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 मानव जीनोम परियोजना | Human Genome Project-HGP


( (Human Genome Project-HGP)

किसी जीव के DNA में मिलने वाले क्षारों (एडिनीन, थायमीन, साइटोसीन और गुआनिन) का अनुक्रम ही उसकी आनुवंशिक सूचना का
निर्धारण करता है। मानव जीनोम में ये क्षार युग्म में होते हैं। मानव जीनोम परियोजना की औपचारिक शुरुआत 1990 में अमेरिकी ऊर्जा विभाग (US Department of Energy) तथा अमेरिकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान (US National Institutes of Health) के द्वारा हुई। इस
परियोजना के प्रारंभ होने के समय इसके पूर्ण होने की संभावित अवधि 15 वर्ष रखी गई थी, लेकिन यह दो वर्ष पूर्व 2003 में ही पूर्ण हो गई।
इस जीनोम परियोजना को HGP-READ कहा जाता था। उल्लेखनीय है कि आरंभ में ब्रिटेन की इस परियोजना में भागीदारी थी, लेकिन बाद में जापान, फ्रांस, जर्मनी और चीन ने इसमें सहयोग प्रदान किया।
इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक कोशिका के गुणसूत्र में मौजूद डी.एन.ए. के क्षार अनुक्रमों का पता लगाना था। इससे डी.एन.ए.
की संरचना, संगठन तथा प्रकार्य को आसानी से समझा जा सकेगा जिसका उपयोग बुढ़ापे पर अंकुश लगाने, मनचाहे गुणों वाले बच्चे को जन्म देने, शिशु के जन्म से पूर्व ही उसे जीन दोष से होने वाले रोगों से मुक्त करने, जैविक अंतःक्रिया के स्वरूपों और उद्विकास (Evolution) का क्रमबद्ध विश्लेषण करने, तुलनात्मक जैविक अध्ययन करने, रोग पहचान की क्षमता में सुधार करने और जीन संबंधित बीमारियों की अतिशीघ्र पहचान करने आदि में हो सकेगा।
मानव जीनोम परियोजना में इस तथ्य को स्वीकार लिया गया है कि मानव गुणों के निर्माण में केवल जीन (Gene) ही नहीं, वरन् वातावरण
व परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण होती हैं। इस परियोजना में यह तथ्य भी उभरा कि वास्तविक जीनों की संख्या (30000) अनुमानित जीनों की
संख्या (80000) से कम है। इसका वैज्ञानिक निहितार्थ यह है कि मानव शरीर में कई जीन ऐसे हैं जो एक से अधिक प्रोटीनों के निर्माण में
सहायक हैं। प्रयोग में यह पाया गया कि DNA का मात्र 3-5% भाग ही उपयोगी है, शेष जंक DNA हैं क्योंकि इन पर नगण्य सूचनाएँ अंकित
होती हैं। क्रोमोजोम्स संख्या 17, 19 और 22 सबसे अधिक सूचनाप्रद प्राप्त हुई।
मानव जीनोम परियोजना को अगर सामाजिक और नैतिक समस्या के रूप में देखें तो हम कह सकते हैं कि सभी लोग वांछित गुणों वाले
बच्चों को ही प्राप्त करना चाहेंगे, जिससे 'डिज़ायनर बेबी' की संकल्पना चरितार्थ होगी; यह प्राकृतिक चयन में हस्तक्षेप होगा। जीन को डिकोड करने से किसी भी व्यक्ति की अति व्यक्तिगत जानकारी भी हासिल की जा सकेगी, जिसके आधार पर कई क्षेत्रों में उसके साथ भेदभाव किया जा सकता है, जो एक नई समस्या को जन्म देगा। ऐसे जैव हथियार तैयार किये जा सकेंगे जो किसी विशेष प्रजाति या नस्ल को ही प्रभावित करे, जिससे नस्लवादिता को भी बढ़ावा मिल सकता है।

मानव जीनोम परियोजना-राइट
(Human Genome Project-Write)

