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 Bihar Board Class 12th हिन्दी भाषा और साहित्य की कथा

Bihar Board Class 12th हिन्दी भाषा और साहित्य की कथा

प्रश्न 1.

हिन्दी साहित्य के इतिहास का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
हिन्दी साहित्य का प्रारंभ सन् 1050 से माना जाता है। यद्यपि इस विषय में अनेक विद्वानों ने भिन्न मत भी दिए हैं तो भी साधारणतः आज इसी मत को मान्यता दी जा रही है। हिन्दी साहित्य को चार भागों में विभाजित किया जाता है-आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल।

आदिकाल-सन् 1050 से सन् 1350 तक के कालखंड को आदिकाल की संज्ञा दी जाती है। आचार्य शुकल ने इसे ‘वीरगाथाकाल’ की संज्ञा दो। इस काल में रचा गया साहित्य संदेह और अप्रामाणिकता के कुहरे से ढका रहा। इस काल की कोई साहित्यिक प्रवृत्ति मुख्य रूप से उद्घाटित नहीं हुई, इसीलिए इसे निर्विशेष नामकरण ‘आदिकाल’ से ही जाना जाता रहा।

भक्तिकाल-सन् 1350 से सन् 1700 तक के काल को निर्विवाद रूप से सभी विद्वान् ‘भक्तिकाल’ की संज्ञा देते हैं। इस काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। इस समय में कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, नानक आदि एक से एक बढ़कर रत्न हुए। इस काल में जो साहित्य रचा गया, उसे जन-मन की वाणी को किस प्रकार प्रभावित किया, इसके लिए यही पर्याप्त प्रमाण है कि आज भी तुलसी की चौपाइयाँ और सूर के छंद गायकों को कंठहार बने हुए हैं।

रीतिकाल-सन् 1700 से सन् 1900 तक के कालखण्ड को “रीतिकाल” की संज्ञा दी जाती है। इस काल के अधिकांश कवि राजाश्रय प्राप्त थे। अतः आश्रयदाताओं की श्रृंगारिकता को सन्तुष्ट करना उनका व्यवसाय बन चुका था। इस काव्य में ‘तंत्री नाद, कवित्तर रस, सरस राग, रति-रंग’ का प्राधान्य था। कवियों में आचार्य बनने की होड़ थी। इस काल में काव्य-लेखन की परिपाटी पर विपुल साहित्य रचा गया।

आधुनिक काल-सन् 1900 से आज तक का साहित्य “आधुनिक काल” के नाम से जाना जाता है। इसके प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र माने जाते हैं। आधुनिक काल में पहली बार जन-चेतना से जुड़ा। इस काल में काव्य के साथ-साथ विपुल गद्य-साहित्य की भी रचना हुई। नाटक, एकांकी, कहानी, निबन्ध, उपन्यास आदि क्षेत्रों में क्रान्ति उपस्थित हो गई। राष्ट्रीयता, समसामयिकता, सामाजिकता आदि इस काल की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

इस प्रकार हिन्दी साहित्य अपने प्रारंभ से लेकर अब तक विभिन्न काव्य-धाराओं में से गुजरता हुआ आज भी गतिशील है।

प्रश्न 2.
आदिकाल की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
आदिकाल की सर्जना अनेक आंतरिक भाव, संकल्पों एवं बाह्य प्रतिक्रियाओं के माध्यम से हुई है। आदिकाल के वास्तविक रूप को जान लेना सहज नहीं है। यह काल भारतीय चिन्ताधारा का वह स्थल है जहाँ एक साथ विरोधी तत्व साहित्य के क्षेत्र में नजर आते हैं। इस काल का साहित्य समस्त साहित्य के लिए पूर्व पाठिका का कार्य करता है। इस युग की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं

1. धार्मिक साहित्य-इसके अन्तर्गत कतिपय बौद्ध सिद्धों, नाथयोगियों और जैन मुनियों की रचनाएँ आती हैं। इनमें धार्मिक अनुचेतना के साथ-साथ साहित्यिक संदर्भ भी है।
(क) सिद्ध साहित्य-“बौद्ध धर्म से विकसित महायान सम्पद्राय की विभिन्न अनुचेतनाओं पर जनभाषा में रचित साहित्य को ‘सिद्ध साहित्य’ की संज्ञा मिली है।” राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिनमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरम्भ होता है। शब्द-साधना इनके सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण अंग थी। इन्होंने ‘महाराग’ की कल्पना की है।

(ख) नाथ साहित्य-सिद्धों की वाममार्गी भोग-प्रधान साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाच-पंथियों की हठायोग साधना प्रारम्भ हुई। नाथ साहित्य में गुरु महिमा, इन्द्रियनिग्रह, प्राणसाधना, नीति, आचार, संयम, कुंडलिनी-जागरण, शून्य समाधि आदि प्रधान विषय रहे। गुरु गोरखनाथ नाथसाहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं।

(ग) जैन साहित्य-जिस प्रकार हिन्दी के पूर्वी क्षेत्र में सिखों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया उसी प्रकार पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने भी अपने मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया। इनकी रचनाएँ आधार रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती है। पद्मचरित्र, जयकुमार चरित्र, जसहार चरित्र, बाहुबली रास, संदेश रासक आदि जैन साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।

2. शृंगारिक काव्य-आदिकाल में जहाँ धार्मिक व वीरगाथात्मक साहित्य का प्रणयन हो रहा था वहीं शृंगारिक काव्य भी लिखा जा रहा था। ये कवि जीवन के सामान्य विषयों को लेकर भी उद्गार व्यक्त करते थे जिनसे उनकी मधुरता व्यक्त होती थी। ‘बीसलदेव रासो’ ऐसा ग्रन्थ है जिसमें श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों रूपों की प्रधानता है। ‘ढोला मारूरा दूहा’ एक लोकसभा काव्य है। यह दोहों में रचित है। इन शृंगारिक रचनाओं में संदेश प्रेषण की परम्परा भी मिलती है। इसके अतिरिक्त नखशिख वर्णन भी किया गया है।

3. मनोरंजक साहित्य-इस कोटि के कवियों के साहित्य के लिए एक नवीन मार्ग का अन्वेषण किया और वह था जीवन को संग्राम और आत्मशासन की सुदृढ़ तथा कठोर श्रृंखला से मुक्त करके आनन्द और विनोद के स्वच्छन्द वायुमंडल में विहार की स्वतन्त्रता देना। इस प्रकार के रचनाकारों में अमीर खुसरो का नाम प्रमुख है। इन्होंने ‘खालिकबारी’, ‘किस्सा चहार दरवेश, पहेलियों’, ‘मुकरियों’ आदि की रचना की।

4. गद्य साहित्य-आदिकाल में इस दिशा में कुछ प्रयास हुआ। राजस्थानी में रचित ‘राउरवेल’, दामोदरन शर्मा द्वारा रचित ‘वर्ण रत्नाकार’ आदि है। इस युग के साहित्य की कुछ
अन्य विशेषताएं भी हैं।

5. संदिग्य रचनाएँ-इस काल में उपलब्ध होनेवाली प्रायः रचनाओं की प्रमाणिकता संदेह की दृष्टि से देखी जाती है। इन काव्यों में प्रक्षिप्त अंश बहुत है। अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण से इतिहास दब-सा गया है। फिर भी इनका साहित्यिक और ऐतिहासिक महत्व है।

