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 bihar board class 9 sanskrit solution | नीतिपद्यानि

bihar board class 9 sanskrit solution | नीतिपद्यानि

bihar board class 9 sanskrit solution

वर्ग – 9

विषय – संस्कृत

पाठ 8 – नीतिपद्यानि

नीतिपद्यानि

संस्कृतभाषायां नीतिविषयकं विपुलं साहित्यं वर्तते। सदाचारस्य शिक्षया नीतिः मानवान् उन्नतान् करोति। नीतिः क्वचित् कथारूपेण प्रकाश्यते, क्यचित् पद्यरूपेण। नत्ं कथात्मको नीतिग्रन्थ: अस्ति। नीतिशकं, चाणक्यनीतिदर्पणः, विदुरनीति: एवमादयः कथाः पद्यात्मकाः। सर्वेऽपि ते मानवस् प्रगतिमुपदिशान्ति। तै: मानवः विचारपूर्वकं वकीयं मार्ग निश्चित्य सत्कार्य कृत्वा उन्नतो भवति, समाजस्य हिताय उपयोगी च जायते। प्रस्तुते पाठे भर्नहरिकृतस्य नीतिशतकस्य सरलानि पद्यानि संकलितानि सन्ति)

(संस्कृत भाषा में नीति विषयक विशाल साहित्य वर्तमान है। सदाचार की शिक्षा की नीति मनुष्यों को नैतिक रूप से उन्नत करती है। नीतियाँ कहीं कथा रूप में हैं तो कहीं पद्य रूप में। पञ्चतन्त्र कथा रूप में नीतिग्रन्थ है। नीतिशतक, चाणक्य नीति दर्पण,
विदुर नीति इत्यादि ग्रन्थ पद्यरूप में हैं। वे सभी मनुष्य की प्रगति का उपदेश देते हैं। उनके द्वारा मनुष्य विचार पूर्वक अपने मार्ग को निश्चित कर अच्छा कार्य करके उन्नत होता है तथा समाज के कल्याण के लिये उपयोगी होता है। प्रस्तुत पाठ में भर्तुहरि रचित ‘नीति शतक’ के कुछ सरल पद्यों का संकलन है।)

1. अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥ 1 ॥

संधि विच्छेद : सुखमाराध्यः = सुखम् + आराध्यः। सुखतरमाराध्यते = सुखतरम् +आराध्यते। ब्रह्मापि = ब्रह्मा + अपि ।
जिसे
शब्दार्थ : अज्ञः = मूर्ख। सुखम् = आसानी से, सुख पूर्वक। आराध्यः मनाया जा सके या समझाया जा सके। सुखतरम् = और आसानी से। विशेषज्ञः ३ विद्वान्, विशेष ज्ञान रखने वाला। लव = अल्प, थोड़। ज्ञान लव दुविदग्धं 3 अलपेन ज्ञानेन अहङ्कारपूर्ण: = थोड़े ज्ञान के कारण अहङ्कार रखने वाला। रज्जयति :प्रसन्न करता है।
अन्वय : अज्ञः सुखम् आराध्यः (च) विशेषज्ञः सुखतरम् आराध्यते (परम्) ज्ञान लव दुर्विदग्धं नरं ब्रह्मा अपि न रञ्जयति।

हिन्दी अनुवाद : मूर्ख व्यक्ति को आसानी से समझाया जा सकता है। जञानी क्ति को और आसानी से समझाया जा सकता है। किन्तु अल्प ज्ञान के कार अहङ्कार से ग्रस्त व्यक्ति को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकत।

व्थाख्या ; प्रस्तुत नौति पद्य में भर्तहरि यह बताते हैं कि अल्प ज्ञान प्राप्त व्यकि को यह लगता है कि उसका जानना ही अन्तिम है। इस कारण वह किसी की बात न मानता। कोई उसे समझा महीँ सकता क्योकि वह अहडकारपूर्ण हो जाता है।

2. येषा न विद्या न तपो न दानं न चापि शीलं न गुणो न धर्म: ।
ते मत्यैलोके भूवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।2॥

सँधि विच्छेद : मृगाश्चरन्ति = मृगाः + चरन्ति। चापि = च + अपि ।

शब्दार्थ : भत्त्यलोके = मृत्यु लोक में, धरती पर। मृगाः
हो कर, भार स्वरूप। शील = आचरण, सद्गुण चरन्ति घूमते हैं, विचरते हैं।