2 जून, 2016 को अमेरिका में अनेक शैक्षणिक संस्थानों के वैज्ञानिकों ने साइंस पत्रिका में एक परिप्रेक्ष्य के रूप में एक परिप्रेक्ष्य के रूप में दूसरे मानव जीनोम परियोजना का प्रस्ताव प्रकाशित किया जिसे मानव जीनोम परियोजना- राइट (HGP-WRITE) कहा गया है। परियोजना को ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट-राइट इसलिये नाम दिया गया क्योंकि संश्लेषण आनुवंशिक कोड को पढ़ने के बजाय लिखने के बारे में होगा।
यह एक खुली, अकादमिक, अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक अनुसंधान परियोजना होगी जिसका संचालन बहु-विषयक वैज्ञानिकों द्वारा किया जाएगा। यह 10 वर्षों के भीतर इंजीनियरिंग और कोशिका रेखाओं (Cel Lines) में बड़े जीनोम के परीक्षण, जिसमें मानव जीनोम भी सम्मिलित
है, की लागत में कमी लाएगी। HGP-WRITE का लक्ष्य HGP-READ द्वारा प्रदान किये गए ब्लूप्रिंट के बारे में हमारी समझ को आगे ले जाना है।

भारत के संदर्भ में

भारत को मानव जीनोम परियोजना-राइट की क्षमता का लाभ मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी बीमारियों के लिये नए समाधान
उपलब्ध कराने में है। इन घातक बीमारियों का मुकाबला करने के खिलाफ रणनीतियों में से एक है- वातावरण में बाँझ मच्छरों (Sterile Mosquitoes) को छोड़ना, जो अपने जंगली प्रकार के साथियों के साथ संसर्ग (Mating) के बाद संतानों को उत्पन्न करने में असमर्थ होंगे और/या मच्छरों में रोगजनक प्रतिरोध (Pathogen Resistance) का निर्माण करना, दोनों जीनोम इंजीनियरिंग के द्वारा संभव हो सकता है। एचजीपी-राइट के माध्यम से उत्पन्न उपकरण सिंथेटिक वेक्टर जीनोम को परजीवी और/या वायरस के होस्टिंग के लिये अक्षम बनाकर इस प्रक्रिया में सहायता कर सकता है।

चिंताएँ-नैतिकता से लेकर वैज्ञानिक तक

समाज के एक वर्ग के बीच वास्तविक आशंका है कि नए जीनोम का संश्लेषण कर मानव प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर सकता है। इसका
दुरुपयोग कर नए जीवन को बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिये बाँझ व आनुवंशिक रूप से फिर से विकसित मच्छर पारिस्थितिक निकेत (Ecological Niche) में असंतुलन पैदा कर सकते हैं और कीड़ों की पूरी आबादी का सफाया कर सकते हैं। जंगलों में मॉडिफायड मच्छरों को छोड़ने से गैर-लक्षित प्रजातियों में भी इसका जीन हस्तांतरित हो सकता है जो कि इसका नकारात्मक प्रभाव है। इसके नियंत्रण के लिये मजबूत डिजाइन और उच्च रोकथाम स्तर का फील्ड ट्रायल आवश्यक है। सही कदम मच्छरों की आबादी को समाप्त करना नहीं हो सकता लेकिन मच्छरों को या तो हानिरहित या घातक रोगजनकों के लिये अलाभकारी होस्ट बनाना हो सकता है।

जैव सूचना विज्ञान (Bioinformatics)

