Advertica

 bihar board class 9th sanskrit notes | संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम्

bihar board class 9th sanskrit notes | संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम्

bihar board class 9th sanskrit notes

वर्ग – 9

विषय – संस्कृत

पाठ 6 – संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम्

 

संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम्

(अधुना वैज्ञानिके युगे यदा प्रकृति: असन्तुलिता जाता तदा पर्यावरणस्य चर्चा भवति। कथं प्रदूषणं दूरीकरणीयम्, प्रकृति: सन्तुलिता भवेत्, पशुपक्षिणः स्वस्रूपेषु स्थिता भवन्तु, मानवश्च शुद्धं जलं वायुं च लभेत, जीवनं च कल्याणमयं स्यादिति प्रश्न: भूयोभूयः सर्वान् आन्दोलयति। संस्कृतसाहित्ये नेयमवस्था आसीदिति पाठेऽस्मिन् संक्षेपेण आदर्शरूपस्य पर्यावरणस्य निरूपणं वर्तते।)

(आज के वैज्ञानिक युग में जब प्रकृति असंतुलित हो गई तब पर्यावरण की चर्चा हो रही है। कैसे प्रदूषण दूर हो, प्रकृति संतुलित हो, पशु-पक्षी अपने अपने रूप में स्थित हों, मनुष्य शुद्ध जल और वायु पार्वे तथा जीवन कल्याणमय हो, यह प्रश्न बार-बार सबको आन्दोलित कर रहा है। संस्कृत साहित्य में यह अवस्था नहीं थी। इस पाठ में संक्षेप में पर्यावरण के आदर्श रूप का निरूपण हुआ है।)

1. भूमिर्जलं नभो वायुरन्तरिक्षं पशुस्तृणम् ।
साम्यं स्वस्थत्वमेतेषां पर्यावरणसंज्ञकम् ॥

संधि विच्छेद : वायुरन्तरिक्षं = वायुः + अन्तरिक्षम्। पशुस्तृणम् = पशुः + तृणम् ।स्वस्थत्वमेतेषाम् = स्वस्थत्वम् + एतेषाम्।

शब्दार्थ : तृणम् =घास (यहाँ वनस्पति जगत्) । साम्यं = संतुलित स्थिति । स्वस्थत्वम् = स्वस्थ स्थिति। पशु = जानवर (यहाँ प्राणी जगत)।

अन्वय : भूमिः जलं नभः वायुः अन्तरिक्षां पशुः तृणम् (च) एतेषां साम्यं स्वस्थत्वम् संज्ञकम् पर्यावरणम् ॥

हन्दी अनुवाद : धरती, जल, आकाश, वायु अन्तरिक्ष, प्राणी जगत् तथा वनस्पति इन सबकी संतुलित एवं स्वस्थ अवस्था का नाम पर्यावरण हे।

व्याख्या : ‘संस्कृत साहित्ये पर्यावरणम्’ पाठ के इस श्लोक में पर्यावरण की परिभाषा दी गयी है। कवि का कहना है कि धरती, जल, आकाश, वायु अन्तरिक्ष, जन्तु । तथा वनस्पति जगत इन सभी का संतुलन में रहना आवश्यक है। पर्यावरण का अर्थ ही। है इनका संतुलित एवं स्वस्थ हालत में रहना।

2. संस्कृतसाहित्यस्य महती परम्परा संसारस्थ सर्वान् विषयानूरीकृत्य प्रचलिक प्रकृतिसरक्षणं पर्यावरणस्य संतुलव वा तत्र स्वभावतः उपस्थापितमस्ति। वैदिकुका
प्रकृतेरुपकरणानि देवरूपाणि प्रकल्यितान्यभवन्। पर्जन्यो बेदे इत्थं स्तूयते-

संधि विच्छेद : विषयानूरीकृत्य = विषयान् + उरीकृत्य। उपस्थापितमस्ति = उपस्थापितम् + अस्ति प्रकृतेरुपकरणानि = प्रकृतेः + उपकरणानि प्रकल्पितान्यभवन = प्रकल्पितानि +अभवन्।

