक्षर डब्ल्यू.बी. यीट्स ने रवींद्रनाथ की श्रेष्ठतम गद्यकृति 'जीवन-स्मृति' को माना है। 'जीवन-
स्मृति' रवींद्रनाथ के संपूर्ण जीवन को लिपिबद्ध नहीं करती, लेकिन रवींद्रनाथ कवि कैसे बने, जीवन-स्मृति को पढ़ने से इसका आभास निश्चित रूप से होता है।

हम यीट्स के कथन को और आगे ले चलें। रवींद्रनाथ के संस्मरण से महत्त्वपूर्ण उनका जीवन है। एक आभिजात्य परिवार के उत्तराधिकारी को इतने सारे उतार-चढ़ाव के बीच से होकर गुजरना पड़ता है, रवींद्रनाथ को भी गुजरना पड़ा। चूँकि वे नए सामाजिक मूल्यों को गढ़ने लगे थे, इसलिए हर क्षेत्र–चाहे भाषा हो या संस्कृति, समाज हो या सार्वजनिक आचरण, संगीत  का व्याकरण हो या नाटक प्रस्तुत करने का ढंग, उन्हें यथास्थिति की ताकतों से जूझना पड़ा। यह लड़ाई रवींद्रनाथ ने चाव के साथ लड़ी। जुझारूपन रवींद्रनाथ को अपने परिवार से विरासत में मिला। चाहे स्त्री-स्वतंत्रता हो या धार्मिक कठमुल्लापन, रवींद्रनाथ का परिवार हर मोरचे की लड़ाई में सबसे आगे था।

रवींद्रनाथ से पहले भी बंगाल समाज को सुधारने की, उसे पिछड़ेपन से मुक्ति दिलाने की कोशिशें शुरू हुई, लेकिन समाज-सुधारकों का, सुसंस्कृत पुरुषों का बुरा हाल हुआ। सतीदाह प्रथा को रद्द करवाने में राजा राममोहन राय ने अग्रणी भूमिका निभाई। कलकत्ता के ब्राह्मण लंबे समय तक उनके घर के सामने मल-मूत्र से भरे भाँड़ फेंकते रहे। चूँकि उन्होंने विधवाओं की शादी करवाने की हिम्मत दिखाई थी, इसलिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर को कलकत्ता से खदेड़कर करमाटाड़ भेज दिया गया। करमाटाड़ की वादियों में संथालों के बीच आखिरकार उन्हें सुकून मिला। रवींद्रनाथ के पूर्वजों की स्थिति भी यही होती, चूँकि वे धनी, साधनसंपन्न और आत्मनिर्भर थे, इसलिए इस स्थिति में
जाने से बच गए। वे बड़े व्यवसायी थे। चाहे जहाजरानी हो या खनन का काम-हर क्षेत्र में अंग्रेजों से प्रतिस्पर्धा करना उनकी आदत सी थी। शायद यहीं से साम्राज्यवाद विरोध रवींद्रनाथ की रगों में आ समाया। 

जलियाँवाला बाग नरसंहार के विरोध में 'सर' की उपाधि त्याग देना इसकी एक छोटी सी अभिव्यक्ति थी, लेकिन साम्राज्यवाद-विरोधी होते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन की खामियाँ उनकी नजरों से ओझल नहीं थीं। सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन में तरह-तरह की खामियाँ आ गई थीं। रवींद्रनाथ ने इन खामियों से अपना विरोध सफाई से बयां किया। 'चार अध्याय' उपन्यास में प्रेमी युगल एला और यतीन को नेता का विरोध करने के जुर्म में अपनी जान गंवानी पड़ी।

उसी तरह 'घरे-बाइरे' उपन्यास में स्वदेशी आंदोलन के नाम पर चंदाखोरी करने वालों का बारीक चित्रण किया गया। रवींद्रनाथ की मान्यता थी कि क्रांतिकारी दर्शन कोई दूँठ वृक्ष नहीं है। उसमें जीवन के फूल की पत्तियाँ खिलनी चाहिए, उसमें ईमानदारी की हरियाली होनी चाहिए।शिक्षा, राजनीति, प्रशासन जैसे हर क्षेत्र में रवींद्रनाथ ने जीवंतता को प्रमुख माना, बदलाव को अहमियत दी। शांति-निकेतन के माध्यम से रवींद्रनाथ ने शिक्षाशास्त्रियों को यह संदेश दिया कि 'शिक्षा को डरावनी चीज मत
बनाओ।
' शांति-निकेतन के माध्यम से भारत तथा बंगाल के नवयुवकों को यह संदेश दिया कि 'ग्रामीण उद्योगों की संभावनाओं पर गौर करो।' इसके अलावा कविता, कहानी, उपन्यास और निबंध लिखने के साथ-साथ उन्होंने ढाई हजार गीत लिखे, उनमें सुर आरोपित किए। इनके द्वारा किए गए इस महान् काम ने बंगाली मानसिकता को बालिग बनाया, बाँगला सौंदर्यशास्त्र को ऐसा विशाल आयतन प्रदान किया, जो कभी संकुचित होने वाला नहीं है।

