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 Bihar Board Class 8 Social Science History Solutions Chapter 4 उपनिवेशवाद एवं जनजातीय समाज

Bihar Board Class 8 Social Science History Solutions Chapter 4 उपनिवेशवाद एवं जनजातीय समाज

BIHAR BOARD CLASS 8TH HISTORY NOTES

उपनिवेशवाद एवं जनजातीय समाज
पाठ का सारांश – इस अध्याय में हम भारत के वनों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय समाज के लोगों पर अंग्रेजी शासन की नीतियों से पड़ने वाले प्रभावों के बारे में जानेंगे।
जनजातीय समाज का जीवन— इस महाद्वीप में सबसे पुराने समय से रहने वाले लोग यानी जनजातीय समाज के लोगों को हम आम भाषा में आदिवासी’ कहते हैं। इनका जीवन पूरी तरह से वनों पर निर्भर था। उनके गाँव, बस्तियाँ आमतौर पर जंगलों के बीच या आस-पास होते थे।
वे अपने दैनिक उपयोग की अधिकांश जरूरतों की पूर्ति के लिए जंगलों पर निर्भर रहते थे।
जंगलों को साफ कर वे हल से खेती कर धान, दलहन एवं मक्का उपजाते थे। वे ‘झूम खेती’ करते थे। यानी दो-तीन वर्षों तक एक जगह खेती करते । जब उस जगह की उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाती अन्यत्र यही प्रक्रिया दुहराते । कुछ वर्षों तक परती छोड़ देने पर पहले की जगह जंगल वापस उग जाता था। इससे उनकी खेती का काम भी हो जाता था और जंगल को कोई नुकसान भी नहीं होता था। इस विधि को ‘घुमंतु कृषि विधि’ नाम से भी जाना जाता है।
अपनी आवश्यकता की कुछ वस्तुओं को वे बाजार से वस्तु विनिमय के माध्यम से खरीदते ।
यानी अपनी उपज व जंगल की लकड़ियों के बदले वे नमक, कपड़े आदि वस्तुएँ खरीदते । इस क्रम में उन्हीं को ज्यादा नुकसान होता था। उन्हें काफी ऊंची कीमत चुकानी पड़ती थी।
अंग्रेज ज्यादा से ज्यादा लगान वसूलने के लोभ में जंगलों तक भी पहुँच गये और तब इन आदिवासियों का जीना दूभर हो गया। उनसे उनकी जमीन छिन गयी। लगान चुकाने के लिए उन्हें महाजनों से सूद लेना पड़ा । आखिर में उनमें से कई महाजनों के बंधुआ मजदूर बन गये ।
कई आदिवासी कमाने के लिए असम के चाय बगानों तथा हजारीबाग एवं धनबाद के कोयला खदानों में चले गये। वहाँ ठेकेदार उन्हें बहुत कम मजदूरी देते थे, ज्यादा मुनाफा अपने पास रखते थे।
तब, कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई जैसे बड़े शहर बस रहे थे, मीलों लंबी रेल लाइनें बिछाई जा रही थीं। इसके लिए अधिक लकड़ियों की जरूरत थी। इसके लिए अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई शुरू कर दी।
ठेकेदार ज्यादा लकड़ियाँ काटने लगे जबकि नयी बनने वाली इमारतों, खदानों व जहाजों के लिए भारी मात्रा में लकड़ी की जरूरत पड़ती थी इसके लिए जंगलों को फिर से बसाना भी जरूरी थीं। इन्हीं आवश्यकताओं के लिए अंग्रेजों ने ‘वन विभाग’ बनाया।
अंग्रेजों ने सन् 1864 में ‘वन विभाग’ की स्थापना की और 1865 में ‘वन अधिनियम’ बनाया। अब आधे से अधिक जंगलों को अंग्रेजों ने 1878 के एक कानून के तहत आरक्षित (रिजर्व) कर दिया और उस पर अपना नियंत्रण कर लिया जहाँ आदिवासी नहीं जा सकते थे।
जंगल के कुछ बाहरी इलाकों तथा कुछ अन्य जंगलों को ‘सुरक्षित जंगल’ कहा गया, जहाँ लोगों को जाने की छूट थी पर वे पेड़ नहीं काट सकते थे। अपने काम की चीजें ला सकते थे और दो दिन से ज्यादा अपने जानवर भी नहीं चरा सकते थे।
अंग्रेजों के इन कानूनों व व्यवस्थाओं से आदिवासियों का जीवन बहुत मुश्किल हो गया था।
उनको खेती प्रायः खत्म हो गयी। अब वे बंधुआ मजदूर या सामान्य मजदूर बन समाज के भीषण शोषण के शिकार हो गये।
