पल्लव – चैप्टर 1/CLASS 11 |TAMIL NADU BOARD STUDY MATERIAL IN HINDI


पल्लव – चैप्टर 1/CLASS 11 |TAMIL NADU BOARD STUDY MATERIAL IN HINDI

         पल्लव कौन थे? प्रायः इसके बारे में कहा जाता है कि ये लोग स्थानीय कबीलाई थे. पल्लव का अर्थ होता है “लता” और यह तमिल शब्द “टोंडाई” का रूपांतरण है जिसका अर्थ भी लता होता है. इसलिए इन्हें मूलतः लताओं के प्रदेश का निवासी कहा जाता है. कुछ इतिहासकार उन्हें विदेशी-पहलव मानते हैं. इस मत का समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि “यह बात इससे सिद्ध होती है कि जब नन्दिवर्मन द्वितीय को सिंहासनारूढ़ होने के लिए चुना गया तो उसे हाथी की खोपड़ी के आकार का ताज दिया गया जो हिंदू-यूनानी राजा विभित्रयस के ताज की याद दिलाता है.” वस्तुतः वे विदेशी पहलाव (पार्थियन) के वंशज नहीं थे बल्कि मूलतः स्थानीय कबीलाई थे. सत्ता में आने से पहले इस वंश का संस्थापक बप्पदेव (Bappadevan) सातवाहन राजा के अधीन एक प्रांतीय शासक था. सातवाहनों की सत्ता का जब विघटन हो रहा था तभी वह स्वतंत्र शासक बन गया और धीरे-धीरे काँची की ओर अपनी सत्ता का विस्तार करने लगा. उनकी सत्ता के अधीन धीरे-धीरे आंध्रपथ (आंध्र प्रदेश) और तोंडैमंडलम दोनों  ही थे. उन्होंने अपनी राजधानी काँची बनायी, जो पल्लव शासन काल में वैदिक विद्या और मंदिरों का नगर बन गया. इनका उदय तीसरी या चौथी शताब्दी में शुरू हुआ. बप्पदेव के काल में प्राकृत भाषा फलीफूली. उसने जंगलों को काटकर और सिंचाई की सुविधाएँ देकर कृषि की प्रगति में योगदान दिया. उसके बाद उसी का पुत्र शिवस्कंदवर्मन उसका उत्तराधिकारी बना. उसने धर्म महाराज की उपाधि ग्रहण की और अश्वमेघ और वाजपेय जैसे यग्य कराये. उसके बाद का पल्लव वंश का इतिहास बहुत वर्षों तक अन्धकारमय है.

प्रयाग प्रशस्ति (समुद्रगुप्तकालीन) से पता चलता है कि समुद्रगुप्त दक्षिण अभियान के समय कांची में पल्लव नरेश विष्णुगोप शासन कर रहा था. पल्लव का प्रभाव शायद 575 ई. तक कम रहा. संभवतः वे वास्तविक साम्राज्यवादी शक्ति 575 ई.के आस-पास बने. इसलिए (काशाक्कुदि और बैलूर पालैयम से मिले) प्राप्त ताम्रपत्रों में उनकी वंश तालिका सिंह विष्णु से शुरू होती है (575-600 ई.) और अपराजित (879-897 ई.) के शासन काल से समाप्त होती है.

                     पल्लव राजवंश या कॉन्ची का पल्लक राजवंश

संगमकाल के बाद दक्षिण भारत में पल्लवों ने एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की।
पल्लव राजवंश का संस्थापक सिंहवर्मा या वप्पदेव (तीसरी शताब्दी) था।
वप्पदेव के बाद शिवस्कंद वर्मण शासक बना।
इसने काँची (Tamil Nadu) को पल्लव राज्य की राजधानी बनाया

पल्लव राजवंश का पहला महत्वपूर्ण शासक, सिंह विष्णु (575-600 ई.) था
सिंह विष्णु ने पल्लव राजवंश का काफी विस्तार किया इसीलिए सिंह विष्णु को 
पल्लववंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। 
सिंहविष्णु वैष्णव धर्म को मानता था, सिंहविष्णु को अवनी सिंह भी कहा जाता था।
सिंहविष्णु ने मामलमपुरम (महाबलिपुरम T.N) में बाराह मंदिर का निर्माण कराया।
किराताजुनीयम के रचनाकार भारवी  सिंह विष्णु के दरबार में ही रहते थे।

महेन्द्र वर्मण प्रथम (600-630 ई.):-
सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेन्द्र वर्मण प्रथम पल्लव शासक बना।
महेन्द्र वर्मण प्रथम के काल से ही दक्षिण भारत के दो शक्तियों चालुक्य एवं पल्लवों 
के बिच संघर्ष प्रारंभ हुआ।
महेन्द्र वर्मण प्रथम ने मतविलासप्रहसण नामक ग्रंथ की रचना की।
महेन्द्र वर्मण प्रथम मतविलासविचित्यचित एवं गुणभर जैसी उपाधियाँ धारण की।

नरसिंह वर्मण प्रथम (630 -668 ई.) 
नरसिंह वर्मण प्रथम पल्लव वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसने 
चालुक्य शासक पुलकेशिन द्बितीय को लगातार तीन युद्धो में बुरी तरह से
पराजित किया।
नरसिंह वर्मण प्रथम ने पुलकेशिन द्बितीय के पीठ पर तलवार के बल पर
विजय हासिल की।
नरसिंह वर्मण प्रथम  दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसकी
सेनाओं ने श्रीलंका तक विजय अभियान किया।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग नरसिंह वर्मण प्रथम के साथ ही काँची गया था।
नरसिंह वर्मण प्रथम योद्धा के साथ-साथ एक महान निर्माता भी था।
इन्होंने महावलीपुरम (TN) में सात रथ मंदिरों का निर्माण भी कराया।
इन रथ मंदिरों को सप्तपैगोडा के नाम से भी जाना जाता है इन रथ मंदिरों में
पंच पाण्य रथ, गणेश रथ एवं द्रौपदी रथ।
नरसिंह वर्मण प्रथम को महामात्य एवं महामल के नाम से भी जाना जाता था।
नरसिंह वर्मण प्रथम की राजधानी वातापी कौण्ड थी।

