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 bihar board 12th class sociology बाजार एक सामाजिक संस्था के रूप में

bihar board 12th class sociology

bihar board 12th class sociology notes

बाजार एक सामाजिक संस्था के रूप में

(The Market as a Social Institution)

स्मरणीय तथ्य

*बाजार (Market) : वस्तुओं के क्रय-विक्रय का स्थान

*लेस ए फेयर (Laissiz fair) : यह फ्रांसीसी भाषा का संग्रह है  इसका अर्थ है खुला व्यापार।

*खेतिहर (Peasants) : कृषि करने वाले लोग, किसान।

*पशु बाजार (Market Cattle) : यह आवधिक बाजार है और यहाँ पालतू पशु, गाय, भैंस,

घोड़ा, भेड़-बकरी, हाथी-ऊँट आदि विक्रय के लिए उपलब्ध होते हैं।

(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न

        (Objective Questions) . 

  1. बाजार किस चीज का केन्द्र है ?

[M.Q.2009A]

(क) विनिमय

(ख) खपत

(ग) वितरण

(घ) उपर्युक्त सभी

उत्तर–(घ)

  1. “दो पक्षों के मध्य होनेवाले ऐच्छिक, वैधानिक एवं पारस्परिक धन के हस्तांतरण को

विनिमय कहते हैं।” यह किसका कथन है ?

(क) मार्शल

(ख) थॉमस

(ग) स्मिथ

(घ) डॉ० मजूमदार

उत्तर-(क)

  1. “एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमय को ही वस्तु-विनिमय कहते हैं।” यह

कथन किसका है ?

(क) मार्शल

(ख) थॉमस

(ग) एडम स्मिथ

(घ) ब्लेयर

उत्तर–(ख)

  1. घोराई किस राज्य में है?

(क) बिहार

(ख) झारखंड

(ग) मध्य प्रदेश

(घ) छत्तीसगढ़

उत्तर-(घ)

  1. लेस ए फेयर का अर्थ है–

(क) बन्द व्यापार

(ख) खुला व्यापार

(ग) बाजार

(घ) साप्ताहिक हाट .

उत्तर–(ख)

(ख) रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए:

(1) वस्तुओं के क्रय-विक्रय का स्थान …………… कहलाता है।

(2) इतिहासकार उपनिवेशकाल को एक ………….. के रूप में देखते हैं।

(3) मारवाड़ियों का प्रतिनिधित्व …………… परिवार जैसे नामी औद्योगिक घराने से है।

(4) जिसमें क्रेता और विक्रेता बड़ी संख्या में होते हैं …………. कहलाता है।

(5) पुष्कर के सरोवर में स्नान करने से ………… की प्राप्ति होती है।

उत्तर-(1) बाजार, (2) संधिकाल, (3) बिड़ला, (4) पूर्ण बाजार, (5) मोक्ष।

(ग) निम्नलिखित कथनों में सत्य एवं असत्य बताइये :

(1) भारत में आध्यात्म का एक बड़ा बाजार है।

(2) एडम स्मिथ की लिखित पुस्तक का नाम द वेल्थ ऑफ नेशन्स है।

(3) अल्पकालीन बाजार में किसी वस्तु की पूर्ति को उसकी माँगों के अनुसार घटाया या

बढ़ाया जा सकता है।

(4) दीर्घकालीन बाजार के मूल्य को ‘सामान्य-मूल्य’ भी कहते हैं।

(5) अपनी ही जाति और नातेदार में व्यापार-व्यवसाय करना प्रतिष्ठा का प्रतीक है।

उत्तर-(1) सत्य, (2) सत्य, (3) असत्य, (4) सत्य, (5) सत्य।

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर ।

 (Very Short Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. उदाहरणों की सहायत से पण्यीकरण‘ के अर्थ की विवेचना कीजिए।

(NCERTT.B.Q.6)

उत्तर-अति लघु उत्तरात्मक प्रश्न 7 व 8 देखें।

प्रश्न 2. ‘प्रतिष्ठा का प्रतीक’ क्या है ?

(NCERTT.B.Q.7)

उत्तर-अपनी ही जाति और नातेदार में व्यापारी-व्यवसाय करना प्रतिष्ठा का प्रतीक है।

प्रश्न 3. भूमडलीकरण के तहत कौन-कौन सी प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं ? .

(NCERTT.B.Q.8)

उत्तर-भूमंडलीकरण के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं, पूँजी, सामाचार और लोगों का संचलन एवं साथ ही प्रौद्योगिकी (कंप्यूटर, दूरसंचार और परिवहन के क्षेत्र में) और अन्य आधारभूत सुविधाओं का विकास जो इस संचालन को गति प्रदान करते हैं सम्मिलित हैं।

प्रश्न 4. ‘उदारीकरण’ से क्या तात्पर्य है?

(NCERTT.B.Q.9)

उत्तर-‘उदारीकरण’ एक नीति है जिसके अन्तर्गत कई कार्यक्रम शामिल हैं जैसे सरकारी विभागों का निजीकरण, पूँजी, श्रम और व्यापार में सरकारी दखल कम कर देना आदि।

प्रश्न 5. बाजार पर समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण, आर्थिक दृष्टिकोण से किस तरह अलग

(NCERTT.B.Q.2)

उत्तर-बाजार पर समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण में बाजार को एक सामाजिक संस्था माना गया है जिसमें अपने स्वयं के तरीके से बाजार की तुलना जाति, जनजाति या परिवार जैसी स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष सामाजिक संस्थाओं से की जाती है जबकि आर्थिक दृष्टिकोण बाजार में केवल आर्थिक क्रियाओं और संस्थाओं को ही शामिल करता है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

   (Short Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. ‘अदृश्य हाथ‘ का क्या तात्पर्य है ?