ठेकेदारों और महाजनों के द्वारा शोषित तो वे हो ही रहे थे अब ईसाई मिशनरियों ने भी इस परिदृश्य में प्रवेश किया। ईसाई मिशनरियों का वास्तविक उद्देश्य जनजातीय क्षेत्रों पर अपना वर्चस्व स्थापित करना तथा उनका धर्म परिवर्तन करना था। ये मिशनरियाँ सेठ, साहूकार, जमींदार एवं बिचौलिए के साथ मिलकर आदिवासियों का खूब आर्थिक एवं शारीरिक, शोषण करती थी। इसी कारण अंग्रेजों एवं गैर-आदिवासियों के खिलाफ जनजातीय समाज के लोगों ने जगह-जगह पर अस्त्र-शस्त्र उठा लिए। वैसे गरीब, गैर आदिवासी जो उनकी सहायता करते थे, उनसे आदिवासियों का गहरा सामाजिक संबंध, था। ये अंग्रेजों के खिलाफ गोलबन्दी करने में इनके मददगार होते थे।
जनजातीय विद्रोह का स्वरूप-भारत में सबसे बड़ी संख्या भील जनजाति की है। 19वीं शताब्दी में गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, त्रिपुरा, कर्नाटक, विहार समेत उत्तर-पूर्व भारत, जहाँ-जहाँ आदिवासी थे, उन्होंने अंग्रेजों एवं उनके सहयोगी गैर आदिवासियों, महाजनों एवं साहुकारों के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई छेड़ दिया।
अंग्रेजों को लगान भरना बंद कर दिया । अंग्रेजों, महाजनों एवं साहुकारों के हर आदेश व नियम को मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी राज को समाप्त करने के लिए तत्कालीन विहार के संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह एवं ताना भगत आंदोलन भड़क उठा । आदिवासियों से जमीन छीनने का सिलसिला समाप्त कर जनजातीय समाज को संरक्षण देना शुरू हुआ। उत्तर-पूर्व से भारत में भी खासिया, गारो एवं नागा जनजातियों ने अंग्रेजों के खिलाफ संगठित विद्रोह किया ।
बिरसा मुंडा एवं मुंडा विद्रोह -15 नवम्बर, सन् 1874 को छोटानागपुर प्रमंडल के तमाड़ थानान्तर्गत उलिहातु गाँव के निकट एक छोटे से क्षेत्र ‘चलकद’ में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। वह ईसाई बन गया था। ईसाई धर्म से असंतुष्ट हो बाद में फिर मुंडा बन गया वह । अंग्रेजों एवं जमींदारों के शोषण के खिलाफ विद्रोही बन उसने मुंडा विद्रोह को जन्म दिया ।
1895 ई. में विरसा मुंडा को उसके कुलदेवता ‘सिंगबोगा’ से एक नये धर्म के प्रतिपादन की प्रेरणा मिली। उसने अपने को भगवान का अवतार घोषित किया और अंग्रेजी शासन का अंत करने का बीड़ा उठा लिया। उसके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई।
25 दिसम्बर सन् 1893 को विरसा ने पहला आक्रमण ईसाई मिशनरियों पर किया। उसे जेल में भेज दिया गया जहाँ हैजा की बीमारी से 2 जून सन् 1900 को उसकी मृत्यु हो गयी।
पर उसके द्वारा शुरू हुआ विद्रोह बढ़ता गया । अन्तत: अंग्रेजी सरकार जनजातियों के पक्ष में झुक गयी।
1902 में गुमला तथा 1905 में  खूंटी  अनुमण्डल का गठन किया गया ताकि आदिवासियों की समस्याओं को समझा और सुलझाया जा सके। आदिवासी किसानों की सुरक्षा के लिए ‘छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908’ बनाया गया। इसके तहत जनजातीय क्षेत्र की भूमि का गैर आदिवासियों को हस्तांतरण निषेध कर दिया गया।
मुंडा आन्दोलन ने ब्रिटिश सरकार को झुका दिया। डेढ़ सौ वर्षों से चला आ रहा, उनकी जमीन छीनने का सिलसिला समाप्त हुआ और जनजातीय समाज को संरक्षण प्राप्त हुआ । इस आन्दोलन
ने भारत में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को भी प्रभावित किया । जनजातीय समाज की अलग पहचान बनाने हेतु 15 नवम्बर, 2000 को विहार का विभाजन करके झारखंड राज्य बना दिया गया ।
पाठ के अन्दर आए प्रश्नों के उत्तर
1. जनजातीय समाज के लोग जंगल का उपयोग किन-किन चीजों के लिए करते थे ? क्या उनके उद्योग को विकसित करने में भी जंगल की भूमिका थी?
