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 Bihar Board Class 11th Hindi साहित्य का इतिहास

Bihar Board Class 11th Hindi हिन्दी साहित्य का इतिहास

प्रश्न 1.
‘साहित्यिक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, साहित्य-रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
‘साहित्य’ की परिभाषा प्रस्तुत करके उसकी उपादेयता पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
साहित्य के प्रयोजन का विशद विवेचन कीजिए।
उत्तर-
साहित्य की परिभाषा एवं उसका स्वरूप-‘साहित्य’ शब्द मूलतः ‘सहित’ शब्द से रचित है। संस्कृत में कहा गया है-‘सहितस्य भावः साहित्यम्’-अर्थात् जिस रचना के साथ (रहने या होने) का भाव विद्यमान हो वह साहित्य है। साथ किसका? या किसके सहित ? इस प्रश्न का उत्तर कई तरह से दिया जा सकता है-
(क) शब्द और अर्थ का साथ होना। अर्थात् ‘सार्थक शब्दों के रचना-कौशल’ को साहित्य कहते हैं।
(ख) सहित, अर्थात् मानव जीवन के हित’ (मंगल, कल्याण, उद्धार, विकास) में सहायक होने वाली शब्दार्थमयी रचना को साहित्य कहा जा सकता है।

संक्षेप में साहित्य की परिभाषा है-“शब्द और अर्थ के ऐसे उचित संयोग को साहित्य कहते हैं जो मानव-जीवन के लिए हितकारी हो।”

इसी आधार पर, साहित्य के स्वरूप की विशद व्याख्या की जा सकती है। वही रचना साहित्य कहलाने की अधिकारिणी हो सकती है जिसमें प्रयुक्त शब्दावली, अभीष्ट अभिप्राय, मंतव्य या तात्पर्य को अभिव्यजित करने में पूर्णत: सक्षम हो। उन शब्दों में सहज-सुबोधता, अर्थ की रमणीयता और हृदयस्पर्शी रोचकता आदि तत्वों का समाहार होना आवश्यक है।

सहज-सुबोधता का अभिप्राय यह नहीं है कि आम घरेलू या बाजारू व्यवहार में प्रयुक्त सभी प्रकार की शब्दावली ‘साहित्य’ होगी। उस शब्दावली में माव-मन और जीवन को प्रभावित करने वाली ऐसी बातें हों जो शिष्टशालीन स्तर का निर्वाह हुए पढ़ने और सुनने वालों की अभिरूचि के भी अनुकूल हों।

‘सहित’ अर्थात् ‘साहचर्य’ की भावना का अभिप्राय व्यक्ति और समाज, अतीत, वर्तमान और भविष्य सुख और दुःख आदि की समन्वित भी है। साहित्य में यथार्थ के साथ आदर्श का समन्वय होने के साथ सत्य, शिव और सुंदर तत्त्वों का भी समुचित सामंजस्य होना चाहिए।

उदाहरण के लिए हम कबीर, तुलसी आदि कवियों की कविता, भारतेंदु, प्रसाद, आदि के नाटक, चन्द के उपन्यास या जैनेन्द्र और अज्ञेय की कहानियाँ, हजारीप्रसाद द्विवेदी या विद्यानिवास मिश्र के निबंध, राहुल के यात्रा-वृत्तांत अथवा महात्मा गाँधी या पं० नेहरू की आत्मकथा, महादेवी वर्मा के संस्मरण और रेखाचित्र-किसी भी रचना की लें-उनमें शब्द और अर्थ, व्यक्ति और समाज के यथार्थ और आदर्श, सत्य-शिव-सुंदर के साथ-साथ रोचकता और लोक-मंगल भावना का भी समुचित समावेश है। इसी कारण इस प्रकार की सभी रचनाएँ ‘साहित्य’ के अंतर्गत भानी जाती है।

सहित्य का उद्देश्य अथवा प्रयोजन-सृष्टि की कोई भी वस्तु उद्देश्य रहित नहीं। फिर किसी कवि, कथाकार या निबंधकार की कोई भी रचना बिना किसी प्रयोजन के कैसे मानी जा सकती है साहित्य के स्वरूप के अंतर्गत ‘सहित’ (स + हित अर्थात् हित से युक्त, हितकारी, मंगलकारी) भाव का उल्लेख ही ‘साहित्य के उद्देश्य’ का भी स्पष्ट संकेत कर देता है। इसके अनुसार साहित्य का उद्देश्य है-मानव-मात्र का ही नहीं, प्राणी-मात्र का हित करना।