(NCERTT.B. Q.1)

उत्तर-आरंभिक दौर के राजनीतिक अर्थशास्त्रियों में एडम स्मिथ सबसे चर्चित थे जिन्होंने अपनी किताब द वेल्थ ऑफ नेशन्स में बाजार अर्थव्यवस्था को समझने का प्रयास किया जो उस वक्त अपने प्रारंभिक दौर में थी। स्मिथ का तर्क था कि बाजारी अर्थव्यवस्था व्यक्तियों में आदान-प्रदान या सौदों का एक लंबा क्रम है, जो अपनी क्रमबद्धता की वजह से खुद-ब-खुद एक कार्यशील और स्थिर व्यवस्था की स्थापना करती है। यह तब भी होता है जब करोड़ों के लेन-देन में शामिल व्यक्तियों में से कोई भी व्यक्ति इसकी स्थापना का इरादा नहीं रखता। प्रत्येक व्यक्ति अपने लाभ को बढ़ाने के विषय में सोचता है और ऐसा करते हुए वह जो भी करता है वह स्वतः ही समाज के या सभी के हित में होता है। इस प्रकार, ऐसा प्रतीत होता है कि कोई एक अदृश्य बल यहाँ काम करता है जो इन व्यक्तियों के लाभ की प्रवृत्ति को समाज के लाभ में बदल देता है। इस बल को स्मिथ ने अदृश्य हाथ की संज्ञा दी है।

प्रश्न 2. बाजार किसे कहते हैं ? बाजार के आवश्यक तत्व बताइए। [B.M. 2009A]

उत्तर-बाजार का अर्थ : अर्थशास्त्र में ‘बाजार’ शब्द से अभिप्राय उस समस्त क्षेत्र से लगाया जाता है, जहाँ किसी वस्तु के क्रेता-विक्रेता आपस में स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा करते हैं। कूनों के शब्दों में : ‘बाजार से तात्पर्य किसी स्थान-विशेष से नहीं होता, जहाँ वस्तुएँ खरीदी और बेची जाती हैं, वरन् उस समस्त क्षेत्र से होता है, जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच ऐसी स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा हो कि किसी वस्तु का मूल्य सहज समान होने की प्रवृत्ति रखता हो।”

बाजार के आवश्यक तत्व : (i) एक क्षेत्र, (ii) क्रेताओं और विक्रेताओं की उपस्थिति, (iii)

एक वस्तु, (iv) स्तवंत्र व पूर्ण प्रतियोगिता तथा (v) वस्तु का एक मूल्य।

प्रश्न 3. अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन बाजार की विशेषताएँ बताइए।

उत्तर-अल्पकालीन बाजार : यह बाजार की वह स्थिति है, जिसमें किसी वस्तु की मांग बढ़ने पर उत्पादक को इतना समय मिल जाता है कि वह उस वस्तु की पूर्ति को एक सीमा तक बढ़ा सकता है। यह सीमा उसके गोदाम की क्षमता होती है। बाजार में मूल्य-निर्धारण पर पूर्ति की अपेक्षा माँग का अधिक प्रभाव पड़ता है। अल्पकालीन बाजार के मूल्य को ‘बाजार मूल्य’ भी कहते हैं।

दीर्घकालीन बाजार : यह बाजार की वह स्थिति है, जिसमें वस्तु की पूर्ति को उसकी माँगों के अनुसार घटाया या बढ़ाया जा सकता है। ऐसी दशा में माँग और पूर्ति में पूर्ण साम्य स्थापित किया जा सकता है। यही कारण है कि दीर्घकालीन बाजार में वस्तु के मूल्य-निर्धारण में मांग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है। दीर्घकालीन बाजार के मूल्य को ‘सामान्य मूल्य’ भी कहते हैं।

प्रश्न 4. पूर्ण एवं अपूर्ण बाजार की विशेषताएँ बताइए।

उत्तर-पूर्ण बाजार : पूर्ण बाजार वह है, जिसमें क्रेता और विक्रेता बड़ी संख्या में होते हैं, उन्हें बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है, तथा उनमें पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है। इसके कारण वस्तु का मूल्य एक ही रहता है। यह एक काल्पनिक बाजार होता है तथा व्यवहार में नहीं पाया जाता। ___ अपूर्ण बाजार : अपूर्ण बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता का अभाव पाया जाता है, विक्रेताओं की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है, उन्हें बाजार का पूर्ण ज्ञान नहीं होता तथा बाजार में वस्तु-विभेद एवं गैर-कीमत प्रतियोगिता पाई जाती है। इनमें वस्तुओं का मूल्य भी एक समय पर एक नहीं होता है।

प्रश्न 5. विनिमय से आप क्या समझते हैं ? वस्तु-विनिमय को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-विनिमय का अर्थ : साधारण शब्दों में दो पक्षों के बीच होने वाली वस्तुओं और सेवाओं की अदल-बदल की प्रक्रिया को विनिमय कहते हैं। मार्शल के शब्दों में, “दो पक्षों के मध्य होने वाले ऐच्छिक, वैधानिक एवं पारस्परिक धन के हस्तान्तरण को विनिमय कहते हैं।”

वस्तु-विनिमय : वस्तु-विनिमय के अन्तर्गत वस्तु का वस्तु के बदले आदान-प्रदान किया जाता है। इसे प्रत्यक्ष विनिमय भी कहते हैं। थॉमस के शब्दों में, “एक वस्तु से दूसरी वस्तु के प्रत्यक्ष विनिमय को ही वस्तु-विनिमय कहते हैं।”

प्रश्न 6. बाजार को परिभाषित कीजिए और स्थानीय बाजार को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-बाजार की परिभाषा : अर्थशास्त्र में, वह समस्त क्षेत्र बाजार कहलाता है जहाँ क्रेता तथा विक्रेता दोनों फैले हुए हों और उनके मध्य प्रतियोगिता विद्यमान हो। इसमें कीमत के समान होने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

स्थानीय बाजार : जब किस वस्तु के क्रेता या विक्रेता किसी स्थान पर ही क्रय-विक्रय करते हैं तब उस वस्तु का बाजार स्थानीय बाजार कहलाता है, जैसे : दूध, फल, मछली आदि का बाजार।

प्रश्न 7. पण्यीकरण (Commoditisation) कब होता है ?