उत्तर–जनजातीय समाज के लोगों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति जंगलों से हो जाती थी। जैसे जलावन के लिए लकड़ियाँ, भोजन के लिए कंद-मूल, फल, शहद आदि या फिर जड़ीबूटियाँ उन्हें आसानी से जंगल से मिल जाती थीं। वे पशुपालन भी करते थे जिनका चारा भी उन्हें जंगलों से मिल जाता था। घर बनाने के लिए लकड़ियाँ भी जंगल से मिल जाती थीं।
हिरण, तीतर तथा अन्य पक्षियों का शिकार भोजन के लिए करते थे जो उन्हें जंगल से ही मिल जाते थे।
उनके उद्योग धंधे भी जंगलों पर ही आधारित थे। हाथी दांत, बांस तथा कुछ घातुओं पर की गई उनकी कलाकारी दूसरे समाजों में काफी पसंद की जाती थी। वे रबर, गोंद आदि का भी व्यापार करते थे। बाद में उन्होंने लाख और रेशम उद्योगों को भी अपनाया । ये सारी चीजें उन्हें जंगल से मिल जाती थीं। अत: जनजातीय समाज के उद्योग को विकसित करने में भी जंगल की उनके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका थी।
2. स्लीपर किसे कहते हैं ?
उत्तर-लकड़ी का तख्ता जिसके ऊपर रेल की पटरियाँ बिछाई जाती हैं, उन्हें स्लीपर कहते हैं।
3. बेगारी किसे कहते हैं ?
उत्तर-बिना वेतन या मजदूरी के काम करने को बेगारी कहते हैं।
4. बंधुआ मजदूर से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-कर्ज चुकाने के लिए बिना वेतन के मालिक के जमीन पर तब तक काम करते रहना जब तक कि कर्ज की रकम सूद समेत न चुक जाए, बंधुआ मजदूरी कहलाती है। वैसे मजदूरों को बंधुआ मजदूर कहते हैं।
5. दिकू किसे कहते हैं?
उत्तर-गैर आदिवासी सेठ एवं महाजन, जो अधिक ब्याज पर ऋण देते थे और उनका शोषण करते थे। ये व्यापारी एवं बिचौलिए का काम करते थे। इन्हें दिकू कहा जाता था।
6. क्या जनजातीय विद्रोह सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह था? इन विद्रोहों के लिए सेठ, साहुकार एवं महाजन कहाँ तक जिम्मेवार थे?
उत्तर-नहीं, जनजातीय विद्रोह सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह नहीं था। जनजातीय विद्रोह सेठ, साहूकार एवं अंग्रेजों के अन्य विचौलियों के भी खिलाफ था जो उनका आर्थिक एवं शारीरिक शोषण करते थे। सेठ, साहुकार एवं महाजन के इन भोले-भाले आदिवासियों का इतना भीषण आर्थिक, शारीरिक शोषण करते थे कि जनजाति समाज इनके खिलाफ और इनके सरपरस्त अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह खड़ा कर दिये ।
7. बिरसा मुंडा ने स्वयं को भगवान का अवतार क्यों घोषित किया?