भारतीय साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने साहित्य (या काव्य) के उद्देश्य की चर्चा बड़े विस्तार से की है। इस संबंध में उन्होंने दो पहलुओं से विचार किया है-
(क) साहित्य के रचनाकार (कवि या लेखक) की दृष्टि से,
(ख) पाठक, श्रोता या (नाटक के) दर्शक की दृष्टि से।

प्रथम दृष्टि से साहित्य का उद्देश्य है-यश कीर्ति की प्राप्ति, धन-उपार्जन। आज कालिदास, कबीर, तुलसी, भारतेन्दु प्रसाद, प्रेमचंद आदि की जो ख्याति है उसका आधार उनका साहित्य ही है। मध्ययुग के केशव, बिहारी, देव आदि कवियों को उनकी रचनाओं के कारण पुरस्कार, सम्मान आदि के रूप में धन-प्राप्ति हुई। वर्तमान युग में भी लोकप्रिय साहित्यकारों को रचनाओं के माध्यम से ही उन्हें पर्याप्त आर्थिक आय होने के उदाहरण प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं।

परंतु रचयिता की दृष्टि से साहित्य का यह उद्देश्य पाठक-वर्ग अर्थात् साहित्य के अध्येता की दृष्टि से विचारणीय है। पाठक या श्रोता (समाज) की दृष्टि से साहित्य का उद्देश्य बहुआयामी (अनेक प्रकार) का है। जैसे-ज्ञान प्राप्ति, जानकारी वृद्धि, अमंगलकारी (हानिकारक) प्रवृत्तियों से मुक्ति, अलौकिक आनंद की प्राप्ति तथा मनोरंजन के साथ-साथ हितकारी उपदेशों का संचार आदि।

संस्कृत के प्राचीन आचार्य भरत ने कहा है कि “साहित्य का उद्देश्य मनुष्य को दु:ख, श्रम .. और शोक से मुक्ति दिलाना है।”

भारतीय परंपराओं में जीवन के चार उद्देश्य माने गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। आचार्य भामह साहित्य के माध्यम से इन्हीं चार उद्देश्यों की सिद्धी मानते हैं। इसके साथ उन्होंने कीर्ति और आनंद की प्राप्ति को भी साहित्य का उद्देश्य प्रयोजन बताया है। आचार्य दंडी का कथन है कि साहित्य ज्ञान और यश प्रदान करता है।”

गोस्वामी तुलसीदास ने अत्यंत संक्षेप में साहित्य (किसी रचना के रूप में प्रस्तुत वाणी) का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है-

करीति भनिति भूमि धलि सोई।
सुरसरि सम सब कह हित होई॥

(अर्थात्-वही कीर्ति, वाणी (साहित्य रचना) और धन-वैभव श्रेष्ठ है जो गंगा के समान (बिना किसी भेदभाव के) सबका एक-सा हित करे।

स्पष्ट है कि साहित्य का मुख्य प्रयोजन या उद्देश्य है-‘सभी का एक-समान हित करना।’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें तनिक उपदेश का भी धर्म होना चाहिए।

संक्षेप में “अलौकिक आनंद तथा लोकमंगल ही साहित्य का चरम उद्देश्य है।”

प्रश्न 2.
साहित्य के इतिहास के काल-विभाजन और नामकरण के विभिन्न आधारों का उल्लेख कीजिए और बताइए कि उनमें सबसे अच्छा कौन है ?
उत्तर-
साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण कृति, कर्ता, पद्धति और विषय की प्रधानता के आधार पर किया जाता है। साहित्य इतिहास को प्रायः लोग प्रमुख तीन भागों-आदि (प्राचीन), मध्य और आधुनिक-में बाँटकर उसका नामकरण कर देते हैं, जैसे-आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।

यह भी सच है कि कभी-कभी साहित्य में अनेक धाराएँ और प्रवृत्तियाँ एक साथ समान वेग से उदित और विकसित होती दिखाई पड़ती हैं। ऐसी स्थिति में साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन साहित्यिक विधाओं के आधार पर कर दिया जाता है। इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल ने किसी कालखंडविशेष में एक ही ढंग की रचनाओं की प्रचुरता अथवा रचनाविशेष की आपेक्षिक प्रसिद्धि को अपने काल-विभाजन का आधार बनाया है।

उनका कहना है कि किसी कालविशेष में किसी रचनाविशेष की प्रसिद्धि से भी उस काल की लोकप्रवृत्ति झंकृत होती है। संक्षेप में, साहित्यिक इतिहास ग्रंथों के काल-विभाजन और नामकरण के लिए प्रायः निम्नलिखित आधार अपनाए जाते हैं-