शब्दार्थ : महती = महान। उरीकृत्य = अंगीकार करके। उपस्थापितम् = उपस्थित है। स्वभावत: = स्वाभाविक रूप में, सहज भाव से। प्रकृते = उपकरणानि
प्रकृति = के अंग यथा- वायु, जल, नदी, पर्वत, समुद्र, जीव जन्तु इत्यादि। पर्जन्य: = जल से भरे (बरसने वाले) मेघ। इत्थं = इस प्रकार। स्तूयते = स्तुति की जाती है।

हिन्दी अनुवाद : संस्कृत साहित्य की महान परम्परा सभी विषयों को अंगीकार कर प्रचलित हुई है। प्रकृति का संरक्षण या पर्यावरण का संतुलन उसमें स्वाभाविक रूप से स्थापित है। वेदों के समय प्रकृति के विभिन्न अंग (उपकरणों की) देवताओं के रूप में कल्पित हुए हैं। वेद में बरसने वाले बादल की इस प्रकार स्तुति की गयी है-

3. इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते
यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ।

शब्दार्थ : इरा = धरती। जायते = उत्पन्न करती है, जन्म देती है। रेतसावति = जल द्वारा रक्षा करता है।

अन्वय : इरा विश्वस्मै भुवनाय (पर्जन्यं) जायते यत् पर्जन्य: पृथिवीं रेतसावति।

हिन्दी अनुवाद : धरती (ही) विश्व के कल्याण हेतु बादल को जन्म देती है जो (युन:) अपने जल से पृथिवी की रक्षा करता है।

व्याख्या : वेद से संकलित ‘संस्कृत साहित्ये पर्यावरणम्’ की यह स्तुति मेघ के प्रति है। पृथिवी ही मेघों को उत्पन्न करती है। पुन: वही मेघ ग्रीष्म से सन्तप्त धरती को अपने जल से सींच कर जीवन प्रदान करता है और इस प्रकार मेघ पृथिवी की रक्षा करते हैं अर्थात पृथिवी के जीवों की रक्षा करते हैं।

4. मेघ: पृथिवीं जलेन रक्षति तदा सर्वेभ्यः अन्नं भवति। एवमेव ये वनस्पतयः फलयुक्ता अफला वा, पुष्पवन्तः अपुण्पा वा सर्वेऽपि ते मानवान् रक्षन्तु, पापानि अर्थात् मलानि दूरीकुर्वन्तु-

या: फलिनी या अफला: अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पति-प्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
अत्र ओषधयी देव्यः स्तूयन्ते।

संधि विच्छेद : ऐवमेव = एवम् + एव। याश्च = या +च। प्रसुंतग्ता = प्रसूता: + ता:। मुञ्चन्त्वंहसः = मुञ्चन्तु + अंहस:। सर्वेऽपि = सर्वे + अपि ।

शब्दार्थ : अपुष्पा = पुष्पहीन। पुष्पिणी = फूलों से युक्त। बृहस्पति प्रसूता। = बृहस्पति से उत्पन्न। नो = नः = हमलोगों को। सर्वेभ्यः = सवके लिये| फलिनी =
फलयुक्त। मुञ्चन्तु मुक्त करें। अंहसः पाप से। वा = या

अन्वय (श्लोक का) : या: (ओषधयः:) फलिनी ( वा) अफला या: (ओषधयः) अपुष्पा (वा) पुष्पिणी बृहस्पति प्रसूता या: (ओषधयः) ता: न: अंहस: मुज्चन्तु।
हिन्दी अनुवाद : मेघ जल से पृथिवी की रक्षा करता है (सींचता है) लिये अन्न होता है। इस प्रकार ही ये वनस्पतियाँ; फलयुक्त हों या विना फल के हॉं, पुष्पयुक्त हों या पुष्पहीन हों, वे सभीं मानवों की रक्षा करें, उनके पापों को अर्थात गुन्दगी को दूर करें।
फलयुक्त या फलहीन, पुष्पयुक्त या पुष्पहीन वृहस्पति द्वारा उत्पन्न जो औयधियाँ हैं वे हमको पाप से (अर्थात दोषों से) मुक्त करें। यहाँ देवताओं द्वारा औषधियों की  स्तुति की गयी है।

व्याख्या : ‘संस्कृत सहित्ये पर्यावरणम्’ पाठ में संकलित इस श्लोक में औषधियों को वृहस्पति द्वारा उत्पन्न माना गया है। देवता उनकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि चाहे फलयुक्त हों या फलहीन हों, पुष्पयुक्त हों या पुष्पहीन हों, औषधीय गुणों से युक्त वनस्पतियाँ हमारे शारीरिक दोषों को दूर करती है अत: वे पूज्य हैं।

