औद्योगिकरण का युग | The Age of industrialization 



औद्योगिक क्रान्ति से पहले

● औद्योगीकरण को अकसर हम कारखानों के विकास के साथ ही जोड़कर देखते हैं। किन्तु इंग्लैण्ड और यूरोप में फैक्ट्रियों की
से भी पहले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता
था। बहुत सारे इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को आदि-औद्योगीकरण (Proto industrialisation) का नाम देते हैं।
● आदि-औद्योगिक व्यवस्था व्यावसायिक आदान-प्रदान के नेटवर्क का हिस्सा थी। इस पर सौदागरों का नियन्त्रण था और चीजों का
उत्पादन कारखानों की बजाए घरों में होता था। उत्पादन के प्रत्येक चरण में प्रत्येक सौदागर 20-25 मजदूरों से काम करवाता था।
इसका मतलब यह था कि कपड़ों के हर सौदागर के पास सैकड़ों मजदूर काम करते थे।
● इस व्यवस्था से शहरों और गाँवों के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित हुआ। सौदागर रहते तो शहरों में थे लेकिन उनके लिए
काम ज्यादातर देहात में चलता था।

कारखानों का उदय

● इंग्लैण्ड में सबसे पहले सन् 1730 के दशक में कारखाने खुले लेकिन उनकी संख्या में तेजी से इजाफा अठारहवीं सदी के आखिर
में ही हुआ।
● कपास (कॉटन) नये युग का पहला प्रतीक थी। उन्नीसवीं सदी के आखिर में कपास के उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई। सन् 1760 में
ब्रिटेन अपने कपास उद्योग की जरूरतों को पूरा करने के लिए 25 लाख पौण्ड कच्चे कपास का आयात करता था। सन् 1787 में यह
आयात बढ़कर 220 लाख पौण्ड तक पहुँच गया।
● अठारहवीं सदी में कई ऐसे आविष्कार हुए जिन्होंने उत्पादन प्रक्रिया (कार्डिंग, ऐंठना व कताई और लपेटने) के हर चरण की
कुशलता बढ़ा दी।
● उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में कारखाने इंग्लैण्ड के भूदृश्य का
अभिन्न अंग बन गए थे। 

औद्योगिक परिवर्तन की रफ्तार

● तेजी से बढ़ता हुआ कपास उद्योग सन् 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था। इसके बाद लोहा और स्टील उद्योग आगे निकल गए। सन् 1840 के दशक से इंग्लैण्ड में और सन् 1860 के दशक से उसके उपनिवेशों में रेलवे का विस्तार होने लगा था। फलस्वरूप लोहे और स्टील की जरूरत तेजी से बढ़ी। सन् 1873 तक ब्रिटेन के लोहा और स्टील निर्यात का मूल्य लगभग 7.7 करोड़ पौण्ड हो गया था। यह राशि इंग्लैण्ड के
कपास निर्यात के मूल्य से दोगुनी थी।

हाथ का श्रम और वाष्प शक्ति

● विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग-कुलीन और पूँजीपति वर्ग-हाथों से बनी चीजों को तरजीह देते थे। हाथ से बनी चीजों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फिनिश अच्छी होती थी। उनको एक-एक करके बनाया जाता था। उनका डिजाइन भी अच्छा होता था।
● बाजार में श्रम की बहुतायत से मजदूरों की जिन्दगी भी प्रभावित हुई। कारखानों में काम करने वाले मजदूरों को बहुत कम वेतन दिया जाता था। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में वेतन में कुछ सुधार आया।
● बेरोजगारी की आशंका के कारण मजदूर नई प्रौद्योगिकी से चिढ़ते थे। जब ऊन उद्योग में स्पिनिंग जेनी मशीन का इस्तेमाल शुरू किया
गया तो हाथ से ऊन कातने वाली औरतें इस तरह की मशीनों पर हमला करने लगीं। जेनी के इस्तेमाल पर यह टकराव लम्बे समय तक चलता रहा।
● सन् 1840 के दशक के बाद शहरों में निर्माण की गतिविधियाँ तेजी से बढ़ीं। लोगों के लिए नये रोजगार पैदा हुए। सड़कों को चौड़ा किया गया, नये रेलवे स्टेशन बने, रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया, सुरंगें बनाई गई, निकासी और सीवर व्यवस्था बिछाई गई, नदियों के तटबन्ध बनाए गए। परिवहन उद्योग में काम करने वालों की संख्या सन् 1840 के दशक में दोगुना और अगले 30 सालों में एक बार फिर दोगुना हो गई।