उत्तर-पण्यीकरण तब होता है जब कोई वस्तु बाजार में बेची-खरीदी न जा सकती हो और अब वह बेची-खरीदी जा सकती है अर्थात् अब वह बाजार में बिकने वाली एक चीज बन गई है जैसे श्रम और कौशल अब ऐसी चीजें हैं जो खरीदी व बेची जा सकती हैं।

प्रश्न 8. पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक प्रभाव को उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-मार्क्स और पूँजीवाद के अन्य आलोचकों के अनुसार पण्यीकरण की प्रक्रिया के नकारात्मक सामाजिक प्रभाव हैं। श्रम का पण्यीकरण एक उदाहरण है लेकिन समकालीन समाज में ऐसे और भी उदाहरण हैं। मसलन, आजकल एक विवादास्पद वाक्या है गरीब लोगों द्वारा अपनी किडनी को अमीर लोगों को बेचना जिन्हे किडनी के प्रतिस्थापन की आवश्यकता है। बहुत से लोगों

का मानना है कि मानव अंगों का पण्यीकरण नहीं होना चाहिए। पहले के समय में इंसानों को गुलाम के तौर पर बेचा और खरीदा जाता था, पर आज के दौर में लोगों को वस्तुओं की तरह समझना अनैतिक माना जाता है। पर आधुनिक समाज में लगभग हर कोई मानता है कि इंसान का श्रम खरीदा जा सकता है या पैसों के बदले में अन्य सेवाओं या कौशल उपलब्ध कराया जा सकता है। मार्क्स के अनुसार, यह वह स्थिति है जो सिर्फ पूँजीवादी समाजों में ही पाई जाती है।

‘प्रश्न 9. समकालीन भारत में पण्यीकरण के कुछ उदाहरण दीजिए।

उत्तर-समकालीन भारत में हम देख सकते हैं कि कुछ चीजें या प्रक्रियाएँ जो पहले बाजार का हिस्सा नहीं थीं अब वह बाजार में मिलने वाली वस्तुएँ बन गई हैं। जैसे, पारंपरिक रूप से पहले विवाह परिवार के लोगों द्वारा तय किए जाते थे पर अब व्यावसायिक विवाह ब्यूरो की भरमार है जो वेबसाइट्स या किसी और माध्यम से लोगों का विवाह तय कराते हैं और इसका पारिश्रमिक लेते हैं। दूसरा उदाहरण है, अनेक निजी संस्थान जो व्यक्तित्व संवारने’, अंग्रेजी बोलना-सिखाना और अन्य चीजों के लिए पाठ्यक्रमों को चलाते हैं जो कि विद्यार्थियों को (अधिकांश मध्यमवर्गीय नौजवानों) समकालीन विश्व में सफल होने के लिए आवश्यक सांस्कृतिक और सामाजिक कौशल को सिखाते हैं। पहले के समय में, सामाजिक कौशल और शिष्टाचार जैसे, अच्छा आचरण प्रमुख रूप से परिवार में ही सिखाया जाता था। हम इस बारे में ऐसे भी सोच सकते हैं कि वर्तमान में जो निजी संस्थाओं में होड़ लगी है-नए विद्यालय, महाविद्यालय और कोचिंग क्लासेस को चलाने के लिए वह भी इस बात को दर्शाती है कि किस तरह से शिक्षा का पण्यीकरण हो रहा है।

प्रश्न 10. व्यापार की सफलता में जाति एवं नातेदारी संपर्क कैसे योगदान कर सकते

(NCERTT.B. Q. 4)

उत्तर-प्राचीन भारत में बाजारों के परिचालन में जाति और नातेदारी की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। व्यापार के कुछ विशेष क्षेत्र विशेष समुदायों द्वारा नियंत्रित होते थे। इस प्रकार के व्यापार में खरीद-फरोख्त आम तौर पर जाति और नातेदारी तंत्रों में ही होती है क्योंकि व्यापारी अपने स्वयं के समुदाय के लोगों पर विश्वास औरों की अपेक्षा अधिक करते हैं इसलिए वे बाहर के लोगों के कुछ क्षेत्रों पर एक जाति का एकाधिकार हो जाता है।

प्रश्न 11. किस तरह से एक बाजार जैसे कि एक साप्ताहिक ग्रामीण बाजार, एक सामाजिक संस्था है ?

(NCERTT.B. Q.3)

उत्तर-साप्ताहिक हाट या बाजार ग्रामीण एवं नगरीय भारतमें भी एक सामान्य दृश्य होता है। पहाड़ी और जंगलाती इलाकों में (विशेषकर, जहाँ आदिवासी बसे होते हैं) जहाँ अधिवास दूर-दराज तक होता है, सड़कें और संचार भी जीर्ण-शीर्ण होता है एवं अर्थव्यवस्था भी अपेक्षाकृत अविकसित होती है ऐसे में साप्ताहिक बाजार उत्पादों के आदान-प्रदान के साथ-साथ सामाजिक मेल-मिलाप की एक प्रमुख सामाजिक संस्था बन जाता है। स्थानीय लोग बाजार में अपनी खेती की उपज या जंगल से लाए गए पदार्थों को व्यापारियों को बेचते हैं जो कस्बों में इन्हें ले जाकर दुबारा बेचते हैं और इन पैसों से आवश्यक वस्तुएँ जैसे नमक एवं खेती के औजार और उपभोग की वस्तुएँ जैसे, चूड़ियाँ और गहने खरीदते हैं। पर अधिकांश लोगों के लिए हाट जाने का प्रमुख कारण सामाजिक है जहाँ वह अपने रिश्तेदारों से भेंट कर सकता है, घर के जवान लड़के-लड़कियों का विवाह तय कर सकता है, गप्पें मार सकता है और कई अन्य कार्य कर सकता है।

इस प्रकार एक साप्ताहिक बाजार सामाजिक संस्था का रूप धारण कर लेता है।

प्रश्न 12. ‘बाजार’ से क्या आशय है ?