5. संस्कृतकाव्येषु प्रकृतिवर्णनम् आवश्यकं विद्यते। कथ्यते यत् ऋतुः, सागरः, नदी, सूर्योदयः, सन्ध्या, चन्द्रोदयः सरोवरः, उद्यानम् वनम्- इत्यादीनि उपादानानि अवश्यं वर्णनीयानि भवन्ति महाकाव्ये। वाल्मीकि: सरोवर श्रेष्ठां पम्पां वर्णयति-

हिन्दी अनुवाद : संस्कृत महाकव्वयों में प्रकृति का वर्णन आवश्यक रूप से विद्यमान है। कहा जाता है कि नदी सूर्योदय, सन्ध्या, चन्द्रोदय, सरोवर, उद्यान, वन
इत्यादि प्रकृति के उपादानों का महाकाव्य में अवश्य ही वर्णन होता है। वाल्मीकि सरोवरों में श्रेष्ठ पम्पा का वर्णन (इस प्रकार) करते हैं-

6. नाना-द्रमलताकीर्णा शीतवारिनिधिं शुभाम् ।
पद्मसौगन्धिकैस्ताम्रां शुक्लां कुमुदमण्डलैः ॥

संधि विच्छेद : द्रुमलताकीर्णां = द्रुमलता + आकीणा पद्मसौगन्धिकैस्ताम्राम् = पद्मसीगन्धिकैः + ताम्राम्।

शब्दार्थ : नाना-विविध। द्रमलता = पेड़ की लता, वृक्ष और लताओं। आकीण्णाम् = धिरा हुआ। पद्म =कमल। सौगन्धिकै = सुगन्यों से। कुमुद मण्डलैः = कुमुदिनी फूल के समूहों से।

अन्वय : नाना द्रमलता आकीर्णा (सरोबरस्य) शुभां ताम्रं शुक्लां शीतवारिनिधिं पद्भसौगन्धिकैः कुमुदमण्डलैः (युक्तं अस्ति) ।

हिन्दी अनुवाद : विविध प्रकार के वृक्ष और लताओं से घिरा स्वच्छ, (सूर्योदय या सूर्यास्त के समय लाली के कारण) ताम्रवर्णी, (कुमुदनी के फूलों के कारण) सफेद, शीतल जल का भण्डार कमलों की सुगंध तथा कुमुदिनी के फूलं हुआ सरोवर का के समूह से युक्त है।

7. संस्कृतकाव्येषु स्वस्थपर्यावरणस्य कल्पनया स्वाभाविकरूपेण प्रवहन्तीनां नदीनं वर्णनं बाहुल्येन लभ्यते, जलप्लावनस्य वर्णनं तु विरलमेव। सूर्यतापितः ज्येष्ठमासम्य मध्याह्नः बाणभट्टेन वर्णितः। स च स्वाभाविक:। वस्तुतः स्वाभाविकरूपेण प्रवर्तमानानाम् ऋतूनां। वर्णनेन पर्यावरणं प्रति कवीनामास्था दृश्यते। ग्रीष्यातपेन सन्तप्तस्य रक्षां वृक्षाः कुर्वन्ति इति प्रकृतिवरदानम्। अतएव मार्गेषु वृक्षारोपण पुण्यमिति प्रतिपादितम्। फलवन्तो वृक्षास्तु परोपकारिणः इति कथयति नीतिकार:-

संधि विच्छेद : विरलमेव = विरलम् + एव कविनामास्था = कविनाम् + आस्था।
पुण्यमिति = पुण्यम् + इति। वृक्षास्तु = वृक्षा: + तु।

शब्दार्थ : विरलम् = बहुत कम। बाहुल्येन = बहुलता से। मध्याह्नः = दोपहर। पवर्तमानानाम् = आती हुई। आस्था = विश्वास। दृश्यते = दीखती है। प्रतिपादितम् = प्रतिपादित किया गया है, स्थापित किया गया है, माना गया है।