6.ऐतिहासिकता का अभाव-आदिकाल की रचनाओं में इतिहास प्रसिद्ध नायकों को लिया गया है, पर उनका वर्णन इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। संवत्, तिथियाँ इतिहास में मेल नहीं खाती। इतिहास की अपेक्षा इन रचनाओं में कल्पना का बाहुल्य है।

7. भाषा-वीर कवियों ने राजस्थान की साहित्यिक भाषा डिंगल भाषा में रचना की। इन पर संस्कृत, फारसी, अरबी का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।

8. छन्दवैविध्य-छन्दों का जितना वैविध्य इस साहित्य में है उतना परवर्ती साहित्य में नहीं। दोहा, तोरक, तोमर, गाथा, पद्धति, आर्या, रोला, छप्पय आदि छन्दों की भरमार है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं-रासो के छन्द जब बदलते हैं तो श्रोता की चित्त में प्रसंगानुकूल नवीन कम्पन उत्पन्न करते हैं।

प्रश्न 3.
आदिकाल अथवा वीरगाथा काल के काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
उत्तर-
वीरगाथाकाल की परिस्थितियों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह काल राजनीतिक दृष्टि से उथल-पुथल का युग था। सबल केन्द्रीय सत्ता के अभाव में समस्त छोटे-छोटे रजवाड़ों में बँट गया था। देशी नरेश आपस में ही लड़-लड़कर अपनी शक्ति को क्षीण कर रहे थे। जर, जोरू और जमीन को प्रायः लड़ाई-झगड़ों का कारण जाना जाता था। वीरगाथा काल में यह बात पूरी घटित हो रही थी। सत्ता के विस्तार के लिए तथा किसी सुन्दरी की प्राप्ति के लिए आए दिन युद्धों का नगाड़ा बजता रहता था।

इस काल के अधिकांश कवि चारा या भाट थे, जो राज्याश्रय में रहकर अतिशयोक्ति पूर्ण रचनाओं के माध्यम से या तो आश्रयदाता का यशगान करते थे अथवा जनता में युद्ध का उन्माद जगाते थे। इन परिस्थितियों में उत्पन्न वीरगाथा काव्य में जो प्रवृत्तियाँ उभरकर आयी वे इस प्रकार हैं वीरगाथा की प्रधानता-वीरगाथा काव्य में वीरगाथाओं की प्रधानता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि इस युग का कवि राज्याश्रित था। अतः वह अपने आश्रयदाता का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से एक अप्रतिम वीर नायक के रूप में करता था। खमाणरासो, पृथ्वीराज रासो, विजयपाल रासो, परमाल रासो आदि ग्रन्थों में यही प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। किसी भी वीरगाथा परक रचना का नायक कोई साधारण पात्र नहीं है।

वीर रस की प्रधानता-‘बीसलदेव रासो’ के अतिरिक्त प्रायः सभी वीरगाथा काव्यों में वीर रस की प्रधानता है। रासो ग्रन्थ के अतिरिक्त इस काल में जो अन्य रचनाएँ लिखी गई, वे भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं है। अनेक जैन प्रबन्ध काव्यों में तथा विद्यापति जैसे शृंगारी और भक्त कवि की रचनाओं में वीर रस की प्रधानता उपलब्ध होती है। विद्यापतिकृत ‘कीर्तिलता’ इसका मुख्य उदाहरण है। इस ग्रन्थ में विद्यापति ने राजा कीर्तिसिंह के यश और पराक्रम का वर्णन किया है।

युद्ध-वर्णन-युद्धों का वर्णन वीरगाथा काव्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति है। राज्याश्रित कवि प्रायः अपने राजा के साथ युद्धों में जाते थे, जहाँ वे लड़ने वाले सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के साथ ही साथ स्वयं भी युद्ध में सक्रिय भूमिका निभाते थे। युद्धों के प्रत्यक्ष द्रष्टा होने के कारण इस काल के कवियों ने अपनी रचनाओं में युद्धों के सजीव चित्र उतारे हैं।

श्रृंगार रस-वीरगाथा काव्य में शृंगार रस की प्रवृत्ति भी है, लेकिन श्रृंगार रस का चित्रण जहाँ कहीं भी हुआ है वह वीर रस के सहायक रस के रूप में हुआ है। दरबारी कवि अपने आश्रयदाता के हृदय में युद्ध का उन्माद बनाये रखने के लिए प्रायः किसी अन्य राज्य की सुन्दरी (राज कन्या) के नख-शिख सौन्दर्य का ऐसा मादक चित्र उपस्थित करते थे कि राजा उस सुन्दरी को पाने के लिए आतुर हो उठता था। यह आतुरता अनिवार्य रूप से युद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बनकर उपस्थित होती थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस काल के ग्रन्थों में श्रृंगार रस का स्वतन्त्र रूप से चित्रण नहीं हुआ, अपितु वीर रस के सहयोगी रस के रूप में चित्रण हुआ है।

संकुचित राष्ट्रीयता-वीरगाथा काल में संपूर्ण देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त थे। अतएव इस काल के कवियों में भी राष्ट्रीयता का कोई व्यापक भाव दिखाई नहीं देता। इस काल में कवियों की राष्ट्रीयता अपने आश्रयदाताओं की सीमाओं तक ही सीमित थी। उनकी दृष्टि में बाहरी आक्रमणकारी और अपने सीमावर्ती राज्यों में कोई भेद नहीं था। अपने पड़ोसी राज्य से बदला लेने के लिए उस समय राजा बाहरी शक्तियों से सहायता लेने में नहीं सकुचाते थे। अजमेर पर आक्रमण होने की स्थिति में जयपुर वाले चैन की नींद सोते थे तथा दिल्ली पर आक्रमण होने की स्थिति में अन्य सीमावर्ती राज्यों के राजा निश्चिन्त बने रहते थे। यह संकुचित राष्ट्रीयता की प्रवृत्ति वीरगाथा काव्य में प्रतिफलित होती देखी जा सकती है।

अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन-वीरगाथा काल के कवि दरबारों में रहकर जीवन व्यतीत करते थे। अतः वे अपने आश्रयदाताओं के वंश, वीरता तथा वैभव आदि का वर्णन अत्यन्त बढ़ा-चढ़ा कर करते थे। इस युग के कवियों का उद्देश्य धनोपार्जन था, यशोपार्जन नहीं। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे अपने आश्रयदाताओं को दैवी गुणों से मण्डित करने में भी संकोच नहीं करते थे। यही कारण है कि वीरगाथाओं के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन में वास्तविकता की खोज निकालना भी कठिन हो जाता था।

ऐतिहासिकता का अभाव-वीरगाथा काल के काव्यों में ऐतिहासिकता का अभाव पर्याप्त मात्रा में देखा जाता है। सम्पूर्ण वीरगाथा साहित्य किसी-न-किसी प्रख्यात ऐतिहासिक पुरुष से सम्बद्ध है, लेकिन इन इतिहास पुरुषों के जीवन की घटनाएँ इतनी अधिक काल्पनिकता लिये हुए है कि वास्तविकता का पता नहीं लगता। उदाहरण के लिए ‘पृथ्वीराज रासो’ में पृथ्वीराज का ऐसे-ऐसे राजाओं के साथ युद्ध वर्णित किया गया है जो पृथ्वीराज के जन्म से पूर्व के हैं अथवा मृत्यु के बाद के। सभी वीरगाथा काव्यों में ये ऐतिहासिक विसंगतियाँ उपलब्ध होती हैं।