उत्तर-साधारणतया हम बाजारों को क्रय-विक्रय के स्थान मान कर चलते हैं। इस दैनिक बोलचाल के प्रयोग में ‘बाजार’ शब्द का अर्थ बाजार हो सकता है जिन्हें हम संभवतया जानते हैं। जैसे, रेलवे स्टेशन के पास का बाजार, फलों का बाजार अथवा थोक बाजार। कभी-कभी हम स्थान की बात न करके लोगों, खरीददार और विक्रेता के जमावड़े की बात करते हैं जो मिलकर

बाजार को बनाते हैं। अतः उदाहरण के तौर पर, एक साप्ताहिक सब्जी बाजार नगरीय पड़ोस या पड़ोसी गाँव में हफ्ते के प्रति दिन विभिन्न स्थानों पर पाया जा सकता है। एक अन्य अर्थ में, ‘बाजार’ एक क्षेत्र या व्यापार या कारोबार की श्रेणी के बारे में बात करता है। जैसे, कारों का बाजार या फिर बने-बनाए कपड़ों का बाजार। इसी से जुड़ा हुआ एक अर्थ एक विशेष उत्पाद या सेवा की माँग का द्योतक है। जैसे, कंप्यूटर विशेषज्ञों का बाजार आदि।

प्रश्न 13. जनजातीय क्षेत्रों के साप्ताहिक बाजार में क्या परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं ?

उत्तर-जहाँ जनजातीय क्षेत्रों में साप्ताहिक बाजार एक प्राचीन संस्था है वहीं समय के साथ इनके स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। इन दूरस्थ क्षेत्रों के उपनिवेशिक राज्यों के नियंत्रण में आने के पश्चात् इन्हें धीरे-धीरे क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ दिया गया। जनजातीय क्षेत्रों को सड़कों के निर्माण द्वारा और स्थानीय लोगों को समझा-बुझा’ के (जिसमें से बहुत से लोगों ने ‘जनजातीय विद्रोहों’ द्वारा उपनिवेशिक शासन का विरोध किया था) ‘खोला गया ताकि इन क्षेत्रों के समृद्ध जंगलों और खनिजों तक बेरोक-टोक पहुंचा जा सके। ऐसा होने से इन क्षेत्रों में व्यापारी, साहूकार और आस-पास के मैदानी क्षेत्रों से अन्य गैर-जनजातीय लोगों को बेचा जाने लगा और नयी तरह की वस्तुएँ व्यवस्था में शामिल हो गई। आदिवासियों को अब इन खदानोंऔर बागानों में भी मजदूर के तौर पर रखा जाने लगा जो अंग्रेजी सरकार के दौर में स्थापित हुए थे।

उपनिवेशिक काल के दौरान जनजातीय श्रम के एक ‘बाजार’ का विकास हुआ। इन तमाम बदलावों की वजह से स्थानीय जनजातीय अर्थव्यवस्थाएं बड़े बाजारों से जुड़ गई पर इसका असर स्थानीय लोगें के लिए सामान्यतः अत्यंत नकारात्मक था। उदाहरण के लिए, बाहर से स्थानीय क्षेत्रों में साहूकारों और व्यापारियों के आवागमन ने आदिवासियों को निर्धन कर दिया, उनमें से , अधिकांश ने अपनी जमीन बाहरी लोगों के हाथ खो दी।

प्रश्न 14. मंदी किसे कहते हैं ?

[M.Q.2009 A]

उत्तर-जब बाजार में समान कम हो और खरीदनेवाले ज्यादा तो महँगाई की स्थिति बनती है। ठीक उसके विपरीत बाजार में सामग्री ज्यादा और खरीदार कम हो तो मंदी की स्थिति होता है। अभी पूरी दुनिया उसी दौर से गुजर रहा है। मांग नहीं होने के कारण कारखाने बंद होने लगते हैं और छंटनी के कारण लोग बेकार होने लगते हैं अर्थात् महंगाई के ठीक विपरीत स्थिति मंदी होती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

   (Long Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. बस्तर में एक आदिवासी गांव का बाजार।

धोराई एक आदिवासी बाजार वाले गाँव का नाम है जो कि छत्तीसगढ़ के उत्तरी जिले के भीतरी इलाके में बसा है….. जब बाजार नहीं लगता, उन दिनों धराई एक उँघता हुआ, पेड़ों के छपरों से छना हुआ, घरों का झुरमुट है जो पैर पसारे उन सड़कों से जा मिलता है जो बिना किसी नाम-माप के जंगल भर में फैली हुई है…. धोराई का सामाजिक जीवन, यहाँ की दो प्राचीन बाय की दुकानों तक सीमित है, जिसके ग्राहक राज्य वन सेवा के निम्न श्रेणी के कर्मचारी हैं जो दुर्भाग्यवश इस दूरवर्ती और निरर्थक इलाके में कर्मवश फंसे पड़े हैं…..धोराई का गैर-बाजारी दिनों में शुक्रवार को छोड़कर अस्तित्व शून्य के बराबर होता है, पर बाजार वाले दिन वो किसी और जगह में तब्दील हो जाता है। ट्रकों से रास्ता जाम हुआ होता है….. वत के सरकारी कर्मचारी अपनी इस्तरी की हुई पोशाकों में इधर से उधर चहलकदमी कर रहे होते हैं और वन सेवा के महत्वपूर्ण । अधिकारी अपनी ड्यूटी बजाकर वन विभाग के विश्राम गृहों के आँगनों से बाजार पर बराबर नजर बनाए रखते हैं। वे आदिवासी श्रमिकों को उनके काम का भत्ता बाँटते हैं…..

जब अफसरात आराम घर में सभा लगाते हैं तो आदिवासियों की कतार चारों ओर से खिंचती. चली जाती है, वो जंगल के समान, अपने खेतों की उपज या फिर अपने हाथ से बनाया हुआ कुछ लेकर आते हैं। इनमें तरकारी बेचने वाले हिन्दू एवं विशेषज्ञ शिल्पकार, कुम्हार, जुलाहे एवं । लोहर सम्मिलित होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि समृद्धि के साथ अस्त-व्यस्तता है, बाजार के साथ-साथ कोई धार्मिक उत्सव भी चल रहा है….. लगता है जैसे सारा संसार, इंसान, भगवान सब एक ही जगह बाजार में एकत्रित हो गए हैं। बाजार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है, लगभग 100 एकड़ के वर्गमूल में बसा हुआ है जिसके बीचोंबीच एक भव्य बरगद का पेड़ है। बाजार की छोटी-छोटी दुकानों की छत छप्पर की बनी है और यह दुकानें काफी पास-पास हैं, बीच-बीच में गलियारे से बन गए हैं, जिनमें से खरीददार सँभलते हुए किसी तरह कम स्थापित दुकानदारों को कमदामी सामानों को पैर से कुचलने से बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्होंने स्थाई दुकानों के बीच की जगह का अपनी वस्तुएँ प्रदर्शित करने के लिए हर संभव उपयोग किया है।