हिन्दी अनुवाद : संस्कृत काव्यों में स्वस्थ पर्यावरण की कल्पना के कारण स्वाभाविक रूप से प्रवाहित नदियों का वर्णन बहुलता से प्राप्त होता है। जलप्लावन का वर्णन तो बहुत कम ही है। वाणभट्ट द्वारा सूर्य से तप्त जेठ महीने के दोपहर का वर्णन हुआ है। और वह स्वाभाविक है। वस्तुत: स्वाभाविक रूप से बदलती हुई ऋतुओं के वर्णन से पर्यावरण के प्रति कवियों की आस्था दिखाई देती है। गर्मी के ताप से पीड़ित की रक्षा वृक्ष करते हैं ऐसा प्रकृति का वरदान है इसलिये ही मार्गों में वृक्षारोपण करना पुण्य माना गया है। एक नीतिकार का कथन है-

8. स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
स्वयं न वारीणि पिबन्ति नद्य: ॥

अन्वय : वृक्षा: (स्व) फलानि स्वयं न खादन्ति (च) नद्य: (स्व) वारिणि स्वय न पिबन्ति।

हिन्दी अनुवाद : वृक्ष अपना फल स्वयं नहीं खाते और नदियाँ अपना जल स्वं नहीं पीतीं।

व्याख्या : संस्कृतसाहित्ये पर्यावरणम्’ पाठ का यह श्लोक वृक्षों और नदियों के परोपकारी स्वभाव को दर्शाता है। वृक्ष दूसरों को भोजन प्रदान करने के लिये ही फलते हैं। नदियाँ भी दूसरों की प्यास तृप्त करने के लिये ही बहती हैं। अत: हमें इनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

9. नरा कन्याश्च वृक्षान् प्रति ममताशीला इति शाकुन्तले नाटके वर्ण्यते। शकुन्तला वृक्षान् जलेन तर्पयित्वैव स्वयं जलं पिबति-

पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या ।

किं च भट्टिः शरत्काले जलाशयेषु कमलानां तद्वर्तिनां भ्रमराणां च वर्णनं करोति-

संधि विच्छेद : कन्याश्च = कन्या: + च। तर्पयित्वैव = तर्पयित्वा + एव। युष्मास्वपीतेषु = युष्मासु + अपीतेषु।

शब्दार्थ : तर्पयित्वा = तृप्त करके, प्रसन्न करके। युष्मासु = तुम सबों में । अपीतेषु = पानी डाले बिना।, बिना पटाये। या = जो। व्यवस्यति = प्रयास करती है।

अन्वय (श्लोक का) : युष्मासु अपीतेषु या प्रथमं जलं पातुं न व्यवस्यति।

हिन्दी अनुवाद : पुरुष और कन्याएँ वृक्षों के प्रति स्नेहशील है ऐसा शाकुन्तला नाटक में वर्णन किया गया है (कालिदास द्वारा)। शकुन्तला वृक्षों को जल से तृप्त करके ही स्वयं जल पिती हैं-
तुम सबों में जल डाले बिना जो प्रथम जल पीने का प्रयास नहीं करती। (और क्या) वाणभट्ट शरद काल में जलाशयों में (खिले) कमलों का तथा उनके चारों ओर मँडराते भौरों का वर्णन करते हैं-

10.न तज्जलं यन्न सुचारुपड्करज
न पड्कजं तद् यदलीनषट्पदम् ।

वसन्ते तु सर्वा प्रकृति: शोभनतरा भवति इति कालिदासः कथयति-

द्रुमा; सुपुष्पाः सलिलं सपद्मं ।
सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते ॥

संधि विच्छेद : तज्जलं = तत् + जलं। यन्न = यत् + न। यदलीनषट्पदम् = यत् + अलीन षट्पदम्।

शब्दार्थ : सुचारु = अतिसून्दर। पङ्कजम् = कमल। अलीन = भौरा। षट्पदम् = छः पैरों वाला

अन्वय (श्लोक का) :
तत् जलं (जलं) नं यतु सूचारू पङ्कजं न ।
(च) तत् पङ्कजं (पड्कजम् ) न यत् धट्पदम् अलीन न।।

प्रिये! (वसन्ते) द्रुमा: सुपुष्पा (भवन्ति) (च) सलिलं सपदम्
भवति। (एवं) वसन्ते सर्वं चरुतर (भवति)।