रवींद्रनाथ आज से करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले पैदा हुए थे। तब से लेकर आज के बीच बहुत बड़ा फासला है। मनुष्य का सोचने का तरीका, उसके काम करने का ढंग-सबकुछ बदल गया, लेकिन रवींद्रनाथ की प्रासंगिकता आज भी जस की तस बनी हुई है। शेक्सपीयर और तुलसीदास को छोड़कर यह सौभाग्य किसी और रचनाकार को नहीं प्राप्त हुआ है।

रवींद्रनाथ ने सृजनशीलता को जारी रखने के लिए तकलीफें सहीं, कुरबानियाँ दीं। उन्हें हर प्रकार के दुःख झेलने पड़े। माँ, पत्नी, बच्चों का
असामयिक निधन- एक बेटा और एक बेटी को छोड़कर- सामाजिक प्रताड़ना- अपने मुक्तचिंतन के कारण इस सबकुछ के बीच उन्होंने अपनी सृजनशीलता को जगाए रखा। उनका यह त्याग, हम सभी पर ऐसा ऋण है, जिससे हम कभी मुक्त नहीं हो सकेंगे।



रबीन्द्रनाथ टैगोर  की प्रारंभिक रचनाएँ 

 प्रारम्भिक रचनाओं में ' बनफूल ' तथा ' कवि - काहिनी ' ( 1871 ) उल्लेखनीय हैं । उनके काव्य की मूलधारा की शुरुआत ' सन्ध्या संगीत ' ( 1882 ) से होती है । रबीन्द्रनाथ टैगोर  ने यह अवश्य कहा कि वे ' जन्म रोमांटिक ' हैं , परन्तु उन्होंने यह कहना कभी नहीं भूला कि वे इस पृथ्वी को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहते । वे बाकी सबके साथ ही जीना चाहते हैं । 

मरिते चाहिना आमि सुन्दर भुवने ,

मानवेर माझे आदि बांचिबारे चाइ । 

' कड़ि और कोमल ' ( 1886 ) , ' प्रभात संगीत ' ( 1883 ) , ' छबि ओगान '( 1884 ) , ' मानसी ' ( 1890 ) में उनकी प्रारम्भिक कवि - दृष्टि का क्रम - विकास स्पष्ट है । 

' सोनार तरी ' ( 1894 ) काव्य - ग्रन्थ में विश्व - जीवन की आनन्द चेतना का पहला स्वर फूटता है । ' चित्रा ' ( 1896 ) में यह परिणति प्राप्त करती है । इसी समय ' नैवेद्य ' ( 1901 ) काव्य संग्रह में भक्ति के लिए कवि की व्याकुलता प्रकट हुई । यह व्याकुलता ' गीतांजलि ' ( 1910 ) में अनाविल भक्तिरस से अभिषिक्त हो उठती है । 

 काव्य - संग्रह

इसी बीच सन् 1916 में उनका ' बलाका ' काव्य - संग्रह प्रकाशित हुआ । भावैश्वर्य और शिल्पनैपुण्य से परिपुष्ट इस काव्य - संग्रह में विश्व के विवर्तन अथवा गति की रहस्यकथा प्रकट हुई है ।

 इसके उपरान्त प्रकाशित काव्य - ग्रन्थों में ' पलातका ' ( 1918 ) , ' पूरबी ' ( 1925 ) , ' प्रवाहिनी ' ( 1925 ) , ' शिशु भोलानाथ ' ( 1932 ) , ' महुआ ' ( 1929 ) , ' वनवाणी ' ( 1931 ) , ' परिशेष ' ( 1932 ) , ' पुनश्च ' ( 1932 ) , ' वीथिका ' ( 1934 ) , ' पत्रपुट ' ( 1936 ) आदि उल्लेखनीय हैं । ' पूरबी ' ( 1925 ) में जीवन की अपराहन - बेला में जो शेष रागिणी बज उठी थी ' आरोग्य ' ( 1941 ) तथा ' शेषलेखा ' ( 1941 ) में मृत्यु के पदशब्द के साथ उसी की आवाज हमें सुनाई पड़ती है । 

मृत्युपथ यात्री की विचित्र अभिज्ञता से युक्त ये कविताएं संसार की श्रेष्ठ कविताओं में हैं । अवसन्न चेतना की गोधुलि - बेला में कालिन्दी के काले स्रोत में कवि अपनी देह को अपनी अनुभूतियों तथा विचित्र - वेदना के साथ बहते देखता है । 