रासो ग्रन्थों का बाहुल्य-वीरगाथा काल में रचित काव्य में रासो ग्रन्थों की अधिकता है। इस काल की प्रमुख काव्यकृतियाँ, ‘खुमाण रासो’, ‘पृथ्वीराज रासो’, ‘परमाल रासो’, ‘विजयपाल रासो’, ‘हम्मीर रासो’, इसी प्रवृत्ति की साक्षी हैं।

भाषा के विविध रूप-वीरगाथा काल के काव्य में भाषा के विविध रूपों के दर्शन होते हैं। इस युग में रचित काव्यों में अपभ्रंश, डिंगल, पिंगल, मैथिली तथा खड़ी बोली के प्रारंभिक रूप के दर्शन होते हैं।

विविध अलंकारों एवं शब्दों का प्रयोग-वीरगाथा काव्य में अपने समय में प्रचलित प्रायः सभी अलंकारों एवं छन्दों का प्रयोग मिलता है। वीररगाथा-काव्य में उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश, वीप्सा आदि अर्थालंकारों तथा शब्दालंकारों का प्रयोग हुआ है। दोहा, त्रोटक, छप्पय, तोमर, गाहा, अरिल्ल, पद्धरिका आदि वीरगाथा काल के प्रमुख छंद है।

प्रश्न 4.
भक्तिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए। अथवा, निर्गुण भक्ति काव्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
1350 से संवत् 1700 तक के कालखंड की हिन्दी साहित्य में ‘भक्तिकाल’ नाम से पुकारा जाता है। इस काल में राजनैतिक दृष्टि से परास्त भारतीय जनमानस धर्म और ईश्वर-साधना की ओर उन्मुख हो रहा था। तत्वयुगीन भक्ति-आन्दोलन ने उनके इस झुकाव को तरंगित किया। अतः साहित्य में जहाँ सुरा, सुन्दरी और असि की झंकार झंकृत हो रही थी, वहाँ कृष्ण की वंशी और राम के तूणीर प्रवेश पाने लगे।।

1. भक्ति-भावना-भक्तिकालीन काव्य की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति है-भक्तिभावना। यह भक्ति-भावना चारा, काव्यधाराओं में समान तीव्रता से व्याप्त है। इन कविया का उद्देश्य था-भक्ति के माध्यम से परमात्मा को प्राप्त करना। निर्गुणवादी कविया ने आपने ब्रह्म को निराकार माना। अतः उन्होंने निर्गुण ईश्वर की उपासना की तथा सगुणवादी कविया ने राम, कृष्ण, विष्णु आदि आराध्य देवताओं की भक्ति में रचनाएँ की। सभी कवि अपनी-अपनी आस्थाओं के प्रति गहराई से जुड़े हुए थे। कबीर की प्रबल मान्यता थी-“साथ संगति, हरि भक्ति बिन, कुछ न आवहिं हाथ।

“इसी प्रकार जायसी आदि सूफी कविया ने अपनी लौकिक गाथाओं में प्रेम और भक्ति को व्यक्त किया। इधर सूर, तुलसी, रसखान आदि तो अपने आराध्य पर न्योछावर ही हैं। सूर अपने कृष्ण के बिना ‘अनत कहाँ सुख पावै’ वाली स्थिति में हैं. तो रसखान अपने गोपाल पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार है। इस प्रकार भक्ति के माध्यम से ईश्वर-आराधना करना इस काल का मूत्र मंत्र था।

2. नाम-स्मरण की महत्ता-सभी कविया. ने अपने आराध्य के नाम-स्मरण पर बल दिया है। नाम-स्मरण म. जप, भजन, प्रभु-कीर्तन आ जाते हैं। कबीर ने स्पष्ट कहा है-

‘हरि को भजे सो हरि का होई।’

जायसी भी लिखते हैं-सुमिरौं आदि एक करतारन। जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू।’ तुलसी ने नाम-स्मरण पर बल देते हुए लिखा है-

तुलसी अलखहि का लखे, राम नाम जपु नीच।’

3. गुरु-महिमा का ज्ञान-सगुण-निर्गुण-सभी भक्त कविया. ने गुरु को अपनी ईश्वर साधना में, महत्वपूर्ण स्थान दिया है। कबीर ने तो गुरु की ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया है। उसके लिए तर्कपूर्ण कारण बतलाते हुए उन्होंने कहा है

‘हरि रूठै तो ठौर है, गुरु रूढ़ नहीं ठौर।’

इसी प्रकार जायसी और तुलसी ने भी गुरु के अंधकार-विनाशक एवं ईश्वर का दर्शन कराने वाला प्रकाशपुंज माना है।

4. अहंकार-विसर्जन पर बल-सभी कविया. ने प्रभु-प्राप्ति के लिए अहं-त्याग पर बल दिया है। भक्ति में. अंहकार सबसे बड़ा बाधक है। भक्ति की म्यान में. या मैं रह सकता हूँ, या ‘तू’। इसलिए कबीर लिखते हैं

‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है “मैं” नाहिं।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं॥

इसी प्रकार सूरदास स्वयं को ‘पतितन की टीकौ’ कहते हुए इसी अहंकार-विसर्जन पर बल देते हैं। तुलसीदास भी भक्ति के आवेग में स्वयं को ‘दीन मलीन अघी अघाई’ कहते हैं। सभी कविया की मान्यता है कि ईश्वर की प्राप्ति अहंकार को छोड़ने पर ही संभव है।

5. संसार की असारता पर विश्वास-भक्तिकालीन कविया. ने संसार को क्षणभंगुर असार तथा नश्वर माना है। इसी तर्क के आधार पर उन्होंने भक्ता, को संसार का त्याग करने तथा प्रभु-शरण में आने की सलाह दी है। कबीर कहते हैं

‘पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।’

6. भाषा-शैली-भक्तिकाल की प्रमुख भाषाएँ हैं-अवधी और ब्रज। तुलसी ने अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं में श्रेष्ठ काव्य लिखा। जायसी ने अवधी को अपनाया जबकि सूर और रसखान ने ब्रज को उत्कर्ष प्रदान किया। कबीर की काव्य-भाषा सधुक्कड़ी थी। इस काल में प्रबंध काव्या की प्रधानता रही। संत काव्य को छोड़कर शेष सभी काव्या में प्रबंध-काव्या की प्रमुखता रही। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया आदि इस काल के प्रसिद्ध छंद थे। रस की दृष्टि से इस युग का अधिकांश साहित्य भक्ति रस की कोटि में आता है। शांत रस तथा वात्सल्य की भी मार्मिक अभिव्यक्ति इस काल में हुई है।