हिन्दी अनुवाद : वह जल, जल नहीं जहाँ अति सुन्दर कमल नहीं और वह कमल, कमल नहीं जहाँ छ: पैरों वाले भौरें नहीं।
वसन्त में तो सारी प्रकृति अतिशोभायुक्त हो जाती है, ऐसा कालिदास कहते हैं-
हे प्रिये! वसन्त में वृक्ष पुष्पयुक्त हो जाते हैं और जल कमल के फूलों से भर जाता है। इस प्रकार वसन्त में सारी प्रकृति बहुत ही मनोहर हो जाती है।

11. कालिदासः पशूनां स्वाभाविकस्थितेः निरूपणमेव करोति-
गाहन्तां महिषा निपानसलिलं श्रृङ्गैर्मुहुस्ताडितं
छाया-बद्धकदम्बकं मृगकुलं रोमन्थमभ्यस्यतु ।

संधि विच्छेद : निरूपणमेव = निरूपण्म् + एव। श्रृङ्गैर्मुहुस्ताडितं = शृङ्गैः + मुहुः + ताडितम्। रोमन्थमभ्यस्यतु = रोमन्थम् + अभ्यस्यत।

शब्दार्थ : स्वाभाविक स्थितेः = सहज स्थिति का ,स्वाभाविक स्थिति का। निरूपणम् = वर्णन। गाहन्तां = डुबकी लगाते हुए। निपानसलिलं = तालाब के जल को। श्ृगैः = सींगों से। मुहुः = पुनः पुनः, बार-बार। ताडितं = आलोडित, पीड़ित।

अन्वय (श्लोक का) : गाहन्तां महिषा निपानसलिलं श्रृगैः मुहुः ताडितं। (च)छायाबदूध कदम्बक मृगकुलं रोमन्थम् स्यतु।

हिन्दी अनुवाद : कालीदास पशुओं की सजह स्वाभाविक स्थिति का भी वर्णन करते हैं-
डबकी लगाते हुए भैसा का समूह तालाव के जल को सींगों से पुनः पुनः आलोडित करते हैं। और कदम्ब का छाया में बैठा मृग समूह जुगाली करता है।

12. एवं प्राचीनभारते साहित्यकाराः सर्वस्यापि पर्यावरणास्य स्वस्थतां प्रति जागरूका अभवन्। कुत्रापि प्रकृते: असन्तुलन न भवत् इति प्रवासशीला: आसन्।

संधि विच्छेद : कुत्रापि = कुत्र + अपि। सर्वस्यापि सर्वस्य + अपि।

शब्दार्थ : एवम् इस प्रकार। स्वस्थताम् स्वास्थ्या इति ऐसा ( यहाँ- इसके लिये)। प्रयासशीला: प्रयत्नशील।

हिन्दी अनुवाद : इस प्रकार प्राचीन भारत में साहित्यकार सम्पूर्ण पर्यावरण के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक थे। कहीं भी प्रकृति का असंतुलन न हो इसके लिये प्रयत्नशील थे।

सारांश

आज के वैज्ञानिक युग में जब प्रकृति असंतुलित हो रही है तो पर्यावरण की चर्चा हो रही है। परन्तु प्राचीन काल का हमारा संस्कृत साहित्य पर्यावरण के स्वास्थ्य के प्रति सजग था। शास्त्रों के अनुसार भूमि, जल, आकाश, वायु, अन्तरिक्ष और प्राणी एवं बनस्पति जगत की संतुलित एवं स्वस्थ स्थिति ही पर्यावरण है बैदिक साहित्य में प्राकृतिक उपकरणों को देवरूप मानकर उनकी स्तुति की गयी है। संस्कृत काव्यों और महाकाव्यों में तो प्रकृति का वर्णन प्रचूर रूप में प्राप्त होता है। कालिदास के अनुसार तो शकुन्तला वृक्षों को बिना जल पिलाये स्वयं जल नहीं पीती थी। इस प्रकार हमारा प्राचीन साहित्य पर्यावरण के संतुलन एवं स्वास्थ्य के प्रति बहुत जागरूक है।

व्याकरण

1. प्रकृति-प्रत्ययविभाग-व्युत्पतिः
पर्यावरणम् = परि + आ + वृ + ल्युट्)
साम्यम् = सम + घ्यञ्
ऊरीकृत्य = उरी + कृ + ल्यप्

अभ्यासः (मौखिकः)

1. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि वदत्-
(क) प्रकृते: उपकरणानि कथं प्रकल्पितानि?
(ख) प्रकृतिवर्णनं कुत्र आवश्यकम्?
(ग) वाल्मीकिः कं सरोवरं वर्णयति?
(घ) ज्येष्ठमासस्य मध्याह्न: केन वरणित:?
(ङ) जलाशयेषु कमलानां वर्णनं क: करोति?