उत्तर-सन् 1895 ई. में विरसा को उसके कुलदेवता ‘सिंगबोगा’ से एक नये धर्म के प्रतिपादन की प्रेरणा मिली थी। उसी प्रेरणा के अनुसार बिरसा मुंडा ने स्वयं को भगवान का अवतार घोषित किया था।
अभ्यास:-
आइए फिर से याद करें-
1. सही विकल्प चुनें-
(i) जनजातीय समाज के लोग आम भाषा में क्या कहलाते थे?
(क) हरिजन
(ख) आदिवासी
(ग) सिक्ख
(घ) हिन्दू
(ii) दिकू किसे कहा जाता था?
(क) अंग्रेज
(ख) महाजन
(ग) गैर आदिवासी
(घ) आदिवासी
(iii) बिरसा मुंडा किस क्षेत्र के निवासी थे?
(क) छोटानागपुर
(ख) संथाल परगना
(ग) मणिपुर
(घ) नागालैंड
(iv) गिंडाल्यू ने अंग्रेज सरकार की दमनकारी कानूनों को नहीं मानने का भाव जनजातियों में जगाकर गांधीजी के किस आंदोलन से जनजातीय आंदोलन को जोड़ने का सफल प्रयास किया?
(क) असहयोग आंदोलन
(ख) सविनय अवज्ञा आंदोलन
(ग) भारत छोड़ो आंदोलन
(घ) खेड़ा आंदोलन
(v) झारखंड राज्य किस राज्य के विभाजन के परिणामस्वरूप बना था?
(क) विहार
(ख) बंगाल
(ग) उड़ीसा
(घ) मध्य प्रदेश
उत्तर-(i) (ख), (ii) (ग), (iii) (क), (iv) (ख), (v) (क)।

2. निम्नलिखित के जोड़े बनाएँ:
(क) जादोनांग                              (क) मणिपुर
(ख) बिरसा मुंडा                           (ख) उड़ीसा
(ग) कंध जाति                              (ग) जेलियांगरांग आंदोलन
(घ) टिकेन्द्र जीत सिंह                    (घ) ताना भगत आंदोलन
(ङ) जतरा भगत                           (ङ) सिंगबोगा
उत्तर –
(क) जादोनांग                               (ग) जेलियांग रांग आंदोलन                                                                                                                  (ख) बिरसा मुंडा                           (ङ) सिंगबोगा
(ग) कंध जाति                              (ख) उड़ीसा
(घ) टिकेन्द्रजीत सिंह                     (क) मणिपुर
(ङ) जतरा भगत                           (घ) ताना भगत आंदोलन

आइए विचार करें-
(i) अठारहवीं शताब्दी में जनजातीय समाज के लिए जंगल की क्या उपयोगिता थी?
उत्तर– अठारहवीं शताब्दी में जनजातीय समाज पूर्णतः जंगल पर निर्भर था। वे जंगलों में व उसके आस-पास रहते थे। उनके दैनिक उपयोग की अधिकांश जरूरतों की पूर्ति जंगलों से
ही होती थी। वे जंगलों को साफ कर खेती योग्य जमीन तैयार करते थे। पशुपालन भी करते थे जिनका चारा उन्हें जंगलों से मिलता था। उनके घर भी जंगल की लकड़ियों के ही बने होते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि तब जनजातीय समाज अपनी आजीविका व अस्तित्व के लिए पूर्णतः जंगलों पर निर्भर थे। जंगल की उपयोगिता उनके सारे कामों के लिए थी। वे जंगलों पर
पूर्णतः निर्भर थे।
(ii) आदिवासी खेती के लिए किन तरीकों को अपनाते थे?