बायोलॉजी और सूचना प्रौद्योगिकी के समन्वय से एक नए अध्ययन क्षेत्र के रूप में बायोइंफॉर्मेटिक्स का विकास हुआ है। बायोजैव सूचना
विज्ञान या बायोइंफॉर्मेटिक्स जीव विज्ञान की एक शाखा है जिसके अंतर्गत जैव सूचना का अर्जन, भंडारण, विश्लेषण, वितरण, व्याख्या
आदि के कार्य आते हैं। इस कार्य में जीव विज्ञान, सूचना तकनीक तथा गणित की तकनीकें उपयोग में लाई जाती हैं। इसमें कंप्यूटर व
उपयुक्त बायोइंफॉर्मेटिक्स सॉफ्टवेयर की मदद से डाटा का विश्लेषण कर वांछित परिणाम सुलभता से प्राप्त किया जा सकता है।
परंतु जैसा कि हम जानते हैं मानव जीन पूल में क्षार अनुक्रमों की संख्या अत्यधिक (लगभग 3 बिलियन) है। ऐसे में इतनी बड़ी संख्या के क्षार अनुक्रमों का विश्लेषण करना एक कठिन कार्य है।
इसी कार्य को सुगमता से संपन्न कराने में बायोइंफॉर्मेटिक्स की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। बायोइंफॉर्मेटिक्स की मदद से शोधकर्ता जीन
की पहचान कर बड़ी आसानी से डी.एन.ए, क्षार अनुक्रमों का विश्लेषण करने में सक्षम हुए। मानव जीनोम परियोजना के प्रारंभ में क्षार अनुक्रमों के विश्लेषण की गति काफी धीमी थी और खर्च भी अधिक था, वहीं आगे बायोइंफॉर्मेटिक्स के प्रयोग से यह गति काफी तीव्र हो गई। जहाँ पहले एक बिलियन क्षार अनुक्रमों के विश्लेषण में चार वर्ष लगे, वहीं अगले एक बिलियन क्षार अनुक्रमों के विश्लेषण में मात्र चार माह लगे। इसी प्रकार परियोजना के आरंभ में एक क्षार युग्म के अनुक्रमण में जहाँ 10 डॉलर का खर्च था, वहीं परियोजना का अंत आते-आते मात्र 10 सेंट रह गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव जीनोम परियोजना व जैव सूचना विज्ञान एक-दूसरे से गहरे स्तर पर संबंधित रहे हैं। जैव सूचना विज्ञान या बायोइंफॉर्मेटिक्स ने जैविकी के क्षेत्र में शोध करने के तरीके को ही बदल दिया है। प्रयोगात्मक उपमार्ग के
बजाय अब किसी भी शोध का प्रारंभ कंप्यूटर पर उपलब्ध डाटा बेसेज़ के उपयुक्त सॉफ्टवेयर द्वारा तलाश एवं तुलना से होता है। किसी
शोधकर्ता/वैज्ञानिक द्वारा एक जीन के क्षार अनुक्रम को प्राप्त कर लेने के पश्चात् उसकी किसी डेटा बेस पर पहले से विद्यमान किसी अनुक्रम
से तुलना की जा सकती है। दोनों अनुक्रमों में कितनी समानता है, इस आधार पर नए जीन की कार्यशैली या उत्पत्ति पर प्रकाश डाला
जा सकता है। इससे कई लाभ प्राप्त होने की संभावना है, जैसे-
>> किसी जानलेवा बीमारी के लिये उत्तरदायी जीन समूह का पता लगाना
>> औषधि निर्माण के लिये लक्ष्य निर्धारित करना; 
>> एक उपयुक्त औषधि को उसके वैध प्राप्तकर्ता तक आसानी तथा शीघ्रता से पहुँचाना आदि।
आनुवंशिक डाटा उन शोधकर्ताओं के लिये एक खजाने के समान है जो यह जानने के जिज्ञासु हैं कि जीन किस प्रकार हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। मानव जीनोम परियोजना के द्वारा खोजे गए आधे जीन का कार्य अभी तक स्पष्ट नहीं है। ऐसे में बायोइंफॉर्मेटिक्स का महत्त्व जीन की पहचान करने, कार्य निर्धारित करने तथा जीन आधारित रोगों की पहचान, रोकथाम व इलाज में काफी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बायोइंफॉर्मेटिक्स के द्वारा न केवल जीवों, वनस्पतियों के बारे में जानकारी प्राप्त करना सहज हुआ है, बल्कि कृषि उत्पादकता तथा
जैव संरक्षण संबंधी उपायों का विकास भी संभव हुआ

मानव जीनोम एडिटिंग (Human Genome Editing)

>>  जीनोम किसी प्राणी की जननिक संरचना है- उसके डी.एन.ए, का पूर्ण समुच्चय है, जो एक रासायनिक यौगिक है जिसमें किसी प्राणी
के कार्य करने के लिये आवश्यक पूरी सूचना रहती है।
>> डी.एन.ए. का प्रत्येक अणु दो तंतुओं से मिलकर बना होता है जो एक-दूसरे के चारों ओर लिपटे रहते हैं। प्रत्येक तंतु A,T, G,C (एडिनीन, थाइमीन, गुआनिन और साइटोसीन) नामक चार 'न्यूक्लियोटाइड क्षारों' से मिलकर बनता है। 
>>मानव जीनोम में क्षारों के ऐसे तीन मिलियन युग्म होते हैं जो प्रत्येक कोशिका के केंद्रक में गुणसूत्रों के 23 युग्मों (कुल 46) में रहते हैं।
>> वर्ष 1990 और 2003 के बीच मानव जीनोम परियोजना नामक एक अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान परियोजना द्वारा इन सभी 23 गुणसूत्र युग्मों का अनुक्रम निर्धारित किया गया था।
>> 'जीनोम एडिटिंग' किसी प्राणी की जीनोम संरचना में परिवर्तन करने के लिये डी.एन.ए. के क्षार युग्मों को जोड़ना, हटाना और प्रतिस्थापित करना है।