  • मानव-मनोविज्ञान के द्वारा सामान्यतः स्वीकृत ऐतिहासिक कालक्रम, जैसे-आदिकाल, पूर्व-मध्यकाल, उत्तर-मध्यकाल और आधुनिक काल।
  • शासन और शासनकाल, जैसे-एलिजाबेथ-युग, विक्टोरिया-युग।
  • लोकनायक, जैसे-गाँधी-युग।।
  • प्रसिद्ध साहित्यकार, जैसे-भारतेन्दु-युग, द्विवेदी-युग।
  • महत्त्वपूर्ण घटना, जैसे-पुनर्जागरण-काल, स्वातंत्र्योत्तर-काल।
  • भावगत अथवा शिल्पगत प्रवृत्तियों की प्रधानता, जैसे-भक्तिकाल, श्रृंगारकाल, रीतिकाल, छायावाद काल (युग)।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि जनता की चित्तवृत्तियों के साथ साहित्य परंपरा का सामंजस्य दिखाना ही साहित्येतिहास और उसके लेखक का काम है। इसलिए, किसी कालखंड में जनता की प्रधान चित्तवृत्ति को ही वे काल-विभाजन और उसके नामकरण का सर्वोत्तम आधार मानते हैं। जहाँ कहीं कोई ऐसी प्रधान चित्तवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती वहाँ वे अन्य साधनों का भी उपयोग करते हैं।

हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण शुक्लजी के अतिरिक्त गारसा-द-तासी से हजारी प्रसाद द्विवेदी तक विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूपों में किया है। किन्तु, अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण निम्नलिखित रूप में किया है-

(क) आदिकाल अथवा वीरगाथाकाल (1050-1375 ई०)
(ख) पूर्व-मध्यकाल अथवा भक्तिकाल (1375-1700 ई०)
(ग) उत्तर-मध्यकाल अथवा रीतिकाल (1700-1900 ई०)
(घ) आधुनिक काल (1900 ई० से अब तक)

अनेक दुर्बल बिन्दुओं के बावजूद आचार्य शुक्ल-कृत ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ का काल-विभाजन और नामकरण ही आज तक व्यावहारिक और सर्वमान्य बना हुआ है।

प्रश्न 3.
आदिकाल के नामकरण के औचित्य पर विचार कीजिए।
उत्तर-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में हिन्दी साहित्य के। इतिहास का जो काल-विभाजन किया है वह इस प्रकार है-
आदिकाल (वीरगाथाकाल, संवत् 1050-1375)
पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)
उत्तर-मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)
आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900-1984)

इस काल-विभाजन में दोष होने पर भी व्यवहारिक सुविधा के लिए बहुसंख्यक लोग इसी काल-विभाजन को आधार मानते रहे हैं। जहाँ तक आदिकाल नाम का प्रश्न है उससे जनता की किसी चित्तवृत्तिविशेष का पता नहीं चलता जबकि आचार्य शुक्ल ने स्वयं लिखा है कि हिन्दी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचि-विशेष का संचार और पोषण किधर से किस प्रकार हुआ।

आदिकाल का नामकरण करते समय भी आचार्य शुक्ल अपने इस सिद्धांत के प्रति जागरूक थे। आदिकाल के प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के संदर्भ में उन्होंने लिखा है-“आदिकाल की इस दीर्घपरंपरा के बीच प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर हो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है-धर्म, शृंगार, वीर सब प्रकार . की रचनाएँ दोहों में मिलती हैं।” इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के बाद वीर-गाथाओं का समय आता है।

फिर भी, आचार्य शुक्ल ने इस पूरी अवधि को आदिकाल (वीरगाथाकाल) कहा है। शुक्लोत्तर इतिहासकारों और आलोचकों में ऐसे बहुत हैं जो शुक्लजी के ‘आदिकाल’ नाम को अनुचित बताते हैं। उनका तर्क है कि ‘आदि’ से किसी विशेष चित्तवृत्ति का पता नहीं चलता ! शुक्लोत्तर इतिहासकारों में डॉ० रामकुमार वर्मा ने इस काल को चारणकाल कहा है। किन्तु, रचयिताओं की जाति के आधार पर नामकरण के सिद्धांत को बहुत अच्छा नहीं माना जा सकता। राहुल सांस्कृतत्यायन ने इस कात को सिद्धसामंतकाल कहा है।

प्रश्न है कि अगर राहुलजी के इस नाम को स्वीकार कर लें तो आगे के कालों का नामकरण इस आधार पर कैसे होगा? वैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को इस काल का नाम ‘अपभ्रंशकाल’ रखने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु तब आगे के कालों को सधुक्कड़ीकाल, ब्रजभाषा का काल, अवधीकाल, खड़ी बोली काल कहना होगा। इसी झमेले से बचने के लिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को सर्वत्र आदिकाल ही कहा है।