उत्तर– आदिवासियों की खेती का तरीका बिल्कुल अलग था। पहाड़ी क्षेत्रों पर रहने वाले आदिवासी ‘झूम खेती’ की विधि अपनाते थे। इसके अन्तर्गत वे जंगल के किसी भाग को काट-छांट कर साफ करते थे। दो-तीन वर्षों तक उस जगह पर खेती करने के बाद जब उस जगह की उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाती थी तब वे किसी और स्थान पर यही प्रक्रिया दोहराते थी। कुछ वर्षों तक परती छोड़ देने के बाद पहले की जगह पर वापस जंगल उग जाता था।
इससे उनकी खेती का काम भी हो जाता था और जंगल को भी कोई नुकसान नहीं होता था। इस विधि को ‘घुमंतु कृषि विधि’ के नाम से भी जाना जाता है।
(iii) गैर आदिवासियों एवं अंग्रेजों के प्रति आदिवासियों का विरोध क्यों हुआ?
उत्तर—अंग्रेज ज्यादा से ज्यादा लगान प्राप्त करने के फेर में जंगलों तक भी पहुंच गये।
उन्होंने आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया । आदिवासी मानते थे कि उनके पूर्वजों ने जंगलों को साफ कर उसे खेती के लायक बनाया है, इसलिए जमीन के मालिक वे स्वयं हैं। इसके लिए उन्हें किसी को किसी तरह का लगान या कर देने की आवश्यकता नहीं है। जबकि अंग्रेजों ने नई लगान व्यवस्थाओं के तहत उनके द्वारा जोती जाने वाली जमीनों को भी सरकार दस्तावेजों में दर्ज कर लिया और उनके ऊपर भी अन्य किसानों की तरह सलाना लगान की राशि तय कर दी।
लगान की राशि चुकाने के लिए उनकी जमीनें नीलाम होने लगी या फिर महाजनों के कब्जे में जाने लगीं। अब वे झूम खेती नहीं कर पाते थे। अलग-अलग जमीनों पर खेती करने की उनको आजादी भी नहीं रही। सरकारी कर्मचारियों के उन तक पहुँचने का भी उन पर बुरा असर हुआ।
कर्ज लेने वालों की संख्या बढ़ने से अब उनके क्षेत्रों में गैर आदिवासी सेठ, महाजन एवं सूदखोरों का भी प्रवेश हुआ। ये महाजन व साहुकार हमेशा इस प्रयास में रहते थे कि किस तरह इनकेbजमीनों को हथियाया जाए और इन्हें बंधुआ मजदूर बनाया जाए।
अतः गैर आदिवासियों एवं अंग्रेजों द्वारा अपनायी गयी शोषण व जुल्म की नीतियों के फलस्वरूप आदिवासियों का प्रतिरोध हुआ और वे शस्त्र उठाने को विवश हो गये।
(iv) ‘वन अधिनियम’ ने आदिवासियों के किन अधिकारों को छीन लिया?
उत्तर – तेजी से खत्म होते जंगल की समस्या को हल करने के लिए अंग्रेज सरकार ने सन् 1864 में ‘वन विभाग’ की स्थापना की एवं सन् 1865 में ‘वन अधिनियम’ भी बनाया।
वन अधिनियम के तहत वृक्षारोपण की सुरक्षा के लिए तथा पुराने जंगलों को बचाने के लिए ढेरों नियम बनाए गए। इन सबका असर यह हुआ कि आम लोगों और आदिवासियों का जंगलों पर जो परंपरागत अधिकार था वह छिनने लगा। वे अब अपनी मर्जी से लकड़ी काटने, जानवर चराने, फल-फूल इकट्ठा करने या शिकार करने के लिए जंगलों में नहीं जा सकते थे। यहाँ तक कि जंगलों में उनके प्रवेश को भी वर्जित कर दिया गया था। अभी तक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आदिवासी काफी कुछ जंगलों पर निर्भर थे लेकिन अब उस पर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
(v) ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी समाज में असंतोष पैदा कर दिया, कैसे?