प्रश्न 5.
भक्तिकालीन सगुण भक्ति धारा की सामान्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है। जिस साहित्य की श्री-समृद्धि के कारण भक्तिकाल को स्वर्ण युग कहा जाता है वह है सगुण भक्ति साहित्य। भक्तिकालीन सगुण साहित्य अत्यन्त श्रेष्ठ कोटि का काव्य है। अपनी श्रेष्ठता के कारण ही यह साहित्य आज भी साहित्य प्रेमियों का कंठहार बना हुआ है।

परिचय-सगुण साहित्य के अन्तर्गत राम भक्तिधारा तथा कृष्ण भक्तिधारा के भक्तिकालीन कवि आ जाते हैं। इन कवियों ने ईश्वर के साकार रूप-राम या कृष्ण की लीलाओं का गान किया। राम-कृष्ण की लीलाओं के कुछ अमर गायक हैं-महाकवि तुलसीदास, सूरदास, रसखान, मीराबाई आदि। “रामचरितमानस” और “सूरसागर” इस साहित्य के यशस्वी ग्रन्थ हैं जो आज भी बहुत रुचिपूर्वक पढ़े और सुने जाते हैं। इस साहित्य की सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं ईश्वर के साकार रूप की उपासना-सगुण भक्ति के कवि ईश्वर के साकार रूप की आराधना करते थे।

ये कवि विष्णु के भक्त थे। इन वैष्णव कवियों ने विष्णु भगवान के ही अवतारों-राम और कृष्ण की उपासना की। ये कवि अपने देवों की ब्रह्म से भी ऊपर मानते थे। इन्होंने निराकार ब्रह्म की जगह उसके साकार रूप की प्रतिष्ठा की। सूरदास का भ्रमरगीत हो या नन्ददास का भ्रमरगीत दोनों निर्गुण पर सगुण की विजय घोषित करते हैं।

लीलागान-सगुण भक्त कवियों ने अपने इष्टदेवों की लीलाओं का गुणगान किया। लीला-वर्णन के माध्यम से उन्होंने इष्टदेवताओं की आराधना की। उनके ये लीलावर्णन अत्यन्त मार्मिक बन पड़े हैं। तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अत्यन्त भव्य, शालीन ओर मर्यादित वर्णन किया है। वे शील, शक्ति और सौन्दर्य के अवतार हैं। सूरदास ने अपने इष्टदेव कृष्ण को नटखट बालक, रसिक युवक और प्रेमी ब्रजेश के रूप में प्रकट किया है। उनका यह वर्णन अत्यन्त मनोरम, सुन्दर तथा आकर्षक बन पड़ा है। वात्सल्य, भक्ति और शृंगार रस के वर्णन में ये कवि अद्भुत सिद्ध हुए हैं। आज भी इनकी रचनाएँ हिन्दुस्तान के घर-घर में गाई जाती है।

अवतारवाद-सगुण कवियों ने अवतारवाद को माना। उनके अनुसार ईश्वर निर्गुण होते हुए भी धरती को कष्टों से मुक्त करने के लिए यदा-कदा अवतार धारण करता है-

जब-जब होहिं धर्म की हानि। बाढ़ असुर महा अभिमानी।
तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ॥

काव्य प्रयोजन-इन भक्त कवियों ने न तो रीतिकाल की भाँति अपने राजाओं को खुश करने के लिए कविता लिखी, न आदिकाल की भाँति युद्धोन्माद को बढ़ाने के लिए अपितु इन्होंने अपने आंतरिक सुख के लिए कविता लिखी। कविता लिखना इनका लक्ष्य नहीं था। इनका लक्ष्य था-अपने प्रभु की लीलाओं का गुणगान करना। कविता इनके लिए स्वांतः सुखाय थी। . आत्मनिवेदन-इन कवियों ने अपने काव्य में प्रभु को महत्व दिया है तथा स्वयं को उनके चरणों में झुकाया है। सूरदास का यह भाव देखिए

प्रभु जी सब पतितन को टीकौ।

समन्वयवाद-इन कवियों में खंडन की प्रवृत्ति न के बराबर है। इन्होंने किसी अन्य पक्ष को काटने की बजाय अपने पक्ष की मनोरम ओर भावमय रूप में प्रस्तुत किया है। तुलसीदास ने राम के भक्त होते हुए भी शिव या अन्य देवताओं के प्रति सम्मान प्रकट किया है। इनमें कट्टरता न होकर तालमेल की प्रवृत्ति अधिक प्रबल दिखाई देती है।

कलागत विशेषताएँ-सगुण कवि सुशिक्षित थे। इसलिए इनके काव्य का कला-पक्ष भी अत्यन्त समृद्ध है। वे कला के भंडार हैं। तुलसी और सूर के काव्य की कला का स्थान सर्वोपरि है। भाव और कला का ऐसा सुन्दर संयोग हिन्दी साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है।

प्रबंध-मुक्तक-इन कवियों ने प्रबंध और मुक्तक दोनों शैलियों में अपना काव्य लिखा। तुलसी का रामचरितमानस हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। सूरदास के पद, तुलसी के सवैये, कवित्त, रसखान के सवैये मीरा के पद सब मुक्तक हैं। इनमें भावना के साथ-साथ संगीत की बहार भी दिखलाई पड़ती है।

भाषा-इन कवियों ने ब्रज और अवधी भाषा में काव्य रचा। ब्रज इन कवियों की प्रिय भाषा थी। ब्रज की समस्त कोमलता और मधुरता इस काव्य में देखी जा सकती है। तुलसी ने अपना रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखा।

गुण-अलंकार-इन कवियों की भाषा में अलंकारों का सहज प्रयोग हुआ है। ऐसा लगता है कि ‘भाव’ की सरिता में अलंकार खुद-व-खुद बहते चले आए हैं। एक उदाहरण देखिए-

लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मदहिं पिए।

सूरदास की इस पंक्ति में अलंकारों और काव्य-गुणों का मेला सा लग गया है। इस प्रकार यह काव्य हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ काव्य ठहराता है।।

प्रश्न 6.
भक्ति के उदय की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
भक्ति आन्दोलन का प्रारंभ आदिकाल के पश्चात् हुआ। कई विज्ञान भक्ति के विकास को राजनीतिक घटनाओं का परिणाम मानते हैं तथा कुछ विद्वान इसे दक्षिण भारत की भक्ति परंपरा का स्वाभाविक विकास मानते हैं। इस आन्दोलन के विकास में जिन-जिन परिस्थितियों ने योगदान दिया वे निम्नलिखित हैं-

राजनीतिक विवशता-जॉर्ज ग्रियर्सन का मत है कि सन् 1300 तक आते-आते हिन्दू राजा मुस्लिम आक्रमणकारियों से लड़ते-लड़ते सब कुछ गँवा बैठे थे। मुसलमानों का शासन सुदृढ़ हो चला था। हिन्दू दरबार समाप्त हो चुके थे। इसलिए कवियों को राजदरबार छोड़कर ईश्वर के दरबार में जाना पड़ा। परन्तु एकाएक कवि लोग ईश्वर-दरबार की ओर क्या, उन्मुख हो गए इसका कारण बताते हुए ग्रियर्सन लिखते हैं कि यह भक्ति धारा ईसाई धर्म के प्रभाव से आई। परन्तु इस तर्क का अब खंडन हो चुका है। हाँ, यह बात सही है कि हिन्दू राजदरबार तब खंडित हो चुके थे। अतः हिन्द कवियों को वहाँ से जाना पड़ा।