यह नाम बाबू श्याम सुन्दर दास द्वारा भी प्रस्तावित है। यद्यपि इस नाम की सीमा से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी परिचित हैं-“वस्तुतः, हिन्दी का ‘आदिकाल’ शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारण की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है” तथापि वे आगे लिखते हैं कि “यह ठीक नहीं है।

यह काल बहुत अधिक परंपराप्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सजग-सचेत कवियों का काल है।” इस तरह, हम देखते हैं कि किसी प्रवृत्ति-विशेष का आधार न होते हुए भी इस काल को लोग ‘आदिकाल’ ही कहते आए हैं। प्रवृत्ति का आधार तो सर्वोत्तम है किन्तु किसी निर्दिष्ट चित्तवृत्ति या प्रवृत्ति के अभाव में परंपरा और लोक-स्वीकृति का भी ध्यान रखना चाहिए। इन बिन्दुओं के आलोक में हिन्दी साहित्य के इतिहास की इस अवधि (संवत् 1050-1375) के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उचित जान पड़ता है।

प्रश्न 4.
सिद्ध और नाथ साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा,
सिद्ध और नाथ साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
उत्तर-
सिद्ध-साहित्य की निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं
(क) वेदसम्मत ज्ञान की अवहेलना तथा काया-साधना का महत्त्व-प्रतिपादन-सिद्ध-साहित्य में वेदसम्मत ज्ञान को निष्फल बताया गया है और वैदिक पंडितों का उपहास किया गया है। सरहपाद ने लिखा है कि वैदिक पंडित संपूर्ण सत्य का व्याख्यान करते चलते हैं, किन्तु आवागमन की समस्या का आज तक वे समाधान नहीं कर पाए। तब भी, वे निर्लज्ज दावा करते हैं कि हम पंडित हैं। वे मूर्ख यह भी नहीं जानते कि काया के भीतर ही परमतत्त्व का निवास है-

पंडित सअल सत्त बक्खाण्ड, देहहि बुद्ध बसंत ण जाण्इ।
अवणागवण ण तेण बिखंडिट, तोवि णिलज्ज अँडउँ हउँ पंडिट॥

(ख) पंचमकार की साधना-सिद्ध-साहित्य में सर्वत्र पंचमकार की साधना पर बल दिया गया है। किन्तु मद्य, मदिरा, मांस, मैथुन और मुद्रा की वहाँ रहस्यात्मक धारणा है। इन्हें लौकिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए।
(ग) शून्य-साधना-सिद्धों ने काया-साधना को तो महत्त्व दिया ही है, योग और नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्य-साधना पर भी बल दिया है। शून्यता के साथ करुणा का योग उनका साध्य है।
(घ) सहज-साधना-सिद्धों ने सहज-समाधि पर भी बल दिया है। सहज-समाधि के अंतर्गत वे प्रज्ञा और उपाय के योग की साधना करते हैं।
(ङ) उलटी साधना-उलटी साधना या परावृत्ति पर भी उस साहित्य में बल दिया गया है।
(च) धार्मिक-सामाजिक बुराइयों पर प्रहार-साहित्य में सामाजिक कुरीतियों और बुराइयों, जाति-पाँति और पुस्तकीय ज्ञान पर सर्वत्र प्रहा, किया गया है।
(छ) रहस्यात्मक साधना-उसमें रहस्यात्मक साधना से सिद्धिप्राप्ति का उल्लेख तथा तंत्रों को चमत्कारिक शक्ति का प्रतिपादन है।
(ज) सामान्य शैली-सिद्ध-साहित्य में दोहा-चौपाई तथा कुछ अन्य छंदों को भी समान रूप से अपनाया गया है। उलटबाँसी उनकी सामान्य शैलीगत प्रवृत्ति है।

नाथ-साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-
(क) शून्य-साधना-सिद्धों की शून्य-साधना की परंपरा नाथों में भी चलती रही। सिद्धों की तरह नाथों ने भी सहज-समाधि अथवा शून्य-समाधि पर बल दिया है। अतः, शून्य-साधना या सहज-साधना नाथ-साहित्य की भी सामान्य प्रवृत्ति है।
(ख) उलटी साधना-सिद्धों की तरह नाथों ने भी उलटी साधना पर बल दिया है। वे भी पवन को उलटकर ब्रह्मरंध्र में समाविष्ट करने की बात बार-बार करते हैं।
(ग) शैली-नाथ-साहित्य की उपमा-पद्धति, छंद आदि सिद्धों के साहित्य की तरह हैं। भाषा की दृष्टि से उन्होंने संधाभाषा का प्रयोग किया है।