उपनिवेशों में औद्योगीकरण

● मशीन उद्योगों के युग से पहले अन्तर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का ही दबदबा रहता था। बाद के वर्षों में यह स्थिति नहीं रही। अंग्रेजों की नीतियों के कारण भारतीय कपड़ा उद्योग धीरे-धीरे समाप्ति की कगार पर पहुँच गया।
● जब इंग्लैण्ड में कपास उद्योग विकसित हुआ तो वहाँ के उद्योगपति दूसरे देशों से आने वाले आयात को लेकर परेशान दिखाई देने लगे।
उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करे जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्धा के
बिना इंग्लैण्ड में आराम से बिक सके। दूसरी तरफ उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय
बाजारों में भी बेचे। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटेन के वस्त्र उत्पादों के निर्यात में नाटकीय वृद्धि हुई। अठारहवीं सदी के आखिर में
भारत में उत्पादों का न के बराबर निर्यात होता था। सन् 1850 तक आते-आते सूती कपड़ों का आयात 31% हो चुका था। सन् 1870 तक
यह आँकड़ा 50% से ऊपर चला गया।

फैक्ट्रियों का आना

● बम्बई में पहली कपड़ा मिल सन् 1854 में लगी और दो साल बाद उसमें उत्पादन होने लगा। सन् 1862 तक वहाँ ऐसी चार मिलें काम
कर रही थीं। उनमें 94000 तकलियाँ और 2150 करघे थे। उसी समय बंगाल में जूट मिलें खुलने लगीं।
● बंगाल में देश की पहली जूट मिल सन् 1855 में और दूसरी 7 साल बाद सन् 1862 में चालू हुई।
● उत्तरी भारत में एल्गिन मिल सन् 1860 के दशक में कानपुर में खुली।
● सन् 1861 में अहमदाबाद की पहली कपड़ा मिल भी चालू हो गई।
● सन् 1874 में मद्रास में भी पहली कताई और बुनाई मिल खुल गई।

प्रारम्भिक उद्यमी

●  देश के विभिन्न भागों में तरह-तरह के लोग उद्योग लगा रहे थे।
● बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने चीन के साथ व्यापार में खूब पैसा कमाया और वे उद्योगों में निवेश करने लगे। सन् 1830-1840 के दशकों में उन्होंने 6 संयुक्त उद्यम कम्पनियाँ लगा ली थीं। सन् 1840 के दशक में आए व्यापक व्यावसायिक संकटों में औरों के साथ-साथ टैगोर के उद्यम भी बैठ गए। लेकिन उन्नीसवीं सदी में चीन के साथ व्यापार करने वाले बहुत सारे व्यवसायी सफल उद्योगपति भी साबित
हुए।
● बम्बई में डिन शॉ पेटिट और आगे चलकर देश में विशाल औद्योगिक साम्राज्य स्थापित करने वाले जमशेद जी नुसरवान जी टाटा जैसे
पारसियों ने आंशिक रूप से चीन को निर्यात करके और आंशिक रूप से इंग्लैण्ड को कच्ची कपास निर्यात करके पैसा कमा लिया था।
● सन् 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाड़ी व्यवसायी सेठ हुकुमचन्द ने भी चीन के साथ व्यापार किया  था। यही काम प्रसिद्ध उद्योगपति जी डी बिड़ला के पिता और दादा ने किया।
● पहले विश्वयुद्ध तक यूरोपीय प्रबन्धकीय एजेन्सियाँ भारतीय उद्योगों के विशाल क्षेत्र का नियन्त्रण करती थीं। इनमें बर्ड हीगलर्स एण्ड कम्पनी, एण्ड्रयू यूल और जॉर्डीन स्किनर एण्ड कम्पनी थीं। ये एजेन्सियाँ पूँजी जुटाती थीं, संयुक्त उद्यम कम्पनियाँ लगाती थीं उनका प्रबन्धन संभालती थीं। ज्यादातर मामलों में भारतीय वित्तपोषक (फाइनेंसर) पूँजी उपलव्य कराते थे जबकि निवेश और व्यवसाय से सम्बन्धित फैसले
यूरोपीय एजेन्सियाँ लेती थीं।
● यूरोपीय व्यापारियों-उद्योगपतियों के अपने वाणिज्यिक परिसंघ थे जिनमें भारतीय व्यवसायियों को शामिल नहीं किया जाता था।

मजदूर कहाँ से आए?