अन्वय : येषां (भनुष्याणम्) न विद्या न तप: न दानं न शीलं न गुण: न धर्म: च अपि (अस्ति) ते (मानवा:) मृगाः = जानवर।(एव सन्ति) (ये) भारभूता भूवि मृत्युलोके मनुष्य रूपेण चरिन्त भारभूता = भार

हिन्दी अनुवाद : जिन मनुष्यों के पास न विद्या, न तपस्या, न दान, न सदाचरण, न गुण और न ही धर्म है, वे व्यक्ति (सही अर्थों में) पशु ही हैं जो भार स्वरूप होकर धरती पर मनुष्य रूप में घूमते रहते हैं।
व्याख्या : भर्तृहरि के ‘नीतिशतक’ से संकलित ‘नीतिपद्यानि’ पाठ का यह श्लोक मानव होने के नाते मनुष्य के कर्तव्य का ज्ञान कराता है। वस्तुत: विद्या, तपस्या, दान, सदाचरण से हीन व्यक्ति मनुष्य नहीं होकर पशु ही है। वह इस धरती पर भार स्वरूप है। व्यक्ति को चाहिए कि वह विद्या, तपस्या, दान सदाचरण इत्यादि गुणों को प्राप्त करे। क्योंकि गुणहीन व्यक्ति पशुबत् जीवन व्यतीत करता है।

3. जाड्यं धियो हरित सिञ्चति वाचि सत्यं मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥ 3॥

संधि विच्छेद : मानोन्नतिं = मान + उन्नतिम्। पापमपाकरोति = पापम् + अपाकरोति।

शब्दार्थ : जाड्यं = जड़ता, शिथिलता, निष्क्रियता । वाचि =वाणी में। धियः = बुद्धि की। दिशति = करती है, देती हैं। अपाकरोति = दूर करती है। चेत: = चित्त
को, मन को। प्रसादयति = प्रसन्न करती है। दिक्षु = दिशाओं में। कीर्ति = यश का तनोति = फैलाती है।

अन्वय : सत्संगतिः धियो जाड्यं हरति वाचि सत्यं सिञ्यति मान उन्नति दिशाल् पापम् अपाकरोति चेत: प्रसादयति (च) कीर्ति दिक्षु तनोति। कथय (सत्संगतिः) पुसा किं न करोति।

हिन्दी अनुवाद : सत्संगति बुद्धि की जडड़़ता को हरती है, वाणी। में सत्य को सबित करती है, सम्मान को उन्नति करती है, पाप को दूर करती है, चित को प्रसन्न
करी है और यश को सभी दिशाओं में फैलाती है। कहो, सत्संगति व्यक्ति को क्या नहीं देती।

व्याख्या : प्रस्तुत श्लोक भर्तृहरि के ‘नीतिशतक’ से संकलित पाठ नीतिपद्यानि से इसमें सत्संगति के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। का भाव यह है कि मनुष्य को सेर्वागोण उन्नति का मूल कारण सत्संगति ही क न करोति’ का भाव यही है कि मनुष्य का जो कुछ शुभ है, बह सब सत्संगति आप्त होता है। अत: मनुष्य को हमेशा अच्छी संगति ही पाने का प्रयास करना चाहिए
और कुसंगति से बचना चाहिए।

4.प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥ 4॥

संधि विच्छेद : पुनर्रपि = पुनः + अपि! प्रब्धमुत्तमजना
प्ररब्धम् + उत्तमजना:।

शब्दार्थ : प्रारभ्यते = प्रारम्भ किया जाता है। खलू = निश्चय ही। विघ्नभयेन = वाधा के भय से। नीचै: अधम प्रकृति के लोगों द्वारा। विघ्नविहता = विघ्न-बाधा
पड़ने पर। विरमन्ति = रोक देते हैं। मध्या: = मध्यम प्रकृति के लोग। प्रतिहन्यमाना = वाधित होकर। उत्तम जना: = उत्तम प्रकृति के लोग। परित्यजन्ति = छोड़ते हैं।

अन्वय : नीचै: खलु विघ्नभयेन न प्रारभ्यते (च) मध्याः प्रारभ्य विष्नविहता विरमन्ति (परम्) उत्तम जना: विघ्नै: पुनः पुनः प्रतिहन्यमानः अपि प्रारब्यं न परित्यजन्तिः

हिन्दी अनुवाद : अथम प्रकृति के लोग निश्चय ही विघ्न के भय से (कोई कार्य) आरम्भ ही नहीं करते और मध्यम प्रकृति के लोग आरम्भ करके विध्न-बाधा
पड़न यर रोक देते हैं। परन्तु उत्तम प्रकृति के लोग विघ्नों से पुनः- पुनः वाघित होने पर भी आरम्भ किये कार्य को नहीं छोड़ते।