उत्तर-(क) प्रकृते: उपकरणानि देवरूपाणि प्रकल्पितानि।
(ख) प्रकृतिवर्णनं संस्कृत काव्येषु आवश्यकम् ।
(ग) वाल्मीकिः सरोवरश्रेष्ठा पम्पां वर्णयति।
(घ) ज्येष्ठमासस्य मध्याह्न: वाणभट्टेन वर्णित:।
(ङ) जलाशयेषु कमलानां वर्णनं भट्टि: करोति।

अभ्यासः ( लिखितः)

1 अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषायां पूर्णवाक्येन लिखत –
(क) अन्नु कथ भवति?
(ख) संस्कृत काव्येप नदीना वर्णनं किसुदेश्यकम्?
(ग) प्रकृति चरदानं किम्?
(घ) शाकुन्तले नटके कि व्यते?
(ड) पर्याविरणस्य स्वास्थ्य प्रति के जागरूका:?

उत्तर (क) मेध: पृथिवी जलेन रक्षति तदासवेंभ्य: अन्नं भवति :
(ख) संस्कृतकाच्येषु नवीनां वर्णनं स्वस्थपयाचरणस्य उद्देशाम सन्ति।
(ग) बीष्मत्पेन सन्तप्तस्य रक्षा वृक्षा: कुवन्ति इति प्रकृति वस्दानम्।
(घ) शाकुन्तले नाटके नर: कन्याएच वृक्षान प्रति ममताशीला इति अण्यते ।
(ड) ए्यावरणस्य स्वास्थ्य प्रति साहित्यकारीः जागरूका

2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत–
(क) पर्याचरणस्य कि स्वरूपम्?
(ख) ओषधयों देव्य: कुञ् कथज्च स्तूयन्ते ?
(ग) संस्कृतकाच्यषु प्रकृते: केपाम् उपादानानां वर्णनं भवति ?
(घ) वृक्षारोपण पुण्यं कथम्?
(ङ) कालिदासभतेन वसनते कि धवति?

उत्तर– (क) प्रकृतिसंरक्षणं प्यविरणस्य संतुलन च पर्यावरणस्य स्वरूपम्।
(ख) संस्कृतसाहित्ये ओषधथः देव्यः स्तूयन्ते।
(ग) संस्कृतकाव्येषु प्रकृतैः ऋतु. सागरः नदी सूर्योदय:, सन्ध्या, चन्द्रोदयः, सरोबर:. उद्यानं, वनम् इत्यादि उपदानाना वर्धनं भवति ।
(घ) ग्रीष्मातपेन सन्तप्तस्य र्था वृक्षा: कुर्वन्ता अतपव. वृक्षारोपणं पुण्यम्
(ड) कालिदासमतेन बसंते सर्वा: अ्रकृति: शोभनतरा भवति ।

3 अधोलिखितकथनेषु रेखांकितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुतेः
(क) संर्कृतसाहित्ये पर्यावरणस्य चर्था अस्ति।
(ख) पर्जन्यों वंदे स्तूयते ।
(ग) मेघ: पृथिवीं जलेन रक्षति।
(घ) पृथिवी सवैध्यः अन्नं दुदाति।
(ङ) लेदे ओषधयोः देव्य: स्तूयन्ते।
(च) संस्कृतमहाकाव्येषु प्रकृतिवर्णनम् आवश्यकम्।

उत्तर-(क) संस्कृत साहित्ये कस्य चर्चा अस्ति?
(ख) क: वेदे स्तूयते?
(ग) मेघ: पृथिवीं केन रक्षति?
(घ) पृथिवी अन्लं केभ्य: ददाति?
(ङ) वेदे का: देव्य: स्तूयन्ते?
(च) संस्कृतमहाकाव्येषु किम् आवश्यकम्?