उपरोक्त उद्धरण को पढ़िए एवं नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :

  1. यह लेखांश आपको आदिवासियों और राज्य (जिसका प्रतिनिधित्व वन विभाग के अधिकारियों द्वारा होता है) के बीच के संबंध के बारे में क्या बताता है? वन विभाग के अर्दली, आदिवासी जिलों में इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं ? अधिकारी आदिवासी श्रमिकों को भत्ता क्यों दे रहे हैं?
  2. बाजार की रूपरेखा उसके संगठन और कार्य-व्यवस्था के बारे में क्या प्रकट करती है ? किस प्रकार के लोगों की स्थाई दुकानें होंगी और ‘कम स्थापित’ दुकानदार कौन हैं, जो जमीन पर बैठते हैं ?
  3. बाजार के मुख्य विक्रेता और खरीददार कौन हैं ? बाजार में किस प्रकार की वस्तुएँ होती हैं और इन विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को कौन लोग खरीदते व बेचते हैं ? इससे आपको इस क्षेत्र की स्थानीय अर्थव्यवस्था और आदिवासियों के बड़े समाज और और अर्थव्यवस्था से संबंध के बारे में क्या पता चलता है ?

उत्तर-यह लेखांश हमें आदिवासियों और राज्य के बीच संबंधों के विषय में यह बताता है कि राज्य के कर्मचारियों के बिना आदिवासियों का जीवन अधूरा है। वन विभाग के सरकारी कर्मचारी आदिवासियों को बहुत सहायता करते हैं।

वन विभाग के कर्मचारी इसलिए इतने महत्वपूर्ण हैं कि वे वनों की देखरेख करते हैं और इसलिए आदिवासियों से उनके अच्छे सम्पर्क बन गए हैं।

अधिकारी आदिवासी श्रमिकों को उनके काम के लिए भत्ता दे रहे हैं जिसे हम मजदूरी भी कह सकते हैं।

  1. धोराई एक आदिवासी साप्ताहिक बाजार वाला गाँव है। बाजार लगभग एक चतुर्भुजीय जमीनी हिस्सा है, जो लगभग 100 एकड़ के वर्गमूल में बसा हुआ है। बाजार में छोटी-छोटी दुकानें हैं। यहाँ अनाज, लोहे का घरेलू सामान, मोती-मनकों आदि की स्थाई दुकानें होंगी। फल, साग-सब्जी, शराब, वनोपज आदि बेचने की दुकाने होंगी जो जमीन पर बैठकर व्यापार करते होंगे।
  2. बाजार के मुख्य विक्रेता और खरीददार आदिवासी होते हैं। बाजार में वनोपज और शहर से आने वाली जरूरत की वस्तुएँ उपलब्ध रहती हैं जिन्हें आदिवासी ही खरीदते हैं और वे ही बेचते हैं। आदिवासियों का एक बड़ा समाज और स्थानीय अर्थव्यवस्था एक दूसरे पर आश्रित हैं।

प्रश्न 2, तमिलनाडु के नाकरट्टारों में जाति आधारित व्यापार इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था अर्थशास्त्रियों के पश्चिमी स्वरूप के बैंकिंग व्यवस्था के प्रारूप से मिलती है…. नाकरट्टारों में एक-दूसरे से कर्ज लेना या पैसा जमा करना जाति आधारित सामाजिक संबंधों से जुड़ा होता था जो कि व्यापार के भूभाग,

आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान्य संप्रदाय की सदस्यता पर आधारित था। आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था के विपरीत, नाकरट्टारों में नेकनामी (प्रतिष्ठा), निर्णय, क्षमता और जमा पूँजी जैसे सिद्धान्तों के अनुसार विनिमय होता था, न कि सरकार नियंत्रित केंद्रीय बैंक के नियमों के अंतर्गत, और यही प्रतीक संपूर्ण जाति के प्रतिनिधि की तरह प्रत्येक एकल नाकरट्टार व्यक्ति के इस व्यवस्था में विश्वास को सुनिश्चित करते थे। दूसरे शब्दों में, नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी। हर एक नाकरट्टार ने अपना जीवन विभिन्न प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में शामिल होने और उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया गया था। यह वह संस्थाएँ थीं जो उनके समुदाय में पूँजी जमा करने और बाँटने में जुटी हुई थीं।

कास्ट एंड केपिटेलिज्म इन कॉलोनियल इंडिया (रुडनर 1994) से लिए गए उपरोक्त लेखांश को पढ़ें और निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दें:

  1. लेखक के अनुसार, नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में क्या महत्वपूर्ण अंतर हैं ?
  2. नाकरट्टाओं की बैंकिंग और व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य सामाजिक संरचनाओं से किन विभिन्न तरीकों से जुड़ी हुई हैं ?
  3. क्या आप आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत ऐसे उदाहरण सोच सकते हैं जहाँ आर्थिक गतिविधियाँ नाकरट्टाओं की ही तरह सामाजिक संरचना में घुली-मिली हों?

उत्तर-1. नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में निम्नलिखित अंतर हैं :

(क) नाकरट्टाओं में एक दूसरे से कर्ज लेना और पैसा जमा करना जाति आधारित है जबकि आधुनिक पश्चिमी व्यवस्था जाति आधारित नहीं है।

(ख) नाकरट्टाओं की बैंकिंग व्यवस्था आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह आदि के आधार पर स्थापित थी जबकि आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था अर्थ पर आधारित है।

(ग) नाकरट्टाओं में प्रतिष्ठा आधारित व्यवसाय होता है जबकि आधुनिक पश्चिमी बैंकिंग व्यवस्था में सरकार नियंत्रित केन्द्रीय बैंक आधरित व्यवसाय होता है।

  1. नाकरट्टाओं की बैंकिंग और व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य सामाजिक संरचनाओं यथा-व्यापार के भू-भाग, आवासीय स्थान, वंशानुक्रम, विवाह और सामान सदस्यता से जुड़ी हुई थीं। नाकरट्टारों की बैंकिंग व्यवस्था एक जाति आधारित बैंकिंग व्यवस्था थी। प्रत्येक नाकरट्टार ने अपना जीवन विभिन्न प्रकार की सामूहिक संस्थाओं में शामिल होने और उसका प्रबंध करने के अनुसार संगठित किया था।
  2. आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था में सहकारी संस्थाएँ नाकरट्टारों की तरह ही सामाजिक संरचना से घुली-मिली होती है। .