जीनोम एडिटिंग के लिये उपलब्ध तकनीकें

>> कलस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पेलिंड्रोमिक रिपीट्स (CRISPR)- सीएएस 9 नामक तकनीक ने जीनोम एडिटिंग को एक नया आयाम प्रदान किया है।
>> यह पूर्ववर्ती तकनीकों के मुकाबले अधिक तेज़, सस्ती और सटीक तकनीक है जो जनन कोशिका में डी.एन.ए. के अनुक्रम को सटीकता
से निर्धारित कर सकती है, एडिट कर सकती है और प्रतिस्थापित कर सकती है।
>> यह तकनीक आनुवंशिक रोगों, जैसे- सिकल सेल, थैलीसीमिया, एचआईवी, कैंसर और हनटिंग्टन रोग को बच्चों में जाने से रोक
सकती है।
>> एक अन्य लोकप्रिय विधि सोमैटिक सेल जीन थेरेपी (SCGT) है। इस तकनीक में कोशिकाओं के एक समूह को लक्षित किया जाता
है जिसका उपयोग एकल जीन विकारों वाले रोगों, जैसे-थैलीसीमिया और हीमोफीलिया के उपचार में किया जा सकता है।  

संभावित ख़तरे

>> इस उपचार के आलोचकों का कहना है कि यह नैतिकता की दृष्टि से एक खतरनाक कदम है जिससे आनुवंशिकीय रूप से वर्द्धित
'डिजाइनर बेबीज' अर्थात् 'वांछित' जेनेटिक लक्षणों की इंजीनियरिंग को बढ़ावा मिलेगा।
>> जर्मलाइन एडिटिंग में माता-पिता से बच्चों में जाने वाले जीनों या लक्षणों पर फोकस किया जाता है, इसलिये इसके द्वारा अलक्षित
(Non-Targated) जीनों को प्रभावित करने का भी जोखिम है।
>> इसमें स्थायी परिवर्तन होने का जोखिम है जो आगामी पीढियों में अंतरित हो सकता है।
>> ज्ञात रोगों से शरीर को मुक्ति दिलाने के अलावा CRISPR द्वारा जीनों में किया जाने वाला फेरबदल कुछ ऐसे जीनों के प्रकटन को
बढ़ा सकता है, यह एक प्रकार से गर्भ-स्तर पर ही डोपिंग का मामला होगा।
>> CRISPR तकनीक के संबंध में बौद्धिक संपदा अधिकारों के अंतर्गत पेटेंट के मामले में पहले ही विवाद चल रहे हैं। इसका मतलब यह
है कि वाणिज्यिक हित पहले ही इतने अधिक हैं कि जीन एडिटिंग को एक उत्पाद के रूप में पेश किये जाने के लिये कानून बनाने और वाणिज्यिक हितों के लिये लॉबिंग करने का काफी प्रयास किया जा रहा है।

भारत का दृष्टिकोण

>> अन्य देशों के मुकाबले भारत में नैतिक सरोकार ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि धनी लोगों द्वारा इस तकनीक का
उपयोग वांछित लक्षणों से युक्त बच्चा पैदा करने के लिये किया जा सकता है।
>> जीन एडिटिंग का उपयोग प्रसव-पूर्व परीक्षण, भ्रूण प्रबंधन और आईवीएफ में किया जा सकता है।
>> बालकों को वरीयता देने जैसी सामाजिक बाधाओं का सामना कर रहे विकासशील और अविकसित देशों को जीन एडिटिंग के क्षेत्र में
सावधानीपूर्वक आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।

नोट: अतीत को देखें तो 'आईवीएफ' से लेकर 'थ्री पैरेंट बेबी' टेक्नोलॉजी तक प्रजनन से जुड़ी कोई भी नई तकनीक विवादों में घिरने
के बाद आखिरकार बनी रही। जब यह साबित हो जाए कि जीन एडिटिंग तकनीक का इस्तेमाल सुरक्षित है और इससे कई वंशानुगत
बीमारियाँ रोकी जा सकती हैं, खासकर वे जिनके लिये दूसरा कोई इलाज नहीं है, तो इसकी इजाजत दे दी जानी चाहिये।
>> ध्यातव्य है कि फरवरी 2017 में यूएस नेशनल एकेडमीज ऑफ साइंसेज, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन ने वैज्ञानिकों को इस तकनीक के इस्तेमाल की इजाजत दी थी ओर कहा था कि एक दिन यह इलाज के लिये स्वीकार्य होगी। लेकिन इसके लिये पहले गहन शोध ज़रूरी है जो कई जगहों पर हो ताकि सुरक्षा और नैतिकता से जुड़ी हर बहस पर विराम लग जाए।

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