उत्तर – आदिवासियों को शिक्षा देने के उद्देश्य से ईसाई मिशनरियों का भी उनके इलाके में आगमन हुआ। ईसाई मिशनरियों का वास्तविक उद्देश्य जनजातीय क्षेत्रों पर अपना वर्चस्व स्थापित करना तथा उनका धर्म परिवर्तन करना था। उन्होंने आदिवासी के धर्म एवं उनकी संस्कृति की आलोचना करना शुरू कर दी और बहुत से आदिवासियों का धर्म परिवर्तन भी करा डाला । ईसाई मिशनरियों ने उन्हें यह प्रलोभन दिया वह सेठ, साहुकारों एवं महाजनों से उनकी रक्षा करेगी।
परन्तु वास्तविकता कुछ और ही थी। ये मिशनरियाँ सेठ, साहुकार, जमींदार एवं बिचौलिए के साथ मिलकर आदिवासियों का खूब आर्थिक एवं शारीरिक शोषण करती थी। इन्हीं कारणों से आदिवासी समाज में ईसाई मिशनरियों के प्रति असंतोष पैदा हुआ । आखिरकार अंग्रेजों एवं गैर आदिवासियों के खिलाफ आदिवासियों ने जगह-जगह पर अस्त्र-शस्त्र उठा लिये।
(vi) बिरसा मुंडा कौन थे? उन्होंने जनजातीय समाज के लिए क्या किया?
उत्तर-बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर सन् 1874 ई० को छोटानागपुर प्रमंडल के तमाड़ थानान्तर्गत उलिहातु गाँव के निकट एक छोटे से क्षेत्र ‘चलकद’ में हुआ था।
उसके पिता का नाम सुगना मुंडा एवं माता का नाम कदमी था। बिरसा की शिक्षा-दीक्षा चाईबासा के एक जर्मन मिशन स्कूल में हुई थी। शुरू में कुछ मुंडाओं के साथ मिलकर उसने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया, पर बाद में ईसाई धर्म से असंतुष्ट होकर फिर मुंडा बन गया।
उसके मन में अंग्रेजों एवं जमींदारों के प्रति आक्रोश की भावना ने ही मुंडा विद्रोह को जन्म दिया ।
-सन् 1895 में बिरसा को उसके कुलदेवता ‘सिंगबोगा’ से एक नये धर्म के प्रतिपादन की प्रेरणा मिली, जिसके अनुसार उसने अपने-आपको भगवान का अवतार घोषित किया और अंग्रेजी शासन का अंत करने का बीड़ा उठा लिया। उसने अपने कई अनुयायियों के साथ अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और रांची के एक जेल में 2 जून, 1900 को हैजा की बीमारी से उसकी मृत्यु हो गयी। पर उसके द्वारा शुरू किया गया मुंडा विद्रोह जारी रहा । परिणामस्वरूप अंत में मुंडा आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को झुका दिया और उन्होंने जनजातीय समाज को संरक्षण दिया व विशेष सुविधाएँ भी ।
(vii) अंग्रेज संथालों का शोषण किस तरह किया करते थे?
उत्तर-अंग्रेज संथालों का हर प्रकार से शोषण किया करते थे। उन्होंने सबसे पहले तो नई लगान व्यवस्थाओं के तहत उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर दिया। फिर, लगान की भारी राशि चुकाने के लिए उनको असमर्थ बना उनकी जमीन को नीलाम कर दिया । आदिवासियों को उन्होंने ‘वन अधिनियम’ बनाकर जंगलों का उपयोग करने से वंचित कर दिया। कभी जो स्वतंत्र और अपनी जमीन के मालिक थे, अंग्रेजों ने उन्हें बंधुआ मजदूर बनने की राह पर डाल दिया और उन्हें उनकी जमीन से और जंगलों से बेदखल कर दिया । अंग्रेजों ने संथालों का आर्थिक, शारीरिक, मानसिक हर प्रकार से शोषण किया था।
(viii) जादोनांग कौन था? उसकी उपलब्धियों के विषय में बताइए।
उत्तर– उत्तर पूर्व भारत में, मणिपुर में जेमेई, लियांगमेई एवं रांगमेई नामक नागा जनजाति की बहुलता थी। जादोनांग रांगमेई जनजाति का नेता था। उसके नेतृत्व में 1920 में जनजातीय लोगों ने विद्रोह का झंडा खड़ा किया।