प्रश्न 5.
वीरगाथाकाल (आदिकाल) की सामान्य प्रवृत्तियों (विश्ताओं) का उल्लेख कीजिए।
अथवा,
वीरगाथाकाल की सामान्य (प्रमुख) प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
उत्तर-
वीरगाथाकाल (1050-1375 ई०) लड़ाई-भिड़ाई का युग था। भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग से प्रायः निरंतर विदेशी आक्रमण होते रहते थे। इस युग में एक ओर सिद्ध, नाथ और जैन अपने आध्यात्मिक साहित्य का निर्माण कर रहे थे तो दूसरी ओर खंडराज्यों में बँटे उत्तरी भारत के राजाओं के दरबारी कवि अपने-अपने आश्रदाताओं की अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसापरक काव्य रचना करने में संलग्न थे।

इस काल के कवि केवल कविता ही नहीं लिखते थे, आवश्यकता पड़ने पर लड़ने के लिए भी निकल पड़ते थे। पृथ्वीराज के दरबारी कवि और पृथ्वीराजरासो के प्रणेता चंदबरदाई को भी ऐसा ही करना पड़ा था-“पुस्तक जल्हण हल्थ दै चलि गज्जन नृप काज”। संक्षेप में वीरगाथाकाल की निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं-

(क) आश्रयदाता राजा की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा और एक समग्न राष्ट्रीय भावना का नितांत अभाव-उक्त काल में उत्तर भारत कई खंडराज्यों में बँट चुका था। राजाओं में ईर्ष्या-द्वेष व्याप्त था। वे बात-बात में परस्पर लड़ पड़ते थे। वे अहंकारी और विलासी थे। इसलिए अपने दरबारी अथवा आश्रित कवियों से वे अपनी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा सुनने के आदी। हो गए थे। उनके दरबारी कवि भी उनकी प्रशंसा में तिल का ताड़ और प्रतिपक्षियों के अवमूल्यन में ताड़ का तिल किया करते थे। एक समग्र राष्ट्रीय भावना का उस काल के साहित्य में नितांत अभाव मिलता है।

(ख) इतिहास के साथ तोड़-मरोड़-चूंकि उस काल के बहुसंख्यक कवि राजाश्रित थे। अतः, अपने आश्रयदाता राजाओं की इच्छा अथवा स्वेच्छा से भी वे सच्चाई के साथ खिलवाड़ किया करते थे। उनके द्वारा रचित काव्य-साहित्य में बहुत सी बातें कल्पित अथवा ऐतिहासिक सत्य के विरुद्ध हुई हैं।

(ग) युद्धों का सजीव वर्णन-उस काल के राजाश्रित कवि बहुत प्रतिभाशाली थे। उनमें सजीव और रंगारंग वर्णन करने की अप्रतिम क्षमता थी। इसलिए, उनके द्वारा वर्णित संग्रामों में सर्वत्र सजीवता दिखाई पड़ती है। उनके साहित्य का वीररसात्मक वर्णन विश्व-साहित्य की बहुमूल्य निधि है।

(घ) वीर और श्रृंगार रसों की प्रधानता-उक्त काल के काव्य-साहित्य में वीर और शृंगार रसों का प्राधान्य है। वीर और शृंगार परस्पर उपकार भी हैं। इसलिए, ऐसे काव्यों के किसी नायक के साथ उसकी नायिका को अनिवार्यतः रखा गया है।

(ङ) वर्णन की प्रधानता एवं सच्चे भावोन्मेष का अभाव-उक्त काल के कवियों में वर्णन की अकल्पनीय शक्ति थी। इसलिए सच्चे भावोन्मेष के अभाव में भी केवल वर्णन-शक्ति के आधार पर काव्य-रचना अथक रूप में किए जाते थे।

(च) प्रकृति-चित्रण में प्रति रुझान-चूँकि उक्त काल के कवि श्रृंगाररसपूर्ण साहित्य का भी सृजन करते थे, इसलिए उनके काव्य में उद्दीपनात्मक और अलंकृत कोटियों के प्रकृति-चित्रणों की बहुलता है। प्रबंधात्मक अनिवार्यता के कारण वे प्रकृति का आलंबनात्मक वर्णन भी करने के लिए विवश थे।

(छ) रासो नामधारी ग्रंथों की रचना-उक्त काल की अन्य सामान्य प्रवृत्तियों में रासो नामधारी ग्रंथों का निर्माण और जनजीवन के यथार्थ वर्णन की उपेक्षा के भाव को रेखांकित किया जा सकता है।