राजनीतिक निराशा का परिणाम-कुछ विद्वानों का विचार है. कि हिन्दू जाति मुसलमान शासकों के सामने लड़-लड़कर थक-हार गई थी। अतः पराजित कवि आत्मरक्षा के लिए प्रभु के दरबार की ओर प्रवृत्त हुआ। हारे हुए व्यक्ति के मन को कुछ तसल्ली प्रभु के दरबार से ही मिलनी संभव थी। अतः भक्ति का उदय भारतीयों की निराशा का परिणाम था।

संस्कृति की सुरक्षा का कवच-कई विद्वान यह भी मानते हैं कि उस समय मुसलमान शासकों द्वारा हिन्दू धर्म को मिटाने का प्रयास किया जा रहा था। हिन्दू मन्दिरों को तोड़ा जा रहा था उनके विश्वासों पर प्रहार किया जा रहा था। अतः देश को राजनीतिक मोर्चा छोड़कर धार्मिक मोर्चा सुदृढ़ करना पड़ा। अत: उन्होंने धर्म के प्रति अपनी आस्था बढ़ाकर अपनी संस्कृति की रक्षा की। इसीलिए राम का मर्यादा पुरुषोत्तम रूप सामने आया, जिसने भारतीय जनमानस को कुछ उत्साह प्रदान किया। उन्हें राजनीतिक हर्ष तो न हुआ, किन्तु आध्यात्मिक संतोष की अनुभूति हुई। इसी प्रकार धार्मिक समन्वय की शुरूआत संत काव्य के रूप में हुई।

दक्षिण की भक्ति-परंपरा-आज जिस मत को सर्वाधिक मान्यता मिल रही है, वह यह है कि हिन्दी भक्ति आन्दोलन निराशा या पराजय या ईसाईयत का परिणाम नहीं है, अपितु यह भारत की निरंतर चली आ रही भक्ति परंपरा का ही सहज विकास है। यह ध्यान देने योग्य है कि जिस समय उत्तर भारत में मुसलमानों के अत्याचार चल रहे थे उस समय दक्षिण भारत में शान्तिपूर्वक भक्ति-आन्दोलन भी चल रहा था। अतः भक्ति आन्दोलन को केवल राजनीतिक निराशा का परिणाम नहीं कहा जा सकता।

सातवीं शताब्दी से ही दक्षिण में आलवार संतों का बोलवाला था। उन संतों ने अपनी-अपनी मान्यताओं द्वारा ईश्वर-भक्ति का मार्ग ढूँढ़ा था। यही संत अपने-अपने मार्ग का प्रचार करने के लिए उत्तर भारत में आए। शंकराचार्य, माधवाचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य आदि धर्मप्रचारका ने दक्षिण में चल रही भक्ति की लहर को उत्तर भारत में भी लहराया। यदि उत्तर भारत में आक्रमण की लहर न होती।

राजनीतिक निराशा न होती तो भी भक्ति की लहर से उसे कोई बचा नहीं सकता था। इस भक्ति की लहर का प्रवाहित होना स्वाभाविक ही था। हाँ, इतना जरूर हो सकता है कि राजनीतिक निराशा और मजबूरी ने सारे उत्तर भारत को भक्ति की लहरों में एकदम झोंक दिया, जिससे यह काव्य-आन्दोलन के रूप में उभरा। सारा कवि समुदाय जो अभी कुछ समय पहले तलवार और श्रृंगार में मस्त था एकाएक प्रभु की मुरली के स्वर में राग अलापने लगा।

रामानुजाचार्य उत्तर भारत में आए। वे राम-भक्त थे। चैतन्य महाप्रभु बंगाल में प्रचारार्थ आए। वल्लभाचार्य ने ब्रज प्रदेश में कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। तुलसी, सूर, मीरा, रसखान ने इन्हीं की भक्तिधाराओं को वाणी दी। इस प्रकार दक्षिण के आलवार संतों द्वारा बहाई गई भक्ति की धारा उत्तर भारत में फैली। इसे ईसाई पादरियों का प्रभाव नहीं कहा जा सकता।

निर्गुण-भक्ति-भारत में जिस निर्गुण भक्ति की शुरूआत हुई उसके बीज प्राचीन धार्मिक साहित्य में देखे जा सकते हैं। अत: कबीर, दादू आदि संत कवियों का साहित्य भी परंपरा का स्वाभाविक विकास है।

समन्वय का वातावरण-तत्कालीन हिन्दू समाज मुस्लिम संस्कृति के साथ तालमेल चाहता था। यह प्रयास हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के द्वारा हुआ। सूफी कवि अधिकतर मुसलमान थे। उन्होंने अपने साहित्य द्वारा हिन्दू-मुसलमान के भेद को मिटाने का प्रयास भक्ति के माध्यम से किया।

निष्कर्ष-निष्कर्ष में कह सकते हैं कि हिन्दी काव्य की भक्तिधारा दक्षिण की भक्ति धारा का स्वाभाविक विकास है, जिसे तत्कालीन राजनीतिक निराशा से बल मिला।

प्रश्न 7.
संत काव्य अथवा ज्ञानमार्गी साहित्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश ‘डालिए।
अथवा,
भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
भक्तिकाल की चार काव्यधाराओं में संत काव्य का महत्वपूर्ण स्थान है। ज्ञान के आधार पर ईश्वर-आराधना करने के कारण इस काव्य को ज्ञानमार्गी काव्य भी कहते हैं। इस काव्य पर आदिकालीन सिद्ध, नाथ साहित्य का व्यापक प्रभाव था। संत कवि निर्गुण ईश्वर के उपासक थे। कबीर इस काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हुए। इस काव्य की सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं

1. निर्गुण ईश्वर पर विश्वास-संत कवि निराकार ईश्वर को मानते थे। कहीं-कहीं उन्होंने ‘राम’ अन्य किसी देवी-देवता का भी नाम लिया है, किन्तु उन्होंने उसे निराकार ब्रह्म का प्रतीक ही माना है। कबीर के ‘राम’ दशरथ पुत्र न होकर ब्रह्मरूप है। उनका कहना है

“निर्गुण राम जपहु रे भाई, अविगत की गति लखी न जाई”।।

2. एकेश्वरवाद पर आस्था-संत कवि अवतारवाद या बहुदेववाद के प्रबल विरोधी थे। उनके अनुसार राम और रहीम में, हिन्दू और मुसलमान में, जड़ और चेतन में, प्रकृति के कण-कण में एक ही ब्रह्म की ज्योति विद्यमान है। वह ब्रह्म आजन्म है सर्वव्यापक हैं तथा हमारे हृदय में स्थित है। अतः मन की साधना से ही उसे प्राप्त किया जा सकता है।

3. नाम-स्मरण पर बल-संत कवियों ने प्रभु के नाम-स्मरण पर बल दिया है। यह नाम-स्मरण मात्र अंधविश्वास नहीं अपितु मनोविज्ञान पर आधारित है। उनके अनुसार नाम-स्मरण से भक्त की चित्रवृतियाँ प्रभु की ओर केन्द्रित होती है जिससे उसे सायना में बल मिलता है।