वयख्या : भर्तृहरि द्वारा लिखित ‘नीतिपद्यानि’ पाठ के इस श्लोक में कार्य करने संबंध में मनुष्यों को प्रकृति के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया गया है-
नीच, मध्यम और उत्तम। उत्तम प्रकृति के लोग, चाहे कितनी भी वाधाएँ आएँ, आरम्भ । किये कार्य का त्याग नहीं करते। उसे परिणाम तक पहुँचा कर ही विराम लेते हैं।

5. निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुबन्तु लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।।
अधव वा मरणमस्त यगान्तरे वा न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पर्द न धीराः॥ S॥

आथ विच्छेद : यथेष्टम = यथा +इष्टम्। अघोंव = अद्य + एव। मरणमस्तु = मरणम् + अस्तु। युगान्तरे= युग + अन्तरे।

6. विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिव्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥ 6 ॥

संधि विच्छेद : धैर्यमथाभ्युदये = धैर्यम् + अथ + अभ्युदये। चाभिरुचिव्व्यसनं = च + अभिरुचि: + व्यसनम्। प्रकृतिसिद्धमिदं = प्रकृतिसिद्धम् + इदम्

शब्दार्थ : विपदि सभा में। वाकपटुता = वाणी की कुशलता, बोलने में कुशल। युधि = युद्ध में। विक्रम: विपत्ति में, कठिनाइयों में। अभ्युदये = उन्नति प्रकृतिसिद्धं = स्वाभाव से सिद्ध, स्वाभाविक। इदम् = यह। महात्मनाम् = यश में, कीर्ति में।

अन्वय : विपदि धैर्यम् अथ अभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युद्धि विक्रमः च यशसि अभिरुचिः श्रुतौ व्यसनं इदं महात्मनाम् प्रकृतिसिद्धम् हि (भवन्ति)।

हिन्दी अनुवाद : कठिनाई में धैर्य धारण करना तथा उन्नति प्राप्त होने पर क्षमाशील होना, सभा में वाणी की कुशलता, युद्ध में शौर्य, यश (कीर्ति) में रुचि,शास्त्रों के अध्ययन में आसक्ति ये महान लोगों के स्वाभाविक गुण होते हैं।

व्याख्या : भर्तृहरि के ‘नीतिशतक’ से संकलित ‘नीतिपद्यानि’ पाठ का यह पद्ट महान लोगों के स्वाभाविक गुणों का बड़ा सुन्दर चित्रण करता है।
महापुरुष कठिनाइयों में घबड़ाते नहीं, सम्पन्नता में अभिमान नहीं करते। वे वाक्पटु होते हैं तथा युद्ध में पराक्रम प्रकट करते हैं। ऐसा कोई कार्य नहीं करते जिससे उनकी कीर्ति कलंकित हो तथा अध्ययन में उनकी आसक्ति होती है।

व्याकरण

1. प्रकृति-प्रत्ययविभाग-व्युत्पतिः-
अज्ञ: =नञ् +√ज्ञा + क
विशेषज्ञ: = विशेष + √ज्ञा + क
दुर्विदग्धः = दुर् + वि +√ दह्+ क्त
उन्नतिः= उत् + √नम् + क्तिन्
विहताः = वि + √हन् + क्त
सत्त्ववताम्= सत्त्व + मतुप्
क्षयिणी = क्षय +इनि + डीप्
लघ्वी = लघु + डीप् (स्त्री०)
गुर्वी = गुरु + ङीप् (स्त्री०)
भिन्ना = भिद् + क्त + टाप

अभ्यासः (मौखिकः)

1. संस्कृतभाषया उत्तराणि वदत-
(क) मनुष्यरूपेण के मृगाश्चरन्ति?
(ख) के भुवि भारभूता: सन्ति?
(ग) विघ्नविहता: प्रारभ्य के विरमन्ति?
(घ) न्यायात् पथ: के न प्रविचलन्ति?
(ङ) महात्मनाम् विपदि किम् लक्षणम् भवति?