● कारखानों में काम करने के लिए आस-पास के देहाती इलाकों से मजदूर आते थे।
● बम्बई के कारखानों में काम करने के लिए महाराष्ट्र के विभिन्न देहाती इलाकों से मजदूरों का पलायन बम्बई की ओर हुआ।
● कलकत्ता के कारखानों में काम करने के लिए बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश से ग्रामीणों का पलायन शहर की ओर हुआ।

औद्योगिक विकास का अनूठापन

● बीसवीं सदी के पहले दशक तक भारत में औद्योगीकरण का ढर्रा कई बदलावों की चपेट में आ चुका था। स्वदेशी आन्दोलन को गति मिलने से राष्ट्रवादियों ने लोगों को विदेशी कपड़े के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया।
● औद्योगिक समूह अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए संगठित हो गए और उन्होंने आयात शुल्क बढ़ाने तथा अन्य रियायतें देने के लिए सरकार पर दबाव डाला।
●  सन् 1906 के बाद चीन भेजे जाने वाले भारतीय धागे के निर्यात में भी कमी आने लगी थी। चीनी बाजारों में चीन और जापान की मिलों के उत्पाद छा गए थे। फलस्वरूप, भारत के उद्योगपति धागे की बजाए कपड़ा बनाने लगे।
● सन् 1900 से सन् 1912 के भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया।

लघु उद्योगों की बहुतायत

● हालांकि के बाद फैक्ट्री उद्योगों में लगातार इजाफा हुआ लेकिन अर्थव्यवस्था में विशाल उद्योगों का हिस्सा बहुत छोटा था। उनमें से ज्यादातर सन् 1911 से 67% बंगाल और बम्बई में स्थित थे। बाकी पूरे देश में छोटे स्तर के उत्पादन का ही दबदबा रहा।

वस्तुओं के लिए बाजार

● औद्योगीकरण की शुरुआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में और एक नई उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई।
● जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़े के बण्डलों पर लेबल लगाते थे। लेबल का फायदा यह होता था कि खरीदारों को कम्पनी का नाम व उत्पादन की जगह पता चल जाती थी। लेबल ही चीजों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था। जब किसी लेबल पर मोटे अक्षरों में 'मेड इन मैनचेस्टर' लिखा दिखाई देता तो खरीदारों को कपड़ा खरीदने में किसी तरह का डर नहीं रहता था।
● लेबलों पर सिर्फ शब्द और अक्षर ही नहीं होते थे। उन पर तस्वीरें भी बनी होती थीं जो अक्सर बहुत सुन्दर होती थीं। इन लेबलों पर भारतीय देवी-देवताओं की तस्वीरें प्रायः होती थीं। देवी-देवताओं की तस्वीर के बहाने निर्माता ये दिखाने की कोशिश करते थे कि ईश्वर भी चाहता है कि लोग उस चीज को खरीदें। कृष्ण या सरस्वती की तस्वीरों का फायदा ये होता था कि विदेशों में बनी चीज भी भारतीयों को जानी-पहचानी सी लगती थी।
●  उन्नीसवीं सदी के आखिर में निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के लिए कैलेण्डर छपवाने लगे थे। अखबारों और पत्रिकाओं को तो पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते थे लेकिन कैलेण्डर उनको भी समझ में आ जाते थे जो पढ़ नहीं सकते थे। चाय की दुकानों, दफ्तरों व मध्यमवर्गीय घरों में ये कैलेण्डर लटके रहते थे। जो इन कैलेण्डरों को लगाते थे वे विज्ञापन को भी हर रोज, पूरे साल देखते थे। इन कैलेण्डरों में भी नये उत्पादों को बेचने के लिए देवताओं की तस्वीर होती थी।
● जब भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए तो उनमें राष्ट्रवादी सन्देश साफ दिखाई देता था।

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