4. कोष्ठकाद् उचितं पदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत-

(क) इरा विश्वस्मै ……जायते।(देवाय/भुवनाय)
(ख) ता नो ……. अंहसः।(गच्छन्तु/मुञ्चन्तु)
(ग) वाल्मीकिः …….पम्पां वर्णयति।(सरोवरश्रेष्ठां नदीश्रेष्ठाम्)
(घ) सर्वं प्रिये ……वसन्ते।(निम्नतंर/चारुतरम्)
(ङ) मृगकुलं ……अभ्यस्यतु ।(पाठ/रोमन्थम्)
(च) स्वयं न …….पिबन्ति नद्य:।(दुग्धानि/वारीणि)

उत्तर-(क) भुवनाय
(ख) मुञ्चन्तु
(ग) सरोवरश्रेष्ठां
(ङ) रोमन्थम्
(घ) चारुतरम्
(च) वारीणि

5. अधोलिखितपदानां संधिविच्छेदं कृत्वा पूर्ववर्णं परवर्णञ्च निर्दिशत-
यथा-बालकस्तु = बालक: + तु (अः + त्)
1. कालिदासस्तु = कालिदासः + तु (अः + त्)
2. वृक्षास्तु = वृक्षा: + तु (अः + त्)
3. कन्याश्च = कन्या: + च (अ: + च्)
4. पठितस्तेन = पठित: + तेन। (अः + त् )
5. मुहुस्ताडितम् = मुहुः + ताडितम् (अः + त् )
6. मानवश्च = मानवः + च (अ: + च्)

6. अधोलिखितपदेषु मूलशब्दं विभक्ति वचनं च लिखत-

मूलशब्द विभक्तिः वचनम्

यथा_वैज्ञानिके वैज्ञानिक सप्तमी एकवचनम्
1. पर्यावरणम् पर्यावरण द्वितीया एकवचनम्
2. साहित्ये साहित्य सप्तमी एकवचनम्
3. भुवनाय भुवन चतुर्थी एकवचनम्
4. सर्वेभ्यः सर्व चतुर्थी बहुवचनम्।
5. स्वरूपेषु स्वरूप सप्तमी बहुवचनम्
6. वृक्षान् वृक्ष द्वितीया बहुवचनम्।

7. अधोलिखित क्रियापदेषु धातुं, लकारं, पुरुष, वचनञ्च निर्दिशत-

धातु लकार: पुरुषः वचनम्
यथा-कथयति कथ् लट् प्रथमपुरुष एकवचन
1. भवति भू लट् प्रथमपुरुष एकवचन
2. रक्षति रक्ष् लट् प्रथमपुरुष एकवचन
3. कुर्वन्तु कृ लट् प्रथमपुरुष बहुवचन
4. मुञ्चन्तु मुञ्च् लोट् प्रथमपुरुष बहुवचन
5. आसन् अस् लड् प्रथमपुरुष बहुवचन

8. उदाहरणमनुसृत्य प्रत्येकम् अव्ययपदेन वाक्यद्वयं रचयत-

1. अधुना- अधुना पर्यावरणस्य चर्चा भवति
अधुना परीक्षा न भवति।
अधुना वृष्टिः भवति।

2. अत्र- अत्र पर्यन्यदेवः स्तूयते।
अत्र आगच्छतु भवान्।
अत्र गृहं नास्ति ।

3. इति- जलं शुद्धं पेयञ्च तिष्ठेत् इति समस्या अस्ति।
अ-आ इति स्वरा: सन्ति।
शुद्धं पर्यावरणं भवेत् इति समस्या अस्ति।

अनुच्छेद-पर्यावरणरक्षा

पर्यावरणरक्षायै प्रत्येकं नरः निवासपरिसरे तरूणां रोपणम् अभि-रक्षणं च कुर्यात्| अस्माकं गृहस्य प्रांगणे पुष्प पादपा: रोफणीयाः। राजमार्गम् उभयतः छायाप्रद वृक्षाः भवेयुः। गृहं स्वच्छं सुप्रकाशित य भवेत्। सर्व प्रदूषण प्रसार-परा: उद्योगा: नगराद ग्रामाद वा दूरे स्थापनीया:। दूषितानि जलानि गंगादिनदीषु न पतेयु: । तैल रहित:- वाहनानां संख्या न्यूना भवेत। कर्मस्थलानि प्राकृतिक सौन्दर्यण विभूषितानि स्युः। पर्यावरणस्य विनाशकः दण्डितः स्यात्।

Previous Post Next Post