शैली-सबने दोहा, सोरठा, तोमर, गाथा, गाहा, आर्या, पद्धरिया, सट्टक, रोला, उल्लाला, कुंडलिया-आदि छंदों का विपुलता के साथ प्रयोग किया है।।

प्रबंध के साथ-साथ मुक्तकों की भी रचना उस काल की सामान्य शिल्पगत प्रवृत्ति है।

उक्त काल के कवियों ने डिंगल और पिंगल दोनों भाषाओं का प्रयोग समान रूप से किया है। अतः, इस बात को हम उनकी सामान्य भाषागत प्रवृत्ति कह सकते हैं।

प्रश्न 6.
भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
अथवा,
मध्यकालीन संतों के सामान्य विश्वासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
निर्गुण धारा के संत हों अथवा सगुण मत के-सबमें विश्वास की समानता पाई जाती है। उनके सामान्य विश्वास निम्नलिखित हैं
(क) भगवान के साथ भक्तों का व्यक्तिगत संबंध-मध्यकालीन भक्तों के उपास्य तत्त्वतः परम सत्ता होते हुए भी एक व्यक्ति की तरह वर्णित हैं, ऐसे व्यक्ति की तरह जो कृपा कर सकता है, प्रेम कर सकता है, उद्धार कर सकता है और अवतार भी ले सकता है। निर्गुण कवि-शिरोमणि कबीर कहते हैं-हरि मेरे पति हैं, और मैं उनकी बहुरिया। वे मेरी माँ हैं, और मैं उनका बालक।

(ख) प्रभु के प्रति प्रेम में विश्वास-प्रभु का स्वरूप प्रेममय है। प्रेम ही साधन और प्रेम ही साध्य है। इसीलिए, सर्ववांछारिहत होकर मध्यकालीन भक्त, केवल प्रभु के प्रेम की कामना करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रेम ही परम पुरुषार्थ है।

(ग) प्रभु की लीलाओं में सहभागिता की इच्छा-मध्यकालीन संत, चाहे सगुण हों अथवा निर्गुण, सभी, प्रभु की लीला में अपनी सहभागिता चाहते हैं। कबीरदास जैसे निर्गुणिया कहते हैं-

वे दिन कब आवैगे माई।
जा कारन हम देह धरी है मिलिबौ अंगि लगाइ। हौं
जानें जो हिलिमिलि खेलूँ तनमन प्रान समाइ।
या कामना करो परिपूरन समरथ ही रामराइ।

इसलिए, भक्तिकालीन संतों की इस प्रवृत्ति को आचार्य द्विवेदी ने ‘तीसरी समानधर्मिता’ के रूप में रेखांकित किया है।
इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है-“कबीरदास, दादूदयाल आदि निर्गुण मतवादियों की नित्य लीला और सूरदास, नंददास आदि सगुण मतवादियों की नित्य लीला एक ही जाति की हैं।”

(घ) भक्त और भगवान में अभेद भावना-मध्यकालीन भक्ति साहित्य के अवलोकन से पता चलता है कि सभी प्रकार के भक्त भावना के साथ अपने अभेद में विश्वास करते हैं। प्रेम-दर्शन ही उनके इस विश्वास का आधार है। ‘राम से अधिक रामका दासा’ के पीछे भक्त और भगवान के बीच यही अभेद भाव है।

(ङ) गुरु का महत्व-क्या सगुण और क्या निर्गुण-संपूर्ण भक्ति साहित्य में गुरु की महिमा का निरंतर गाना किया गया है। उन्हें भगवान का रूप कहा गया है। भक्तमाल में लिखा है-

भगति भगत भगवंत गुरु, नामरूप बपु एक।
इनके पद बंदन किए, नासैं बिधन अनेक।।

(च) नाम-महिमा में विश्वास-सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के भक्तों में नाम की महिमा का भरपूर गान किया है। सगुणवादी कवि-शिरोमणि तुलसीदास जिस तरह कहते हैं

“ब्रह्म राम में नाम बड़े वरदायक वरदानि”

उसी तरह निर्गुण धारा के भक्त-शिरोमणि कबीरदास भी कहते हैं-

कबीर कहै मैं कथि गया ब्रह्म महेस।
राम नाम ततसार है सब काहू उपदेस।।

(छ) प्रेमोदय के एक जैसे क्रम में विश्वास-भगवान के प्रति भक्तों में सहसा प्रेम नहीं उमड़ता। उसका एक निश्चित क्रम होता है। प्रेमोदय के इस क्रम में सभी भक्तों का एक समान विश्वास है। इस तरह, यह विशेषता भक्तिकालीन कवियों की सामान्य प्रवृत्ति है।