महेंद्र वर्मण द्बितीय (668-670ई.)
महेंद्र वर्मण द्बितीय का शासन काल बहुत हीं छोटा रहा, यह दानी शासक था।
इसने घटीका विद्बान ब्रह्मण की संस्था को धन दान किया था।

परमेश्वर वर्मण प्रथम (670-80 ई.) ने चालुक्य शासकों के संघ को पराजित
किया था और महावलीपुरम मे एक गणेश मंदिर का निर्माण कराया।

नरसिंह वर्मण द्बितीय (680-710 ई. )
परमेश्वर वर्मण प्रथम के बाद उसका पुत्र नरसिंह वर्मण द्बितीय शासक बना,
इसने राजसिंह की उपाधि धारण की तथा काँची (TN) में कैलाशनाथ मंदिर
एवं एरावतेश्वर (इन्द्र) का भी निर्माण नरसिंह वर्मण द्बितीय ने ही कराया।
नरसिंह वर्मण द्बितीय ने महावलीपुरम मे शोर के मंदिर (समुंद्र देवता का मंदिर)
का निर्माण कराया, इस मंदिर का विशेषता यह है कि इसका प्रवेश द्वार समुंद्र
के तरफ से ही है।
दसकुमार चरित्र और अवंति सुंदरी कथा के रचनाकार दण्डी, नरसिंह वर्मण द्बितीय 
के दरवार में ही रहते थे।
नरसिंह वर्मण द्बितीय ने चीन में अपना एक दूतमंडल भेजा था एवं चीनी
बौद्ध यात्रियों के लिए नागीपट्टणम में एक बौद्ध बिहार भी बनवाया था।

परमेश्वर वर्मण द्बितीय (720-31 ई.) सिंह विष्णु वंश का अंतिम शासक था,
चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्बितीय ने इसे युद्ध भूमि में ही मार दिया था।

परमेश्वर वर्मण द्बितीय के बाद उसका एक रिस्तेदार नंदी वर्मण द्बितीय 
(731-95 ई. ) अगला पल्लव शासक बना।
नंदी वर्मण द्बितीय की शादी, राष्ट्रकुट शासक दंतीदुर्ग की पुत्री रेवा से हुआ था।
नंदी वर्मण द्बितीय के बाद दंतीवर्मणनंदी वर्मण तृतीयनृपतुंग वर्मण एवं 
अपराजिता आदि शासक हुए।

अपराजिता  (879-897 ई.) पल्लव राजवंश का अंतिम शासक था इसे मार कर
चोलों ने पल्लव राजवंश का अंत कर दिया।


                              पल्लवकालीन संस्कृति

भक्ति आंदोलन का जन्म दक्षिण भारत में पल्लव काल में ही हुआ था।
तमिल समाज में वैष्णव एवं शैव भक्ति का अधिक विकास हुआ।
ब्राह्मण धर्म में ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं―
(1) कर्म मार्ग (2) ज्ञान मार्ग एवं (3) भक्ति मार्ग
दक्षिण भारत के शैव एवं वैष्णव संतों ने भक्ति मार्ग को अपना कर ईश्वर 
प्राप्ति का सरल मार्ग बताया। अर्थात् भक्ति की उत्पत्ति दक्षिण भारत से ही हुई।
भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत लाने का श्रेय रामानंद को 
दिया जाता है।
दक्षिण भारत के शैव आचार्यों को नयनार एवं वैष्णव आचार्यों को अलवार 
कहा जाता है।

नयनार संतों―
दक्षिण भारत में नयनार संतों की संख्या 63 बताई गई है, इनमें प्रमुख संत
थे ― अप्पार, तिरुज्ञान,संवदर, सुंदरमुर्ति आदि।
नयनारों ने भक्ति गीतों के माध्यम से इश्वर को प्रश्न किया, इसके भक्ति गीतों के
संकलन को देवारंभ भी कहा जाता है।

अलवार संतों―
दक्षिण भारत में वैष्णव भक्ति को अलवार संतों ने प्रमुखता दिलाई, ये विष्णु के
भक्त थे।
अलवार संतों की संख्या 12 बताई गई है, इनमें प्रमुख थे ―
नामल्वार, कुलशेखर, अंडाल आदि।
अलवार संतों मे अंडाल ही एक महिला संत थी।

अद्बैत वेदांत (दर्शन) के संस्थापक शंकराचार्य का जन्म पल्लव शासन काल में
ही हुआ था। शंकराचार्य का जन्म सन् 788 ई. में केरल के कलादि नामक गाँव
में हुआ था।
शंकराचार्य जी मात्र 32 वर्ष की आयु में 820 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुए।
काफी कम समय मे ही शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिए।
इन्होंने भारत के चार कोनों में चार पीठ या मठ की स्थापना की―
दिशा                              मठ
उत्तर                               केदारनाथ (उत्तराखंड)
दक्षिण                             श्रृंगेरी  (तमिलनाडु)
पूर्व                                  पूरी (उड़ीसा)
पश्चिम                               द्बारिका (गुजरात)

शंकराचार्य का अद्बैत वेदांत दर्शन ही उपनिषदीय दर्शन कहा जाता है।

                                         ★★★ 
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