4. गुरु की महिमा-संत कवियों ने गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उनकी मान्यता है कि गुरु ही साधक को मायामुक्त कर ईश्वर के पथ पर अग्रसर करता है। वह साधक के बंधनों को काटता है। अत: उसका स्थान तो ईश्वर से भी अधिक है क्योंकि-‘हरि रूठे तो ठौर है गुरु रूठे नहीं ठौर।’

5.ज्ञान और प्रेम-संत कवियों को ज्ञानमार्गी माना जाता है। उनका ज्ञान पुस्तकीय ज्ञान से भिन्न है। पुस्तकीय ज्ञान के तो वे घोर विरोधी है। कबीर लिखते हैं-

“पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ॥”

उनका ज्ञान ‘अनुभूति’ से भिन्न नहीं है। वे प्रेमानुभूति को ही ईश्वर का ज्ञान, बोध या अनुभव मानते हैं। वही उनके लिए ईश्वर-प्राप्ति का संबल है। सतगुरु द्वारा साधक के हाथ में, दिया हुआ दीपक ‘प्रभु ज्ञान’ का ही दीपक है।।

6. रहस्यानुभूतियों की अभिव्यक्ति-संत कवियों के काव्य में ईश्वर-प्रेम की मार्मिक अनुभूतियाँ व्यक्त हुई हैं। सर्वाधिक मार्मिकता उन काव्यांशों में है जहाँ आत्मा रूपी प्रेमिका परमात्मा रूपी प्रियतम के विरह में तड़पती हुई प्राण देने को तैयार हो जाती हैं। एक उदाहरण देखिए

“के विरहनि कू मीच दै, के आपा दिखलाइ।
आठ पहर का दांझणा मो पै सह्या न जाइ॥”

इसी प्रकार जिज्ञासा, प्रभु-मिलन, विरह, मिलन-आनन्द आदि की मार्मिक अनुभूतियाँ इस काव्य में उपलब्ध है।

7. अहं-विसर्जन पर बल-संत कवियों ने साधक को अहंकार छोड़ने के लिए प्रेरित किया है। उनके अनुसार-अपने ‘स्व’ का अपने ‘मैं, या ‘अपने’ का त्याग किए बिना प्रभु की प्राप्ति नहीं हो सकती।

8. माया तथा नारी का विरोध-संत कवियों ने माया को महाठगिनी माना है, तो साधक को ईश्वर-साधना के मार्ग से भटका देती है इसलिए उन्होंने माया का कडे शब्दों में विरोध किया है। उन्होंने नारी को भी माया जगाने वाली, सांसारिक भोग में लिप्त करने वाली मान कर उसका बहिष्कार किया है। परन्तु स्मरण रहे, उन्होंने मायावी जाल से मुक्त पतिव्रता नारी को समुचित सम्मान दिया है।

संत कवियों ने प्रायः गेय मुक्तक शैली को अपनाया है। दोहा, साखी, चौपाई उनके प्रमुख छंद हैं। इस प्रकार संत काव्य शिल्प की दृष्टि से चाहे श्रेष्ठ न हो, भावसंपदा की दृष्टि से इसकी श्रेष्ठता से इनकार नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 8.
प्रेममार्गी अथवा सूफी काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए। अथवा, भक्तिकालीन प्रेमाश्रयी शाखा की प्रमुख विशेषताओं का परिचय दीजिए।
उत्तर-
भक्ति काल में सूफी काव्य का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे प्रेममार्गी काव्यधारा भी कहा जाता है। इस काव्यधारा का मूल तत्व है-‘प्रेम’। सूफी कवि संत कवियों के समान निर्गुण ईश्वर पर विश्वास रखते थे। इनमें से अधिकांश कवि मुसलमान थे। इनमें धार्मिक कट्टरता नहीं थी। ये लोग संत स्वभाव के थे उदार और उदात्त थे। उनका उद्देश्य धार्मिक समन्वय करते हुए ‘प्रेम’ तत्त्व का निरूपण करना था। इन्होंने हिन्दू लोक-गाथाओं के आधार पर अपना काव्य रचा। इस काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ इस प्रकार है-

1. मसनवी काव्य-परंपरा का प्रभाव-सूफी कवियों के काव्य पर मसनवी काव्य-शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने मसनबी पद्धति के अनुसार काव्य के आरम्भ में ईश्वर-वंदना, मुहम्मद साहब की स्तुति, तत्कालीन बादशाह की प्रशंसा तथा आत्म-परिचय आदि दिया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय गाथाओं में वर्णित काव्य-रूढ़ियों का भी वर्णन किया है। उनके प्रबंध-काव्य मसनवी तथा भारतीय शैली के मिले-जुले रूप है।

2. प्रबंध काव्य की परंपरा-प्रायः सूफी कवियों ने प्रबंध-काव्य की रचना की है। उन्होंने हिन्दू लोक-गाथाओं को आधार बनाया है। ‘पद्मावत’ में रत्नसेन और पद्मावती की लौकिक प्रेम-गाथा व्यक्त हुई है। प्रायः सभी कवियों ने परंपरा के कारण प्रबंध-रचना को अपनाया है। उनकी प्रबंध-रचनाएँ यांत्रिकता लिए हुए हैं। प्रायः सभी में एक-सी घटनाएँ, एक-से वर्णन एक-सी बाधाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। उनमें मौलिकता का अभाव है। कथानक में गति और प्रवाह का अभाव है।

3. धार्मिक समन्वय की प्रवृत्ति-प्रायः सभी सूफी कवि मुसलमान थे। फिर भी उन्होंने हिन्दू लोक-गाथाओं को आधार बनाया। इसका कारण था उनका धार्मिक समन्वय। वे हिन्दू-मुस्लिम के भेद को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने अपने काव्य में व्यापक रूप से हिन्दू संस्कृति, हिन्दू आचार-विचार और हिन्दू आदर्शों को व्यक्त किया।

4. अलौकिक ‘प्रेम’ की व्यंजना-इन कवियों ने लौकिक गाथाओं के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना की। उनके नायक-नायिका आत्मा परमात्मा के रूप में अवतरित हुए हैं। पद्मावत में पद्मावती परमात्मा की रत्नसेन आत्मा का तथा सुआ गुरु’ का प्रतीक है। इन कवियों ने नारी को परमात्मा तथा पुरुष को आत्मा मानकर प्रबंध-रचना की है। इन्होंने प्रेम के वियोग पक्ष को अधिक महत्व दिया है।

संयोग के चित्रण में कहीं-कहीं अश्लीलता आ गई है। वियोग-चित्रण में सूफी कवि अधिक सफल हैं। उसमें भी जहाँ अतिशयोक्तिपूर्ण उक्तियाँ आ गई हैं, वहाँ वर्णन हास्यास्पद बन गया है।

5.हिन्दू-संस्कृति और लोक-संग्रह-इन कवियों ने अपनी काव्य-रचनाओं में हिन्दू संस्कृति, आचार-विचार, मत-रूढ़ियों का विस्तृत वर्णन किया है। ऐसा करके उन्होंने युग-युग से चले आते हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य को समाप्त कर उन्हें नजदीक लाने का प्रयास किए।

6. गुरु की महत्ता-सूफी काव्य में संत काव्य की तरह सद्गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गुरु आपत्ति-विपत्ति के समय साधक को मुक्ति का मंत्र बताता है तथा परमात्मा का मार्ग प्रशस्त करता है।

7. शैतान-सूफी कवियों ने शैतान को माया का प्रतीक मानते हुए उसे अपनी हर लोकगाथा में उपस्थिति किया है। वह कबीर की माया की भाँति साधक को साधना से पथभ्रष्ट करता है। गुरु की सहायता से साधक शैतान के पंजे से मुक्त हो सकता है।

8. नारी की प्रतिष्ठा-प्रेममार्गी कवियों ने नारी को परमात्मा का प्रतीक मानकर पुरुष से अधिक महत्व प्रदान किया। उनके अनुसार नारी वह नूर है जिसके बिना विश्व सूना है। .