उपरोक्त तीन जनजातियों के नाम पर इस आन्दोलन को ‘जेलियारांग आंदोलन’ का नाम दिया गया। जादोनांग ने सर्वप्रथम इन तीन जनजातियों में एकता स्थापित कर अंग्रेजों एवं गैर आदिवासियों को बाहर खदेड़ने का एक राजनैतिक कार्यक्रम बनाया। खास बात यह थी कि इनका आन्दोलन आगे चलकर गांधीजी द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन के साथ जुड़ गया।
(ix) जनजातीय विद्रोह में महिलाओं की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर-जादोनांग की तेरह वर्षीय चचेरी बहन गिंडाल्यू ने अपने भाई की भूमिगत योजना के तहत नागा राज्य की स्थापना के प्रयास में उसका सक्रिय साथ दिया। एक हत्या के मामले में जब जादोनांग को फंसाकर अंग्रेजों ने 29 अगस्त, 1929 को, उसे फांसी पर चढ़ा दिया तो
मिंडाल्यू ने इस आंदोलन को जारी रखा। 1932 में इस आंदोलन को दबाकर मिंडाल्यू को आजीवन कारावास की सजा दी गई। सन् 1947 में आजादी मिलने के बाद उसे रिहा कर दिया।
उसने अंग्रेजी सरकार के दमनकारी कानूनों के प्रति जनजातियों में अवज्ञा का भाव जगाया और इस प्रकार वह गाँधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन की मुख्य धारा से अपने आन्दोलन को जोड़ने में सफल रही।
कई अन्य आदिवासी महिलाओं ने भी उपनिवेशवाद के खिलाफ आदिवासियों के विद्रोह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ये महिलाएं सैनिक कार्रवाई करने से लेकर विद्रोह का नेतृत्व करने तक के कार्य में पुरुषों का साथ देती थीं। राधा, हीरा, फूलों, झानो, बिरसा मुंडा के दोस्त गया मुंडा की पत्नी ‘मानी बुई’, बेटी थीगी, नागी और लेम्बु तथा उसकी दो बहुओं ने भी अंग्रेजों के खिलाफ गडाँसा, तलवार, कुल्हाड़ी, लाठी और लोहे की छड़ का प्रयोग किया। ताना भगत आंदोलन में भी जतरा भगत के बाद लीथो उराँव नाम की जनजातीय महिला ने नेतृत्व संभाला। गोंड जनजाति की महिला राजमोहिनी देवी ने 1940 के दशक के उत्तरार्द्ध से 1950 के दशक के आरम्भ तक आंदोलन का नेतृत्व संभाला। आदिवासी महिलाओं ने जनजातीय विद्रोह में जमकर मोर्चा संभाला था।
(x) जनजातीय समाज की महिलाओं का घरेलू उद्योग क्या था?
उत्तर-जनजातीय समाज की महिलाएं घरों में चटाई बनाने, बुनाई करने एवं वस्त्र बनाने का काम करती थीं। वे रेशम और लाख उद्योगों में भी अपने पुरुषों का पूरा-पूरा साथ देती थीं।
आइए करके देखें-
(i) अंग्रेजी शासन के पूर्व जनजातीय समाज के लोगों का जीवन कैसा था? अंग्रेजों की नीतियों से उसमें क्या परिवर्तन आया? वर्ग में शिक्षक के साथ परिचर्चा करें।
संकेत-परिचर्या शिक्षक के साथ स्वयं करें।
(ii) उत्तर-पूर्व भारत का जनजातीय विद्रोह भारत के अन्य भागों के जनजातीय विद्रोहों से किस तरह अलग था?
उत्तर-जहाँ अन्य भागों का जनजातीय विद्रोह सशस्त्र विद्रोह था, जिसमें अंग्रेजों एवं गैर आदिवासीय लोगों को हिंसा का निशाना बनाया जाता था वहाँ उत्तर पूर्व भारत का जनजातीय विद्रोह गैर आदिवासियों को अपने भू-भाग से बाहर खदेड़ने का एक राजनैतिक कार्यक्रम था।
खास बात यह थी कि इनका आन्दोलन आगे चलकर गाँधीजी द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन के साथ जुड़ गया ।


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