प्रश्न 7.
रीतिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
रीतिकाल (1700-1900 ई०) में तीन प्रकार की काव्य-रचनाएँ पाई जाती हैं-
(क) रीतिबद्ध
(ख) रीतिसिद्ध एवं
(ग) रीतिमुक्त।

रीतिबद्ध कवियों की पहली सामान्य प्रवृत्ति यह है कि ऐसे सभी कवि कवि-शिक्षा देना अपना सर्वोपरि कर्त्तव्य मानते हैं। इसलिए, लक्षण-उदाहरण की परिपाटी पर वे काव्य-रचना करते हैं। उनकी दूसरी प्रवृत्ति संस्कृत काव्यशास्त्रीय मान्यताओं को ब्रजभाषा में स्पष्ट करना था। वे लक्षणों से अधिक उदाहरणों से महत्त्व देते थे। इस प्रकार के सभी कवियों में आचार्यत्व और कवित्व का अद्भुत योग दिखाई पड़ता है।

किन्तु, रीति-सिद्ध कवियों की सामान्य विशेषता यह है कि लक्षण ग्रंथ न लिखने पर भी उनका समस्त काव्यात्मक प्रयत्न भीतर-भीतर से काव्य के विभिन्न लक्षणों द्वारा ही अनुशासित रहता था। वे विशुद्धत: ‘काव्य-कवि’ थे। चमत्कारपूर्ण उक्ति-कथन ऐसे कवियों की सामान्य प्रवृत्ति है। इसीलिए, उनके काव्य में मौलिक उद्भावनाओं की प्रचुरता है। वे अपेक्षाकृत स्वच्छंद प्रकृति के कवि थे। रीतिमुक्त धारा के सभी कवि प्रेम की स्वस्थ भूमि पर सृदढ़ रूप में खड़े थे।

प्रेम के पकिल गढ़े में लेवाड़ मारनेवाले कवि वे नहीं थे। लियोग-श्रृंगार के प्रति इस धारा के कवियों में विशेष रुझान देखी जाती है। उनपर फारसी कवियों के ऐकांतिक प्रेम का प्रभाव है। कृष्ण-लीला के प्रति उनमें समान प्रवृत्ति देखी जाती है। सबकी रचनाएँ मुक्तक में हैं। सबकी प्रवृत्ति आलंकारिक है। सबने ब्रजभाषा को अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम चुना है। दोहा, सवैया और कवित्त उनके प्रिय छंद हैं। रीतिकाल को ‘श्रृंगारकाल’ भी कहते हैं। इस दृष्टि से श्रृंगारकालीन काव्य की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ हैं-

(क) श्रृंगारिकता-इस काल के सभी कवियों की प्रवृत्ति शृंगारिक है। इनके काव्य में श्रृंगार के संयोग और वियोग-दोनों रूप अपनी समस्त सूक्ष्मताओं और चेष्टाओं के साथ देखने में आते हैं। इस काल के कवियों ने एक साथ मिलकर शृंगार की ऐसी उच्चकोटिक कविताएँ की कि पाठकों को श्रृंगार के रसराजत्व में पक्का विश्वास हो गया।

(ख) अलंकारप्रियता-इस काल के कवियों की एक और सामान्य प्रवृत्ति अलंकारप्रियता है। उक्ति-चमत्कार और एक-एक दोहे को अधिकाधिक अलंकारमय बनाने में इस काल के कवियों ने काफी पसीना बहाया। इस काल के कवियों की कविता में आलंकारिक महत्त्व-विषयक सामान्य धारणा को केशव के इस दोहे से समझा जा सकता है-

जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस कवित्त।
भूषण बिनु न बिराजई कविता बनिता मित्त॥

(ग) भक्ति और नीति की ओर प्रवृत्ति-घोर शृंगारिक कविताओं की रचना के बावजूद इस काल के कवि सामान्यतः भक्ति और नीति की ओर झुके हुए थे, भले ही उनकी भक्ति के पीछे खुलकर खेलने की प्रवृत्ति क्यों न रही हो।

(घ) मुक्तक शैली-इस काल के कवियों की कविता की सामान्य शैली मुक्तकों की थी। इस काल के प्रायः सब-के-सब प्रधान कवि दराबरी थे। दरबार के लिए मृक्तकों की शैली ही अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त होती है।