प्रश्न 3. पण्यीकरण बड़ा शब्द है, जो सुनने में जटिल लगता है। पर जिन प्रक्रियाओं की तरफ वो इशारा करता है नसे हम परिचित हैं और वे हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हैं। एक साधारण उदाहरण हैं : बोतल का पानी।

, शहर या कस्बे में, यहाँ तक कि अधिकांश गाँवों में भी बोतल का पानी खरीदना अब संभव है, 2, 1 लीटर या उससे छोटे पैमाने में वह हर एक जगह बेची जाती है। अनेक कंपनियाँ हैं और अनेक ब्रांड के नाम हैं जिससे पानी की बोतलें पहचानी जाती हैं। पर यह एक नयी प्रघटना है जो दस-पन्द्रह साल से ज्यादा पुरानी नहीं हैं।. मुमकिन है कि आप खुद उस समय को याद कर सकते हैं जब पानी की बोतलें नहीं बिका करती थीं। बड़ों से पूछो। माता-पिता के पीढ़ी के लोगों को अजीब लगा होगा और आप के दादा-दादी के जमाने में तो इसके बारे में बिरले लोगों ने सुना या सोचा होगा। ऐसा सोचना भी कि पेयजल के लिए कोई पैसा माँग सकता है, उनके लिए

अविश्वसनीय होगा। पर, आज यह हमारे लिए आम बात है, एक साधारण-सी बात, एक वस्तु जिसे हम खरीद (या बेच) सकते हैं। इसी को पण्यीकरण (commoditisation/commodification) कहते हैं, अर्थात् एक पक्रिया जिसके द्वारा कोई भी चीज जो बाजार में नहीं बिकती हो वह बाजार में बिकने वाली एक वस्तु बन जाती है और बाजार अर्थव्यवस्था का एक भाग बन जाती है। क्या आप ऐसी चीजों के बारे में सोच सकते हैं जो हाल ही में बाजारों में शामिल हुई हों ? याद रहे कि यह जरूरी नहीं कि कोई वस्तु ही एक पण्य हो, कोई सेवा भी पण्य हो सकती है। ऐसी चीजों के बारे में भी सोचें जो आज बाजारू भले न हों भविष्य में हो सकती हों। आप कारण भी सोचें कि ऐसा क्यों होगा। अंत में, इस बारे में भी सोचें कि पहले जमाने की कुछ चीजें अब बिकनी बंद क्यों हो गई हैं। (मतलब जिनका पहले विनिमय में योगदान था पर अब नहीं है) क्यों और कब कोई कमॉडिटी, कमॉडिटी नहीं रह जाती ?

उत्तर-हाल ही में बाजार में शामिल वस्तुएँ

तैयार सब्जियाँ, बनी हुई चपातियाँ, पानी, रेडी-फूड, बिस्किट, चॉकलेट, कटी हुई (हरी), ताजी सब्जियाँ, विदेशी फल, विदेशी कॉस्मेटिक का सामान, विदेशी इलैक्ट्रानिक सामान, विवाह संबंधों के लिए इंटरनेट तथा अन्य अनेक सेवाएँ।

ऐसी चीजें जो भविष्य में बाजारू होंगी :

  1. जब चाहें जैसी संतान पाएँ-डॉक्टर, इंजीनियर आदि।
  2. मृत्यु (इच्छामृत्यु) जिसे खरीदा जा सके।
  3. शादी-विवाह की रस्में आदि।

पहले जमाने की कुछ चीजें जो अब बिकनी बंद हो गईं :

  1. कमर में लटकाने वाली घड़ी।
  2. निब वाले पेन जिनमें स्याही भरी जाती थी।
  3. कस्तूरी।
  4. आटे पीसने की घरेलू चाकी।
  5. कई तरह के आभूषण आदि।

प्रश्न 4. उपनिवेशवाद के आने के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था किन अर्थों में बदली?

(NCERTT.B. Q.5)

उत्तर-उपनिवेशकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन : उपनिवेशवाद के आते ही भारतीय अर्थव्यवस्था में अत्यधिक बदलाव आए जिससे उत्पादन, व्यापार और कृषि में एक अभूतपूर्व विघटन उत्पन्न हुआ। एक जाना माना उदाहरण है, हस्तकरघा के काम का खात्मा हो जाना। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस वक्त के बाजारों में इंग्लैंड से सस्ते बने-बनाए कपड़ों की भरमार लगा दी गई थी। हालांकि भारत में उपनिवेश के दौर से पूर्व ही एक जटिल मुद्रीकृत अर्थव्यवस्था विद्यमान थी, ज्यादातर इतिहासकार उपनिवेश काल को एक संधिकाल के रूप में देखते हैं।

  1. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से जुड़ाव : उपनिवेश काल के दौरान, भारत विश्व की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से और अधिकता से जुड़ गया। अंग्रेजी शासन से पहले भारत बने-बनाए सामानों के निर्यात का एक मुख्य केन्द्र था। उपनिवेशवाद के बाद भारत कच्चे माल और कृषक उत्पादों का स्रोत और उत्पादित सामानों का उपभोक्ता बना दिया गया, यह दोनों कार्य इंग्लैंड के उद्योगों को लाभ पहुंचाने के लिए किए गए। लगभग उसी समय नए समूह (मुख्यतः यूरोपियन) व्यापार और व्यवसाय में आने लगे, वे या तो पहले से जमे हुए व्यापारिक समुदायों से मेल-जोल कर अप1। व्यापार प्रारंभ करते थे या कभी उन समुदायों को उनका व्यापार छोड़ने को मजबूर करके।