9. रस-वर्णन-मूल तत्व ‘प्रेम’ होने के कारण सूफी कवियों का प्रमुख वर्ण रस श्रृंगार’ है। उन्होंने श्रृंगार के वियोग पक्ष का मार्मिक एवं अनुभूतिपूर्ण चित्रण किया है। पदमावली-नागमती वियोग वर्णन में कवि के अंतर्मन की पीड़ा को सरस अभिव्यक्ति मिली है। संयोग पक्ष के वर्णन में भी इन कवियों ने गहरी रुचि ली है। इसके अतिरिक्त करुण वीर तथा शांत रस की अभिव्यक्ति सुन्दर बन पड़ी है।

10. भाषा-शैली-इन कवियों ने मुख्यतः अवधी भाषा में काव्य-रचना की। कुछ कवियों ने ब्रज का प्रयोग किया। उनकी भाषा सरल, स्वाभाविक, अनुभूतिपूर्ण लोक भाषा है। मुहावरे-लोकोक्तियों तथा सहज अलंकार के प्रयोग से उत्तम, साहित्यिकता तथा अर्धगौरव आ गया है। जायसी इस काल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। अतः उनके ‘पद्मावत’ में इन सभी गुणों को देखा जा सकता है। दोहा-चौपाई इस काव्य के प्रिय छंद हैं। इस प्रकार सूफी काव्य हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है।

प्रश्न 9.
रामभक्ति काव्य की सामान्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। अथवा, भक्तिकाल की राम काव्य-धारा की सामान्य विशेषताओं का परिचय दीजिए।
उत्तर-
हिन्दी साहित्य के इतिहास में रामभक्ति काव्य का स्थान सर्वोपरि है। यदि हिन्दी साहित्य के किसी एक उत्कृष्टतम महाकाव्य का नाम लेना हो तो निर्विवाद रूप से ‘रामचरितमानस’ का नाम लिया जाएगा। यह ग्रन्थ हिन्दी साहित्य की ही नहीं, सम्पूर्ण भारतवर्ष की अमूल्य निधि है। इसे लिखने का श्रेय रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक गोस्वामी तुलसीदास को जाता है। रामभक्ति काव्य की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. राम के प्रति भक्ति-भावना-रामभक्त कवियों ने विष्णु के अवतार तथा दशरथ के पुत्र राम की आराधना में काव्य-रचना की है। उनके राम ब्रह्मस्वरूप है। पापों का विनाश तथा धर्म का उद्धार करने के लिए उन्होंने अवतार धारण किया है। वे शील, शक्ति और सौन्दर्य के पूँज हैं। अपने शील से वे त्रिभुवन को लोक-व्यवहार की शिक्षा देने वाले हैं। वे मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं आदर्शों के प्रतिस्थापक हैं। उनका लोकरक्षक रूप रामभक्ति काव्य में उजागर हुआ है।

2. समन्वय की भावना-रामभक्त कवियों का दृष्टिकोण समन्वयवादी है। उन्होंने राम के अतिरिक्त कृष्ण, शिव, गणेश आदि देवताओं की भी समान श्रद्धा से आराधना की है। रामचरितमानस में राम स्वयं शिव की भक्ति करते दिखाई देते हैं। उन्होंने सगुण-निर्गुण का भी. वबंडर खड़ा नहीं किया बल्कि वे सूक्ष्म रूप से राम को निर्गुण ही मानते हैं। यह अलग बात है कि भक्ति के लिए वे संगुण रूप की उपासना करते हैं। उन्होंने ज्ञान, भक्ति और कर्म का भी समन्वय किया है।।

3. लोक-संग्रह की भावना-इन कवियों ने लोक संस्कार के लिए राम तथा अन्य पात्रों को उच्च भावभूमियों पर प्रतिष्ठित किया। राम आदर्श पुत्र और राजा हैं लक्ष्मण और भरत आदर्श भाई हैं। सीता आदर्श पत्नी हैं, हनुमान आदर्श सेवक हैं। इसी प्रकार रामभक्त कवियों ने अपने पात्रों के माध्यम से लोक व्यवहार का आदर्श स्थापित किया है।

4. भक्ति का स्वरूप-इन कवियों ने दास्य-भक्ति को अपनाया है। उन्होंने राम को अपना स्वामी तथा स्वयं को उनका दास माना है।

सेवक सेव्य भाव बिन भव न तरिव उरगारि। -तुलसीदास

राम के आदर्श और उदात्त चरित्र के कारण इन कवियों को मधुर अथवा सख्य भाव की भक्ति का अवसर नहीं मिला, जो कृष्णभक्ति में संभव हो पाया।भक्ति में संभवयों को मधुर अथवा

5. पात्र तथा चरित्र-चित्रण-रामभक्त कवियों ने अपने काव्य में महान चरित्रों की प्रतिष्ठा को। उन्होंने छोटे से छोटे पात्र को अपनी महत्ता से अनुपम बना दिया। इन कवियों की विशेषतः तुलसीदास की लेखनी में ऐसा आकर्षक जादू था कि जो भी पात्र उनकी लेखनी का स्पर्श पाकर निकला, वह जन-जन का हृदयाहार बन गया। शवरी, जटायु, केवट आदि पात्रों को महिमामय बनाने में तुलसीदास की चरित्र-चित्रण शैली को श्रेय जाता है। उनके पात्रों में सत्वगुणी भी है रजोगुणी भी है, तथा तमोगुणी भी; किन्तु कवि का प्रयास तमोगुण पर सत्त्वगुण की विजय दिखलाने का रहा है। असत्य पर सत्य की विजय दिखाकर रामभक्ति काव्य ने पाठक को कर्म की प्रेरणा दी है।

6. रस-राम-कथा अत्यन्त व्यापक है। उस कथा में सभी रसों का समावेश हो सकने की जगह है। रामभक्त कवियों ने मार्मिक स्थलों की पहचान करके रस-सृष्टि की है। दास्य भक्ति के कारण मुख्यतः शांत रस को अभिव्यक्ति मिली है। प्रारम्भ में श्रृंगार रस को स्थान नहीं मिला। तुलसी ने भी श्रृंगार का निषेध किया क्योंकि वह राम के उदार चरित्र के अनुकूल नहीं बैठता था। परवर्ती रामभक्त कवियों ने अवश्य शृंगार-भक्ति की प्रस्तावना की। लक्ष्मण-मूर्छा दशरथ-मरण आदि प्रसंगों पर करुण रस को तथा लंका-दहन और युद्ध-प्रसंगों पर वीर तथा रौद्र रस को अभिव्यक्ति मिली है। हास्य को अपेक्षाकृत कम अवसर मिला है।।