(3) कवित्व के साथ आचार्यत्व-उस युग में श्रेष्ठ कवि उसी को माना जाता था जो कवि-शिक्षा का आचार्य हो। इसलिए, तत्कालीन सहृदयों के सम्मान को अर्जित करने के लिए प्रत्येक कवि-कवि और आचार्य दोनों का-दुहरा भार ढोता था।

(च) प्रकृति की उद्दीपनात्मक उपयोग-इस काल के कवियों की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि सबने प्रकृति के उद्दीपनात्मक रूप का चित्रण किया है, आलंबनात्मक रूप का नहीं।

(छ) ब्रजभाषा काव्य का माध्यम-इस काल के कवियों ने सामान्यतः ब्रजभाषा का प्रयोग किया है।

इस काल के कवियों की काव्य-भाषा-विषयक सामान्य प्रवृत्ति के संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है कि भाषा के प्रयोग में इस काल के कवियों ने एक खास तरह की नाजुकमिजाजी, मधुरता और मसृणता दिखाई है।

प्रश्न 8.
आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। अथवा, आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
उत्तर-
आधुनिक काल (1900 ई० से अब तक) के साहित्य की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं जो उसके पूर्ववर्ती रीतिकालीन साहित्य से उसे अलग कर देती हैं। वे विशेषताएँ आधुनिक काल की प्रायः सभी प्रतिनिधि रचनाओं में सामान्यतः पाई जाती हैं। अतः, निम्नलिखित विशेषताओं को हम आधुनिक काल की सामान्य प्रवृत्तियों के रूप में देख सकते हैं-

(क) पद्य के साथ-साथ गद्य का अपेक्षाकृत विपुल प्रयोग-पद्य के साथ गद्य के अपेक्षाकृत व्यापक प्रयोग को हम आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्ति कह सकते हैं। रीतिकाल तक प्रेस का उदय नहीं हुआ था। फलतः, उस काल में गद्य का वैसा प्रसार न हो सका जैसा प्रेस की स्थापना के बाद आधुनिक काल में हुआ। इस काल में गद्य की विविध विधाओं में लेखन और उसका उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है।

(ख) ब्रजभाषा से मुक्ति-आधुनिक काल में साहित्य के सर्वमान्य माध्यम के रूप में खड़ी बोली हिन्दी को अपनाया गया। इसका प्रयोग अपेक्षाकृत सर्वाधिक व्यापक रूप में शुरू हुआ।

(ग) राष्ट्रीय भावना का उत्थान-आधुनिक काल में एक समग्र राष्ट्रीय भावना का जो रूप दिखाई पड़ा वह इस काल के पूर्व के किसी काल के साहित्य में नहीं दिखाई पड़ा था। हमारे स्वातंत्र्य संघर्ष की अवधि में खड़ी बोली हिन्दी ही राष्ट्रीस स्तर पर विचार-विनिमय का माध्यम बनी।

(घ) युग-बोध-आधुनिक काल की एक सामान्य विशेषता युग-बोध की है। धीरे-धीरे आदर्श और कल्पना के लोक को छोड़कर आधुनिक साहित्य यथार्थ की भूमि पर खड़ा होने लगा। इसलिए, युग-बोध और यथार्थ-बोध इसकी सामान्य प्रवृत्ति है।

(ङ) श्रृंगार-भावना में परिवर्तन-इस काल में प्रेमकाव्य तो लिखे गए, किन्तु नारी को विलासिता का साधन नहीं, बल्कि श्रद्धास्वरूपपिणी माना गया अर्थात् उसकी हैसियत ऊँची हुई।

(च) पाश्चात्य प्रभाव और वादों का प्राधान्य-विज्ञान के प्रभाव में आकर दुनिया सिमट गई। इसलिए, पाश्चात्य विचारों से हमारा साहित्य भी आन्दोलित होने लगा और उसमें विचार और शैली के विविध प्रकार या वाद दिखाई पड़ने लगे। पाश्चात्य साहित्य से प्रभाव-ग्रहण उसकी सामान्य प्रवृत्ति हो गई।

(छ) लोक-साहित्य की ओर उन्मुखता-आधुनिक साहित्य में सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति दिखाई पड़ने लगी कि इस काल के कवियों ने लोक-छंदों को यथावत् और उनके परिष्कृत रूपों को अपनी काव्य-साधना में स्थान देना प्रारंभ किया।

(ज) प्रकृति-चित्रण-आधुनिक काल में प्रकृति का केवल उद्दीपनात्मक रूप ही नहीं बल्कि उसके व्यापक रूप को चित्रित किया गया। देशभक्ति-विषयक साहित्य की उच्चस्तरीयता का निर्धारक प्रकृति का चित्रण का हो गया।

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