पूर्व त विद्यमान आर्थिक संस्थाओं को पूरी तरह से नष्ट करने के बजाय भारत में बाजार

अर्थव्यवस्था के विस्तार में कुछ व्यापारिक समुदायों को नए अवसर प्रदान किए, जिन्होंने बदलती हुई आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को पुनर्गठित किया और अपनी स्थिति को सुधारा।

  1. नए समुदायों का जन्म (Origin of New Communities): उपनिवेशवाद द्वारा प्रदान किए गए आर्थिक सुअवसरों का लाभ उठाने के लिए नए समुदायों का जन्म हुआ जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद भी अपनी आर्थिक शक्ति को निरंतरता से बनाए रखा। इस प्रक्रिया का एक अच्छा उदाहरण है, मारवाड़ी, जो संभवतया भारत में हर जगह पाए जाने वाले एवं सबसे जाना-माना व्यापारिक समुदाय है। मारवाड़ियों का प्रतिनिधित्व बिड़ला परिवार जैसे नामी औद्योगिक घरानों से तो है ही, छोटे-छोटे दुकानदारों और व्यापारियों से भी है, जो भारत के प्रत्येक कस्बे के बाजारों में बसे हुए हैं। उपनिवेश काल के दौरान ही मारवाड़ी एक सफल व्यापारिक समुदाय बने, जब उन्होंने उपनिवेशिक शहरों जैसे कलकत्ता (कोलकाता) में मिलने वाले नए सुअवसरों का लाभ उठाया और व्यापार और साहूकारी जारी रखने के लिए देश के सभी भागों में स्थापित हुए। नाकरट्टारों की तरह मारवाड़ियों की सफलता भी उनके गहन सामाजिक तंत्रों की वजह से है जिसने उनकी बैंकिंग व्यवस्था के संचालन के लिए आवश्यक विश्वास से भरपूर संबंधों की स्थापना की। अनेक मारवाड़ी परिवार इतनी पूँजी जुटा पाए कि वे लोगों को ब्याज पर कर्ज प्रदान करने लगे, इन बैंकों जैसी आर्थिक प्रवृत्ति की सहायता से भारत में अंग्रेजों के वाणिज्यिक विस्तार को भी मदद मिली। उपनिवेश के आखिरी दिनों में और स्वतंत्रता के बाद कुछ मारवाड़ी परिवारों ने अपने आपको आधुनिक उद्योगों में रूपांतरिक कर लिया और आज भी भारत में किसी अन्य समुदाय की तुलना में मारवाड़ियों की उद्योग में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है। उपनिवेश के दौरान एक नए व्यापारिक समुदाय का उभरकर आना और इसका छोटे प्रवासी व्यापारी से बड़े साहूकार और उद्योगपतियों में बदल जाने की यह कहानी आर्थिक प्रक्रियाओं में सामाजिक संदर्भ के महत्व को प्रकट करती है।

प्रश्न 5. आपकी राय में क्या उदारीकरण के दूरगामी लाभ उसकी लागत की तुलना में अधिक हो जाएंगे? कारण सहित उत्तर दीजिए।

(NCERT T.B.Q. 10)

उत्तर-भारतीय अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण प्राथमिक तौर पर उदारीकरण की नीति के कारण हुआ है जो सन् 1980 के दशक में प्रारंभ हुई। उदारवादिता में अनेक प्रकार की नीतियाँ शामिल हैं जैसे, सरकारी विभागों का निजीकरण (सरकारी संस्थानों को प्राइवेट कंपनियों को बेच देना), पूँजी, श्रम और व्यापार में सरकारी दखल कम कर देना, विदेशी वस्तुओं के आसान आयात के लिए आयात शुल्क में कमी करना और विदेशी कंपनियों को भारत में उद्योग स्थापित करने में सहूलियत प्रदान करना। बाजारीकरण या इन परिवर्तनों को सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए बाजार अथवा बाजार-आधारित प्रक्रियाओं (सरकारी नियमों और नीतियों के बजाय) के उपयोग से भी समझ सकते हैं। इसमें आर्थिक नियंत्रण को सरकार द्वारा कम या खत्म कर देना, उद्योगों का निजीकरण और मजदूरी और मूल्यों पर से सरकारी नियंत्रण को खत्म कर देना शामिल है। जो लोग बाजारीकरण का समर्थन करते हैं उनका मानना है कि इससे समाज में आर्थिक संवृद्धि और समृद्धि आएगी क्योंकि सरकारी संस्थाओं की अपेक्षा ये निजी संस्थाएँ ज्यादा कुशल होती हैं।

उदारवाद के कारण हुए परिवर्तन : उदारवाद के कार्यक्रमों के तहत जो परिवर्तन हुए उन्होंने आर्थिक संवृद्धि में वृद्धि की और इसके साथ ही भारतीय बाजारों को विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया। उदाहरण के लिए, अब बहुत सारी विदेशी वस्तुएँ यहाँ बिकती हैं, जो पहले यहाँ नहीं मिलती थीं। माना जाता है विदेशी पूँजी के निवेश से आर्थिक विकास होता है और रोजगार बढ़ते हैं। सरकारी कंपनियों के निजीकरण से कुशलता बढ़ती है और सरकार पर दबाव कम होता है। हालाँकि, उदारीकरण का असर मिश्रित रहा है। कई लोगों का यह भी मानना है कि उदारीकरण का भारतीय परिवेश पर प्रतिकूल असर ही हुआ है और आगे के दिनों में भी ऐसा ही होगा, हम

अपनी ज्यादा चीजें खोकर कम चीजों को पाएँगे। भारतीय उद्योग के कुछ क्षेत्रों (जेसे, सॉफ्टवेयर या सूचना तकनीकी) या खेती में (जैसे मछली या फल उत्पादन) को शायद वैश्विक बाजार से लाभ हो सकता है या अन्य क्षेत्रों (जैसे ऑटोमोबाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और तेलीय अनाजों के उद्योग) पर गहन असर पड़ेगा क्योंकि यह उद्योग विदेशी उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे।