7. अलंकार और छन्द-इस काल के कवि काव्य-मर्मज्ञ थे। उन्हें अलंकार और छंद विद्या का ज्ञान था। इसलिए अलंकार और छंद की दृष्टि से यह काव्य समृद्ध है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। तुलसी ने अनुप्रास के प्रयोग में अद्भुत कुशलता दिखलाई है। इस काल के कवियों ने दोहा, चौपाई, सोरठा, छप्पय, सवैया, धनाक्षरी, कवित्त आदि छंदों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है।

8. भाषा-इन कवियों ने प्रमुखत: अवधी का प्रयोग किया। केशव ने ब्रज में रचना की। इनकी भाषा रसपूर्ण, सरस तथा साहित्यिक है। वह लोकजीवन के निकट होते हुए भी साहित्यिकता के रस से ओत-प्रोत है। उनका शब्द-चयन पांडित्यपूर्ण एवं भावपूर्ण हैं। इस प्रकार रामभक्ति काव्य सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में गरिमापूर्ण स्थान रखता है।

प्रश्न 10.
कृष्णभक्ति काव्य की विशेषताएँ बतलाइए।
अथवा,
भक्तिकालीन कृष्णभक्ति काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
भक्तिकालीन साहित्य में कृष्ण-भक्ति धारा का महत्वपूर्ण स्थान है। सूर, मीरा, नन्ददास, रसखान आदि कवि इस काव्यधारा के प्रमुख आधार स्तम्भ है। इन कवियों ने ऐसी रसपूर्ण काव्य सृष्टि की जो भाषा के अवरोध के बावजूद आज भी भक्तों और पाठकों की रसमग्न करती चली आ रही है। इस काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं

1. कृष्ण-लीला वर्णन-कृष्णभक्त कवियों ने अपने काव्य में कृष्ण की लीलाओं का गान किया है। उन्होंने दार्शनिक आधार पर चाहे कृष्ण को परम ब्रह्म माना है, किन्तु उनकी रुचि कृष्ण के लोकरंजक एवं लीलामय स्वरूप में रही है। उन्होंने कृष्ण के शिशु-बाल स्वरूप से लेकर किशोर और तरुण स्वरूप का क्रीड़ामय चित्रण किया है। उनकी रुचि कृष्ण के नीति-विशारद या चक्रधारी रूप में नहीं रमी है। ऐसी प्रसंगों को वे चलता कर गए हैं। कृष्ण के नटखट, . माखनचोर और नटवर नरेश रूप में उन्होंने अधिक रुचि ली है।

2. वात्सल्य और श्रृंगार चित्रण-कृष्ण-भक्ति काव्य अपने वात्सल्य रस और श्रृंगार भक्ति के लिए सदा स्मरण किया जाता रहेगा। सूर ने कृष्ण की बाल-लीलाओं का ऐसा मनोरम चित्रण किया कि वात्सल्य को अलग से रस की श्रेणी में रखना पड़ा। इसी प्रकार शृंगार-भक्ति का वर्णन अधिकांशतः प्रेमाभक्ति का समावेश है। शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का चित्रण मार्मिकता से हुआ है। एक उदाहरण देखिए

निसि दिन बरसत नैन हमारे
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब तै स्याम सियारे।

3. भक्ति की अनन्यता-इन कवियों की अपने आराध्य कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति है। मीरा-कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई है। रसखान कृष्ण की एक-एक वस्तु पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं। सूर का मन ‘अनत नहीं सुख पावै’ की स्थिति में है। अन्य कवियों ने भी कृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण का भाव प्रकट किया है। रसखान या सूर. आदि कवियों ने गोपियों के माध्यम से अपनी अनन्य भक्ति प्रकट की है। भ्रमरगीत-सार गोपियों की अगाध आस्था के लिए प्रमाण है।

4. भक्ति का स्वरूप-कृष्ण-भक्त कवियों ने दैन्य भक्ति, मथुरा भक्ति, वात्सल्य भक्ति तथा सख्य भक्ति का आश्रय लिया है। सूरदास के प्रारंभिक छंद दैन्य भक्ति से युक्त है। ‘प्रभु, ही पतितनि की टीकौ’ दैन्य भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है। शैन्य भक्ति को इस काव्य में प्रमुखता नहीं मिली। कृष्ण का नटखट व्यक्तित्व और सख्य भक्ति में सूरदास को ही सफलता मिली है।

5. प्रकृति चित्रण-कृष्णभक्ति काव्य में प्रकृति के उद्दीपन रूप में चित्रण देखने को मिलता है। यह चित्रण अद्भुत कौशल से पूर्ण है। डॉ. ब्रजेश्वर के शब्दों में दृश्यमान जगत का कोई भी सौन्दर्य उनही आँखों से छुट नहीं सका।’

6. अनुभूति की मार्मिकता-यह काव्य अनुभूति के मार्मिकता की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ ठहराता है। रसखान के सवैये अपनी अनुभूति की तीव्रता से पाठक को रसमग्न कर देते हैं। मीरा के पद पढ़कर हृदय संवेदनशील हो उठता है। सूर की भाव-विह्वल गोपियाँ ज्ञानमार्गी ऊधो को ज्ञानमार्ग से डिगा कर प्रेम-मार्ग पर ले आती है। यह अब अनुभूति की मार्मिकता के कारण है। ‘भ्रमरगीत’ की गोपियाँ उपहास, खीझ, करुणा, प्रार्थना, क्रोध, खिल्ली या कटाक्ष के स्वर में जब बोलती है तो उनका अंतहृदय ही चीत्कार कर रोता दिखाई पड़ता है। अनुभूति की गहनता का एक उदाहरण देखिए

“विहनी बावरी सी भई।।
ऊँची चढ़ि अपने भवन में टेरत हाय दई।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बिछुरत कछु न कहीं”।।

7. भाषा-शैली-ब्रजराज की आराधना में लिखे काव्य की भाषा ब्रज को छोड़कर और कौन-सी हो सकती है? कृष्णभक्त कवियों की भाषा में ब्रज की मधुरता, रसमयता और भावुकता का उत्कर्ष देखने को मिलता है। उनकी भाषा में कहीं प्रयास नहीं, अपितु सहज स्वाभाविकता विद्यमान है। इन कवियों ने लोक-भाषा को ही साहित्यिक गरिमा प्रदान की है।

यह काव्य गीत शैली में लिखा गया है। अतः गीत काव्य के सभी. गुण-अनुभूति की मार्मिकता, संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, वैयक्तिकता, कोमलता आदि इसमें मिल जाते हैं। वचन-वक्रता, उक्ति वैचित्र्य और भाव-विदग्धकता, में इस काव्य का कोई सानी नहीं है। संगीत, लय और अर्थगौरव का ऐसा मंजुल समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है। इस प्रकार कृष्णभक्ति काव्य में विषय, भाव, रस, विचार और शिल्प की दृष्टि से ऐसा उत्कर्ष पाया जाता है कि इसी के आधार पर हम हिन्दी साहित्य पर गर्व कर सकते हैं।

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