उत्तर– (क) येषां न विद्या, न तप: न दानं, न शीलं, न गुणः न घर्म:, च भवन्ति ते मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।
(ख) विद्या, तपः, दानं, शीलं, गुण:, धर्महीना: च भुवि भारभूता: सन्ति।
(ग) विघ्नविहिताः प्रारभ्य मध्या: विरमन्ति
(घ) न्यायात् पथः धीरा: न प्रविचलन्ति।
(ङ) महात्मानाम् विपदि धैर्यं लक्षणं भवति।

अभ्यासः (लिखितः)

1. एकपदेन संस्कृतभाषया उत्तराणि लिखत-
(क) कदा सिंहशिशुरपि निपति?
(ख) मत्त्यलोके भुवि भारभूता: के सन्ति?
(ग) का धिय: जाड्यम् हरति?
(घ) चेतः कः प्रसादयति?
(ङ) दिक्षु कीर्ति क: तनोति?
(च) महात्मनाम् किम् लक्षणम् अस्ति?
(ख) गुण धर्म रहित:।
उत्तर-(क) बाल्यकाले
(ग) सत्संगति:।
(घ) सत्संगति:।
(ङ) सत्संगति:।
(च) धैर्यम्।
2. अधोलिखितानि रेखांकितपदानि बहुवचने परिवर्तयत-
उदाहरणम् : एकवचने-त्वं कार्ये प्रवृत्तः असि।
बहुवचने-यूयं कार्ये प्रवृत्ताः स्थ।

(क) यस्य पार्श्वे नास्ति विद्या सः मृग डव चरति।
बहुवचने-येषां पार्श्वे नास्ति विद्या ते मृगा: इव चरन्ति।

(ख) सत्संगति: पुरुषस्य वाचि सत्यम् सिञ्चति।
बहुवचने-सत्संगतिः पुरुषाणाम् वाक्षु

(ग) नीचैः विध्नभयेन कार्यं न प्रारभ्यते।
बहुवचने-नीचै: विध्नभयेन कार्याणि न प्रारभ्यन्ते।।

(घ) सत्सङ्गतिः पुरुषस्य मानोन्नतिम् दिशति।
बहुवचने-सत्संगति: पुरुषाणाम् मानोन्नतिम् दिशति।

3. उचित विभक्ति प्रयोगं कृत्वा वाक्यानां पूर्तिः कुरुत-
उदाहरणम् वालकेन………अक्षरं लिखितम्। (सुन्दर)
बालकेन सुन्दरम् अक्षरं लिखितम्।

(क) ज्ञानलवदुर्विदग्धं।…….. ब्रह्ममापि न रञ्जयति ।
(ख) विध्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना:………..न परित्यजन्ति।
(ग) धीरा:……………पथः न प्रविचलन्ति।
(घ) सज्जनानाम् मैत्री दिनस्य……..छाया इव भवति।
(ड) उत्तमजना:……… न परित्यजन्ति।
उत्तराणि-(क) नरम्
(ख) उत्तमजना:
(ग) न्यायात्
(घ) पराधभिन्ना
(ङ) प्रारब्धकार्याणि

4. अधोलिखितेषु शुद्धं पर्यायपद्वयं रेखांकितं कुरुत-
(क) निपुणाः – विज्ञा:, अज्ञाः,विशेषज्ञा:
(ख) लक्ष्मी: – इन्दिरा, रमा, शारदा
(ग) पथः – मार्गात्, सरण्याः, कुल्यायाः
(घ) शिशुः – बाल;, श्येनः,नवजात:
(ङ) सदसि – सभायाम्, सरसि, परिषदि

5. एक समुचितं पदं लिखत-
यथा-यस्य पाश्श्व ‘ज्ञा’ नास्ति सः……..।
यस्य पार्श्वे ‘ज्ञा’ नास्ति सः अज्ञः।
(क) विघ्नेन विशेषेण हताः ये ते…….।(विघ्नहताः)
(ख) नीती निपुणा ये ते………..। (नीतिनिपुणाः)
(ग) सत्ता संगतिः………….। (सत्संगतिः)
(घ) महान् आत्मा अस्ति यः……….।(महात्मा)

6. स्तम्भद्रये लिखितानां विपरीतार्थकशब्दानां मेलनं कुरुत-
अ ब
(1)अज्ञः (क) दुःखम्
(11)सुखम्। (ख) विज्ञ: (1)विशेषज्ञः (ग) दुरात्मनाम् (v) विदाधम् (घ) अधमा:
(v)भुवि (ङ) उच्चै:
(vi) नीचैः (च) रसातले
(vii) उत्तमाः। (छ) अल्पज्ञः
(vil) महात्मनाम् (ज) मूर्खम्

उत्तराणि-

‘अ’ ब
अज्ञः – विज्ञः
सुखम् – दुःखम्
विशेषज्ञ: – अल्पज्ञ:
विदग्धम् – मूर्खम्
भुवि – रसातले
नीचेः – उच्चै:
उत्तमाः – अधमाः
महात्मनाम् – दुरात्मनाम्

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