उदारवाद के दुष्प्रभाव : भारतीय किसान अब अन्य देशों के किसानों के उत्पादों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं क्योंकि कृषि संबंधित उत्पादों का आयात अब संभव है। पहले भारतीय कृषि सहायता मूल्य और सब्सिडी द्वारा विश्व बाजार से सुरक्षित थी। यह समर्थन मूल्य और किसानों की न्यूनतम आमदनी को सुनिश्चित करता था क्योंकि यह वह मूल्य थे जिस पर सरकार कृषक उत्पादों को खरीदने को हमेशा तैयार रहती है। सब्सिडी से किसानों द्वारा इस्तेमाल में लाने वाली चीजें जैसे, खाद-उर्वरक, डीजल–तेल का भी सरकार दाम घटा देती थी। उदारवाद बाजार में इस तरह की सरकारी मदद के विरुद्ध है अतः सब्सिडी और समर्थन मूल्य को घटा दिया या हटा लिया गया। इसका आशय यह हुआ कि अनेक किसान अपनी रोजी-रोटी कमाने में भी असफल रहे हैं। इसी प्रकार छोटे उत्पादकों को विश्व स्तर के उत्पादकों के सामानों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है और ये अपवाद नहीं है कि उनमें से कुछ का बिल्कुल सफाया हो जाए। निजीकरण में उन सरकारी विभागों के मुलाजिमों की नौकरी भी कम हो गई है या कह सकते हैं वे रोजगार के स्रोत अब स्थिर नहीं हैं। गैर-सरकारी असंगठित विभागों रोजगार उभर कर सामने आ रहे हैं और सरकारी संगठित विभागों में नौकरियाँ कम होती जा रही हैं। ये कामगारों के लिए ठीक नहीं है।

प्रश्न 6. कार्तिक का महीना आते ही….. ऊँटों के गाड़ीवान अपने रेगिस्तानी जहाजों को सजाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के वक्त पहुँचने के लिए समय से पुष्कर की लंबी यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं….. हर साल लगभग 2,00,000 लोग और 50,000 ऊँट और अन्य पशुओं का यहाँ जमावड़ा लगता है। वो उन्माद देखते ही बनता है जब रंग, शोर और चलह-पहल से लोग घिरे होते हैं, संगीतवादक, रहस्यवादी, पर्यटक, व्यापारी, पशु और भक्त सब एक जगह इकट्ठा होते हैं। एक तरह से कहें तो यह ऊँटों को सँवारने का निर्वाण है जिसमें मकई के बाल की तरह सवारे हुए ऊँटों, पायलों की झनकार, कढ़ाई किए वस्त्रों और टम-टम पर सवार लोगों से आपकी अद्भुत भेंट हो सकती है।

ऊँटों के मेले के साथ ही धार्मिक प्रतिष्ठान भी एक जंगली-जादुई चरम पर होता है-अगरबत्तिों का घना धुआँ, मंत्रों का शोर और मेले की रात में, हजारों भक्त नदी में डुबकी लगाकर अपने आप धोते हैं और पवित्र पानी में टिमटिमाते दिए छोड़ते हैं।

निम्नलिखत प्रश्नों के उत्तर दीजिए : . उपरोक्त दिए गए लेखांश को पढ़ें

  1. पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से इस जगह पर कौन-सी नयी वस्तुओं, सेवाओं, पूँजी और लोगों के दायरे का विकास हुआ है ?
  2. आपके विचार में बड़ी संख्या में भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से मेले का रूप किस तरह से बदल गया है ?
  3. इस जगह का धार्मिक उन्माद किस तरह से इसकी बाजारी कीमत को बढ़ाता है ? क्या हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्म का एक बाजार है ?

उत्तर-1. पुष्कर के अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन के दायरे में आ जाने से यहाँ अन्तर्राष्ट्रीय विमान सेवाओं, विदेशी बैंकों, विदेशी वस्तुओं और लोगों के दायरे का विकास हुआ है। लोग अब अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, फ्रांस, चीन आदि के साथ व्यापारिक एवं अन्य प्रकार के सम्बन्ध बढ़ा रहे हैं। ,

  1. पहले पुष्कर का मेला एक क्षेत्रीय मेला था किन्तु अब भारतीय एवं विदेशी पर्यटकों के आने से मेले का रूप अंतर्राष्ट्रीय हो गया है।
  2. पुष्कर के सरोवर में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है यह एक धार्मिक उन्माद तथा परम्परा है। इस कारण लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। इसी उन्माद के कारण बाजार की वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाते हैं। भारत में अनेक देवी-देवताओं की मान्यता है, अनेक साधु-संत हैं, धर्मों से जुड़ा साहित्य व वस्तुएँ खूब बिकती हैं। अत: हम कह सकते हैं कि भारत में अध्यात्म का एक बड़ा बाजार है।

प्रश्न 7. एक सामाजिक संस्था के रूप में बाजार का विवेचना करें। [M.Q.2009 A]

उत्तर-मूल रूप से बाजार एक सामाजिक संस्था है। बाजार को संचालित करनेवाले नियमों से जुड़ी हुई नैतिकता, आर्थिक क्रियाओं पर सरकार का नियंत्रण, सामाजिक श्रम विभाजन, आर्थिक क्रियाओं पर सामाजिक मूल्यों का प्रभाव, समाजविरोधी वस्तुओं का बहिष्कार, वस्तुओं के मूल्य पर सामाजिक उपयोगिता का प्रभाव आदि ऐसी विशेषताएँ हैं जो बाजार को एक सामाजिक संस्था के रूप में स्पष्ट करती है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं

(i) बाजार को किसी सामाजिक संरचना से अलग करके नहीं समझा जा सकता। प्रत्येक समाज में व्यक्ति की आर्थिक क्रियाएँ उन मूल्यों से प्रभावित होती हैं जिन्हें समाज के लिए उपयोगी माना जाता है।

(ii) बाजार श्रम विभाजन की प्रक्रिया पर आधारित है। श्रम विभाजन मूल रूप से एक सामाजिक तथ्य है जिसे दुर्थीम ने अपने सिद्धान्त में वर्णित किया है।

(iii) हाटों और बाजारों में व्यक्तियों के बीच सामाजिक अंत:क्रिया पनपती है, अत: बाजार को सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था से अलग करके नहीं समझा जा सकता।

(iv) बाजार अनेक नियमों की एक व्यवस्था है जिसका रूप संस्था के ही समान है।

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