इसी विचित्र वेदना के भीतर ही उनकी प्रार्थना वाणी उच्चारित हुई है । मानो जीवन - मृत्यु के सन्धि - क्षण में खड़े कवि अपने जीवन की चरम उपलब्धि - सीमा के साथ असीम की एकात्मा को मूल नहीं पाए हैं : 

हे पूषन , तुमने अपनी किरणें समेट ली थीं । अब उसको फिर से फैलाओ , जिससे मैं तुम्हारे कल्याणतम रूप को देख सकूँ और एक ब्रह्म की उपलब्धि कर सकूँ ।

 पद्य की तरह गद्य की भी रचना रवीन्द्रनाथ ने बचपन से ही शुरू कर दी थी । उनके निबन्ध उनके शिल्पकार्य के ही उदाहरण हैं , जिनमें विचारों की गम्भीरता के साथ भावावेग की दीप्ति भी स्पष्ट है । उनका श्रेष्ठ गद्य - ग्रन्थ जीवनस्मृति ' ( 1912-13 ) है । यह इतिहास नहीं स्मृति के पट पर कवि के द्वारा अंकित जीवन के कुछ चित्र हैं ।

रबीन्द्रनाथ टैगोर श्रेष्ठ कहानियाँ की 

 सन् 1888 में रवीन्द्रनाथ ने आधुनिक बंगला साहित्य में छोटी कहानी की सृष्टि करके एक नई महत्त्वपूर्ण विधा को प्रतिष्ठित किया रबीन्द्रनाथ  ठाकुर बांग्ला साहित्य में कहानियों के प्रेणता माने जाते है और समालोचक इनकी कहानियां को अमर और कीर्ति देनेवाली बताते है। कुछ प्रमुख कहानियां इस प्रकार है -

काबुलीवाला
पोस्टमास्टर
लल्ला बाबू की वापसी
दृष्टिदान 
देन-लेन 
दुलहिन 
व्यवधान 
स्वर्ण मृग 
अतिथि 

उपन्यास

सन् 1884 में उनका पहला उपन्यास ' करुणा ' प्रकाशित हुआ । रवीन्द्रनाथ के प्रसिद्ध उपन्यासों में चोखेर बाली ' ( 1903 ) , ' नौका डूबी ' ( 1906 ) , ' गोरा ' ( 1909 ) आदि उल्लेखनीय हैं ।

नाटक 

नाटक के क्षेत्र में ' बाल्मीकि प्रतिभा ' ( 1881 ) , ' मायेर खेला ' ( 1888 ) उनके प्रारम्भिक गीति - नाट्य हैं । स्वर के धागे में हृदयावेग को पिरो देना ही इन नाटकों का उद्देश्य रहा है । राजा ओ रानी ' ( 1889 ) , विसर्जन ' , ( 1890 ) तथा ' चित्रागंदा ' ( 1892 ) में उनकी नाट्य - प्रतिभा अपनी पूरी शक्ति के साथ प्रकट हुई है । 

उनका सांकेतिक नाटक ' रक्तकरबी ' ( 1926 ) उनकी श्रेष्ठ कृतियों में एक है । काव्य , स्वर , नाट्य तथा नृत्य के चतुरंग प्रवाह से युक्त उनके नृत्य नाटक ' नटीर पूजा ' ( 1926 ) , ' श्यामा ' ( 1939 ) आदि उनकी बहुमुखी प्रतिभा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं ।

 मानव जीवन में ऋतु - क्रम का प्रभाव तथा प्रतिक्रिया दिखाने के लिए उन्होंने ' शारदोत्सव ' ( 1908 ) , ' राजा ' ( 1910 ) , ' अचलायतन ' ( 1912 ) , ' फाल्गुनी ' ( 1916 ) आदि नाटक लिखे । जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने चित्र बनाना शुरू किया । इनमें युग का संशय , मोह , क्लान्ति , निराशा का स्वर आदिम भावावेग के साथ प्रकट हुआ । परन्तु यह उनके जीवन की अन्तिम बात नहीं थी ।

 नए युग के नए जीवन - बोध को उन्होंने सहर्ष ग्रहण किया , किन्तु क्षणकाल के लिए भी उनका मन संशयान्वित नहीं हुआ ।

 काव्य - रचना के पहले दिन से अन्तिम दिन तक परिचित उपनिषद् का मन्त्र ही उनका पाथेय बना रहा , इसीलिए तो आधुनिक युगबोध की बात करनेवालों के सम्मुख उन्होंने निःसंकोच होकर कहा , ' मैंने जीर्ण जगत में जन्म ग्रहण नहीं किया । 

हालांकि नए का आह्वान करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया । 

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